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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

ठाकुर का कुआँ : दलित चिंतन दृष्टि से एक अन्तर्पाठ



पुनीता जैन

प्रेमचंद का कथा क्षेत्र ग्रामीण समाज से सम्बद्ध रहा है। वही ग्रामीण समाज, जिसे अंबेडकर ने जाति आधारित असमानतापूर्ण व्यवस्था, उत्पीड़न, शोषण और सामाजिक-सांस्कृतिक बुराइयों का केन्द्र माना है। प्रश्न है कि अंबेडकर की चिंतन दृष्टि ने ग्रामीण जगत की जिस असमानता को रेखांकित करते हुए सामाजिक न्याय, बंधुत्व की बात कही है, क्या प्रेमचंद की मानवीय संवेदना, करूणा और मूल्यों से परिपूर्ण दृष्टि उस सामाजिक विषमता को देख पायी? वस्तुतः प्रेमचंद की ‘ठाकुर का कुआँ’ कहानी उनकी दृष्टि और संवेदना को अत्यंत सूक्ष्म रूप से प्रस्तुत करती है।
इस कहानी का प्रारंभिक अंश गाँव में तीन तरह के कुओं का उल्लेख करता है - ठाकुर का कुआँ, साहू का कुआँ और अस्पृृश्यों का कुआँ। जोखू और गंगी अछूत हैं। ठाकुर का कुआँ तो उनके लिए वर्जित है ही, ‘गाँव के उस सिरे पर’ स्थित साहू का कुआँ भी वर्जित ही है। बीमार जोखू और गंगी की समस्या यह है कि अस्पृश्यों के कुएँ से भरे गए पानी में एक दिन बाद जबर्दस्त बदबू आ गयी है। सामान्य निष्कर्ष यही निकाला जाता है कि ‘कोई जानवर कुएँ में गिरकर मर गया होगा’। किन्तु हिन्दी की दलित आत्मकथाएँ यह संकेत देती हैं कि दलित द्वारा बेगार हेतु मनाही या पेट भरने योग्य मजदूरी की माँग करने पर सवर्णों  द्वारा सबक सिखाने के उद्देश्य से उनके एकमात्र कुएँ में मरा हुआ जानवर फिंकवा दिया जाता रहा है। पानी के लिए विवश दलित अन्ततः दबंगों के सम्मुख नतमस्तक हो पुनः अपनी वर्षों पुरानी बेगार प्रथा, अधीनता और शोषित की मुद्रा में आ जाते हैं। शोषक समुदाय द्वारा उन्हें रास्ते पर लाने का यह सटीक नुस्खा है। प्रेमचंद गाँव के अछूतों के लिए पानी की समस्या की ओर या छुआछूत की समस्या की ओर संकेत करने के पूर्व उनके ‘कुएँ में जानवर गिरने’  की बात का उल्लेख करते हैं। यह पशु ठाकुर या साहू के कुएँ में नहीं, दलितों के कुएँ में गिरता है। विचार योग्य मुद्दा यह भी है कि यदि ठाकुर या साहू के कुएँ में जानवर गिर जाए तो उनकी पानी की समस्या का हल तत्कालीन स्थिति में क्या रहा होगा? बहरहाल, जब प्रेमचंद अपनी कहानी में स्पष्ट रूप से इस बात को उठाते हैं कि अछूतों के लिए निर्धारित कुएँ में जानवर गिरकर मर गया है, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अपने जीवनकाल में ग्रामीण जगत में ऐसे घटनाक्रम उन्होंने भी देखे और सुने होंगे। भारतीय सामाजिक व्यवस्था की जाति आधारित कुरूपता के हथियार, हथकंडे प्रेमचंद की सूक्ष्म दृष्टि से बच नहीं पाए होंगे। दलित वैचारिकी की स्पष्ट और स्वतंत्र दृष्टि को न रखकर भी वे समग्र भारतीय समाज और उसके केन्द्र ‘ग्रामीण समाज’ में छुआछूत  और रोटी-पानी की समस्या को इस कहानी में सशक्त रूप से उजागर करते हैं। दलित और स्त्री पात्र की स्थिति का चित्रण इस कहानी के मूल में है। हिन्दी की पहली दलित आत्मकथा ‘अपने अपने पिंजरे’ में मोहनदास नैमिशराय के बाल्य जीवन की घटना का उल्लेख दर्शाता है कि कड़कड़ाती  धूप में मीलों पैदल चलने वाले बालक को उच्च जाति वालों से उसकी जाति के कारण दो घूँट पानी प्राप्त नहीं हो पाता। अन्ततः उसे जोहड़ का बदबूदार, काईयुक्त पानी पीकर प्यास बुझानी पड़ती है। एक बालक की यह व्यथा 1995 में प्रकाशित आत्मकथा में अभिव्यक्त हुई है, किन्तु प्रेमचन्द दशकों पूर्व ही एक बीमार दलित को इस कहानी में बदबूदार पानी पीकर प्यास बुझाते हुए दिखा देते हैं। मोहनदास नेमिशराय की ‘अपने अपने पिंजरे’ से लेकर सूरजपाल चौहान की ‘तिरस्कृत‘ या डॉ. तुलसीराम की ‘मुर्दहिया’ तक में जिस पानी को लेकर सामाजिक व्यवस्था में जड़ें जमायी अस्पृृश्यता को चिह्नित  किया गया है, प्रेमचंद  उसे वर्षों पूर्व दर्शा देते हैं। हालांकि इस पर ध्यान न देते हुए दलित चिंतकों द्वारा उन पर कई बार प्रश्न  खड़े किए गए हैं। 
इस कहानी के पहले दृश्य में गंगी द्वारा ठाकुर के कुएँ से पानी भर लाने की बात पर प्रेमचंद जोखू के मुख से एक वाक्य कहलवाते हैं- ‘‘ हाथ-पांव तुड़वा आएगी और कुछ न होगा। बैठ चुपके से। ब्रह्म देवता आशीर्वाद देंगे, ठाकुर लाठी मारेंगे, साहू जी एक के पाँच लेंगे, गरीबों का दर्द कौन समझता है!’’ इस वाक्य के द्वारा यह कहानी सवर्ण समाज की वर्चस्वशाली प्रवृत्ति को रेखांकित कर दलितों की मूक और असहाय पीड़ा को सम्मुख ला खड़ा कर देती है। दरअसल प्रेमचंद ने अपने समाज के सर्वाधिक शोषित दलित व स्त्री पात्र के साथ किसान की दीन हीन स्थिति को भी उजागर करने का ईमानदार प्रयास किया है। दलित साहित्य में जिस वर्चस्वशाली वर्ग के शोषण को सर्वाधिक रेखांकित किया गया है, प्रेमचंद उक्त वाक्य में कितने सहज और व्यंग्यात्मक लहजे में उनकी शोषणकारी प्रवृृत्ति को प्रकाश में ले आते हैं। आजादी के वर्षों बाद भी इस वाक्य का सत्य क्या आज के कई गांवों का सत्य नहीं है ? दबंग  समुदाय द्वारा स्त्रियों के साथ जो दुर्व्यवहार किया जा रहा है, क्या आजादी से वर्षों पूर्व वही डर यह कहानी गंगी के मुख पर स्पष्ट रूप से दिखा नहीं देती ?
दरअसल प्रेमचंद मानवीय सरोकार के सचेत पक्षधर थे। अंबेडकर की विचार दृृष्टि के आकार लेने से पूर्व  ही वे समाज के प्रत्येक पीड़ित पक्ष को अपने लेखन में मुखरता देने हेतु प्रतिबद्ध रहे। प्रेमचंद की संवेदना दृष्टि का विस्तार प्रत्येक उत्पीड़न,  शोषण  और सामाजिक विसंगतियों तक जाता है। हिन्दी में दलित साहित्य  का आविर्भाव उन्नीस सौ अस्सी के बाद देखने  को मिलता है। जबकि प्रेमचंद का रचनाकाल लगभग उन्नीस सौ दस से उन्नीस सौ  छत्तीस तक का है।  कुछ दलित चिंतकों  द्वारा उनके साहित्य में प्रयुक्त कतिपय शब्दों के प्रयोग को आधार बनाकर जो आलोचना की गयी, उसकी जगह यह देखा जाना जरूरी है कि जिस काल में प्रेमचंद ‘ठाकुर का कुआँ’  के द्वारा दलित समाज की सबसे बड़ी समस्या छुआछूत को उठा रहे थे, वह उनकी सजग और गहरी संवेदनशील दृष्टि का ही परिणाम है। देशज क्षेत्र की समस्याओं को उन्होंने जाति या वर्ग भेद से ज्यादा मानवीय संवेदनाओं की दृष्टि से परखा। इसी कारण जोखू की पीड़ा, बदबूदार पानी पीने की विवशता, गंगी का साहस व विद्रोह और सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न भय के साथ-साथ इस छोटी सी कहानी में अवसर मिलते ही प्रेमचंद कुएँ में पानी भरने आयी पितृृसत्तात्मक परिवेश  से त्रस्त सवर्ण स्त्रियों  का दर्द भी उजागर कर देते हैं।
‘ठाकुर का कुआँ’ एक छोटी सी कहानी है। दो दृश्य हैं । पहले दृश्य में एक दलित की प्यास है और जोखू का वर्णव्यवस्था की वास्तविक स्थिति पर व्यंग्य है। दूसरे दृश्य में ग्राम्य जगत मे दलितों की वास्तविक स्थिति का संकेत है- ‘‘इस कुएँ का पानी सारा गाँव पीता है। किसी के लिए रोक नहीं; सिर्फ ये बदनसीब नहीं भर सकते ।’’ हिन्दी की आज तक लिखी गयी किसी भी आत्मकथा को उठाकर देख लिया जाए, अछूतों  के लिए पानी  या अन्य सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक निषेध हर लेखन में मिलेगा। लेखन ही नहीं, गाँव में ये पाबंदियाँ आज भी मौजूद हैं। ऐसा भी नहीं कि इसके प्रति विद्रोह नहीं है, प्रेमचंद दशकों पूर्व गंगी में इस पाबंदी के विरूद्ध विद्रोह भाव को दर्शाते हैं- ‘‘गंगी का विद्रोही दिल रिवाजी पाबंदियों  और मजबूरियों पर चोटें करने लगा - हम क्यों नीच हैं और ये लोग क्यों ऊँच हैं?  इसलिए कि ये लोग गले में  तागा डाल लेते हैं? यहाँ तो जितने हैं, एक-से-एक छँटे हैं ! चोरी ये करें, जाल-फरेब ये करें, झूठे मुकदमें  ये करें। अभी इस ठाकुर ने तो उस दिन बेचारे गड़रिए की एक भेड़ चुरा ली थी और बाद में मार कर खा  गया। इन्ही पंडित जी के घर में बारहों मास जुआ होता है। यही साहू जी तो घी में तेल मिलाकर बेचते हैं। काम करा लेते हैं, मजूरी देते नानी मरती है। किस बात में है हमसे ऊंचे? हाँ, मुँह में हमसे ऊँचे हैं।  हम गली -गली चिल्लाते नहीं कि हम ऊँचे हैं, हम ऊँचे हैं !  कभी गाँव में आ जाती हूँ तो रसभरी आँखों से देखने लगते हैं, जैसे सबकी छाती पर साँप लोटने लगता है, परंतु  घमंड  यह कि हम  ऊँचे हैं।’’ इन पंक्तियों में कई गहरे संकेत छिपे हैं- समाज  में ऊँच-नीच की व्यवस्था पर प्रश्न है, उस  तागे पर प्रश्न है जिसके कारण झूठे मुकदमें करने वाले फरेबी, गड़रिए की भेड़ चुराकर व मारकर खा  लेने वाले विशिष्ट व्यक्ति, पंडित जिसकी आँखों के सामने उसी की छत के नीचे जुआ चलता है, मिलावट खोर साहू, बेगार कराने  वाले और न करने पर महंगू जैसों को मार-मार कर लहूलुहान कर देने वाले दबंग और सबसे बड़ी  बात एक स्त्री की पीड़ा! गाँव में  जाने पर अछूत गंगी को ‘रस भरी आँखों से देखने वाले’ - ये सभी किस हैसियत से ऊँचे है ?  मानव मूल्यों से सरोकार रखने वाले प्रेमचंद गाँव की पूरी असलियत को न्यूनतम शब्दों में प्रश्नांकित कर देते हैं। एक वाक्य पर और ध्यान दिया जाना चाहिए,  गंगी कहती है,  ‘कभी गाँव में  आती हूँ तो’ गाँव में आती है अर्थात् वह  गाँव से बाहर रहती है। गाँव से बाहर अर्थात दक्षिण दिशा में उसकी बस्ती होने की संभावना यहाँ दिखाई देती है। दलित साहित्य में अधिकांश लेखकों  का यह त्रासद अनुभव रहा है कि उनकी बस्ती गाँव के बाहर तथाकथित अशुभ दिशा ‘दक्षिण’  में हुआ करती थी, ताकि कोई अप्रिय घटना की संभावना से गाँव की रक्षा होती रहे। क्या यह संभव नहीं कि गंगी उसी दक्षिण दिशा में स्थित बस्ती से जब गाँव में आती है तो उसकी अस्पृश्य किन्तु स्त्री-देह पर इन तथाकथित ऊंचे लोगों  की ‘रसभरी आँखें’  टिक जाती हैं। दलित साहित्य में ऐसे घटनाक्रमों की ओर भी पर्याप्त संकेत मिलते हैं। सूरजपाल चौहान की आत्मकथा ‘तिरस्कृत‘ व ‘संतृप्त’ में एक घटनाक्रम में जब भोर अंधेरे वे अपनी माँ  के साथ ठाकुर का आँगन बुहारने संग जाते हैं, तो वहाँ ठाकुर उन्हें बहाने से मकान के पीछे भेजकर उनकी माँ को दबोच लेने का प्रयास करने लगता है। दलित लेखन जिन त्रासदियों, विडम्बनाओं को आज  खुलकर उजागर कर रहा है, यह कहानी उसके कई पक्षों को प्रत्यक्ष-परोक्ष  रूप से रेखांकित  कर चुकी है।  इस कहानी के पात्रों  के नाम ‘जोखू’ ‘गंगी’ है। एक पात्र का तनिक उल्लेख है जिसका नाम है ‘महंगू’। दलित साहित्य इस ओर भी पर्याप्त संकेत करता है कि उच्च वर्ण के नामों और दलितों के नामों में अंतर उनकी हैसियत दर्शाने  के उद्देश्य से रखे जाते हैं।  यही नहीं वर्चस्वशाली  वर्ग हमेशा दलितों का नाम बिगाड़ देता है।  यह कहानी इन नामों के प्रयोग  द्वारा इस बात की ताकीद करती है कि भारतीय सामाजिक व्यवस्था तत्कालीन समय में किस स्थिति में थी।
दलित विमर्श और स्त्री विमर्श के नाम से साहित्य में  जो स्वर आज मुखर है, यह कहानी उस दलित समुदाय के साथ स्त्री की अन्तर्पीड़ा को भी एक छोटे से दृश्य में बांध कर यहाँ रख देती हैं। गंगी ठाकुर के कुएँ से पानी भरने की फिराक में है। यहीं पर दो स्त्रियाँ पानी भरने आती हैं। तथाकथित ऊंचे समुदाय के अन्तःपुर की स्त्रियों  की मनःस्थिति की झलक यहाँ उनकी सामाजिक स्थिति  का भी बोध करा देती है - ‘‘खाना खाने चले और हुक्म हुआ कि ताजा पानी भर लाओ। घड़े के लिए पैसे नहीं हैं।’’ ‘‘हम लोगों  को आराम से बैठे देखकर जैसे मरदों को जलन होती है।’’ ‘‘हाँ, यह तो न हुआ कि कलसिया उठाकर भर लाते। बस, हुकुम चला दिया कि ताजा पानी लाओ, जैसे हम  लौंडिया ही तो हैं।’’  ‘‘लौंडिया नहीं  तो और क्या हो तुम?  रोटी-कपड़ा नहीं पातीं?  दस-पाँच रूपए छीन-झपटकर ले ही लेती हो। और लौंडिया कैसी होती है?’’ ‘‘मत जलाओ दीदी! छिन भर आराम करने को जी तरस कर रह जाता है। इतना काम किसी दूसरे के घर कर देती, तो इससे कहीं आराम से रहती। ऊपर से वह एहसान मानता। यहाँ काम करते-करते मर जाओ, पर किसी का मुँह ही नहीं सीधा होता।’’ यह वार्तालाप पितृसत्तात्मक समाज में घरेलू स्त्रियों की स्थिति की ओर संकेत करता है, जहाँ घरेलू काम-काज का कोई महत्त्व नहीं तथा परावलंबी स्त्रियों की पारिवारिक व्यवस्था में कोई हैसियत नहीं। वस्तुतः  प्रेमचंद ने अपने समय में जिन विपरीत स्थितियों को देखा, संवेदना के स्तर पर जाति, धर्म और लिंग भेद संबंधी जिस भी विसंगति को अनुभूत किया, उसे लेखन में तत्काल स्थान दिया।
इस कहानी का अंतिम दृश्य है, गंगी का कुएँ के पास ठाकुर की उपस्थिति  के आभास मात्र को ‘शेर के मुँह से भी भयानक’ मान कर कुएँ की जगत से कूदकर केवल भागते चले जाना और घर पहुँच कर पाना कि जोखू वही मैला, गंदा पानी पी रहा’ था। दलित चिंतक मोहनदास नैमिशराय की आत्मकथा का एक यथार्थ चित्र प्रेमचंद की कल्पना में बहुत पहले उतरकर दलित समुदाय की पीड़ा, उत्पीड़न को स्वर देते हुए ग्रामीण समाज की जाति आधारित व्यवस्था पर प्रहार करता है। उनकी कलाकार दृृष्टि ने अनुभूति, यथार्थ अनुभवों को अत्यंत खूबसूरती  से इस कहानी में पिरोया है। दलित जीवन की व्यथा भी उनकी इस दृष्टि से बच नहीं सकी, चाहे उसे दलित विमर्श के दायरे से कितना ही दूर क्यों न रखा जाए।   वस्तुतः समकालीन संदर्भों को लेकर उनमें कोई ग्रंथि नहीं थी। वे जिस सामाजिक व्यवस्था में रह रहे थे, उसमें आज भी आमूलचूल परिवर्तन नहीं आया है। वर्चस्वशाली शक्तियों  के सम्मुख आज भी गंगी भयभीत है और आज के जोखू जोहड़ का पानी पीने के लिए विवश। सघन करूणा, संवेदनशीलता और सद्भावना के कारण समाज का कोई भी उपेक्षित, पीड़ित चरित्र उनकी चिंतन प्रक्रिया और रचनात्मक दृष्टि से ओझल नहीं रहा। एक छोटे से घटनाक्रम और दो पात्रों द्वारा ‘ठाकुर का कुआँ’ कहानी जिस सामाजिक प्रश्न को उठाती है, वह आज भी प्रासंगिक है। इस कहानी की शक्ति यह भी है कि यहाँ गंगी विचार शून्य नहीं, प्रश्नाकुल है, वह भयभीत है तो विपत्ति में साहसी और विद्रोही भी। इसलिए यह कहानी सामाजिक ढाँचे में मौजूद शोषण-उत्पीड़न  की सदियों पुरानी परम्परा के प्रति अंसतोष की कुलबुलाहट और असहाय विवशता दोनों को एक साथ रेखांकित करती हैं। यह गंगी की सजग मानवीय चेतना और आत्मसम्मान के स्वर को बुलंद  करती है तो साथ ही बीमार जोखू  को बदबूदार पानी पीता हुआ दिखाकर मनुष्यता की पराजय द्वारा सघन करूणा भी उत्पन्न करती है। स्पष्टतः प्रेमचंद की उदात्त जीवन दृष्टि दलित और स्त्री की विषम स्थिति के प्रति चिंतित रही है। ऊंच-नीच, जातिगत उत्पीड़न, स्त्री का असुरक्षाबोध, मानव मूल्यों  और संवेदनाओं से रहित समाज की वर्णव्यवस्था को लघु कलेवर में सशक्त रूप से प्रस्तुत करने की क्षमता के कारण यह कहानी आज भी जीवंत है। 
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पुनीता जैन
शिक्षा -एम.ए., पी.एच.डी.
प्रकाशन-“विद्यानिवास मिश्र और उनके ललित निबंध” पुस्तक  प्रकाशित, पत्र पत्रिकाओं में आलेख एवं कविताएँ प्रकाशित।
सम्प्रति - प्राध्यापक, हिन्दी, शासकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, भेल, भोपाल (म. प्र.)
पता- जी-03, फॉर्चून ग्लोरी एक्सटेंशन, ई-8 एक्सटेंशन, बावड़िया कलाँ, भोपाल - 462 039









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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय