O आलेख
(दिनेश
कुशवाह की कविताओं का एक पाठ)
O
शंभु गुप्त
पिछली सदी के अंतिम दशक में उभरे और स्थापित
हुए वरिष्ठ कवि दिनेश कुशवाह के दो कविता-संग्रह अब तक प्रकाशित हुए हैं-
1. इसी
काया में मोक्ष (प्रथम संस्करण : 2007)
2. इतिहास
में अभागे (प्रथम संस्करण : 2017)
इन दोनों संग्रहों के छपने में पूरे
दस साल का अंतराल है और इनमें कुल 101 कविताएँ हैं;
जो कि उनके लंबे चालीस-साला लेखकीय जीवन को देखते हुए अल्प उत्पादन ही माना जाएगा
क्योंकि यहाँ तो ऐसे-ऐसे कवि भी पाए जाते हैं,
जो न केवल प्रतिदिन कविता लिखते हैं,
बल्कि दिन में दो-दो तीन-तीन कविताएँ भी लिख मारते हैं! दिनेश कुशवाह के शब्दों
में कहा जाए तो ऐसे कवियों को ‘बड़बोले’
कवि कहा जा सकता है, जो देश-काल से परे
अपने ही आलाप में फँसे न जाने क्या-क्या अनाप-शनाप उगलते रहते हैं-
गाँव
की पंचायत में
देश
की पंचायत के किस्से सुनाते
देशकाल
से परे बड़बोले
दूर की कौड़ी ले आते हैं।
(इतिहास
में अभागे; राजकमल
प्रकाशन,
नई
दिल्ली; पहला
संस्करण ; 2017; पृष्ठ-117)।
कहा जाए, तो कहा जा
सकता है कि दिनेश कुशवाह बड़बोलेपन से कोसों दूर हैं और देश-काल से परे कभी नहीं
जाते। वे गाँव की पंचायत में गाँव के ही क़िस्से सुनाने में विश्वास रखते हैं। गाँव
के क़िस्से गाँव की पंचायत में सुनाना कोई आसान और सहज बात नहीं है। गाँव की पंचायत
में गाँव की बात करना दरअसल एक मनःस्थिति और वैचारिक प्रक्रिया-यात्रा है; कि हमें
अपने आस-पास का यथार्थ तो दिखायी नहीं पड़ता; जबकि हम
ईरान-तूरान के दुःख-दर्द और दास्तानें आये दिन सुनते-सुनाते रहते हैं। मसलन, हम
फिलिस्तीन, लेबनान, ईराक़, अफ्रीक़ा, लैटिन
अमेरिका इत्यादि देशों की सामान्य जनता पर होते अत्याचारों, उत्पीड़न, अन्याय
इत्यादि के वाक़ये तो ख़ूब कहते-सुनते, इन पर बहस-विमर्श
करते,कविताएँ-कहानियाँ-रिपोर्ताज-संस्मरण
लिखते,प्रस्ताव
पारित करते रहते हैं। लेकिन हमें अपने देश के;अपने बिलकुल
बगल के ; घर के , मुहल्ले-शहर
व गाँव के दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक-स्त्री आदि हाशिये के समाजों के लोगों का
उत्पीड़न, इनके साथ
होने वाला भेद-भाव, दमन,
अन्याय-अत्याचार इत्यादि नहीं दिखायी देता; दिखायी भी
देता है तो बहुत चलताऊ ढंग से हम उसे निपटाते चलते हैं! सदियों से इन समाजों के साथ
जो होता आया है, वह जैसे
हमारी आदत और सांस्कारिकता का स्वाभाविक हिस्सा बन गया है। इन समाजों का सबसे बड़ा
अभिशाप यह रहा कि इन्हें समाज की मुख्यधारा में शामिल ही नहीं किया गया। देश या
राष्ट्र के निर्माण में इन लोगों का योगदान सबसे ज़्यादा रहा है, फिर भी इस
निर्माण के इतिहास से किंवा उसके श्रेय से ये पूरी तरह से बहिष्कृत रहे हैं। इस
बहिष्करण के जाति, वर्ग और जेंडर; ये तीनों ही
प्रमुखतम आधार रहे हैं। यानी कि, वे जातियाँ; जो तथाकथित
रूप से सवर्ण-वर्चस्व के पदानुक्रम में निचले पायदानों पर थीं; जैसे कि, शूद्र, अछूत;
पिछड़े-अतिपिछड़े आदि। वर्ग के अन्तर्गत; आर्थिक आधार पर कथित
निचले पायदानों पर स्थित सर्वहारा वर्ग/मज़दूर-श्रमिक वर्ग व निम्न मध्यवर्ग आदि।
जेंडर के आधार पर कथित फ़र्स्ट सेक्स के बाद आने वाले सेकंड सेक्स यानी कि
स्त्री-जाति व इसके बाद थर्ड सेक्स के रूप में पहचाने जाने वाले किन्नर-समुदाय के
लोग व उसके बाद और दूसरी उपश्रेणियाँ आदि-आदि। सर्वोच्च स्थान पर केवल वे, जो कथित तौर
पर उच्च सवर्ण जातियों से जुड़े पुरुष थे; जो कि कुल जनसंख्या
के औसतन दस प्रतिशत से भी कम थे। अन्य व नितांत स्पष्ट शब्दों में कहें तो
ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों से जुड़े पुरुष! यह तो अपने देश भारत की कहानी है।
लेकिन वस्तुतः यह कास्ट-क्लास-जेंडर प्रसूत उच्चावच पदानुक्रम पूरी दुनिया की
मनुष्य-जाति का कड़वा सच है। पूरब हो या पच्छिम; सारी दुनिया
में कास्ट, क्लास व
जेंडर के आधार पर कथित तौर पर निचले तबक़ों का इतिहास के निर्माण, प्रक्रिया व
परिणति से इकतरफ़ा निष्कासन मनुष्य-सभ्यता का सबसे शर्मनाक सच है। और, इससे भी
शर्मनाक सच यह है कि दुनिया-भर के उच्चभ्रू व अशराफ़ लोग- इनमें कवि व लेखक भी
शामिल हैं- इस निष्कासन का नोटिस नहीं लेते! जैसा कि हमने कहा, दुनिया-भर
का यथार्थ तो हमें दिखायी दे जाता है; नहीं दिखायी देता तो
अपने इर्द-गिर्द और आस-पड़ोस की वह बजबजाती सड़ाँध की दुनिया, जो दिया-तले
अँधेरे की तरह हर समय मौज़ूद तो रहती है, मगर हमें दिखायी
नहीं देती। वास्तव में ऐसा भी नहीं है कि यह हमें कभी दिखायी ही न दे; बाक़ायदा और
हर समय यह हमारे रू ब रू रहती है; यह हमारी ही फ़ितरत है कि हम इसे हर समय
नज़रअंदाज़ किए रहते हैं। हम वास्तविक यथार्थ की जगह अपने मनगढ़ंत और काल्पनिक यथार्थ
की दुनिया में ही डुबकी लगाते रहने के आदी हो रहते हैं! कृष्णा सोबती ने अपने एक
आलोचनात्मक संस्मरण ‘निर्मल वर्मा’में एकदम
अन्त में लिखा है- “दुपहर निर्मल के साथ गुजार हम नीचे उतरे। दो-चार कदम आगे उठाए
होंगे कि फिर पलट लिए। सोचा निर्मल से यह तो कहते जाएँ कि प्यारे दोस्त, शाम भले
कन्सर्ट पर जाओ, बीथोविन
सुनो, रविशंकर, अली अकबर
खाँ- मगर जो तुम्हारी गली में थूथनी उठाए सूअर घूम रहे हैं उन्हें भी तो देखो। कुछ
गौर करो। तुम्हारी लाजवाब कलम से कोई यथार्थ तो उभरे। कोई एक यथार्थ। ज़िन्दगी से
ज़िन्दगी तक जुड़ा हुआ।” (कृष्णा सोबती; सोबती एक सोहबत; राजकमल
प्रकाशन,नई दिल्ली; पहला
संस्करण :1989; दूसरी
आवृत्ति : 2007; पृष्ठ-224)।
निर्मल वर्मा यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण हैं। थूथनी उठाए घूमते सूअर भी एक उदाहरण ही
है। ये किसी के प्रतीक या पर्याय नहीं हैं। तात्पर्य यहाँ हमारा सिर्फ़ यह है कि एक
लेखक के सबसे नज़दीक जो यथार्थ होता है- चाहे वह कितना भी बड़ा सम्भ्रान्त व पॉश
इलाक़े का निवासी क्यों न हो- वह ऐसा ही बजबजाता और हैरतअंगेज़ हाशिये का
यथार्थ होता है। दिनेश कुशवाह की तीखी और पैनी नज़र सबसे पहले इसी हाशिये के यथार्थ
पर जाती है और अन्दर से अन्दर जाकर अदृश्य तथ्यों और सच्चाईयों को उभारकर सामने ले
आती है। ये तथ्य और सच्चाइयाँ अदृश्य हैं या थे नहीं; अपितु
अदृश्य इन तथ्यों और सच्चाईयों को पूरी एक रणनीति व षड्यंत्र के तहत किया गया था
और है किअपना अचुनौतीपूर्ण/एकच्छत्र वर्चस्व क़ायम रहा आए और क़ायम रहता चला जाए!
जैसे कि इतिहास में जो कुछ उल्लेखनीय है, उस पर बड़े ही
योजनाबद्ध तरीक़े से उन लोगों व जमातों ने क़ब्ज़ा किया हुआ है, जो जाति, वर्ग व
जेंडर के हिसाब से अपेक्षाकृत कथित ऊँची पायदानों पर थे यानी कि समृद्ध व
सम्भ्रान्त उच्चवर्गीय व उच्च जातीय सवर्ण पुरुष-समुदाय! इतिहास के समस्तमुक़ामों
और मोड़ों पर इन्हीं लोगों का प्रभुत्व व्याप्त है। यह वस्तुतः इतिहास की सबाल्टर्न
अभिव्याख्या है, जो पिछली
शताब्दी के उत्तरार्द्ध के बौद्धिक विमर्श की एक विशिष्ट पहचान रही है। उन्हीं
दिनों एक और मुहावरा चालू हुआ था- ‘इतिहास का अन्त’। इस मुहावरे
की बहुत-सारी व्याख्या-अपव्याख्याएँ की गईं। लेकिन एक श्रेष्ठ व्याख्या इसकी यह भी
थी कि हमारे लिए इस इतिहास का अन्त एक शुभ संकेत है। एक ऐसे इतिहास का हम क्या
करें, जो हमारी ही
अवमानना और अवहेलना करता है, हमें ही नीचा दिखाता है, हमें हमारा
समुचित व अपेक्षित दाय नहीं देता; इत्यादि-इत्यादि। इतिहास के अन्त की यह एक
सबाल्टर्न अभिव्याख्या है, जो दुनिया-भर के अपने-अपने इलाक़ों के हाशिये
के समाजों की तरफ़ से उनके प्रतिनिधि बुद्धिजीवियों ने की। दिनेश कुशवाह अपनी लगभग
सारी ही कविताओं में इस वैचारिकी से गहरे उत्प्रेरित हैं। उनके दोनों संग्रह इस
अन्तर्दृष्टि का संवहन करते देखे जा सकते है; विशेषतः ‘इतिहास में
अभागे’ संग्रह तो
जैसे इसी विचार-दृष्टि के तहत तैयार किया गया है।लेकिन यहाँ कोई सायासता दिखायी
नहीं देती बल्कि एक बेचैनी और विकलता ही ओर-पोर व्याप्त दिखायी देती है कि लगता है
कि कवि स्वयं हाशिये के इस व्यापक समाज का हिस्सा है और व्यक्तिगत तौर पर उसने भी
वह सारा दंश झेला है,जो इस समाज के अन्य सारे लोगों ने झेला है!
स्पष्ट ही, एक कवि के
तौर पर दिनेश कुशवाह यहाँकलात्मक वस्तुपरकता के साथ-साथ कलात्मक संलग्नता के
सिद्धान्त पर अमल करते दिखाई देते हैं। कलात्मक वस्तुपरकता अथच कलात्मक संलग्नता
का अर्थ यहाँ किंचित भिन्न स्थापित होता प्रतीत होता है। टी एस इलियट और क्रिस्टोफ़र
कॉडवेल दोनों यहाँ एकत्र देखे जा सकते हैं। कलात्मक वस्तुपरकता तो वस्तुतः यही है
कि जैसा कि दिनेश कुशवाह ने लिखा है कि-
जिनके
ख़ून से
लिखा
गया इतिहास
जो
श्रीमंतों के हथियों के पैरों तले
कुचल
दिए गए
जिनके
चीत्कार में
डूब
गया हाथियों का चिंघाड़ना।
(इतिहास
में अभागे; राजकमल
प्रकाशन,
नई
दिल्ली; पहला
संस्करण ; 2017; पृष्ठ-11)।
या यह कि-
वे
अभागे कहीं नहीं हैं इतिहास में
जिनके
पसीने से जोड़ी गई
भव्य
प्राचीरों की एक-एक ईंट
x x x
सारे
महायुद्धों के आयुध
जिनकी
हड्डियों से बने
वे
अभागे
कहीं
भी नहीं हैं इतिहास में।
(वही)।
जाति, वर्ग व
जेंडर के आधार पर जिन पर भयावह अत्याचार किए गए, जिन्हें
नितांत अमानवीय स्थितियों में जीने को विवश किया गया व अन्ततः इतिहास से एकदम
निष्कासित कर दिया गया; ऐसे तबक़ों को यह छोटी-सी कविता बहुत शिद्दत
और बेचैनी के साथ रेखांकित करती है। कैसी उलटबाँसी है कि जिन लोगों ने इतिहास
बनाया, इतिहास के
इस स्वरूप का निर्माण जिनके चलते हुआ; वही इतिहास के
कर्ता-धर्ता इतिहास की मुख्यधारा से निष्कासित हैं! इन्हें नींव की ईंट (रामवृक्ष
बेनीपुरी) कहना इनकी मौलिकता और योगदान कोन केवल नज़रअंदाज़ व अपमानित करना है बल्कि
समय के साथ भी बेअदबी करना है कि जिसने कुछ किया नहीं, उसे सारा
श्रेय दे देना और जिसने सब-कुछ किया, उसे पूरी तरह निकाल
बाहर करना! और सिर्फ़ इतना ही नहीं; अहम्मन्य सत्तासीन शक्ति-पुरुषों ने जो
अनाचार किया, जो अत्याचार
किए, जो मनुष्यता
के साथ बदगुमानियाँ और बदफ़ैलियाँ कीं; उन्हें नज़रअंदाज़ वकमतर
कर दृश्य से ओझल कर देना; यह भी इस कथित इतिहास की हरामजदगियों में से
एक है। दिनेश कुशवाह यहाँ इस रहस्य से पर्दा उठाते हैं कि इन लोगों ने दलितों व
उनके बच्चों के साथ क्या किया; स्त्रियों के साथ क्या किया! इन लोगों के इन
कृत्यों को मुख्यधारा का कथित इतिहास या तो ध्यान में नहीं लाता, उनका
प्रलेखन नहीं करता और अगर इक्का-दुक्का कहीं करता भी है तो कुछ इस तरह करता है कि
लगता है, ऐसा करके
इन्होंने इन लोगों पर उपकार ही किया; जबकि वस्तुस्थिति यह
थी कि यह इनके अमानवीकरण की हद थी! कवि लिखता है-
इतिहास
के नाम पर मुझे
याद
आते हैं वे अभागे बच्चे
जो
पाठशालाओं में पढ़ने गए
और
इस जुर्म में
टाँग
दिए गए भालों की नोक पर।
इतिहास
के नाम पर मुझे
याद
आती हैं वे अभागी बच्चियाँ
जो
राजे-रजवाड़ों के धायघरों में पाली गईं
और
जिनकी कोख को कूड़ेदान बना दिया गया।
इतिहास
के नाम पर मुझे
याद
आती हैं वे अभागी
घसियारिन
तरुणियाँ
जिनसे
राजकुमारों ने किया प्रेम
और
बाद में उनके सिर के बाल
किसी
तालाब में सेवार की भाँति तैरते मिले।
इतिहास
नायकों का भरण-पोषण
करने
वाले
इनके
अभागे पिताओं के नाम पर नहीं रखा गया
हमारे
देश का नाम भारतवर्ष।
हमारी
बहुएँ और बेटियाँ
जिन्हें
अपनी पहली सुहागिन-रात
किसी
राजा-सामन्त
या
मन्दिर के पुजारी के
साथ
बितानी पड़ी
इस
धरती को
उनके
लिए नहीं कहते भारत माता।
(वही; पृष्ठ-
12-13)।
यह है हमारा मुख्यधारा का कथित इतिहास, जहाँ जाति, वर्ग और
जेंडर के आधार पर ऐसा अमानवीय विभेद लोगों के साथ किया गया! क्या यह निष्पक्ष, निरपेक्ष और
वस्तुपरक इतिहास है? एकदम ही नहीं। कवि दिनेश कुशवाह यहाँ अपनी
सबाल्टर्न इतिहास-दृष्टि के मार्फ़त उस अभिजनवादी इतिहास और उसके मूल में निहित
अभिजन-सापेक्ष इतिहास-दृष्टि की पूरी की पूरी क़लई खोलकर रख देते हैं कि किस तरह
उसने मनुष्य-सभ्यता का एक ग़लत ख़ाका प्रस्तुत किया!
इन दोनों संग्रहों में कवि दिनेश
कुशवाह की सबाल्टर्न यथार्थ व इतिहास-दृष्टि आद्यन्त अंतर्व्याप्त दिखाई देती है। इसी
संग्रह में आगे एक और कविता देखे जाने योग्य है- ‘बहेलियों को
नायक बना दिया’। उचित ही
इसे कवि ने कथाकार शिवमूर्ति को समर्पित किया है। यह कविता कई मानों में कुछ नये
मानक व मन्तव्य प्रतिपादित करती है। इतिहास और समय के प्रति पूर्वाग्रही दृष्टि और
अभिजन-वर्ग/वर्ण के प्रति पक्षपात इस कविता का एक विशिष्ट निहितार्थ है। कवि यहाँ
कथित आदि-श्लोक ‘मा निषाद प्रतिष्ठांxxx’ इत्यादि को
सन्दर्भ में लेता है और अपनी विदग्ध कथन-प्रणाली व काव्य-रचना-सक्षमता के तहत एक
तरफ़ इस आदि-श्लोक से कविता की उत्पत्ति की अवधारणा को चुनौती देता है और दूसरी तरफ़
उस चली आती अभिजन-व्यवस्था की पोल खोलता नज़र आता है, जो एक
मनगढ़न्त धारणा पर टिकी परम्परा में जारी है कि बहेलिये हमेशा अप्रतिष्ठा प्राप्त
करते हैं; उनकी निन्दा
होती है, उन्हें सब
भला-बुरा कहते हैं; इत्यादि-इत्यादि; जबकि असल
हक़ीक़त यह है कि इस व्यवस्था में बहेलियों की क़तई निन्दा नहीं होती, उनकी
प्रतिष्ठा को कोई आँच नहीं आती, वे सर्वत्र समादृत ही होते देखे जाते हैं! यह
इस अभिजन-व्यवस्था की प्रवृत्ति है, जो इस कथित आदिकवि की इस धारणा के विपरीत है, जो उसने उस
क्रोञ्च का वध करने वाले बहेलिये को लगभग शाप देने की तरह कही थी कि तुम कभी भी
प्रशंसा/प्रतिष्ठा/यश प्राप्त नहीं करोगे…! कवि दिनेश कुशवाह इस छोटी-सी कविता में
सविवरण साफ़-साफ़ कहते हैं कि यह सिर्फ़ एक खामखयाली है कि बहेलियों को यहाँ कोई सज़ा
मिलती है! यहाँ बहुत पहले से बहुत-सारे लोग ऐसे रहे हैं जो खुले-आम
लोगों/प्राणियों हत्या करते जाते हैं, लेकिन आज तक उनका
कुछ नहीं बिगड़ा! ये हत्यारे दरअसल उस अभिजन-वर्ग से जुड़े हैं, जिनकी यह
व्यवस्था है और जो ख़ुद इसके कर्णधार हैं। ये सारे हत्यारे स्वयं व्यवस्था के एक
अपरिहार्य हिस्से हैं। इन्हें भला कौन दंडित कर सकता है! हद तो यह है कि स्वयं परम
पिता परमात्मा भी नहीं; क्योंकि वह भी तो वस्तुतः इन्हीं से मिला हुआ
है और इन्हें संरक्षण दिए हुए है! कवि लिखता है-
जिन्होंने
डगर-डगर, खेत-खलिहान
हर
लिए कितनों के प्राण
जो
घूम-घूम करते हैं
क्रोंचमादाओं
का शिकार
वे
एक हाथ में शस्त्र
और
दूसरे हाथ में शाप लिये हैं
बपुरे
निषाद और शबर तो
उनके
चरणदास हैं।
(वही; पृष्ठ-14)।
यहाँ कवि का जेंडर-बोध देखा जा सकता
है, जहाँ वह
लक्ष्य करता है कि ये लोग क्रोञ्च नर का नहीं, क्रोञ्च
मादा के शिकार की फ़िराक़ में लगे होते हैं!औरतें इनके लिए सिर्फ़ एक शिकार की वस्तु
हैं! आख़िर कौन हैं ये स्थायी शिकारी?इनमें निर्विवाद रूप
से पहले स्थान पर स्वयं राजा है और दूसरे स्थान पर ब्राह्मण; जो एक हाथ
में शस्त्र और दूसरे में शाप लिए है; जैसा कि ऊपर हमने
देखा! यानी कि जाति-व्यवस्था के अन्तर्गत जो सबसे ऊँचे पायदान पर हैं, यानी कि
ब्राह्मण और क्षत्रिय। ब्राह्मण और क्षत्रिय पुरुष! कवि कहता है कि स्वयं ईश्वर भी
इनसे किसी को नहीं बचा सकता था; क्योंकि वह दरअसल उन्हीं के साथ था! यह बीते
हुए समय की बात कही जा सकती है, लेकिन वास्तविकता यह है कि यह प्रथा आज भी
ज्यों की त्यों जारी है। सत्ता आज भी ऐसे शिकारियों को पूरा-पूरा संरक्षण देती है।
कवि लिखता है-
ईश्वर
सबसे बड़ा बहेलिया है
और
दिन-हीनों को सताकर
मारने
वाले उसके कृपापात्र।
क्षमा
करें आदिकवि!
आजतक
एक भी बहेलिया
नहीं
हुआ अप्रतिष्ठित।
शिकारी
राजा को अक्सर ऋषि
शाप
नहीं देते
राजा
हैं, जंगल हैं
राजा
और जंगल दोनों हैं
इसलिए
अजगर हैं।
x x x
क्षमा
करें आदिकवि!
आपसे
अच्छा कौन जानेगा
उन
लोगों के बारे में
जो
शिकार को
खेलना
कहते हैं।
(वही; पृष्ठ-
14-15)।
ऋषि शिकारी राजा को शाप नहीं देते; सिर्फ़ निषाद
जैसे श्रमिक जातियों से जुड़े लोगों को देते हैं। निषाद जैसे लोगों के लिए शिकार
आजीविका का साधन है, न कि कोई शौकिया खेल; जिसके मूल
में हिंसा का आनन्द है; जैसा कि राजा-लोग उठाते हैं! कविता संकेत
करती है कि भारतीय राज्य-व्यवस्था में शासक-वर्ग के लोग न केवल पशु-पक्षियों का
शिकार करते हैं/थे; अपितु अपने से कथित रूप से छोटी जातियों- जो
कि प्रधानतः श्रमशील जातियाँ थीं- के स्त्री-पुरुषों का ‘शिकार’ भी करते थे।
शासक-वर्ग का यह ‘शगल’ कितना अमानवीय, अनैतिक व
अश्लील था, इसे गत
पृष्ठों में उद्धृत इस कवितांश से समझा जा सकता है, जिसमें कहा
गया है कि एक समय था, जब यहाँ यह एक भारी शर्मनाक प्रथा जारी थी कि
इन जातियों की बहुओं और बेटियों कोविवाह के पश्चात् पहली रात/सुहाग रात अपने पति
के स्थान पर गाँव/इलाक़े के राजा-सामन्त अथवा मन्दिर के पुजारी के साथ गुज़ारनी पड़ती
थी, उसके बाद ही
वह अपने पति के पास जा पाती थी! शायद दुनिया-भर में कहीं भी मुश्किल ही ऐसी प्रथा
देखी गयी होगी कि नवविवाहिता स्त्री को पहले किसी और की हवस का शिकार होना होता था
और उसके बाद वह अपने घर जा पाती थी! कैसा निकृष्ट और अश्लील इतिहास रहा है, इस देश का!
यह आदेश केवल उन तबक़ों के समाजों के लिए था, जो समाज में
सबसे निचली पायदान पर थे; विशेषतः शूद्र और अछूत। यों तो ये लोग इनके
लिए अछूत और नीच थे, लेकिन औरतों के मामले में यह बात लागू नहीं
करते थे; यही इन कथित
उच्चभ्रू तबक़ों के लोगों की निकृष्ट अश्लील मानसिकता और अमानवीय उपभोगवाद का सबसे
बड़ा प्रमाण है।
ईश्वर सर्वशक्तिमान है। ईश्वर के
सन्दर्भ जगह-जगह पर इन कविताओं में आते हैं। ईश्वर का सीधा-सीधा अर्थ है-
धर्म-व्यवस्था! या कहें कि ब्राह्मण-व्यवस्था! जिस विगत समय का इतिहास दिनेश
कुशवाह की इन कविताओं में दर्ज़ दिखाई देता है, वह समय
वास्तव में वह समय है, जब धर्म की व्यवस्थाएँ ही समाज की सबसे अधिक
मान्य और व्यावहारिक व्यवस्थाएँ थीं; जिनका उल्लंघन ईश्वर
का ही उल्लंघन माना जाता था। इस प्रकार ईश्वर की व्यवस्था प्रकारान्तर से ब्राह्मण
या पुरोहित की ही व्यवस्था थी। ब्राह्मणों व पुरोहितों ने ईश्वर के नाम पर अपने
एकान्त हित में यह सारी व्यवस्था निर्मित की। ईश्वर के प्रतिनिधि से आगे बढ़ते हुए
धीरे-धीरे वे ख़ुद ईश्वर हो गए थे। यहाँ ईश्वर इसी ब्राह्मण-पुरोहितवादी व्यवस्था
के पर्याय के बतौर आयत्त हुआ है। यह तो हमारे यहाँ की बात है। बाहर के देशों में
इस्लाम व ईसाइयत के प्रतिनिधि लगभग ऐसा ही आचरण करते देखे जाते हैं। ये प्रतिनिधि
पूरी तरह उन वर्गों व तबक़ों से जुड़े हुए हैं, जिन्हें
ऐलीट/सम्भ्रान्त/अशराफ़ इत्यादि कहा जाता है। स्पष्ट है कि जिसे हम ईश्वर या अल्लाह
या इसी तरह की किसी और की व्यवस्था कहते हैं; वह वास्तव
में इन्हीं धर्माचार्यों, ऐलीट, सम्भ्रान्त, अशराफ़ लोगों
की व्यवस्था होती थी, जो अपनी तत्व-प्रकृति में ही बहुजन-विरोधी व
अभिजनकेन्द्री होती थी! इनकी सारी व्यवस्थाएँ, सारे फ़ैसले, सारा न्याय
अभिजनों के पक्ष में होता था; हालांकि दिखाई कुछ ऐसा देता था कि जैसे उनकी
न्याय-व्यवस्था कितनी जनोन्मुखवादी है! लेकिन वास्तव में होती वह अभिजनोन्मुखवादी
ही थी! दिनेश कुशवाह ने अपनी अनेकानेक कविताओं में इस कथित ईश्वरवादी व्यवस्था की
क़लई खोली है; ईश्वर
वास्तव में उन लोगों के साथ होता है, जो किसी न किसी रूप
में अनैतिक, अनाचारी, अत्याचारी व
अहम्मन्य इत्यादि होते हैं। जैसे कि ‘ईश्वर के पीछे’ शीर्षक
कविता में एक स्थान पर कवि लिखता है-
ईश्वर
की सबसे बड़ी खामी यह है कि
वह
समर्थ लोगों का कुछ भी नहीं बिगाड़ पाता
समान
रूप से सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान
प्रभु
प्रेम से प्रकट होता है
पर
घिनौने बलात्कारियों के आड़े नहीं आता
अपनी
झूठी कसमें खाने वालों को
लूला-लँगड़ा-अंधा
नहीं बनाता
आदिकाल
से अपने नाम पर
ऊँच-नीच
बनाकर रखने वालों को
सन्मति
नहीं देता
नेताओं
की तरह
उसके
आस-पास
धूर्त, छली और
पाखंडी लोगों की भीड़ जमा है।
यह
अपार समुद्र
जिसकी
कृपा का बिन्दु मात्र है
उस
दयासागर की असीम कृपा से
मजे
में हैं सारे अत्याचारी
दीनानाथ
की दुनिया में
कीड़े-मकोड़ों
की तरह
जी
रहे हैं गरीब।
(वही; पृष्ठ-28)।
ऐसे ईश्वर का कोई क्या करे? ध्यान रहे, ईश्वर
प्रकारान्तर से यहाँ उस अभिजनोन्मुख ब्राह्मण-व्यवस्था के प्रतीक-पर्याय के बतौर
लाया गया है। इसीलिए यहाँ बम्बईया फ़िल्मों और मंचीय कविताओं की तरह भाववाद की
स्थिति नहीं पैदा होती बल्कि एक समझ और तर्क-बुद्धि पैदा होती है कि इस कथित ईश्वर
के भरोसे क़तई मत रहो! ईश्वर का तो यहाँ केवल नाम और मोहर है; वास्तविक
दस्तख़त तो किसी और के हैं! ईश्वर के बारे में काल्पनिक और मनगढ़न्त ही सही, जो धारणाएँ
पनपायी गयी हैं, वे काफ़ी उदात्त
और मानवीय हैं। लेकिन ईश्वर का नाम लेकर जो यह गोरखधंधा चल रहा है, वह नितांत
अमानवीय और क्रूर है। दरअसल ईश्वर की पूरी अवधारणा ही एक घनघोर अन्यथाकरण का
उदाहरण है। ईश्वर के बतौर जो कुछ उदात्त और मानवीय प्रकल्पित किया गया है, वह वस्तुतः
इस अभिजनवादी ब्राह्मण-व्यवस्था के काले पक्ष को ढँकने के काम आने वाला एक कुटिल व
क्रूर हालाँकि उजला आवरण ही है; कुछ और नहीं। क्योंकि कुछ और होता और सचमुच
में चाहे ईश्वर का इस तरह का उदात्त और मानवीय प्ररूप होता, तो इस तरह
उसे आवरण नहीं बनाया जा सकता था! ईश्वर की कथित उदात्तता व मानवीयता सिर्फ़ एक
वायवी अवयव है इसलिए उसका कहीं भी, कैसा भी स्तेमाल किया जा सकता है। इस मामले
में यह अभिजनवादी ब्राह्मण-व्यवस्था बहुत दक्ष व कुशल है। अतः फिर यह बात साफ़ होती
है कि ईश्वर के नाम पर अपना स्वयं का ही खेल यह व्यवस्था चलाती रहती है। लोग ईश्वर
की मर्ज़ी जानकर भरमाए बने रहते हैं, जबकि वास्तव में होती इनकी ही कारस्तानियाँ
हैं, वे सब! कवि
इसी कविता में फिर लिखता है-
यह
कौन-सी खिचड़ी पकाते हो दयानिधान?
चित्त
भी मेरी और पट्ट भी मेरी
तुम्हारे
न्याय में देर नहीं, अंधेर ही अंधेर है कृपासिन्धु।
ईश्वर
के पीछे मजा मार रही है
झूठों
की एक लम्बी जमात
एक
सनातन व्यवसाय है
ईश्वर का कारोबार।
(वही; पृष्ठ-29)।
इसलिए इस तथ्य का खुलासा ज़रूरी है कि
ईश्वर वस्तुतः कहीं व कुछ है ही नहीं। यह एक सबसे बड़ा विभ्रम है, जिसे ख़ुद
मनुष्य ने अपने लिए रचा है। लेकिन जब यह स्पष्ट है कि ईश्वर के नाम पर कौन लोग इस
व्यवस्था पर क़ाबिज़ हैं; तो यह बात भी साफ़ हो जाती है कि
सत्ता/व्यवस्था में बैठे ये लोग तुम्हारी फ़िक्र नहीं करेंगे, ये लोग केवल
अपना फ़ायदा देखते हैं; अपना योगक्षेम तुम्हें ख़ुद देखना होगा! ईश्वर
एक भुरभुरी दीवार से ज़्यादा कुछ नहीं। इस व्यवस्था का कोई भरोसा नहीं, इसलिए अपना
भविष्य ख़ुद अपने हाथ में रखो! कवि लिखता है-
महाविलास
और भुखमरी के कगार पर
एक
ही साथ खड़ी दुनिया में
आज
भले न हो कोई नीत्से
यह
कहने का समय आ गया है कि
आदमी
अपना ख़याल ख़ुद रखे।
(वही)।
दिनेश कुशवाह की ईश्वर सम्बन्धी ये
कविताएँ आज भी बहुत अधिक प्रासंगिक हैं। इन दिनों ‘सनातन’ का डंका
बजाया जा रहा है। हमने देखा कि दिनेश कुशवाह अपने एक कवितांश में ‘सनातन’ शब्द का
स्तेमाल करते हैं- ‘एक सनातन व्यवसाय है/ईश्वर का कारोबार’। मुझे यहाँ
यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि दरअसल लम्बे समय से चली आती लगभग स्थायी हो चुकी
अभिजनवादी ब्राह्मण-व्यवस्था ही ‘सनातन’ का पर्याय
है। उसी की पुनर्स्थापना अथच पुनरुत्थान की पुरज़ोर यहाँ तक कि ऑटोक्रेटिक व
तानाशाह क़िस्म की कोशिशें आज कथित राजनीतिक से लेकर
धार्मिक-सामाजिक-जातिवादी-स्वयंसेवी संगठन कर रहे हैं। तत्ववाद अपने चरम पर है और
जनतान्त्रिकताएँ चारों तरफ़ ध्वस्त हैं। अपने राजनीतिक अथच साम्प्रदायिक/तत्ववादी
इस्तेमाल में लाते-लाते ईश्वर को इन्होंने लगभग डरावना ही बना दिया है। कवि अपनी ‘भयसेना’ शीर्षक
कविता के अन्त में लिखता है-
भयों
की अट्ठारह अक्षोहिणी सेना
हमारे
पीछे पड़ी है
इधर
कुछ दिनों से
हमारा
भगवान भी उनमें से एक हो गया है।
(वही; पृष्ठ-72)।
ईश्वर के नाम पर चले आते इस कथित ‘सनातन’ का कुल
लब्बोलुआब ही यह है कि सारे संसाधनों, सुविधाओं, प्राप्तियों
इत्यादि पर सिर्फ़ तुम्हारा हक़ हो और बाक़ी लोग- विशेषतः हम बहुजन लोग- इनसे एकदम
दूर भगा दिए जाएँ! तुम्हारा यह कथित ईश्वर तुम्हारा अंधपक्षपाती या कहें कि
कठपुतली है! ऐसा ईश्वर भला हमारे किस काम का? अपनी ‘ईश्वर को कौन
बनाएगा?’ कविता के
अन्तिम परिच्छेद में कवि लिखता है-
यह
वही ईश्वर है
जो
तुम्हें मालपुआ खिलाता है
तुम्हारे
गर्भगृहों को सोने से भर देता है
और
हम उसके द्वार पेर अछूत और अकिंचन
बनकर
खड़े रहते हैं।
(वही; पृष्ठ-100)।
‘सनातन’ की बात और
भी कविताओं में दिनेश कुशवाह ने की है। जैसे उनकी एक कविता है- ‘चुल्लू भर
पानी का सनातन प्रश्न’। इस कविता में वे सनातन को जन-विरोधी व
विवेकहीनता का पर्याय घोषित करते देखे जा सकते हैं। यह कथित सनातन लौकिक व
व्यावहारिक प्रश्नों व समस्याओं से भागता है और निरर्थक जीवनेतर संदर्भों में
भटकता व भटकाता रहता है। यह श्रम व श्रमजीवियों का विरोधी है। कवि दिनेश कुशवाह का
कहना है कि दुनिया को गूढ़ व जटिल प्रश्नों से नहीं समझा जा सकता; उसे समझने
के लिए अपेक्षाकृत सरल और व्यावहारिक व लोक-प्रचलित प्रश्न ही पर्याप्त हैं; क्योंकि
दरअसल यही सरल व लोक-प्रचलित प्रश्न हमारे बृहत्तर जन-समुदाय के व्यावहारिक जीवन
से असल ताल्लुक़ रखते हैं। लेकिन सवाल यहाँ एक यह भी है कि क्या सचमुच एक कवि के
रूप में आप इस बृहत्तर सामान्यजन से गहरे नाभिनालबद्ध हैं?कहा जा सकता
है कि दिनेश कुशवाह की कविता की जन्म-भूमि ये सरल प्रश्न ही हैं। वे इस सामान्य जन
के साथ लगभग एकमेक हैं। कवि लिखता है-
यहाँ
‘अहं
ब्रह्मास्मि’ या ‘तत्वमसि’
कहने
से काम नहीं चलेगा
कई
बार छुद्र प्रश्नों में
सभ्यताएँ
छिपी होती हैं।
x x x
पानी
तो आजकल हर जगह बिकता है
पर
क्यों नहीं मिलता चुल्लू भर पानी?
कई
बार सरल प्रश्नों से
दर्शनों
का जन्म होता है।
बड़ी-बड़ी
बातें करने के आदी हम लोग
छोटे
लोगों और छोटी बातों पर
ध्यान
नहीं देते
दुनिया
को समझने के लिए
उलझे
रहते हैं सनातन प्रश्नों में।
जैसे
मैं कौन हूँ? या
क्या
प्रेम ईश्वर की तरह
अगम,अगोचर और
अनिर्वचनीय है?
हम
ग़ौर नहीं करते कि
कई
बार सनातन प्रश्नों में
सनातन
मूर्खताएँ छिपी होती हैं।
(वही; पृष्ठ-19)।
कहना न होगा कि इधर जो यह कथित सनातन एक
बार फिर नये सिरे से उभरकर सामने आ रहा है, वह वस्तुतः हमारे
यहाँ गहरे से गहरे पैठी जाति-व्यवस्था, सवर्ण पुरुषवाद,
अभिजनवाद/पूंजीवाद इत्यादि का ही संगुत्थ व संश्लिष्ट पुनराविष्कार है। जातिवाद, पुरुषवाद व
अभिजनवाद के पुनराविष्कार की यह प्रक्रिया पिछले लंबे समय से जारी है। अब तो यह
लगभग पुनर्स्थापित हो आयी है। जैसे कि अगर हम जाति-व्यवस्था के बारे में बात करें
तो आज से लगभग दस साल पहले दिनेश कुशवाह ने ‘इतिहास में
अभागे’ की
टैगलाइन-सी लिखते हुए यह पूरी सोच-समझ और आगे आने वाले समय के प्रामाणिक अनुमान के
साथ लिखा था कि-
एक
बात जान लो
आँच
साँच पर ही आती है
झूठ
का कुछ नहीं बिगड़ता
और
जाति है सहस्राब्दियों का सबसे बड़ा झूठ
जो
सच से बड़ा हो गया है
(वही; पृष्ठ-10)।
ये पंक्तियाँ वस्तुतः उनकी लम्बी
कविता ‘आज भी खुला
है, अपना घर
फूँकने का विकल्प’ में निबद्ध हैं, जिसमें
आज़ादी के बाद से लेकर अब तक के हमारे यहाँ के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक
व अन्य तरह के लगभग समूचे ही परिदृश्य को ऐतिहासिक विकास-क्रम और उसकी बहुविध
परिणतियों के हवालों के साथ प्रस्तुत किया गया है। यहाँ कवि विचारमूलक
अभिधात्मक-इतिवृत्तात्मक उल्लेखपरक काव्य-शिल्प में निकट अतीत का एक मोटा-मोटा; लेकिन
अतिप्रमुख संदर्भों को आयत्त करते हुए; लेखा-जोखा प्रस्तुत
करता है। समय के इस पूरे विकास-क्रम में जाति किस प्रकार एक केंद्रीय अभिक्रम बनता
चला गया; कवि इसका
ऐतिहासिक ख़ाका पेश करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह कविता आज़ादी की
स्वर्ण-जयन्ती के आसपास लिखी गयी थी; बल्कि कहा जाए तो; उस समय से
शुरू होकर अगले दस-पन्द्रह साल तक के समय को आत्मगत करती हुई आगे बढ़ती है। इस
कविता में एक स्थान पर कवि लिखता है कि वंशवाद,
गुंडागीरी/माफियागिरी, पूँजी और जातिवाद की गाज हमारे इस पचाससाला
लोकतन्त्र पर कोढ़ में खाज की तरह गिरी है; जिसका कोई
इलाज़ फ़िलहाल दिखाई नहीं देता; सिवाय इसके कि, हम कबीरके
रास्ते चलते हुए लुकाठी हाथ में लिए चल निकलें और अपना ही घर फूँक डालने की क़ूवत
हमारे पास हो! अन्याय की चक्की में छटपटाते हुए पिसते चलने से तो ज़्यादा बेहतर यही
है कि हम अब कुछ कर गुज़रने पर आमादा हो आएँ! कवि लिखता है-
कुहासा
घना है आज भी
चक्की
में पिस रहे लोग छटपटाते हैं
पर
अपनी लुकाठी लेकर चलने
और
अपना घर फूँकने का विकल्प
आज
भी खुला है।
(वही; पृष्ठ-62)।
जैसा कि कहा गया,कवि दिनेश
कुशवाह इस कविता में भारत के पचाससाला जनतन्त्र की जनतान्त्रिक वस्तुगतता का आकलन
करते हैं। यह आकलन पर्याप्त तुर्श अंदाज़ में है। कवि जैसे एक ज़माने में भारीसंभावनाशील
भारतीय लोकतन्त्र की इस शर्मनाक परिणति और अनिर्दिष्ट विकास-क्रम को देखकर भौंचक
है और गहरे अफ़सोस में है कि अरे! यह क्या हुआ!! ऐसा तो क़तई हमने सोचा ही नहीं
था!!! लेकिन कवि इस कविता में जैसे सिलसिलेवार सोचने का एक क्रम चलाता है और
इतिहास की सबाल्टर्न संपरीक्षा प्रस्तुत करता है। भारत के सारे नेहरूवादियों को एक
तरफ़ रखते हुए दिनेश कुशवाह हमारे यहाँ राजनीतिक व सामाजिकार्थिक मुख्यधारा मेंनेहरू-काल
से लेकर अब तक किस तरह ब्राह्मण व ब्राह्मणवाद का बोलबाला व बाक़ी लोगों; जैसे
वामपंथी, समाजवादी, दलित, पिछड़े
राजनीतिदाँओं का उसके साथ समायोजन व सहकार रहा; का बेधड़क
साफ़-साफ़ बयान अपनी इस कविता में एक जगह करते हैं। वे कहते हैं कि नेहरू खानदान का
राज प्रकारान्तर से ब्राह्मणराज ही रहा है; दलित-पिछड़े
वर्गों के नेता इससे समायोजन करते रहे हैं और अपनी रोटियाँ सेंकते रहे हैं! कवि
लिखता है-
यह
पंडित नेहरू का लोकतन्त्र है
और
पंडित राहुल गांधी का सुराज
जहाँ
देखो तो कम मजे में नहीं हैं मोदी
मुलायम, लालू परसाद
या रामविलास
समझे
कि नहीं समझे कुछ
यही
कि ‘अलख नहीं हैं
पिया’
जो
बोले सो निहाल।
(वही; पृष्ठ-60)।
भारतीय जनतन्त्र की दशा-दिशा को समझना
उतना मुश्किल भी नहीं है! आज़ादी के बाद से लेकर अब तक की इसकी गति और गतिकी को
देखा जाए तो स्वतः साफ़ होता जाएगा कि हम शुरू से ही इसी रास्ते पर तो चलना शुरू
किए थे! आज आज़ादी के पचास साल बाद हमारा जो यह लोकतन्त्र उसी पुराने वंशवादी
राजतन्त्र में तब्दील होता चला गया है और राजे-रजवाड़े ही लोकतन्त्र के पर्याय बन
लिए हैं, तो इससे बड़ा
प्रहसन भला और क्या हो सकता है? यह लोकतन्त्र की उल्टी चाल है, जो हमारे
यहाँ घटित हुई है-
अब
ठगिनी नैना झपकाती है तो
कालगर्ल
बना दी जाती है
राजतंत्र
में राजा का बेटा राजा होता था
लोकतंत्र
में नेता का बेटा नेता
मंत्री
का बेटा मंत्री
राजे-रजवाड़े
जननेता।
(वही; पृष्ठ-56)।
यह लोकतंत्र आगे चलकर एक
स्वस्थ-समृद्ध लोकतंत्र न रहे, इसकी व्यवस्था बहुत पहले ही यहाँ कर ली गई
थी। लोकतंत्र के शुरुआती दिनों से ही वंशवाद,गुंडागिरी/माफियागिरी, पूंजीवाद व
जातिवाद का जो चतुर्दिक् चतुष्कोणीय बीज-वपन हुआ, उसी के
ज़हरीले बरगद आज हर तरफ़ लहरा रहे हैं! आज पचास साल पूरा होते-होते इस लोकतंत्र का
लगभग ज़नाज़ा निकल चुका है और लोग जैसे एक अनन्त लंबी शोक-सभा में मुब्तिला हुए बैठे
हैं![द्रष्टव्य :
कुमार अंबुज की लंबी कविता ‘शोक सभा’; पहल- अंक
124;जनवरी,2021]।वंशवाद,
गुंडागर्दी/माफियागिरी, पूंजीवाद/कॉर्पोरेटवाद, जातिवाद; ये ऐसी
बीमारियाँ हैं, जो क्रॉनिक
हैं और इनका कोई उपचार नहीं है! यहाँ ‘जाति’ को विशेष
रूप से रेखांकित किए जाने की ज़रूरत है। जातिवाद एक ऐसा अस्त्र है, जो न्याय व
समानता के सारे मंसूबों पर पानी फेर देता है। कवि आगे लिखता है-
पचास
साल के लोकतंत्र पर गिरी है
वंशवाद, गुंडागिरी, पैसा और
जाति की गाज
कोढ़
में खाज की तरह कि
अंधे
बाँटते हैं रेवड़ी
और
चीन्ह-चीन्ह कर देते है।
(वही)
एक तरह से देखा जाए तो जाति, वर्ग और
जेंडर; हाशिये पर
पड़े समाजों के शोषण के ये ही तीन प्रमुख आधार हैं। हाशिये के समाजों के राजनीतिक व
सामाजिकार्थिक शोषण की जड़ें इन्हीं तीन कारकों में हैं। दिनेश कुशवाह इन तीनों पर
बराबर ध्यान देते हैं हालाँकि जाति और जेंडर पर उनका फ़ोकस अपेक्षाकृत ज़्यादा है; हालाँकि इनमें
भी जाति का सवाल उनकी निगाह में सबसे अहम है। उन्होंने कहा कि जाति सहस्राब्दियों
से बोला और बरता जाने वाला दुनिया का सबसे बड़ा झूठ है; जो अब सच से
भी बड़ा हो गया है! दिनेश कुशवाह साफ़ कहते हैं कि जाति को ‘राष्ट्रीय
शर्म’ घोषित किया
जाना चाहिए! यहीं वे अंबेडकर की उस धारणा को अग्रेषित करते हैं कि ‘जाति-प्रथा
को ख़त्म करने के लिए अंतरजातीय विवाह अत्यन्त आवश्यक है, क्योंकि यह
जातिगत भेदभाव को कम करने और सामाजिक एकता को बढ़ावा देने में मदद करता है।’ अंबेडकर की
दृष्टि में अंतरजातीय विवाह जाति-प्रथा को ख़त्म करने का सबसे प्राथमिक समाधान है। यह
रेखांकित किए जाने योग्य तथ्य है कि दिनेश कुशवाह नामज़द रूप से ऐसे उदाहरण
प्रस्तुत करते हैं, जो वैचारिक तौर पर जातिवाद के मुखर विरोधी और
अछूत व उपेक्षित/वंचित जाति-समुदायों के परम हितैषी व सहानुभूतिशील रहे हैं, लेकिन अफ़सोस
की बात रही कि ये महानुभाव केवल विचार के प्रतिपादक अथच प्रवक्ता रहे; इनके विचार
के साथ क्रिया का नितांत अभाव रहा; परिणाम यह हुआ कि विचार केवल छूँछे विचार रह
गए; वे आचरण की
कठोर ज़मीन पर न उतर पाए! पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी, नागार्जुन व
विश्वनाथ प्रताप के उदाहरण देते हुए कवि लिखता है-
मेरे
यहाँ आते हैं कभी-कभी
पंडित
हजारी प्रसाद, बाबा
नागार्जुन
ठाकुर
विश्वनाथ प्रताप
कहते
हैं करना कुछ चाहते थे हम भी
पर
नहीं कर सके बच्चों का विवाह
जाति
से बाहर।
(वही; पृष्ठ-59)।
यह चाहने पर भी कुछ न
कर पाने की मासूमियत यों ही नहीं है! इसके पीछे दरअसल पूरी एक तजवीज़ छुपी है। और
वह यह कि यह जाति एक बहुत ही फ़ायदे का सौदा है! हालाँकि हर-एक के लिए नहीं। जाति
फ़ायदे का सौदा उन्हीं के लिए है, जिन्होंने इसे बनाया/संरचित किया है। यानी कि
ब्राह्मण!क्षत्रिय यानी कि राजा ने इसमें सहयोग किया। इन दोनों ने मिलकर बाक़ी सारे
लोगों को ठिकाने लगा दिया। जब से यह जाति-व्यवस्था बनी है, तब से लेकर
अब तक ये ही दो लोग इस समाज के सिरमौर हैं! बाक़ी लोग हैं, लेकिन उनका
होना-न होना जैसा होता आया है, लगभग वैसा ही है; यत्किंच भी
परिवर्तन नहीं है; कोई कितना भी बड़ा तीसमारखाँ क्यों न हो, या बन जाए; रहना उसे
अपनी असल औक़ात में ही है! इस कथित ‘सनातन’ व्यवस्था
में कोई कुछ भी उलट-फेर नहीं कर सकता; यहाँ तक कि वामपंथी
भी इस मामले में इस व्यवस्था के पिछलग्गू ही रहे। कांग्रेस ने थोड़ी-बहुत कोशिश की, लेकिन उससे
कुछ बना नहीं, उल्टे स्थिति
और भी ज़्यादा ख़राब हो गयी! ये कुछ ठोस व समय-परीक्षित राजनीतिक सन्दर्भ हैं कि
हमारे यहाँ की लगभग सारी ही राजनीतिक पार्टियाँ दलितों के मामले में जहाँ की तहाँ
और जस की तस हैं!! इसी कविता में कवि एक जगह लिखता है-
जाति-धर्म-सत्ता
के जो थे सरताज
वही
हैं आज भी
कुशवाहा
जी कहाँ हैं आप?
जाइए-कामरेड
ज्योति बसु से पूछिए कि
उनके
मंत्रिमंडल में युगों तक
मंत्री
क्यों नहीं बना एक भी चर्मकार?
और
इन्दिरा-सोनिया से पूछिए कि
उनके
यहाँ बना भी तो
चमरौटी
का क्या बना दिया?
(वही; पृष्ठ-
58-59)।
जाति-धर्म-सत्ता के सरताज कौन थे व वे
सरताज कैसे बने; अपनी एक
कविता ‘विजयी कहे
हुए जो’ में इसका भी
खुलासा दिनेश कुशवाह करते हैं। वे लिखते हैं कि अपौरुषेयता, राजा ईश्वर
का प्रतिनिधि है, धर्म, बहुदेववाद, जातिवाद; ये सब चीजें
ब्राह्मणों ने बनाईं और शासक-वर्ग/क्षत्रिय ने उसका साथ दिया। क्षत्रिय/राजा का
साथ मिलते ही इन्होंने अपनी माया फैलानी शुरू की और एक ऐसा समाज रच दिया कि जिसमें
समस्त राजनीतिक व सामाजिकार्थिक शक्तियाँ व संसाधन व महत्ता ब्राह्मण-केन्द्री हो
आयीं। सबसे अधिक महत्व में नम्बर एक पर वे ख़ुद व दूसरे पर क्षत्रिय/राजा! बाक़ी
सारे लोग इनसे नीचे! इसमें सबसे अधिक अन्याय व भेदभाव सबसे निचले पायदान पर
अवस्थित किए गए शूद्रों, अछूतों, अंत्यजों के
साथ किया गया और उनके समस्त सामान्य मानवाधिकार; जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, आर्थिक
सम्पत्ति, अभिव्यक्ति
की स्वतन्त्रता,
रोज़गार/आजीविका, स्वतन्त्र
आवागमन, आदि-आदि; एकबारगी छीन
लिए गए। वे वंचितों की श्रेणी में आ गए। इस पूरे इतिहास और सामाजिक संरचना को
विस्तार और उदाहरण सहित समझने के लिए मुद्रारक्षस की बहुपठित किताब ‘धर्मग्रंथों
का पुनर्पाठ’ देखी जा
सकती है,जिसमें वेद, उपनिषद, पुराण,
स्मृति-ग्रंथ, महाभारत, गीता आदि की
अंतर्निहित ब्राह्मण-केंद्रिकता को बहुत ही तुर्श तरीक़े से संलक्षित किया गया है।
दिनेश कुशवाह अपनी कविताओं में भी लगभग यही करते हैं और बार-बार उनकी कविताएँ पढ़ते
हुए इस पुस्तक की याद आती चलती है। ‘विजयी कहाए हुए जो’ शीर्षक
कविता में वे लिखते हैं कि किस तरह आग, हवा, पानी
इत्यादि को देवत्व प्रदान करते हुए ब्राह्मणों ने उन्हें अपना ‘पालतू’ बना लिया और
बाक़ी सब लोगों को इनसे महरूम कर दिया! उन्होंने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर
एकाधिकार कर लिया और ख़ुद के लिए अमृत और दूसरों के लिए विष बाँटते रहे-
वे
आग से डरते थे, डरते थे
पानी से
उन्हें
घातक लगते थे प्रभंजन
उन्होंने
उन्हें देवता कहा
और
पालतू बना लिया।
यहाँ
तक कि उन्होंने
अपने
क़ब्ज़े में ले लिया
सारे
तीर्थों का पानी
फिर
लगाया कर
आग-हवा-पानी
पर
अन्न
से लेकर स्त्री धन तक
जिसे
दिए बिना आप
नहीं
घुस सकते देवताओं की नगरी में।
वे
शब्द से डरते थे
उन्होंने
उसे ब्रह्म कहकर
अपना
बना लिया
और
दूसरों की जीभ काटने लगे
यहाँ
तक कि अपने ही भाइयों के
मुँह
से छीन लिए शब्द
और
बना दिया उन्हें चापलूस
परजीवी, दयनीय और
घिघियाता हुआ।
वे
किताब से डरते थे
उन्होंने
किताब को आसमानी बना दिया
ताकि
दूसरे
किताब
पढ़कर भी ताकें आसमान।
वे
कर्म करने वालों से नहीं
फल
माँगने वालों से डरते थे
इसलिए
अमृत के बँटवारे में
दूसरों
को बाँटते रहे विष।
वे
राजा से डरते थे
यानी
कि जंगल के शेर से
उन्होंने
उसे ईश्वर कहा
और
पालतू बना लिया
तब
उन्होंने छोड़े
लोगों
पर अपने शिकारी कुत्ते
और
हुलस-हुलसकर
हँसता
रहा राजा।
सिर्फ़
भगवान से नहीं डरे वे।
हमारा
ज़रूर कुछ-न-कुछ
लगता
है भगवान
आज
भी मुस्कुराकर कहते हैं वे
एक
तानाशाह की तरह
भीतर
से डरे हुए।
(इसी
काया में मोक्ष; राजकमल
प्रकाशन,
नई
दिल्ली; दूसरा
संस्करण ; 2013;पृष्ठ-
61-62)।
इस पूरी कविता से प्रसंग थोड़ा लंबा
ज़रूर हुआ लेकिन यह भी एकदम साफ़ हुआ कि हमारे यहाँ के राजनीतिक व सामाजिकार्थिक
स्वरूप व उसके विकास-क्रम में ब्राह्मणों और क्षत्रियों की ऑटोक्रेटिक जुगलबंदी व
इस दुरभिसंधिपूर्ण जुगलबंदी में शेष सभी जाति-समूहों व समुदायों के निरस्तीकरण अथच
अपचयीकरण व अभिनिष्क्रमण की प्रक्रिया बेधड़क चली व पूर्ण हुई। इससे यह भी स्पष्ट
होता है कि मनुष्य-सभ्यता का पहला तानाशाह यदि कोई हुआ है, तो वह भारत
का ब्राह्मण है, जिसने एक
ऐसा आत्मकेंद्री व आत्मसर्वोच्चकारी विधान बनाया और ऐसा प्रावधान किया कि उसकी
इजाज़त के बिना परिन्दा भी पर नहीं मार सकता था! यह उनका बेहद ही जघन्यकारी काम था; जिसने जाति
की एक मनगढ़न्त धारणा बल्कि कहें कि एक वर्चस्वकारी वैचारिक षाड्यांत्रिकता के तहत
अपने ही समाज की एक विशाल जनसंख्या को गुमनामी और अधिकार-वंचना के अंतहीन अंधकार
में धकेल दिया! दिनेश कुशवाह एक पक्षधर कवि हैं, जो अपने
यथार्थ से तटस्थता के साथ नहीं, पूरी-पूरी संलग्नता से पेश आते हैं। अपनी इस
कविगत संलग्नता को बेधड़क अपनी कविता में भी वे अभिव्यक्त करते हैं; जैसे कि ‘बिछुड़े छंद
साथी से’ शीर्षक
कविता में अन्त में वे लिखते हैं-
तुमसे
मिलकर लगता है
कविता
कितनी आसान हो गई,
शब्द
हो गए अपने साथी
गीत-परी
कुर्बान हो गई।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-44)।
दिनेश कुशवाह ‘आज भी खुला
है, अपना घर
फूँकने का विकल्प’ में एक जगह लिखते हैं कि जाति को सरकार को ‘राष्ट्रीय
शर्म’ घोषित कर
देना चाहिए! आख़िर ऐसा क्यों है कि यही जाति कुछ लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ होने का
तमग़ा है तो कुछ लोगों के लिए कोई कोढ़ का दाग़! आख़िर इस जाति ने समाज में विभेद पैदा
करने के अलावा किया ही क्या है? इसीलिए संभवतः कवि कहता है कि जातिवाद हमारी
राष्ट्रीय शर्म है-
जाति
क्यों है कुछ लोगों के लिए सोने का तमग़ा
जिसे
वे सीने पर सजाए
छाती
फुलाए घूमते रहते हैं
और
जाति कुछ लोगों के लिए
क्यों
है सफेद कुष्ठ का दाग़
जिसे
वे हर घड़ी छिपाते फिरते हैं?
आख़िर
सरकार
क्यों
नहीं घोषित करती जाति को ‘राष्ट्रीय शर्म’
और
अन्तर्जातीय प्रेम विवाहों को ‘राष्ट्र-सम्मान’।
(वही; पृष्ठ-
59-60)।
आगे कवि सवाल उठाता है कि ऐसा हो कैसे
सकता था आख़िर! दरअसल सवर्णवादी किंवा ब्राह्मणवादी जो लोग थे, वे तो अपने
पक्ष और पारी को लगातार भारी मज़बूत करने में लगे थे, हर मोर्चे
पर ये लोग सन्नद्ध थे कि इनके हाथ की सत्ता कभी इनके हाथ से निकलने न पाये; ये इसके लिए
उल्टा-सीधा,
नैतिक-अनैतिक कुछ भी करने को हर समय तैयार रहते थे; लेकिन यही
बात उन लोगों में नहीं पायी जाती रही, जो राजनैतिक व
सामाजिक रूप से हाशिये के लोगों का, दलितों-वंचितों का, समस्त बहुजन
समाज का नेतृत्व कर रहे थे और जिनका अपने-अपने समाज पर बेहद ही व्यापक असर था और
जिनकी बात लोग हर हाल में मानते थे! कितने अफ़सोस की बात है कि ये सभी नेतृत्वकर्ता
लगातार दक्षिणपंथियों की गोद में खेल रहे थे, उनके हाथ की
कठपुतली बने हुए थे! कवि यहाँ फिर नामज़द रूप से इन लोगों का हवाला देता है;ये लोग अपने
लोगों को अनाथावस्था में छोड़ बड़े गर्व से संप्रदायवादियों के साथ गलबहियाँ डाले चल
रहे थे-
आप
तो हैं ‘वर्ग’ की कक्षा के
छात्र
वर्ण
की मनोहरता लक्ष्मण बंगारू के आक़ा
हिन्दू
सन्त बनिया सम्राट अशोक सिंहल से पूछिए
कि
अयोध्या में बन रहे राम मन्दिर का
कौन
होगा महंत?
किस
जाति का होगा पुजारी?
बताइए
न कल्याण सिंह जी
जी!
उमा भारती!
या
आप ही बाबू कांशीराम?
(वही; पृष्ठ-59)।
बहुजन-समाज में सबसे बुरे हालात में
अछूत लोग रहते हैं। दिनेश कुशवाह अपनी ‘कानपुर की एक मेहतर
बस्ती में रहने के दिन याद करते हुए’ में इनकी औसत से भी
काफी नीचे की जीवन-स्थितियों का ख़ाका खींचते हैं। ये कोई जीवन-स्थितियाँ नहीं, सीधे-सीधे
नरक है ही है! और ये लोग स्वेच्छा से नहीं, व्यवस्थागत
रूप से इस नरक में डाले गए हैं। कवि लिखता है-
रखा
गया इन्हें कुछ ऐसे
कि
उन्हें पता ही न चले
कि
वे किस नरक में रह रहे हैं।
कुम्भीपाक
का रौराव कुछ भी
नहीं
होगा इतना भयानक
जिस
नरक से यहाँ जूझते हैं लोग
माँ-बहन-बेटी-बीबी
के साथ।
सिर्फ़
इन्होंने देखा है
कैसी
होती है पीब-ख़ून-पेशाब और मैले की नदी।
x x x
एक
अंधे कुएँ में पड़े हैं ये लोग
प्राणलेवा
छटपटाहटों के साथ
सोये
बिना रात-दिन।
x x x
यहाँ
आरे से चीरे जाते हैं लोग
पेरे
जाते हैं कोल्हू में / यहाँ जीते हैं लोग
अपने
पेट में पचाते हुए
धरती
का हैजा।
(इसी काया में
मोक्ष; पृष्ठ-
36-37)।
दिनेश कुशवाह बेधड़क हिन्दू समाज के
वंचित व हाशियाकृत समुदायों की ओर से अपनी कविता में बोलते हैं। जैसा कि कहा गया, वे संभ्रांत
कवियों की तरह दूर बैठे के दुःख की तरह तटस्थ रहने और सुनी-सुनायी बात दोहराने व
सहानुभूति/समानुभूति जताते चलने के स्थान पर स्वानुभूति की प्रक्रिया के तहत
आत्मसात्करण का शिल्प अपनाते हुए रचनारत होते देखे जाते हैं। अपनी एक कविता ‘उस माँ की
कोख से जन्मे बिना’ में एक जगह लिखते हैं-
कि
एक बार उस माँ की कोख से जनमे बिना
कोई
भी कवि
नहीं
लिख सकता वैसी कविता।
(वही; पृष्ठ-66)।
यही स्वानुभूति यह आत्माभिज्ञान कराती
है कि किस तरहकौंच-कौंचकर न केवल एक आदमी को बल्कि पूरी क़ौम को
ही हाशिये की दोयम स्थितियों में पहुँचा दिया जाता है। कवि साँप के रूपक द्वारा
अपनी बात कहता है। यह ध्यान देने योग्य बात है कि एक रूपक या प्रतीक के बतौर ‘साँप’ शब्द का
स्तेमाल अमूमन दुष्ट प्रकृति के लोगों के लिए किया जाता है; लेकिन यहाँ
एक असहाय किंवा अभिशप्त व्यक्ति के वाचक के बतौर इसका व्यवहार किया गया है। यह आम
धारणा या कहें कि एक रूढ़ि है कि साँप नाम का जीव बहुत ही घातक और दुष्ट व नुकसान
पहुँचाने वाला होता है, जबकि हक़ीक़त यह है कि वह ख़ुद हर समय बहुत डरा
हुआ, आशंकित व
अकेला होता है; कोई उसकी
सहायता के लिए नहीं आता; हर आदमी उस पर हमलावर होता देखा जाता है; ठीक यही
स्थिति हिन्दू समाज में दलितों व वंचितों की है; हालाँकि
हक़ीक़त एक यह भी है कि उनकी रीढ़ बहुत मज़बूत और लम्बी है और उसका असल स्वत्व है। कवि
लिखता है-
साँप
जनता है
किस
तरह अभियोग लगाकर
बिलों
में छिपने के लिए मजबूर किया जाता है
नहीं
तो काटता तो हर प्राणी है
चींटी
हो या आदमी।
साँप
जानता है
इतिहास
के हाशिये पर
कैसे
चली जाती है कोई क़ौम?
कि
उसकी जाति पर
क्यों
बने हैं कुत्सित मुहावरे?
साँप
जानता है
कि
दुनिया में सिर्फ़ मुँह से नहीं लड़ा जा सकता
कि
वध के समय लोग
क्यों
कुचल देते हैं उसका सिर।
अपने
झपट्टों, दंशों और
फुफकारों के बावजूद
साँप
जानता है लम्बी रीढ़ की ज़िन्दगी का दुख।
(वही; पृष्ठ-
63-64)।
दलितों व वंचितों की रीढ़ बहुत मज़बूत
है;यह तथ्य यहाँ
विशेष रेखांकन योग्य है। इस मज़बूत रीढ़ के परिणामस्वरूप ही वहाँ से समय-समय पर
तीव्र विरोध के स्वर उठते व गूँजते रहते हैं। अपनी उक्त कविताओं के अगले क्रम में ‘एकलव्य की
तरफ़ से’ कविता में
कवि कहता है कि दलितों व वंचितों का संघर्ष बड़ा ही दुर्द्धर्ष है। यहाँ चित और पट
दोनों आततायियों के हाथ में हैं; इन लोगों के हाथ में सिवाय इसके कि ये लगातार
अपनी आवाज़ बुलन्द करते रहें; कोई और उपाय नहीं है! लेकिन यहाँ कवि दिनेश
कुशवाह शायद चूक रहे हैं कि इतिहास में लम्बे समय से दलित भारी संघर्षरत हैं और
समय-समय पर ब्राह्मणवादी जाति-व्यवस्था तथा अन्य अन्यायपूर्ण व्यवस्थाओं का पुरज़ोर
विरोध इन्होंने किया है और सफलता पाई है। ख़ास तौर पर महाराष्ट्र में। कई
शताब्दियों से दलित क्रान्तिकारी व विद्रोही विचारवेत्ता व आन्दोलनकारी
कार्यकर्तागण दलित-वर्गों में आत्मचेतना पैदा करने व संघर्ष-शक्ति उत्पन्न करने की
मुहिम चलाए देखे जा सकते हैं, जिसका बहुत ही व्यापक सकारात्मक प्रभाव
जनमानस पर पड़ा है। अब वह स्थिति नहीं रह गयी है, जो इस कविता
में कवि सामने लाता है कि- “ये गीता भी उन्हीं की है/गदा-गांडीव जिनके हैं/जो अपने
थे वे गूँगे थे/यही तो रोना-रोना है।”(वही; पृष्ठ- 65)।
अब न केवल दलित-वंचित वर्गों के लोग मुखर होकर बोल रहे हैं, बल्कि तीव्र
और गहरे आन्दोलन भी चलाए हुए हैं, जिनके आगे आततायियों व उनके गुर्गों को एकदम
झुकना पड़ता है। [उदाहरण के लिए 2 अप्रैल, 2018 का भारत बन्द
देखा जा सकता है।] इसलिए यह कहना पर्याप्त नहीं है और अधूरा ही सच है कि-
“तुम्हारा बोलना भी/इस सदी में तंत्र-टोना है।” (वही)। हालाँकि कवि अन्ततः यह कहने
को विवश होता है कि इन लोगों के पास इस समय एकमात्र विकल्प है- लड़ना! संघर्ष!!
संघर्ष से अब निज़ात नहीं!!! इस क्रम में वह पाश का उदाहरण लेता है। पाश के मार्फ़त
जैसे वह अपनी ही संघर्ष-चेतना की धार पर सान चढ़ाना चाह रहा होता है! इस क्रम की
अन्तिम कविता ‘पाश के लिए’ में कवि
लिखता है-
जैसे
टीसते घाव पर
बार-बार
जाता है हाथ
छिले
मसूढ़े पर
बार-बार
जाती है जीभ
वैसे
ही मन
तुम्हें
बार-बार छूना चाहता है।
x x x
सवाल
है
हम
ज़िन्दा कैसे हैं?
जवाब
तुम हो
‘हम लड़ेंगे
साथी’।
(इसी काया में
मोक्ष; पृष्ठ-67)।
OO
दिनेश
कुशवाह की रेंज बहुत व्यापक है। हर तरफ़ उनकी निगाह है। एक तरह से एक विश्व-दृष्टि
लाने की कोशिश लगातार वे अपनी कविता में करते हैं। अपनी सबाल्टर्न वैचारिकी के तहत
एक तरफ़ वे भारत के बहुजन/दलितों-वंचितों की बात उठाते हैं तो दूसरी तरफ़ रंग-भेद की
विश्व-राजनीति की तीखी ख़बर लेते हैं। ब्लैक दुनिया को अपनी तमाम योग्यता, सक्षमता व
अद्वितीयता के बावज़ूद गोरों द्वारा प्रशासित इस दुनिया में कितनी अवमानना, अवहेलना व प्रताड़ना
झेलनी पड़ती है; इसकी ओर
गहरा संकेत वे अपनी एक कविता ‘ओबामा के समय में बेली की याद’ शीर्षक
कविता में करते हैं। यह कविता हिन्दी के दलित आइकॉन ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित
की गई है। इस कविता का ओमप्रकाश वाल्मीकि को समर्पित करना दलित और ब्लैक की अभेदता
की ओर संकेत करना है; जैसा कि हम जानते हैं कि पूरब में जो दलित
हैं; पश्चिम में
वही ब्लैक हैं। हालाँकि इसके बावज़ूद भी एक बड़ा और ऐतिहासिक अंतर हिन्दू दलितों और
पाश्चात्य ब्लैक के बीच यह पाया जाता है कि पश्चिमी दुनिया में एक निर्द्धारित
मूल्य या श्रम या दण्ड या अन्य कोई वस्तु चुकता कर कालान्तर में अपने दासत्व से
मुक्ति पाई जा सकती है और ब्लैक ग़ुलाम अपने मालिक की तरह ही अपनी स्वतन्त्रता व
स्वतन्त्र अस्तित्व का अवसर या अनुभव उपलब्ध कर सकता है; जो अवसर या
अनुभव कि किसी भी स्थिति में हिन्दू दलित को नसीब नहीं होता। यहाँ यदि कोई एक बार
दलित कुल में जन्म ले ले,तो वह जीवन-पर्यन्त अपनी दलितगत ज़हालत से
मुक्ति नहीं पा सकता! दरअसल इसी अर्थ में ब्राह्मण द्वारा सृजित-संरचित
वर्ण-व्यवस्था दुनिया की सबसे निकृष्ट अमानवीय सामाजिक व्यवस्था है। एक जन्मना
दलित आजीवन यहाँ दलित ही रहता है। दलित के रूप में ही पैदा होता और मरता है! पश्चिम
में हालात हालाँकि काफी सुधरे हैं लेकिन फिर भी गोरों में निबद्ध श्रेष्ठता की
कुंठा अभी भी बक़ाया है। यहाँ दिनेश कुशवाह फिर जैसे ब्लैक लोगों की तरफ़ से बोलते
हैं। वे उन्हें ‘तुम’कहकर सम्बोधित करते
हैं, जो अपनत्व की
निशानी है। 1996 के अटलांटा ओलंपिक की 100 मीटर फर्राटा दौड़ जीतने वाले दोनोवान
बेली को उपलक्ष्य कर लिखी गई इस कविता में ब्लैक दुनिया के बुझे हुए मन लेकिन साथ
ही दुर्द्धर्ष संघर्षशीलता के कई चित्र उकेरे गए हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात कवि यह
कहता है कि जनतन्त्र और बराबरी और मानवाधिकार का सबसे बड़ा प्रवक्ता अमेरिका ख़ुद
अभी भी रंग-भेद के इस अन्याय की गिरफ़्त से मुक्त नहीं हो पाया है; ब्लैक
राष्ट्रपति बराक ओबामा अपने आठ साल के कार्य-काल में भी अपने देश को इस कलंक से
मुक्त नहीं करा पाए! यहाँ ओलम्पिक की श्वेतवादी राजनीति पर भी कटाक्ष है। 100 मीटर
दौड़ जीतने वाला ओलम्पियन दुनिया का सबसे तेज धावक माना जाता है। एक ब्लैक व्यक्ति
के लिए इस ख़िताब तक पहुँचना सचमुच अविश्वसनीय था। लेकिन दोनोवान बेली ने यह
करिश्मा कर दिखाया! यहाँ इस दौड़ को जीतने के बाद जो प्रतिक्रिया बेली ने दी, जिस तरह से
ख़ुशी से वह चिल्लाया; वह एक तरफ़ तो उसकी अकूत ख़ुशी का प्रतीक बनकर
उभरी लेकिन दूसरी तरफ़ उसकी यह चिल्लाहट ब्लैक दुनिया की अपराजेयता का निशान भी बन
गई! कवि की सफलता इस बात में है कि वह इस तरह अपनी कविता में हाशियाकृत समाजों को मनुष्य-सभ्यता
की केन्द्रीय मुख्यधारा में लाने की सबाल्टर्न कवायद में पूरे जी-जान से लगा है।
कवि लिखता है-
सन्
उन्नीस सौ छियानबे का साल
अटलांटा
ओलम्पिक में
सौ
मीटर की दौड़ जीतने के बाद
वहीं
ख़ुशी से चिल्लाने लगा
विश्व
का फर्राटा बादशाह दोनोवान बेली
कनाडा
के इस काले नौजवान को
ख़ुशी
में चिल्लाते देखकर
लगता
था इसके जबड़े अभी निकल आएँगे।
x x x
लगता
है तुम्हारा खुला मुँह
अभी
निगल लेगा सूरज को
हमारे
आदिवासी हनुमान की तरह।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-
25-26)।
ओलम्पिक की यह जीत तो ठीक है। यह
खिलाड़ी की अपनी मेहनत का परिणाम है। और, मेहनत का ठेका सिर्फ़
गोरों ने ही नहीं लिया हुआ है; काले लोग भी अपना ख़ून-पसीना बहाकर कुछ भी
हासिल कर सकते हैं। लेकिन फिर भी, तथ्य यह है कि इस खिलाड़ी की यह विजय उसकी
व्यक्तिगत विजय ही काही जाएगी; उसका कोई समूहगत प्रभाव नहीं पड़ने वाला। यानी
कि इस तरह की जीत एक उपलब्धि तो है, लेकिन रंग-भेद जैसी मानसिकता को तोड़ने में यह
ज़्यादा कारगर नहीं; क्योंकि ओलम्पिक ख़ुद एक गोरों की दुनिया की
माया है। उसमें पदक पाकर गोरों की दुनिया में सेंध तो लगाई जा सकती है, लेकिन गोरों
की दकियानूस मानसिकता नहीं बदली जा सकती। इसके लिए तो सब लोगों को मिलकर रंग-भेद
के खिलाफ़ लंबा ज़मीनी संघर्ष करना पड़ेगा! कवि यह भी कहता है कि ओलम्पिक के आकर्षण
से कालों को निज़ात पानी होगी! ओलम्पिक गोरी पूंजीवादी संस्कृति का पर्याय है। इस
संस्कृति में पारंगत होने, उसकी चौखट पर सज़्दा करने, उसकी कसौटी
पर खरा उतारने की ऐसी चाह क्यों?यह ठीक वैसा है, जैसे हमारे
यहाँ कुछ लोग ख़ुद को व अपनी उपलब्धियों को ब्राह्मण-संस्कृति की कसौटी पर कसते
चलते हैं और उसी से अपने हर काम की स्वीकृति पाने को लालायित रहते हैं। इस मामले
में पश्चिम का रंग-भेद और हमारे यहाँ का ब्राह्मणवाद एक ही तराजू के दो पड़ले साबित
होते हैं। कवि लिखता है कि इन ओलम्पिक पदकों/खेलों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता; रंग-भेद की
नीतियाँ ज़ारी रहती हैं और तुम्हारे लोग इसका शिकार होते रहते हैं-
क्या
तुम्हारी जीत पर
तुम्हारी
तरह ख़ुश हो पा रहा होगा
तुम्हारी
बस्ती का वह काला बच्चा
जिसका
विधिलेख ही
काला
है इस दुनिया में।
(वही; पृष्ठ-26)।
दरअसल यही वह ग़ैर-भाववादी/सतर्क सबाल्टर्न
विचार-दृष्टि है, जो ग्लैमर के हवाई क़िले को तोड़ती है और आदमी
को उसकी ठोस वास्तविक ज़मीन पर लाकर खड़ा करती है। इसी ठोस वास्तविकता के तहत कवि इन
खिलाड़ियों का आह्वान करता है कि यदि वे अपनी नस्लों की बहबूदी चाहते हैं तो वे चुप
रहना छोड़ रंग-भेद के खिलाफ़ संघर्ष में कूदें-
तो
आख़िर तुम सारे
विश्व
विजयी खिलाड़ियों का मुँह
अपने
प्रति हो रहे
अत्याचारों
के ख़िलाफ़
कब
खुलेगा!
(वही)।
OO
पूंजीवाद
के नये रूप- भूमंडलीकरण और कॉर्पोरेट-संस्कृति- का दिनेश कुशवाह की कविता में तीखा
विरोध मिलता है। केवल वर्णन व निरूपण नहीं, अपितु तीखा
विरोध! हिन्दी में भूमंडलीकरण और उसके असर की केवल तस्वीर पेश की जाती है; लेखक का
स्टैंड इस बाबत क्या है; यह क़तई पता नहीं चल पाता। मैं समझता हूँ कि
यथार्थ व उसकी विभीषिका के चित्रण में यदि लेखक अपना स्टैंड साफ़ नहीं करता है, तो इसका
अर्थ है कि वह यथार्थवाद के घटाटोप की घेराबंदी से मुक्त नहीं हो पाया है। यथार्थवाद
की घेरेबंदी से मुक्त वह तभी माना जा सकता है, जब उसमें
निहित विभीषिका की अंतर्वस्तु का विरोध करे! कविता में तय है कि यह विरोध वाचिक
किंवा वैचारिक ही होगा; लेकिन विरोध यदि वहाँ है तो यह निश्चित है कि
उसे पढ़ने वाला पाठक उस विचार को क्रिया में भी परिणत करने का माद्दा रख सकने में
सक्षम हो सकता है। लेकिन यदि विरोध या निषेध वहाँ नहीं है तो पाठक या तो वैचारिक
अनिश्चय की गिरफ़्त में आ जाएगा, या लेखक की तरह समस्या को ‘उफ़्फ़् कैसा
ज़माना आ गया है!’; जैसे जुमलों
का सहारा लेते हुए, टालते हुए आगे बढ़ जाएगा; उसके
अन्तर्मन में कोई सक्रिय हलचल नहीं पैदा होगी और इस तरह कुलमिलाकर लेखक का
यथार्थवादी चित्रण एक निष्प्रभावी कवायद बनकर रह जाएगा! इस तरह की कविताओं में
प्रभाव वहाँ पैदा होगा, जहाँ कवि यह तय करके चलेगा कि वह केवल
सुनी-सुनाई और ऊपर-ऊपर से दिखाई देने वाली बात नहीं कहेगा बल्कि स्वयं बात की तह
में जाकर उसकी अंदरूनी-बाहरी स्थितियों-परिस्थितियों का विशद अध्ययन और परीक्षण कर
अपनी बात रखेगा!तय है कि उसकी रखी हुई यह बात द्वन्द्वात्मक होगी।
वहद्वंद्वात्मकता में यथार्थ को देखेगा। द्वंद्वात्मकता के अंतर्वलय में आया हुआ
यह यथार्थ अपनी ज़मीनी सच्चाईयों के सबसे ज़्यादा निकट होगा और पाठक सही मुक़ाम तक
पहुँचेगा। जैसे यह कि जैसा कि मैंने अभी कहा कि, हिन्दी में
ज़्यादातर समस्या के प्रभाव पर बात की जाती है; उसकी असल
जड़ों तक पहुँचने में थोड़ी कोताही बरती जाती है;नतीज़ा यह
होता है कि यथार्थ का वास्तविक स्वरूप सामने नहीं आ पाता। हम इधर-उधर हवा में तीर
मारते रह जाते हैं और चीजें ज्यों की त्यों बनी रही आती हैं! कहना होगा कि इससे
यथास्थितिवाद बना रहता है, उसमें कोई बदलाव नहीं आ पाता। जैसे हम
साम्प्रदायिकता के निरूपण में ज़्यादातर उसके प्रभावों, दंगे-फ़साद
तथा उनमें होने वाली अमानवीयताओं को तो देखते हैं लेकिन यह साम्प्रदायिकता पैदा
कैसे होती है; इसकी जड़ें
रोपने व सींचने वाले कौन लोग व अवयव हैं, वे कैसे काम करते
हैं, दंगों की
शुरुआत कौन करता है, इनसे किसे सबसे ज़्यादा फ़ायदा पहुँचता है;
इत्यादि-इत्यादि बातों पर हम ज़्यादा ध्यान नहीं देते। हम ख़ून देखते हैं और
प्रार्थना करने लगते हैं! लगभग हिन्दी में यही हाल भूमंडलीकरण का है। शायद ही कहीं
ऐसा देखने को मिले कि कोई बताए कि भूमंडलीकरण हमारे यहाँ क्यों व कैसे आया! कुछ लोगों
ने हालाँकि इस तरफ़ ध्यान दिया है लेकिन उनमें ज़्यादातर लोग वे हैं, जो मूलतः
विचारक या राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक या सिद्धांतकार हैं। कवि-कथाकार इस मुद्दे पर
ज़्यादा ग़ौर न करते हुए एकदम आगे बढ़ जाते हैं। बहुत कम कवियों ने रुककर इस पर सोचा
है कि ऐसा समय आख़िर आया तो आया कैसे? दिनेश कुशवाह इनमें
से एक माने जा सकते हैं; जैसा कि देखा गया है कि वे अमूमन बात की असल
तह तक पहुँचने की पुरज़ोर कोशिश करते हैं। उनकी इस प्रवृत्ति कोयथार्थवाद का आखेट
या कि यथार्थ की गुप्तचरी कहा जा सकता है। ‘आखेट’ या ‘गुप्तचरी’ इसलिए कि
कोई सीधे मुँह इन सवालों के ज़वाब नहीं देता; ज़वाब देना
तो दूर, इन पर ठहरकर
विचार भी नहीं करता। जैसे भारतीय इतिहास का एक बहुत तीखा और जलता-उबलता प्रश्न है
कि आख़िर क्या वज़ह थी; वे कौन-से कारण थे कि करोड़ों की जनसंख्या
वाला यह देश अतीत में हज़ारों साल तक एक के बाद एक मुट्ठीभर आक्रांताओं के अधीन
होता रहा और जिसने जो चाहा यहाँ किया; इस देश को लूटा, पैरों-तले
रौंदा, यहाँ के
लोगों को अपना ग़ुलाम बनाया? कोई इतिहास की इस गति की व्याख्या नहीं करता!
दिनेश कुशवाह अपनी एक लम्बी कविता ‘उजाले में आजानुबाहू’ में एक जगह
लिखते हैं-
बड़बोले
देश बचाने में लगे हैं।
बड़बोले
यह नहीं बोलते कि
अगर
इस देश को बचाना है
तो
उन बातों को भी बताना होगा
जिन
पर कभी बात नहीं की गई
जैसे
मुट्ठी भर आक्रमणकारियों से
कैसे
हारता रहा है ये
तैंतीस
करोड़ देवी-देवताओं का देश?
तब
कहाँ थी गीता?
हर
दुर्भाग्य को ‘राम रचि राखा’ किसने
प्रचारित किया!
लोगों
में क्यों डाली गई भाग्य-भरोसे जीने की आदत?
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-
121-22)।
केन्द्रीय सवाल था कि यह देश कैसे
बचेगा? लेकिन इससे
भी पहले का सवाल यह है कि इस देश को बचाना किससे है? इस देश को
ख़तरा किससे है? एक तरह से
असल सवाल तो यही है कि आख़िर ख़तरा किससे है? और जब इस
सवाल की तह में हम जाते हैं तो वहाँ हमें मिलता है, भाग्यवाद!
ईश्वरेच्छा! गीता का
कथित कर्मवाद; जहाँ केवल काम
करते जाने का आदेश है; उसके फल का नहीं; (क्योंकि फल
पर तो किसी और का स्वत्वाधिकार है!); तैंतीस करोड़
देवी-देवता हैं, जो कि न कुछ
करते हैं, न करने देते
हैं; ऊपर से
सेवा-पानी अलग से माँगते हैं! आख़िर क्यों नहीं किया जाता इस केन्द्रीय सवाल पर
विचार कि इतने बड़े देश को, इतनी अधिक जनसंख्या को कैसे कुछ मुट्ठीभर लोग
एक के बाद एक पराजित करते चले गए? वह शायद इसलिए; बल्कि
इसीलिए कि इस क्रमिक पराजय का मूल कारण यही भाग्यवाद, यही गीता व
यही ईश्वरेच्छा थी! किसने बनाईं ये सब चीजें? ब्राह्मणवाद
ने! ब्राह्मणवाद ने इस देश को वर्णाश्रम-व्यवस्था दी; समाज को
जातियों में इस क़दर बाँट दिया कि एक समुदाय सर्वाधिकार-सम्पन्न और दूसरा
सर्वाधिकार-हीन कर दिया गया। ऐसा विभाजित समाज व राज्य-व्यवस्था स्वतः ही
शक्ति-हीन हो आती है; ऐसी समाज व राज्य-व्यवस्था आक्रमणकारियों का
मुक़ाबला कर सकती है क्या; चाहे वे संख्या में बहुत थोड़े ही क्यों न हों?असल सच्चाई
यही है कि हम अपनी आपसी सामाजिक-राजनीतिक फूट की वज़ह से हारते चले गए! आखिरकार
समाज के आधे से अधिक हिस्से को आपने राजनीतिक व सामाजिकार्थिक मुख्यधारा से
बहिष्कृत कर दिया था! यह बहिष्कृत जनसमुदाय किसके लिए लड़ता, जबकि उसे पता
था कि इन लड़ाइयों से उसे कोई लाभ नहीं होने वाला; लाभ केवल
शासक-वर्ग के लोगों को मिलेगा और वे फिर हम पर और ज़्यादा अत्याचार करेंगे! सन्
1857 के कथित प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की दलितवादी व्याख्या इसी ओर संकेत करती
है। वहाँ यह हक़ीक़त दर्ज़ है कि ख़ुदा-न-खास्ता ये राजे-रजवाड़े व वे समूह जो यह लड़ाई
लड़ रहे थे, यदि जीत गए
तो इनका ब्राह्मण-राज दिन दूने रात चौगुने अत्याचारों के साथ फिर से ताक़तवर हो
उठेगा! इसलिए इनका हारना दलितों व अन्य हाशिये के समाजों के लिए एक शुभ संकेत था
कि इनका राज अब ख़त्म होगा! समाज व समूहों का यह आन्तरिक बँटवारा इस देश की लगातार
पराजयों का मूल कारण था। इस मूल कारण को रेखांकित करने से बचा जाता है, क्योंकि तब
यह रहस्य उजागर हो जाएगा कि ये जो तथाकथित देशभक्त ‘बड़बोले’ देश बचाने
की जो कथित रट लगाए हुए हैं; वास्तविकता यह है कि दरअसल यही लोग तो देश के
सर्वनाश के मूल में हैं! आज स्थिति और ज़्यादा साफ़ हो रही है और इन बड़बोलों की
असलियत खुलकर सबके सामने आ रही है!
यह दिनेश कुशवाह के कवि की प्रकृष्ट सबाल्टर्न
अन्तर्दृष्टि ही है कि वह इतने पेचीदा और उलझे-बिखरे सवालों को इस क़दर समझाइश के साथ
पेश करती व सुलझाती है। इसी तरह भूमंडलीकरण व कॉर्पोरेट-संस्कृति के सवाल को भी
दिनेश कुशवाह अपनी दृढ़ सबाल्टर्न विचार-दृष्टि के अन्तर्गत ही आयत्त करते हैं और
उसकी अच्छी-ख़ासी लानत-मलामत पेश करते हैं। मसलन, सबसे पहले
वे इस मुद्दे को उठाते हैं कि दरअसल भूमंडलीकरणआने से पहले लाया गया था! आने में
और लाये जाने में तात्विक अन्तर है। जब कोई चीज आती है, तो वह अपनी
सहज गति व नियति से सक्रिय होती लेकिन जब लायी जाती है तो उसके पीछे कुछ निहित
स्वार्थ और मन्सूबे छुपे होते हैं और आने वाली चीज के साथ बहुत-कुछ ऐसा भी आ जाता
है, जो उसकी
मुख्य अंतर्वस्तु के अंदर था ही नहीं! भूमंडलीकरण तो सारी दुनिया में आया; लेकिन अपनी
बद्धमूल औपनिवेशिकता की प्रवृत्ति के चलते भारत जैसे देशों ने इसके लिए इस क़दर अपनी
तरफ़ से ही पलक-पाँवड़े बिछा दिए कि न आने वालीचीजें भी यों ही घुसती चली आयीं!निर्लज्जता
इनमें एक चीज थी। निजी सम्बन्धों पर संकट इनमें एक और चीज थी। तीसरी और एक विशेष
चीज थी- किसान-आत्महत्या; जो धीरे-धीरे एक देशव्यापी संघटना बन गयी! ये
तीनों चीजें जिस पैमाने पर हमारे यहाँ घटित हुईं; दुनिया में
शायद ही कहीं हुई होंगी। इसका कारण संभवतः यह था कि इसका कोई आपदा-प्रबंधन हमारे
यहाँ नहीं था। दुनिया के बहुत सारे देशों ने इनसे संघर्ष किया लेकिन हमने इनसे
तत्काल एक क़िस्म का समायोजन ही कर लिया! अपनी एक ग़ज़ल में दिनेश कुशवाह लिखते हैं-
बस
गए दिल में हमारे सेठ मल्टीनेशनल,
बिलबिलाता
भूख से, भाई बेगाना
हो गया।
झूलते
हैं लोग अब ख़ुद, फाँसियों पर
खेत में,
देश
की सरकार का, ये
ताना-बाना हो गया।
शर्म
तो जाती रही ऊपर से ऐसी नंगई,
माफिया-डानों
के घर में, आना जाना हो
गया।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-47)।
जैसा कि मैंने कहा, भूमंडलीकरण
के असरात का अंकन तो लगभग हर कवि करता देखा गया है, लेकिन इस
कड़वी सच्चाई का उल्लेख कोई-कोई ही करता है कि भूमंडलीकरण का जैसा स्वागत हमारे
यहाँ किया गया, वैसा
अन्यत्र बहुत कम जगह किया गया। हमने बिना आगा-पीछा सोचे उसे ऐसे सीने से लगाया, मानों कब से
उसका इंतज़ार था और कब से उसकी ज़रूरत थी!जबकि सब जानते हैं कि उसकी ज़रूरत आम आदमी
के लिए तो क़तई नहीं थी। सब यह भी जानते हैं कि; जैसा कि
दिनेश कुशवाह लिखते हैं कि;भूमंडलीकरण भूख, ग़रीबी, भ्रष्टाचार
इत्यादि का प्रणेता व प्रोत्साहक है और इसके प्रवक्ता या एजेंट अत्यन्त ही
आत्मग्रस्त हैं-
भूख-गरीबी
और भ्रष्टाचार के
भूमंडलीकरण
के पुरोहित
बने
बड़बोले सोचते हैं
वर
मारे या कन्या
हमें
तो दक्षिणा से काम।
(वही; पृष्ठ-124)।
पिछली सदी के आख़िरी और नयी सदी के
शुरुआती दिनों की याद करें तो हमारे यहाँ हर जगह ऐसे बुद्धिजीवियों और बिचौलियों
की बाढ़ थी, जो
भूमंडलीकरण का गुणगान करते अघाते नहीं थे। सबके अपने-अपने तर्क थे। कुछ लोगों का
तर्क था कि यह तो हमारे लिए सबसे मुफ़ीद है क्योंकि हमारे तो विचार-चिंतन/दर्शन में
ही विश्वबंधुत्व की अवधारणा निहित है! दिनेश कुशवाह इस तर्क-पद्धति को विशेष रूप
से अपनी कविता में उद्धृत करते हैं। समझा जा सकता है कि ये कौन लोग हैं! स्पष्ट ही
ये वे दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग हैं, जिन्हें पूंजीवाद से
सबसे अधिक और सबसे गहरा प्रेम है। पूंजीवाद के नये से नये प्ररूप का ये बहुत ही बढ़-चढ़कर
स्वागत करते हैं, और इसके लिए अपनी प्रसिद्ध शास्त्रोक्तियों
का भी सहारा लेते हैं और उनके प्रचार-प्रसार में जी-जान लगा देते हैं। चाहे इस
प्रक्रिया में कोई श्रेष्ठ अवधारणा अर्थापचय की चपेट में आ जाए; जैसा कि ‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ की अवधारणा
के साथ होता है। विश्वपूंजीवाद का एक नया प्ररूप भूमंडलीकरण विश्वबंधुत्व का
पर्याय क़तई नहीं है; बल्कि इसका विपर्यय ही है, क्योंकि हर
कोई जनता है कि वस्तुतः भूमंडलीकरण विश्वबंधुत्व की राह में तरह-तरह के रोड़े ही
अटकाता है; व्यक्तियों
और यहाँ तक कि राष्ट्र-राज्यों को परस्पर स्वर्थांधता और वैमनस्य की प्रक्रिया में
डालता है; इत्यादि। भूमंडलीकरण
विश्व के दक्षिणपंथियों की देन है, इसका एक और प्रमाण यह है कि दुनियाभर में
तत्ववाद अथच साम्प्रदायिकता भूमंडलीकरण के साथ गले में बाँहें डाले नमूदार हुई है
और जहाँ-जहाँ भी भूमंडलीकरण पहुँचा, तत्ववाद अथच साम्प्रदायिकता भी साथ-साथ वहाँ
पहुंची! सब जानते हैं कि कॉर्पोरेट दक्षिणपंथियों को कितने प्रिय हैं! न केवल
प्रिय, बल्कि हमारे
यहाँ ही नहीं, दुनिया-भर
में दक्षिणपंथ की राजनीति करने वाले अब ख़ुद कॉर्पोरेट हैं! दुनिया आज ऐसे
कॉर्पोरेट राजनीतिज्ञों से भरी पड़ी है और हर जगह वेशासन-प्रशासन में केन्द्रीय
भूमिका में बने क़ानून बनाने और उन्हें लागू करवाने की हैसियत में हैं। तय है कि
अपने इस समूचे प्रक्रम में उनकी कार्यविधि और रवैया पूरी तरह ऑटोक्रेटिक रहता है, जो आगे चलकर
फ़ासिज़्म की ओर प्रयाण करने लगता है। शायद यह कोई नया फ़ासिज़्म है, जिसमें
आर्थिक तानाशाही भी नत्थी है। कवि यहाँ स्वदेशी कॉर्पोरेट की ग्लोबल कॉर्पोरेट के
साथ मिलीभगत की ओर भी संकेत करता है। ये स्वदेशी कॉर्पोरेट जैसे इन ग्लोबल कॉर्पोरेट्स/एमएनसी’ज़ के स्थानीय प्रतिनिधि/फ़्रैंचाइज़ी या कमीशन
एजेंट हैं। यह नया स्वदेशी पूंजीवाद है, जिसने नये
विश्वपूंजीवाद को आमंत्रित किया! कवि लिखता है-
बड़बोलों ने रच दिया है
भयादोहन
का भयावह संसार
और
बैठा दिए हैं हर तरफ़
अपने
रक्तबीज क्षत्रप।
x x x
बड़बोले
ग्लोबल धनकुबेरों का आह्वान
देवाधिदेव
की तरह कर रहे हैं
‘कस्मै देवाय
हविषा विधेम’
पधारने
की कृपा करें देवता!
अतिथि
देवो भाव!!
मुख्य
अतिथि महादेवो भाव!!!
बड़बोले
आचार्य बनकर बोल रहे हैं
जगती
वणिक वृत्ति है
पैसा
हाथ का मैल
हम
संसार को हथेली पर रखे
आँवले
की तरह देखते हैं
‘वसुधैव
कुटुम्बकम्’ तो
हमारे
यहाँ पहले से था।
भूख-गरीबी
और भ्रष्टाचार के
भूमंडलीकरण
के पुरोहित
बने
बड़बोले सोचते हैं
वर
मरे या कन्या
हमें
तो दक्षिणा से काम।
(वही; पृष्ठ-
123-24)।
अपनी अभ्यस्त रूपकात्मकता के तहत
दिनेश कुशवाह कॉर्पोरेट को कई जगह ‘कंस’ की उपमा से नवाजते
हैं। कॉर्पोरेट कंस जैसे ही क्रूर, हत्यारे व अत्याचारी हैं; अपनी
राजगद्दी की सलामती के लिए अपने ही संबंधियों का क्रूर हत्यारा! संवेदनशीलता और
अपनत्व का सत्यानाश कर देने वाला!! कवि लिखता है-
पृथ्वी
को गाय की तरह दुहते-दुहते
अब
वे धरती का एक-एक रोआँ
नोचने
पर तुले हैं
हमारे
समय के कॉर्पोरेट कंस
कोई
सम्भावना छोड़ना नहीं चाहते
भविष्य
की पीढ़ियों के लिए
अतिश्योक्ति
के कमाल भरे
बड़बोले
इनके साथ हैं।
(वही; पृष्ठ-123)।
दिनेश कुशवाह कई कविताओं में
भूमंडलीकरण के दुष्प्रभावों का वर्णन करते हैं; जैसे ‘चित्रकूट में
अधिक समय रहना नहीं था’ शीर्षक कविता में चित्रकूट के पहाड़ों पर अपनी
लालची नज़र गड़ाए कथित धार्मिक श्रद्धालुओं/पर्यटकों के भेस में आए कॉर्पोरेट्स! कवि
लिखता है कि बाज़ार चित्रकूट को लीलने को तैयार बैठा है-
कामदगिरि
की परिक्रमा जैसे
अपने
वश की बात नहीं थी
बहुत
आसानीपूर्वक जो
घूम
रहे थे उसके चारों ओर
दरअसल
वे भी परिक्रमा नहीं कर रहे थे
पर्वत
के हर तरफ़ उनकी
इच्छाएँ
बिलबिला रही थीं
स्फटिक
शिला तो पास ही थी
धड़कती
हुई पर
त्रेता
जैसा एकान्त नहीं था।
(इसी
काया में मोक्ष; पृष्ठ-
20-21)।
इसी तरह कलकत्ता पर भूमंडलीकरण के असर
का अंकन कवि ने ‘कलकत्ता’ शीर्षक
कविता में किया है, जिसमें वह एक जगह कहता है- “कि वहाँ एक-एक
कर/बन्द हो रहे हैं जूट मिल” (वही; पृष्ठ-24)। एक और कविता ‘कबीर-रहीम और
बदलाव’ के दूसरे
भाग में भूमंडलीकरण के असर से दुनिया-भर में छाई संवेदनहीनता व ठसपन का निरूपण
करता है। इससे पहले जीवन में अनौपचारिकता अथच सहजता के नष्ट होते चलने की बात कवि
ने उठाई थी- “खरी खोटी कौन कहे कबीर!/अब तो भला-बुरा कोई कुछ भी नहीं कहता/इतने
शालीन हो गए हैं लोग/हज़ारों मील चलकर आई चिट्ठियाँ/चिट्ठियाँ नहीं लगतीं/इतने
औपचारिक हो गए हैं लोग!/जल-भुनकर भी मुस्कराते हैं/इतने व्यावहारिक हो गए हैं
लोग!!” (वही; पृष्ठ-60)। आगे
फिर लिखता है कि यह दरअसल व्यक्तियों का संवेदनहीन और आत्मलिप्त हो आना है। किसी
के अन्तर्मन में किसी और के लिए कोई भावना नहीं बची; सब लोग लगभग
यान्त्रिक और स्थिर हो गए हैं-
कितना
अजीब समय आ गया है
कि
रोने के लिए भी
नहीं
बची है कोई गोद
न
सिर टिकाने के लिए
कोई
कंधा
न
ढाढ़स बँधाती कोई आँख
यहाँ
तक कि झौंकने के लिए भी
नहीं
बचा है कोई भाड़
ऐसे
में किस देश जाओगे रहीम!
एक
ही जैसे हो रहे हैं
दुनिया
के सारे भू-भाग।
(वही)।
भूमंडलीकरण एक जन-विरोधी उपक्रम था और
है, इसकासशक्त
विरोध और प्रतिरोध आवश्यक था और है। मैंने कहा कि ज़्यादातर लोग भूमंडलीकरण को
कोसकर काम चला लेते हैं; इसका विरोध या तो वे करते नहीं और करते भी
हैं तो इतने अनमने भाव से कि कुछ पता ही नहीं चलता! भूमंडलीकरण का विरोध करने के
लिए साहस चाहिए और साथ ही यह भी कि आप नैतिक रूप से भी सशक्त हों कि बेधड़क कह सकें
कि हम इस व्यामोह से मुक्त हैं कि आप उस अंधी दौड़ और बेग़ैरती में शामिल नहीं हैं, जिसका
हिस्सा होना आज विकसित और मॉड होने का सुबूत माना जाता है! इसके अलावा एक तथ्य यह
भी है कि यदि आप किसी अनीति किंवा अमानवीयता का विरोध नहीं करते हैं तो इसका एक
अर्थ यह भी माना जा सकता है कि आप उसके या तो समर्थक हैं या उसके साथ गुपचुप
समायोजन या दुरभिसंधि में हैं! हिन्दी में ज़्यादातर यही दृश्य दिखाई देता है कि
कवि एक ओर तो उसकी लानत-मलामत करेंगे लेकिन पिछले दरवाज़े से उससे हाथ भी मिला
लेंगे! ऐसे आचरण वाले कवि यदि अपनी कविता में किसी अनीति का विरोध करेंगे भी तो वह
लगभग निष्प्रभावी होगी क्योंकि मनोवैज्ञानिक रूप से अपनी रचना-प्रक्रिया में इस
विरोध के प्रति बहुत सायासता की स्थिति में होंगे और वस्तुतः यह सायासता ही आपकी
अंदरूनी बेईमानी की हक़ीक़त खोलकर रख देगी! सायासता सृजन की सबसे बड़ी अवरोधक शक्ति
होती है। यदि आप व्यवहार में मूल्यनिष्ठ और नैतिक हैं तो उसका विरोध करते हुए आप
अत्यन्त सहज होंगे। यह सहजता आपकी सबसे बड़ी रचनात्मक पूँजी होगी। जहाँ तक दिनेश
कुशवाह का सवाल है; उनकी कविताओं से यह संकेत मिलता है कि इस
मामले में वे पर्याप्त गंभीर हैं। वे न केवल अपनी ख़ुद की नाइत्तिफ़ाक़ी भूमंडलीकरण
के विचार से करते हैं बल्कि इस विचार के पीछे की कार्यकारी शक्तियों- जिनमें
अमेरिका सर्वप्रमुख है- की भी बढ़िया धुलाई करते हैं। कवि की नाराज़गी इस बात से है
कि यह भूमंडलीकरण का सर्कस तीसरी दुनिया के देशों की कृषि-सभ्यता और आजीविका के
विरुद्ध है। यह किसानों से उनकी ज़मीनें, उनकी खेती छीनना
चाहता है। कवि कहता है कि पहली नज़र में हालाँकि यह एक आतंकित करने वाली स्थिति है
लेकिन हाथ के हाथ वह इस आतंक से प्रभाव से मुक्त होने के उद्यम में संलग्न भी हो
आता है। ‘शापमुक्त
होने का कौन सा तरीका है?’ कविता में एक स्थान पर कवि लिखता है-
तभी
सर्कस की माया में
नाचते
हुए
देखता
हूँ खतम हो गए बैल
समाप्त
हो गईं गायें
लापता
हो रही हैं भैंसें
गर्मी
भर खेत धूँ-धूँ जलते हैं
गन्ना-गेहूँ-आलू-प्याज
सब हो गए
किसान
से बेगाने।
x x x
और
मैं?
क्यों
हो गया है मेरा पौरुष अभिशापित?
शापमुक्त
होने का कौन सा तरीका है?
सोचते-सोचते
सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे
भीतर आतंक की तरह छा जाता है।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-77)।
कवि कॉर्पोरेट को कभी कंस कहता है, कभी इन्द्र!
ये तो जो हैं, सो हैं; कवि की
चिन्ता यह है कि इन अनिष्टकारियों से हम ख़ुद को और अपनी सभ्यता को कैसे बचाएँ?‘भूमंडलीकृत
आषाढ़ का एक दिन’ शीर्षक
कविता में कवि लिखता है-
ब्रज
डूबे, वृन्दावन
सूखे
कंस
नए चरवाह हो गए
टिहरी
से केदारनाथ तक
शिव
के नगर तबाह हो गए।
नवधनाढ्य
ग्लोबल इन्द्रों से
धरती-गगन
बचाएँ कैसे?
(वही; पृष्ठ-
73-74)।
इस अंधड़ से बचने की कोशिशों की
प्रक्रिया में कवि उस असल ठिकाने तक पहुँच जाता है, जो इस सबका
मूल उत्स है : अमेरिका! अमेरिका को यहाँ किसी फ़ैशन के तहत भला-बुरा नहीं कहा गया
है; बल्कि कवि
भला-बुरा कुछ कहता भी नहीं है। वह तो सिर्फ़ इतना दिखाता है कि दुनिया के एक बड़े
हिस्से ने, वहाँ की आम
जनता ने अमेरिका-प्रसूत इस भूमंडलीकरण का विरोध किया है और उसकी नीतियों को
अस्वीकार कर निरस्त कर दिया है! हो सकता है, यह अस्वीकरण
व निरस्तीकरण कवि को एक विशफूल थिंकिंग हो! लेकिन इस विशफूल थिंकिंग का एक आशय यह
भी तो है या हो सकता है कि अमेरिका और उसकी नीतियाँ अपरिक्राम्य या अपराजेय नहीं
हैं। उन्हें खुलकर चुनौती दी जाए, उनका समूहिक रूप से विरोध किया जाए तो वे देर-सबेर मुँह की
खा ही सकती हैं! ‘जॉर्ज बुश! पेट्रोल से अधिक ज्वलनशील है आदमी
का थूक’ कविता में
एक जगह कवि लिखता है-
तभी
उस
पर थूका एक ही साथ
पोपले-मुँह
खरबों-खरब लोगों ने
और
वह थूक के महासागर में डूबने लगा
चिल्लाया-
राष्ट्राध्यक्षो! चेतो-चेतो
बहुत
विषैला हो गया है आदमी
कि
उसका थूक
पेट्रोल
से भी अधिक ज्वलनशील है।
(इसी
काया में मोक्ष; पृष्ठ-47)।
OO
यदि
यह कहा जाए कि दिनेश कुशवाह की कविता अतींद्रियता के ख़िलाफ़ ऐंद्रिकता का, वायवीयता के
ख़िलाफ़ ठोस भौतिकता का व वीतरागता के ख़िलाफ़ उद्दाम संलग्नता का विशद आख्यान है, तो शायद ग़लत
न होगा। अपने समस्त कवि-कर्म का जो पारदर्शी अक्स वे निर्मित कर सके हैं, वह इन्हीं
तत्वों के क्रिस्टल्स से बना है। दैहिकता उनकी कविता का गुणसूत्र है। यह दैहिकता
उपभोगवाद का पर्याय नहीं है; हालाँकि भोगोपभोग तत्वतः दैहिकता का स्वत्व
होता है। एक भोगोपभोग उपभोगवाद या कि उपभोक्तावाद में भी होता है, लेकिन वह
केवल यहाँ तक परिसीमित रहता है कि व्यक्ति की आहार-निद्रा-भय-मैथुन जैसी
प्रवृत्तियों को उकसाकर उसे इन्हीं चर्याओं में निमग्न किए रखना। यह भोग के लिए
भोग जैसी स्थिति कही जा सकती है। भोग के लिए भोग दैहिकता नहीं है बल्कि दैहिकता वह
है, जहाँ भोग
आत्मतृप्ति का अभिज्ञान कराए; जैसे कि दिनेश कुशवाह अपनी एक विवादास्पद
कविता ‘डॉ. विश्वनाथ
त्रिपाठी का खाना’ में त्रिपाठीजी की भोजन-वृत्ति की प्रकृति की
पहचान करते हुए स्वाद-संवेदना के मार्फ़त आत्म-संवेदना तक पहुँचने की कोशिश करते
हैं।फ़ौरी तौर पर देखा जाए तो खाने की यह लालसा औरउद्दामता किसी एक व्यक्ति-विशेष
की विशिष्ट प्रवृत्ति कही जा सकती है और यहाँ हिन्दी के प्रख्यात वाय:प्राप्त
आलोचक व गद्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी जी का सन्दर्भ है ही! लेकिन व्यक्तिगत संदर्भों
से अधिक सामान्य मानवीय ऐंद्रिकता- स्वाद-संवेदना- का प्रकृष्ट सन्दर्भ इस वस्तु
को एकदम ही सामान्यीकृत व साधारणीकृत कर देता है; जैसा कि कवि
एक स्थान पर कहता है-
रोटी-दाल-भात-तरकारी
पूरी-पराठा-रायता-चटनी
दही
बड़े और भरवा बैंगन
इडली-डोसा-चाट-समोसा
जरा
इनका उच्चारण तो कीजिए
आप
भी आदमी हो जाएँगे।
अगर
अन्न-जल, भूख-प्यास न
होते
तो
कितनी उबाऊ होती यह दुनिया
अगर
दुनिया में खाने-पीने की चीज़ें न होतीं
तो
जीभ को राम कहने में भी रस नहीं मिलता।
(वही; पृष्ठ-56)।
आगे स्वादैंद्रिकता के वर्गीय चरित्र
पर भी कवि प्रकाश डालता है। कवि कहता है कि दरअसल स्वाद की ऐसी उद्दामता और ललक
उसी व्यक्ति में पाई जा सकती है, जिसकी भूख बहुत तीव्र हो और भूख तीव्र उसी की
हो सकती है, जो ख़ुद
श्रमशील हो, श्रम करता
हो; दूसरे की
मेहनत का न खाता हो! दूसरे की मेहनत का जो खाते हैं, वे
उच्चवर्गीय धनाढ्य लोग न तो भूखा रहना जानते हैं और न ही अन्न का स्वादानन्द लेना!
वे केवल वैकल्पिकताओं और अन्यथाकरणों में डूबे रहते हैं! कविता के अन्त में कवि
लिखता है-
बाबा
किसी ग़रीब बाभन के बेटे रहे होंगे
अन्यथा
अमीरी में पले हुए
किसी
भी आदमी की जीभ पर
नहीं
चढ़ सकता अन्नमात्र का ऐसा स्वाद
उनके
खाने की तुलना ग़रीब मजूर या
हलवाहे
की, खेत पर
खुलने वाली
भूख
से ही की जा सकती है।
अन्यथा
जिनके पास विकल्प हैं स्वाद के
वे
नहीं जानते भूख का स्वाद।
(वही)।
इस कवि की कविता में दैहिकता और
ग़ैर-वायवीयता की स्थिति यह है कि यह वायवी ईश्वर के स्थान पर परम भौतिक रूप से
उपस्थित प्रिया को प्राथमिकता देने लगता है।दिनेश कुशवाह की कविता में मिथकों, पौराणिकता, अध्यात्म, दर्शन
इत्यादि की इतनी भरमार है कि कई बार यह आशंका होने लगती है कि यह कवि कहीं
हिप्पोक्रेसी की गिरफ़्त में तो नहीं आया हुआ! मोक्ष, स्वर्ग, नरक, ईश्वर, आत्मा, पाप-पुण्य, शाप,वैतरणी, इन्द्र, कुबेर,देवता, दानव आदि
शब्द इस रफ़्तार और सहजता-स्वाभाविकता के साथ आते हैं कि प्रतीत होने लगता है कि हम
किसी काव्य-कृति की सृजनशीलता से नहीं, किसी
दार्शनिक-पौराणिक आख्यान की स्थैतिकता से गुज़र रहे हैं। लेकिन थोड़ा ही आगे चलने पर
रह-रहकर लगातार महसूस होने लगता है कि कवि तो यहाँ एक बड़े-भारी काव्यात्मक नवाचार
की ओर अग्रसर होते हुए शब्द-संरचना-प्रक्रिया के एक अलग ही संसार में हमें ले चलने
को लालायित है। वह काव्यात्मक नवाचार यह कि, हिन्दू
मिथकों की खुफ़ियागिरी करते हुए उनके असल अंदरूनी मन्तव्य और वहाँ छुपे गुप्त आशय
को उभारकर सामने ले आना! हिन्दू मिथकों का यह अंदरूनी व गुप्त मन्तव्य किंवा आशय
ही वस्तुतः उनका असल व मूल आशय और अभिधेय है। यह मूल आशय व अभिधेय उनसे जुड़े समाज
व संस्कृति की चारित्रिकताओं की ओर पुरज़ोर संकेत करता है व बताता है कि ऐतिहासिक
रूप से आगे चलकर इनका समूचे समाज व संस्कृति पर क्या असर पड़ा! यह एक बहुत भारी
नवाचार है, जो समान्यतः
हर कवि के सामर्थ्य में नहीं। यह नवाचार हमारी निगूढ़ परम्परा, सांस्कृतिक
स्वभाव व सामान्य जीवन-चर्या की आधारभित्तियों के पुनरीक्षण व संपरीक्षण के बतौर
होता है, जिसका संप्रेरक
तत्व वर्तमान काल के कुछ जलते-उबलते प्रश्न व विवाद होते हैं। वर्तमान काल के इन
प्रश्नों व विवादों के मूल में एक स्पष्ट वैचारिकी मौज़ूद होती है, जो एक तरह
से समूची ही परम्परा व इतिहास का पुनरीक्षण व पुनर्परीक्षण करती है। भारत के
सन्दर्भ में इसे सबाल्टर्न या दलित-बहुजन वैचारिकी कहा जा सकता है, जो प्रमुख
तौर पर हाशियाकृत सामाजिक समूहों व समुदायों का प्रतिनिधित्व करती है। जैसा कि
पहले भी कहा गया, दलित, पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक, स्त्रियाँ
इत्यादि इन समूहों व समुदायों में आते हैं। इन हाशियाकृत समाजों व समूहों की नियति
व भवितव्य का पुनर्निर्माण इन मिथकों व सांस्कृतिक परम्पराओं के
पुनरीक्षण/पुनर्परीक्षण का परम संलक्ष्य है। यदि इस आधार पर हम दिनेश कुशवाह की
कविताओं का अध्ययन करें, तो बहुत ही उत्साहवर्द्धक नतीज़े सामने आने
लगते हैं। जैसे कि ‘रेखा’ शीर्षक
कविता में कवि ब्रह्मा जैसे कथित प्रजापति की अपनी ही पुत्री सरस्वती पर यौनिक रूप
से मुग्ध हो जाने की लंपटता की तीखी ख़बर लेते हैं और यह निष्कर्ष निकलते हैं कि
हमारी कथित वैदिक किंवा दैवीय परम्परा में किस तरह से अपनी ही बेटियों/स्त्री-जातिके
प्रति यौनिक उपभोगवादी प्रवृत्ति गहरे रूप में निबद्ध पाई जाती है! कवि लिखता है-
मैंने
देखा कि कला में डूब जाना
भूल
जाना है काल को
पर
हमें रात-दिन डसती रहती हैं उसकी क्रूरताएँ
कि
जिसे मन से उरहते हैं ब्रह्मा
उसे
कैसे लग जाती है
पहले
उनकी ही नज़र!
सोचता
रहा मैं
कि
धरती की सुन्दर कलावती बेटियों को
कौन
बाँटता है
नटी
से लेकर नगरवधू तक के ख़ानों में
कि
जिसे हज़ारों-हज़ार लोग
लिफ़ाफ़े
में भरकर भेजते हैं सिंदूर
उसे कोई नहीं भेजता डिठौना?
(वही; पृष्ठ-85)।
देखा जा सकता है कि इस कविता में कवि किस
प्रकार हमारी परम्परा में नटी से लेकर नगरवधू तक के स्त्री-व्यक्तित्व/दैहिक स्वरूप
के विभिन्न प्ररूपों की पुरुष-उपभोक्तावादी संस्कृति की उपस्थिति को मूर्त करता है।
संक्षेप में ही कहा जाए तो लगभग चित्रलेखा से लेकर वसंतसेना तथा उससे आगे आज तक
स्त्री-सौन्दर्य के अन्यथाकृत उपभोगवाद की परम्परा हमारे यहाँ पूरे होशो-हवास के
साथ जारी है और बार-बार पुनर्नवीकृत होती रहती है! स्त्री-आखेट की कैसी अनवरत व
सर्वव्यापी परम्परा हमारे यहाँ रही है कि हर कोई सिर्फ़ उसी के पीछे पड़ा है! कथित
देवताओं से लेकर राजा, साधु-संत,
डाकू-चोर-लुटेरे सब-के-सब! कहना न होगा कि स्त्री के प्रति पुरुष के इस लंपट रवैये
की रवायत हमारे कथित देवताओं से ही शुरू होती है कि किस तरह वे इस मामले में
मर्यादा व नैतिकता से रहित थे! कवि ‘सदी की शुरुआत पर
स्त्री के लिए शोकगीत’ कविता में एक स्थान पर कहता है-
पर
गृहस्थ, संन्यासी, परमहंस
मद्यप, चोर, लुटेरे
राजा
की सवारी
ब्रह्मा-विष्णु-मुरारी!!!
सारे
के सारे इसी स्त्री के पीछे पड़े थे।
(वही; पृष्ठ-95)।
स्त्री के प्रति हमारे यहाँ जो स्थायी
क़िस्म का उपेक्षा, औपनिवेशिकता वउपभोग-वृत्ति पाई जाती है, उसका आधार
हमारी कथित सारस्वत परम्परा का यही बीज-तत्व रहा है। अमूमन यह देखा गया है कि
स्त्री-पुरुष के बीच एक बहुत ही यान्त्रिक व औपचारिक-सा रिश्ता यहाँ पाया जाता है; जैसे दोनों
ही, प्रेम नहीं, कोई रस्म
निभा रहे हों! दिनेश कुशवाह कई कविताओं में यह सवाल उठाते हैं कि हमारे यहाँ
दाम्पत्य स्वाभाविक रूप में क्यों नहीं है?
स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम की तात्विक चर्चा वे कई जगह करते हैं, यहाँ तक कि
एक जगह तो वे इश्क़ को इन्क़लाब तक की संज्ञा दे देते हैं; इश्क़ और
इन्क़लाब को एक-दूसरे का पर्याय भी कहते हैं; जैसे यह कि-
सिवाय
इश्क़ या कि इंक़लाब करने के
दिले
नादां पे किसी बात का असर न हुआ।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-45)।
लेकिन प्रतीत होता है कि इश्क़ और
इन्क़लाब का यह ज़ुनून सिर्फ़ एक किताबी मसला है। हक़ीक़त कुछ और है और बहुत कड़वी है।
दरअसल इस देश में दक्षिणपंथियों/प्रतिक्रियावादियों के कुछ समूह व संगठन हैं, जो प्रेम पर
अंकुश लगाने के मनुष्य-विरोधी अभियान में शामिल हैं। ये लोग मुक्त प्रेम व
प्रेमासिक्त स्त्री-पुरुषों को अपना निशाना बनाते हैं, उनका आखेट
करते हैं। दिनेश कुशवाह इन लोगों का विरोध करते हैं और इनके विरोध में कविता लिखते
हैं। हमारे यहाँ दाम्पत्य की जो दयनीय व नीरसतापूर्ण स्थितियाँ हैं; उन पर भी
दिनेश कुशवाह सवाल उठाते हैं। सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि भारतीय दाम्पत्य इतना
ठस है?इसमें भी एक
और प्रश्न यह भी है कि यह इकतरफ़ा क्यों है? यहाँ
प्रेमातुरता यदि थोड़ी-बहुत पाई जाती है तो वह केवल पुरुष/पति है;
स्त्री/पत्नी प्रेमातुर या प्रेम की पहल करती हुई नहीं है! यानी कि मूल प्रश्न यह
होगा कि क्या भारतीय दाम्पत्य ठस इसलिए है कि इसमें प्रेम करना सिर्फ़ पति/पुरुष के
हिस्से में है; स्त्री केवल
प्रेम का एक उपादान या लक्ष्य है! यानी प्रेम के मामले में समान्यतः जहाँ स्त्री व
पुरुष दोनों पक्ष बराबर के हिस्सेदार व बराबर की सक्रियता और पहलधर्मिता के
अधिकारी होते हैं; उन्हें होना चाहिए क्योंकि आनन्द और तज्जन्य
संतुष्टि इसी बराबर की साधिकारिता में है; अतः यदि यह
आनन्द और संतुष्टि नहीं है तो इसका अर्थ है कि वहाँ कुछ असन्तुलन है! यह असन्तुलन
आगे चलकर सम्बन्धों के अन्यथाकरण की दिशा में मुड़ जाता है। सम्बन्धों का यह
अन्यथाकरण सारी स्थितियों को ठस, नीरस और यान्त्रिक बना देता है! दिनेश कुशवाह
अपनी ‘दाम्पत्य के
लिए प्रार्थना’ कविता में
लिखते हैं-
प्रेम
के लिए सबसे कम समय है
हमारी
दिनचर्या में
ज़रूरी
है हर काम और उसका समय पर होना
x x x
प्रेम
किए बिना भी
चलायी
जा सकती है गृहस्थी की गाड़ी
लम्बे
समय तक
x x x
ओह!
कितना त्रासद है
प्रेम
को एक काम की तरह निपटाना
और
हाथ झाड़कर खड़े हो जाना
ओह!
प्रेम करने के लिए करना
कितना
त्रासद है।
(इसी
काया में मोक्ष; पृष्ठ-
57-58)।
दिनेश कुशवाह की कविताओं में भारतीय
दाम्पत्य का यह ठसपन एक ज़रूरी कथ्य की तरह सामने आता है। लेकिन उल्लेखनीय तथ्य यह
है कि दिनेश कुशवाह इस ठसपन या यांत्रिकता या अन्यथाकरण को एकबारगी बरतरफ़ करते हुए
एक ऐसी स्थिति की कल्पना करते हैं, जहाँ सम्बन्धों में ठोस उद्दामता हो, गहरी व
सच्ची संवेदनीयता हो, एकाग्रता व एकान्विति हो! कहना न होगा कि ये
सब चीज़ें तभी संभव हैं, जब स्त्री-पुरुष दोनों नितांत बराबर के
हिस्सेदार हों, बराबर से तन
और मन के स्तर पर सक्रिय हों; कहना होगा कि यौनिक रूप से भी दोनों बराबर से
सन्नद्ध और सक्रिय हों! यहाँ अनिवार्यतः स्त्री-पुरुष यौनिकता की सक्रिय उपस्थिति
है। इस सक्रियता के बिना ठसपन अपना काम शुरू कर देता है। यौनिक रूप से सक्रिय होना
ही प्रकारान्तर से जीवन के असल भौतिक धरातल पर उतरना है, दैहिकता व
ऐंद्रिकता में रमना है। अन्य शब्दों में कहें तो कहा जा सकता है कि यह जीवन के असल
भौतिक धरातल पर उतरना व दैहिक व ऐंद्रिक अभिरमण ही वस्तुतः जीवन का वास्तविक
स्वत्व और सर्वस्व है। पृथ्वी की गुरुत्वाकर्षण शक्ति इसी दैहिक व ऐंद्रिक अभिरमण
का सबसे बड़ा अभिप्रेरक तत्व है। वायवीयता पृथ्वी का अभिलक्षण और अभिक्रम नहीं।
दिनेश कुशवाह अपने पूरे कवि-कर्म में इसी वायवीयता के विरुद्ध सक्रिय हैं। जैसा कि
कहा गया, वे ठोस
भौतिकता, दैहिकता, ऐंद्रिकता
का उद्गान करते हुए जीवन में परले दर्ज़े की संलग्नता और संपृक्ति की प्रतिष्ठापना
करती हुई कविताएँ लिखने के अभ्यस्त कवि हैं। इसी हद दर्ज़े की संलग्नता और संपृक्ति
के अन्तर्गत वे हिन्दू मिथकों का विखण्डन और फिर उनका डि-कोडीकरण करते हैं। ईश्वर, मोक्ष, स्वर्ग
इत्यादि का जैसा भौतिक जीवनपरक डि-कोडीकरण यह कवि करता है; हिन्दी का
शायद ही कोई कवि ऐसा करता होगा! ज़्यादातर कवि मिथकों का प्रयोग उनके प्रचलित अर्थ
और स्वरूप में ही करते देखे जाते हैं। मिथकों का अर्थापचय या अर्थ-वैपरीत्य अमूमन
देखने को नहीं मिलता। दिनेश कुशवाह यह करते हैं। दिनेश कुशवाह तो यहाँ तक जाते हैं
कि भौतिकता के सामने ईश्वर, पुनर्जन्म,
मोक्ष/स्वर्ग जैसी धारणाओं के अस्तित्व पर ही सवाल उठा देते हैं। दरअसल शायद उनका
तर्क यह है कि ये सब तो मात्र एक कपोल कल्पनाएँ और कल्पित धारणा/अवधारणा या उपादान
है, जबकि
भौतिकता एक निपट ज़मीनी हक़ीक़त! अकाट्य सत्य! असल ज़िन्दगी! इसीलिए वे इन चीजों के
स्थान पर असल भौतिक जीवन को तरजीह देते हैं और यही-कुछ वे अपने साथी से भी चाहते
हैं। कहते हैं-
अगर
मेरा किंचित विश्वास होता पुनर्जन्म में
तो
मान लेता कि मैं
तुम्हें
फिर कभी पा लूँगा
पर
मुझे जितना विश्वास है तुम्हारे प्यार पर
उतना
ही अविश्वास है दूसरे जन्म में
इसलिए
तुम्हें न पाने की कल्पना से भी
मुझे
बेइन्तिहा दर्द होता है
x x x
अगर
मेरा किंचित विश्वास होता इस बात में
कि
सब कुछ देख रहा है ईश्वर
एक
दिन वह न्याय करेगा
तो
मैं कभी विचलित न होता
मरते
क्षण तक उसकी प्रतीक्षा करता
पर
मुझे जितना सच दिखता है दुनिया का दुख-दर्द
उतना
ही झूठ लगता है भगवान
इसलिए
मुझे इस नरक होती दुनिया को देखकर
बेइन्तिहा
दर्द होता है
और
तभी मैं अपनी दुखती छाती
तुम्हारे
हृदय से लगा देना चाहता हूँ
ताकि
सुन सकूँ
दर्द
के वही घड़ियाल वहाँ भी बज रहे हैं
कि
तुम्हारी भी आस्था
ज़िन्दगी
में उतनी ही मज़बूत है
कि
तुम भी
सब
कुछ पा लेना चाहती हो
इसी
जनम में।
(वही; पृष्ठ-
28-29)।
यहाँ ध्यान से देखा जाए तो कवि ईश्वर, पुनर्जन्म, नरक इत्यादि
को केवल डिकोड नहीं कर रहा बल्कि उसका एक विकल्प/प्रतिपक्ष भी प्रस्तुत कर रहा है।
यह प्रतिपक्ष प्रतिक्रियावादी न होकर ठोस वैचारिक है, जिसका आधार
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है। ईश्वर इस दुनिया के दु:ख-दर्द को दूर नहीं करेगा; इन दुनिया
के दु:ख-दर्द को तो हमें आपस में मिलकर, परस्पर गँठबंधन में
आकर निपटाना होगा! यह निपटारा किसी अगले जन्म में नहीं, अभी और इसी
जन्म में पूरा होगा,इसके अलावा यह भी कि दुनिया के इन दु:ख-दर्दों
का कारण कोई पुनर्जन्म, ईश्वर या इसी तरह की कोई चीज नहीं है; ये
दु:ख-दर्द इस व्यवस्था ने दिए हैं। हम यदि एक हो जाएँ तो इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ एक
लम्बी लड़ाई लड़ी जा सकती है! इस तरह हम देखते हैं कि कवि की यह वैकल्पिक/सबाल्टर्न
वैचारिकता एक वायवीयता व अतींद्रियता की दलदल से हमें एक ठोस भौतिक जीवनगत आधार पर
ला खड़ा करती है! यह एक प्रतिसंसार की रचना कर देना है, जो हमें एक
नयी वास्तविक दुनिया में एक नयी यात्रा की शुरुआत की तरफ़ ले जाता है।
दिनेश कुशवाह ने प्रेम पर खूब लिखा
है। कहना होगा कि उनकी कविताओं में आया हुआ प्रेम इसी प्रतिसंसार की यात्रा का एक
मुक़ाम है। प्रेम यहाँ वायवीय नहीं, ठोस है। यह एक संयुक्त राजनीतिक लड़ाई का
प्रतिरूप है। इसीलिए उनकी प्रेम कविताएँ हमें स्पष्टतः राजनीतिक कविताएँ भी लगती हैं।
उनका प्रेम व्यक्ति को ऐकांतिक आनन्द की ओर नहीं, अपितु अनन्त
और आवश्यक जीवन-संघर्ष की ओर उन्मुख करता है। निश्चय ही जैसा कि मैंने कहा, मिथकों का
विखंडन इस जीवन-संघर्ष का मूल स्रोत है। असल में भारतीय- विशेषतः हिन्दू-
जीवन-चर्या को मिथकों ने इस क़दर जकड़ रखा है कि जीवन के असल भौतिक वास्तविक यथार्थ
का अभिज्ञान ही किसी को नहीं होने देते। इधर तो मिथकीयता ने इतिहास को ही अपदस्थ
करने का एजेंडा अपनाया हुआ है। इतिहास को मिथक के हाथों अपदस्थ कराए जाने की यह
मुहिम मौज़ूदा दक्षिणपंथी राजनीतिक सत्ता की एक चिरप्रतिक्षित परियोजना है, जो अब परवान
चढ़ी है। ‘उजाले में
आजानुबाहु’ कविता में
कवि ‘बड़बोलों’ के बतौर इस
सत्ता से जुड़े लोगों की अच्छी ख़बर लेता है। मिथक को इतिहास पर वरीयता देने का एक
नतीज़ा यह होता है कि हम यह नहीं जान पाते कि हमारे दु:खों और अभावों का कारण हम
ख़ुद नहीं हैं, ईश्वर, पाप, पूर्वजन्म
इत्यादि नहीं है बल्कि वस्तुतः ख़ुद वे लोग हैं जो इस सत्ता के और उसके समूचे संभार
के कर्ता-धर्ता और नियन्ता हैं! यह एक प्रकार की परले सिरे की रणनीतिक राजनीति है
कि यह रहस्य उजागर न होने पाए कि इस दुनिया को नरक बनाने के असल उत्तरदायी हम हैं!
इस पूरे मसले को ‘पर्सनल इज़ पॉलिटिकल’ की अवधारणा
से समझा जा सकता है। मिथकों का विखंडन किंवा उत्खनन प्रकारान्तर से इसी षाड्यंत्रिक
राजनीति का खुलासा करना है। उदाहरण के लिए दिनेश कुशवाह जब ‘स्वर्ग’ शीर्षक
कविता में स्वर्ग के मिथक का विखंडन व उत्खनन करते हैं तो लगभग इसी तरह की
भाषाभिव्यक्ति का सहारा लेते नज़र आते हैं। लिखते हैं-
स्वर्ग
के ख़िलाफ़ बोलते ही
आकाश
से वज्र चलाकर मारेंगे इंद्र
कुपित
हो जाएँगे धरती पर उसके एजेंट।
स्वर्ग
के ख़िलाफ़ बोलना
धरती
के धुरंधरों के ख़िलाफ़ बोलना है
स्वर्ग
के ख़िलाफ़ बोलना
आकाश
के स्वेच्छाचारियों के ख़िलाफ़ बोलना है
स्वर्ग
के ख़िलाफ़ बोलना धर्मों के ख़िलाफ़ बोलना है
जैसे
ढहेगा स्वर्ग तो
ढह
जाएगा ईश्वर
भाग्य
और पुण्य का ढोंग
ढहेगा
इंद्रासन तो
ढह
जाएगा धरती का स्वर्ग।
(वही; पृष्ठ-108)।
कहना होगा कि दिनेश कुशवाह की कविता कविता
के एक बहुत बड़े संलक्ष्य ‘जनशिक्षण’ की
सम्पूर्ति बहुत ही शानदार तरीक़े से करती है। दिनेश कुशवाह का कवि-कर्म मध्यवर्गीय
विडंबनात्मकता की हिन्दी-कविता की ‘सनातनता’ से लगभग
पूरी तरह मुक्त है। वह अपनी तत्व-प्रकृति में ही एक सामाजिक कर्म है। दिनेश कुशवाह
जिस तरह के वस्तु-तत्व को अपनी कविता में लाते हैं व जिस प्रकार से उसका उपस्थापन
करते हैं, वह कथ्य और
शिल्प दोनों ही, जनजीवन की
ज़रूरतों के हिसाब से बहुत ही प्रासंगिक है। यहाँ यह ध्यान में रखकर चलना होगा कि
दिनेश कुशवाह हमारे यहाँ की हाशिये के समाजों की विशाल जनसंख्या के कवि हैं।
भारतीय/हिन्दू समाज के स्वरूप व आंतरिक संरचना को वैज्ञानिक दृष्टि से समझते हुए
वे अग्रसर होते हैं। वे भावनात्मक सामान्यीकरण नहीं करते बल्कि कास्ट, क्लास व
जेंडर के त्रिकोण में मानवीय स्वभाव व क्रियाओं-अभिक्रियाओं का अध्ययन-आकलन करते
हैं। सामान्यजन उनका रचनात्मक उपजीव्य है। इसी सामान्यजन की बहबूदी उनकी कविता का
अभिप्रेत है। जीवन की ऊसरता में नहीं, उसके लहलहाने में यह
कवि कविता तलाशता है। अपनी ‘नदी’शीर्षक कविता में एक
जगह गोदावरी नदी के लिए कवि लिखता है-
गोदावरी!
मैंने तुम्हें कहीं ऊसर नहीं देखा
परंतु
कृष्णे! मैंने जब भी देखा
तुम्हें
रेत-रेत होकर बिखरते
मुझसे
कोई कविता नहीं लिखी गई।
(वही; पृष्ठ-18)।
एक और कविता में कवि लिखता है कि
कविता एकाकीपन में नहीं, सामाजिकता में सन्निहित होती है। यह ठीक है
कि कविता अकेले में और एकाकी कवि द्वारा लिखी जाती है; लेकिन
वस्तुस्थिति यह है कि यह स्थिति पैदा ही तब होती है, जब कवि
किन्हीं सामाजिक सम्बन्धों में निमग्न होता है-
तुमसे
मिलकर लगता है
कविता
कितनी आसान हो गई,
शब्द
हो गए अपने साथी
गीत-परी
कुर्बान हो गई।
(इतिहास
में अभागे; पृष्ठ-44)।
दिनेश कुशवाह की कविता को सबाल्टर्न
दृष्टि से धरती की कविता- धरती-पुत्री- कहा जा सकता है। यह धरती-पुत्री स्वयं में
तो वास्तविक यथार्थ की प्रवाचिका है ही, एक नये यथार्थ- कहें
कि जीवन की नयी संभवनशीलता- की प्रस्ताविका भी है। यह जो नयी संभवनशीलता कविता से
निस्सृत या व्यंजित हो रही है; प्रकारान्तर से वही कविता का जन-शिक्षण है।
कवि अपनी एक भावभीनी कविता ‘पिता की चिता जलाते हुए’ में एक जगह
लिखता है-
इसलिए
जनता को शास्त्र से नहीं
कविता
से शिक्षित करो
साधुता
को श्रम से जोड़ो
भिक्षा
से मुक्त करो
साधुता
वहाँ बसती है
जहाँ
जूता गाँठते हैं रैदास
चादर
बुनते हैं कबीर।
(इसी
काया में मोक्ष; पृष्ठ-
11-12)।
कविता का लोक-शिक्षण कोई
धार्मिक-आध्यात्मिक उपदेश या संदेश नहीं होता; बल्कि एक
विचार होता है; एक ऐसा
विचार, जो
सामान्यजन के राजनीतिक एवं सामाजिकार्थिक विकास और नवनवोन्मेष के लिए निहायत ही
अनिवार्य होता है। जैसे इन्हीं पंक्तियों में कवि साधुत्व को भिक्षा-वृत्ति से अलग
कर श्रमशीलता से जोड़ता है। भिक्षा-वृत्ति परजीवीपन है; यह धर्म की
आड़ में मनुष्य को पराश्रित व शोषक बनाता है, जबकि
श्रमशीलता व्यक्ति को सक्रिय और सचेत रखती है। यही वैकल्पिक वैचारिकी की वह अकूत
सृजनात्मकता है, जो व्यक्ति
को उत्साह की असीम ऊर्जा से भर देती है। दिनेश कुशवाह की कविता इसी ऊर्जा से भरी
है।
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आधार
ग्रंथ :
1. इसी काया में
मोक्ष; राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली; दूसरा
संस्करण : 2013
2. इतिहास में
अभागे; राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली; पहला
संस्करण : 2017
दिनेश कुशवाह की कुछ रचनाएँ दिनेश कुशवाह का एक इंटरव्यू
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शंभु गुप्त
·1953 में ब्रज-प्रदेश राजस्थान के
भरतपुर ज़िले के हलैना नामक गाँव में जन्म।
·प्रारम्भिक-माध्यमिक शिक्षा गाँव के सरकारी
स्कूल में। उच्च शिक्षा भरतपुर एवं आगरा में। आगरा के प्रसिद्ध कन्हैयालाल
माणिक्यलाल मुंशी हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ से एम.ए. तथा पी-एच.डी.
·छत्तीस तीस वर्षों तक उच्च शिक्षा में
प्राध्यापक। राजस्थान के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में हिन्दी प्राध्यापक/विभागाध्यक्ष
तथा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा (महाराष्ट्र) में स्त्री
अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद पर आठ वर्ष कार्यरत रहने के बाद फ़िलहाल सेवानिवृत्त।
·पत्रकारिता तथा नाट्य-कर्म से जुड़ाव।अभिनय एवं
पटकथा-लेखन।
·30 वर्षों से आलोचना में सक्रिय। हिन्दी
की समस्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना प्रकाशित।
·म.गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की त्रैमासिक पत्रिका ‘बहुवचन’ का दो वर्ष तक सहसंपादन।
· पुरस्कार-सम्मान:‘अभिव्यक्ति’युवा आलोचक पुरस्कार-1992,रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान-2008,स्पंदन आलोचना पुरस्कार-2009,अर्जुन
कवि जनवाणी पुरस्कार-2011, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचना सम्मान-
2020, विशिष्ट साहित्यकार सम्मान-2023 (राजस्थान साहित्य अकादमी)।
·प्रकाशित पुस्तकें : मैंने पढ़ा समाज,कहानी: समकालीन चुनौतियाँ, दो
अक्षर सौ ज्ञान, अनहद गरजै,
साहित्य-सृजन:बदलती प्रक्रिया, कहानी: वस्तु और अन्तर्वस्तु, कहानी की अन्दरूनी सतह, कहानी : यथार्थवाद से
मुक्ति,डिबिया में धूप।
·विदेश-यात्रा:दक्षिण अफ्रीका(9वां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2012,जोहान्सबर्ग) तथा2018 मेंसिंगापुर की निजी
यात्रा।
· पूर्व प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, स्त्री अध्ययन विभाग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, पोस्ट: हिंदी
विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा - 442001
(महाराष्ट्र), भारत।
·महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी
विश्वविद्यालय, पोस्ट: हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा से सेवा-निवृत्ति के बाद स्वतंत्र लेखन।
संपर्क : प्रो. शंभु गुप्त , 21, सुभाष
नगर, एन ई बी , अग्रसेन सर्किल के पास, अलवर-310 001 (राजस्थान) भारत
·मोबा. 91-8600552663,91-9414789779e-mail-
shambhugupt@gmail.com
दिनेश कुशवाह की कविता का समाजशास्त्र-रवि रंजन