काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

एक मशहूर बाल रोग चिकित्सक का बचपन

पेंटिंग - अनुप्रिया


 भौकापुर का लड़का

प्रदीप कुमार शुक्ल

किंग जार्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ से एम. बी. बी. एस., एम. डी. - बालरोग (स्वर्ण पदक) की डिग्री हासिल कर डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल वर्तमान में, लखनऊ  में ही बाल रोग एवं नवजात शिशु रोग विशेषज्ञ के रूप में कार्यरत हैं। आज वे चिकित्सा जगत के एक महत्वपूर्ण शख्सियत के रूप में पहचाने जाते हैं। वे सफल व कुशल चिकित्सक के रूप में प्रतिष्ठित हैं। पर उनका अतीत काफी संघर्षों व कठिनाइयों से भरा रहा है। उनका जन्म लखनऊ  जिले के छोटे से गाँव ‘भौकापुर’ के एक किसान परिवार में हुआ। न सि़र्फ परिवार में बल्कि उनके पूरे गाँव में ही ऐसा कोई माहौल नहीं था, जहाँ से कोई ऐसी संभावना या अवसर फूट सके कि आज जिस मु़काम पर वे हैं, वहाँ तक की यात्रा का स्वप्न भी आकार ले पाता। शुक्ल ने प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में ही पूरी की। बी. एससी. कान्य कुब्ज कॉलेज, लखनऊ से किया। यहाँ तक वे बहुत औसत क़िस्म के छात्र रहे व उनका जीवन काफी भटकावों से भरा रहा, पर यहाँ से उन्होंने अपने जीवन की राह अपने संघर्षों के दम पर बदलनी शुरू की, तो फिर मुड़कर नहीं देखा। यह संघर्ष कथा एक फंतासी की तरह लगती है, मगर है पूरी तरह यथार्थ, प्रेरक व दिलचस्प। इस कृति को खास तौर पर ग्रामीण पृष्ठभूमि से बाहर निकल कर बेहतर सपने संजोने वाले छात्रों को तो पढ़ना ही चाहिए बल्कि उन तमाम अभिभावकों और शिक्षकों को भी पढ़ना चाहिए, जो नंबर गेम में पिछड़ जाने वाले बच्चों की प्रतिभा पर विश्वास करना ही बंद कर देते हैं। साथ ही साथ ग्रामीण किसान परिवार की विश्वसनीय अनुभूतियों के ब्यौरों  व  गाँव से  शहर पढ़ने आये अभावग्रस्त किशोर की दिशाहीनता व नये परिवेश से सामंजस्य बैठाने के जद्दोजहद के रेखांकन से भी यह गाथा मार्मिक व पठनीय बन गई है। एक बार शुरू करेंगे तो उसी बैठक में खत्म करने तक पढ़ते चले जाएँगे।



भौकापुर का लड़का


जो सपने हों सब अपने हों,
सपनों का मर जाना कैसा 
सपने बस सपने होते हैं,
ऐसा कोई बहाना कैसा। 
12 जनवरी, 1999 कॉलेज में मेरा आखिरी दिन। मौका था हिन्दुस्तान के कुछ चुनिन्दा मेडिकल कॉलेजों में से एक, किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज, लखनऊ के दीक्षांत समारोह का, जिसमें भारत के यशस्वी प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेई जी देश के युवा मेधावी चिकित्सकों को सम्मानित करने वाले थे, मैं भी उन भाग्यशाली लोगों में से एक था। 
      ‘पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा’ वाले गाने की रोमांटिक सिचुएशन थी, पापा भी थे और बेटा भी। पर गाने की अगली लाइनें लागू नहीं होती थीं। मेरे पास मंजिल भी थी और मुझे यह भी पता था कि आगे क्या करना है। दरअसल मेरे हाथ में उस वक्त दो-दो नियुक्ति पत्र थे। एक था केंद्रीय स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मेरा चुनाव, जिसमें मेरी नियुक्ति एनसीटी यानी नेशनल कैपिटल टेरिटोरी के लिए हुई थी और दूसरा पत्र राज्य सरकार की स्वास्थ्य सेवाओं के लिए था। 
      साढ़े पाँच साल एमबीबीएस और तीन साल एमडी करने के बाद इस कॉलेज से मेरी विदाई हो रही थी और इस आखिरी विदाई समारोह में मुझे अपने बालरोग विभाग में बेस्ट रेजीडेंट डॉक्टर के लिए गोल्ड मेडल अवार्ड दिया जा रहा था। आँखों के सामने कॉलेज का वह पहला दिन याद आ गया। 
      चार अक्टूबर सन उन्नीस सौ नवासी के एक सुहाने दिन जब मैंने पहली बार ‘किंग जॉर्ज मेडिकल कॉलेज’ के कॉलेज वाले हिस्से में कदम रखा था, तब इस भव्य और विशाल प्रशासनिक भवन को देख कर उस दिन जो रोमांच मन में उभरा था, कमोबेश वही अनुभूति आज फिर महसूस कर रहा हूँ। प्रशासनिक भवन की वही भव्यता अब तक बरकरार है। स़फेदी कुछ और चमकदार दिख रही है। हरियाली और फूल नि:संदेह पहले से ज्यादा हैं और रख-रखाव बेहतर। 
      समय किसी चिड़िया-सा फुर्र से उड़ गया है। अभी कल की ही तो बात है, मैं कुछ-कुछ गर्वित होता हुआ, कुछ-कुछ घबराया हुआ-सा इस मेडिकल कॉलेज के प्रांगण में पहली बार सत्ताईस नंबर की बस से उतरकर घुसा था। सत्ताईस नंबर बस चारबाग से चौक चलती थी। सी. पी. एम. टी. में मेरी अच्छी रैंक का खुमार अभी उतरा नहीं था। सामने से आते हुए सफाचट मूँछों वाले दो लड़कों से केवल प्रिंसिपल ऑफ़िस का पता ही नहीं पूछा, बल्कि उन्हें ये भी बताया कि मैं यहाँ एम. बी. बी. एस. में एडमिशन लेने आया हूँ। बस फिर क्या था, अगले दस मिनटों में मेरी हालत चूहे जैसी हो गई थी और मैं दौड़कर AB (Administrative Block) के बिल में घुस जाना चाहता था। 
      डर वहाँ भी पीछा नहीं छोड़ रहा था। हृदयगति और ब्लड प्रेशर आसमान छू रहे थे। मेडिकल कर रहे रेजिडेंट डॉक्टर ने पहले तो जमकर सूता फिर समझाया कि, ‘अबे तुझे खा थोड़े ही जाएंगे, मस्त रह।’ यह सब वार्तालाप हो रहा था ‘ह्वाइट हॉल’ में, जहाँ पर हम एक साथ दस लड़के अपनी पैदाइशी दिगंबर अवस्था में लाइन लगाकर खड़े थे। सामने गले में आला लटकाए आराम से समोसे खा रहे हमारे पूर्वज बी. सी. (बातचीत) में मशगूल थे। ब्राउन हॉल को पहली बार देखकर मुँह से बरबस ही निकल पड़ा था, ‘‘वाह! शानदार।’’ ह्वाइट हॉल तो अब रहा नहीं पर ब्राउन हॉल अपने पूरे आभामंडल के साथ अभी भी मौज़ूद है। आज ब्राउन हॉल को देख कर लगा कि जैसे अभी-अभी प्रोफेसर बी. के. खन्ना साहेब बसंती हा़फ शर्ट और स़फेद पैंट पहने नमूदार होंगे और लगभग चिल्लाते हुए कहेंगे, ‘‘दिस इज़ दि टर्निंग पॉइंट ऑ़फ योर लाइफ...’’
      लगभग पूरा दिन प्रवेश प्रक्रिया और मेडिकल में ही गुज़रा था और दिन खत्म होते-होते डॉक्टर बनने की खुशी की जगह दिल में सीनियर्स का डर समा चुका था। तीसरी बटन देखते-देखते गर्दन दुखने लगी थी। तीन नंबर, सात नंबर सलाम स्पाईनल रिफ्लेक्स से नियंत्रित होने लगे थे। हालत यह हो गई कि कॉलेज से दो किलोमीटर दूर भागकर घर के लिए चौराहे पर टेम्पो में सवार होने से पहले, रास्ते में सात राहगीरों को सात नंबर सलाम ठोंक चुका था।
      यादों का कारवां थोड़ा थमा, तो देखा कि पिताजी सभागार में अपनी आँखों में खुशियों की झिलमिल और अपने एक साल के पोते को गोद में लिए बैठे थे। चकित आँखों से चारों तरफ देखता यह बच्चा भविष्य में इसी मेडिकल कॉलेज के एक ऐसे ही समारोह में स्वर्णपदक पर तालियाँ बटोरेगा, तब यह कहाँ मालूम था। बाबा ने दुलराते हुए उसे कहा होगा कि तुझे भी तेरे पापा जैसा डॉक्टर बनना है और गोल्डमेडल लेना है। बड़े-बूढ़े बच्चों को इस तरह का आशीर्वाद देते ही रहते हैं, इसका कोई खास मतलब नहीं होता है। पर यह आशीर्वाद 22 साल बाद फलीभूत हुआ। 
      पिताजी को देखकर मुझे वह साधारण-सा वाकया याद आया करीब 17 साल पहले का। इसी तरह का आशीर्वाद उन्होंने अपने बेटे को भी दिया था, जब वह हाईस्कूल में किसी तरह गांधी डिवीज़न से पास होकर आगे की पढ़ाई के लिए शहर जा रहा था। तब उन्होंने कहा था, ‘बेटा खूब पढ़ना और डॉक्टर-इंजीनियर बनना।’ हालांकि तब उन्हें नहीं पता था कि डॉक्टर-इंजीनियर की पढ़ाई कहाँ और कैसे होती है। उनकी पीढ़ी के लिए यह एक आशीर्वादी जुमला था, उछाल दिया जाता था। 
      मंच के पास हम सभी प्रधानमंत्री जी के आगमन का इंतज़ार कर रहे थे। इस गोल्डमेडल की कीमत मेरे लिए क्या थी, यह मैं ही समझ सकता था। किसी तरह से हाईस्कूल घिसट कर पास होने और केजीएमसी में स्वर्णपदक तक का सफर कैसा होगा, इसकी आप बस कल्पना ही कर सकते हैं। दिमाग में एक-एक कर सारे दृश्य सजीव होने लगे। मन तेज़ी से उड़ता हुआ हमारे छोटे से गाँव ‘भौकापुर’ पहुँच गया। 

1

आने जाने का ये सिलसिला मुसलसल है 
हम भी आए हैं इक रोज़ चले जाएँगे। 
आषाढ़ के एक उमस भरे दिन में, उत्तर प्रदेश के एक साधारण से गाँव की किसी अँधेरी कोठरी में मेरा जन्म हुआ। ऐसे ही हमारे समय के बच्चे इस दुनिया में अवतरित होते थे। गाँव की ही कोई बुज़ुर्ग महिला प्रसव सहायक होती और बच्चे, बुआओं-चाचियों-दादियों की गोद में चिग्घाड़ना शुरू कर देते। बच्चों के बहुतायत वाले घर में पैदा होना पूरे परिवार के लिए भले ही कोई बहुत आह्लादकारी क्षण न रहा हो, पर माँ की ममता तो बस बरस ही पड़ी होगी। माँ बताती हैं कि उस दिन मेरे पैदा होने के बाद खूब बरसे बादल और मैं माँ की गोद में दुबका रहा, कई घंटों तक बिना हिले-डुले।
      संयुक्त परिवार के लगभग दर्जन भर भाई-बहनों की सालगिरह एक जैसी ही होती। दिन में अम्मा बुआओं और दादियों के निर्देशन में हाथ ऊंचा करा डोरा नापतीं, गाँठ लगातीं। अक्सर दूसरे भाई-बहनों से यह डोरा बदल जाता और मेहनत से कमाया हुआ एक साल किसी और के खाते में दर्ज़ हो जाता। अम्मा काले तिल मिला हुआ दूध पिलातीं, रोचना लगातीं, गुलगुले बनातीं... शाम को बुलउवा होता। दीदियाँ, भाभियाँ, चाचियाँ मिलकर ढोलक पीटतीं, गौनई होती, गुलगुले और बताशे बँटते। बस, अगले बच्चे की तारी़ख तय होती और समारोह खत्म। हमारे दौर में सालगिरह के दिन नए कपड़ों या उपहारों का रिवाज़ नहीं था। हाँ, इतना ध्यान ज़रूर रखा जाता कि उस दिन किसी मामूली-सी बात पर धुना नहीं जाता। पर पूरा दिन माँ उसे नहीं बचा पातीं, ‘‘अरे रहय देव, आजु सालगिरा आय वहिकी, आजु न मारौ।’’
      घर से बाहर स्कूल में, दोस्तों के साथ जन्मदिन मनाने का चलन तब तक नहीं आयात हुआ था, हमारे गाँव में। किसी दोस्त का कभी जन्मदिन याद भी नहीं रहा। अपना जन्मदिन ही कौन सा याद रहता किसी को। वह तो जब अम्मा गुलगुला पका रही होतीं और कहतीं, कहीं जाना नहीं, आज पूजा होगी, तुम्हारी सालगिरह है, तब पता चलता। 
      मेडिकल कॉलेज में पहली बार घर से बाहर बर्थ डे पूछा गया तो जो लिखा-पढ़ी में था, वही चल निकला। कई सालों तक काग़ज़ों पर लिखी हुई तिथि को ही मैं अपना जन्मदिन मनाता और मानता रहा। वह तो भला हो शादी के समय खोजी गई जन्मकुंडली का, जिसकी बिना पर यह तय हुआ कि 29 जून को इस गोले पर मेरा पदार्पण हुआ। अम्मा को आज भी 29 जून नहीं याद है। वह तो लगते आषाढ़ की कोई तिथि बताती हैं, जो मुझे याद नहीं रहती। 
      मैं बचपन को जब भी याद करता हूँ, तो माँ के बाद जो चेहरा उभरता है, वह है मेरे बाबा का। कुछ सबसे पुरानी धुँधली पड़ती तस्वीरों के फ्रेम में भी बाबा ही प्रमुखता से छाये रहते हैं। 
      अगस्त 1973 की एक दोपहर। बाबा मेरी ऊँगली पकड़ कर गाँव से करीब ढाई किलोमीटर दूर, दूसरे गाँव के प्राइमरी स्कूल पहुँच गए हैं। कक्षा एक में मेरे दाखिले के लिए। हेडमास्टर तिवारी जी ने बिना पूछे ही जन्म तिथि लिख मारी। मैं पैदा हुआ था आषाढ़ में, शुक्ल पक्ष की सप्तमी को। यह बात तो मेरे बाबा को भी पता नहीं थी, मुझे तो खैर क्या पता होती। हेडमास्टर साहब को हमारी अनभिज्ञता का अंदाज़ा पहले से ही था, इसलिए उन्होंने पूछने में समय गँवाना उचित नहीं समझा। 
      अभी दाखिले की प्रक्रिया चल ही रही थी कि एक बच्चे की जोर-जोर से चीखने की आवाज़ें आने लगीं। देखता हूँ कि एक दुबले-पतले लड़के पर नाटे कद का एक तंदरुस्त आदमी, बेशरम (तालाबों के किनारे उगने वाला एक पौधा, जिसके चिकने और लचीले तने बच्चों की पिटाई के लिए सर्वथा उपुक्त और सर्वसुलभ हथियार थे) का डंडा लेकर पिला हुआ है। बाद में पता चला कि यह पिटने वाला बालक मुझसे दो साल ऊँचे दर्ज़े, कक्षा 3 में है। आगे चलकर कक्षा-5 में हम दोनों फिर साथ-साथ पढ़े। पीटने वाले महाशय ‘मरकहे पंडित जी’ कक्षा-1 और 3 को पढ़ाने वाले चंद्रमोहन अवस्थी जी थे। अवस्थी जी कुछ मँझोले से थोड़ा कम और नाटे से कुछ ज्यादा कद के थे। उनके आगे के दाँत शारीरिक विन्यास को धता बताते हुए कुछ ज्यादा हृष्ट-पुष्ट थे। मैंने कभी उन दांतों का प्रयोग बच्चों को अनुशासित करते हुए न देखा, न सुना परंतु हमेशा इसका डर दिमाग में घुसा रहा। हालाँकि आगे चलकर मरकहे पंडित जी ने कभी मुझे इतनी बुरी तरह नहीं मारा (एक-आध थप्पड़ और दो-चार डंडे हथेलियों पर, कोई मार खाना नहीं समझा जाता था), परन्तु पूरे पाँच वर्षों तक मैं उनसे दहशत खाता रहा।
      हमारे प्राइमरी स्कूल में एक कमरा और दो बरामदे थे। एक अकेला कमरा, प्रधानाचार्य ऑफिस, स्टोर रूम, साईकिल स्टैंड, मीटिंग रूम, सांस्कृतिक सभागार, अध्यापकों की गोपनीय फुसफुसाहट कक्ष के अलावा सीनियर बच्चों (कक्षा- 5) की कक्षाओं के लिए इस्तेमाल होता। बाकी बची 4 कक्षाएँ दोनों बरामदों में या फिर महुए के पेड़ के नीचे लगती थीं। 
      साइकिल केवल मास्साब लोगों के पास थीं, जिन्हें कमरे में रखना, उन्हें साफ करना और छुट्टी होने पर निकाल कर पंडित जी या मुंशी जी को पकड़ाना, क्लास के कुछ ऐसे बच्चों का काम था, जो अध्यापकों के कृपापात्र बने रहना अपनी योग्यता समझते थे। मैं भी उनमें से एक था। 
      कक्षा पाँच में बोर्ड के इम्तेहान होते तो थोड़ा-बहुत पढ़ाया जाता था। बाकी कक्षाओं में बस पूरे साल इमला और पहाड़े ही होते थे। सत्रह और उन्नीस का पहाड़ा बिना रुके हुए, बिना भूले हुए सुना देना ही ज्ञान की कसौटी थी।  इसका प्रत्यक्ष लाभ यह था कि स्कूल में बच्चों की पर्याप्त संख्या बनी रहती थी। बच्चे अपना नाम लिखना सीख लेते और पाँचवी पास कहलाते।  
      छठी क्लास के लिए स्कूल काफी दूर था और वहाँ जाने से खेती-किसानी का नुकसान होता। बुआई, सिंचाई, कटाई के समय स्कूल से अनिवार्य रूप से छुट्टी होती। घर में शादी-ब्याह होने पर यह छुट्टी हफ्तों से लेकर महीनों तक की होती। खेती-किसानी में हाथों की बहुत ज़रुरत होती है। इससे ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि वह हाथ बड़ों के हैं या बच्चों के। बच्चे ज़्यादातर बंधुआ मज़दूरों की भूमिका निभाते। शायद यही सोच कर हमारे अध्यापक और अभिभावक बच्चों में पढ़ने की ललक पैदा ही नहीं करते। जिनमें यह गलती से पैदा हो जाए, उसको बात-बेबात तब तक धुनते रहते, जब तक ललक नाम की चिड़िया उड़ न जाए। हमारे ज़्यादातर सहपाठियों को पढ़ाई से दुरूह और कोई कार्य नहीं लगता। अप्रैल-मई की तपती दुपहर में उन्हें गेहूँ के खेत काटना, पढ़ने से ज्यादा आसान लगता। उसका परिणाम यह हुआ कि कक्षा 5 का मेरा कोई भी सहपाठी हाईस्कूल नहीं पास कर सका।  
      स्कूल परिसर के नाम पर एक ऊबड़-खाबड़ खुला मैदान था। किसी तरह का कोई अवरोध न होने के कारण जानवर बारिश में वहीं बरामदों में बैठते, जुगाली और गोबर करते। हम लोगों के लिए दो-तीन पेड़ महुए के और एक पुराना कनकोहर का बिरवा भी था। यह एक बहुत पुराना दरख्त था। बहुत घना। उसके तने के चारों ओर बहुत बड़ी-बड़ी जड़ें ज़मीन में घुसने से पहले ऊपर की ओर उठी हुईं थीं। हम सभी परदेशी छात्र (दूसरे गाँव वाले) अपना लंच लेकर भागते थे जड़ों की ओर। आज मेरा मन भी उछल कर उसी तेज़ी से अपनी जड़ों तक पहुँचना चाहता है। 
      लंच में सबके पास डालडा से बने हुए चार-चार पराठे होते, जो एक रुमाल में बड़ी बेदर्दी से बाँध दिये जाते। जिसके एक कोने में गाँठ लगाकर हरी धनिया मिला नमक होता था। हमने किसी बच्चे को इसके अलावा कुछ और लाते हुए नहीं देखा। कभी-कभार किसी के पास गुड़ का छोटा टुकड़ा निकल आता था या पेड़ों के कुछ सूखे टुकड़े। बिल्कुल सूख चुके पराठों को उतना ही सूख चुके नमक के साथ जल्दी से निगलने में अक्सर पराठे के टुकड़े आहार नाल को छीलते हुए निकल जाते। गले में गड़ते हुए टुकड़े आज भी महसूस कर सकता हूँ। 
      जल्दी इसलिए कि लंच टाइम में ही घर से मिले पाँच, दस या कभी-कभी चवन्नी के सिक्कों को भी ठिकाने लगाना होता। एक नया पैसा और दो नये पैसे के सिक्के भी प्रचलन में थे पर अकेले चल पाना उनके बस का नहीं रह गया था। बड़े सिक्कों की ऊँगली पकड़ कर वे भी चल ही लेते थे। चूरन, कम्पट की सूर्यनारायण की दूकान गाँव के काफी अन्दर थी और समय अपेक्षाकृत बहुत कम।
     पुरानी पैंटों से बनाए गए झोलों में हिन्दी भाषा और अंकगणित की बासी काग़ज़ से कवर चढ़ी दो किताबें, सूखी खड़िया के कुछ छोटे टुकड़े, कुछ बड़े कंचड़े, सेंठा और नरकुल की छोटी-बड़ी कई कलमें, एक पतली बोरी या टाट का टुकड़ा अधिकृत सामग्रियाँ थीं। अनाधिकृत सामग्री जैसे कंचे, लट्टू, पीले कनेर के बीजों की गोटियाँ, रंगीन ऊन के डोरे, ब्रेड का चिकना रैपर, साइकिल ट्यूब को काट-काट कर बनाई हुई गेंद, प्लास्टिक के सस्ते खिलौने और बहुत सारी अनर्गल चीज़ें भी उसी सहजता से झोले में एक साथ रहतीं।   
      कक्षा तीन और उससे सीनियर बच्चों के झोलों में एक किताब और बढ़ जाती, ‘विज्ञान - आओ करके सीखें।’ पाटी की जगह कुछ चौसठ पेजी कॉपियाँ होतीं, खड़िया के बुदक्के की जगह स्याही भारी दवात होती। बातचीत में सीनियर हो जाने की अकड़ होती और मार खाने के लिए दिल मज़बूत करता हुआ एक डरा हुआ बच्चा। हाँ, कलमों की संख्या और गुणवत्ता में बढ़ोतरी ज़रूर पायी जाती। 
      कलम के बारे में थोड़ा और बात कर ली जाए। सेंठा हमारे गाँव में बहुतायत में था, जो पतावर नामक घास के पतले डंठल होते हैं। ज़्यादातर इस घास का इस्तेमाल घरों के छप्पर छाने के लिए होता है। सेंठा जब हरा होता है तो उसकी परतें छील कर उससे डलिया बीनी जाती है। सुआपंखी हरे डंठलों की मुलायम, लंबी, हरी पर मज़बूत चौड़े रेशों से बहुत सुंदर और टिकाऊ डलिया और बड़े डलवा बनाए जाते। अक्सर अलग अलग रंगों में रंग कर उनमें खूबसूरत डिजाइन डाले जाते। गाँव की कुछ चुनिन्दा लड़कियाँ और औरतें इस काम को बहुत कलात्मक ढंग से करतीं। लड़कियों की शादी में उन्हीं डलियों में पकवान भर कर ससुराल भेजा जाता। घर में रोज़मर्रा के अनाज और आटे को उन्हीं में बैपरा जाता। शादी, तिलक में नाउन सिर पर एक बड़ा-सा डलवा रख कर पूरे गाँव में बायन बाँटती, जो अक्सर बहू के मायके से आता। बहू के मायके की पूड़ियों के साथ डलवे की डिज़ाइन के भी चर्चे होते। अक्सर मैदे की सफेद पूड़ियों के टुकड़ों और पुओं के लिए हम बच्चों में छीना-झपटी तक हो जाती।  
      कहीं नहीं दिखा तो छप्पर से निकाल कर झट से कलम तैयार। बनाने में आसानी और उपलब्धता के चलते सबके झोलों में इसी की कलमें होतीं। कलम का खत काटने वाले विशेषज्ञ पूरे स्कूल में इक्का-दुक्का ही हुआ करते। अच्छी और सहज लिखावट के लिए खत का क्या महत्व है, यह वही समझ सकते हैं, जिन्होंने बाकायदा लकड़ी के कलम से पाटी या पन्ने पर लिखा है। खत विशेषज्ञ अक्सर कोई बढ़िया कट गए खत वाली कलम मेहनताने के रूप में रख लिया करते। कुछ कलमों से लिखने में इतना अच्छा लगता कि वह कलमें इम्तेहान के लिए संभाल कर रख ली जातीं, परंतु मुझे कभी भी अपनी संभाली हुई कलमें इम्तेहान के दिन वापस नहीं मिलीं।  
      स्कूल में कुछ बच्चों के पास नरकुल की कलमें होतीं, जिन्हें पाने के लिए हम लालायित रहते। पतावर की तरह नरकुल भी एक घास की प्रजाति होती है, जिसके डंठल बहुत साफ और चिकने होते हैं, छोटे बांस की तरह। बांस की अपेक्षा नरकुल बहुत मुलायम होते हैं और उन्हें आसानी से छील कर कलम बनाई जा सकती है। नरकुल हमारे गाँव के आसपास नहीं पाया जाता। कभी-कभी वस्तु विनिमय से या कोई विशेष काम किये जाने पर या दोस्ती को प्रगाढ़ करने के लिए वह कलमें हमारे पास भी आ जातीं, नहीं तो आखिरी सर्वमान्य तरीका चोरी वाला तो था ही। बस इसमें यही एक समस्या थी कि उसे छुपा कर घर में ही रखना पड़ता। अगली पार्टी के शंकित होने पर कभी भी आपके झोले का झारा लिया जा सकता था। 
      लकड़ी की एक मज़बूत पाटी, जिसे शाम को ही कालिख पोत कर और घोटा लगाकर तैयार कर लिया जाता। बढ़िया कालिख ढिबरी वाले आले से, लालटेन के शीशे से या तवे से मिल जाती। कभी-कभी अम्मा काजल पारने वाली पुरानी बड़ी दीया में कालिख इकट्ठा कर देतीं। पाटी में पकड़ने के लिए एक मुठिया होती, जो ज़रूरत पड़ने पर पाटी को तलवार की तरह भांजने में मदद करती। मोटे काँच, चौड़े पेंदे और चौड़े मुँह वाली दवात, जो घोटा लगाने के भी काम आती थी, झोले से बाहर हाथ में ही रहती। सर में सरसों का तेल और माथे पर काजल का टीका लगा कर 6 से 12 साल के लड़के छोटी-छोटी टोलियों में निकल पड़ते। अधिकतर नंगे पैर या हवाई चप्पल पहने मेड़ों पर लाईन बनाते हुए तेज़ आवाज़ में बतियाते बच्चे, इस बात की चिंता बिल्कुल नहीं करते कि मरकहे पंडित जी ने बेशरम के पाँच डंडे आज के लिए कल ही मँगवा लिए थे।
      स्कूल में मैं एक पढ़ाकू लड़के के रूप में जाना जाता था। इस प्रभाव की रक्षा के लिए मुझे पढ़ना भी पढ़ता। धीरे-धीरे शाबाशी पाने का शौक लग गया और मैं अपने आप को होशियार समझने लगा। इतना होशियार कि एक बार शायद कक्षा- चार में मैंने किसी प्रश्न का उत्तर लिखते हुए ‘यूरोप’ लिखा, पुस्तक में ‘योरप’ लिखा हुआ था। मुंशी जी ने पूछा कि तुमने ‘यूरोप’ क्यों लिखा, तो मैंने कहा कि  ‘‘मेरी सोच से ‘यूरोप’ ही सही शब्द है ‘योरप’ नहीं, किताब में गलत छपा हो सकता है।’’ मुंशी जी मुझे बहुत देर तक घूरते रहे, बोले कुछ नहीं। हालाँकि अपने इम्प्रेशन के कारण मार खाने से तो बच गया, पर सारे उत्तर दुबारा से लिखने पड़े। 
      स्कूल में कविताएं पढ़ने के लिए सबसे पहले हम ही खड़े होते और किसी प्रश्न का उत्तर देने के लिए भी। ‘उठो लाल, अब आँखें खोलो’ और ‘रण बीच चौकड़ी भर -भर कर’ को एक ही रस में ओरहन-सा देते हुए पढ़ते, पर पढ़ते ज़रूर। आत्मविश्वास के मामले में मेरा यह स्वर्णिम काल था। आगे चलकर यह धीरे-धीरे गोबर काल में परिवर्तित हो गया। 
      स्कूल के रास्ते में करीब सौ मीटर की लम्बाई में बालू का एक गलियारा पड़ता था, जिसे गर्मियों में बगैर पेड़ के नीचे रुके हुए पार करना एवरेस्ट पार करने जैसा था। किसी तेज़ धूप वाले दिन जो भी उसे इस तरह पार करता, वह उस दिन का हीरो होता था। उस गरम, तपती रेत पर नंगे पैर भागना ज्यादा आसान होता, सो हवाई चप्पल हाथ में पकड़ कर दौड़ होती। 
      एक और चुनौतीपूर्ण कार्य रास्ते में होता। नन्हू बाबा की अमरुदही बगिया से अमरुद तोड़ना। इसके लिए दो टोलियाँ बनती थीं। एक दिलेर लड़कों की, जो अमरुद तोड़ते और दूसरी डरपोक लड़कों की। मैं अक्सर दूसरी टोली में ही रहता था। लड़कियों को दोनों टोलियों में नहीं रखा जाता था। दूसरी टोली का काम था नन्हू बाबा को बारी-बारी सलाम करना और उनकी बकरी के बच्चों के हालचाल लेना। बच्चे हों तो गोद में उठा कर उन्हें खिलाना। हम लोग उन्हें बातों में उलझा कर अपने आप को तीसमार खां समझते रहे उन दिनों। बाग के लगभग बीचोबीच ललगुदिया अमरूद का पेड़ था। उसका अमरुद लाने वाला तो हमारी नज़रों में हीरो होता। यह तो बहुत बाद में पता चला कि उन्हें मालूम था कि कितनी देर बाद उनको पीछे जाना होता था, जहाँ चोरी हो रही होती। आहट सुनकर पहली टोली भाग लेती। बरसों बरस बाद यह बात नन्हू बाबा ने खुद बताई।
      वैसे तो हमारा गाँव शहर से मात्र पच्चीस किलोमीटर ही दूर था। अभी तो खैर शहर खरामा-खरामा चलता हुआ गाँव में जबरन घुस आया है। लेकिन उस समय तो अपने स्थापत्य कला में सुदूर बस्तर जिले के गाँवों को टक्कर देता था। एक छोटे से जंगल के बीचोबीच बसा हुआ एक छोटा-सा ठेठ गाँव। बिजली का तो खैर नामोनिशान तक नहीं था। गाँव तक पहुँचने के लिए एक बालू भरा गलियारा था, जिस पर आप साइकिल चलाते हुए तो नहीं ही जा सकते थे। उस पूरे गलियारे में खाली साईकिल घसीटना एक बहुत थकाऊ और पकाऊ  काम होता। जब कभी किसी की शादी-ब्याह में गलती से कार या जीप आ जाती, तो उसे धक्के मारकर ही पार कराना पड़ता था। आज तो शहर ने लगभग निगल ही लिया है गाँव को। शहर उस समय मेरे लिए विदेश जैसा था। कभी-कभार शहर जाने का मौका जब मिलता, तो जाने से पहली वाली रात को अत्यधिक उत्साह के कारण नींद नहीं आती थी। पिताजी पोस्ट ऑफ़िस में नौकरी करते थे और रोज़ साइकिल और ट्रेन से शहर आते-जाते थे, लेकिन हम बच्चों की पूरी दुनिया बस गाँव तक ही सीमित थी।

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यादों के पंछी उड़ते हैं

ये जुलाई की
रिमझिम बारिश
यादों के पंछी उड़ते हैं

सोमवार की
सुबह मची है
आपाधापी घर बाहर तक
चूल्हे पर जल रहा तवा है
अम्मा की चालू है खटखट

उधर पिताजी
मंदिर में बस
जल्दी-जल्दी कुछ पढ़ते हैं
यादों के पंछी उड़ते हैं

कपड़े के बस्ते में
पॉलीथिन से
लिपटी हुई किताबें
मसक रही है बोरी अंदर
झोले के बाहर वह झाँके

हाथ लिए
लकड़ी की पाटी
सरपट मेड़ों पर बढ़ते हैं
यादों के पंछी उड़ते हैं

बारिश रुकी
पढ़ाई चालू
गोल बना कर शुरू पहाड़ा
पंडित जी के हाथ छड़ी है
छुपते बच्चे, सिंह दहाड़ा

कच्चे बर्तन हैं,
कुम्हार की
चोटों से फूटे पड़ते हैं
यादों के पंछी उड़ते हैं

हुई दोपहर
नन्हे शावक
कारागृह से छूट चुके हैं
और साथ ही सारे बंधन
उनके मन से टूट चुके हैं

झोला पाटी
फेंक अभी वे
जामुन की डाली चढ़ते हैं
यादों के पंछी उड़ते हैं

ये जुलाई की
रिमझिम बारिश
यादों के पंछी उड़ते हैं।

      हर सुबह घर में हंगामे जैसी स्थिति होती। हम सब चचेरे भाई-बहन मिलाकर दस लोग। काम करने वाली बस चाची और अम्मा। सभी को आठ बजे के आसपास स्कूल जाना। जाड़ों में आँगन का चूल्हा जलाकर अम्मा बैठ जातीं और घेरा बना कर हम लोग। ताज़े पराठे बनते स्कूल ले जाने के लिए और ज्योनार होता कठौता भर रखी बासी रोटियों का। घी (ज़्यादातर डालडा) और बुकनू (मसाला युक्त नमक) लगी पतली, बड़ी, मुलायम रोटियाँ जिनमें खमीर उठने की शुरुआत हो जाती, और साथ में निखालिश दूध की गरमागरम चाय, वाह!! अनिर्वचनीय स्वाद।
      अम्मा को सुबह गाय-भैंस भी दुहनी होतीं। पिताजी की ट्रेन छूट रही होती, बाबा को चाय की तलब, किसी बच्चे की कमीज़ का बटन टूटा, किसी की पैंट नहीं मिल रही, किसी को पेन के लिए पैसे, किसी को अपने पैसे जो अम्मा को रखने के लिए दिये थे... कुल मिलाकर हंगामा रोज़ बरपा होता। फिर नौ बजे तक जाकर मामला शांत हो पाता।
      स्कूल से घर लौटते तो बच्चे फिर उसी सिस्टम का हिस्सा हो जाते। खेत-खलिहान-गाय-भैंस। खेलने के लिए कोई अलग समय बच्चों के लिए नहीं था। हाँ, बच्चा किताब पकड़ कर बैठ जाए तो यह अपराध क्षम्य था। कभी-कभी जब खेती- किसानी का काम ज़ोरों पर होता तो पढ़ाई-लिखाई, खेल-कूद सब पर लॉकडाउन होता।
       गाँव की ज़िंदगी में आठ-दस साल से ऊपर के बच्चों के लिए पूरे दिन और बारहों महीने न जाने कितने काम मुँह बाए खड़े रहते। गर्मी की दुपहरियों में ज़रूर कुछ निश्चिंतता का भाव रहता। उसी समय सारी मुराही सीखी जाती। तालाब में तैरना, पेड़ पर चढ़ना, ताश खेलना, आल्हा सुनाना, सुनना, अमिया चुरा कर तोड़ना, पना बनाना, बेल का शर्बत बनाना, साइकिल चलाना सीखना आदि-आदि। दरअसल यह समय खुद को स्किल्ड करने का होता। कुछ को इसमें इतना मज़ा आता कि वह इंस्ट्रक्टर और प्रिंसिपल बन जाते, ज़्यादातर अच्छे नंबरों से पास होते बाकी हम जैसे लोग भी होते जो हमेशा बैक बेंचर बने रहते और कृपापूर्वक क्लास के बाहर ढकेल दिये जाते।
        स्कूल जाने वाले बच्चे इस लायक हो जाते कि खेती के कामों में हाथ बँटाया करते। करते क्या ज़बरदस्ती करवाया जाता। स्कूल से लौटते ही घर में काम तैयार बैठे रहते, स्कूल जाने से पहले गोबर-करकट सब बच्चों के ज़िम्मे ही होता। चचेरे भाई-बहनों को मिलाकर हम दस बच्चे थे। सबसे बड़ी दीदी और छोटी बहनें घर में माँ और चाची का हाथ बँटाती। हम बाकी बच्चे बाबा का। 
      भाइयों में मैं दूसरे नंबर पर हूँ। मुझे और बड़े भईया की जोड़ी को ही बाहर के लगभग सारे काम करने पड़ते थे। काम के बँटवारे में अक्सर गोबर ही मेरे हाथ आता। जानवरों को चारा देना, थोड़ा ज्यादा स्किल्ड काम था, सो वह बड़े भाई के हिस्से में आता। दरवाज़े पर झाड़ू लगाने के लिए हम अरहर के सूखे पौधे इस्तेमाल करते, जिन्हें ‘झाँखर’ काहा जाता था। झाँखर का खरहंचा बना कर बड़ी आसानी से खड़े-खड़े झाड़ू लगा लेते। गर्मियों में कभी धूल ज़्यादा होती तो पानी का छिड़काव कर खरहंचा मारते।  गोबर हटाने का काम बाकी दिनों में तो आराम से हो जाता पर बारिश में यह काम बहुत तंग करता। एक हमारी बूढ़ी भैंस थी। वह इतना पतला गोबर करती, ऊपर से बारिश, उफ़्फ! डलिया में नीचे पत्ते-वत्ते बिछाकर गोबर भरते पर सर पर रखकर जैसे ही चले सारा गोबर डलिया से बहकर चेहरा भिगोता हुआ पेट तक आ जाता। तब हम खाली लंगोटा बाँध कर गोबर डालने जाते।   
      लंगोटे से याद आया, गुड़िया के त्यौहार वाले दिन गाँव में अखाड़ा तैयार किया जाता। हम सभी अपने-अपने गुईयाँ बदते, फिर जोड़ होता। मैं तो बेहद दुबला-पतला था तो हमेशा हार जाता। लेकिन तैयारी ज़रूर करता। अम्मा सबके लंगोटे सिलतीं। हम लोग बा़कायदा हफ्ते भर पहले से दंड-बैठकी भी शुरू कर देते, दूध ज़्यादा पीते। बारिश की मुलायम मिट्टी में खूब लोटते, फिर सारे गाँव के लोग ताल नहाने जाते। बरसात के दिनों में तालाब खूब भरा होता, पानी भी साफ रहता। फिर वहीं किनारे भीट पर बैठकर खूब कवित्त और गीत होते। सभी लोग कुछ न कुछ सुनाते, हमारी भी कोई  कविता होती। 
      खेती की पूरी ज़िम्मेदारी बाबा के कन्धों पर थी। पिताजी सुबह ड्यूटी जाने से पहले बाबा को ढेर सारे काम समझा जाते। पिताजी के सामने तो बाबा 'हाँ भैया-हाँ भैया' कहते पर उनके जाते ही पिता जी को गरियाते और कहते, ‘‘उनको क्या, वह तो काम बता कर लाट साहेब जैसे चले गए हैं। हम मशीन हो जाएँ क्या? हमसे बुढापे में अब कोई काम नहीं होता।’’ लेकिन सारा दिन खेतों में काम करते और शाम को पिताजी के आने के बाद पूरे दिन की एक-एक मिनट की दिनचर्या पिताजी को अपडेट करते। हम बच्चों की शिकायतें भी खूब करते कि भैया तुम्हारे लड़के कुछ कहा नहीं सुनते। कटी उंगली पर मूतने को कह दो, तो कहते हैं, अरे अभी तो हम मूत कर आए हैं हम कैसे मूत दें, उनसे कहो वो मूतें। जब खुश होते तो तारीफ भी करते। पर इन सबसे हमारे ऊपर कोई फर्क नहीं पड़ता। हम सब अपने हिसाब से कामचोरी करते रहते। 
      इतवार के दिन स्कूल की छुट्टी होती और होती कामों की लम्बी लिस्ट। सुबह जल्दी उठना, फिर पूरा दिन काम। इतवार का दिन हमारे लिए छुट्टी नहीं, सज़ा का दिन होता। इतवार के दिन 'हिटलर साहब' यानी हमारे पिताजी भी घर पर होते। जाड़ों में गेहूँ के खेत में पानी लगाने के लिए अक्सर इतवार का दिन ही मु़कर्रर होता। हमारे पास खड़ी बॉडी का एक किर्लोस्कर इंजन था। छोटे-छोटे खेत चारों दिशाओं में फैले हुए। हरित क्रान्ति हो चुकी थी। हर खेत में ट्यूबवेल लगवाया गया। तब हाथ से बोरिंग होती। हफ्तों तक बोगी चलाई जाती। सारे खेतों में बोरिंग मेरे सामने ही हुई और उन सबमें हम बच्चों के श्रम का भी योगदान रहा।
      मैं जब बहुत छोटा था, तब पिताजी दस किलो की बोरी में गेहूं शहर से लाया करते थे। हमारे खेतों में मोटा अनाज ही पैदा होता। जैसे ज्वार, बाजरा, जौ इत्यादि। भूड़ का इलाका था और सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं थी। मूँगफली जरूर बहुतायत में हुआ करती। लाल रँग का अमेरिकन गेहूं बिलकुल बेस्वाद सा था और अजीब सी महक आती थी। पर ज्वार-बाजरा खाते-खाते जी ऊब जाता, ऐसे में ये गेहूं की रोटियाँ भी पकवान से कम नहीं होतीं। हम लोग किसी मेहमान के आने पर उन्हीं के साथ खाने के लिए प्राण देते। खाने के वक्त रसोई के आस-पास चक्कर लगाते रहते। लालच, वही गेहूं की रोटी।
      हमारे खेतों में ज्वार, बाजरा, मूंगफली, अरहर, लोबिया, उरद और जौ ही उगाया जाता। पानी की किल्लत होने के कारण पैदावार बहुत कम होती। धान की फसल बहुत कम होती, जो नहर और तालाब के पानी पर निर्भर रहती। तालाब से पानी निकालने के लिए बेड़ी का इस्तेमाल किया जाता। ताड़ के पत्तों से बनी हल्की बेड़ी में एक बार में करीब सौ लीटर पानी भरा जाता और उसे दोनों सिरे पर रस्सियाँ बाँध कर ऊपर खेत में फेंका जाता। दो सिरों पर खड़े दो लोग एक लयात्मक गति से बेड़ी उलीचते। देखने में यह दृश्य हम बच्चों को बड़ा मनोहारी लगता। एक लय से बेड़ी नीचे पानी में झुकती, पानी से लबालब, अगले क्षण वह तनी हुई रस्सियों और तनी हुई भुजाओं के साथ ऊपर। देखने में यह जितना सरल लगता, करने में उतना ही दुष्कर।
      फिर आए उन्नत बीज, सिंचाई के उपकरण और हो गई हरित क्रान्ति। हमारे देखते-देखते खेतों में गेहूं की फसलें लहलहाने लगीं। बाजरे की काली मोटी रोटियों के दिन लद गए और आ गए पतली सफेद मुलायम चपातियों के दिन। यह बदलाव मेरे देखते-देखते हुआ।
      ढेर सारी चपातियाँ बनाकर कठौते में रख दी जातीं। कठौता भर रोटी बनाने में चाची सुबह नौ बजे रसोई में घुसतीं और शाम चार बजे निकलतीं। गर्मियों में उनका चेहरा लाल भभूका हो जाता। अम्मा सुबह का नाश्ता संभालतीं। गाय-भैंस भी अम्मा ही दुहतीं और बीसियों ऊपर के काम। सुबह हम लोग दातून-मंजन कर बासी रोटी में देसी घी, डालडा या सरसों का तेल लगा कर चाय के साथ नाश्ता करते। अम्मा तब तक पराठे बना देतीं और हम सब चार-चार पराठे नमक के साथ कपड़े में बाँध कर स्कूल ले जाते। लौट कर चार बजे कठौते में रोटियाँ हमारा इंतज़ार करतीं। रात में फिर वही चपातियाँ दूध और गुड़ के साथ हम सब गटक रहे होते।
      सन्डे को खेती के कामों से उसी को थोड़ी राहत मिलती, जिसे इतवारी बाज़ार की ज़िम्मेदारी मिलती। हालांकि वहाँ भी झंझट कम नहीं थे, पर उसमें थोड़े पैसे बनाने का भी लालच रहता। आप तो जानते ही हैं कि पैसे का लालच दुनियादारी सीखने के साथ आपसे चिपक लेता है, तो हम भला कैसे अछूते रहते। घर से गेहूं, अरहर, मूंगफली, दाल आदि ले जाते, उसे बाज़ार में बेचते, फिर पूरे हफ्ते का सामान उन्हीं पैसों से खरीदा जाता। अक्सर इसके लिए बैलगाड़ी ही इस्तेमाल होती, नहीं तो साइकिल ज़िंदाबाद।
      छोटे-मोटे आढ़तिये बच्चा समझ कर फुसलाने की कोशिश करते। पर हमको घर से सिखा कर भेजा जाता, पहले आज का भाव पता कर लेना, फिर बेचना। कभी-कभी शहर से लोग अच्छा दाम दे जाते। पर ज़्यादातर ऊब कर उन्हीं आढ़तियों को सस्ते में बेचना पड़ता। अक्सर वे बिना तौले ही हमारा अनाज अपने ढेर में मिला लेते। हम जितना वजन बताते, उतने पैसे दे देते। कभी ज्यादा वजन बता देने का ख्याल मन में नहीं आया।
      अनाज के मूल्य में हेरफेर करना बेईमानी होती और बेईमानी उस समय भी मेरे लिए बहुत बड़ी गाली हुआ करती। सो उसमें कोई पैसा नहीं बचता। सब्ज़ियों की खरीद में जम कर मोलभाव करते और चवन्नी-अठन्नी तो बचा ही लेते और ईमानदारी की भावना भी बची रहती। कभी-कभी हिसाब-किताब में पैसे कम पड़ जाते तो मज़बूरी में चीज़ों के दाम बढ़ाकर लिख तो लेते पर कई दिनों तक घबराहट बनी रहती।
      पैसे बचाने की गुंज़ाइश एकमात्र सब्ज़ियों की खरीद में ही रहती। हर सब्ज़ी का भाव अलग, एक ही सब्ज़ी के भाव अलग-अलग। खूब मोल-भाव करते हम लोग। भाव लगा कर चले जाते और कनखियों से उसे देखते, फिर लौट कर कुछ पैसे बढ़ा देते। अक्सर शाम को सब्ज़ी खरीदते, जिससे बहुत ताज़ी सब्ज़ियाँ तो नहीं मिल पातीं पर कुछ सस्ती ज़रूर मिलतीं।
      वाहन के रूप में हमारे पास एक MPV (मल्टी परपज़ वेहिकिल) हुआ करता। जिसे हम कभी SUV की तरह इस्तेमाल करते तो कभी मालगाड़ी की तरह। दरअसल बड़ी बैलगाड़ी जो केवल सामान लादने के कार्यों के लिए ही बनाई जाती, उसे हम ‘गाड़ी’ कहते, छोटी MPV को हमारे यहाँ ‘रब्बा’ कहा जाता। रब्बा हल्का होता, तब भी मतलब भर के लोग और सामान उसमें ढोया जा सकता था।
      खेती-किसानी में बैलगाड़ी हाथ-पाँव तो थी ही, बा़की बहुत सारे काम इसी से संपन्न होते। रिश्तेदारी में जाना, स्टेशन से सवारी लाना, बाज़ार, मेला और बारात। बारात और मेले का हम बच्चों को हमेशा इंतज़ार रहता। महीनों पहले से तैयारियाँ होतीं।
         बाबा के साथ दीवाली के बाद वाले हटिया मेला में जाने की यादें हमारे बचपन की कुछ बेहद सघन यादों में एक है। उस मेले की यादें इतनी चमकदार हैं कि उसकी हर एक छोटी-छोटी बात बिलकुल शीशे की तरह साफ दिखाई पड़ती है। लगता है कि अभी कल की ही तो बात है।
      एक दिन पहले बैलों को नहला कर उन्हें खरहरा कर चमका देते। सींगों पर तेल और कालिख लगाते, छोटी-छोटी घंटियों से सजे पट्टे बाँधते और पीठ पर रंगीन झूल ओढ़ाते। रब्बा पर नीचे पैरा डाल कर साफ दरी या गलीचा बिछाते, फिर हम सारे बच्चे बुआ, दीदी और बाबा सवार होते रब्बा पर। वैसे तो रामलाल काका या खिन्नी काका ही रब्बा हाँकते थे पर ऐसे कई मेलों पर मैं भी सारथी की तरह इस्तेमाल हुआ हूँ। ज़्यादातर बाबा थोड़ा देर से चलते मेले के लिए और गाँव से निकलते हुए आवाज़ लगाते, ‘‘कोई बच गया हो मेले के लिए, तो आ जाए, अभी इसमें जगह है’’ हालांकि जगह तो क्या, लोग एक-दूसरे पर सवार रहते। महीनों पहले से मेले के लिए पैसे इकट्ठे किये जाते। अपने बचाए हुए पैसे, जो अक्सर मामा के यहाँ मिलते या शीला बीन कर। घर से मिले पैसे और बाबा से मिले पैसे। कुल मिलाकर औसतन 10 रुपये की बड़ी रकम हर बच्चे के पास होती। 
      'हटिया का मेला' मुंशी प्रेमचंद के 'ईदगाह' के मेले जितना भव्य तो नहीं ठहरता पर उसकी उमंग हामिद या उसके दोस्तों से कम नहीं होती। मेले से लौटते हुए हमारे हाथों में हामिद का चिमटा नहीं, वही मिट्टी के खिलौने ही होते। ग्वालिन, भिश्ती, गाय, बाँसुरी, डमरू, कड़कड़िया। बाबा जरूर घर-गृहस्थी का सामान लाते। दूधहांडी, दही जमाने का मिट्टी का बर्तन, सिलबट्टा, मथानी, चलनी, झन्ना, सूप, मूसर, सिकहर (झींका), मुसक्का सब मेले से ही आते। छोटे बच्चों के लकड़ी के खिलौने मसलन चटुआ और तीन पहिये की स्पेशल गाड़ी। ये तिपहिया पकड़ कर हमने भी चलना सीखा होगा, माँ-बाप को उंगली पकड़ कर बच्चे को चलवाने का व़क्त कहाँ होता था तब।
       अरे! मेले का विवरण तो रह ही गया। एक पुरानी सड़क के दोनों तरफ अनगिन दुकानें लाईन से सजी रहतीं। हम लोग अपना रब्बा पहले ही काफी दूर खड़ा करते। वहाँ भी खूब भीड़ रहती। अपने बैलों का तो पता रहता पर दूसरे बैल कितने मरकहे हैं, यह कोई नहीं जानता। सो, बहुत संभल कर वहाँ से निकलने और आने की हिदायतें बार-बार दी जातीं। मेले में कतार से एक ही तरह की दुकानें, एक जगह पर झाले-माले की दुकानें देखते हुए हम लोग सबसे पहले खिलौनों पर जमा-पूँजी खर्च करते। कभी-कभी हम लोग अपनी पूँज़ी का एक बड़ा हिस्सा ईनाम वाले काउंटर पर गँवा देते। यह एक तरह का मटका टाईप का खेल था। उसके बाद चाट और फिर जलेबी। मेले में सबसे ज्यादा दो ही चीज़ें दिखाई पड़तीं, भीड़ और धूल। मेले में भीड़, जहाँ हर जगह चलती मिलती, वहीं धूल हर जगह बैठी हुई दिखाई पड़ती। खिलौनों पर, जलेबियों पर यहाँ तक कि भौहों-पलकों पर भी धूल आसन जमाये रहती। जलेबी और धूल खाकर कड़कड़िया और पिपिहरी बजाते हुए मुंह झप्पे अँधेरे तक घर लौट आते। मेला खतम-पैसा हजम।
      अगले दिन तक भिश्ती की मसक टूट जाती और पुलिसमैन की बंदूक भी। बांसुरी दो-चार दिन तक चल जाती और गेंद करीब हफ्ते भर तक। हाँ अम्मा की मथानी तो सालों साल चलती जाती और मेले की यादें तो देखो अभी आधी शताब्दी बाद, बुढ़ापे तक बची हुई हैं।
      बारात जाने का भी अपना आनंद होता। अमूमन तीन दिन की बारात होती। पिताजी बताते हैं, पहले पाँच दिनों की होती थी। रास्ते में बैलगाड़ी दौड़ होती, कभी- कभी दुर्घटनाएं भी होतीं। पर ये तो हर खेल में होती हैं। गाँव के बाहर किसी बा़ग में बारातियों के ठहरने का जनवासा होता। सबसे पहला काम दौड़ कर मज़बूत चारपाई पकड़ना होता था। गिरोह का एक मज़बूत आदमी चार-चार चारपाइयों पर कब्जा जमाता। एक पर झोला, एक पर अंगौछा, एक पर रूमाल और चौथे पर वह खुद विराजमान होता। मजाल कि कोई चारपाई हाथ से निकल जाए। फिर गिरोह आकर आराम से पसर जाता। जब चारपाइयों की किल्लत नहीं दिखाई पड़ती, तो किसी कमजोर चारपाई को ज़ोर-आज़माइश कर ढेर कर देते, बाहुबली लोग। 
      जब गाँव में लड़की की शादी होती, तो यह एक सामूहिक कार्य होता। हमारा गाँव छोटा था, तो हम लोग बगल के गाँवों से चारपाई, गलीचा माँग कर लाते। उन पर बाकायदा नंबर लिखे जाते ताकि लौटते समय गड़बड़ न हो। पर हमेशा ऐसा नहीं हो पाता और चारपाई माँगने गए लोगों को सुनना पड़ता कि भैया पिछली बार हमारे मज़बूत पलंग के बदले ये बांस का खटोला मुझे वापस मिला, इसे ही ले जाव।
      गोला दगने की आवाज़ ही प्रमाणित करती कि जनवासे तक बारात आ चुकी है। बारात तभी बारात कहलाती जब पीनस* पर चढ़ कर दूल्हा जनवासे पर आ जाता। पहले आए लोग मुंह सुखाये बैठे रहते, कोई पानी पूछने वाला भी नहीं रहता। अब जाकर जनाती शरबत-पानी के इंतज़ाम में लगते। सबसे पहले मिर्चवान* पेश की जाती कुल्हड़ में। इतनी जहरीली होती कि आधा कुल्हड़ भी हम लोग न पी पाते उसे। फिर आती पंचमेल मिठाई। भैया, फलाने ज़रा लघुशंका के लिए गए हैं, उनका दोना और रख दो। ऐसा हर दूसरी चारपाई पर हो रहा होता। बाद में मिरचवान की जगह गर्मियों में ठंडाई या रसना और जाड़ों में चाय चलने लगी। चाय तो लोग इस तरह पीते कि पूरा ड्रम चार चारपाइयों के लोग पी जाते।
      सारी बारात का नाश्ता हो जाने के बाद बचा हुआ हम जनाती भोग लगाते। किसी की मजाल कि बाराती रह गए हों और जनाती खाने लगे। अब तो खैैर जनातियों का काम है लिफाफा पकड़ाना और खाने पर टूट पड़ना। बारात ज़्यादातर अभी सड़क पर लोट ही रही होती है।
      अभी बारात बस जनवासे पहुँची है, अभी तो अगवानी भी नहीं हुई। देर से पहुँचे लोग आश्वस्त होकर नाश्ता करते, फिर लोटा-सोटा लेकर दिशा-मैदान। अभी द्वारचार में टैम है भईया।
[ पुनश्च : *मिर्चवान - तीखा, मीठा शरबतनुमा पेय पदार्थ जिसे काफी मात्रा में काली मिर्च और बहुत कम मात्रा में चीनी को पानी में मिला कर बनाया जाता। आशय था कि यात्रा की थकान जाती रहे। हमसे थोड़ा पहले के ज़माने में जिस दिन बारात पहुँचती थी, उस दिन केवल दो गगरी मिर्चवान और कुल्हड़ हेड बाराती के पास रखवा दिया जाता था। चाहे तो पूरी बरात उसी में पिए या दो आदमी ही पी जाएँ। लड़की वाले और देने को बाध्य नहीं होते। 
*पीनस - डोली, जिस पर दूल्हा चढ़कर ब्याह करने जाता था। लौटे समय इस पर दुल्हन का कब्जा रहता। बारात दूर जानी हो तो कहार दूल्हे को पीनस पर बैठा कर एक दिन पहले ही निकल लेते]

3

शहर से दूर मिरा गाँव हुआ करता था 
शहर अब दबे पाँव गाँव चला आया है 

बगल के गाँव से खिन्नी काका खेती में काम बँटाने के लिए आते। थोड़े ठिमके से खिन्नी काका के जुड़वां भाई थे रम्मा काका। दोनों को अलग-अलग पहचानना बहुत मुश्किल हो जाता। कभी-कभी स्कूल जाते रास्ते में खिन्नी काका जाते हुए दिखाई पड़ते। अरे! अभी तो हम खेत पर इनको नाश्ता देकर आए हैं। बैल कहाँ चले गए? और कोई दुर्घटना हो गयी, तो इतना आराम से कैसे जा रहे? पता चलता ये तो रम्मा काका हैं। दोनों धीर-गंभीर, दोनों आहिस्ता से चलते, आहिस्ता-आहिस्ता काम करते, दोनों की आवाज़ें भी लगभग समान सुनाई देतीं, दोनों का कपड़े पहनने का ढंग समान, कपड़े तो खैर सबके एक जैसे ही होते। फिर भी कुछ था, जो उनको एक दूसरे से अलग करता था। हम थोड़ी देर देखते और पहचान जाते। कैसे? यह नहीं पता। 
      पचास पार खिन्नी काका सारे काम बहुत धीरे-धीरे करते। खेत जोतने को छोड़ दें तो हम सब खिन्नी काका के साथ ही लगे रहते। चारा काटने की मशीन पर तो रोज़ ही मुलाकात होती। हरा मुलायम चारा तो आसानी से एक आदमी ही काट लेता पर ज्वार और बाजरे के मज़बूत, सूखी लकड़ी हो चुके गट्ठर को काटना बहुत मेहनत का काम होता। बूढ़े हो चुके खिन्नी काका अक्सर डंडा पकड़ने से बचते रहते। पनारा पकड़ कर खड़े हो जाते कि जवान लड़के हो तुम लोग, मेहनत कर लो अभी, नहीं तो जल्दी बुढ़ा जाओगे। खुद चारा मशीन में डालते रहते और हम लोग आँख बंद कर मशीन चलाते रहते। आँख इसलिए बंद करनी होती कि अक्सर छोटे-छोटे टुकड़े निकल कर सीधा नाक, कान, आँख पर अटैक कर रहे होते। जाड़े के अंत में जब भूसा और चारा खत्म हो जाता तो धान का पैरा मशीन से काटा जाता। सूखा पैरा काटने पर खूब महीन भूसा नाक मुँह में घुस जाता।
      ‘टाटा संस एंड कंपनी’ की बनी हुई चारा मशीन उन पहली मशीनों में शामिल है, जिनके इस्तेमाल से खेती के काम आसान होते गए। जिनके यहाँ यह मशीन अभी नहीं आ पाई थी, वे जानवरों का चारा एक लकड़ी के कट्ठे पर गड़ांसे से काटते। जब तेज़ी से भारी-भरकाम गड़ांसा नीचे आता तो लगता कि बस, अब हाथ निकाल कर दूर गिरेगा। लेकिन कभी इस तरह का कोई हादसा सामने नहीं आया। अलबत्ता चारा काटने की मशीन से ज़रूर गाँव में हमेशा दो-तीन बच्चे अपनी उँगलियाँ कटाये घूमते। 
        आषाढ़ के तीखे घाम में खिन्नी काका हल-बैल लेकर चौमासे में पहुँच जाते। वे बेचारे चिलचिलाती धूप में कैसे दोपहर तक जुताई करते होंगे, इसका अहसास नहीं था तब हमें। हमें तो बस इतनी परेशानी थी कि उनका नाश्ता लेकर दस बजे खेत पर पहुँचना होता। एक हाथ में पाराठे, गुड़, नमक की पोटली, दूसरे हाथ में पानी की बाल्टी। कभी-कभी खेत की दूरी दो किलोमीटर से भी ज्यादा होती। जब हम खेत पर पहुँचते, तो सब काम छोड़ वे आधी बाल्टी पानी गप-गप कर पी जाते। बैलों को तो घर पहुँचने तक इंतज़ार करना ही होता। 
      जब वह नाश्ता कर रहे होते, तब मैं हल चलाने की कोशिश करता पर कभी सीख नहीं पाया। दरअसल देखने में जितना आसान लगता था, उतना आसान था नहीं फाल को सीधा रख पाना। एक बार इसी कोशिश में बैल को लोहे की फाल से चोट भी लग गई थी। 
      एक काम और मुश्किल था, हल से छूट गए कोनों को गोड़ना। अक्सर यह काम हम बच्चों के लिए छोड़ दिया जाता। हम सब मिन्नतें कर खिन्नी बाबा से करवा लेते। 
         घर में हमेशा एक जोड़ी बैल, कम से कम एक गाय, एक भैंस और दो-तीन गाय-भैंस के बच्चे हम मनुष्यों के साथ घुल-मिलकर रहते। ये सब भी हमारे वृहत्तर परिवार का हिस्सा थे। एक श्यामा गाय हमारे जन्म के दिन ही पैदा हुई। जब हम उसे चराने लायक हुए, तब तक वह बूढ़ी हो गई और हमारे देखते-देखते इस संसार से विदा हो गई। कई दिनों तक मन बहुत दुखी रहा, मेरा उससे खास लगाव था।  
      बच्चों के लिए काम उनकी उम्र के हिसाब से तय होते थे। शुरुआत होती थी गाय-भैंसें चराने से। फिर गोबर हटाना, सफाई करना, हलवाहे को खेत पर कलेवा-पानी ले जाना, सिर पर गेहूँ की बोरी लादकर दूर चक्की से पिसवाकर लाना, पम्पिंग सेट जिसे गाँव में ‘इंजन’ कहते हैं, बैलगाड़ी पर चढ़ाकर खेत में बोरिंग पर ले जाना, गेहूँ के खेत में पानी लगाना, धान की बेढ लगाना, गेहूँ काटना, गेहूँ के बोझ खेत से सिर पर लादकर या बैलगाड़ी से लादकर खलिहान में इकट्ठा करना, मड़नी माड़ना, भूसा और अनाज घर लाना आदि-आदि। कब आप खेलते-खेलते चौबीस घंटे के मज़दूर बन जाते, आपको पता ही नहीं चलता।
        खेती के बहुत सारे काम पहले सीखने होते। मसलन घास छीलना आसान काम नहीं है। इसमें बहुत तज़ुर्बे और धैर्य की आवश्यकता होती है। थोड़ी-सी गलती से खुरपी आपकी ऊँगली काट सकती है। खेती से सम्बन्धित कार्यों के सीखने के साथ साथ बच्चों को कुछ व्यक्तिगत कौशल भी विकसित करने होते थे, जिनके लिए घर से समय और सहमति नहीं होती थी। जैसे गर्मी की दोपहर में बिना आवाज़ किये साइकिल निकाल ले जाना।
      अब साइकिल सीखने में चोटें आना और साइकिल में कुछ खराबी आ जाना स्वाभाविक है, तो सीखने की एवज़ में हर बच्चा डांट खाने के लिए तो मन बना कर ही रखता था। मैंने गाँव में किसी बच्चे के माता-पिता को उसे साइकिल चलाना सिखाते हुए नहीं देखा। हाँ इसके लिए बच्चों को मार खाते ज़रूर देखा है, और खुद भी खाई है। डाँट खाना या मार खाना इस बात पर निर्भर करता कि साइकिल स्वामी का उस समय मूड कैसा है। इसी तरह पेड़ पर चढ़ना, तालाब में तैरना, गहरे बड़े तालाब को तैर कर पार करना, डुबकी लगाकर पानी के नीचे नीचे तैरना आदि कुछ ऐसे कौशल थे, जिसके लिए किसी नाज़ुक समय में आपका भाई या दोस्त चुगली कर आपको बुरी तरह पिटवा सकता था।
      एक बार एक जामुन के पेड़ पर चढ़कर हम दो दोस्त जामुन तोड़ रहे थे। जामुन की वह डाल हालाँकि काफी मोटी दिख रही थी परन्तु अचानक उसने पेड़ का तना छोड़ा और जब तक हम लोग सँभलते-सँभलते, करीब 20 फीट ऊपर से डाल सहित दोनों ज़मीन पर थे। बहुत गंभीर चोटें नहीं थीं, हाथ-पैर छिल जाना, कपड़े फट जाना मामूली बातें थीं, घर से छिपाई जा सकती थीं। यह तो अच्छा हुआ कि और किसी ने नहीं देखा, वरना चोट वाली कसर घर में पूरी कर दी जाती।
      बहुत बाद में मैं जब मेडिकल की पढ़ाई कर रहा था, तो देखा कि पैराप्लीजिया वार्ड में अस्सी प्रतिशत नौजवान और बच्चे जामुन के पेड़ की वजह से अपने दोनों पैर ज़िंंदगी भर के लिए खो चुके थे। तब पता चला कि हमारे माता-पिता हमें पेड़ पर चढ़ने से क्यों रोकते थे।
      पेड़ पर चढ़ने वाला एक और खेल हम लोगों को बहुत प्रिय था, जिसे हम लोग ‘टुक्का’ कहते। इसके लिए एक छोटा जामुन का पेड़ निर्धारित था। पेड़ थोड़ा झुका हुआ था, जिस पर चढ़ना आसान रहता। डालें ज़मीन से बहुत दूरी पर नहीं थीं और ज़मीन पर आराम से कूदा जा सकता था। खेल में एक पैर उठा कर उसके नीचे से डंडे को फेंकना होता। फिर तेज़ी से पेड़ पर चढ़ना, एक डाल से दूसरी डाल पर छलांग लगाना, ऊपर से ज़मीन पर कूदना सम्मिलित था। घर से इस खेल के लिए बिल्कुल इजाज़त नहीं थी और पकड़े जाने पर खूब डांट पड़ती थी। एक बार इसी खेल में भाई को ठुड्डी में एक कंकड़ का टुकड़ा लगा और गहरा घाव बन गया। जाहिर है, घर में चोट का कुछ और बहाना बनाया गया, पर इसे लेकर भाई को मैंने बहुत दिनों तक  ब्लैकमेल किया।
      खेत, खलिहान, गाय, भैंस, बैल, खेल में ही सारा जीवन था। पढ़ाई केवल स्कूल तक ही सीमित थी। वहाँ भी पढ़ाई भगवान भरोसे थी। पढ़ाई के लिए कोई इंसेंटिव नहीं था, काम के लिए था। बखारी से अकेले पांच बोरे गेहूं निकालने पर भाई सबकी नजरों में हीरो हो जाते। एक कटोरी खोया-शक्कर भी उसको चुपके से मिल जाता। वहीं अगर मैं पाँच घंटे लगातार पढूँ और चार पाठ कंठस्थ कर लूँ, तो यह कामचोरी में गिना जाता। मैं हमेशा से दुबला-पतला, मरियल-सा लड़का था। खेती-किसानी के काम मेरे बस के थे नहीं, हाँ, पढ़ने का शौक ज़रूर था। पर यह शौ़क पूरे घर में बस मुझे ही था। इसलिए इस शौक को प्रश्रय देने वाला कोई न था। हालांकि बाबा को लगता था कि मैं कुछ बड़ा करूँगा, पढ़ाई में। वह मुझसे कहते, तुम व्याकरण पढ़ना। व्याकरण मतलब संस्कृत। उन्हे बड़ा शौ़क था कि मैं धाराप्रवाह संस्कृत बोलूँ। उनके परिवेश में विद्वान लोग संस्कृत के पंडित ही हुआ करते। अंग्रेज़ों और हाकिमों की भाषा के बारे में वह सोच भी नहीं सकते थे। 
      मेरे बड़े भाई और मैं दो लोग ही थोड़ा इस लायक थे कि कुछ कर सकें, बा़की के सब बहुत छोटे थे। ले-देकर हम दोनों की जोड़ी ही आगे लगा दी जाती। बड़े भाई उम्र में तो मुझसे ढाई-तीन साल बड़े थे ही, शरीर में भी बीस थे। यूं तो मैं शुरू से ही कामचोर था, पर कोई बहाना चलता ही नहीं था। भाई के साथ मैं भी पीछे-पीछे  घिसटता रहता।  
      खेती के कामों से कभी फुर्सत ही नहीं होती। जाड़ों में जब पढ़ाई का समय होना चाहिए, और छमाही के इम्तेहान सर पर होते, तब गेहूं के खेतों में सिंचाई करनी होती। सरकार की कृपा से नहरें हमारे इलाके में पानी कभी न ला पाईं। पानी या तो ताल-तलैय्या से खींचते या फिर ज़मीन में खूंटा गाड़ कर। बाबा को बड़ा आश्चर्य हुआ, जब पहली बार बोरिंग कर पानी निकाला गया। अरे वाह! खूंटा गाड़ा गया और पानी की मोटी धार हाजिर। हालांकि खूंटा गाड़ना यानी बोरिंग करना अपने आप में भारी काम था उन दिनों। हाथ से बोगी चलाई जाती। हफ्तों लगते। कभी-कभी तो एक खेत में चार जगह बोरिंग करने के बाद भी पानी न मिलता। चार खेत चारों दिशाओं में। 
      उससे फुर्सत मिलती तो उड़द, मूंग के दिन आ जाते, साथ में मूंगफली भी। पूरा आँगन मूंगफली और उड़द से भर जाता। हर पौधे से मूंगफली और उड़द की छीमियाँ अलग करना बेहद नीरस और उबाऊ काम हुआ करता। शाम को रोज़ मूंगफली का होला लगाया जाता। हम लोग तो भूनी हुई करारी मूँगफली खाते पर दंतविहीन बाबा, मूंगफली उबाल कर, पीस कर खाते। 
      सालाना इम्तेहान के बाद डेढ़-दो महीने तो घर में इमरजेंसी लगी रहती। छुट्टी मनाना तो दूर, बीमार होने के लिए भी समय नहीं होता। सुबह चार बजे अपना-अपना हँसिया लेकर गेहूं काटने के लिए सेना पहुँच जाती। मैं तो एक हल्का हँसिया रात में ही अपने बिस्तर के नीचे रख लेता। पूरे साल में शायद यही समय होता, जब पिताजी भी अक्सर साथ होते। वरना वह सिर्फ काम बताया करते, उसके क्रियान्वयन का काम बाबा और हम बच्चों का होता। चाचा भी अपनी पुलिस की नौकरी से छुट्टी लेकर अक्सर कटाई के समय घर आ जाते। चाचा जब घर में होते तो वही लीड करते। 
       ग्यारह बजते-बजते सेना थक कर चूर हो जाती और जवान छाँह ढूँढ़ते हुए एक-एक कर निकलने लगते। बाबा दोहराते, ‘‘हाँ जवानों, मार लाये, बस पूँछ रह गई है।’’ शाम चार बजे से कटी हुई लाँक (गेहूँ के पौधे) समेटते और बोझ बनाए जाते। पूरा खेत कटने के बाद बोझ खलिहान में इकट्ठे होते। यह कहने में जितना सहज है, उतना ही कठिन होता इस प्रक्रिया को पूर्ण करना। फिर शुरू होती मड़नी, जो महीनों तक चलती। लंबे-लंबे गेहूँ के पौधे धीरे-धीरे छोटे होते जाते और फिर बिलकुल महीन भूसे में तब्दील हो जाते। जानवर और इन्सान कई हफ्तों तक उसी ढेर पर गोल-गोल घूमते रहते। गर्मियों की ठंडी चाँदनी रातों में खलिहान पर आधा गाँव रहता। देर रात तक कबित्त, आल्हा होता। दिन भर की थकान फुर्र हो जाती। 
      बाद के दिनों में थ्रेशर आ गए। काम बहुत जल्दी खत्म हो जाता पर आनंद भी घट गया। खेतों में बिजली भी पहुँच गई। बिजली ज्यादातर रात में ही आती। नींद के झोंकों में थ्रेशर में लाँक लगाना बहुत खतरनाक होता। बहुतों के हाथ ये थ्रेशर निगल गए। हमारे सामने तो कभी यह दुर्घटना नहीं हुई, पर सुनाई पड़ता रहा। नींद ऐसी आती कि किसी भूसे के ढेर पर बेसुध होकर सो जाते। मन ही मन मनाते कि भगवान लाईट चली जाए।
      अरहर की कटाई तो खैर एक खेल की तरह होता। गड़ासे से एक ही वार में मज़बूत अरहर का पेड़ (उसका तना इतना मजबूत होता है कि उसे पौधा कहने का मन नहीं होता) धराशाई हो जाता, बशर्ते उसका एंगल ठीक हो। असली परेशानी तो उसे पीटने और दाने निकालने में होती। एक भीरी (गट्ठर) के पच्चीस पैसे इंसेंटिव दिया जाता तब, जब सेना थक चुकी होती। 
      ऐसे ही खलिहान का एक किस्सा याद आ गया, आप भी सुनिए। 
     बात बहुत पुरानी है, लगभग चालीस साल पुरानी। गरमी के दिन थे। गेहूँ खेत से कटकर खलिहान में आ गए थे। आम के पेड़ों के बीच में धूप-छाँव, भूसा बन रही गेहूँ की लांक पर चित्र-सा बना रही थी। भरोसे चाचा (नाम बदला हुआ है) बैलों के पीछे-पीछे गोल-गोल घूम रहे थे। बीच-बीच में बैल जब गोबर करते, तो हमलोग उसे हवा में ही दोनों हाथों से गोंच लेते और बाहर फेंक देते। लेकिन बैलों का गेहूं पर पेशाब करना तो बनता ही था। बेचारे कैसे बताते और बताते भी तो कौन सा हम उन्हें गुसलखाने में ले जाते पेशाब कराने। वैसे भी गोवंश का पेशाब कोई नाक-भौं सिकोड़ने की चीज़ नहीं होती है। आजकल तो बाकायदा लोग कैंप लगा कर पीते-पिलाते हैं।
      लगभग ग्यारह बज रहे होंगे। हम दोनों भाई पेड़ से कच्ची अमियाँ तोड़ने में व्यस्त थे। बाबा खोपड़ी के नीचे अँगोछा रखे, आधा बदन नंगा, नीचे की धोती जाँघों पर ऊपर तक खिसकाए हुए, पैर के ऊपर पैर रखकर त्रिभुज बनाते हुए छाँव में आँखें बंद कर लेटे हुए थे। तभी अचानक एक बड़ी पूड़ी (शादी के बैना में बाँटने वाली मैदे की स़फेद पूड़ी) का चौथाई हिस्सा भरोसे चाचा और बैलों के बीच आसमान से गिरी। अनुमान यह लगाया गया कि शायद कौए की चोंच से फिसल कर गिरी होगी। बाबा आंखें बंद कर सो रहे थे, हम दोनों भाई अमिया तोड़ने में व्यस्त थे, तो जाहिर है भरोसे चाचा के अलावा उस टुकड़े को देखने वाला वह कौआ ही एक मात्र प्राणी था। कौए की शायद हिम्मत नहीं पड़ी होगी नीचे उतरने की क्योंकि वह टुकड़ा अब तक भरोसे चाचा अपने हाथ में उठा चुके थे। बैल खड़े हो गए थे, भरोसे चाचा का हाथ उस टुकड़े को मुँह तक ले जाते - ले जाते रुक गया। शायद वह उस समय बहुत भूखे थे। थोड़ी देर वह कुछ सोचते रहे, इधर-उधर देखा, फिर वह टुकड़ा लेकर बाबा के पास पहुँच गए। हम दोनों भाई भी तब तक वहीं आ गए। 
      ‘चौधरी भैया-चौधरी भैया’ कहते हुए वह पैरी के नीचे उतर आए। पूड़ी का वह टुकड़ा उनके जिस हाथ में था, वह उसे आगे करते हुए बोले, ‘‘चौधरी भैया यह पूड़ी, कौआ कहीं से लेकर आया होगा, उससे यहाँ गिर गया है। वैसे तो इस पर उसी कौए का पहला हक है, लेकिन अब वह तो मिलने से रहा। चूँकि यह टुकड़ा आपकी लाँक (गेहूँ के पौधों का ढेर) पर गिरा है, तो इस पर दूसरा हक आपका बनता है (गोया पूड़ी का टुकड़ा न होकर सोने का टुकड़ा हो), अगर आपकी आज्ञा हो तो मैं इसे खा लूँ।’’ 
      मुझे पूरा भरोसा है कि कौआ अगर सोने का टुकड़ा लाया होता, तो भी भरोसे चाचा का आचरण यही होता। हाँ, उस समय बाबा कैसे रिएक्ट करते, यह नहीं पता। 
        बाबा थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोले, बस भरोसे चाचा को घूरते रहे। कुछ देर बाद उठकर बैठते हुए बोले, ‘‘भरोसे भैया फेंक दो इस टुकड़े को बैल के सामने, तुरंत काम बंद करो और घर चलो।’’ भरोसे चाचा ने याद दिलाया कि अभी तो ग्यारह ही बजा है, अभी काम बंद करने का समय नहीं है। पर बाबा ने तुरंत काम बंद करा दिया। अब हम सभी लोग घर जा रहे थे। घर पहुँच कर बाबा ने सबसे पहले भरोसे चाचा को गुड़ खिलाकर पानी पिलाया, भरपेट खाना खिलाया, तम्बाकू खिलाई, तब जाकर उनके चेहरे पर संतोष का भाव उभरा। 
      ऐसे महात्मा थे भरोसे चाचा। उनकी और भी बहुत कहानियाँ हैं, आगे सुनाएँगे। अब वैसा कोई हमारे गाँव में नहीं पाया जाता। अभी कुछ दिन पहले ही उनकी मृत्यु हो गयी।
      गर्मियों में खलिहान में ही हम बच्चों का पूरा दिन बीतता। जानवर भी आसपास चरते रहते। खलिहान से लगा हुआ तालाब, और पास में ही हाथीझूल। हाथीझूल एक आम के पेड़ का नाम था, अब नहीं रहा। उसके आम बहुत बड़े और बहुत मीठे हुआ करते। इतने मीठे कि कभी वह डाल पर पक नहीं पाये। सारे आम कच्चे ही तोड़ डालते लोग। उसके मालिक थे अवधेश चाचा। अवधेश चाचा निहायत ही सीधे आदमी। इतने सीधे कि कोई भी बच्चा उनकी मौज़ूदगी में ही पत्थर और डंडे चलाकर आम तोड़ता रहता। वह बस इतना ही कहते, भैया अभी न तोड़ो, थोड़ा बड़े हो जाएँ, तब तोड़ना। उनकी माता, यानी दोसाईन अजिया आती हुई दिखाई पड़तीं, तो हम बच्चों की सेना भाग लेती। गालियाँ अवधेश चाचा को पड़तीं। 
      वहीं पर केवड़े की कंटीली झाड़ी थी, बहुत घनी। उसके पत्ते आरी के समान तेज़ होते। गर्मियों में केवड़ा फूलता तो दूर-दूर तक महक जाती। उसका फूल तोड़ना बिलकुल आकाश-कुसुम तोड़ने के बराबर होता। जिन्होंने केवड़े की झाड़ को साक्षात् नहीं देखा, उनके लिए इसका अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल होगा। हम लोगों को जब केवड़े की बाली कभी मिल जाती, तो उसे अपने कुएं में डालते। पानी महीनों तक महकता रहता। कपड़ों के ट्रंक में रखते तो कपड़े महक जाते। 
      मज़े की बात तो यह कि कई बार सबेरे-सबेरे अवधेश चाचा और हम बच्चे केवड़े की एक ही बाली के लिए काँटों से जूझ रहे होते। वह अपनी ही चीज़ के लिए गिड़गिड़ाते, ‘‘भैया ये हमको ले जाने दो, काम है।’’ पर हम सब कब उनकी बात सुनते? अवधेश चाचा अफीमची थे और केवड़ा बेच कर ‘दवाई’ का इंतेज़ाम करना चाहते। अक्सर काँटों की परवाह न करते हुए वही विजयी होते। 
      उसी केवड़े की झाड़ी और हाथीझूल के नीचे एक कुआं था। कभी धूप न पहुँच पाने और कुएं में लगातार पत्तियों के गिरने के कारण उसका पानी निहायत बदबूदार और कीड़ों से भरा था, पीने लायक तो कतई नहीं। हालांकि पानी का तल काफी ऊपर था। पर कभी जेठ-बैसाख की तपती दुपहरिया में जब हलक सूखने लगता और प्राणों पर बन आती, तो वही पानी पी कर प्यास बुझाते। दरअसल खलिहान और गाँव के बीच पाँच सौ मीटर का बलुहर गलियारा पार करना सहारा का रेगिस्तान पार करने के बराबर था। 
      मज़े की बात यह थी कि खेती-किसानी की इस भीषण मारामारी में भी खेलने का वक्त गाँव के सारे लड़कों के पास होता। लड़कियों को यह छूट बहुत कम मिलती। लड़कों के लिए उसमें कोई कमी नहीं होती। कमी थी तो बस पढ़ाई में। जब छोटे थे तो छुपम-छुपाई, लट्टू नचाते, कंचे-गोटी खेलते थे। थोड़ा बड़े हुए तो गुल्ली डंडा, कबड्डी, गेंदताड़ी, तैराकी, टुक्का। फुटबाल, वॉलीबाल, क्रिकेट आदि खेल केवल किताबों में ही पढ़ते। क्रिकेट कमेंट्री भी किसी को समझ नहीं आती थी। क्रिकेट का पीछा करना तो बहुत बाद में शुरू किया, शायद तिरासी वर्ल्ड कप के बाद।  
      शाम को हम सब बस शगुन करने के लिए ढिबरी या लालटेन जला कर पढ़ाई करते। अँधेरा होते ही कान दरवाज़े पर लग जाते। बाहर पिता जी की साइकिल जैसे ही खड़कती, हम सब भाई-बहन जल्दी-जल्दी अपनी किताबों में सर गड़ा कर बैठ जाते। किताबें दूर हुईं तो लालटेन उठाकर उसका शीशा साफ़ करने लगते। बाबा पूरे दिन की गाथा पिताजी को ब्रीफ करते। माहौल जब शांत हो जाता, तो थोड़ी ही देर में नींद और बस हो गई पढ़ाई। 
      हाँ नींद से पहले बाबा के साथ किस्सों-कहानियों का दौर तो लगभग रोज़ ही होता था। किस्से उनके तभी शुरू होते थे, जब हम बच्चे उनके हाथ-पैर दबा रहे होते थे। हम लाख कहें बाबा शुरू करो, पर वह तब तक शुरू नहीं होते जब तक उनके हाथ-पैर हम लोग पकड़ न लें। शर्त यह भी होती कि सारे लोग हुँकारी भरेंगे, नहीं तो वहीं पर किस्सा बंद। गज़ब के किस्सागो थे बाबा। कहानी कहते-कहते पूरे जोश में उठकर बैठ जाते थे। कभी मूँछ पर ताव देते, कभी बड़ी-बड़ी आँखें निकाल कर किस्से को जीवंत कर देते थे। किस्से-कहानियाँ हम सुन नहीं, साक्षात् देख रहे होते। 
      रोज़ किस्सा शुरू करने से पहले पूछते - आपबीती सुनाऊँ कि जगबीती? उनकी आपबीती भी ख़ूब रोमांचक होती। रामायण, महाभारत से लेकर शेखचिल्ली तक के किस्से पूरी तन्मयता और नाटकीयता से सुनाते थे। जब तक मैं गाँव में रहा, मेरी पहली और आखिरी पाठशाला वही थे। पढ़ने का भी उन्हें बेहद शौ़क था। जिस दिन हमारी हिंदी और इतिहास की नई किताब घर में आती थी, बाबा उसे चारपाई पर लेटे हुए पढ़ रहे होते, सारे काम छोड़ कर। हमारे कोर्स की ये किताबें हमेशा हम सबसे पहले बाबा ही पढ़ते। प्रेमचंद के बहुत बड़े प्रशंसक थे बाबा। ‘मन्त्र’ कहानी पढ़ कर कहते कि यार यह आदमी कहानी में हर जगह मौजूद रहता है, क्या भगत, क्या डॉ. चड्ढा, सबका जैसे आँखों-देखा हाल सुना रहा हो। 
      समाचार पत्र, पत्रिकाएँ कभी घर पर नहीं आईं। हाँ कभी पुराना अखबार या लिफाफे का अ़खबारी टुकड़ा जब भी दिख जाता, बाबा उसे पढ़ रहे होते। यह आदत मुझमें भी थी और दादा जी इसीलिए मुझसे कुछ ज्यादा करीब थे। आठ वर्ष की उम्र में मुझे उन्होंने बहुत सारे श्लोक और रामचरितमानस का पूरा सुन्दर काण्ड याद करवा दिया था। हमसे कहते कि तुम आगे चलकर व्याकरण पढ़ना। व्याकरण का उनका मतलब संस्कृत भाषा से था। लेकिन मुझे तो बस विज्ञान ही पढ़ना था।
      पिताजी कोर्स की किताबों के अलावा कोई भी किताब देख कर भड़क जाते। रामायण (रामचरित मानस)-महाभारत की किताबें तो क्षम्य थीं पर और किसी भी तरह की पुस्तक या पत्रिका को वह ‘लैला-मजनूँ’ की कैटेगरी में ही रखते। 
      टेलीविज़न का ज़माना था नहीं, रेडियो पर फिल्मी गाने सुनना अश्लील समझा जाता। घर में रेडियो नहीं था, जिनके यहाँ रेडियो था, उनके यहाँ दोपहर में जाकर सुनते। कोर्स की किताबें अध्यापकों की कृपा से इतनी नीरस लगतीं कि उन्हें पढ़ने का मन नहीं करता। नतीज़ा यह हुआ कि ज्ञान और जिज्ञासा की सारी खिड़कियाँ तब बंद रहीं, जब इनकी सबसे ज्यादा ज़रूरत थी। 
      ऐसे में एक पढ़ने की इच्छा रखने वाले बालक के लिए गाँव में उपलब्ध साहित्य से ही काम चलाना पड़ा, वह भी चोरी-छुपे। आल्हा की पतली किताबें, जिनमें ऊपर किसी विशालकाय पहलवान की लँगोट में तस्वीर होती। माड़ौगढ़ की लड़ाई, बेला का ब्याह से लेकर लैला-मँजनू की नौटंकी और सुल्ताना डाकू तक जो मिला, सब पढ़ गए। कभी-कभी फूफा-जीजा आदि आने वाले मेहमान सुरेन्द्र मोहन पाठक या रानू को ले आए, तो वह उनके जाने से पहले खत्म कर देते। उसी दौरान मनोहर कहानियाँ, सत्य कथाएं, सरिता आदि के भी कुछ अंक पढ़े। 
      हमारे प्राइमरी स्कूल में एक शर्माजी दो बड़े-बड़े खाकी बैग से भरी किताबें लेकर हर बृहस्पतिवार के दिन आया करते। शायद यह सरकार द्वारा संचालित चल लाइब्रेरी थी, क्योंकि मुझे याद नहीं पड़ता कि उनसे किताबें पढ़ने के लिए कभी कोई पैसा देना पड़ा हो। मास्टर लोग उनसे उपन्यास जैसी मोटी किताबें लेते और बच्चे रंगीन पृष्ठों वाली कहानियों, कविताओं की किताबें। हिन्दी भाषा में अनूदित रूसी बाल साहित्य के पढ़ने की मुझे याद है। 
      एक कहानी कुछ इस तरह थी कि एक कुत्ता भोला, एक बार पूड़ी लेकर आया। पूड़ी बहुत बड़ी थी, सो आधी पूड़ी में ही उसका पूरा पेट भर गया। आधी पूड़ी उसने ज़मीन के नीचे मिट्टी से छिपा दी। रात में खूब तेज़ हवा चली और पानी बरसा। भोला अपनी छिपाई हुई पूड़ी की जगह भूल गया। उसने बहुत जगहों पर अपने पैरों से मिट्टी खोदी पर पूड़ी नहीं मिली। आज भी कुत्ते अपने पैरों से मिट्टी खोद कर वही पूड़ी खोज रहे होते हैं। मैं बहुत दिनों तक इस पूड़ी वाली बात को सही मानता रहा। शर्माजी का मुझे हर गुरुवार को इंतेज़ार रहता था। पर यह सिलसिला बहुत दिनों तक नहीं  चल पाया।
      कोर्स अतिरिक्त किताबों का एक सोर्स और था। बंथरा बाज़ार में ज़मीन पर फड़ लगाकर किताबों की एक दुकान लगती। मैं जब भी बाज़ार जाता, तो उस दुकान पर ज़रूर जाता। वेद प्रकाश शर्मा की विजय-विकास सीरीज़ की बहुत सारी किताबें वहीं पढ़ी। कहानी में आगे क्या हुआ, इसका चस्का इतना ज्यादा होता कि रास्ते में बैठकर पढ़ता और चाँदनी रातों में छत पर। 
      गर्मी की दुपहरियों में ताश खेले जाते। दहला पकड़ या तीन-दो-पाँच। पैसे वाला खेल तो कभी नहीं हुआ पर ताश के खेल से उठने का मन नहीं करता, जब तक चार न बज जाएँ और जानवर खोलने का वक्त न हो जाये। 
      उस समय गाँव में हर महीने किसी न किसी घर में अखण्ड रामायण (रामचरित मानस) का पाठ होता। पाठ करने वालों की टोली में मैं सबसे कम उम्र वाचक होता, खूब सराहना भी मिलती। रात-रात भर जाग कर रामायण पढ़ने का नशा था मुझ पर, घर से भी इसके लिए छूट रहती।
      गेरू से गाँव-गाँव में स्कूलों और घरों की दीवारों पर एक इबारत लिखी रहती थी, जो अभी तक ज्यों का त्यों याद है, ‘‘चेचक (बड़ी माता) की प्रथम सूचना देने वाले को को रु. 1000 का ईनाम दिया जाएगा।’’
     मैं सोचता कि चेचक की बड़ी अम्मा कहीं खो गई हैं, जिनके लिए ये इश्तेहार है। यह भी सोचता कि चेचक ज़रूर कोई बड़ा आदमी होगा और अपनी अम्मा को खूब प्यार करता होगा। इसका खुलासा ज़ल्दी ही हो गया, जब कंधे पर बक्से लटकाए एक टीम हमारे गाँव आई और सारे बच्चे इकट्ठा किये जाने लगे। इंजेक्शन का नाम सुनकर हम सब भागने लगे। हम तो भागकर अँधेरिया बाग में घुस गए। यह आम और जामुन की बा़ग इतनी सघन थी कि दिन में भी खूब अन्धेरा रहता। जाने को तो हम वहाँ चले गए पर वहाँ भांति-भांति की खतरनाक आवाज़ों ने कुछ मिनटों में ही बाहर निकलने को मज़बूर कर दिया। इंजेक्शन का डर उसके आगे काफूर हो गया और हम भागकर भीड़ में शामिल हो गए। कुछ तकली जैसा हाथ पर घुमाने और दर्द की याद है। फिर बाद में दो पैसे के सिक्के के बराबर निशान बन गया, जो आज तक मौज़ूद है। अच्छा हुआ इसी निशान से काम चल गया और ओमपुरी जी जैसा चेहरा पाने से वंचित रह गए।
      हमारी पीढ़ी ने जब से होश सम्भाला तो हैजा, ताऊन (प्लेग) और चेचक जैसी महामारियों के कारतूस दग कर समाप्तप्राय से हो गए थे। बाबा बताते कि उनके बचपन में ताऊन का बड़ा जोर था। जैसे ही चूहे मरने शुरू होते, पूरा का पूरा गाँव खाली हो जाता। सब अपना बिस्तर और बर्तन लेकर गाँव से दूर ताल की भीट पर बसेरा करते। ऐसे ही बच्चीले मन में विचार आता कि कम से एक बार फिर से कुछ ऐसा हो कि हम सब ताल पर टेंट लगा कर रहें और देखो अनजाने बालपन की बात भगवान ने सुन ली। कोरोना महामारी सामने ला कर खड़ी कर दी। इसीलिए कहते हैं कि बुरे विचार मन में भी नहीं लाने चाहिए। अब भुगतो। पूरी दुनिया महीनों से घरों में कैद और हर तरफ हाहाकार मचा हुआ। हजारों-लाखों आदमी सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलने को मज़बूर हुए। कई लाख लोग काल के गाल में समा गए।
       इतिहास के पन्नों से महामारी की विभीषिका का अंदाज़ा नहीं लगाया जा सकता। गुज़रे ज़माने के लाखों-करोड़ों की मृत्यु के आंकड़े आपको भयभीत नहीं करते, परंतु जब महामारी का दानव आपके सामने नाच रहा हो, तब आपकी घिग्घी बंध जाती है। आपके एक प्रिय की मृत्यु भी आपको झकझोर कर रख देती है। भगवान करे आने वाली पीढ़ियाँ, केवल महामारी का इतिहास पढ़ें, उनको जिएं नहीं।
      पानी का ज़िक्र चला तो उसकी भी चर्चा कर ली जाए। जहाँ भी इन्सानी बस्ती है, वहाँ खाने से भी पहले पानी की व्यवस्था होती ही है। लोग भंडारण करें, दूर से ढो कर लाएं पर बिन पानी सब सून।
      खेती के लिए पानी को छोड़ दें तो पीने के पानी के लिए हमारे गाँव में किसी प्रकार की कोई दिक्कत नहीं थी। छोटे से गाँव में कई कुएं थे। एक ही बिरादरी के चलते कोई छूत-अछूत का चक्कर भी नहीं था। हमारे पुरखों के बनवाए हुए राम जानकी मंदिर की फुलवारी में मेरा घर बना हुआ था। फुलवारी थी तो जाहिर है पेड़ भी होंगे। मेरे बचपन में आम, इमली, कमरख, अनार, करौंदा, बेल आदि के पेड़ हमारे दरवाज़े पर थे और बाउंड्री वॉल के कोने में था एक गहरा कुआं। चारों तरफ पक्का षट्कोणीय फर्श, जिसे हम लोग ‘जगत’ कहते। उससे लगा हुआ नीचे एक बड़ा-सा चौकोर फर्श, जिस पर बैठ कर बम भोले-बम भोले बोलते हुए हम सब नहाते और कपड़े भी छाँटते। कुएं के बगल में बहुत सारे केले के पेड़ों का झुंड जो साल भर पानी मिलने के कारण हमेशा हरा रहता। 
      फिल्मों में दिखाये जाने वाले घिर्रीदार कुएं हमारे यहाँ नहीं थे। कुएं के बीचोबीच एक चौड़ी लकड़ी की मज़बूत धन्नी रखी रहती, जिस पर एक पैर रख कर कुएं में झाँकते हुए बाल्टी से पानी निकाला जाता। देखने पर बड़ा डरावना दृश्य होता, पर छोटे-छोटे बच्चे भी आराम से बाल्टी डालकर पानी निकाल लेते। करीब बीस फीट की उबहन (रस्सी) लगती होगी। मूँज की उबहन हाथ लाल कर देती। किसी के पास सनई की चिकनी रस्सी भी होती, पर वह हाथ से फिसलती और जल्दी ही सड़ जाती। 
      कुएं का मीठा पानी बहुत साफ और वातानुकूलित रहता। यानी गर्मी में ठंडा और ठंडक में गरम। बाबा कहीं बाहर से आते तो कहते, ‘‘डार का तोड़ा पानी पिलाओ।’’ मतलब बिलकुल ताज़ा। गरमी में दंतविहीन बाबा जितना पानी लोटे से पीते, उससे ज्यादा अपने शरीर पर और ज़मीन पर गिरा देते, शायद ठंडक के लिए। तुरंत कुएं से निकले पानी की बात ही कुछ और थी। आरो-फारो ने पानी को अजीब तरह से कसैला कर दिया है। गाँवों में भी अब हैंडपंप वाले पानी में वह स्वाद नहीं। 
      बाल्टी-लोटा कुएं में गिरते रहते, जिन्हें निकालने के लिए यंत्र होता, कांटा। लोहे के बहुत सारे छोटे-बड़े हुकों का गुच्छा। कुएं में काँटा डालकर हम घंटों उसे नचाते रहते। अक्सर कोई इस काम के लिए एक्सपर्ट होता, जिसकी सहायता ली जाती। कभी छोटी चीज़ें जैसे चाभी का गुच्छा या गिलास आदि गिर जाए तो बगल के गाँव से ‘टोंड़े बाबा’ बुलाये जाते। छह फीटे लहीम-शहीम बलशाली आदमी थे। हमने तो उन्हें बुढ़ापे में देखा पर बाबा बताते हैं, जब वह जवान थे तो कीचड़ में फंसी बैलगाड़ी, जिसे दो बैल मिलकर न निकाल पाये हों, वह अकेले ही निकाल देते।
      कुएं पर हम बच्चों की मुलाकात अक्सर ‘बंबूका काका’ से होती। बंबूका काका हमारे बाबा के चचेरे भाई थे। अनोखे आदमी थे वह भी। धीरे-धीरे लगातार किसी को गालियाँ बक रहे होते, जो हम बच्चों में किसी ने उनकी तरफ देख कर मुस्कुरा दिया तो बस। सब काम छोडकर ज़ोर-ज़ोर से गालियाँ शुरू कर देते। कभी-कभी हम लोग चिढ़ाने के लिए एक डिमकी चला देते, फिर क्या वह पूरे गाँव में डंडा लेकर हम बच्चों के पीछे भागते। धाराप्रवाह गालियाँ तो खैर थी ही, पर बच्चों को मारते कभी नहीं थे। 
         बंबूका काका गजब के इन्सान थे। अपनी जवानी में घर वालों और गाँव वालों को खूब छकाया उन्होंने। उनके किस्से अनंत हैं। कुछ अगले एपिसोड में सुनाये जाएँगे।  
      एक बार बंबूका काका कहीं से आ रहे थे, ट्रेन द्वारा। पैसे उनके पास थे नहीं, बिना टिकट आए। गाँव से छह किलोमीटर दूर रेलवे स्टेशन है ‘हरौनी’। वहाँ उतरे। अब उनको बड़ी ज़ोर की भूख लगी। एक मिठाई की दुकान पर गए ढाई सौ ग्राम बर्फी ली और वहीं बैठ कर खाया, पानी पिया और फिर धोती की लाँग कमर में खोंसी। जब तक दुकानदार कुछ समझता-समझाता, वह खेतों के रास्ते एक-दो-तीन। 
      उनके पास एक लोहे की सन्दूक थी, जिसमें वह बिच्छू, बर्र, शाही के कांटे आदि रखते थे। यह उनका प्रिय शौ़क था। गाहे-बगाहे वह इनका इस्तेमाल भी करते। एक बार वह जानवर चरा कर लौटे तो नौकर जानवरों के लिए चारा काट रहा था। काका बोले, ‘‘ए भीखादीन, हरहा (जानवर) बंधाओ।’’ भीखाराम बोले, ‘‘खुद बांध लो, देख नहीं रहे चारा काट रहा हूँ।’’ बंबूका काका कुछ नहीं बोले। जानवर बांधकर अपनी सन्दूक के पास पहुँचे, एक ताज़ी पकड़ी पीली बर्र जो डिबिया में कैद थी, ले आए। डिबिया खोल कर उसे पीछे से भीखादीन के कुर्ते में डाल दिया। अब भीखाराम पूरे गाँव में उछले-कूदे। चार दिन बुखार में पड़े रहे। हालांकि बंबूका काका भी दंडित किए गए पर यह उनके लिए रोज़मर्रा की बात थी। 
      एक किस्सा और। एक बार वह अपनी ससुराल में थे। गरमी के दिन थे, रात में छत पर सोये थे। सुबह उनकी आँख खुली तो देखा नीचे उनके ससुर जी रामचरितमानस का पाठ कर रहे थे। काका को लगा कि पाठ में कुछ गलतियाँ हैं। वह ऊपर से ललकारे, ‘‘सावधान! गलत रामायण मत पढ़ना।’’ ससुर जी ने एक बार ऊपर देखा और फिर पढ़ने लगे। बस, काका का पारा सातवें आसमान पर। उन्होंने पास में रखी पानी की मटकी उठाई और सारा पानी ससुर जी के ऊपर उड़ेल दिया। मटकी भी नीचे फेंक दी। छत से उतरे, कपड़े संभाले और वहाँ से निकल लिए। 
       बंबूका काका के तो इतने किस्से हैं कि पूरी किताब अलग से लिखनी होगी। आइये वापस चलते हैं अपने गाँव ‘भौकापुर।’
      गाँव में एक काम जो ज्यादातर बच्चों के सिर पर ही रहता, वह था गेहूं पिसवाना। कहते तो थे आटा पिसवाना, पर पिसता गेहूं ही था, साथ में घुन भी, और बच्चे भी। 
         हमारे गाँव में कभी चक्की नहीं रही, कोई कायदे की दूकान भी। तथाकथित ऊँची जाति के रहवासियों वाला जंगल के बीच बसा बिलकुल छोटा गाँव होने के नाते सामुदायिक सेवाएँ गाँव से काफी दूरी पर थीं। मसलन स्कूल, बाज़ार, कंट्रोल की दूकान, किरोसिन की दूकान, भांग का ठेका, परचून की दूकान, चक्की, मेला, दंगल आदि-इत्यादि। इसका सारा खामियाजा हम बच्चों को भुगतना पड़ता। हर काम के लिए बच्चे ही दौड़ाए जाते। उन्हीं में एक काम था आटा पिसवाना। वैसे तो जब मेरी उमर बहुत छोटी थी, तब अम्मा, चाची लोग बाजरा हाथ चक्की पर ही पीसती थीं। मूसल से धान कूटती थीं, पर बाद के दिनों में यह लगभग समाप्त हो गया। घर्र-घर्र चक्की की आवाज़ में अम्मा की गोद में सिर रख कर सोने में जो आनंद आता था, उसकी तो बस यादें ही शेष हैं। उस मधुर संगीत के साथ लय में झूलती माँ की गोद, बस स्वर्ग ही था। 
      खैर, जब हम बड़े हुए तो बाजरा धीरे-धीरे खत्म हुआ और उसकी जगह ली हरित क्रान्ति के आर. आर. इक्कीस गेहूँ ने। मेंड़ और खेत मंझाते हुए चक्की लगभग दो किलोमीटर पर थी। पच्चीस किलो के शरीर के लिए बीस किलो की बोरी बहुत भारी होती। अक्सर एक गुईयाँ भी साथ होता पर उसके सिर पर भी वही बोझ होता। लौटते समय ताज़ा पिसा हुआ आटा काफी गरम होता। सिर पर आग की गठरी रख कर घर लाख कोस हो जाता। मज़बूरी यह होती कि सिर से बोरी उतार कर अगर थोड़ा सुस्ताने के चक्कर में पड़ जाएँ तो दुबारा वजनी बोरी सिर पर कैसे जाए। कभी-कभी जब गुईयाँ बलिष्ठ होता तो वह मेरी बोरी उठवा देता, फिर अपनी अकेले ही उठा लेता। पर ऐसा कम ही होता। दूसरा विकल्प होता कि एक बन्दे को बोरी उठवा दी जाए, फिर वही बन्दा घुटनों से थोड़ा निहुर कर एक हाथ आप की बोरी में लगा दे और बोरी आपके सिर पर भी विराजमान हो जाए। आखिरी विकल्प यह था कि किसी पेड़ की सहायता ली जाए। उसके तने के सहारे रोल करते हुए बोरी को सिर की ऊँचाई तक चढ़ाया जाए। जब सिर पर गरमी असहनीय हो जाती, बोझ और गरमी से उबकाई आने लगती, तो थोड़ी देर उसे कन्धों पर भी खिसका लेते पर समस्या वही थी कि वापस सिर पर कैसे जाए। राम-राम करते घर मिलता। गर्दन की मांसपेशिया बुरी तरह अकड़ जातीं, लेकिन इससे बचने का कोई उपाय न था। 
         बाद के दिनों में साइकिल ने थोड़ा जीना आसान कर दिया पर उसकी अपनी समस्याएं थीं। बरसात के दिनों में पीछे आटे की बोरी बाँध कर बेहद पतली मेड़ों पर साईकिल चलाना, खासकर तीखे मोड़ पर बिना गड्ढे में गिरे हुए निकल जाना बहुत बड़ी कलाकारी होती थी। जिसके खेत की मेड़ों पर रास्ता होता, वह कुछ ज्यादा ही मेड़ काटता। दोनों तरफ से मेड़ इतनी पतली हो जाती कि बिलकुल नहन्नी (नाखून काटने का यंत्र) हो जाती। उस पर खेत वाला बुआई के बाद कोनों में जहां मेड़ों से उतरने के चांसेज ज्यादा रहते, बबूल की डाल काट कर रख देता। सोने पर सुहागा तब होता, जब ठीक मोड़ के पहले आपके तम्बू जैसे लहराते हुए पैजामे की फरफराती मोहरी खूब ग्रीस पिलाई चेन को अचानक पसंद आ जाए। फिर आपको ब्रह्मा भी नहीं बचा सकते।
      एक बार कक्षा तीन में हमारे मरकहे पंडित जी ने यह प्रस्ताव रखा कि मुझे कक्षा पाँच में कूदा दिया जाए लेकिन मेरी घबराहट और रोने-धोने को देखते हुए उन्हें अपने उत्साह और सदाशयता के विचारों की आहुति देनी पड़ी। फिर एक बार तो मैंने गलती से कक्षा छह की गणित की पुस्तक देख ली, फिर मुझे सोच-सोच कर जो रोना आया कि हे भगवान्! मैं ये सवाल कैसे कर पाऊंगा? 
      पाँचवी का इम्तेहान बोर्ड इक्जाम होता और पूरे साल भर यह दोहराया जाता कि कुछ पढ़-लिख लो इस बार बोर्ड है। सीधे फेल कर दिए जाओगे, कोई माई का लाल पास नहीं करा पाएगा। बहुत सारे बच्चे तो बस बोर्ड के इम्तेहान के नाम पर ही  घबरा जाते। 
      इम्तेहान में ब्लैकबोर्ड पर जब सवाल लिखे जाने लगे तो लगा कि अच्छा, ये है बोर्ड इक्जाम। खैर, पास हो गए और पास ही नहीं, क्लास में टॉप भी किया। उस क्लास में, जिसके बा़की बच्चे आगे चलकर हाईस्कूल की परीक्षा में भी बैठने से वंचित रह गए। ज्यादातर तो पढ़ाई और मार के डर से ही स्कूल छोड़ कर भाग खड़े हुए। कुछ को पारिवारिक गरीबी, पारिवारिक अशिक्षा आदि समस्याओं के कारण भी स्कूल छोड़ना पड़ा होगा। स्कूल छोड़ना एक बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया थी, जो आस-पास हमेशा घटित होती रहती। 

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छठी क्लास के लिए घर से स्कूल की दूरी अब लगभग छह किलोमीटर थी। पगडंडियाँ लम्बी हो गईं थीं और बस्ते ज्यादा वजनी। उसके रास्ते में एक छोटी बरसाती नदी पड़ती थी। नदी के अब तो अवशेष ही शेष रह गए हैं। उस छोटी नदी पर उस समय कोई स्थाई या अस्थाई पुल नहीं था। अब पुल है तो पानी ही नहीं है। बरसात को छोड़कर साल के बा़की दिनों में तो पैंट ऊपर कर या फिर निकालकर उसे ऐसे ही पार किया जाता था, परन्तु बारिश के मौसम में चप्पू वाली नाव पर ही जा सकते थे। कभी-कभी तो नदी का पाट बहुत बढ़ जाता। 
      पिताजी बताते हैं, नाव से पहले घन्नई चलती थी। घन्नई मिट्टी के कई घड़ों को आपस में बांध कर तैरता हुआ प्लेटफॉर्म होता था। हर वर्ष दो-तीन महीने जब नाव की सवारी होती, बड़ा रोमांच रहता था। उन पाँच वर्षों के दौरान कुल तीन बार मेरी नाव नदी में पलटी भी पर कोई हताहत या गंभीर रूप से घायल नहीं हुआ। हाँ, बस्ते और किताबें भीगती रहतीं। तैरना सबको आता था। जब कभी स्कूल से छुट्टी मारने का मन करता, तो नदी में किताबें भिगो कर सामूहिक रूप से घर लौट आते। मल्लाह स्कूली बच्चों से पूरे सीज़न के दस रुपये लेता, वैसे एक बार के पच्चीस पैसे। बहुत बार पैसे न जमा होने की स्थिति में वह हमें वापस भी कर देता। 
     मिडिल स्कूल के दाखिले के समय कोई समस्या नहीं थी। कक्षा छह में दो सेक्शन थे, सात और आठ में एक-एक। जाहिर है कि स्कूल ड्रॉप आउट यहाँ भी हावी था। मेरा दाखिला ‘क’ में हुआ। कक्षा छह ‘क’ स्कूल के तीन कमरों में से एक कमरे में बैठता था। ‘ख’ के लिए अलग से एक बँगला बना हुआ था। बँगला, मतलब घास-फूस का बड़ा छप्पर। वहाँ वातावरण भी ज्यादा नैसर्गिक था। जाड़ों में ठंडी हवाएं पहाड़ का एहसास करातीं, वहीं बारिश की रिमझिम फुहारें मन को तो नहीं, हाँ तन को ज़रूर सराबोर कर देतीं। बारिश में एक समस्या थी, एक नहीं, दो। पहली यह कि तेज़ बारिश में बड़ी-बड़ी बूँदें सीधे कॉपियों पर गिर कर जहाँ-तहाँ देशों के नक्शे बना देतीं,  गणित या विज्ञान की कॉपियों में जिसकी कोई खास ज़रूरत नहीं थी। दूसरी समस्या ज्यादा गंभीर थी कि कभी-कभी बगल के जंगल से सांप देवता भी पढ़ने के लिए क्लास में ज़बरदस्ती घुस आते और बच्चों को उनके सम्मान में क्लास खाली करना पड़ता। ये अलग बात है कि गुरुजी उस समय अंग्रेजी पढ़ाने की जगह शारीरिक शिक्षा का अध्याय पढ़ाते हुए दौड़ लगा रहे होते। 
      मरकहे पंडित जी ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा था, बस नाम बदल गया था। बेशरम के डंडों की जगह बोगेनवेलिया की पतली लचकदार डंडियों ने ले ली थी। लात-घूंसे थप्पड़ सब यथावत थे बल्कि ज्यादा ताकत से प्रहारित होने लगे। ऐसा नहीं था कि सभी बहुत बेरहम होकर मारते थे। एक बार तो संस्कृत के गुरुजी ने मुझे केवल चार थप्पड़ मारकर वापस अपनी सीट पर भेज दिया। मेरा कुकृत्य यह था कि मैं बगल वाले बच्चे की पुस्तक में सही पेज नं. खोजने की कोशिश कर रहा था ताकि अपनी पुस्तक भी खोल सकूँ। मास्साब की दृष्टि मेरे घबराए चेहरे को ताड़ गई और फिर उन्हें ईनामस्वरूप थप्पड़ बरसाने पड़े। 
      एक मास्साब थे, जिनकी हेडमास्टर साब से कुछ अनबन थी। मास्साब पंडित थे और हेडमास्टर ठाकुर। ठाकुर साब अपनी हेकड़ी दिखाने के लिए कभी-कभार लड़कों को तबीयत से धुन देते थे। मास्साब भी कहाँ पीछे रहने वाले। जवाब में जब कभी उन्हें लगता कि हेडमास्टर आस-पास हैं, तो किसी भी बच्चे को खड़ा कर देते। अक्सर चतुर चालाक बच्चे अपनी जगह किसी भोले-भाले विद्यार्थी को खड़ा कर देते, उठो तुम्हें गुरुजी बुला रहे हैं। गुरुजी कनखियों से हेडमास्टर को देखते रहते और बच्चे के ऊपर झन्नाटेदार थप्पड़ बरसाते रहते। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि गलती क्या थी और किसने की थी। 
      स्कूल आने पर अब जेब में पंजी-दस्सी की जगह चवन्नी-अठन्नी रहने लगी। स्कूल एक गाँवनुमा क़स्बे में होने के कारण कुछ न कुछ सामान भी रोज़ घर ले ही जाना होता। वहाँ भी कुछ पैसे बचने की संभावना बनी रहती। जब हम स्कूल से लौटते तो हमारे पास अक्सर दो झोले होते। एक में हमारी पुस्तकें-पुस्तिकाएं बेतरतीबी से खुंसी रहतीं और दूसरे में नाना प्रकार के घरेलू सामान। कुछ सामान झोले में भी नहीं रखे जा सकते थे, मसलन लालटेन का शीशा, जिसे हम रस्सी में लटकाकर बड़ी एहतियात से घर तक लाते। कोई बड़ी दुर्घटना हो जाए तो अलग बात होती, नहीं तो शीशा फूटने का मतलब ज़ोरदार पिटाई। जब कभी यह नौबत आई, तो हमने उसे बड़ी दुर्घटना का ही रूप दिया और काफी बार सफल भी रहे। 
      टिफिन टाइम में टिफिन तो अब भी नहीं था। वही चार पराठे और नमक था रूमाल में बंधा हुआ। सस्ते प्लास्टिक के टिफिन में यदि गरम पराठे रख भी लिए जाते तो वह अजीब से बदबू करते थे। सो, टिफिन से हम दूर ही रहे। हाँ खाने का स्वाद ज़रूर बढ़ जाता, जब चवन्नी की चाट मिल जाती, पराठों के साथ। जगदीश की मटर का स्वाद इतना स्वादिष्ट होता कि सोच कर अभी भी मुँह में पानी आ गया। बड़े से तवे पर वह देर तक मटर भूनता, फिर थोड़ी पापड़ी तोड़ कर डालता, मसाले और नीम्बू के साथ एक दोने में परोसता। उस स्वाद का कोई जवाब अभी तक तो नहीं मिला। अब बेचारा जगदीश भी इस दुनिया में नहीं है। उसकी बहुत सारी चवन्नियाँ मुझ पर उधार ही रह गईं। बहुत बाद में मैंने उसे याद दिलाकर उधार चुकता करने की कोशिश की, पर जगदीश ने लेने से इनकार कर दिया।
      जोड़-घटाना, गुणा-भाग और इमला के बाद अब बारी थी अंग्रेज़ी की। चार लाइनों वाली कॉपी में शुरुआत हुई। जल्दी-जल्दी ए फॉर एप्पल, बी फॉर बैट पर पहुँचे। कर्सिव राइटिंग का अभ्यास तो कक्षा आठ तक चलता रहा। आगे भी हमेशा अभ्यास ही होता रहा। कभी ढंग से लिख नहीं पाए। अब तो यह हालत हो गई है कि दवाओं के नाम छोडकर अपना लिखा पढ़ना असंभव सा हो गया है। अंग्रेज़ी के गुरुजी वैसे तो अच्छा पढ़ाते थे, मारते भी ठीक-ठाक ही थे पर जहाँ पजावा का पजावा खंजड़ हो, वहाँ अव्वल ईंटा भला कैसे तैयार हो। गुरुजी को पूरी क्लास को एक साथ हांकना होता था। मैं भी उसी भीड़ का हिस्सा बना रहा। सो, फिरंगी भाषा हमेशा मेरे लिए फिरंगी ही रही। हिन्दी से अंग्रेजी में अनुवाद कभी भी सही नहीं हो पाया पर अंग्रेज़ी से हिन्दी अनुवाद अनुमान के आधार पर किया करते, जो सामान्यत: ठीक होता। कमोबेस वही हालत आज भी है। 
      इतिहास वाले गुरुजी खूब सारा इतिहास बोलकर लिखवाते, जो हमारे कतई पल्ले नहीं पड़ता। बाबर, हुमायूं, अकबर की सीरीज हमेशा उलट-पुलट जाती। आज भी वैसे ही है। पानीपत और प्लासी आपस में ही युद्ध करते रहते। वह बस बोलते जाते और हम लिखते जाते। भूगोल में विश्व मानचित्र ठीक-ठाक मान लिया जाता, अगर आपने मेडागास्कर की बड़ी बूँद और श्रीलंका की छोटी बूँद अपनी-अपनी दिशा में टपका दी हैं। 
      हमारा मिडिल स्कूल वैसे तो बहुत छोटा-सा था, पर था बहुत सुन्दर। तीन क्लास रूम्स, एक छोटा-सा प्रधानाचार्य कक्ष और एक कबाड़ रूम, जिसमें किताबें, प्रयोगशाला इत्यादि का सामान भरा रहता। पुस्तकालय/प्रयोगशाला का इस्तेमाल विद्यार्थी तो नहीं करते पर गुरूजी लोग ज़रूर करते, आराम के लिए, जिसमें एक खटिया भी पड़ी रहती। कानाफूसी यह भी थी कि वहाँ एक गुरुजी मालिश भी करवाते हैं बच्चों से। पर मैंने कभी नहीं देखा। 
      विद्यालय की यह बिल्डिंग एक समाजसेवी सरदार मालिक सिंह ने आज़ादी के तुरंत बाद बनवाई थी। छोटी-सी क्षतिग्रस्त चारदीवारी के अन्दर काफी बड़ी-सी जगह दो भागों में थी। पीछे की तरफ बुधवार और रविवार साप्ताहिक बाज़ार लगता। एक बड़ा-सा खुला मैदान और स्कूल बिल्डिंग के पास पेड़ों का झुरमुट। उसी झुरमुट में था एक कुआँ। हमारी ज्यादातर कक्षाएं इन्हीं पेड़ों के नीचे ही लगतीं। कुएं के पास ही हमारे सिलाई गुरु की झोपड़ी थी। सिलाई गुरु हमें एच्छिक विषय ‘सिलाई’ पढ़ाते और स्कूल परिसर में ही एक अस्थाई झोपड़ी में स्थाई रूप से निवास करते थे। सिलाई गुरु एक सीधे-सादे आदमी थे, जिनके दोनों पैर अन्दर की तरफ मुड़े हुए थे और लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलते थे। उन्होंने कलीदार पेटीकोट और म्यानीदार जांघिया और तुरपाई सिखाने की बहुत कोशिश की पर हम सब सीखने में असमर्थ रहे। इम्तेहान में अम्मा से मिनियेचर जांघिया, पैजामा सिलवाकर ले जाते रहे और पास होते रहे। 
      संस्कृत वैसे तो ज्यादा समझ में नहीं आती थी लेकिन हालात अंग्रेज़ी जैसे नहीं थे। ‘बालक: बालकौ बालका:’ का जो घोटा लगाया कि पैंतीस साल बाद आज भी गाड़ी, ‘हे बालक! हे बालकौ! हे बालका:’ पर ही रुकती है। 
      पाँच-छह किलोमीटर लम्बे रास्ते पर भी खूब मस्ती होती। जाड़ों में मटर, चने के खेतों पर आक्रमण होता तो गर्मियों में आम की बा़ग पर। कभी तैराकी प्रतियोगिता होती, कभी कबड्डी या गुल्ली डंडा। बीच रास्ते में एक गाँव पड़ता - पुरहाई खेड़ा। वह हम लोगों का हाल्ट स्टेशन था। वहाँ एक कुएं की जगत पर एक बाल्टी, रस्सी और एक अल्युमुनियम का लोटा हम बच्चों का और हर राहगीर का इंतज़ार करता। कितनी ही बार तो हम बंदरों ने बाल्टी सहित रस्सी, कभी-कभी तो लोटा भी कुएं में डाल दिया होगा। पर अगले दिन फिर से सारा सामान यथावत मिलता। कभी किसी तरह की कोई शिकायत नहीं होती। उस समय तो ज्यादा एहसास नहीं होता था पर आज सोचता हूँ तो लगता है कि यह एक बड़ा काम था। प्यास से बेहाल उद्दंड बच्चों को रोज़ पानी मुहैया कराना वाकई धैर्य और पुण्य का काम था।
     कक्षा-आठ का इम्तेहान, फिर से बोर्ड इम्तेहान था। मैथ्स और संस्कृत में डिस्टिंक्शन लेकर उत्तीर्ण हुआ। उस मैथ्स में जिसने आगे चलकर मुझे नाको चने चबवा दिए। हालांकि इस डिस्टिंक्शन में हमारे गुरुजनों की परीक्षा कक्ष में की गई मेहनत भी शामिल थी, पर रिपोर्ट कार्ड में उसका कोई ज़िक्र नहीं था।
      हमारे ज़माने में मास्साब लोगों का बड़ा खौ़फ होता था। हम उनकी इज्ज़त भी करते थे और उनसे डरते भी थे। शायद डर की वजह से ही इज्ज़त करते थे। अब जो भी हो पर मास्टरों का नाम रखने का विशेषाधिकार हम लोगों के पास भी था। विद्यार्थियों द्वारा मास्टरों के नाम रखने की परंपरा आदिकालीन है। कहीं लिखा तो नहीं है पर स्वभाव को देखते हुए लक्ष्मण जी ने गुरु विश्वामित्र का भी कुछ नाम रख न छोड़ा हो, इसमें संदेह है। मेरे पिताजी बताते हैं कि उनके एक गुरुजी थे ‘थर्टी वन’ उनका आगे का एक दाँत टूट गया था। कहते कि आज थर्टीवनवा ने बहुत मारा। हमारे यहाँ भी ‘झींगुर’, ‘बोलो’, ‘कंपट’ आदि नाम प्रचलित थे। एक हमारे साइंस टीचर थे, जो हिन्दी में कविताएं लिखते, संस्कृत और अंग्रेज़ी में सम्बन्धित विषयों के मास्टरों से धारा प्रवाह बात करते। कुल मिलाकर योग्य आदमी थे। कुछ बच्चों ने उनका नाम रख दिया ‘कजरौटा।’ वह काजल नहीं लगाते थे। बेचारे बहुत दिनों तक सबको खड़ा कर पूछते रहे कि आखिर मेरा यह नाम क्यों रखा, कुछ तो कारण होगा। मुर्गा बनवा कर छोड़ दिया गया पर यह नहीं पता चल पाया कि कजरौटा नाम क्यों और किसने रखा। 
      मिडिल स्कूल में हमारे घुसने से तुरंत पहले एक गुरुजी प्रधानाचार्य के पद से सेवानिवृत हुए थे। बड़ी तारीफ़ थी उनकी। दुर्भाग्य से मैं उनका विद्यार्थी होने से वंचित रह गया। गाढ़े रंग और ज़रा नाटे कद के गुरुजी बहुत सौम्य और भलेमानुष थे। अपने रंग और स्वभाव के अनुरूप ही मास्साब का पहनावा भी बेहद सरल था। मटमैले रंग की धोती और सफेदी की झलक मारता मुचड़ा हुआ कुर्ता। अपने विद्यार्थियों के साथ अपने पुत्र को भी उन्होंने खूब मेहनत से पढ़ाया। बेटा भी पढ़ाकू निकला और पढ़ते- पढ़ते बड़ा अफसर हो गया। बड़ा अफसर मतलब आई. ए. एस. अफसर। अ़फसर बनने के बाद पुत्र का गाँव आना-जाना भी लगभग बंद हो गया। उस समय गाँव में टेलीफोन की सुविधा नहीं थी। लड़का चाहता तो हो सकती थी, पर लड़के को सरकार ने इतने सरकारी काम सौंप रखे थे कि सांस लेने की फुर्सत नहीं थी। 
      जब बहुत दिनों तक मास्साब को लड़के के हाल-चाल नहीं मिले तो उन्होंने सोचा, काम में व्यस्त होगा, चलो हम ही दिल्ली चलते हैं। जनरल डिब्बे में ठुंस कर मास्साब जैसे-तैसे दिल्ली पहुँचे। पता लगाते हुए कुछ दूर बस से, कुछ दूर पैदल चलकर आखिर गुरुजी पुत्र के दफ्तर के अन्दर घुसे। सामने दरवाज़े पर अपने बेटे की नामपट्टिका देख कर खुशी से उनकी आँखें भर आईं। गरमी और प्यास से उनका गला सूख रहा था पर दरवाज़े पर सा़फा वाली टोपी लगाए चपरासी को देख कर उनकी भूख-प्यास सब मिट गई। अलबत्ता चपरासी ने उनसे बिना मुंह खोले दाढ़ी उठाकर और भौहें उचकाकर पूछा, ‘‘तुम कैसे?’’ मास्साब समझ गए और खखारकर हाथ उठाकर बोले, ‘‘मिलना है।’’
      - ‘‘ऐसे कैसे मिलना है? साहेब अभी नहीं मिलते हैं, कल आना।’’ 
      - ‘‘उनसे कह दो, गाँव से दद्दा आये हैं।’’ 
      अधिकारी पुत्र बचपन से मास्साब को ‘दद्दा’ ही कहता आया था। मास्साब इंतज़ार करने लगे कि बेटा यह खबर सुनकर खुशी से फूला नहीं समाएगा और बाहर खुद लेने आएगा। उस दो पल में मास्साब को पुत्र का पूरा बचपन याद आ गया। 
      वहाँ अन्दर चार साथी पुरुष और महिला अफसरों के साथ मास्साब का बेटा किसी गंभीर परिचर्चा पर ठहाके लगा रहा था। चपरासी ने संदेशा दिया कि गाँव से कोई दद्दा आये हैं, बाहर खड़े हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। अफसर की हँसी पर एकदम ब्रेक लगा। चेहरा बिलकुल उतर गया। थोड़ी देर तक कुछ नहीं बोले, फिर चपरासी से कहा कि कह दो, अभी बिजी हैं, थोड़ी देर में बुला लेंगे। चपरासी के जाते ही सहकर्मी अफसर ने प्रश्नवाचक नज़रों से पुत्र को देखा तो सकपकाते हुए पुत्र ने कहा, ‘‘अरे! गाँव का आदमी है, किसी अपने काम से आया होगा। मैं तो परेशान हो गया हूँ इन लोगों से, जिसको देखो मुँह उठाये चला आता है।’’
      इधर, जब बहुत देर तक अन्दर गया चपरासी बाहर नहीं लौटा, तो मास्साब कान लगाकर अन्दर की बात सुनने का प्रयास करने लगे। आखिरी के दो वाक्य उनको खूब साफ-साफ सुनाई पड़े। ऐसा लगा, किसी ने उनके सीने को दबोच लिया हो। हाथ-पाँव बिलकुल ठन्डे हो गए। मास्साब दीवार का सहारा लेकर कुछ देर जड़वत खड़े रहे। चपरासी ने आकर क्या कहा, उन्होंने कुछ नहीं सुना। थोड़ी देर में हिम्मत बटोरकर वह धीरे-धीरे चलते हुए दफ्तर से बाहर आ गए। फिर कैसे स्टेशन पहुँचे, कैसे घर... उन्हें कुछ याद नहीं रहा। याद रहे तो अपने बेटे के मुँह से सुने हुए वे दो वाक्य, जो फिर वह अपनी ज़िन्दगी में कभी नहीं भूले। 
      बाद में पता चला कि बेटे ने गाँव आकर बड़ी चिरौरी-विनती की। पर मरते दम तक मास्साब फिर कभी अपने अ़फसर बेटे के घर नहीं गए। 
      खैर यह तो मास्साब की कहानी थी, अब वापस अपनी कहानी पर लौटा जाए।

5

कक्षा आठ पास करने के बाद अब बारी थी विषय चुनने की। यहाँ पर यह फेंकना समीचीन होगा कि कक्षा-एक से लेकर कक्षा-आठ तक मैं हमेशा प्रथम पंक्ति में ही रहा। यह अलग बात है कि कक्षा-आठ तक के मेरे सारे सहपाठियों में केवल तीन लोग ही बाद में ग्रेजुएट हो पाए। मुझे गाँव में लोग पढ़ाकू मानते पर दरअसल मैं उतना पढ़ाकू था नहीं। अब लोग ऐसा मानते थे, तो मैं भी यही मानने लगा। पर कक्षा आठ तक आते-आते मैं अपने कोर्स से इतर किताबें पढने में समय लगाने लगा था।
      चूंकि पढ़ाकू लड़के कठिन विषय ही लेते हैं और विज्ञान को एक कठिन विषय माना जाता था, सो मैं सारे विरोधों के बावजूद विज्ञान विषय ही लेने पर अड़ा था। शायद इसके पीछे मेरे पढ़ाकू होने का ठप्पा ही काम कर रहा था। आपके आसपास के लोग भी आपके बनने में एक भूमिका रखते हैं। आप समाज का ही एक अंग होते हैं। आपको रचने में समाज की बड़ी भूमिका है।
      मेरे बड़े भाई पहले ही हाईस्कूल में 'विज्ञान-विज्ञान' खेल चुके थे। उनके साथ हम भी मेढ़क के दो-चार ऑपरेशन कर चुके थे और मन ही मन यह निर्णय भी, कि बायो ही पढ़नी है। नीले रंग के सनील से मढ़ा उनका डिसेक्शन बॉक्स मुझको बहुत लुभाता था। हम लोग नाली से मेढ़क पकड़ उसे मिट्टी का तेल पिला कर पहले बेहोश करते, फिर उसके अगले-पिछले पैर रस्सी से बैलगाड़ी पर रखकर बाँध देते। फिर 'ऑपरेशन-ऑपरेशन' खेलते। मेढ़क बेचारा बेहोशी के आलम में इन प्रशिक्षु सर्जनों को कुछ नहीं बोल पाता। बाद के दिनों में एक डिसेक्शन ट्रे का इंतेज़ाम भी हो गया और फेफड़े, यकृत, प्लीहा और गुर्दे आदि पहचानने लगे।
      बुरी तरह से पराजित होने के बाद भाई का मन आखिर विज्ञान वाले खेल से ऊब गया और उन्होंने जल्दी से खेल बदल दिया और 'आर्ट्स-आर्ट्स' खेलने लगे। सबने मुझे खूब डराया-धमकाया पर पराजय के डर से मैं भला कब रुकने वाला था। पूरे इलाके में केवल एक विद्यालय था, जिसमें साइंस पढ़ने की सहूलियत थी। पढ़ने की नहीं, केवल नाम लिखाने की। वह भी बाकायदा एण्ट्रेंस एक्जाम के बाद। अब  साईंस पढने वाला मैं पूरे गाँव में अकेला विद्यार्थी था।
      कक्षा आठ पास करने के बाद मेरा मन पढ़ाई से कुछ उचट-सा गया। पढ़ाई से, मतलब कोर्स की बोरिंग किताबों से। अगले पाँच सालों तक ऐसा नहीं कि मैंने कुछ सीखा नहीं पर इस सीखने में स्कूल और कॉलेज की किताबों और मास्साब लोगों का योगदान न के बराबर ही रहा। अगले दो साल तो गाँव में ही गाय-भैंस चराते, ज़रूरी बदमाशियाँ सीखते, करते गुज़रे।
      फिर अगले तीन साल शहर के धक्के खाते, सिनेमाघरों के चक्कर काटते, कुछ नई बदमाशियों को आजमाते हुए काटे। वह सब किया, जो उस उम्र के लड़के करते हैं, बस एक ही काम नहीं किया, वह थी विधिवत् पढ़ाई। जिसका खामियाज़ा आज तक भुगत रहा हूँ। कभी-कभी लगता है कि दिमाग को किसी डब्बे में भगवान बंद कर के पाँच वर्षों तक भूला रहा। फिर अचानक उसे याद आया और मस्तिष्क को कुछ हवा-पानी नसीब हुआ।
      नौवीं और दसवीं क्लास में बायोलॉजी पढ़ाते थे सैयद सरबत हुसैन (अगर मैं नाम सही लिख पा रहा हूँ) सर। हुसैन साब खूब लम्बे गोरे-चिट्टे आदमी थे, लखनऊ से कभी-कभी आते थे और ‘बायोलॉजी’ को ‘ब्यांलोजी’ कहते। जब कभी वह कॉलेज आते तो ठीक-ठाक पढ़ाते भी थे। प्रैक्टिकल भी करवाते। प्याज की झिल्ली से दीवार में चुनी ईंटों जैसी कोशिकाएं सबसे पहले उन्होंने ही दिखाईं। अपनी लम्बी-लम्बी उँगलियों से जब वह मेढ़क का डिसेक्शन करते, तो कलाकार जैसे लगते।
      फिजिक्स के टीचर थे, नाटे कद के बाबूराम नामदेव सर। नामदेव सर पढ़े-लिखे योग्य आदमी थे पर शायद वह शिक्षक का अपना करियर छोड़कर कहीं और जाना चाहते थे, सो इतनी शिद्दत से नहीं पढ़ाते थे कि पढ़ने वाला उनका मुरीद हो जाए। हालांकि वह किराए का कमरा लेकर वहीं रहते थे और रोज़ स्कूल आते थे। अपने घर में ट्यूशन भी पढ़ाते थे सर लेकिन वहाँ भी वह पूरे मन से मौज़ूद नहीं रहते। उन दिनों शायद वह खुद ही किसी परीक्षा में व्यस्त रहा करते। कालान्तर में वह किसी और सरकारी नौकरी में चुन लिए गए और उन्होंने पठन-पाठन कार्य से मुक्ति पाई।
      नौवीं और दसवीं में पढ़ाई-लिखाई की तो ज्यादा याद नहीं, हाँ यह ज़रूर याद है कि गणित ने खूब सताया। गुरुओं की कृपा और हमारे दिमागी बनावट के चलते संख्याओं से मुझे डर लगने लगा। वह डर आज तक बरकरार है। अलबत्ता किस्सों-कहानियों में मन रमता था। वेद प्रकाश शर्मा की विजय-विकास सीरीज़ को इसी समय पढ़ना शुरू किया, और कुछ उपलब्ध ही नहीं था। हाँ, जीव विज्ञान पढ़ने में मज़ा आता था। चूंकि वह कोर्स की किताब थी, लिहाज़ा उसे भी अपनी पढ़ने वाली लिस्ट में जगह नहीं दे पाया। 
      दो साल कब गुज़र गए और कब बोर्ड का इम्तेहान आ गया, कुछ पता ही न चला। सेंटर था घर से पंद्रह किलोमीटर दूर। सैनिक स्कूल, सरोजिनी नगर का सेंटर नकल न होने देने के लिए काफी बदनाम था। घर से रोज़ आना-जाना संभव नहीं था। वहाँ पर हमारे जान-पहचान के एक द्विवेदी जी रहा करते। वह पीडब्ल्यूडी विभाग में अवर अभियंता थे। इम्तेहान भर हम उनके मेहमान बन कर रहे।
      किसी तरह रोते-गाते इम्तेहान खत्म हुए और एक दिन पिताजी ने किसी बात पर यह कहते हुए धुन दिया कि 'अब तो इम्तेहान खतम हो गए, परसाद लो'। फिर वही खेत खलिहान, गाय-गोरू।
      1982 की मई या जून की किसी सुबह ख़बर आई कि हाईस्कूल का रिज़ल्ट निकला है, जो देखना चाहें वह देख सकते हैं। कुछ ऐसे भी थे, जिन्हें रिज़ल्ट-विज़ल्ट कुछ नहीं देखना था। उनका निश्चय पक्का था कि अब किताबों को हाथ नहीं लगाना, कुछ भी हो जाए, पर मुझे तो रिज़ल्ट देखना था और आगे की पढ़ाई भी जारी रखनी थी।
      जल्दी से बन्दर छाप काला दन्त मंजन थूक कर पैंट पहनी और भाग लिए छह किलोमीटर दूर कस्बेनुमा गाँव या गाँवनुमा कस्बे में, जहाँ पेपर मिलने की उम्मीद थी। स्कूल भी वहीं पर था।
      वहाँ पहुँचते ही एक सहपाठी मिले, जो पढ़ने में मेरी तरह ही ठीक-ठाक थे, कहा कि सब गुड़ गोबर हो गया यार, क्लास में किसी का नंबर अ़खबार में नहीं छपा है। मैंने एक बार मिमियाती आवाज़ में पूछा- सच कह रहे हो? लेकिन उसने उत्तर देने  के बजाय आँखों में आँसू भर लिये। अब शक की कोई गुंज़ाइश कहाँ बची थी? जिसका डर था, वही हुआ। फेल होने का तमगा लेकर गाँव में क्या मुँह दिखाएंगे, बस इसी बात की चिंता थी। आगे पढ़ना है, फिर से, इसमें कोई दुविधा नहीं थी। मन के अंदर थोड़ी बेइज्जती का भाव तो था, पर घर न जाएँ या अपनी जीवन लीला समाप्त कर लें, यह विचार तो कहीं दूर-दूर तक नहीं आया।
      घर में मेरा थोबड़ा देख कर किसी को रिज़ल्ट पूछने की ज़रुरत महसूस नहीं हुई। सभी अपने कामों में लगे थे, किसी को दिलासा देने की तो बात ही छोड़िये, गरियाने तक की फुरसत नहीं थी, और न ही यह आवश्यकता महसूस हुई होगी। अलबत्ता माँ ने ज़रूर सर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में’। इससे आगे के शब्द उनको याद नहीं थे। मुझे शब्द तो सुनाई नहीं पड़े पर माँ के हाथ का स्पर्श डूबते हुए को एम डी आर एस की टीम का सहारा मालूम हुआ। बाबा ने थोड़ा अविश्वास से मुझे देखते हुए पूछा, क्या वा़कई तुम फेल हो गए हो? मैंने सर हिलाया, और वहाँ से भाग गया। उस रात मैं ब़गैर खाना खाये, मूंज की नंगी चारपाई पर आँख में आँसू लिए कब सो गया, पता ही न चला।
      लेकिन कहानी तो अभी बा़की है मेरे दोस्त -
      अगले दिन मन नहीं माना, तो फिर भागे सुबह-सुबह साइकिल लेकर। अब थोड़ी हिम्मत आ चुकी थी कि अ़खबार में नंबर खुद भी ढूंढ़ लें एक बार। तो साहब खोजने पर मिल गया अपना नंबर, बाकायदा चमक रहा था (T) के साथ।
      हुर्रे! मैं पास हो गया था और मैं ही नहीं, पचपन जनों की भरी हुई क्लास में पूरे सात लोग पास हुए थे - सभी गाँधी डिवीज़न। मैं मन ही मन मुस्कुरा रहा था। मेरे लिए तो मेरा थर्ड डिवीज़न किसी मेरिट से कम नहीं था।
      गाँव में मेरी पढ़ाई का समय पूरा हो चुका था। अब शहर मेरी राह देख रहा था और जहाँ एक बिल्कुल अलग दुनिया मेरा इंतज़ार कर रही थी।


6

1982 की गर्मियों का उत्तरार्ध रहा होगा, जब रिज़ल्ट निकला। पास होने और शहर में रहने की खुशी के चलते रातों की उमस भी अपना प्रभाव छोड़ने में असमर्थ थी। दोपहर में गाँव के हर दुआरे के कई-कई चक्कर लगा कर अपने पास होने का ढिंढोरा पीट आये। दहिला-पकड़ खेलते-खेलते जब जी ऊब जाता तो भरी दुपहरिया अमिया चुराकर तोड़ने का प्लान बनता या ककरहा ताल में तैराकी प्रतियोगिता आयोजित होती। फिलवक्त घर में मार खाने की संभावना काफी कम थी।
     खेतों से आनाज और भूसा घर आ चुका था। हरे-भरे खेत विशाल सफेद चारागाहों में बदल गए थे। मेड़ों से बची हुई दूब कुतरते जानवर दूर तक चले जाते, बिना रोक-टोक। आम और जामुन का मौसम जोरों पर था। आम के पत्तों में छुप कर कोयल टूऽऽ-टूऽऽ की मधुर ध्वनि से अपने साथी को खोज रही  होती (हम लोग यही समझते) और हम बच्चे उसी धुन में तब तक टुटुहाकर जवाबी आवाज़ निकालते, जब तक वह बेचारी थक कर मौन न हो जाये। लोगों को बारिश का इंतज़ार था पर मेरा मन शहर जाने के लिए हुलस रहा था। सपनों में रोज़ शहर दिखाई पड़ने लगा।
      बयालीस (42) प्रतिशत अंकों के साथ हाईस्कूल पास करने के बाद भी मैं विज्ञान के क्षेत्र में ही अपना करियर बनाने के लिए कृतसंकल्प था। यह मेरा कोरा आत्मविश्वास ही नहीं, अज्ञानता का प्रदर्शन भी था। अज्ञानता और आत्मविश्वास का समानुपाती संबंध होता है। आज आपको शायद लग रहा हो कि यह शेखचिल्ली खयाल हमको उस समय क्यों कर आया? तो बात यह थी कि अपने समकालीन अल्पवयस्कों में केवल मैं ही पूरे गाँव से विज्ञान विषय लेकर हाईस्कूल पास हुआ था। सो, मेरा दिमाग सातवें आसमान पर था। दरअसल उस माहौल में अपने को गर्वित महसूस करने के लिए पहली बार में किसी का हाईस्कूल पास होना ही काफी था, और मैं तो साईंस लेकर पास हुआ था। थर्ड डिवीज़न से मेरे जोश में किसी प्रकार की कमी नहीं आनी थी, सो नहीं आई।
      मार्कशीट के डुप्लीकेट प्रोफार्मा में हाथ से अंक भर कर उसे कॉलेज प्रिंसिपल या राजपत्रित अधिकारी से अटेस्ट करवाना होता था। पिताजी ने एक शाम को बताया कि तुम्हारी मार्कशीट की फोटोस्टेट करवा देता हूँ। मुझे लगा, कोई बड़ी चीज़ होगी। मेरी फोटो के साथ मार्कशीट मढ़ी जाएगी। मैं सुबह-सुबह फोटोस्टेट करवाने के लिए नहा-धोकर, बालों को तेल लगाकर, उन्हें करीने से काढ़कर जैसे ही पिताजी के साथ चलने को तैयार हुआ, तो पिताजी ने कहा - 'तुम यहीं भैंस चराओ, अभी तुम्हारी ज़रुरत इसमें नहीं है, केवल अपनी मार्कशीट दे दो।' शाम को जब फोटोकॉपी मिली, तो सारा माजरा समझ में आया।
      विज्ञान विषय से आगे की पढ़ाई गाँव से संभव नहीं थी। लिहाज़ा एक रोज़ पिताजी के साथ नवाबों के शहर लखनऊ का रुख किया। पिताजी ने हमें हमारे विद्यालय के गेट तक छोड़ा और बच्चों के स्कूल के अन्दर कभी कदम न रखने की अपनी प्रतिज्ञा की रक्षा की। श्री जय नरायण इंटर कॉलेज, जो कान्यकुब्ज कॉलेज (केकेसी) के नाम से कभी विख्यात हुआ करता था, अब कुख्यात ज्यादा था। उस समय वहाँ दाखिले की कोई मारामारी नहीं थी। शहर के तमाम पढ़े-लिखे बच्चों के लिए बहुत सारे स्कूल-कॉलेज उपलब्ध थे, मसलन, लामार्टीनियर, सेंट फ्रांसिस, महानगर बॉयज, काल्विन ताल्लुकेदार्स, क्रिश्चियन कॉलेज आदि-आदि। इन सारे स्कूलों के नाम दरअसल मुझे बहुत बाद में पता चले। उस समय तो बस एक ही नाम था ‘केकेसी।’ उसी केकेसी के बाजू में एक और खानदानी विद्यालय था - बप्पा श्रीनारायण वोकेशनल कॉलेज, कान्यकुब्ज वोकेशनल (केकेवी)। गलती से हाईस्कूल पास होने वाले बच्चों के लिए इनके दरवाज़े खुले हुए थे। केकेवी का स्तर केकेसी से बेहतर माना जाता था, सो हमने उधर आँख उठा कर भी नहीं देखा।
      चारबाग रेलवे स्टेशन के बिलकुल करीब होने के कारण ज्यादातर शहर के आसपास के गाँवों के लड़के ही इन विद्यालय-द्वय में भर्ती होते। फर्स्ट क्लास-सेकेण्ड क्लास केकेवी में और सेकेण्ड क्लास-थर्ड क्लास केकेसी में। इस लिहाज़ से देखा जाए तो हम केकेसी के लिए ही बने थे। एडमीशन फार्म भरते हुए एक बोदिल से दिख रहे लड़के के होशियार पिता ने मुझे सुझाव दिया कि बायो नहीं, मैथ्स लो, वरना आगे बहुत पछताओगे। मैथ्स में आगे बहुत सारे रास्ते खुल जाएंगे, बायोलोजी की गली आगे बेहद संकरी है, तुम अपने लिए बंद ही समझो। मैथ्स का नाम सुनते ही मेरी देह में झुरझुरी सी उठी और विषयों के कॉलम में पहला नाम तुरंत बायोलोजी लिख कर उस संकरी गली में प्रवेश कर गया। हाईस्कूल में मैथमेटिक्स से कैसे घमासान हुआ, यह तो मेरा दिल ही जानता है। आज भी सोच लेता हूँ तो पसीने-पसीने हो जाता हूँ। मैं सोचता हूँ कि उस दिन अगर पिताजी भी साथ स्कूल आए होते और उन अंकल की बातों में आकर मुझे PCM दिलवा दिया होता, तो उसी दिन मेरे करियर का राम नाम सत्य हो गया होता।
      जैसे उस ज़माने में अमूमन पिताजी लोग जब खुश हो जाते आपकी पढ़ाई-लिखाई पर तो कहते कि, खूब मन लगाकर पढ़ो, तुम्हें डॉक्टर या इंजीनीयर बनना है। सो, मेरे पिताजी ने भी एक बार सुबह-सुबह आँगन में यही वाक्य दोहराए, जिसका कोई मतलब न मेरे लिए था, न उनके लिए।
      केकेसी में दाखिला हो चुका था और मुझे पढ़ाई के लिए अब शहर रवाना होना था। यूँ तो शहर की दूरी हमारे गाँव से त़करीबन तीस एक किलोमीटर ही थी पर रोज़ आना-जाना संभव नहीं था। इसका मुख्य कारण था रेलवे स्टेशन की गाँव से दूरी। यह दूरी करीब छह किलोमीटर की थी। सड़क भी गाँव से इतनी ही दूरी पर। सो, यह तय हुआ कि शहर में रहेंगे और सप्ताहांत गाँव में गुज़रेगा। पढ़ाई भी चालू रहेगी और गाँव में खेती का काम भी होता रहेगा। आगे कई सालों तक यही सिलसिला चला। शनिवार को साइकिल से गाँव आ जाते और सोमवार की सुबह आटा-दाल और ढेर सारे पराठों की पोटली लेकर शहर पहुँच जाते।

7

अपने प्राइमरी स्कूल का टॉपर लड़का यहाँ बिलकुल बैक बेंचर हो गया था। न तो पढ़ाई होती थी, न ही कोई कुछ पूछने वाला था स्कूल में, न कुछ समझ आता था। कोर्स की किताबों से अजीब सी घबराहट होने लगी।
      उसी समय मेरे खानदान में किसी वृद्ध की मृत्यु होने के कारण मैंने सर मुड़ाया हुआ था। क्लास में देहात से आया हुआ एक घुटमुंडा चिमिर्खी-सा लड़का, जिसको अंग्रेजी तो छोड़ो, खड़ी हिंदी तक बोलने में दिक्कत थी। ऐसे में किसी पढ़ाकू लड़के से मेरी दोस्ती नामुमकिन ही थी। अपने शरा़फत के कीटाणुओं के चलते किसी आवारा लड़के से मैं दोस्ती कर नहीं सकता था। सो, ग्यारहवीं में मेरा कोई दोस्त बन नहीं पाया। बारहवीं में एक दुबले-पतले लड़के सुधीर श्रीवास्तव से मेरी थोड़ी-बहुत दोस्ती हुई जिसने बताया कि शुरू में मैं तुमको बिलकुल उजड्ड देहाती ही समझता था। मैंने उससे कहा कि तुम बिलकुल ठीक थे, बस उजड्ड थोड़ा कम हूँ मैं, पर देहाती तुम्हारी सोच से ज्यादा।
      एक तो पहली बार परिवार से दूर अकेले अनजान शहर में, ऊपर से नया स्कूल, मैं बस डर-सा गया था इस दुनिया से। यह डर फिर बहुत वर्षों तक मेरे साथ बना रहा। स्कूल में तो दुबका ही रहता, जहाँ रहता था, वहाँ भी जान बचाए अँधेरे में पड़ा रहता। गाँव-घर की खूब याद आती। सामने से आ रही लड़की को देखकर दूसरी पट्टी पर चला जाता। शहर में कदम रखते ही मेरे आत्मविश्वास की धज्जियाँ उड़ चुकी थीं। यह तो अच्छी बात थी कि उन दिनों सह-शिक्षा का ज़माना नहीं था वरना मैं शायद कॉलेज छोड़कर गाँव वापस आ गया होता।
      सच पूछा जाए तो मुझे अपने ग्यारहवीं-बारहवीं स्कूल के दिन बिलकुल याद नहीं। बस इतना याद है कि स्कूल जाने में एक घबराहट-सी होती थी। हाईस्कूल के बाद किसी तरह मैथ्स से पीछा छूटा, तो उसकी जगह फिजिक्स ने ले ली। फिजिक्स के मेरे एक टीचर शुक्ला जी हुआ करते थे। मुझे लगता है कि वह गलती से फिजिक्स के अध्यापक बन बैठे थे। या यूँ कहिए कि अध्यापक ही होना उनको सूट नहीं करता था। न उन्होंने कभी पढ़ाया, न हमने कभी पढने की ज़हमत उठाई। न्यूमेरिकल देख कर तो मेरी घिग्घी बंध जाती। उनसे गज़ब तो हमारे हिन्दी के शिक्षक हुआ करते थे। पूरे दो सालों में उन्होंने शायद कुल दस-बारह क्लासेस ली होंगी। बारहवीं की बोर्ड परीक्षा में मैंने आखिरी के आधे पेज पर यही गाथा लिखी और पास करने का आग्रह किया। निरीक्षक महोदय ने पता नहीं पढ़ा या नहीं, पर मैं हिन्दी में भी बाकायदा पास था।
      बायोलॉजी मुझे पसंद थी और उसके टीचर भी। ऊँचे कद और तीखी नाक वाले आर. एस. पांडेय जी एक अकेले टीचर हैं, जिनकी शक्ल और पूरा नाम मुझे आज तक याद है। पाण्डेय जी बढ़िया पढ़ाते थे। मैं उनकी कोचिंग में भी कुछ दिनों पढ़ने गया, पर वहाँ भी बायो के अलावा कुछ समझ नहीं आता। लेकिन ऐसा नहीं था कि मैं पांडेय जी का प्रिय शिष्य था। वह तो शायद ही मेरा नाम तक जानते हों। दरअसल मैं शुरू से ही बहुत मुखर कभी नहीं रहा लेकिन यहाँ आकर कुछ ज्यादा ही अंतर्मुखी हो गया था।
      अंग्रेज़ी के एक टीचर बिलकुल नए-नए आये थे। कोई त्रिपाठी जी थे। पढ़ाते कम, हड़काते ज्यादा थे। डरते-डरते कभी कुछ पूछा भी तो बताने की जगह खुद ही सवाल दागते और चिल्लाकर भगा देते। हम भी अपनी जान बचाए भाग लेते। कालान्तर में उनसे बदला लेने का एक मौ़का मुझे भी बाद में मिला।
     मेडिकल कॉलेज में मेरी इंटर्नशिप चल रही थी और मेरी पोस्टिंग आँख वाले महकमे में लगी थी। मैं स्नेलेन चार्ट पर दृश्य तीक्ष्णता ( विजुअल अक्यूटी) चेक कर रहा था। तभी लाइन में खड़े हुए मुझे अपने अंग्रेज़ी वाले गुरुजी दिखाई पड़े। वह बेचारे हमें क्या पहचानते, पर मैं उन्हें देखते ही पहचान गया। अचानक मुझे उनका व्यवहार याद आ गया और अपनी अंग्रेज़ी की दुर्दशा भी। मैंने उन्हें अनदेखा किया और लाइन से अपने पास आने दिया। सामने बैठते ही मैंने उनसे कड़क आवाज़ में कहा, ‘‘पढ़िए।’’ वह बेचारे एक आँख बंद कर अटक-अटक कर पढ़ने लगे। मैंने उन्हें वहीं रोक दिया और दया दिखाते हुए कहा, ‘‘अरे! आपको अंग्रेज़ी नहीं आती है तो आपको पहले बताना था न, मैं इसे घुमा देता हूँ।’’ और उनका उत्तर सुने बगैर चार्ट को घुमा दिया, जहाँ अनपढ़ लोगों के लिए केवल चित्र प्रदर्शित थे। मैंने चेहरे पर ऊब मलकर उबासी लेते हुए कहा, ‘‘हाँ बाबा, अब बताइये किधर मुँह खुला है?’’ उन्होंने बहुत धीरे से कहा, ‘‘अरे डॉ. साब मैं अंग्रेजी का टीचर हूँ, केकेसी में।’’ अब तक मेरा बदला पूरा हो चुका था। मैंने कुर्सी से उठकर उनके पैर छुए और क्षमा माँगी कि सर मैं आपको पहचान नहीं पाया, मैं भी आपका शिष्य रह चुका हूँ। फिर जल्दी से मैंने उनके सारे काम कराये और उन्हें नीचे तक छोड़ने गया, फिर से पैर छुए और आशीर्वाद लिया। इस तरह तुरंत गुरु अवमानना का प्रायश्चित भी कर लिया।
      केकेसी इंटर कॉलेज में एक छोटी-सी समृद्ध लाइब्रेरी हुआ करती, जिसके बारे में मुझे तब पता चला, जब मुझे वहाँ से नो ड्यूज़ साइन कराना पड़ा। इसके पिछले स्कूलों में मैंने एकाध बार पुस्तकालय पर निबंध तो लिखा था, पर कभी पुस्तकालय देखा नहीं था। कोर्स से इतर मुझे पढ़ने का शौ़क बचपन से ही था। यह शौ़क मेरे दादाजी से स्थानांतरित हुआ था। दादाजी केवल चार ज़मात पास थे पर हिन्दी और उर्दू अच्छी तरह से पढ़ और समझ लेते थे। हमारी हिन्दी और इतिहास की किताबें हमसे पहले दादाजी पढ़ते थे। बाज़ार से सामान भर कर जो लि़फाफे आते उनको करीने से खोलकर दादाजी चारपाई पर लेटे पढ़ रहे होते। हम भी कई बार समोसे, मूंगफली खाकर उसके काग़ज़ पर लिखी दुनिया में खो जाते।
      अगर मुझे इस खज़ाने (पुस्तकालय) का इल्म समय रहते हो गया होता, तो हो सकता है कि विज्ञान से मेरा मोहभंग हो गया होता और मैं साहित्य की गलियों में झोला लटकाए घूम रहा होता।
      पुस्तकालय में ढेर सारी पुस्तकें देख कर याद आया कि मेरे प्राइमरी स्कूल के दिनों में एक शर्मा जी दो बड़े-बड़े झोलों में किताबें भरकर हर बृहस्पतिवार को आया करते थे। तभी मैंने रूसी भाषा से अनूदित कई कहानियों की किताबें पढ़ी थीं। यह एक चलता-फिरता पुस्तकालय था, जो हर बृहस्पतिवार को हमारी पास चलकर आता, जिसका मुझे बेसब्री से इंतज़ार रहता। किताबों वाले शर्मा जी को देखकर मैं पुलकित हो जाता। एक बार तो तेज़ बुखार में भी मुझे स्कूल इसलिए जाना था कि शर्माजी अपने झोलों के साथ आने वाले थे।
      किस्सों-कहानियों के शौ़क के चलते ही मुझे सिनेमा का चस्का लगा, जो बाद में लत बन गई। अपने पढ़ने के शौ़क को पूरा करने मैं अक्सर किताबों की दूकानों पर पाया जाता। साइकिल को कमर से टिकाये तब तक पत्रिकाएं पढ़ता, जब तक दुकानदार घुड़क न दे। ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’ और ‘धर्मयुग’ मेरी प्रिय पत्रिकाएँ थीं, जिनके कई अंक मैंने इसी तरह पढ़े। जाहिर है कि ये और इस तरह की कई पत्रिकाएं हमारे कॉलेज में भी आती रही होंगी, जिन्हें हम आराम से बैठकर पढ़ सकते थे। मगर अपने दब्बू स्वभाव और दबे-कुचले आत्मविश्वास के कारण मैं इससे वंचित रह गया। इसका सबसे ज्यादा मुझे नुकसान यह हुआ कि मेरे कदम लुगदी साहित्य की ओर बढ़ गए। वेदप्रकाश शर्मा, ओम प्रकाश शर्मा, रानू, सुरेन्द्र मोहन पाठक ने मेरे अधिकांश समय पर कब्ज़ा कर लिया। ‘मनोहर कहानियाँ’, ‘सत्यकथाएँ’ जैसी पत्रिकाओं ने ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’, ‘हंस’, ‘सारिका’ जैसी पत्रिकाओं की जगह ले ली।
      इसका मुख्य कारण शायद यह था कि ऐसा साहित्य हमारे आस-पास प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था, जिसे खरीदने की भी ज़रुरत नहीं थी। हर मोहल्ले में छोटी-छोटी गुमटियाँ होतीं जिनमें यही किताबें ठसाठस भरी रहतीं। किराया मात्र पच्चीस पैसे प्रतिदिन। हाल यह था कि एक दिन में मैं मोटे-मोटे तीन उपन्यास तक पढ़ डालता। मुझे लगता है कि इन पुस्तकों में जाया किया, वही समय यदि मैं बेहतर साहित्य में लगा पाता तो शायद ज्यादा बेहतर इन्सान बनता। या फिर ऐसा भी हो सकता है कि इस पढ़ने की आदत ने ही मुझे ज्यादा बेहतर इन्सान बनाया।
      बहरहाल मैंने खूब पढ़ा और खूब फिल्में देखीं। दुनिया की समझ हमें शुरुआती दौर में इन्हीं से मिली। एक फायदा तो प्रत्यक्ष था, पढ़ने की आदत। जितनी मोटी किताब, उतना ही पढ़ने में आनंद। यही आदत आगे की मेडिकल पढ़ाई में बहुत काम आई। आज भी मैं हमेशा भारी-भरकम पुस्तक ही चुनता हूँ, पढ़ने के लिए। मैं नहीं बल्कि वह ही मुझे चुनती हैं, मैं आकर्षित होकर उनके मोहपाश में बँध-सा जाता हूँ। पर अभी समयाभाव के चलते कम से कम इस तरह की दस किताबें थोड़ी-थोड़ी पढ़कर और पढ़े जाने का इंतेज़ार कर रही हैं। कम पृष्ठों वाली पुस्तकें पढ़ने की इच्छा अन्दर से नहीं जागती। लगता है, अरे, यह तो बहुत जल्दी खत्म हो जाएगी, फिर क्या करेंगे?
    स्कूल का इंतज़ाम तो हो गया, अब बारी थी कमरे की। घर तो वहीं गाँव में छूट गया था, यहाँ तो बस कमरे में ही रहना था। लेकिन मेरा कमरा तो ऐसा था कि उसे कमरा कहना, कमरे की बेइज्ज़ती करना ही हुआ। हिम्मत तो नहीं है कि किसी को अपने रहने का स्थान दिखाएँ पर आइये, ले चलते हैं आपको। यह हिम्मत उस समय साथ नहीं दे पाई। जब तक मैं उस दड़बेनुमा कमरे में रहा, पूरे पाँच सालों तक स्कूल-कॉलेज का कोई भी दोस्त उस कमरे पर फटकने नहीं पाया।
      केकेसी से लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक मुहल्ला है लालकुआं। लालकुआं रिसालदार पार्क के बगल में एक दड़बेनुमा कमरा पिताजी ने काफी पहले से ले रखा था। कभी-कभार जब ट्रेन छूट जाए, वह उस कमरे में रुक जाया करते, प्राय: खाली ही रहता। कभी कोई बीमार हुआ और लखनऊ आने की अवश्यकता पड़ी, तो यही कमरा काम आता। हमारे लिए लखनऊ का मतलब यही कमरा होता। किराया था पंद्रह रुपये प्रति माह। सन उन्नीस सौ बयासी में मज़दूर की एक दिन की मज़दूरी दस रुपये हुआ करती थी। उस हिसाब से देखा जाय तो किराया निहायत सस्ता था और कई बरसों से उसे बढ़ाया नहीं गया था। बीस कमरों का यह पूरा मकान 'हाता' कहलाता था। हालांकि इसमें आहाते जैसी कोई जगह नहीं थी। आप मुम्बइया फिल्मों में दिखाई जाने वाली चाल की कल्पना कर सकते हैं, पर मैं जानता हूँ कि चाल से इस हाते की तुलना नहीं की जा सकती। अगर केवल कारपेट एरिया की ही बात की जाए तो चाल के एक घर में यहाँ के पांच खोखेनुमा कमरे तो निकल ही आएंगे। हाते में बीचो-बीच खडंजा लगी हुई चार फीट की एक गैलरी थी, जिसमें आमने-सामने से आते हुए दो लोग बिना एक-दूसरे को छुए हुए मुश्किल से निकल सकते थे। गैलरी में दोनों तरफ पतली नालियाँ थीं, हर कमरे से पानी निकास के लिए। गैलरी में ही लोगों की साइकिलें खड़ी रहतीं, एक आध खटारा लम्ब्रेटा, विजय सुपर भी।
      उसी गैलरी में खुलते हुए दोनों तरफ दस-दस कमरे थे। कमरे क्या थे, माचिस की डिब्बियाँ थीं। चार बाई दस का आगे बरामदा, उसके पीछे दस बाई बारह का कमरा। यानी कुल एक सौ साठ फीट जगह। इसी एक सौ साठ फीट की जगह में पूरे परिवार के परिवार रहते थे। किसी-किसी परिवार ने दो-दो कमरे ले रखे थे। पता नहीं कमरे कब बनाए गए थे और क्यों बनाए गए थे। इन्सानों के रहने के लिए तो इनका निर्माण नहीं ही हुआ होगा। पूरे कमरे में कहीं कोई खिड़की नहीं। छत से लगी हुई बरामदे की तरफ ईंटों को हटा कर तीन झिर्री बनी हुई थी। इन्हीं झिर्रियों से हवा को बहुत मेहनत कर के कमरे में रह रहे इन्सानों को ज़िंदा रखना था। चार फीट के आसमान से किरणें पहले उस गैलरी में उतरती थीं, वहाँ से परावर्तित होकर अनमने ढंग से बरामदे के रास्ते कमरे में प्रवेश करतीं। वहाँ पहुँचते ही अँधेरा उन्हें निगल लेता। ढाई फीट का दरवाज़ा खुला रखने पर भी जून की दोपहर में कमरे के अन्दर की सभी दीवारों को देख पाना असंभव ही था।
      सबसे आखिर में दोनों तरफ दो कमाऊ  शौचालय थे। कमाऊ  समझते हैं न आप? शुष्क शौचालय। वहाँ भी किसी रोशनी का इंतज़ाम नहीं था। दिन में भी घुप्प अन्धेरा रहता। लोग साथ में दीया, मोमबत्ती या लालटेन साथ ले जाते या फिर अंदाजे से काम चला लेते। बाकी लोगों ने तो लाइट का कनेक्शन ले रखा था, पर मेरे कमरे में बिजली नहीं थी। पिताजी से कभी हमने लाइट के लिए कहा नहीं और उन्हें यह आवश्यक नहीं लगा। गाँव में आदत थी ढिबरी-लालटेन से पढ़ने की तो मुझे भी कोई खास असुविधा नहीं थी।
      सच कहूँ तो जब तक वहाँ से बाहर नहीं निकला, तब तक वह कमरा मेरे लिए राजमहल ही था। पूरे हाते के सभी लोग लगभग एक ही आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि के चलते एक परिवार की तरह ही रहते। किशोरावस्था से जवानी में कदम रखते हुए वे पाँच वर्ष मेरे लिए बहुत अमूल्य थे। ये दिमाग में रासायनिक उथल-पुथल वाले दिन थे। शहर में निपट अकेले रहते हुए मेरे कदम किसी ओर भी मुड़ सकते थे। वहाँ का माहौल गंवई और निम्न मध्यमवर्गीय था, एक परिवार जैसा था और मेरी बुआ जी भी वहीं थीं, जिसके चलते एक नैतिक अंकुश हमेशा बना रहा।
      लालकुएँ के इसी कुएं में मैं 1982 से 1987 तक रहा। तब शहर में मेरा बस यही ठिकाना था, जो मुझे पसंद भी था। वहाँ मैं अपने जैसे लोगों के बीच रहते हुए थोड़ा बेहतर महसूस करता। यहीं पर रहकर जवान होते हुए मैं धीरे-धीरे शहरी जीवन से अभ्यस्त हो रहा था और मुझमें खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आ रहा था। मेरे लिए मेरा कमरा बिलकुल मु़फीद जगह पर था। कुछ दूरी पर अमीनाबाद, थोड़ी दूर पर हजरतगंज। स्कूल पास में, सिनेमाहाल भी इतनी दूरी पर थे कि रात में आखिरी शो देख कर पैदल ही घर आ जाते। लालबाग के 'जय भारत' से भी पैदल ही गलियों-गलियों बस कुछ ही मिनटों में कमरे पर।
      कमरे में बिजली का कनेक्शन नहीं होने के कारण गर्मियों में छत पर पानी डाल कर बिस्तर लगाते और देर सुबह तक सोते, जब तक धूप उठा न दे। परेशानी बरसात के दिनों में होती। गाँव में तो बारिश की रातों में सोने का आनंद ही कुछ और था। छप्पर के नीचे खटिया पर चादर तान कर सो जाते। तेज़ बारिश में पुरवाई के साथ बौछारें आतीं तो दीवार की तरफ बिस्तर समेट लेते और कथरी लपेट कर सोते रहते। पर यहाँ तो बिलकुल नरक था। थोड़ी बौछारें पड़ीं तो बिस्तर समेट कर नीचे। बारिश बंद हुई तो उमस बढ़ी, फिर छत पर। पूरी रात यही करते रहते।
      सामने दो कमरों में बुआजी का परिवार रहता था। सो शुरुआत में और बीच-बीच में भी, खाना उन्हीं के यहाँ होता था। कई बार खाना खुद बनाते भी थे। स्टोव पर ज्यादातर दाल-रोटी, कभी-कभी सब्ज़ी-रोटी। सीखने के लिए काफी मसक्कत की, फिर सीख गए गोल-गोल रोटी बेलना। एक बार बुआजी से किसी बात पर नाराज़ थे और घर में हल्दी नहीं थी। पास में इतने पैसे भी नहीं थे कि हल्दी खरीद सकूँ, तो बिना हल्दी की केवल नमक डाल कर अरहर की दाल बनी और भूखे पेट अच्छी भी लगी। शुरू में साल भर तक बड़े भैया भी साथ ही रहते थे। उम्र में ढाई-तीन साल का अंतर है और गाँव में साथ-साथ खेलते और लड़ते रहे थे। खाना बनाने को लेकर काफी झगड़ा होता, कभी मारपीट की नौबत भी आ जाती। मारपीट में मैं ही मारा जाता और मैं ही पीटा जाता। फिर वह नौकरी के सिलसिले में कानपुर चले गए और मैं अकेला ही रहने लगा।
      सोमवार की सुबह गाँव से आते, तो एक-दो दिन तो घर से लाए पराठे ही चल जाते (अम्मा के बनाए बहुत पतली परतों वाले पराठे और कुंदरू की सब्ज़ी, अहा! बस मुँह में पानी आ गया) फिर एकाध दिन खुद बनाते, एकाध दिन बुआजी के यहाँ खाते या खाने के लिए किसी और रिश्तेदार के यहाँ स्पॉट लगता। शनिवार आ जाता और वापस गाँव। दस रुपये में सप्ताह भर आराम से खींचा जा सकता था। दो-चार रुपये अम्मा से और ऐंठ लिया तो बल्ले-बल्ले। इसी में पिक्चर भी देखनी होती। 
      बटुआ तो था नहीं, उसकी ज़रुरत भी नहीं थी। पैंट की दोनों जेबों में उपस्थित एक-आध नोट और दो-चार चिल्लर हरदम दिमाग पर दस्तक देते रहते। एक-एक सिक्का गिना हुआ। बाबा कहा करते कि मेरे पास जब भी पैसे आ जाते हैं कहीं से, तो मेरा सिर दर्द करने लगता है। इसलिए उन्हें खर्च करना ज़रूरी हो जाता है। मैं सोचता कि हे भगवान, मेरे पास कब पैसे आएंगे कि मेरा भी सिर दर्द करे उन्हें खर्च करने के लिए। एक बार ऐसे ही किसी शनिवार को साइकिल खराब थी और घर टेम्पो से जाना था। किराया था डेढ़ रुपये। ट्रक वाले एक रुपये भी ले लेते। पैसा खर्च होते-होते सब खर्च हो गया। आखिरी अठन्नी से नगर बस द्वारा नगर की सीमा तक तो आ गए, अब आगे कैसे जाएँ? थोड़ी दूर पैदल चले फिर एक साइकिल वाले से विनती की। उसने कहा- ना भैया। हमने ऑफर दिया कि मैं चला लूँगा तो वह झट से तैयार हो गया। वह हट्टा-कट्टा मज़दूर था और मैं सुखट्टा लाल, पर पट्ठे को बिलकुल तरस नहीं आया और मैं किसी तरह साइकिल खींचता हुआ बंथरा तक पहुँच पाया।


8

सिनेमा का तो आलम यह था कि उन दिनों पूरे लखनऊ  में कुल चौबीस सिनेमाघर हुआ करते थे। किसमें कौन-सी पिक्चर चल रही है और अगले बृहस्पतिवार को कौन सी लगने वाली है, यह मुँहज़बानी पता रहता था। उन दिनों फिल्में गुरुवार को ही चेंज होती थीं। पुरानी पिक्चरों का फर्स्ट क्लास का टिकट डेढ़ से दो रुपये में आता था। कहीं-कहीं इससे भी कम। नई रिलीज़ हुई फिल्में बहुत कम देखते थे, उनके टिकट कुछ महंगे हुआ करते। हमारे समय में पिक्चर देखना एक अपराध की श्रेणी में आता था। बुआजी की निगरानी रहती और इसकी खबर पिताजी को पहुँचाई जा सकती थी। इसलिए बहुत सचेत रहना पड़ता। अमीनाबाद में एक था ‘नाज़ सिनेमा घर’। वहाँ ब्लैकमेलिंग रोकने के लिए हाथ पर ठप्पा लगाते थे, जो आसानी से नहीं छूटता। उसके चक्कर में हमेशा पूरी बांह की शर्ट पहन कर जाते, वहाँ पिक्चर देखने।
      पिक्चर में और वैसे भी, साथी था मेरी बुआ का लड़का। हम समवयस्क थे और पक्के दोस्त भी। हम साथ-साथ ही गलियों के चक्कर लगाते, एक साथ खाना खाते, छत पर एक साथ ही सोया करते, अक्सर रजाई लेकर जाड़ों में भी। रात में कभी पिक्चर जाते तो तकिया लगा कर चादर ओढ़ा देते। ऐसे भागने में एक छोटी-सी दीवार लांघनी होती, जिसके ऊपर कांच के टुकड़े लगे थे। एक बार मेरा हाथ भी उससे कट गया था, जिसका निशान हथेली पर अब भी मौज़ूद है।
      उस ज़माने में हम लोग फिल्म को ‘पिक्चर’ ही कहते थे। सबसे पहली पिक्चर जो परदे पर देखी (और कहीं देखने की सुविधा तब थी नहीं) वह थी, ‘पैसे की गुड़िया।’ सिनेमा हॉल था चौक में ‘प्रकाश।’ तब मैं बहुत छोटा था और चाचा के साथ गया था। फिर अगली पिक्चर के लिए मुझे एक दशक का इंतज़ार करना था। मैंने और मेरे सभी भाई-बहनों ने कभी भी कोई भी फिल्म अपने माँ-बाप के साथ सिनेमाहॉल में नहीं देखी। बड़े होने के बाद भी। अम्मा को ज़रूर हम लोग कई फिल्मों में साथ ले गए पर पिताजी कभी नहीं गए। हम जब ढाई साल के अपने बेटे को पहली बार फिल्म दिखाने 'नावेल्टी' सिनेमाहॉल में ले गए, तो उसकी आश्चर्य से आँखें फटी रह गईं।  ‘‘पापा, इतना बड़ा टीवी?’’ हम पति-पत्नी अपने बच्चे को खुश देखकर बहुत देर तक खुश होते रहे। मेरे माता-पिता ने इस तरह की किसी खुशी में अपना वक्त और पैसा जाया नहीं किया। उनके पास अपने बच्चों का पेट भरना ही उनको खुश देखना था। इतने बड़े परिवार को खाना-कपड़ा मुहैया कराना, उन्हें समाज में सम्मानपूर्वक जगह दिलाना मेरे माता-पिता का अकथनीय प्रयास था। उन दिनों किसी से कमतर होने की हीन भावना हमारे किसी भाई-बहनों में कभी नहीं आई। किसी भी पिता के लिए यह उपलब्धि है।
      पिताजी किस्सों-कहानियों की दुनिया को समय की बर्बादी समझते थे और फिल्मों को भी। घर में हमेशा हम लोगों ने पिताजी का ही शासन देखा, जो कड़क था। पिताजी कड़क थे, अंदर से भी और बाहर से भी। इन्सानी स्वभाव के निर्माण में परिस्थितियाँ भी अपना दखल रखती हैं। आज मैं सोचता हूँ तो लगता है पिताजी किस जादू से परिवार चला रहे थे। उनके कड़कपने और तानाशाही का शिकार सबसे ज्याद माँ ही होतीं। एक किस्सा सुनिए - 
      एक बार पिताजी झांसी में नौकरी के सिलसिले में रह रहे थे। अम्मा भी कुछ दिनों के लिए गई हुईं थीं। यह किस्सा मेरी पैदाईश के पहले का है। अम्मा ने पिताजी से पिक्चर देखने की इच्छा जाहिर की। पिताजी अपने काम में मशगूल थे और उन्हें शौ़क भी नहीं था। बात टलती गईं। जब काफी दिन हो गए, तो अम्मा ने एक दिन ज़िद की (मुझे नहीं लगता कि अम्मा ने पिताजी से ज़िद की होगी, हाँ दो-एक बार अपनी बात दुहराई ज़रूर होगी)। पिताजी ने कहा, चलो तुम्हें अभी फिल्म दिखा कर लाते हैं। अम्मा खुशी मन से तुरंत तैयार हो गईं। बारह से तीन फिल्म देखी। फिर वही फिल्म तीन से छह देखी। जब फिर से पिताजी जी उसी फिल्म का टिकट लेकर हॉल में बैठ गए तो अम्मा बुक्का फाड़ कर रोने लगीं। वह दिन और आज का दिन, अम्मा ने फिर कभी पिताजी से सिनेमाघर में फिल्म के लिए नहीं कहा।
      पिताजी के गाँव में रहते हुए हम लोग टीवी भी नहीं देख पाते थे। हाँ, गाँव में पहला टीवी हमारे घर में ही लगा था। मतलब आया था। मैं उस समय बीएस.सी. कर रहा था और ट्यूशन पढ़ा रहा था। चाचाजी को हम बच्चों ने राजी किया, कुछ पैसे पिताजी ने भी दिये, कुछ हमने भी लगाए और EC टीवी हमारे घर में था। ईसी टीवी यानी इलेक्ट्रोनिक कार्पोरेशन ऑफ इंडिया (केंद्रीय सरकार की कंपनी) यूं तो UPTRON भी था, पर वह यूपी सरकार का लोकल टीवी था। टीवी के साथ ही उसका फोल्डिंग शटर भी खरीदा गया। टीवी का एंटीना बड़े शान से हमने ही छत पर लगाया। बाबाजी सबसे खुश थे और सारे कार्यक्रम मनोयोग से देखते। हालांकि पिताजी के आगे वह भी टीवी बंद कर देते। रविवार को शाम की फिल्म के लिए बाहर तक दरियाँ बिछ जातीं। बाद में जब रामायण का प्रसारण शुरू हुआ, तब क्या कहने।
      पिताजी जब-तब एंटीना छत से उखाड़ कर फेंक देते। हम लोग डरते-डराते फिर टांग आते। पिताजी आजकल अम्मा को टीवी दिखाने के लिए व्हील चेयर से ले जाते हैं और धार्मिक प्रवचन के अलावा फिल्में और डांस भी अपनी कमेंट्री के साथ दिखाते हैं। अभी कुछ दिनों के लिए उनके टीवी पर धार्मिक चैनलों के अलावा कुछ भी नहीं आ रहा था, तो काफी झल्लाए हुए थे।
      ‘प्रकाश’ में मेरी वह पहली और आखिरी पिक्चर ही रही। बा़की लखनऊ के सभी छविगृहों में मेरा कई बार का आना-जाना लगा रहा। पास में ही अमीनाबाद था, जहाँ गलियों-गलियों से कुछ ही मिनटों में पहुँचा जा सकता था। आज जब सभी चौबीसों सिनेमाघर या तो बंद हो गए हैं या फिर बंद होने की कगार पर हैं, तब उनको याद करना तो बनता है। वे हमारे किशोरावस्था के अभिन्न साथी थे।
       अमीनाबाद में तीन सिनेमाघर थे। ‘जगत’ बीच अमीनाबाद में झंडे वाले पार्क के सामने। उसके बगल में एक गंगा प्रसाद वर्मा लाईब्रेरी थी। कभी जब पहले पहुँच गए, तो समय काटने के लिए लाइब्रेरी में बैठते। हालांकि ज्यादातर समय घर से सुई का काँटा मिलाकर ही निकलते। यदि आप एक साथ चार घंटों के लिए कमरे से गायब हुए, तो गए आप कहीं हों, यह मान लिया जाता कि आप फिल्म देखकर ही आये हैं।
       ‘जगत’ के पिछली वाली सड़क पर था ‘मेहरा सिनेमा’। कहते हैं कि इसी सिनेमा घर में शुरुआती दिनों में (तब यहाँ लाईव परफोर्मेंस भी हुआ करती थी) नौशाद साब हारमोनियम बजाया करते थे।
      तीसरा सिनेमा घर था ‘नाज़’।  प्रकाश कुल्फी वाले चौराहे से जब आप कैसरबाग बस अड्डे की तऱफ चलते हैं तो करीब पचास कदम पर बाएं हाथ पर ‘नाज़’ हुआ करता, जिस पर कम से कम हमें तो नाज़ नहीं था। यह अकेला पिक्चर हॉल था, जिसमें कैदियों की तरह हाथ पर ठप्पा लगवाना पड़ता।
      अमीनाबाद से जैसे ही आप कैसरबा़ग चौराहे पर पहुँचते हैं तो ठीक चौराहे पर दाहिनी तरफ है ‘आनंद।’ ‘आनंद’ में बस एक खराबी थी कि ठीक फिल्म शुरू होने से पहले ही गेट खुलता। तब तक आपको चौराहे पर ही खड़ा रहना पड़ता। जहाँ आप किसी परिचित के द्वारा 'अपराध' करते हुए देखे जा सकते थे। चौराहे से कुछ ही कदमों की दूरी पर है ऐतिहासिक अमीरुद्दौला पब्लिक लाईब्रेरी। वहाँ का मेरे पास सदस्यता कार्ड था और गाहे-बगाहे मैं वहाँ जाया करता। 'मुद्राराक्षस' को पहली बार मैंने वहीं पढ़ा था।
      ‘आनंद’ से जब आप बर्लिंग्टन चौराहे की ओर मुड़ते हैं तो दाहिनी तरफ गुड बेकरी के बाद बाईं तरफ लो आ गया ‘लिबर्टी।’ हमारे ज़माने में ‘लिबर्टी’ एक बढ़िया सिनेमाघर था। मुझे इसलिए भी पसंद था कि उसके ठीक सामने वाली गली में घुसते ही कुछ संकरी गलियों के जाल से निकलते हुए तेज़ी-तेज़ी बारह मिनटों में मैं अपने कमरे पर आ जाता था। घुसते ही बाईं तरफ कालीबाड़ी, फिर घसियारी मंडी, मॉडल हाउस, रत्ती खस्ते वाला चौराहा, फिर हीवेट रोड पार करते हुए सुंदरबाग में घुस जाइए डॉ. दीक्षित के सामने से मकबूलगंज और आ गए रिसालदार पार्क।
      लिबर्टी से बाईं तरफ चल पड़िए तो आगे चलकर दो टाकीज़ पाए जाते। ‘जयहिंद’ और ‘जयभारत’। इन दोनों की खास बात यह थी कि इनमें सि़र्फ पुरानी फिल्में ही लगाई जातीं। दाम भी अपेक्षाकृत कम रहते। बताने की आवश्यकता नहीं कि मेरे पसंदीदा छविगृहों में इनका स्थान काफी ऊपर था। अगर आप लिबर्टी से सीधे कैंट रोड पर चलते रहें, तो आगे ‘ओडियन’ सिनेमा दाईं तरफ था। उससे भी पहले दायीं तरफ एक नया सिनेमा घर बन गया था, जिसका नाम मुझे अब याद नहीं। जाहिर है कि वहाँ के चक्कर कम ही लगे होंगे।
      आगे बढ़ते हुए बर्लिंगटन चौराहा पार कर उदयगंज में बाईं तरफ मेनरोड से थोड़ा हटकर था ‘अलंकार’। ‘अलंकार’ में तीन तल्ले का हाल था, सबसे नीचे फर्स्ट क्लास, फिर बालकनी और सबसे ऊपर स्पेशल। सबसे नीचे वाले आसमान की तरफ मुंह उठाकर फिल्म देखते, सबसे ऊपर वाले कुँए में झाँक कर, बालकनी वाले अपनी गर्दन को ज़्यादा तकली़फ नहीं देते।
      ‘साहू’, ‘मेफेयर’, ‘बसंत’, ‘नोवेल्टी’, ‘तुलसी’ और ‘प्रतिभा’ सिनेमाघर हज़रतगंज के अतिविशिष्ट क्षेत्र में आते थे। नई फिल्में ज्यादातर यहीं रिलीज़ होतीं। 'साहू' के पीछे ही कभी ‘प्रिंस’ हुआ करता था। मेरे ज़माने में वह गायब था। ‘साहू’ के पीछे की मुझे एक ही चीज़ याद है,‘मद्रास कै़फे’। बहुत बढ़िया डोसा मिलता था वहाँ। डोसा ऑर्डर कीजिये और भूखे हों तो जितनी चाहे सांभर और चटनी ले लीजिये। बहुत सस्ता भी था और साफ़-सुथरा भी।
      इसी क्षेत्र में वैसे ‘कैपिटल’ भी था, पर उसकी प्रतिष्ठा पर धब्बे लगे हुए थे। पहले इसी ‘कैपिटल’ में बहुत सारी जुबली फिल्में हिट हुईं थीं, जिनकी गवाही वहाँ के पोस्टर और मेडल बताते हैं, पर अभी तो वह बेरौनक हो चला था। वहाँ सुबह दस बजे का एक पाँचवा शो भी चलता था, जिसमें हिन्दी/अंग्रेज़ी की 'सी ग्रेड' फिल्में दिखाई जातीं। कॉलेज बंक करने वाले बच्चों के लिए ही खासकर यह शो चलता था। मॉर्निंग शो तो ‘मे़फेयर’ में भी चलता था पर वहाँ की फिल्मों का स्तर काफी बेहतर था।
      चारबाग में ‘सुदर्शन’ और आलमबाग में ‘कृष्णा’ लखनऊ  के सबसे घटिया सिनेमाघरों में गिने जाते थे। लखनऊ  के बाहरी क्षेत्रों में ‘उमराव’, ‘अंजुमन’ आदि सिनेमाघरों में अपुन का जाना कुछ ज्यादा नहीं था।
      अमिताभ बच्चन उस समय के मेरे पसंदीदा नायक थे। हीरो-हीरोइन के पोस्टर देखने और लगाने का बिलकुल शौक नहीं था। कोई दीवानगी भी नहीं थी। पर सिनेमा की या यूँ कहें कहानियों की दीवानगी थी। हमारे ज़माने की फिल्मों में मारधाड़ और हिंसा तो थी, पर इतनी नहीं, जितनी आजकल दिखाई देती है। फ़िल्मों में डाकुओं के अलावा कोई विशेष नरसंहार नहीं होता। वहाँ भी कोई वीभत्स दृश्य नहीं होता। इधर हीरो ने गोली चलाई, उधर डाकू हाथ में पकड़ी हुई बंदूक उछालता हुआ ढेर हो गया। आखिर में हीरो लातों-घूसों से खलनायक को कम से कम आधे घंटे तक मारता। आखिरी दृश्य में पुलिस आ गयी और पिक्चर खत्म। ‘शोले’ देखने के बाद हमारे एक चाचा ने कहा कि पिच्चर तो बहुत बढ़िया है पर आखिरी में सब गुड़ गोबर कर दिया। मैंने कहा - हाँ, अमिताच्चन को नहीं मरना चाहिए था। उन्होंने कहा - नहीं, वह तो ठीक ही हुआ, वह साला ठाकुर साब की विधवा बहू पर डोरे डाल रहा था। आखिर में धरमेंदरवा केतना बढ़िया मार रहा था साले गब्बर को, पर बीच में ठाकुर साब पता नहीं कहाँ से कूद कर आ गए कि अब मैं मारूँगा। बताओ भला, तुम्हारे जब दोनों हाथ नहीं हैं और होली वाले दिन लोग मरते रहे, तुमसे बंदूक तक नहीं उठाई गई। अब जब धरमेंदरा उसको निपटाने ही वाला था, तब तुमको घुसने की क्या ज़रुरत आन पड़ी। बाकी पिच्चर ठीक थी। 
      फिल्म से लौटते हुए मन अवसाद में नहीं, एक नए जोश में होता। विषम परिस्थितियों से लड़ता हुआ नायक अंत में विजयी होता। लौटते समय नायक के संघर्ष करते हुए विजय पा लेने की अनुभूति का ज़ज़्बा मन में बहुत देर तक रहता। साथ में चोरी से पिक्चर देखने का अपराधबोध भी।
      पिक्चरबाज़ी की लत से सिनेमाई ज्ञान में तो काफी इज़ाफा हुआ, थोड़ी दुनियादारी की समझ भी बढ़ी पर किताबी ज्ञान के लिए वक्त नहीं बचा। गाँव से आकर पूरे दो सालों तक मैं बस फिल्मों की दुनिया में ही विचरण करता रहा, जो थोड़ा-बहुत समय मिला, उसे शहर को समझने, उससे तालमेल बिठाने में और घासलेटी साहित्य पढ़ने में जाया कर दिया।
      छविगृहों के चक्कर लगाते-लगाते और गाँव में खेती-बारी करते-करते कब दो साल गुज़र गए, कुछ पता ही न चला। बारहवीं का बोर्ड आ गया। पढ़ाई कुछ थी नहीं और सेंटर था क्रिश्चियन कॉलेज। नकल का कोई जुगाड़ नहीं था। इम्तेहान के पर्चों में क्या लिखा, कुछ पता नहीं।
      नतीज़तन इंटरमीडिएट में बस घिसट कर पास हो पाया। इस बार नंबर थे उनतालीस प्रतिशत। फिजिक्स में धक्का मारकर पास किया गया, ग्रेस मार्क्स चार।
      लालकुआं के इसी दड़बे में पाँच साल रहते हुए मेरे जीवन में सबसे ज्यादा भावनात्मक उतार-चढ़ाव आए, शारीरिक बदलाव भी। हारमोंस अपना लेवल तय कर रहे थे। चेहरे पर दाढ़ी-मूँछें आ रही थीं और आँखों में सपने बन-बिगड़ रहे थे। पढ़ाई में असफलता के चलते लगा, अब सब कुछ ख़त्म। उस अँधेरे कमरे में अकेले में खूब रोया भी और लैम्प की रोशनी में अकेले में खूब मुस्कुराया भी। 
      आत्मविश्वास ज़मीन पर लोट रहा था, हीन भावना घर करने लगी। पर कभी जान देने का खयाल नहीं आया, न ही दुनिया से भागने का। फिर किसी तरह अपने को खड़ा किया। एक ऐसा दौर भी आया, जब लगा कि मैं पूरी दुनिया को जीत सकता हूँ। आत्मविश्वास ऐसा कि लगा, अब कुछ भी नामुमकिन नहीं है। पर यह तो सब बहुत बाद में हुआ। अभी तो दिमाग में कुछ भी नहीं था, बिलकुल दिशाहीन।
      परीक्षा देने के तुरंत बाद गाँव में किसी रोज़ पिताजी ने कुएँ की जगत पर नहाते व़क्त एलान कर दिया कि मेरी तरफ से तुम अब स्वतंत्र हो। आगे की पढ़ाई (अगर करना चाहो) तो अपने बूते पर करो। पुराना जुमला दोहराया कि ‘बारह साल के बच्चे को वैद्य नहीं ढूँढना पड़ता है’ तुम तो अब अठारह के होने वाले हो, हमारा खून पीना बंद करो। हालांकि किसी तरह का कोई विवाद नहीं हुआ था उस दिन। पिताजी शायद पढ़ाई के प्रति मेरे रवैये को देखकर काफी निराश हो चुके थे। अपने सभी भाइयों-बहनों में मैं शुरू से पढ़ाई के मामले में कुछ ज्यादा बेहतर था, शायद उनको मुझसे बहुत उम्मीदें रही होंगी। अभी इंटर का रिज़ल्ट नहीं निकला था पर रिज़ल्ट के बारे में वह आश्वस्त थे, कि मेरा अब कुछ नहीं हो सकता। मन में पिताजी के लिए क्रोध था तो खुद के लिए भी क्रोध कम नहीं था। 
      सत्रह साल के अपने बच्चे को इस तरह दुत्कार कर शहर भेज देना शायद आपको अजीब लग रहा होगा पर जिस माहौल से पिताजी निकल कर आए थे, यह उनके लिए सामान्य व्यवहार था। 
      पाँच भाई-बहनों में पिता अपने पिता की सबसे बड़ी संतान हैं। पिताजी जब सोलह साल के थे, तब बाबा एक कत्ल के मुकदमे में घर से फरार चल रहे थे। उन्होंने अपने ज़मींदार पिता से अफीम खाना सीख लिया था। देश आज़ाद हो चुका था और ज़मींदारी और ज़मीन दोनों सरकार ने छीन ली थी। उन एक-दो सालों में केस की पैरवी में घर के बर्तन तक बिक गए। बाबा को डर था कि जेल गए, तो अफीम कैसे मिलेगी। खैर मुकदमा तो जीत गए पर पूरे परिवार को भुखमरी के कगार पर खड़ा कर दिया। उस समय पिताजी हाईस्कूल की पढ़ाई कर रहे थे और उसमें फेल हो गए। 
      उस ज़माने में शादियाँ आपके कुल और आपके परिवार की साख को देखकर तय की जाती थीं। रिश्तेदारी में कोई मातबर आदमी यदि किसी को रेकमंड कर दे, तो बिना कुछ देखे-भाले शादी हो जाती। अम्मा एक खाते-पीते घर की छोटी बेटी थीं। शादी के बाद जब पहली बार ससुराल आयीं, तो यहाँ के हाल देखकर बेहोशी छाने लगी। पर अपने माँ-बाप से कभी किसी बात की शिकायत न की। राज़ तो तब खुला, जब पिताजी पहली बार ससुराल गए। हाईस्कूल फेल पिताजी को अब ज़िम्मेदारियों का एहसास होने लगा था। दुबारा बोर्ड का फार्म भरने के लिए पैसे चाहिए थे, वह थे नहीं तो लोगों की सलाह पर पहुँच गए पैसे माँगने। अपने चाचा से माँगकर शर्ट पहने हुए थे, वह भी जेब के पास थोड़ा फटा हुआ था। नाना ने पैसे तो दिए पर उन्हें सदमा लगा। 
     बाबा ने अम्मा की शादी में आए सभी बर्तन और सामान एक-एक कर राशन और अफीम के लिए निपटा दिये। तब तक ईश्वर कृपा से पिताजी ने हाईस्कूल पास कर लिया और नौकरी तलाश में निकाल पड़े। उन्होंने अपने जीवन में बहुत पापड़ बेले। बाबा को पूरे जीवन अफीम खिलाते रहे, तीन बहनों और दो बेटियों की शादियाँ की और परिवार की इज्जत पर कभी आँच न आने दी। 
      पर ये सब बातें उस समय मैं नहीं समझ सकता था। मेरा अपना स्वाभिमान मुझे ललकार उठा। अन्दर से खूब क्रोध आया। सोचा अब कभी पैसा घर से नहीं माँगूँगा, जो भी करूँगा अपने बूते पर।


9

सो, अगली भोर मोमिया में पराठे, कुंदरू की सब्जी, अम्मा का आशीष और आँखों में आँसू लेकर साइकिल लखनऊ की और दौड़ चली। हाईस्कूल थर्ड डिवीज़न पास चिमिरखे से लड़के को कोई क्या नौकरी देता। पर पिताजी की बात दिल को लग गई थी और नौकरी तो करनी ही थी। अगले ढाई महीने यानी रिज़ल्ट निकलने तक वापस गाँव नहीं आया। ये दिन बहुत व्यस्तता में गुज़रे और आगे के जीवन के लिए खूब मज़बूत कर गए। मेरी समर इंटर्नशिप शुरू हो रही थी।
      हमारे बाबा के एक छोटे भाई, जिन्हें हम लोग ‘बाबूजी’ कहते थे, पी. डब्ल्यू. डी. ऑफिस में कार्यरत थे। अच्छे पद पर और सहृदय होने के नाते नौकरी के लिए पूरे गाँव से लोग उन्हीं के पास जाते। मेरे तो खैर ‘बाबूजी’ ही थे। उस ज़माने में सि़फारिश से सरकारी नौकरियाँ भी मिल जाया करती थीं। बाबूजी का गाँव लगातार आना-जाना लगा रहता। मेरे पिताजी के समवयस्क थे और उनके चाचा थे। दोनों लोगों में प्रगाढ़ दोस्ती थी। बाबूजी अपने ज़माने के पूरे गाँव और परिवार में सबसे होशियार और पढे़-लिखे व्यक्ति थे। मुझसे बहुत स्नेह करते थे। शहर में व्यस्तता के बावजूद बाबूजी गाँव को नहीं भूले थे। पूरे परिवार-खानदान को जोड़ कर रखा था उन्होंने। बचपन में मैं उनसे बहुत प्रभावित रहता और उनके जैसा ही बनना चाहता। मैं पढ़ने में थोड़ा तेज़ माना जाता था, तो मुझ पर उनका स्नेह कुछ ज्यादा था।
      नौकरी के लिए मैं भी बाबूजी के दरबार में हाज़िर था। बड़े ध्यान से उन्होंने हमारी बातें सुनीं और फिर थोड़ी देर बाद बोले कि अभी तुम्हारी उम्र नौकरी करने के लायक नहीं है। वैसे तो तुम्हें आज से ही काम मिल सकता है, इन पर पानी छिड़कने का। उन्होंने दरवाज़े, खिड़कियों पर गरमी से बचने के लिए लगी खस की टट्टियों की तरफ इशारा करते हुए कहा। पर मैं तुम्हें यह काम नहीं करने दूँगा। अभी तुम्हें आगे की पढ़ाई जारी रखनी चाहिए। मैं तुम्हारे पिताजी से बात कर लूँगा। मन में तो था कि बाबूजी, मैं यह काम भी कर लूँगा पर उनके सामने कुछ बोल नहीं पाया।
      पर, मुझे तो नौकरी ही करनी थी। अगला पड़ाव था उनके बेटे, हमारे चाचाजी के पास, जो एक मेडिकल कम्पनी में एक्सूक्युटिव थे। मेरे अत्यधिक अनुरोध पर चाचाजी ने अपनी जान-पहचान का इस्तेमाल करते हुए मेरे लिए एक अदद नौकरी का प्रबंध कर दिया।
      काफी लेबर टाईप का काम था। दवाओं की एक डिस्ट्रीब्यूशन कम्पनी थी, अमीनाबाद में। पगार थी तीन सौ रुपये मासिक। सन्डे के अलावा हर छुट्टी पर दस रुपये कटता। सुबह दस बजे से शाम छह बजे तक कचूमर निकल जाता। काफी मेहनत का काम था। नीचे बेसमेंट से दवा के वजनदार कार्टन कंधे पर उठा कर ऊपर लाना होता, छोटे डब्बों में पैकिंग की जाती, फिर रिक्शे पर लादकर अमीनाबाद दवा मार्केट में सप्लाई। मार्किट में मज़दूरों से ऊपर दुकानों में एक कार्टन चढ़ाने का पचास पैसे रेट फिक्स था, जिसे बचाने के लिए खुद ही दो-चार कार्टन पहुँचा देते और रुपये-दो रुपये बन जाते। कुछ पैसे रिक्शे के किराए में मोलभाव कर बचाये जा सकते थे।
      असल समस्या थी खाने की। दिन भर हाड़-तोड़ काम के बाद खाना कौन बनाए। दोपहर आधे घंटे की छुट्टी में कुछ चाय-बन, समोसे खाकर काम चला लेते थे। रात के खाने के लिए अमीनाबाद में एक शाकाहारी भोजनालय में प्रबंध कर लिया। 175 रुपये में 30 टोकन। एक टोकन पर भरपेट खाना। लेकिन ये सारे टोकन महीने भर में ही इस्तेमाल के लिए वैध थे।
      यह सिलसिला लगभग ढाई महीने तक चला। शाम को सात-आठ बजे खाना खाकर घर लौटता। पूरा दिन पेटियाँ ढोने के बाद रात में कुछ होश नहीं रहता। सुबह उठकर फिर नौकरी पर। धीरे-धीरे मैं अपने आपको मज़दूर के खांचे में ढलता हुआ देख रहा था। मेरे साथ ही मेरा एक बहुत दूर का रिश्तेदार भी साथ ही काम करता, जो बाबूजी के यहाँ रहता था। बाबूजी मेरी सारी खबर रखते थे। मिलने पर उन्होंने समझाया कि अभी तुम कहाँ नौकरी के चक्कर में पड़े हो, अभी पढ़ाई करो और अपनी सेहत का ध्यान रखो। कहना न होगा, मैं सूख कर कांटा हो गया था। उन्होंने सलाह दी कि खाना खुद बनाया करो, तो कम कीमत में ज्यादा पौष्टिक होगा। पर मैं शुरू से ही कामचोर था, खासकर खाना बनाने को लेकर।
      जहाँ पर काम मिला था, वहाँ गोडाउन के ऊपर ही ऑफिस था। वहीं पर एक सज्जन ने मेरी उम्र और काया देखकर पूछ लिया, ‘‘क्या यही करना है जीवन भर?’’ मैंने कहा, ‘‘आईटीआई के लिए फॉर्म भरा है।’’ वह व्यंग्य से मुस्कुराए। बोले, ‘‘आज-कल के लड़कों को सपने देखने भी नहीं आते। अरे कम से कम आईआईटी का फॉर्म तो भरते।’’ मुझे क्या पता कि आईआईटी भी कोई चीज़ होती है। लेकिन दिमाग में यह खटका ज़रूर हुआ कि जीवन की राहें अभी बंद करना उचित नहीं है।
      एक घटना और हुई ऑफिस में। सुबह कभी जब जल्दी पहुँच गए और नीचे वाला गोडाउन नहीं खुला, तब तक ऊपर ऑफिस में एक कोने में बैठ गए। एक दिन एक ऑफिस क्लर्क ने कहा, ‘‘ए लड़के, ज़रा मेज़ साफ कर दो।’’ मैं भड़क गया। ‘‘मैं यहाँ सफाईकर्मी के रूप में नहीं हूँ, आप अपनी मेज़ खुद साफ कर लीजिये।’’ उन्हें इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। बोले, ‘‘नए हो? अभी साहब से शिकायत करता हूँ तुम्हारी।’’ मैंने कहा, ‘‘हाँ ठीक है, जिससे चाहो उससे करो।’’ और वहाँ से चला आया। इस घटना की जानकारी बाबूजी को मिली तो उन्होंने कहा, ‘‘बिलकुल ठीक किया तुमने।’’ पता नहीं उसने शिकायत की नहीं या साहब ने सुनी नहीं, मुझे उसके लिए तलब नहीं किया गया।
     मैं वहाँ काम तो ज़रूर कर रहा था पर उस वातावरण से अपना सामंजस्य नहीं बैठा पा रहा था। सोचता कि क्या यही करना है मुझे जीवन भर? अन्दर से आवाज़ आती, नहीं। पर करना क्या है? यह आवाज़ न अन्दर से आती, न बाहर से।
      दो-ढाई महीने हो गए थे। अब घर की भी याद आने लगी थीं। नौकरी करते हुए मैं अंदर से बहुत खुश नहीं था। दिमाग में इंटरमीडिएट का रिज़ल्ट घूम रहा था। मेरा भविष्य अब उसी पर टिका था। पास होने की बहुत कम उम्मीद थी। बाकी पर्चे तो लगभग पास होने के लायक लिखे थे पर दो में शंका थी, इंग्लिश और फिज़िक्स। मैं अंदर ही अंदर अपने आपको फेल होने की स्थिति के लिए तैयार कर रहा था। सोचता, अगर फेल हो गया तो फिर पढ़ाई कैसे होगी, नौकरी के साथ। साइन्स प्राइवेट कर नहीं सकते, साइन्स छोड़ भी नहीं सकते।
      फिर एक दिन पेपर में रिज़ल्ट आ गया बारहवीं का। इस बार भी भगवान मेरी तरफ था। मैं फिर से थर्ड डिवीज़न में पास था। इस बार सुपर बैड थर्ड डिवीज़न थी। नंबर थे 39 प्रतिशत। फिज़िक्स में चार नंबरों की अनुकंपा के साथ। अंग्रेज़ी में मेरे नंबर पता नहीं कैसे पास होने भर के आ गए थे। जाहिर है कि मैं खुश हुआ और मेरे घर वाले भी। पर पिताजी को अब भी मुझे लेकर बहुत उम्मीदें नहीं जगी थीं।
      इधर नौकरी से मैं भी भर पाया था और पिताजी का गुस्सा भी शांत हो चुका था। मेरा सारा क्रोध तो खैर पसीने के रास्ते शरीर से बह ही गया था। तो, तय हुआ कि अब नौकरी नहीं होगी, आगे पढ़ाई की जाएगी। यह सब तय किसी कमेटी ने नहीं किया। कोई वाद-प्रतिवाद नहीं हुआ, कोई बहस नहीं हुई। बस रात में सोने से पहले बिस्तर पर लेटे तारे निहारते-निहारते अंतरात्मा ने चुपचाप बोला और हमने चुपचाप सुन लिया। अगली सुबह बस इस्तीफे की तैयारी। मैं अपनी तरफ से कुछ कहता-सुनता कि मेरे मैनेजर ने मालिक को पहले ही जड़ दिया कि नया लड़का नौकरी छोड़ने के मूड में है।
         नौकरी छोड़ने की बात पर मालिक ने बस इतना ही कहा कि, ‘‘यार, तुम्हें नौकरी करनी ही नहीं थी तो क्यों आए यहाँ। अब जाकर तो तुम कुछ काम सीख पाए थे, अब किसी और को सिखाऊँ। खैर, तुम्हें आगे पढ़ना है, तो ज़रूर पढ़ो, मैं तुम्हें पढ़ने से नहीं रोकूँगा।’’ उन्होंने मेरा हिसाब-किताब कर पैसे दिए, मैंने उनको धन्यवाद दिया। अभी कुछ साल पहले एक दिन एअरपोर्ट पर वही मालिक मुझे मिल गए। वह तो मुझे क्या पहचानते, पर मैं उन्हें पहचान गया। उन्हें बताया तो वह बहुत खुश हुए।
         लेकिन उस समय मेरे पढ़े-लिखे रिश्तेदारों और आवारा दोस्तों ने यही सलाह दी कि अभी चेत जाओ। बी. ए. में नाम लिखाओ। जो डब्बा ढोने की नौकरी कर रहे हो, तीन सौ रुपये महीने की, उसमें आगे प्रबल संभावनाएं हैं। हमारे घर में प्राय: इस तरह की बातों पर किसी तरह का संवाद नहीं होता था। एक परम्परा सी थी, जिसका निर्वाह मनोयोग से किया जाता। घर से पैसे मत माँगो, जो चाहो सो करो।


10

अब मन में किसी तरह की दुविधा नहीं थी। बी. एससी. ही करनी थी। क्योंकि इंटर के बाद सब यही करते थे। सीपीएमटी, मेडिकल कॉलेज, डॉक्टर के बारे में तो कुछ अता-पता ही नहीं था, तो उसके बारे में क्या सोचना? तब तक पिताजी का एलान भी समय के साथ बह गया था। फीस-वीस के पैसे मिल ही जाने थे। जेब खर्च के लिए ट्यूशन नाम की गाय पालने का विचार हो चुका था। मतलब ज़िंदगी की गाड़ी फिर से पटरी पर दौड़ने वाली थी।
      पर सवाल इस बात का था कि भइये, 39 प्रतिशत वाले प्रखर बुद्धिधारक बालक को कौन कॉलेज दाखिला दे? लखनऊ विश्वविद्यालय से बी. एससी. करने की बहुत धूमिल-सी इच्छा का हमने अपने कर्मों से पहले ही गला घोंट दिया था। शहर के किसी भी कॉलेज की तरफ आँख उठा कर देखना भी गुनाह था। तब कॉलेजों में एडमीशन इंटरमीडिएट के प्राप्तांकों के आधार पर ही होते थे, हो सकता है अब भी ऐसा ही हो। हालांकि प्रवेश परीक्षा होती भी तो मुझे पूरा विश्वास है कि उसमें भी मुझे बैठने का अधिकार नहीं था। भई, अगर आप डिग्री सेक्शन में दाखिला नहीं दे सकते तो फिर इंटरमीडिएट में पास ही क्यों किया? पर मुझ थर्ड डिवीज़नर की भला कौन सुनने वाला।
         कहते हैं, जिसकी कोई नहीं सुनता, उसकी भगवान सुनते हैं। तो मेरी भी ऊपर वाले ने सुन ली। कान्यकुब्ज कॉलेज से पास होकर उसी कॉलेज के डिग्री सेक्शन में जाने पर यहाँ भी मेरे लिए 10 प्रतिशत नंबरों की कृपा मौजूद थी। जा को राखे सईयाँ...
      कॉलेज के एक संतोष बाबू पिताजी के साथ ट्रेन से आते-जाते थे। पहले तो उन्होंने मेरी मार्कशीट देखकर वापस कर दी कि बेटा बी. ए. करो, बी. एससी. में दाखिला नहीं हो पाएगा। फिर वह मुरव्वत के मारे मुझे बॉटनी के हेड डॉ. बाजपेई सर के पास ले गए। वहाँ भी यही सुझाव दिया गया पर मेरे अडिग रहने पर उन्होंने कुछ सोचते हुए अपने स्तर से मुझे रेकमंड कर दिया। भगवत-कृपा ही रही होगी। उस समय बी. एससी. में मेरा दाखिला होना मेरे लिए एवरेस्ट फतेह करने के बराबर था।
      रो-धोकर (एक समय ऐसा भी आया, जब लगा कि एडमीशन नहीं हो पाएगा और मैं बाकायदा आँसू बहा कर रोने लगा था) बी. एससी. में दाखिला तो हो गया पर यहाँ तो एक दूसरी ही समस्या मुँह बाए खड़ी थी। अवधी मिश्रित हिन्दी में सोचने, बोलने वाले बालक को धाराप्रवाह फिरंगी भाषा समझना और लिखना असंभव के निकट था। नोट किया जाए कि गाँव से आने के पश्चात पूरे दो वर्षों तक बालक लखनऊ  के सभी छविगृहों में जाकर हिन्दी फिल्मों पर सघन शोध कर रहा था। बालक शोधकार्य लिखना शुरू करता कि इलाहाबाद बोर्ड ने इंटर परीक्षा का टाइम टेबल घोषित कर दिया था। इस शोध से इतना तो फायदा ज़रूर हुआ कि मैं खड़ी बोली हिन्दी में दो चार-वाक्य बोलने लगा। समझने में तो खैर पहले भी ज्यादा समस्या नहीं थी।
      सुकून की बात यह थी कि क्लास के ज़्यादातर साथी हमारी तरह ही फिरंगी भाषा से सताये हुए थे। तो वहाँ पर ‘ऑड मैन आउट’ वाली बात नहीं थी। मतलब कि आत्मविश्वास पर कोई चोट महसूस नहीं होती थी। मज़े की बात तो यह थी कि ऐसे में भी बहुतों से मैं अपने को बीस धरने लगा। लेकिन खुद को बीस धरने में और बीस होने में सैद्धान्तिक अंतर था।
      हिन्दी-अंग्रेजी का वह संक्रमण काल था। रोज़ सुनते-सुनते फिरंगी भाषा के फिरंगीपने में थोड़ी कमी आने लगी। प्रोफेसर की बातें समझ में आने लगीं, लेकिन इतनी नहीं कि याद हो जाएँ और उन्हें अंग्रेज़ी में अपने आप लिख सकूँ।
      वर्षांत तक तो हिन्दी-अंग्रेजी का तर्ज़ुमा ही चलता रहा। अब जब सालाना परीक्षा की स्कीम नोटिस बोर्ड पर चस्पा हो गई, तो फिर हिन्दी की ही शरण में जाना उचित समझा गया।
      बी. एससी. प्रथम वर्ष में मेरे अंदर काफी धनात्मक परिवर्तन हुए। पहला तो यही कि कॉलेज के नाम से अब डर नहीं लगता। खोया हुआ आत्मविश्वास वापस लौट आया। कई सारे दोस्त बने। दोस्तों की एक छोटी-सी टुकड़ी बनी, जिसमें मैं भी कभी-कभी सरदार की भूमिका निभाने लगा। कुछ दिनों तक छात्र संघ चुनावों में भी नारे लगाए, नेताओं के साथ घूमे। कुल मिलाकर वह सब किया जो एक सामान्य लड़का कॉलेज में करता है। बस, विधिवत पढ़ाई के बारे में ज्यादा दिमाग नहीं लगाया, जो मुख्य काम था। हाँ, क्लासेस ज़रूर अटेण्ड करता था। पन्नों पर नोट्स भी बनाता, फिर उन्हें दुबारा नहीं पढ़ता। कोशिश करता तो भी शायद नहीं पढ़ पाता, अपनी लिखावट आज भी नहीं पढ़ पाता।
         खैर, जैसे-तैसे बी. एससी. की परीक्षाएं शुरू हुईं। अब तक हमने नकल नाम की चिड़िया नहीं देखी थी। यहाँ तो पूरा अजायबघर था। कोई सिटिंग अरेंजमेंट नहीं। एक कमरे में, जो जिसके साथ जहाँ बैठना चाहे, बैठे। नकल की पर्ची बनाने की ज़हमत उठाने की भी ज़रुरत नहीं। एक ही सब्जेक्ट की कई राइटर्स की किताबें लाने की छूट।
      ऐसे माहौल में फेल होने की संभावना तभी बनती थी, जब आप सवालों में प्रयुक्त एक-दो शब्दों को साधकर ईरान-तूरान की कहानी लिख दें या आपकी अंग्रेज़ी इतनी फर्राटेदार हो कि मूल्यांकनकर्ता को उर्दू लगने लगे या फिर आपको ईमानदारी का कीड़ा काट जाए। हमारे मामले में ये तीनों कारण बराबर-बराबर प्रतिशत में मौज़ूद रहे।
सबसे पहले हमें रोज़ ईमानदारी का कीड़ा काटता। लिखना शुरू करते और जितने सवाल समझ आते, उनका उत्तर देवनागरी में लिख देते। इधर-उधर देखने पर पता चलता लोग चार-चार बी कॉपी भरे जा रहे हैं। फिर अपना भी ईमान डोल जाता। बा़की के उत्तर अपनी फर्राटेदार अंग्रेज़ी में जो उर्दू का आभास देती, उसमें लिख मारते। अब फर्राटेदार लिखने के लिए किताबों के फटे हुए पन्ने, जो मित्र तरस खाकर दे देते, उनको वैसे ही छाप दिया जाता। पृष्ठों को क्रमवार लिखने की ज़रुरत भी नहीं समझी जाती।
        परिणाम आशानुरूप ही रहा। परीक्षकों को लगा कि इस प्रखर बुद्धि बालक को इसी प्रथम वर्ष में अभी और समय व्यतीत करना चाहिए, अभी इस अनमोल हीरे को कैसे छोड़ा जा सकता है। मैं तीनों विषयों जूलोजी, बॉटनी और केमिस्ट्री में बा़कायदा अच्छे नंबरों से फेल था। अब तक के सफर में यह मुकाम देखने से किसी तरह बचता आया था, इस बार चारों खाने चित्त था।
      जीवन में पहली बार इस तरह की हार का फल चख रहा था। लेकिन न जाने क्यों यह फल इतना बुरा नहीं लग रहा था। शायद असफलताओं के वार सहने के लिए चमड़ी मोटी हो चली थी। अच्छा यह हुआ कि यह फल फिर कभी खाने को नहीं मिला।
        जब लगा कि भविष्य अब अन्धकार के समुद्र में डूबने वाला है, तब अंदर से एक आवाज़ आती कि, ‘नहीं, अभी नहीं’। तब मुझे कहाँ पता था कि भविष्य का सुनहरा सूरज, बाँहें फैलाए मेरा इंतज़ार कर रहा है। मैं सोच भी नहीं सकता था कि कुछ समय पश्चात, मैं प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज, के. जी. एम. सी. में दाखिला ले रहा होऊंगा।


11

एक पाटी को उठाया
उसे साफ किया, घोट लिया
और बच्चे ने फिर सीधी लकीरें खींची।

जैसी कि आशंका थी, मैं बी. एससी. के पहले ही साल में चारो खाने चित्त हो गया था। लेकिन कोई बहुत दिल को ठेस लगी हो, ऐसा भी नहीं था। मुझे पता था कि मैंने कुछ पढ़ाई की ही नहीं थी, सो पास होना बनता भी नहीं था और फेल होने से बुरा तो खैर क्या होता।
      लेकिन इस एक साल में काफी कुछ अच्छा भी हुआ, जिसने जीवन के युद्धक्षेत्र में बने रहने का हौसला दिया। एक तो यही कि अंग्रेज़ी से झिझक कुछ कम हुई, हालांकि अंग्रेज़ी से प्रगाढ़ दोस्ती तो अभी तक नहीं हो पाई है। अंग्रेजी जब कभी सार्वजनिक रूप से मिलती है तो अभी भी मैं सहज नहीं रह पाता। दूसरा यह हुआ कि पढ़ाने वाले शिक्षकों और साथ पढ़ने वाले कुछ विद्यार्थियों का ज्ञान और विद्याध्ययन के प्रति उनका समर्पण देख कर मन उत्साहित हुआ।
      वैसे तो अब काफी देर हो चुकी थी और मैं बुरी तरह फेल हो चुका था। परन्तु मन में कुछ करने की इच्छा बलवती होने लगी थी। उम्मीदों का बोझ सर से पूरी तरह हट चुका था। अब जो भी करना था, शून्य से शुरुआत होनी थी। क्या करना है, कहाँ जाना है, अभी कुछ नहीं पता। पर थी कोई मंज़िल जो मुझे पुकार रही थी। अब जो भी करना था, बहुत सोच-समझ कर करना था। ज्यादा समय मेरे पास नहीं बचा था। पर दिमाग में किसी तरह का ब्ल्यू प्रिंट नहीं बन पा रहा था।
      पूरे साल कॉलेज नहीं जाना था, एक साल के बाद केवल इम्तेहान देने थे। अब मैं वाकई खुद कुछ पैसे कमाकर पढ़ाई करना चाहता था। किसी तरह का कोई गुस्सा नहीं था, न अपने ऊपर, न ही दूसरों पर। शहर भी मेरे लिए अब अजनबी नहीं रहा था। आत्मविश्वास ने अंतर्मन के अँधेरे में पाँव पसारना शुरू कर दिया था। मैं अब अपने करियर के बारे में सोचना शुरू कर रहा था। बा़की परिवार, पिता मेरी तरफ से निराश हो चुके थे। माँ तो खैर कभी अपने बेटे से निराश नहीं होती। अम्मा को अब भी लगता कि मेरा पढ़ाकू बेटा एक न एक दिन कुछ करेगा। अब मेरे ऊपर कोई स्कैनिंग नहीं थी। कहाँ जा रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ, किसी से कोई मतलब नहीं। बिलकुल छुट्टा सांड।
      फिर से नौकरी की तलाश शुरू हुई। ले-देकर फिर वहीं बाबूजी की शरण में था। बाबूजी ने इस बार ज्यादा सवाल-जवाब नहीं किये। वह भी शायद निराश हो चले थे। उन्होंने एक चिट्ठी दी एक इंजीनियर साहब के नाम। इन्दिरा नगर कॉलोनी उस समय बन रही थी। वहीं पर पी. डब्ल्यू. डी. का एक कैम्प ऑफिस था। पहली बार ऑफिस गया तो छोटे साहब, जिनके नाम चिट्ठी थी, वह थे नहीं। उनके कैम्प क्लर्क ओ. पी. सेठ जी मिले। पान चबाते हुए मुँह उठा कर सेठ जी ने कहा, "साहब के घर शाम को चलेंगे चाहो तो घर पर मिल लो।" मुझे कोई और काम था नहीं, सो सेठ जी के साथ दिन गुज़ारा। शाम को हम दोनों लोग अपनी-अपनी साइकिल से डालीगंज गर्ग साहब के बंगले पर पहुँचे। साहब ने ऊपर से नीचे तक मुझे देखा। पूछा, ‘‘क्या कर रहे हो अभी?’’ ‘‘जी, बी. एससी. कर रहा हूँ।’’ ‘‘हूँ, चलो कल से ऑफिस आ जाओ। सेठ जी, इनको अपने पास ही रख लो, ये शुक्ला जी के भतीजे हैं।’’ फिर मुझसे मुखातिब होते हुए बोले, ‘‘ऐसा करो, शाम को बच्चों को देख लिया करो, घर पर।’’ मैंने ‘हाँ’ में मुंडी हिलाई और वहाँ से चला आया।
      अगले दिन से मैं 'ऑफिस-ऑफिस' खेलने लगा। वहाँ मैं सेठ जी के पास चिपका रहता, उनका असिस्टेंट बनकर। सेठ जी बढ़िया आदमी थे, दिन भर चाय-पानी कराते रहते। पर वहाँ की कूटभाषा मुझे कुछ पल्ले ही नहीं पड़ती। शाम को गर्ग जी के बच्चों को पढ़ाने जाने लगा। पढ़ाता क्या? बस होमवर्क ही करा देता था। उसमें ही मेरे पसीने छूट जाते। दिनचर्या फिर वही नौकरी वाली हो गई, अपने लिए कोई वक्त ही नहीं बचा।
        खैर, यह क्रम कोई महीना भर चला होगा। पैसा, तीन सौ रुपये महीने के आखिर में मिले, एक जगह दस्तखत करने के बाद। शायद किसी मास्टर रोल में मेट के पद पर नाम था। एक दिन गर्ग साहेब के घर गया, तो बच्चे नहीं थे। मैं वहीं पड़ी चारपाई पर बैठ कर उनके घरेलू कर्मचारियों से बातें करने लगा। सब वहीं माटसाब को घेर कर खड़े हो गए। थोड़ी देर बाद मिसेज़ गर्ग बड़बड़ाती हुई पास से निकल गईं। उन्होंने मुझे सीधे तो कुछ नहीं कहा, लेकिन मुझे बुरा बहुत लगा।
      अगले दिन मैं गर्ग साहेब के दफ्तर में घुस गया और बोल दिया, ‘‘सर, मैं एक ही जगह आ पाऊंगा या तो ऑफिस में या घर में। मुझे अपने पढ़ने के लिए मौ़का ही नहीं मिल रहा।’’ गर्ग साहब ने मुझे घूरा, फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘अच्छा तुम फील्ड में जाओ। जेई साहब हैं मिस्टर लाल, उनसे मिल लो।’’
      मझोले कद, बड़ी-बड़ी आँखों और इन्सानियत से भरा दिल रखने वाले लाल साहब उसी वक्त पहाड़ से उतरे थे मैदान में। मतलब भवाली, नैनीताल से लखनऊ। मलीहाबाद की फील्ड थी उनके पास। उन्होंने पहला प्रश्न दागा, ‘‘कितना पढ़े हो?’’ ‘‘जी, बी. एससी. कर रहा हूँ।’’ कुछ सोचते हुए लाल साहब बोले, ‘‘अरे यार, कहाँ तुम फील्ड में जाओगे, सुबह-शाम बच्चों को देख लिया करो।’’ आज पीछे पलट कर देखता हूँ कि भले मैं बी. एससी. में तीनों विषयों में फेल था, पर वह मेरे लिए किसी मेडल के बराबर थी। मुझे थोड़ा पढ़ा-लिखा लड़का समझ लिया जाता। और ट्यूशन पढ़ाने का आसान काम मिल जाता।
      यहाँ भी मास्टर रोल में मेट बना दिया गया। तनख़्वाह निकलने लगी तीन सौ रुपये महीना। लेकिन यहाँ बहुत सुकून था। सुबह-शाम एक-डेढ़ घंटे बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। करीब दो घंटे आने-जाने में खर्च होते। बा़की का समय खाली। खाली समय का उपयोग अब कोर्स की किताबों पर खर्च होने लगा। फिल्मों की आभासी दुनिया का पागलपन अब कम होने लगा था और वास्तविक दुनिया में कदम बढ़ रहे थे।
      लाल साहब के तीन छोटे-छोटे बच्चे थे। सब प्राइमरी सेक्शन में, जिन्हें पढ़ाना आसान था। छोटी वाली बेटी तो बहुत छोटी थी, उसे गोद में लेकर ही पढ़ाना होता। कभी-कभी मुझसे खूब लड़ती-झगड़ती भी। बाकी दोनों बच्चे थोड़ा समझदार थे और मास्साब से डरते थे। वह छोटी सी बच्ची अब बड़ी हो गई है, अभी अमेरिका में है और अपनी छोटी-सी बच्ची को लेकर कभी-कभी मेरी क्लीनिक पर आती है।
     बच्चों को पढ़ाने का मतलब मैंने बस डांट-डपट और मारपीट ही सीखा था। उसका भरपूर उपयोग उन नन्हें बच्चों पर मैं भी खूब करता था। कभी-कभी अपना फ्रस्ट्रेशन भी बच्चों पर ही उतारता। अब समाज ने मुझे जो दिया था, वह सूद समेत वापस कर रहा था। अब सोचता हूँ तो खुद अपने आप पर बहुत शर्म आती है। इतने छोटे बच्चों को पढ़ाई के नाम पर कोई कैसे मार सकता है? जब मारपीट ज्यादा हो जाती, तो भाभीजी बस इतना कहतीं, ‘‘मास्साब, सिर के पीछे मत मारा कीजिए, दिमाग पर चोट लग सकती है।’’ आजकल मास्साब लोग इस तरह करें तो अगले दिन से बाहर  हो जाएँ।
      हालांकि, उस समय मैं बच्चों को नहीं, बच्चे मुझे पढ़ा रहे थे। हिन्दी-अंग्रेज़ी भाषा और गणित की बेसिक जानकारियाँ तक मुझे नहीं पता थीं। यूँ समझिए कि मैं खुद सिटी मोंटेसरी स्कूल में इंगलिश मीडियम से कई कक्षाओं में पढ़ रहा था।
      ज़िंदगी कुछ आसान हो चली थी। लाल साहब का उस दौर में बहुत सहारा रहा। अगर वह मुझे पी. डब्ल्यू. डी. की नौकरी की तरफ मोड़ देते तो शायद जीवन कुछ और ही होता। श्रीमती लाल एक बहुत ही भली और उदार महिला थीं। बड़ा मातृत्व भाव था उनमें। अब वह इस दुनिया में नहीं हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति दे। मास्साब को कभी केवल चाय से नहीं टरका दिया गया। हमेशा चाय के साथ कुछ खाने के लिए ज़रूर होता। मास्साब तो खाने के लिए हमेशा भूखे ही रहते।
       साल पूरा हुआ और वार्षिक परीक्षाओं में मैं पचास प्रतिशत से ऊपर नंबरों से तीनो विषयों में पास हो गया। अब बी. एससी. द्वितीय वर्ष की कक्षाएं आरम्भ हो गईं। हमारी तरह गाँव-़कस्बे की पृष्ठभूमि वाले कई लड़के खूब अच्छे दोस्त बन गए। अमरनाथ मिश्रा, प्रमेन्द्र मिश्रा, सिराजुद्दीन अहमद (सिराज भाई), रामेन्द्र श्रीवास्तव (लाला)। हम पाँच लोगों की दोस्ती गहरी हो गई। आज तक वैसी ही है। सभी निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के, सभी का हाथ अंग्रेज़ी में तंग।
      हमारी मित्र मंडली में एक दीक्षित नाम का लड़का भी हुआ करता था, उसका मूल नाम भूल रहा हूँ। एक दिन केमिस्ट्री की लैब में कोई सल्यूशन दीक्षित से कॉपी पर गिर गया था। तभी वहाँ विभागाध्यक्ष प्रकट हो गए। देखते ही दीक्षित के मुँह से निकला,‘‘सर, ढरक गवा रहै।’’ फिर तो सर ने जो उसकी क्लास लगाई कि वह आँसुओं से रो दिया। जाहिल, गंवार, बेवकूफ आदि अनेकानेक उपाधियों से नवाज़ा गया उसे। अब पूरा क्लास दीक्षित को ‘ढरक गवा’ के नाम से बुलाने लग गया। कुछ दिनों बाद उसने कॉलेज आना ही बंद कर दिया।
      एक थे दयाशंकर पांडे। पांडे जी जब देखो, तब हमारी मंडली में घुस कर चाय पी जाएँ और पैसे कभी न दें। इस बात को महीनों गुज़र गए। एक दिन हम लोगों ने चाय वाले से कह कर पांडे जी को फँसा दिया। हम चाय पीने के लिए जैसे खड़े हुए, पांडे जी आ गए। फिर हमने वहाँ जो भी दिखाई दिया, सबको बुला लिया चाय के लिए। पांडे जी को सबसे बाद में गरम कुल्हड़ में चाय परोसी गई। जब तक उनकी चाय ठंडी होती, तब तक हम सब चाय पीकर निकल चुके थे। आखिरी बन्दे ने चिल्लाकर कहा, ‘‘आज के पैसे दयाशंकर पांडे देंगे।’’ पांडे जी जब तक कुछ समझते-समझते हम सब नौ दो ग्यारह हो चुके थे। काफी देर तक जब पांडे दिखाई नहीं पड़े तो पता चला कि पांडे जी चाय की दूकान पर खड़े रो रहे हैं। उनकी जेब में एक भी पैसा नहीं था। शायद उसी दिन नहीं रहा होगा या फिर रोज़ ही नहीं रहता होगा। पांडे जी का चेहरा शर्म से लाल। मुझे बाद में इसका पछतावा हुआ। हम लोगों ने पैसे चुकता किये और पांडे जी को छुड़ा लाये। पर उसके बाद फिर कभी कहने पर भी दयाशंकर पांडे हम लोगों के साथ चाय पीने नहीं गये।


12

हो चुकी देर बहुत
सि़र्फ अंधेरा छाए
और क्या आएगा,
अब आए, सबेरा आए
बी. एससी. करते हुए पहली बार जाना कि डॉ. बनने के लिए एक प्रतियोगी परीक्षा होती है ‘सीपीएमटी।’ डॉ. कहीं आसमान से नहीं टपकते, हमारे आस-पास के लोग ही डॉ. बनते हैं। केकेसी का डिग्री सेक्शन पीएमटी के शिक्षकों का गढ़ हुआ करता था। डॉ. पाण्डेय, डॉ. शुक्ला, डॉ. चक्रवर्ती, डॉ. नकवी, डॉ. लाल अपने ज़माने के स्टार टीचर हुआ करते। क्लास में पढ़ाते समय ज़ूलोजी के लाल साहेब अक्सर कहते कि कम्पटीशन के लिए पढ़ रहे होते तो तुम्हें बताते कि इसमें किस तरह के सवाल पूछे जाते हैं। शायद कोचिंग में पढ़ने के लिए उकसावा ही होता था।
      हमारे क्लोज़ ग्रुप में भी सीपीएमटी के चर्चे शुरू हुए। दरअसल बायो वालों के लिए हमारे ज़माने में ले- देकर बस एक ही प्रतियोगी परीक्षा बचती थी, पीएमटी। उसकी तैयारी के लिए कोचिंग ही एकमात्र रास्ता था। कॉलेज की पढ़ाई के बलबूते तो कुछ होना-जाना नहीं था। सबने अपनी-अपनी परिस्थितियों का आकलन किया और फिर मैं और सिराज भाई ने फैसला लिया कि अब समय आ गया है कि हजारों-लाखों के झुण्ड के साथ हमें भी 'पीएमटी-पीएमटी' खेलना चाहिए। सिराज के एक बड़े भाई उन दिनों कतर या ज़ेद्दाह में थे। उसे पैसे की कोई समस्या नहीं थी। दरअसल पैसे के मामले में सबसे मज़बूत फिलहाल वही हुआ करता और गाहे-बगाहे खर्चा भी वहन करता। पर मेरे पास तो पैसे का इंतेज़ाम करना एक समस्या थी। हालांकि लाल साहब के यहाँ ट्यूशन के चलते रोज़मर्रा के लिए घर से पैसे नहीं लेने पड़ते थे। पर इतने मितव्ययी नहीं थे कि उसमें से कुछ बचा लेते।
      पिताजी से इस मामले में राय-मशविरा हुआ, और कोई चारा भी नहीं था। कोचिंग की फीस लगभग दो हजार रुपये पूरे साल की होती थी, जिसे जुटाना मेरे अकेले के वश का था नहीं। पिताजी की राय बिलकुल स्पष्ट थी। उन्होंने कहा, ‘‘यार तुम थ्रो आउट थर्ड डिवीज़न। यहाँ फर्स्ट क्लास वाले सालों से घिस कर मैदान छोड़ चुके हैं। तुम क्या डॉ. बनोगे? पैसा फूँकना हो तो फूँक डालो।’’ बाल हठ के आगे माँ-बाप को झुकना ही पड़ता है। पिताजी से हरी झंडी मिलने के बाद फिर कोचिंग खोजने की शुरुआत हुई।
       बनारसी बाग के पास एक कोचिंग हुआ करती ‘आई. आर. कोचिंग।’ जिसके कर्ता-धर्ता शायद इच्छा राम चतुर्वेदी जी थे। पूरे प्रदेश में इस कोचिंग का बड़ा नाम था। ज्यादातर मेडिकल कॉलेजों में यहीं के बच्चे प्रवेश पाते थे। वह पहले से छाँट कर अच्छे बच्चे ही लेते। टीचर भी बहुत योग्य थे। वहाँ पढ़ने के लिए पहली शर्त यही थी कि बारहवीं बोर्ड में अव्वल दर्ज़ा। अव्वल तो मेरे पास अव्वल नहीं था, दूसरे फीस भी सबसे ज्यादा थी। सो, उधर की ओर अपुन का जाना ही नहीं हो सका। साइकिल ने उस और मुड़ने से इनकार कर दिया।
      दूसरे नंबर पर हज़रतगंज में एक कोचिंग संस्थान था ‘स्टैण्डर्ड कोचिंग’, कालान्तर में वह विभाजित होकर ‘न्यू स्टैण्डर्ड’ और ‘ओल्ड स्टैण्डर्ड’ बना। हमारे ज़माने में वह अविभाजित था। बाजपेई कचौरी वाली सड़क पर कोचिंग खोजते हुए हम और सिराज भाई पहुँचे। वहाँ पर बताया गया कि अगले दिन हाईस्कूल, इंटर की अंकतालिकाएं ले कर आइये, तब प्रवेश प्रक्रिया पर बात होगी। मेरा दिल धड़क उठा। भूख लगी थी तो बाजपेई के यहाँ खड़े होकर कचौरियाँ खाईं, ठंडा पानी पिया और अगले दिन के लिए मानसिक रूप से तैयार होने लगे।
         खैर, अगली सुबह हम दोनों लोग पहली मंज़िल पर बने एक छोटे ऑफिस में एक मोटे आदमी के सामने खड़े थे। पहला नंबर मेरा ही था। उस आदमी ने मेरी अंकतालिकाएं बहुत ध्यान से देखीं, फिर मुझे ऊपर से नीचे की ओर देखा। मेरी साँसें अटकी हुई थीं। लगे कि कोचिंग में एडमीशन मिल जाए तो बस समझो मेडिकल कॉलेज में मिल ही जाएगा। पर ऐसा हुआ नहीं। उस मोटे आदमी ने मेरे सामने मेरी लैमिनेटेड अंकतालिकाएं पटकते हुए मुझे बाहर निकलने का इशारा किया। मैंने सोचा, किसी कमरे की तरफ इशारा कर रहा है, प्रवेश प्रक्रिया पूरा करने के लिए। मैंने पूछा, ‘‘कहाँ जाना है?’’ उसने कहा, ‘‘बाहर निकलो, तुम्हारा प्रवेश यहाँ सभव नहीं।’’
      वह बाकी और लोगों से बात करने में मशगूल हो गया। मैंने निराश भाव से सिराज भाई की तरफ देखा। उसने कहा, ‘‘चलो एक बार और रिक्वेस्ट करते हैं।’’ मैंने मिमियाती आवाज़ में उस मोटे आदमी से कहा, ‘‘सर, देख लीजिये प्लीज़। हम पूरी मेहनत से पढाई करेंगे। पूरी फीस एडवांस में देंगे।’’ उसने बिना मुंडी उठाए सख्त लहज़े में कहा, ‘‘जाते हो कि धक्का देकर निकालूँ।’’
      अब कहने-सुनने को कुछ बाकी नहीं रह गया था। जीवन में पहली बार इतना अपमानित महसूस कर रहा था। आत्मसम्मान को बहुत ज़ोर से ठोकर लगी थी। आत्मविश्वास को टूट कर बिखर जाना चाहिए था। लेकिन इसका मेरे ऊपर उलटा प्रभाव पड़ा। जैसे-जैसे मैं सीढ़ियों से नीचे उतर रहा था, वैसे-वैसे मन में यह प्रतिज्ञा दोहरा रहा था कि अब कुछ भी हो जाए, सलेक्शन लेकर ही मानूंगा। नीचे आते-आते सिराज ने कहा, ‘‘भाई, जब कोचिंग में एडमीशन नहीं हो पा रहा है तो मेडिकल कॉलेज में क्या हो पाएगा?’’ लेकिन मैं तब तक अपने दिल में ठान चुका था कि मुझे सलेक्शन लेना ही है, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े। और बस यही वह क्षण था, जिसने मेरी ज़िंदगी बदल डाली।
      चोट दिल पर लगी थी पर विचलित दिमाग हो गया था। इस बात पर कोई चिंतन-मनन नहीं था कि पीएमटी की तैयारी करनी है कि नहीं। लेकिन कैसे? यह समझ नहीं आ रहा था।
      एक कोचिंग से ठोकर खाकर लौटने के बाद दुबारा किसी कोचिंग में घुसने के लिए हिम्मत चाहिए थी, जो एक झटके से साइकिल के पंक्चर ट्यूब की तरह फुस्स हो गई थी। कील तो निकाल फेंका था, पर अभी पंक्चर रिपेयर कर उसमें हवा भरनी शेष थी।
       बहुत तरह के ख्याल दिमाग में आ रहे थे। किताब उठाई जाए और घोटा लगाया जाए या फिर किसी कोचिंग पढ़ने वाले लड़के से कोचिंग नोट्स लेकर फोटोस्टेट करा लिया जाए। पर मामला कुछ जमता न था।
        तभी पता चला कि गुलाब सिनेमा के पीछे एक बिलकुल नई कोचिंग पुराने मास्टरों को लेकर गठित हुई है। उन्हें भी सपने देखने वालों का बेसब्री से इंतेज़ार था। अगले दिन हम लोगों की साइकिल दौड़ पड़ी क्रिश्चियन कॉलेज के सामने गुलाब सिनेमा के ठीक पीछे ‘सुपीरिअर कोचिंग।’ वहाँ सचमुच में प्रवेश धड़ाधड़ चालू थे। पैसा जमा कीजिए, नाम लिखाइये, अगले दिन से क्लास ज्वाइन कीजिए। अंधे को क्या चाहिए, दो आँखें। फीस भी बहुत कम, केवल पंद्रह सौ रुपये। शिक्षकों और पढ़ाई के बारे में हम दोनों ने कोई पूछ-ताछ बिलकुल भी नहीं की, न ही हमसे हमारी अंकतालिकाओं के बारे में किसी ने कुछ पूछा। अगले दिन पाँच सौ रुपये अग्रिम देकर रज़िस्टर में नाम लिखाया, समझिए किला फतेह कर लिया। विश्वास ही नहीं हो रहा था कि जिसके लिए हफ्तों से इतना परेशान थे, उसका हल चुटकियों में निकल आया।
         पढ़ाई शुरू हुई। जीवन में शायद पहली बार ढंग से पढ़ाई कर रहा था। पढ़ने की भूख ऐसी कि सब कुछ चट कर जाने को उतारू। मैं रातो-दिन पढ़ने लगा। ट्यूशन पढ़ाने एक बार जाता, सुबह में, शाम को खुद पढ़ने, कोचिंग। शाम वाला बैच जान-बूझकर लिया गया कि सुबह के बैच में कन्याएं अधिक होती हैं, ध्यान भंग होने का खतरा रहेगा। हालांकि यह मेरा वहम ही था। चिमिरखी-सा दाढ़ी बढ़ाए बैक बेंचर लड़के से लड़की क्या, लड़कों को दोस्ती करने से पहले कई बार सोचना पड़ता। पढ़ाई चौबीसों घंटे होती। सोते हुए सपनों में पढ़ता, जागते हुए नोट्स से। खाना बनाते समय, खाना खाते समय हाथ में कॉपी होती। साइकिल पर हाथ में एक पन्ना होता, मैंने साइकिल चलाते हुए पढ़ने की कला भी विकसित कर ली थी और उसमें महारत हासिल थी। बाद के एमबीबीएस के दिनों में भी यह कला जीवित रही।
      जितने भी मेरे साथ पढ़ने वाले थे, वह सब मुझसे मीलों आगे थे। मैं एक गहरे गड्ढे में था। वस्तुत: मुझे किसी सब्ज़ेक्ट में कुछ भी नहीं आता था। स्लेट खाली थी। झोली में ज्ञान शून्य था। बाकी प्रतियोगी छात्रों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने के लिए पहले मुझे गड्ढे से निकलना था, फिर तेज़ दौड़ लगानी थी।
      लेकिन जब आपको लगता है कि अब सभी समस्याओं का हल मिल गया है तो जीवन में नई समस्याएं अवतरित हो जाती हैं। समस्याओं से पीछा भला कब छूटता है। यहाँ भी एक विकराल समस्या मुँह बाए खड़ी थी। जिस फिजिक्स से मेरा पीछा राम-राम करके दो साल पहले छूट चुका था, वह फिर से मेरी छाती पर सवार थी और उसके हाथ मेरी गर्दन नाप रहे थे।
      मैंने कई बार मन से कोशिश की, लेकिन मेरे दिमाग का वह हिस्सा जहाँ नंबरों से खेला जाता है, जीवन भर सोया ही रहा। आज भी मुझे अपनी गाड़ियों का नंबर तक याद नहीं रहता। मैं जितना ज्यादा न्यूमेरिकल हल करने की कोशिश करता, उतनी ही घबराहट बढ़ने लगती। इस चक्कर में बाकी विषयों के लिए भी समय कम पड़ने लगा। फिजिक्स की किताब देखते ही मेरे हाथ-पाँव फूलने लगते। मुझे लगने लगा, यह फिजिक्स मुझे कुँए से ही नहीं निकलने देगा।
      समस्या इतनी विकराल थी कि मेरे सारे उत्साह और जोश पर भारी पड़ रही थी। मुझे लगने लगा कि यार अब कुछ नहीं हो सकता। मेरी हिम्मत जवाब देने लगी।
      कहते हैं कि जब कहीं समस्या होती है तो आस-पास ही उसका हल भी होता है। समस्या होती ही है हल करने के लिए। मुझे परेशान देखकर भगवान ने एन वक्त पर मेरे लिए एक देवदूत भेज दिया। शायद ईश्वर ने खुदा को चाय पर मेरी परेशानी बताई हो और फिर खुदा ने इस नेक बन्दे को काम पर लगा दिया। खुदा के बन्दे का नाम था ‘नकवी सर।’
      नकवी सर, पहले हमें बी. एससी. में पढ़ा चुके थे। उससे पहले एयरफोर्स में स्क्वाड्रन लीडर थे। जूलोजी में पी-एच. डी. थे। बहुत ग़ज़ब का पढ़ाते थे, लेकिन बहुत कड़क आदमी थे। केकेसी में एनसीसी के इंचार्ज थे। मैं उनके अंडर एनसीसी में रह चुका था। बाद के दिनों में मैं उनका चहेता स्टूडेंट बन गया था। नकवी सर इतनी सिगरेट पीते थे कि उनके पसीने से तंबाकू महकती थी। अभी कुछ दिन पहले तक शिया डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल थे। अभी भी बिलकुल फौजी की तरह फिट हैं। खुदा उन्हे लंबी उम्र दे।
      एक दिन ज़ूलोजी पढ़ाने वाले नकवी सर ने आते ही पहला सवाल दागा। आप लोगों में से किस-किस को फिज़िक्स से डर लगता है? मैंने अपने दोनों हाथ खड़े कर दिए। एक-एक हाथ तो लगभग पूरी क्लास ने ही खड़े किये थे। फिर उन्होंने वह गणित पढ़ाई, जिसने मुझे गड्ढे से निकलने में बहुत मदद की। यह कहने में ज्यादा अतिशयोक्ति नहीं होगी कि उस दिन के एक लेक्चर ने सलेक्शन के लिए मेरी राह के कांटे हटा दिये। अब मुझे बस सरपट दौड़ पड़ना था।
      उन्होंने कहा बहुत सिम्पल-सी बात है। देखिए, चार विषय हैं - ज़ूलोजी, बॉटनी, फिज़िक्स और केमिस्ट्री। सबके तीन-तीन सौ नंबर, कुल बारह सौ। आपको एमबीबीएस सलेक्शन के लिए चाहिए साढ़े सात सौ। पिछले दस वर्षों में मेरिट 750 से ऊपर नहीं गयी है। आप फिज़िक्स में लाइए जीरो, बा़की सबमें ढाई-ढाई सौ, और यह हो सकता है। लो, हो गया सलेक्शन।
      मैं बिलकुल आश्चर्यचकित था। मुझे मुँहमाँगी मुराद मिल गई थी। अब भला कौन है, जो मेरा सलेक्शन रोके। पर ऊपर वाले की झोली में अभी समस्याओं के ढेरों सांप थे, जो आगे मेरे गले में लटकने वाले थे।


13

नकवी सर के फार्मूले से मेरे दिल पर रखा हुआ एक बड़ा पत्थर हट गया था। अब मैं खुल कर सांस ले सकता था। एक बहुत बड़ी समस्या बस पलक झपकते हल हो गयी थी।
      फिजिक्स की किताबें और नोट्स मैंने एक तरफ रख दिए। उनकी तरफ देखना भी बंद कर दिया। गलती से उन पर निगाह भी पड़ जाती, तो अब दिल की धड़कनें नहीं बढ़तीं। फिजिक्स की क्लास में ज़रूर बैठता पर दिमाग में कुछ और ही चल रहा होता। वैसे भी फिज़िक्स के टीचर, तिवारी जी इतने सीधे आदमी थे और इतने मरियल ढंग से पढ़ाते थे कि आप आराम से क्लास में खर्राटा मारकर सो सकते थे।
      करीब एक महीना गुज़रा होगा और पहला ही क्लास टेस्ट मेरे सबसे प्रिय विषय ज़ूलोजी का आ गया। तकरीबन पाँच सौ बच्चे रहे होंगे पूरे सेक्शंस को मिलाकर। मेरी रैंक थी चौथी। बहुत सालों के बाद पहली बार कुछ जीतने जैसा एहसास हो रहा था। नकवी सर ने मुझे घूर कर देखा। उनकी आँखों में मेरे लिए प्रशंसा और वात्सल्य के भाव थे। बाकी सारे बच्चे पहले से ही पढ़ाकू थे, ज़्यादातर रिपीटर और उनका मेरिट में आना तय था। मैं बिलकुल नया था।
      अब गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी। जितना भी कोचिंग में पढ़ाया जाता, मैं कंठस्थ कर लेता। उसके अलावा किसी और रिसोर्स मैटीरियल को नहीं खोजा। कोई किताब, कोई कुंजी नहीं। हाँ, क्वेश्चन बैंक से बहुविकल्पीय प्रश्न ज़रूर हल करता।
      फिर एक दिन वही हुआ, जिसका मुझे डर था। एक नई समस्या। ऐलान हुआ कि अपने-अपने प्रमाणपत्र और अंकतालिकाएं लेकर ऑफिस में विधिवत प्रवेश प्रक्रिया पूर्ण कराई जाए। पहले तो मैं बचता रहा, पर बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाती। मैं हलाल होने के लिए अपने काग़ज़ समेटे एक छोटे-से ऑफिस में पहुँच गया। ऑफिस में केवल केमिस्ट्री वाले दयाल सर बैठे हुए थे। दयाल सर सीडीआरआई में साइंटिस्ट थे और हमें इनोर्गनिक केमिस्ट्री पढ़ाते थे। थोड़ी राहत की सांस आई, चलो, सरेआम बेइज़्ज़ती से बच गये।
      मैंने अपनी वही तिरस्कृत लैमिनेटेड अंकतालिकाएं दयाल सर के समक्ष प्रेषित की और खड़े होकर बमवर्षक विमानों का इंतज़ार करने लगा। दयाल सर कुछ देर चुपचाप मेरी अंकतालिकाएं उलट-पुलट कर देखते रहे, फिर आहिस्ता से उन्होंने अपना चश्मा मेज़ पर रखा। मुझे सामने बैठने का इशारा करते हुए ठंडे स्वर में बोले -
- ‘‘तुम्हारे बाप के पास ज्यादा पैसा है?’’
- ‘‘नहीं सर, पैसा ही तो नहीं है।’’ मैंने घिघियाते हुए कहा।
- ‘‘यहाँ सैर-सपाटा, मस्ती करने आये हो?’’
- ‘‘नहीं सर, पढ़ने आया हूँ।’’ मैंने फिर मिमियाने की कोशिश की।
- ‘‘देखो बेटा!’’ दयाल सर, संत जैसे भाव चेहरे पर ओढ़ कर प्रवचन देने के मूड में आ गए थे, ‘‘यह नई कोचिंग है, हमसे गलती हो गई, जो हमने पहले तुमसे नहीं पूछा। तुम्हारा इतना समय बर्बाद हुआ। वैसे तो जमा हुए पैसे वापस नहीं होते हैं पर मैं अपने अकाउंट से तुम्हारे सारे पैसे वापस करा दूँगा। चुपचाप घर जाओ। तुम्हारे बस का नहीं है। इसमें कुछ और पैसे मिलाकर कोई छोटी-मोटी दूकान खोल लो।’’
- ‘‘सर, मैं पढ़ाई कर रहा हूँ।’’ अब तक मेरी भी आवाज़ वापस आ चुकी थी।
- ‘‘अच्छा! कितने नम्बर आये तुम्हारे, इस बार के टैस्ट में?’’ दयाल सर ने माथे पर सलवटें बनाते हुए भौंहे चढ़ाकर पूछा।
- ‘‘सर, फोर्थ रैंक।’’
- ‘‘कितनी?’’
- ‘‘सर, चार, चार।’’
- ‘‘हूँ।’’ अब दयाल सर के ललाट से सलवटें गायब हो रही थीं।
- ‘‘मतलब अब तक तुमने खूब हरामखोरी की है।’’
- ‘‘जी, ऐसा ही कुछ समझ लीजिए।’’
- ‘‘देखो बेटा, वैसे तो तुम्हारी मार्कशीट्स देखकर तुम्हें कोई चपरासी की नौकरी भी नहीं देगा, लेकिन तुम चाहो तो डॉ. बन सकते हो।’’
- ‘‘सर मैं बनूँगा, मुझे कोई रोक नहीं सकता।’’
- ‘‘ठीक है, फिर जाओ, खूब मेहनत से पढ़ाई करो।’’
      दयाल सर अब मुस्कुरा रहे थे। मैंने झुक कर उनके पाँव छुए, उन्होंने सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया। मैं अपने आपको अन्दर से और मज़बूत महसूस कर रहा था। लेकिन आगे का रास्ता उतना सीधा भी नहीं था, जितना मैंने सोच लिया था।
      इसी बीच एक घटना और घटित हुई। करीब चार-पाँच महीने पहले एक डी. फार्मा (डिप्लोमा फार्मेसी) में एडमीशन के लिए लिखित परीक्षा को मैं ऐसे ही दे आया था। उत्तर प्रदेश फार्मेसी काउंसिल के द्वारा संचालित यह परीक्षा मेडिकल कॉलेजों में डिप्लोमा फार्मेसी कोर्सेस के लिए थी। उस समय तक किसी प्राइवेट कॉलेज या पॉलीटेक्निक में यह कोर्स नहीं होता था। पूरे उत्तर प्रदेश में शायद पाँच सौ सीटें थीं।
      यह वह दौर था, जब इस तरह की परीक्षाओं में धांधली ने अपने पैर अच्छी तरह से पसार लिए थे। इससे पहले भी लैब टेक्नीशियन, डेंटल हाइजेनिस्ट, आईटीआई, बैंक क्लर्क आदि की अनगिन परीक्षाएं मैं दे चुका था, जिनके नतीज़े हमको पहले ही पता रहते। यह इम्तेहान भी मैं देकर भूल चुका था।
      अचानक एक दिन फार्मेसी कौंसिल से एक रज़िस्टर्ड लिफाफा मेरे कमरे के पते पर आ पहुँचा। मैं लिखित परीक्षा में चयनित हो गया था, कुछ दिन बाद साक्षात्कार की तारी़ख थी। मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। यह वही परीक्षा थी, जिसका सेंटर क्रिश्चियन कॉलेज में पड़ा था और जिसमें हमको उत्तर पर पेन्सिल से टिक लगाने थे। यह प्रबंध देखते ही मुझे सब माज़रा समझ आ गया था और मैं तीन घंटे का पेपर आधे घंटे में देकर बाहर आ गया था। उसका एक प्रश्न तो मुझे अभी तक याद है। प्रश्न था कि इस वर्ष मिस इंडिया यूनिवर्स का खिताब किसे दिया गया है? मुझे मिस इंडिया के बारे में तो खैर क्या ही जानकारी रहती, पर ‘प्रियदर्शिनी प्रधान’ थोड़ा-सा ठीक नाम लगा और मैंने उसे टिक कर दिया था, जो कि सही उत्तर भी था। इसी तरह और भी प्रश्न हल किये होंगे। मुझे बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी, लेकिन बुलावा पत्र को झुठलाता भी तो कैसे?
      मन में थोड़ी प्रसन्नता तो हुई ही। पिताजी से भी प्रशंसा पाने के लिए मन मचल उठा। मैं उस समय एक भूरे रंग की जींस पहने हुए था, जिसमें पीछे दोनों तरफ छोटी-छोटी जेबें थीं। पत्र को लि़फा़फे सहित पीछे की जेब में रखा और साइकिल से जीपीओ (पिताजी के ऑफिस) भाग चला। साइकिल खड़ी की और पीछे जेब में हाथ डाला। वहाँ किसी काग़ज़ का कोई नामोनिशान तक नहीं था। जल्दी-जल्दी सारी जेबें टटोल डालीं पर वहाँ कुछ हो तो मिले। भूरे रंग का पतला लिफाफा रास्ते में कहीं उछल कर बिला गया था।
      अब पिताजी से प्रशंसा की जगह गालियाँ सुनने का मौका था। हिम्मत नहीं पड़ी। मन ही मन निश्चय यही हुआ कि पत्र की बात सिरे से गोल कर दी जाए और इसे भूल जाया जाए। साक्षात्कार में होना-हवाना है नहीं, यह बात मुझे पहले से पता थी। तो बेकार में क्यों गालियाँ खाई जाएँ। साइकिल वापस डेरे पर आ गई और मैं फिर अपनी पढ़ाई में मस्त हो गया।
      लेकिन इंटरव्यू की तारी़ख दिमाग में कहीं फँसी रह गई थी। जैसे-जैसे साक्षात्कार का दिन करीब आता जा रहा था, मन में कुछ बेचैनी-सी बढ़ने लगी। जीवन में पहली बार तो किसी साक्षात्कार के लिए बुलावा आया था। मेरे लिए यह भी एक बड़ी उपलब्धि थी। सो, आखिरी रात यही तय हुआ कि वहाँ चलने में कोई हर्ज़ नहीं है। होना तो वैसे भी कुछ नहीं है, जिसका होना है उसका हो चुका होगा। लेकिन चले जाने और अनुभव लेने में क्या हर्ज़ है। बस समस्या एक ही थी कि मेरी अंक-तालिकाओं को लेकर मुझे फिर से गालियाँ सुनने को मिलेंगी। दरअसल जो भी मेरे यह तमगे देख भर लेता था, वह कोई और बात ही नहीं करता। बस उन्हीं में उलझ कर रह जाता। इस साक्षात्कार में भी मुझे बस गालियाँ और प्रवचन ही सुनने थे।
      जी को कड़ा किया और सबेरे जल्दी ही फार्मेसी काउन्सिल पहुँच गया। पत्र खो जाने की बात बताई तो उन्होंने कहा, कोई बात नहीं, आपका फलां नंबर पर साक्षात्कार है। मैं हाथ में फाइल समेटे प्रतीक्षा कर रहा था और अपने को गालियाँ खाने के लिए मन ही मन तैयार कर रहा था।
      खूब भीड़ थी, मेरा नंबर भी आ गया। यहाँ पर किस्मत आपा ने मेरी उंगली पकड़ रखी थी। दो कमरे थे, पहले कमरे में काग़ज़ात चेक करने के लिए लोग बैठे थे। अगले कमरे में साक्षात्कार के लिए चार लोग थे। मैंने अपनी वही शापित लैमिनेटेड अंक तालिकाएं पहले कमरे में फेंकी और बिना उनकी तरफ देखे, बिना समय गंवाये अगले कमरे में दाखिल हो गया। दिल से पहला बोझ तो उतार गया कि चलो, अंक तालिकाओं पर बात नहीं अटक जाएगी।
      यहाँ पर किस्मत आपा के साथ-साथ दूसरा हाथ खुद नकवी सर ने आकर थाम लिया। पहला सवाल पूछा गया, 'मलेरिया किससे होता है?' बस यही तो पढ़कर मैं आ रहा था। इसी में तो मेरी चौथी रैंक आई थी कोचिंग में। मैंने बताना शुरू किया, मेरी ज़बान से खुद नकवी सर बोल रहे थे। मलेरिया का रोग मच्छर के काटने से होता है। मादा एनाफिलीज़ के काटने से। उसकी लार ग्रंथि में एक परजीवी पाया जाता है प्लाजमोडियम। दरअसल मलेरिया बीमारी उन्हीं परजीवी प्लाजमोडियम के द्वारा होती है। मच्छर तो महज उसके वाहक हैं। प्लाजमोडियम की चार प्रजातियाँ हैं, मैंने आँखें बंद कर गिनानी शुरू कीं। पी. वाइवैक्स, पी. फैल्सीपेरम, पी. मलेरी और पी. ओवेल (वैसे तो प्लाज़मोडियम की बीसों प्रजातियाँ अब तक ज्ञात हैं, पर उस समय मुझे नकवी सर ने केवल चार बताई थीं तो मेरे लिए बस चार ही थीं। साक्षात्कार लेने वालों को शायद चार भी नहीं पता थीं) मैंने सर उठाकर सामने देखा तो चारों लोग एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे। सबके मुँह से एक साथ निकला, ‘‘वाह! वेरी गुड।’’ आगे के सवाल बहुत साधारण थे और किस्मत आपा बराबर पूरे साक्षात्कार मेरे बगल में बैठी रहीं। मज़े की बात देखिए, फिजिक्स का प्रश्न भी मुझे आता था। पानी का बॉयलिंग और फ्रीजिंग पॉइंट।
       मैं उछलते हुए कमरे के बाहर आया। बगल वाले कमरे से फाइल उठाई और क्लर्क के घूरने का बिलकुल ध्यान नहीं दिया। मुझे अपने सलेक्शन से कोई ज़्यादा मतलब उस समय नहीं था। मतलब तो बस इस बात से था कि साक्षात्कार ले रहे चारो लोगों ने मुझे ‘वेरी गुड’ कहा। मेरे लिए यह बहुत बड़ी बात थी।
      दो-चार दिन में रिज़ल्ट आ गया। जो लोग सफल हुए थे, उनमें मेरा नाम भी था। रैंक थी - अड़तालीस।
      फार्मेसी में डिप्लोमा कोर्स उन दिनों केवल सरकारी मेडिकल कॉलेजों में ही होता था। डेढ़ साल के कोर्स के बाद नौकरी आपके हाथ में। क्लास थ्री की सरकारी नौकरी, सरकारी अस्पताल में फार्मासिस्ट। उस समय तक वहाँ पर कोई प्रतीक्षा सूची नहीं थी। पता चला पिछले साल पास हुए सारे बच्चों की नौकरियाँ लग चुकी हैं। केजीएमसी, लखनऊ में फार्मेसी का कोई कोर्स नहीं था उन दिनों। इसलिए सबसे नजदीक जीएसवीएम मेडिकल कॉलेज, कानपुर मुझे आवंटित किया गया।
      सरकारी नौकरी का आकर्षण तब तो कई गुना अधिक था, जितना आज है। ग्लोबलाइज़ेशन का सुनहरा दौर अभी भारत में आना बाकी था। भ्रष्टाचार चरम पर था और बेरोज़गारी भी। बिना घूस के कोई सरकारी नौकरी नहीं थी। प्राइवेट में वही बनिया की खूनचूसू नौकरियाँ। ऐसे में मेरे लिए यह लॉटरी लगने जैसा ही था। आपने उस समय का भारत अगर नहीं देखा है, तो इस लॉटरी को समझना ज़रा मुश्किल है।
      गाँव-घर में डॉ. के नाम से तो जाने ही जाते। गाँव के सरकारी अस्पताल में काम करने वाला वार्ड बॉय भी डॉ. ही होता है और बड़े मज़े से छोटे-मोटे ऑपरेशन निपटाता रहता है। फार्मासिस्ट को तो खैर अधिकार ही होता है दवा-इंजेक्शन का।
      अभी कुछ समय पहले मैं विधि विज्ञान प्रयोगशाला, लखनऊ  से प्रयोगशाला परिचर की पोस्ट के लिए धक्के खाकर लौट आया था। आप अंदाज़ा लगाइए, जिस आदमी को चपरासी की नौकरी नहीं नसीब हो, उसे क्लास थ्री की सरकारी नौकरी हाथ लग जाए तो उसे कैसा लग रहा होगा। मैं भी कुछ समय के लिए हवा में था। नौकरी पाने की तो ज्यादा खुशी नहीं थी पर किसी प्रतियोगी परीक्षा में सम्मानजनक रैंक से चयनित होने के आनंद में डूब-उतरा रहा था। घर-परिवार के लोग सातवें आसमान पर थे। फार्मासिस्ट के सरकारी पद को वह खूब अच्छी तरह समझते थे। अलबत्ता उन्हें मेडिकल कॉलेज में एडमीशन के बाद अभी पाँच-छह साल की और पढ़ाई कुछ समझ नहीं आती थी।
      घर के लोगों की बधाइयाँ मिल रही थीं। पिताजी का व्यवहार भी मेरे प्रति कुछ और सहृदय हो गया था। माँ तो खैर खुश थी ही।
      पहले तो कुछ दिनों तक मारे शान के लोगों के सामने यही दोहराता कि मैं सोच रहा हूँ कि इसे ज्वाइन ही न करूँ। लोग फिर देर तक समझाते, ‘‘अरे! सरकारी नौकरी कैसे छोड़ सकते हो तुम?’’ फिर मैं कंधे उचका कर कहता, ‘‘देखते हैं।’’
      कुछ समय बाद जब लगने लगा कि वा़कई मैं फार्मासिस्ट बनने जा रहा हूँ, तो मन पर एक अजीब-सी बेचैनी सवार हो गई। डॉ. बनने का ख़्वाब मुझे धुंधला होता हुआ दिखाई पड़ने लगा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह मेरे लिए वरदान है या अभिशाप। धीरे-धीरे मैं अपने आपको यह समझाने लगा कि अभी मेरी मंज़िल नहीं आयी है, अभी यह एक पड़ाव भर है, बस। मगर दिल इतना मज़बूत नहीं था कि भूखा बैठा रहूँ और सामने से दाल-भात की थाली सरका दूँ कि मैं तो बस मलाई ही खाऊँगा जी। जब आपके संकल्प में कमी आ जाती है तो आपके विश्वास में सेंध लग जाती है। मुझे अपने संकल्प पर भरोसा रखना चाहिए था, पर मैं अंदर से हिल गया था।
      कानपुर में दाखिले का समय नज़दीक आता जा रहा था और मेरी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। पहले कुछ दबे स्वरों में, फिर मुखर होकर मैंने घर में इस पर संवाद करने की कोशिश की, पर वहाँ तो कोई मेरी बात ही सुनने को तैयार नहीं हुआ। दोस्तों से रात-रात भर चर्चाएँ हुईं पर कोई ठोस नतीज़ा नहीं निकल रहा था। आखिर में सब यही कहते, 'यार अब तुम देख लो'। इसी क्रम में ऩकवी सर से भी मिला। उन्होंने ध्यानपूर्वक मेरी पूरी दास्ताँ सुनी, फिर निर्णय सुना दिया, ‘‘यार, तुम डी. फार्मा ज्वाइन कर लो, पीएमटी का कुछ भरोसा नहीं है। मैं तो सालों से देख रहा हूँ, बहुत सारे अच्छे बच्चे सालों-साल धक्के खाकर लौट गए। वैसे तुममें संभावनाएं बहुत हैं, पर अभी जो हाथ में है उसे छोड़ना उचित नहीं।’’
      अब जब गुरु द्रोणाचार्य का ही विश्वास डगमगाने लगा तो मुझे भी चिड़िया की आँख धुंधली दिखाई देने लगी। निर्णय हो चुका था और मैंने दुखी मन से कोचिंग जाना बंद कर दिया।
      बात आई जमा की हुई फीस की। पंद्रह सौ कुल फीस में से बॉटनी वाले अब्बास सर के पैर छू-छू कर तीन सौ रुपये और कम करवा लिए थे। अब्बास सर वाकई बहुत सरल और सहृदय व्यक्ति थे। अपने विषय के तो महान ज्ञाता थे ही। पूरी बॉटनी का भारी-भरकम कोर्स बेचारे अकेले सारे बैचेज को पढ़ाते। आँखों में कीचड़ और सर पर हेलमेट लगाए अब्बास सर आते ही सिगरेट फूँकते और चाक लेकर पढ़ाना शुरू कर देते। गरीब छात्रों की मदद के लिए वह हमेशा आगे रहते। उन्हीं की दया से मेरे भी तीन सौ रुपये कम हो गए थे और कुल बारह सौ रुपये मैंने जमा किये हुए थे। काफी दौड़-भाग और अब्बास सर के सहयोग से उसमें से पाँच सौ रुपये मुझे वापस भी मिल गए, जिसकी बिलकुल भी उम्मीद नहीं थी।
      मैं कोचिंग बदर हो गया था और मेरा सपना टूट चुका था। आँखों में आँसू लिए मैं साइकिल पर वापस घर की ओर जा रहा था। किसी डॉ. का बोर्ड देखकर पल भर के लिए ठिठका। वहाँ मुझे केवल उसकी डिग्री दिखाई पड़ रही थी ‘एमबीबीएस’। मेरे आंसू गालों पर बह चले थे। मैं धीरे-धीरे बुदबुदा रहा था, चलो, भगवान की जैसी इच्छा। मैं डॉ. नहीं बन पाया तो क्या, पर अपने बच्चे को डॉ. ज़रूर बनाऊंगा।
      मैं बुदबुदाता जा रहा था और भगवान मुझे देखकर मुस्करा रहे थे।


14

जब कानपुर के गणेश शंकर विद्यार्थी मेमोरियल (जीएसवीएम) मेडिकल कॉलेज में डी. फार्मा कोर्स में प्रवेश लिया तो कोचिंग के साथ लालकुआं वाला कमरा भी छूट गया और लाल साब के यहाँ का ट्यूशन भी, लेकिन लखनऊ  की आदत इतनी पड़ गई थी कि लखनऊ नहीं छूट सका। उसी समय कानपुर रोड, लखनऊ  में एक नई एलडीए कॉलोनी विकसित हो रही थी, जिसमें एक कमरे वाले एलआईजी मकान के लिए पिताजी ने पहले आवेदन किया था, जो अब एलाट हो गया था, जिसका गृह प्रवेश मैंने और बुआ जी ने मिलकर कर डाला। मैं नहा-धोकर पंडित बन गया, बुआजी यजमान। आम की लकडियाँ इकट्ठा कर उसमें हवन सामग्री और घी डालकर दो-चार बार ‘ओम-ओम’ कर लिया गया। मैंने कुकर में छोले उबाल दिए, बुआ जी ने साथ लाई कढ़ाई में पूरियाँ तल दीं, हो गया गृह प्रवेश। जैसा गृह, वैसा प्रवेश।
      नए घर में शहर की कम, गाँव की फीलिंग ज्यादा थी। कच्ची सड़कें, आधी-अधूरी सीवर लाइन के चलते दिशा-मैदान बाहर ही जाना होता। आसपास गाँव, खेत लेकिन लालकुआं के उस अँधेरे कुएं से लाख बेहतर था। चारबाग स्टेशन से लगभग दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह एक कमरे का मकान अब गाँव से और नज़दीक आ गया था। मेरा स्थाई पता अब यही था।
      कानपुर मेडिकल कॉलेज में बाकायदा मेडिकल हुआ, रैगिंग हुई, मूँछें सफाचट हुईं और पढ़ाई-लिखाई शुरू हो गई। कुल एक सौ बीस लोगों का बैच था। वहीं कैम्पस में ही हॉस्टल, पर लखनऊ  के मोह ने हॉस्टल में नहीं रहने दिया। गोमती एक्सप्रेस सुबह पाँच बजे (शायद) लखनऊ से चलती और शाम को पाँच बजे कानपुर से लखनऊ को। एमएसटी बनवा लिया और डेली अप-डाउन करने लगा। शुरुआत के दिनों में उन्नाव से आना-जाना था। उन्नाव में मेरे ममेरे भाई रहते थे।
      हमारा बी. एससी. का पूरा गुच्छा आलमबाग के इलाके में दो कमरों में रह रहा था। उसमें से अमरनाथ और सिराज भाई तो कोचिंग में ही थे। लाला की बी. एससी. कम्प्लीट हो चुकी थी और वह ‘प्रतियोगिता दर्पण’ पढ़ता हुआ 'कम्पटीशन- कम्पटीशन' खेलने में जुट गया था। हमारे ग्रुप का सबसे बुद्धिमान बालक प्रमेन्द्र मिश्रा बी. एससी. द्वितीय वर्ष में था और पीएमटी के खेल में न फँसकर पीसीएस/आईएएस के मकड़जाल में खुद को फँसाने के लिए इलाहाबाद की तैयारी में था।
      कानपुर से लौटते समय मेरा पहला ठीहा यहीं होता। वहाँ कोचिंग के नोट्स देखकर दिल में अजीब-सा दर्द उठता। लेकिन अब किया ही क्या जा सकता था, भाग्य ने मंज़िल तय कर दी थी। पढ़ने की आदत लग गई थी, सो फार्मेसी की पतली-पतली किताबें पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं थी, पर सच पूछा जाए तो ये किताबें पढ़ने में मन बिलकुल नहीं लगता।
      मेडिकल कॉलेज के जिस एलटी-1 में मेरी कक्षाएं लगतीं, उसी में एमबीबीएस वाले बच्चे भी पढ़ते। मेरी तरह ही डे स्कॉलर था मेरा दोस्त कमलाकांत राय। हम और कमलाकांत वहीं मैदान में एक छोटी-सी पुलिया पर बैठ कर अक्सर बतियाते। वह भी बी. एससी. कर के डिप्लोमा के लिए आया था। पढ़ने में ठीक-ठाक था। वह मुझे रोज़ अपनी साइकिल से रेलवे स्टेशन तक छोड़ता। उसके भाई शायद गन फैक्ट्री में काम करते थे और वहीं उसका डेरा था। घर के लिए 'डेरा' शब्द मैंने पहली बार उसी के मुँह से सुना। कुल मिलाकर वही एक मेरा वहाँ पर घनिष्ट मित्र था।
      पुलिया पर बैठे-बैठे हम दोनों अक्सर एमबीबीएस वाले बच्चों को देखते रहते। हमें उनके चेहरे चमकदार और अपने बुझे हुए दिखाई देते। उन्हें देख कर मुझे अपनी लघुता का आभास होता। दरअसल मेरे अन्दर हीनता की ग्रंथि पैर पसारने लगी थी।
      मैं अक्सर कमलाकांत से कहता, ‘‘यार ये सब डॉ. बन जाएंगे और हम-तुम फार्मासिस्ट ही रह जाएंगे। जबकि हम भी मेहनत कर सकते थे और हमें भी यह सौभाग्य मिल सकता था।’’ कमलाकांत झट से बोल पड़ता, ‘‘यानी फार्मासिस्ट होना बुरा काम है?’’ ‘‘नहीं, मैंने ऐसा कब कहा?’’ मैं ठंडी सांस खींच कर जवाब देता। कमलाकांत कहता, ‘‘ठीक है यार, ये कम्प्लीट हो जाए तो हम भी तैयारी करेंगे।’’ मैं कहता, ‘‘तुम्हें भी पता है यार, ऐसा नहीं होने वाला। पढ़ाई पूरी करते ही छह महीने की इंटर्नशिप, फिर नौकरी। नौकरी लगते ही घरवाले शादी कराने के लिए उतारू हो जाएंगे। फिर हो चुकी तैयारी। कुछ करना है, तो अभी करना है। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं।’’
      दो-तीन महीने बाद शुरू हुई, यह बहस फिर अक्सर होने लगी। धीरे-धीरे समय गुज़रता रहा और छह महीने गुज़र गए। पहला सेमेस्टर एक्ज़ाम हुआ, जो मैंने आसानी से और अच्छे नंबरों से पास कर लिया।
      फिर एक दिन पुलिया पर बहस छिड़ी। कमलाकांत ने आखिर जान बचाने के लिए कहा, ‘‘यार छोड़ तो दूँ पर मेरे घर वाले बिलकुल नहीं मानेंगे।’’ मैंने कहा, ‘‘मानेंगे तो मेरे घर वाले भी नहीं पर मैं तो वही करूँगा, जो फाइनली मेरा मन कहेगा।’’ कहने को तो कह रहा था पर फाइनली मैं अपने मन को ही मनवा पाऊंगा, इस पर भी मुझे शक था।
      अब यह कशमकश चौबीसों घंटे मेरे दिमाग में चलने लगी। इसी उधेड़बुन में एक दिन मैं अपने पुराने केकेसी कॉलेज पहुँच गया। दोपहर के ग्यारह बज रहे होंगे और जूलोजी विभाग के गलियारे में गोपाल कृष्ण चक्रवर्ती सर खड़े हुए सिगरेट फूँक रहे थे। चक्रवर्ती सर मुझे कोचिंग में वर्टीब्रेट जूलोजी पढ़ाते थे। मैंने झुक कर उनके पैर छुए और हाथ बाँध कर खड़ा हो गया।
      मुझे देखते ही वह बोले, ‘‘अरे! तुम यहाँ कैसे? तुम तो पढ़ने में बहुत अच्छे थे, फिर कोचिंग क्यों छोड़ दी?’’ मैंने सारा किस्सा संक्षेप में उन्हें बताया। ‘‘तो, अब क्या परेशानी है?’’ चक्रवर्ती सर ने मुँह उठाकर धुँआ ऊपर फूँकते हुए पूछा। ‘‘सर, मेरा मन वहाँ नहीं लग रहा है’’, मेरी आवाज़ में दु:ख और निराशा के गहरे भाव थे। थोड़ी देर तक चक्रवर्ती सर मुझे घूरते रहे, फिर उन्होंने जलती हुई सिगरेट फेंककर जूते से मसली और बोले, ‘‘बाबूजी, (बाबूजी उनका तकिया कलाम था, हर दूसरा वाक्य वह बाबूजी से ही शुरू करते) तुम छोड़ो ये फार्मेसी-वार्मेसी। मैं लिख कर दे सकता हूँ कि तुम्हारा सलेक्शन हो जाएगा, कोई रोक नहीं सकता।’’
      एक झटके से मेरी आँखों के आगे का जाला साफ हो चुका था। एक नए द्रोणाचार्य एक नयी परीक्षा के लिए ललकार उठे थे और अब मुझे सामने सि़र्फ और सि़र्फ चिड़िया की आँख नज़र आ रही थी।
      चक्रवर्ती सर ने ललकार तो दिया था और हमने चुनौती स्वीकार भी कर ली, पर बाबूजी! समुद्र तो पार करने से ही पार होना था। डूबने की पूरी-पूरी संभावना थी, लेकिन ऐसी किसी संभावना पर मैंने किसी तरह का कोई विचार करना उचित नहीं समझा। लौटते समय गर्दन की नसें तनी हुई थीं और पुराना जोश फिर से दिल में तू़फान मचा रहा था। पिछले कई हफ्तों से मैं रातों में ठीक से सो नहीं पा रहा था। अब जैसे दिमाग में सब कुछ व्यवस्थित हो गया था। अगली रात खूब जी भर कर सोया।
      फार्मेसी के रोज़गारपरक कोर्स को छोड़कर पीएमटी के बियाबान में खुद को झोंक देना एक पागलपन ही था। मेरे जीवन का यह एक अकेला ऐसा निर्णय था, जिसे स्वीकार करने में मुझे छह महीनों का समय लगा। अन्यथा तुरंत निर्णय लेने और फिर बाद में भुगतने के लिए शापित हूँ। भीषण मानसिक घमासान के बाद निर्णय हो चुका था, या तो अब डॉ. ही बनूँगा, नहीं तो कुछ भी नहीं।
      जाहिर है कि एक और घमासान अभी घर पर मेरा इंतज़ार कर रहा था। पर यह कोई बड़ी लड़ाई नहीं थी। जैसा कि अंदेशा था, पिताजी और बाकी घरवालों ने (अम्मा को छोड़कर) खूब दबाव बनाया। उनको लग रहा था कि लड़का अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। रिश्तेदार, सगे-संबंधी बुलाये गए। फिर सबने बारी-बारी और समवेत स्वरों में तुलसी बाबा को याद किया,‘‘जाको प्रभु दारुण दुख देही, ताकी मति पहिले हर लेही।’’ अम्मा ने भी दूध का गिलास हाथ में देते हुए बाबा को ही गुनगुनाया, ‘‘राम कीन चाहें सोई होई, करै अन्यथा अस नहिं कोई।’’
      हमको इस बारे में किसी तरह का कोई पुनर्विचार नहीं करना था, सो नहीं किया। विचार यह करना था कि अब फिर से कैसे शुरू किया जाए? पहले वाली ट्रेन तो छूट चुकी थी।


15

1988 का अप्रैल महीना था, जब फाइनली इस बात पर मुहर लगी कि फिर से पीएमटी के लिए तैयारी करनी है। इम्तहान के कुल ढाई महीने बचे थे। हमारे छोड़े हुए बैच के बच्चों का पूरा कोर्स लगभग खत्म हो चला था। इस साल तो अब कुछ होने से रहा। चक्रवर्ती सर ने ही सुझाया कि नया क्रैश बैच बस शुरू ही होने वाला है, चाहो तो कल से आ जाओ, किसी तरह की कोई फीस तुमसे नहीं ली जायेगी। मेरा बस चलता तो मैं उसी दिन पहुँच जाता।
      अगले ढाई महीने मेरे जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिन थे। दो महीनों में दो साल का पूरा कोर्स खत्म करना था, सो कोचिंग ही लगभग पूरे दिन चलती। करीब बारह-पंद्रह किलोमीटर दूर घर था कोचिंग से। साइकिल से आना-जाना और खाना भी खुद ही बनाना। फिर चौबीस घंटे के बाद तारीख को तो बदल ही जाना था और उन ढाई महीने में एक-एक दिन कम होने लगा।
      फिजिक्स को तो मैंने छोड़ ही रखा था पर बा़की विषयों में भी अपना हाल जीरो बटा सन्नाटा ही था। समय बहुत कम था, इसलिए मैंने किसी टेक्स्ट बुक को नहीं खोला। केवल कोचिंग नोट्स पढ़े और जितना हो सका, पिछले वर्षों के प्रश्नपत्रों को हल किया।
      जितना कोचिंग में पढ़ाया जाता, मैं उतना आत्मसात करने की कोशिश करता। अलग से पढ़ने का कोई वक्त नहीं था। एक बार नकवी सर कोई नया चैप्टर शुरू करने जा रहे थे। उन्होंने कोई साधारण-सा सवाल पूछा और कहा कि जिस-जिस को इसका उत्तर मालूम है, वे लोग अपने हाथ ऊपर करें। लगभग सारी क्लास ने हाथ ऊपर किये हुए थे, पर मैं चुपचाप बैठा रहा। मुझे उत्तर वा़कई नहीं मालूम था। नकवी सर ने दो बार मुझसे पूछा, ‘‘क्या वा़कई तुम्हें नहीं पता?’’ मैं क्या कहता, बस सर हिलाकर रह गया। वह बेचारे हताश से हो गए।
     क्लास खत्म होने के बाद मैं उनसे मिलने पहुँचा। वह बिलकुल समझ नहीं पा रहे थे कि यह कैसे हो सकता है। इतनी साधारण सी बात मुझे कैसे नहीं मालूम। और फिर मैं टेस्ट में टॉप कैसे करता हूँ? मैंने उन्हें बताया, ‘‘सर, मेरी स्लेट बिलकुल कोरी है। आप जो लिखवा देंगे, वह मुझे कंठस्थ हो जाएगा, बस। आप जितने चैप्टर पढ़ा चुके हैं, उसमें से कुछ भी पूछिए, मैं जवाब दूँगा।’’ उन्होंने धड़ाधड़ कई सवाल दाग दिए और समुचित उत्तर पाकर प्रसन्न भी हुए।
      लेकिन कुछ अप्रत्याशित नहीं होना था, सो नहीं हुआ। इम्तहान हुए, कुछ दिनों बाद रिज़ल्ट आया और सफल प्रत्याशियों की लिस्ट में मेरा नाम दूर-दूर तक कहीं नहीं था। नंबर इस प्रकार थे, जूलोजी- 266/ 300, बॉटनी- 217/ 300,   केमिस्ट्री- 132/ 300, फिजिक्स- 41/ 300, कुल 656/ 1200.
      एमबीबीएस में इस वर्ष का आखिरी सलेक्शन हुआ शायद 740 के आस-पास।
     1988 में वैसे तो तकनीकी रूप से मैं पीएमटी में सफल नहीं हुआ था, पर खुद को मैं असफल भी नहीं मान रहा था। दो-ढाई महीने की पढ़ाई में, जब आप शून्य से शुरू कर रहे हों, ये नंबर बहुत-बहुत अच्छे ही कहे जाने चाहिए। मैं अपने प्रदर्शन से निहायत संतुष्ट था। घर वालों को अब मेरे फटे में टांग अड़ाने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई। उन्हें बस यही दिखाई पड़ता कि मैं लगातार पढ़ रहा हूँ। अब पढ़ाई में आपादमस्तक डूबे बच्चे को भला कोई क्या कहता?
      सीपीएमटी के अलावा वैसे तो और प्रतियोगी परीक्षाएं थीं। AIIMS, JIPMER, BHU, आल इंडिया सीबीएसई, पर यह सब मेरे लिए नहीं थीं। मैं इस योग्य नहीं था कि इन इम्तहानों में बैठ ही सकूँ। इन सबके लिए कम से कम इंटरमीडिएट में पचास प्रतिशत नंबरों की आवश्यकता थी (AIIMS के लिए तो साठ प्रतिशत) और मेरे थे 39 प्रतिशत।
      ले-देकर मेरे पास अपनी यूपी का सीपीएमटी ही था, जिसमें मैं अपना भाग्य आजमा रहा था। रिज़ल्ट निकलने के तुरंत बाद ही कोचिंग में कक्षाएं पूरी गति से चालू हो गईं। इस बार मैं शून्य पर नहीं था, अब मेरी बेसिक तैयारी पूरी थी। मानसिक रूप से भी मैं बाकियों से उन्नीस नहीं था। फार्मूला वही था, ढाई सौ, ढाई सौ, ढाई सौ और फिजिक्स में भागते भूत की लंगोटी भी मंजूर।
      जूलोजी में तो मैं खुद को मास्टर ही मानने लगा था। बॉटनी में किसी को अपने से ऊपर नहीं आने देना चाहता था। केमिस्ट्री में भी ऊपर के दस लोगों से लगातार टक्कर लेने लगा था। फिजिकल केमिस्ट्री की संख्याएं मुझे थोड़ा असहज कर देती थीं, बाकी कोई समस्या नहीं थी। फिजिकल केमिस्ट्री भी जब से धोती-कुरता वाले मिश्रा जी पढ़ाने लगे थे, तब से डर कम होता गया। बहुत बढ़िया पढ़ाते थे। आर्गेनिक केमिस्ट्री मेरी बिलकुल लोहालाट थी। इनोर्गानिक भी लगभग रट डाली थी। फिजिक्स में लुटिया डूबी ही रही। फिजिक्स से मैं इतना घबराता था कि उसकी पुस्तक मैं सामने नहीं पड़ने देता। कोई भलामानस अगर मुझे यह समझाने में कामयाब रहता कि छोड़ो न्यूमेरिकल और केवल थ्योरी पढ़ डालो, तो शायद मुझे काफी नंबर मिल सकते थे। लेकिन जब मैं उसमें जीरो लाने के लिए ही उतारू था, तो बाकी कौन मुझे क्या समझाता?
      एक बार प्रागैतिहासिक काल के किसी एरा से कोई प्रश्न अटक गया। उसका उत्तर जो किताब में था, वही नकवी सर ने भी सही कहा। मेरा मत भिन्न था। मैंने तर्क किया कि सर आपने तो यह नहीं, यह पढ़ाया था। नकवी सर अपनी बात काटे जाने पर भयानक रूप से गुस्सा होते थे, यह सब लोग जानते थे। सारी क्लास के साथ नकवी सर भी मुझे घूरने लगे। मुझे लगा बस बम फटने ही वाला है। पर मुस्कुराते हुए ऩकवी सर बोले, ‘‘देखो भई, अगर तुमको याद है कि मैंने क्या पढ़ाया था, तो तुम्हारा उत्तर ही सही होगा। अभी मुझे याद नहीं है, पर जब मैंने नोट्स लिखवाये होंगे, तब पढ़ा होगा और सही लिखवाया होगा। मुझे तुम्हारी याद्दाश्त पर पूरा भरोसा है।’’ नकवी सर कहते, ‘‘तुम तो मेरे एक्सपेरिमेंटल एनीमल हो, तुम मुझसे क्लास में कुछ मत पूछा करो।’’
      एक किस्सा अब्बास सर का भी याद आ रहा है। अब्बास सर ने एक टैस्ट का एलान करते हुए घोषणा की कि जो भी बच्चा 300 में से 280 लाकर दिखाएगा, उसे क्लार्क्स अवध में लंच देंगे। हम सभी जुट गए। प्रश्नों को कठिनतम करने के चक्कर में अब्बास सर ने कुछ ऐसा घुमाया कि दो प्रश्न ही गलत हो गए। क्लास में नंबर बताये जाने लगे। मेरे मार्क्स सबसे ज्यादा थे 276, उन दोनों प्रश्नों के उत्तर गलत मान लिए गए थे। मैंने अपने तर्क प्रस्तुत किये कि सर ये दो प्रश्न ही गलत बनाए गए हैं, इनका कोई समुचित उत्तर नहीं हो सकता। यह सुनना भर था कि अब्बास सर भड़क गए। हालांकि मुझे अब्बास सर से यह उम्मीद बिलकुल नहीं थी। उनका चेहरा लाल हो गया और पंद्रह मिनट तक मैं सर झुकाए गालियाँ सुनता रहा। अब्बास सर पैर पटकते हुए बाहर चले गए। मुझे समझ न आए कि अब क्या किया जाए। खैर, हिम्मत बटोरकर मैं उनसे मिलने गया। वह आराम से बैठे सिगरेट फूँक रहे थे। मुझे देखते ही मुस्कुराए, उनका गुस्सा काफूर हो चुका था। मैं सीधा पैरों पर झुक गया। अब्बास सर ने प्यार से कहा, ‘‘यार तुमको कोई परेशानी प्रश्नों को लेकर थी, तो तुम मुझसे अकेले में कह सकते थे, भरी क्लास में तुम तो मेरी बेइज्जती करने पर उतारू थे।’’ मैंने मा़फी माँगी पर वह तो पहले ही माफ कर चुके थे।
      घर हमारा कोचिंग से बहुत दूर था। रास्ते में दोस्तों के कमरे पड़ते थे। सिराज भाई का भी सलेक्शन नहीं हो पाया था, लिहाज़ा वह भी साथ ही थे। प्रमोद जोशी, राजकुमार कोली, अनूप गर्ग, बघेल, राजपूत, पंकज भी उसी ग्रुप में शामिल थे। हमारी और प्रमोद जोशी की दोस्ती कुछ ज्यादा थी। सभी साइकिल से कोचिंग आते। मेरे पास साइकिल पर टंगे हुए झोले में मेरे नोट्स होते और मैं साइकिल लिए हर दोस्तों के घर घूमा करता। थोड़ी देर यहाँ पढ़ा, कुछ देर वहाँ। सिराज और लाला एक कमरे में रहते, एक कमरे में अमरनाथ और प्रमेन्द्र। अक्सर मेरा डेरा इन्हीं कमरों पर होता। खाने के समय पहुँच जाता, मिलकर खाना बनाते और वहीं सो जाते। अपने कमरे पर दो-चार दिन में एक बार ही जाते। पढ़ाई के समय मुझे सोने की बड़ी बुरी आदत थी। थोड़ी ही देर में दिमाग गरम हो जाता और मैं यह कहकर चादर तान लेता, ‘‘किस-किस को देखिये, किस-किस को रोइए, आराम बड़ी चीज़ है, मुँह ढँक के सोइए।’’ थोड़ी ही देर में बैटरी चार्ज़ हो जाती और फिर से शुरू।
       ऊपर वाले की कृपा से इस पूरे साल कोई नया संकट नहीं आया। शायद अब मंजिल तक पहुँचने का रास्ता साफ हो गया था। इस दौरान एक क्षण के लिए भी कभी यह लगा ही नहीं कि असफलता भी मिल सकती है।
      इम्तिहन के दिन तक मैं बिलकुल आश्वस्त था कि अगर कोचिंग में एक बच्चे का भी सलेक्शन होगा, तो मेरा ज़रूर होगा। तब हर पेपर तीन-तीन घंटे का होता था, सुबह-शाम। दो दिनों में चार पेपर और आखिरी दिन हिन्दी का पेपर, जिसे बस क्वाली़फाई करना होता।
      पहला पेपर जूलोजी का था। पेपर देखते ही मेरा दिल धड़क उठा। इतना आसान पेपर था कि मेरे आँखों में आँसू आ गए। लगा कि पूरी मेहनत बेकार गई, इसे तो कोई बिना पढ़े भी कर लेगा। अब मेरिट ख़ूब ऊपर जाने वाली है। परंतु कर भी क्या सकता था? आधे घंटे में पूरा पेपर हो गया, तीन बार रिवाइज़ भी कर लिया। फिर बा़की पर्चे हुए। फिजिक्स छोड़कर मुझे सब आसान लगे। फिजिक्स में केमिस्ट्री का कुछ भाग पूछा जाता था, जिसे कर लिया, बा़की तो करना ही नहीं था। डर था फिजिक्स में नंबर कहीं माइनस में न आ जाएँ।
      अब रिज़ल्ट का इंतज़ार था।


16

इम्तिहान हो चुके थे, बस रिज़ल्ट का इंतज़ार था। इस दौरान हम सब अपनी-अपनी याद्दाश्त के हिसाब से प्रश्न लिखते और उनका सही-गलत उत्तर खोजते। सीपीएमटी में प्रश्न पत्र साथ नहीं ले जा सकते थे। लगभग सभी प्रश्न हम लोगों ने याद कर के लिख लिए, मेरे उत्तर ज़्यादातर सही थे। पर असली नंबर जब तक नहीं आ जाते, तब तक तो दिल में धुकुर-पुकुर मची ही थी।
      समय काटे नहीं कटता था। हज़रतगंज के जनपथ में खंभों के ऊपर रिज़ल्ट चस्पा होता। वहीं पाँचवे तल पर सचिवालय था। कभी खबर उड़ती कि लग गया रिज़ल्ट। हम सब साइकिलें लेकर भाग कर पहुँचते। वहाँ कुछ भी नहीं। देर रात तक वहीं बैठे रहते। सचिवालय से कोई कर्मचारी काग़ज़ लिए उतरता, तो उसकी ओर लपक जाते। एक बार पता चला रिज़ल्ट प्रेस पहुँच गया है, हम लोग रात भर दैनिक जागरण कार्यालय के चक्कर काटते रहे। सूचना झूठी निकली।
      एक-एक दिन काटना दूभर हो रहा था। उसी समय मेरा सबसे बड़ा भतीजा पैदा हुआ था। गाँव में उसकी बारहवीं का कार्यक्रम था। मैं एक दिन पहले ही पहुँच चुका था और फंक्शन चल रहा था। पास के रेलवे स्टेशन किसी को लेने बड़े भैया गए हुए थे। मेरे अलावा मेरे रिज़ल्ट की किसी को कोई परवाह नहीं थी। किसी को कुछ उम्मीद भी नहीं रही होगी। घर-गाँव के लोग पीएमटी की कोई अहमियत भी नहीं समझते होंगे।
        भैया ने लौट कर बताया कि शायद पेपर में सीपीएमटी का रिज़ल्ट निकला है। मैं अवाक् उनका चेहरा देखने लगा। ‘‘पेपर नहीं लाये?’’ मेरे मुँह से निकला। जाहिर है, वह नहीं लाये थे। मैंने उनके हाथ से मोटरसाइकिल की चाभी छीनी और दौड़ पड़ा हरौनी रेलवे स्टेशन।
      पेपर हाथ में लेकर थोड़ी देर खड़ा रह गया। जिसके लिए मैं रातों-दिन जागा, पागलों की तरह मेहनत की, उसका परिणाम आज सामने था। अगर आज मैं सलेक्ट नहीं हो पाया, तो कभी भी नहीं हो पाऊँगा। इससे ज्यादा मैं मेहनत कर नहीं सकता था। मैंने नंबर खोजना शुरू किया। मेरा रोल नंबर था। मैं सलेक्ट हो गया था। उस बार रिज़ल्ट सीरियल नंबर से निकला था, मेरिट के हिसाब से नहीं। मुझे नहीं पता था कि मुझे कौन सा मेडिकल कॉलेज मिलेगा, पर इसकी चिंता भी नहीं थी।
        होटल वाले से मैंने पेपर माँगा, घर ले जाने के लिए। उसने इनकार कर दिया। मैंने कहा, तुम जो पैसे बताओ, मैं दे दूँगा, बस तुम एक पेज़ रिज़ल्ट वाला मुझे फाड़कर दे दो। उसने पाँच रुपये लिए और मैंने वह अखबार का आधा पन्ना फाड़ लिया। मोटरसाइकिल पर मैं बैठा ज़रूर था, लेकिन मैं उड़ आकाश में रहा था। सितम्बर का महीना था और ठंडी हवा के झोंके आँखों, गालों को सहला रहे थे और मेरे आंसू ढुलक कर गालों पर बहने लगे। उस क्षण की अनुभूति का वर्णन मेरे लिए असंभव है।
       मन में बस यही बज रहा था, मैं जीत गया... मैं जीत गया। 
      मन तो कर रहा था कि अजनबी लोगों को, गाय-भैंसों को, पेड़-पौधों को रुक कर अपनी जीत की बात बताऊँ  पर अपने आपको किसी तरह रोक रहा था। गाँव में घुसते ही पहला शख़्स जो मिला, वह थे परधान बाबा। मैंने मोटरसाइकल खड़ी की, पैर छुए, उनको परिणाम बताया। ध्यान से सुनने के बाद उन्होंने कहा, ‘‘मेरी समझ में कुछ नहीं आया। तुम ये बताओ, इसके बाद तुम क्या बन जाओगे?’’ मैंने चिल्लाकर कहा, ‘‘डॉक्टर’’ और हवा में उड़ चला।
      घर वालों को तो खुश होना ही था, पर उन्हें भी इसकी अहमियत ज्यादा पता नहीं थी। मुझे तो खूब पता थी, क्योंकि मेरे लिए तो यह जीवन-मरण का प्रश्न हो चला था।
      थोड़ा संयत हुआ तो लखनऊ भागा, मेरिट पता करने। इस बार प्रदेश में ओवर आल रैंक थी बत्तीस। केजीएमसी में सोलहवें नंबर पर प्रवेश होना था। नंबर यह थे :
जूलोजी- 296 / 300
बॉटनी- 274 / 300
केमिस्ट्री- 251 / 300
फिज़िक्स- 64 / 300
      कुल नंबर 885 / 1200, आखिरी एमबीबीएस सलेक्शन शायद 713 के आसपास हुआ था। फिजिक्स में यदि मैं जीरो भी लाता, तो भी मुझे केजीएमसी मिल जाता।

डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल (डॉ. पी. के. शुक्ला)
गंगा चिल्ड्रेन्स हॉस्पिटल, प्लाट नं.- N. H. - 1, सेक्टर-डी, एल. डी. ए. कॉलोनी,
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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय