काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ'



जोखू ने लोटा मुँह से लगाया तो पानी में सख्त बदबू आई। गंगी से बोला- यह कैसा पानी है? मारे बास के पिया नहीं जाता। गला सूखा जा रहा है और तू सड़ा पानी पिलाए देती है !
गंगी प्रतिदिन शाम पानी भर लिया करती थी। कुआँ दूर था, बार-बार जाना मुश्किल था। कल वह पानी लाई, तो उसमें बू बिलकुल न थी, आज पानी में बदबू कैसी ! लोटा नाक से लगाया, तो सचमुच बदबू थी। ज़रुर कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा, मगर दूसरा पानी आवे कहाँ से? ठाकुर के कुएँ पर कौन चढ़ने देगा? दूर से लोग डाँट बताएँगे। साहू का कुआँ गाँव के उस सिरे पर है, परंतु वहाँ भी कौन पानी भरने देगा? कोई तीसरा कुआँ गाँव में है नहीं।
जोखू कई दिन से बीमार है। कुछ देर तक तो प्यास रोके चुप पड़ा रहा, फिर बोला-अब तो मारे प्यास के रहा नहीं जाता। ला, थोड़ा पानी नाक बंद करके पी लूँ।
गंगी ने पानी न दिया। ख़राब पानी से बीमारी बढ़ जाएगी इतना जानती थी, परंतु यह न जानती थी कि पानी को उबाल देने से उसकी ख़राबी जाती रहती हैं। बोली- यह पानी कैसे पिओगे?  न जाने कौन जानवर मरा है। कुएँ से मैं दूसरा पानी लाए देती हूँ।
जोखू ने आश्चर्य से उसकी ओर देखा-पानी कहाँ से लाएँगे?
ठाकुर और साहू के दो कुएँ तो हैं। क्या एक लोटा पानी न भरने देंगे?
'हाथ-पाँव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रह्म-देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेगें, साहूजी एक के पाँच लेंगे। ग़रीबों का दर्द कौन समझता है! हम तो मर भी जाते है, तो कोई दुआर पर झाँकने नहीं आता, कंधा देना तो बड़ी बात है। ऐसे लोग कुएँ से पानी भरने देंगे?'
इन शब्दों में कड़वा सत्य था। गंगी क्या जवाब देती, किंतु उसने वह बदबूदार पानी पीने को न दिया।

2

रात के नौ बजे थे। थके-माँदे मजदूर तो सो चुके थे, ठाकुर के दरवाजे पर दस-पाँच बेफ़िक्रे जमा थे। मैदानी बहादुरी का तो अब न जमाना रहा है, न मौका। कानूनी बहादुरी की बातें हो रही थीं। कितनी होशियारी से ठाकुर ने थानेदार को एक ख़ास मुकदमे में रिश्वत दी और साफ़ निकल गये। कितनी अक्लमंदी से एक मार्के के मुकदमे की नक़ल ले आए। नाजिर और मोहतमिम, सभी कहते थे, नक़ल नहीं मिल सकती। कोई पचास माँगता, कोई सौ। यहाँ बेपैसे-कौड़ी नकल उड़ा दी। काम करने ढंग चाहिए।
इसी समय गंगी कुएँ से पानी लेने पहुँची।
कुप्पी की धुँधली रोशनी कुएँ पर आ रही थी। गंगी जगत की आड़ में बैठी मौके का इंतज़ार करने लगी। इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोका नहीं, सिर्फ़ ये बदनसीब नहीं भर सकते।
गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों और मज़बूरियों पर चोटें करने लगा—हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं?  इसलिए कि ये लोग गले में तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने है, एक-से-एक छँटे हैं। चोरी ये करें, जाल-फ़रेब ये करें, झूठे मुकदमे ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की भेड़ चुरा ली थी और बाद में मारकर खा गया। इन्हीं पंडित के घर में तो बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस-किस बात में हमसे ऊँचे हैं, हम गली-गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे हैं। कभी गाँव में आ जाती हूँ, तो रस-भरी आँख से देखने लगते हैं। जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु घमंड यह कि हम ऊँचे हैं!
कुएँ पर किसी के आने की आहट हुई। गंगी की छाती धक-धक करने लगी। कहीं देख लें तो गजब हो जाए। एक लात भी तो नीचे न पड़े। उसने घड़ा और रस्सी उठा ली और झुककर चलती हुई एक वृक्ष के अंधेरे साये मे जा खड़ी हुई। कब इन लोगों को दया आती है किसी पर ! बेचारे महँगू को इतना मारा कि महीनों लहू थूकता रहा। इसीलिए तो कि उसने बेगार न दी थी। इस पर ये लोग ऊँचे बनते हैं?
कुएँ पर स्त्रियाँ पानी भरने आई थी। इनमें बात हो रही थी।
'खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।'
'हम लोगों को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।'
'हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम लौंडियाँ ही तो हैं।'
'लौडिंयाँ नहीं तो और क्या हो तुम? रोटी-कपड़ा नहीं पातीं?  दस-पाँच रुपए भी छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौडियाँ कैसी होती हैं!'
'मत लजाओ, दीदी! छिन-भर आराम करने को जी तरसकर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता! यहाँ काम करते-करते मर जाओ; पर किसी का मुँह ही सीधा नहीं होता।'
दोनों पानी भरकर चली गई, तो गंगी वृक्ष की छाया से निकली और कुएँ की जगत के पास आई। बेफ़िक्रे चले गऐ थे। ठाकुर भी दरवाज़ा बंद कर अंदर आँगन में सोने जा रहे थे। गंगी ने क्षणिक सुख की साँस ली। किसी तरह मैदान तो साफ़ हुआ। अमृत चुरा लाने के लिए जो राजकुमार किसी जमाने में गया था, वह भी शायद इतनी सावधानी के साथ और समझ-बूझकर न गया हो। गंगी दबे पाँव कुएँ की जगत पर चढ़ी, विजय का ऐसा अनुभव उसे पहले कभी न हुआ था।
उसने रस्सी का फंदा घड़े में डाला। दायें-बायें चौकन्नी दृष्टि से देखा जैसे कोई सिपाही रात को शत्रु के किले में सुराख़ कर रहा हो। अगर इस समय वह पकड़ ली गई, तो फिर उसके लिए माफ़ी या रियायत की रत्ती-भर उम्मीद नहीं। अंत मे देवताओं को याद करके उसने कलेजा मजबूत किया और घड़ा कुएँ में डाल दिया।
घड़े ने पानी में गोता लगाया, बहुत ही आहिस्ता। ज़रा भी आवाज़ न हुई। गंगी ने दो-चार हाथ जल्दी-जल्दी मारे। घड़ा कुएँ के मुँह तक आ पहुँचा। कोई बड़ा शहज़ोर पहलवान भी इतनी तेज़ी से न खींच सकता था।
गंगी झुकी कि घड़े को पकड़कर जगत पर रखे कि एकाएक ठाकुर साहब का दरवाज़ा खुल गया। शेर का मुँह इससे अधिक भयानक न होगा।
गंगी के हाथ से रस्सी छूट गई। रस्सी के साथ घड़ा धड़ाम से पानी में गिरा और कई क्षण तक पानी में हिलकोरे की आवाजें सुनाई देती रहीं।
ठाकुर कौन है, कौन है? पुकारते हुए कुएँ की तरफ़ आ रहे थे और गंगी जगत से कूदकर भागी जा रही थी।
घर पहुँचकर देखा कि जोखू लोटा मुँह से लगाए वही मैला-गंदा पानी पी रहा है।

इस कहानी पर एक आलोचनात्मक लेख


प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय था। वे हिंदी और उर्दू साहित्य के एक महान लेखक थे। उनका जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी के पास लमही गाँव में हुआ था। प्रेमचंद को "उपन्यास सम्राट" के रूप में जाना जाता है और उन्होंने हिंदी साहित्य को कई उत्कृष्ट रचनाएँ दी हैं। 
संक्षिप्त परिचय:
जन्म : 31 जुलाई, 1880, लमही, वाराणसी.
वास्तविक नाम : धनपत राय श्रीवास्तव.
उपनाम: प्रेमचंद (साहित्यिक नाम), नवाब राय (उर्दू लेखन के लिए).
पिता : मुंशी अजायब राय.
माता : आनंदी देवी.
भाषा : हिंदी और उर्दू.
प्रमुख रचनाएँ :
उपन्यास: सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, * निर्मला*, गबन, कर्मभूमि, गोदान.
कहानियाँ: पूस की रात, कफ़न, पंच परमेश्वर, ईदगाह, बूढ़ी काकी आदि ('मानसरोवर' आठ खंडों में समाहित)
संपादन : हंस (मासिक पत्रिका), जागरण (समाचार पत्र).
मृत्यु : 8 अक्टूबर, 1936. 


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय