कविता कृष्णपल्लवी की नौ कविताएँ
कविता इक्कीसवीं सदी में सामने आये कुछ प्रमुख हिन्दी कवियों में एक हैं। अपने स्पष्ट वैचारिक पक्ष और धारदार तेवर के कारण उनकी एक अलग पहचान है। अपनी बात को संवेदनशील तरीके से, मगर डंके की चोट पर कहना, उन्हें आता है। उनकी कविताएँ पाठक को अवाक् नहीं बनातीं बल्कि उसके मनो-मस्तिष्क पर चोट करती हैं। झकझोरती हैं। आइये पढ़ते हैं उनकी कुछ कविताएँ ...
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पेंटिंग - पूर्वाशा राय |
(एक)
कुल जमा हासिल में से कुछ चीज़ें
पहली चोट सबसे अधिक गहरी थी
जिसके बाद मैंने खो दी किसी हद तक
अपने हृदय की करुणा और दयालुता
और तरलता ।
और फिर चोट खाने के कई चक्रों में
मैं इन चीज़ों को खोती रही क़तरा-क़तरा।
एक दिन मुझे एक यायावर दार्शनिक-कवि ने
बताया कि अच्छे और गर्म ख़ूबसूरत दिलों को
गहरी से गहरी चोट खाकर
कविता की गहराई हासिल करनी होती है
और दुनिया के सबसे मामूली और सबसे
तकलीफ़ज़दा लोगों के सपनों को
शब्द देना होता है।
फिर मैंने अपने हृदय की खोई हुई करुणा
और दयालुता और तरलता को
फिर से पाने के लिए
एक लम्बी जद्दोजहद की शुरुआत की
और इसके हर चक्र में
थोड़ी क़ामयाबी के साथ
मुझे हासिल हुई
पहले से अधिक गहरी चोट
और पहले से अधिक
सहने की ताक़त।
**
(दो)
गुमशुदगी
पुलिस का वह नाज़ुक सा दुबला-पतला
सब इंस्पेक्टर छात्र जीवन में
कविताएँ लिखता था
और अब पहाड़ के दूर-दराज़ के इस थाने में
जहाँ शायद ही कभी कोई
शिक़ायत दर्ज कराने आता था,
दिन भर कुर्सी पर बैठा ऊँघता रहता था
टेबल पर टाँग पसारे हुए।
आज उसके सामने बैठा था
खिचड़ी दाढ़ी और मैली-कुचैली टोपी वाला
एक
बूढ़ा जो ज़िद ठाने हुआ था
कि गुमशुदा लोगों के रजिस्टर में
उसका नाम लिख लिया जाये
और थाने की दीवार पर उसकी तस्वीर
चस्पाँ कर दी जाये।
न उसे अपना नाम याद था,
न ही उसके पास
कोई पहचान पत्र या आधार कार्ड था।
कुछ घण्टे चुप रहने के बाद
सब इंस्पेक्टर बोला थकी हुई आवाज़ में,
"चचा, गुमशुदा
लोगों में मैं भी तो शामिल हूँ।
लोग मुझे जानते हैं मेरी वर्दी पर टँके नाम
से
और मेरे पहचान पत्र से
लेकिन मैं ख़ुद को नहीं पहचान पाता,
न ही कुछ याद कर पाता हूँ
और जब भी निकलता हूँ दौरे पर
तो बस ख़ुद को ही ढूँढ़ता रहता हूँ
भीड़ के एक-एक चेहरे को
ग़ौर से देखते हुए।
**
(तीन)
अतिरेकों के युग की कुछ अच्छी-बुरी चीज़ें,
कुछ विस्मयकारी विशिष्टताएँ और शरीफ़ लोगों की कुछ उदात्त दुविधाएँ
... यहाँ तक कि पुरातन चेहरे वाली
आधुनिकतम बर्बरता और दुनिया के सबसे
बेशर्म बौद्धिक समझौतों की
अनदेखी करते हुए बहुतेरे भले लोगों ने भी
करुणा, प्यार,
मनुष्यता, चित्त की शान्ति आदि की
आध्यात्मिक बातें करने की आदत डाल ली है।
हमारे समय की उदासी
हँसता हुआ चेहरा लिये घूमती है।
दुख अपनी सामाजिकता खो चुके हैं।
किसी का फट नहीं पड़ेगा कलेजा
न दोस्ती भरा कोई हाथ थाम लेगा हाथ
अगर दिल टूटने और पुराने दिनों में
चुपचाप प्यार करते चले जाने के
कुछ किस्से सुना दिये जायें।
दिल खोल कर रख देने की
सोचें भी तो कैसे,
परदे के पीछे चाकू लिये हाथों में
हत्यारे की परछाईं साफ़ दीख रही है
और उधर एक प्रतिशोधी आलोचक पूरी तैयारी के साथ
घात लगाये बैठा है।
कोई कीड़ा रात के सन्नाटे में
आत्मा को 'किर्र-किर्र'
काटता रहता है
और आप चाहते हैं कि हम सहजता
और ताज़गी के साथ जीते रहें
और पुरस्करणीय कविताएँ लिखते रहें।
सनातनी लोकतंत्र में दान-पुन्य के मद की
अच्छी-ख़ासी रकम कला-साहित्य की सेवा में
लगा रही हैं सुसंस्कृत समृद्ध शक्तिशाली
लोगों की संस्थाएँ और सरकारें।
लेकिन फ़िलहाल बेहतर यही होगा कि
साहित्य अकादमी या किसी लिट फेस्ट में
जाने के बजाय बागेश्वर धाम वाले बाबा
या श्री श्री,
सद्गुरु -- किसी के भी
आश्रम में चले जायें
या फिर चार धाम की यात्रा ही कर आयें।
**
(चार)
उफ़्फ़ ! ये बिगड़ी हुई लड़कियाँ !!
लड़कियाँ हमेशा कोई न कोई बहाना
ढूँढ़ ही लेती हैं बिगड़ जाने का!
कभी वे मोबाइल से तो कभी फटी जींस से,
तो कभी एक्स्ट्रा लो-राइज़ जींस और
स्लीवलेस
नाभिदर्शना शर्ट से बिगड़ जाती हैं।
कभी शॉर्ट्स पहनकर,
तो कभी ब्रा के स्ट्रैप्स दिखाकर,
या बस्टलाइन दिख जाने की लापरवाही से
बिगड़ जाती हैं ।
बिगड़ जाने पर एकदम उतारू लड़कियाँ
खुलेआम सिगरेट या बियर तक पीकर
बिगड़ जाती हैं,
बाइक पर पीछे से लड़के को
कसकर पकड़े हुए बिगड़ जाती हैं,
सरेआम 'ठी-ठी-ठी-ठी'
करके,
दोस्तों के साथ
मटरगश्ती करके बिगड़ जाती हैं लड़कियाँ
और डेटिंग वगैरह करके,
जाति-धर्म को गोली मारकर शादी करके
या लिव-इन रिलेशनशिप में जाकर
या 'कंसेसुअल सेक्स'
करके
या अम्मा-बाबूजी-भइया और दोस्तों को
अपने लेस्बियन,
बाइसेक्सुअल या
एसेक्सुअल होने के बारे में बताकर
तो इस हद तक, इस
हद तक बिगड़ जाती हैं
ये लड़कियाँ कि साक्षात् सृष्टिकर्ता भी
फिर उन्हें नहीं सुधार सकते।
इतनी मग़रूर है ये लड़कियाँ कि अपनी
निजता के स्पेस में किसी की भी
दखलअंदाज़ी को नाकाबिले-बरदाश्त बताती हैं
और बेशर्म इतनी कि अपने बॉयफ्रेंड को भी
बता सकती है कि वे 'वर्जिन' नहीं है!
अब तो हालात इतने संगीन हो चले हैं
कि धरना-प्रदर्शन-हड़तालों में हिस्सा लेकर,
क्रान्तिकारी संगठन तक बनाकर
और हँसती-खिलखिलाती
पुलिस वैनों में ठुँसकर जेल जाती हुई
लड़कियाँ भयंकर डरावने ढंगों से
बिगड़ती जा रही हैं!
*
कभी लड़कियाँ सिर्फ़ रोज़ सुबह
नहाकर पूजा-पाठ न करने से,
साइकिल चलाने से,
बाल्कनी में खड़ी रहने से
या दिन-रात ट्रांजिस्टर पर गाना सुनने से
बिगड़ा करतीं थीं।
अब उन्होंने बिगड़ने के हज़ारों रास्ते
ईजाद कर लिए हैं और ऐसे-ऐसे
भयंकर रास्ते ईजाद किए हैं कि
क्रुद्ध शेषनाग के विचलित फनों पर टिकी
धरती काँपती रहती है
और ऐसे अशालीन सपनों से
विष्णु जी की नींद डिस्टर्ब होती रहती है
जिन्हें
वह लक्ष्मी जी को बता भी नहीं सकते।
*
मैं भी इतने तरीकों से इतनी बार
बिगड़ी
कि याद भी नहीं।
अब रोज़-रोज़ उन्हीं पुराने तरीकों से बिगड़ना
बोरियत भरा काम लगता है,
इसलिए तमाम
महाबिगड़ैल लड़कियों की तरह
बिगड़ने के नये-नये तरीके
ईजाद करने पड़ते हैं।
*
अपने ज़माने में जिन लड़कियों को बिगड़ने का
मनचाहा मौक़ा नहीं मिलता है
और
जो 'सुशील कन्या' की
छवि में क़ैद घुटती रह जाती हैं,
वे ही ढलती उम्र में वो आण्टियाँ बन जाती हैं
जो लड़कियों के बिगड़ने पर
सबसे अधिक स्यापा करतीं हैं,
छाती पीटती है और कोसती-सरापती हैं।
ये आण्टियाँ मर्दों से भी ज्यादा मर्द होती
हैं।
ये अँधेरे की इस क़दर आदी हो चुकी हैं
कि इनके तंग घोंसले में रोशनी की
एक लकीर भी चली जाये
तो आँखों में जैसे सुई घुस जाती है और
ये 'चीं-चीं'
करने लगती हैं।
वैसे, जैसा कि
एक पक्षत्यागी-दलघाती आण्टी ने ही बताया,
ज़्यादातर आण्टियों के बिगड़ जाने की अपनी
गुप्त फंतासियाँ हुआ करती हैं और दुर्भाग्य
से
वे ज़रा बीमार किस्म की हुआ करती हैं।
*
लड़कियाँ बिगड़ती हैं
तभी यह दुनिया सुधरती है।
लड़कियाँ तमाम बदनामी झेलकर,
तमाम जोखिम उठाकर न सिर्फ़ साँस लेने के लिए,
बल्कि इस दुनिया को सुन्दर बनाने के लिए
और गतिमान करने के लिए बिगड़ती हैं।
अगर झुँझलाहट होती है तो सिर्फ़ इस बात पर कि
लड़कियाँ और अधिक बड़े पैमाने पर,
और अधिक तेजी के साथ,
और अधिक भयंकर तरीकों से
क्यों नहीं बिगड़ जातीं!
**
(पाँच)
चुड़ैलें
चुड़ैलें बहुत हँसती हैं,
बेशर्म और ज़िद्दी होती हैं,
बेहद बातूनी होती हैं और हर बात पर
बहस करती हैं अनथक ।
चुड़ैलें अपनी ज़िन्दगी के हर फ़ैसले ख़ुद लेती
हैं
और इसलिए बेहद डरावनी होती हैं ।
लोगों को विश्वास होता है कि वे सारी औरतों
को
बिगाड़
सकती हैं और इस दुनिया को
नरक बना सकती हैं ।
चुड़ैलें समझौते नहीं करतीं
बुद्धिजीवियों की तरह ,
न ही हर क़ीमत पर शान्ति खरीदने की कोशिश करती
हैं
अतिशय शान्तिप्रेमी सद्गृहस्थों की तरह,
न ज़माने के हिसाब से चलने या ढलने की
कोई कोशिश करती हैं ।
चुड़ैलें प्रतिवाद करती हैं,
सवाल उठाती हैं,
असहमति प्रगट करती हैं और पलटवार करती हैं ।
चुड़ैलें दिन के उजाले में दुनिया की तमाम
औरतों में घुली-मिली रहती हैं
पर अक्सर अपनी आदत से पहचान ली जाती हैं ।
कई बार कोई पुरुष अचानक पाता है
कि उसकी पत्नी या बेटी एक चुड़ैल बन चुकी है
।
फिर दुनिया के तमाम ओझा-गुनी और तांत्रिक उन्हें
तरह-तरह से बाँधते हैं,
समझाते हैं और
विफल होकर फिर तरह-तरह से दण्डित करते हैं ।
अक्सर उन्हें दूर देश निर्वासित कर दिया जाता
है
लेकिन वे हमेशा लौट आती हैं और बिना रुके
फिर अपने काम में लग जाती हैं ।
वे उद्विग्न-अशान्त आत्माएँ होती हैं
सृष्टि के ओर-छोर तक भटकती हुई ।
वे शापित यक्ष-कन्याएँ होती हैं
जिनके क्षमा-याचना करने या देवलोक जाने के पारपत्र
के लिए
प्रार्थना-पत्र लिखने का कोई इतिहास नहीं मिलता
।
चुड़ैलों के दुःखों के आख्यान विरल ही मिलते
हैं
अमावस्या की रात श्मशान के नीरव एकान्त में
चुड़ैलें किसी ऐतिहासिक पीड़ा को लेकर
ख़ून के आँसू रोती हैं
और कवियों के लिए मिथकीय रहस्यों का
सृजन करती हैं ।
चुड़ैलें तिरस्कृत चमगादड़ों से संवाद करती
हैं
और रात को भनभन करते हुए
उनके साथ आकाश में गोते लगाती हुई उड़ती हैं
।
वे छम-छम पायल बजाते हुए
अपने
उल्टे पैरों से नाचते हुए
चौंरे के पोखर तक नहाने जाती हैं
और फिर पास के बूढ़े पीपल के पेड़ पर चढ़ कर
उसकी सबसे ऊँची डाल से
तमाम स्त्रियों की उचाट नींदों और प्रतिबंधित
सपनों में
झम्म से कूद पड़ती हैं ।
**
(छह)
एक समकालीन मतिभ्रम
पता नहीं, ख़राबी
मेरी आँखों की है
या दिमाग़ की,
या ज़माने की!
हिन्दी के ऋषितुल्य उन महान आचार्यों को
जब इन दिनों पढ़ती हूँ
जो प्रगतिशीलों और जनवादियों के
प्रणम्य रहे,
और कई विश्वविद्यालयों और संस्थानों की
शोभा बढ़ाते रहे जीवनपर्यन्त,
तो हिन्दी नवजागरण को
हिन्दू नवजागरण पढ़ लेती हूँ,
और हिन्दी जाति को हिन्दू जाति!
माथा कुछ ऐसा घूम गया है कि
लोक जागरण से भगवती जागरण की
याद आने लगती है
और जनमानस से रामचरितमानस की!
संगोष्ठियों में जाती हूँ तो लगता है कि
माता की चौकी सजी है
और जगराता हो रहा है!
यह कैसा मेटामार्फोसिस कि
हिन्दी साहित्य का इतिहास पढ़ते हुए
मेरे भीतर भक्ति भावना
उमड़ने-घुमड़ने लगती है
और मतिभ्रम ऐसा कि
सौ के नोट को तो छोड़िए
मुझे तो हिन्दी विभागों और
अकादमियों के मुख्य द्वारों पर भी
लक्ष्मी-गणेश के फोटू
दीखने लगे हैं!
**
(सात)
पेटी-बुर्जुआ गृहस्वामी
छोटे-छोटे घरों में छोटे-छोटे ईश्वर
निवास करते हैं
अपने भक्तों की छोटी-छोटी संख्याओं के साथ
जो उनकी प्रजा होते हैं।
उनमें स्त्रियांँ होती हैं,
बच्चे होते हैं
और वे सभी लोग होते हैं
जो खुद को उनपर आश्रित समझते हैं।
बड़े-बड़े ईश्वर बड़े-बड़े घरों में रहते हैं
लेकिन उनका साम्राज्य उनके घरों से बाहर
दूर-दूर तक फैला होता है।
सभी छोटे ईश्वर बड़े-बड़े ईश्वरों की
प्रजा होते हैं।
बड़े ईश्वरों की सेवा करते हुए
छोटे ईश्वर ख़ुश और संतुष्ट रहते हैं।
ख़ुद उनकी सेवा करने और उनका
हर हुक़्म बजा लाने के लिए
छोटे-छोटे घरों में बंद
उनकी अपनी प्रजा होती है।
**
(आठ)
ताक़तवर कवि
उन्होंने ताक़तवर लोगों
के ख़िलाफ़
बहुत ज़ोरदार कविताएँ
लिखीं,
और कमज़ोर, दबे-कुचले
लोगों के बारे में भी
और दुनिया में सिकुड़ती
प्यार की जगहों,
स्त्रियों के अकथ-असह्य
दु खों
और समंदरों और पर्वतों
और घाटियों
और चींटियों और बच्चों
के बारे में भी ।
स्मृतियों और सपनों के बारे में
और शान्ति की आतुर पुकारों के बारे में
और संगीत के बारे में
और युद्धों और लूट के ख़िलाफ़
उन्होंने बेहद कलात्मक और असरदार
कविताएँ लिखीं I
उनकी कविताएँ सुधी जनों में
चर्चा का विषय बनीं ।
फिर उनकी ख्याति
ताक़तवर लोगों तक भी पहुँची ।
ताक़तवर लोगों ने उन्हें बुलाया हवेली पर
और कहा, "सुना, तुम बहुत ताक़तवर
कविताएँ
लिखते हो!
ज़रा हमें भी सुनाओ!
डरो मत! हम कुछ नहीं करेंगे!
हम तुम्हें ईनाम देंगे!"
ताक़तवर लोगों की ड्योढ़ी से
वह बहुत ताक़तवर कवि बनकर
वापस लौटे!
**
(नौ)
पकी उम्र में प्यार
कविता की तरह कम होता है I
ज़्यादातर वह ठोस यथार्थवादी
गद्य की तरह होता है I
सघन अर्थ-गाम्भीर्य की
गुरुता होती है उसमें,
अलग होता है उसका स्थापत्य
और संश्लिष्ट होता है
उसका सौन्दर्यशास्त्र ।
पकी उम्र का प्यार
पथरीली ज़मीन के नीचे
चुपचाप बह रही
उन भूमिगत जलधाराओं की तरह होता है
जो कई बार फूटकर
ख़ुद ही बाहर निकल आती हैं
और कई बार उन्हें खींच कर
बाहर लाना पड़ता है
जीवन की हरीतिमा के लिए ।
कठिन दिनों में जीना,
और अपनी पूरी गरिमा के साथ जीना
सिखाता है पकी उम्र का प्यार
और पराजय के दिनों में
जब हम फिर से उठ खड़े होने की
कठिनाइयों से जूझ रहे होते हैं
तब वह नेपथ्य में
किसी पक्के राग के
साँचे में ढले विचार की तरह
बजता रहता है ।
**
कवि परिचय :
कविता कृष्णपल्लवी
विगत ढाई दशकों से भी अधिक समय से क्रान्तिकारी
वाम धारा से जुड़ी राजनीतिक ऐक्टिविस्ट का जीवन ।सम्प्रति हरिद्वार में स्त्री मजदूरों के बीच
काम और देहरादून में सांस्कृतिक सक्रियता । बरसों कविताएँ छिटफुट लिखने और नष्ट करने के
बाद 2006 से नियमित कविता-लेखन । हिन्दी की अधिकांश पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ
प्रकाशित । नेपाली, मराठी, बांग्ला, अंग्रेज़ी
और फ्रेंच में कुछ कविताएँ अनूदित । एक संकलन 'नगर
में बर्बर' वर्ष 2019 में परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित । 'अन्वेषा'
वार्षिकी 2024 का सम्पादन किया जो काफ़ी चर्चित रहा ।
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