काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

मेरा अक्षम्य अपराध और पिताजी

अपने पिता के बारे में लेखक कश्मीर सिंह का संस्मरण




कश्मीर सिंह

बात फरवरी 1982 की है। मैं उन दिनों दसवीं कक्षा में पढ़ता था। मार्च में बोर्ड की परीक्षाएं होनी थीं और मैं शाम के समय परीक्षाओं की तैयारी करने के लिए प्राय: अपने खेत पर चला जाता था। खेत पर जाकर पढ़ने के दो कारण थे। एक कारण तो यह था कि घर में रहते हुए घर का कोई-न-कोई सदस्य घर का कुछ-न-कुछ काम बताता रहता था, जिससे पढ़ाई में व्यवधान पैदा होता था, दूसरा कारण हमारे खेत के बराबर में एक बाग था, जो शहर के एक पंजाबी, लाला अमरनाथ का था, उसमें आडू, अनार, आम और अन्य बहुत-सी प्रजातियों के पेड़ लगे थे, जो फरवरी के महीने में पुष्पित होते थे और उनमें से वासन्ती मादक सुगंध से समृद्ध मंद-मंद समीर के झोंके तन और मन दोनों को ही आनंदित करते थे और पढ़ाई में मन लगता था।

      लाला अमरनाथ के खेत पर एक कमरा बना था, जिसके साथ एक ट्यूबवेल लगा था और एक हैंडपम्प भी। हम उनके समीपस्थ पड़ोसी थे, इसलिए उनके बा़ग की देखभाल हमारा परिवार ही करता था। ट्यूबवेल वाले कमरे की चाबी भी हमारे पास होती थी। मैं खेत पर जाता, तो उस कमरे में से चारपाई निकालकर बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे बिछा कर उसी पर बैठ कर पढ़ाई करता। आसपास के खेतों में काम करने वाले मज़दूर और अपने पशुओं के लिए चारा आदि काटने के लिए आने वाले किसान भी पानी पीने उसी हैंडपम्प पर आते थे। जब भी कोई अकेला व्यक्ति पानी पीने आता था, तो प्राय: मैं ही हैंडपम्प चलाता था, यह सोच कर कि पानी पीने वालों की आत्मा तृप्त होगी, तो मुझे शुभाशीष देगी और मैं परीक्षा में पास हो जाऊँगा।

      हमारे खेत के दूसरी ओर का खेत भी गांव से बाहर के ही किसी व्यक्ति का था। उसने भी अपना खेत हमारे गांव के ही एक व्यक्ति को बँटाई पर दिया हुआ था। उनके परिवार के लोग भी प्राय: पानी लेने के लिए उसी हैंडपम्प पर आते थे। एक दिन हमारे इन्हीं पड़ोसी किसान की बेटी पानी पीने के लिए हैंडपम्प पर आई। उसने खुद ही एक हाथ से हैंडपम्प चलाया और दूसरे हाथ की चुल्लू से पानी पीया। लड़की थी, इसलिए संकोचवश मैं उसके लिए नल पर नहीं गया, पर बैठे-बैठे उस लड़की का पानी पीना देखता रहा। लड़की एक-दो दिन छोड़ कर अब नल पर पानी पीने आने लगी थी। ख़ुद ही नल चला कर पानी पीने में उसे असुविधा ज़रूर होती, पर उसने मुझे नल चलाने के लिए कभी नहीं कहा। 

      यह सिलसिला कुछ दिन तक ऐसे ही चलता रहा, न उसने मुझे नल चलाकर अपनी मदद करने को कहा, न ही मैंने उसकी मदद करने की कोशिश की। एक दिन वह पानी पीने आई और जैसे ही उसने नल की हत्थी चलाई, तो हत्थी में ऊपर लगा बोल्ट निकल गया और नल की डोल्ची में अन्दर फँस गया। उस लड़की ने उस बोल्ट को निकालने की भरपूर कोशिश की, पर निकाल नहीं पाई। मैं भी लड़की को और उसकी कोशिश को बड़े ध्यान से देख रहा था। और देख ही क्या रहा था, मैं इस उम्मीद में था कि लड़की मुझे मदद के लिए कहे, तो मैं उसकी मदद करूँ। लड़की के नयन-नक्श साधारण थे, पर लड़की सुन्दर लगती थी। वह शरीर से हृष्ट-पुष्ट थी और लगभग मेरी ही उम्र की रही होगी। काफी परेशान होने के बाद उसने बड़ी ही मासूमियत से मेरी ओर देखा, जैसे मदद के लिए पुकार रही हो।

      एक कहावत है न कि ‘अंधा क्या माँगे, दो नयन’, यहाँ पर चरितार्थ हुई। मैं तो पहले से ही तैयार बैठा था, जल्दी से किताब चारपाई पर रख कर डोल्ची में बुरी तरह से फँसे बोल्ट को निकाला, उसे हत्थी में फिट किया और नल चला कर उसे पानी पीने के लिए कहा। उसने पहली बार अपना मुँह खोला और कहा, ‘‘तू पढ़ाई कर ले,  मैं अपने आप ही पी लूँगी पानी।’ मैंने फिर भी नल की हत्थी नहीं छोड़ी और नल चलाकर उसे पानी पीने के लिए विवश कर दिया।’’ मैं उससे अपेक्षा कर रहा था कि वह ‘धन्यवाद’ जैसी कोई बात मुझसे कहेगी, पर वह बिना कुछ बोले ही पानी पीकर चुपचाप चली गई। मैं थोड़ा-सा निराश हुआ। शायद लड़की को ‘धन्यवाद’ शब्द का ज्ञान ही नहीं था या फिर वह नहीं चाहती थी कि मैं पानी पीने में कभी उसकी मदद करूँ।

      दूसरे दिन फिर वह पानी पीने आई, तो मैं उससे पहले ही उठकर नल के पास आ गया था। मैंने उस दिन भी नल चलाया और वह पानी पीकर चुपचाप चली गई। शुरुआत के दिनों में वह एक-दो दिन छोड़कर पानी पीने आती थी, फिर कुछ दिनों के बाद वह रोज़ ही पानी पीने आने लगी थी। मैं भी अब उसकी प्रतीक्षा करने लगा था और जैसे ही वह अपने खेत से नल की ओर आती दीखती, तो मैं उसे दूर से ही देखकर अपनी कॉपी-किताब चारपाई पर रखकर पानी पीने में उसकी मदद करने के लिए नल के पास आ जाता। वह भी पानी पीती और चुपचाप चली जाती। किसी दिन वह नहीं आती, तो मैं उदास होता। उस लड़की का नाम क्या था, मुझे पता नहीं था क्योंकि हमारे खेत पास-पास ज़रूर थे लेकिन उसका घर गांव के उत्तरी छोर पर था और हमारा घर गांव के दक्षिणी छोर पर, इसलिए परिचय के नाम पर हम दोनों नॉर्थ-साउथ पोल थे।

      एक दिन वह आई और पानी पीने के बाद उसने पहली बार मुझसे बात की और मुझसे पूछा, ‘‘तू मुंशी जी का लड़का है ना?’’ मुझे उसका यह प्रश्न सुनकर बहुत अच्छा लगा कि वह पिताजी को जानती है। 

      पिताजी का ज़िक्र आ ही गया है, तो आइए आपका परिचय अपने पिताजी से भी हो जाए। श्री बिशम्बर सिंह, जी हाँ ये ही नाम था पिताजी का। वैसे हमारे गांव के सभी लोग पिताजी को ‘मुंशी जी’ के नाम से बुलाते थे। उनका नाम ‘मुंशी जी’ कैसे पड़ा, ये तो मुझे मालूम नहीं पर एक तथ्य इस नाम के पक्ष में था वह, यह कि पिताजी हमारी बिरादरी के पहले साक्षर व्यक्ति थे। मैंने उनके लिए ‘साक्षर’ शब्द का प्रयोग किया है, ‘शिक्षित’ शब्द की उपमा नहीं लगाई, कारण बहुत ही साधारण-सा है कि पिताजी कभी स्कूल नहीं गए थे और न ही उनके पास उनकी शैक्षिक योग्यता का कोई प्रमाण पत्र था। 

      हमारा गांव सरकड़ी शेख, जनता रोड, जनपद सहारनपुर, सहारनपुर शहर के घंटा घर अर्थात शहर के केंद्र बिंदू से मात्र छह किलोमीटर दूर है, लेकिन बावजूद इसके हमारे गांव में पिताजी के समय (वर्ष 1930-1935) में ही क्या, हमारे समय (वर्ष 1965-1970) में भी स्कूल नहीं था। शायद यही एक बड़ा कारण रहा होगा कि हमारे गांव में और हमारे समाज में शिक्षा का बहुत बड़ा अभाव रहा। पिताजी के समय में स्कूल गांव से लगभग चार किलोमीटर दूर पुंवारका गांव में होता था और मेरी स्वयं की प्राथमिक शिक्षा आसनवाली गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई, जो हमारे गांव से लगभग दो किलोमीटर दूर था। पिताजी हमारे दादा-दादी जी की पहली संतान थे और मेरे चाचाजी उनसे लगभग दस साल छोटे थे। उस समय में एक बालक को चार किलोमीटर दूर प्राथमिक शिक्षा के लिए भेजना एक बड़ी समस्या रही होगी, जिसमें सबसे बड़ी समस्या शायद परिवहन की होगी। स्कूल न भेजने का एक और बड़ा कारण यह भी रहा होगा कि हमारे गांव से पुंवारका गांव तक के रास्ते में दो श्मशान, तीन कब्रिस्तान और एक देवी का मन्दिर, पिताजी के समय में भी था और आज भी है। इनमें से एक कब्रिस्तान में एक सूफी संत यानि पीर बाबा की दरगाह थी और उस दरगाह पर हर साल एक उर्स मेला लगता था। इस उर्स में देश-परदेश से मशहूर कव्वाल बुलाए जाते थे, जो रात भर उन सूफी संत की तारी़फ में अपने कलाम पढ़ते थे, तो कई मौलाना भूत-प्रेत आदि भगाने के लिए झाड़-फूंक का काम भी करते थे। उस दौर में शिक्षा का अभाव तो था ही, अंधविश्वास, भूत-प्रेत का डर और टोने-टोटके भी अपने उत्कर्ष पर रहे होंगे। ऐसे में बच्चों को श्मशान और कब्रिस्तान जैसी जगहों के आसपास से भेजना मतलब किसी अनहोनी को बुलावा देने जैसा रहा होगा। पिताजी भी बताया करते थे कि उस देश-काल में किसी भी दम्पत्ति को अपनी इकलौती सन्तान को भूत-प्रेत, चुड़ैल और बुरी हवा आदि से बचा कर रखना एक भारी ज़िम्मेदारी होती थी और इसी वजह से उन्हें भी घर से बाहर जाने, खेलने-कूदने की अनुमति नहीं थी।

      परिस्थितियाँ जो भी रही हों, पिताजी स्कूल नहीं गए। पिताजी बताते थे कि एक अध्यापक महोदय रविवार के दिन पिताजी को पढ़ाने के लिए हमारे घर आया करते थे और घर पर ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। उन अध्यापक महोदय ने जितनी शिक्षा पिताजी को घर पर दी, बस वही उनकी पूँजी थी। उनके पास शैक्षिक प्रमाण पत्र तो नहीं थे पर गणित विषय पर उनकी पकड़ बहुत पक्की थी। हमारे गांव के ज्यादातर लोग अपनी ज़मीन और अन्य लेन-देन के हिसाब करवाने के लिए रविवार की छुट्टी के दिन पिताजी के पास आया करते थे। पिताजी की घर पर हुई पढ़ाई से इस सत्य से भी साक्षात्कार होता है कि उन्नीस सौ तीस के दशक में भी प्राइवेट ट्यूशन पढ़ाई जाती थी।

      बचपन में पिताजी के साथ मेरी बात आमतौर पर स्कूल की फीस, किताब, कॉपी, पेन, पेंसिल आदि खरीदने के लिए पैसे माँगने तक ही होती थी। इसका एक अहम कारण था कि पिताजी हमारे गृह जनपद सहारनपुर में उत्तर प्रदेश सरकार के लोक निर्माण विभाग में मेट के पद (चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी) पर काम करते थे। उनका कार्य क्षेत्र सहारनपुर के खान आलमपुरा चौक से लेकर मोहण्ड तक लगभग पैंतालिस किलोमीटर का, सहारनपुर-देहरादून राष्ट्रीय राजमार्ग था। उन्हें सबेरे आठ बजे ड्यूटी पर पहुँचना होता था, जिसके लिए वे प्राय: सबेरे जल्दी ही काम पर चले जाते और शाम को देर से ही घर आते। आम तौर पर पिताजी के दर्शन हमें शाम को ही होते थे।

      अरे मैं तो विषय से ही भटक गया था। आइए पड़ोसी लड़की की कहानी पूरी करते हैं। उस लड़की से अब मेरी बातचीत होने लगी थी। उसने ही मुझसे मेरा नाम पूछा था और फिर मैंने भी उससे उसका नाम। उसके नाम का खुलासा यहाँ करना बेमानी होगा, इसलिए मैं उसके नाम का उल्लेख यहाँ नहीं कर पा रहा हूँ। आप अपने मन में लड़की का सुन्दर-सा कोई भी नाम सोच लीजिए। मैं उसे एक दिन बा़ग में घुमाने के लिए ले गया। दसवीं में वनस्पति विज्ञान भी कोर्स का एक विषय था, तो उसे सारे फलों और पेड़ों के नाम आदि बता कर मैं अपने ज्ञान का प्रदर्शन करता। वह लड़की भी मेरी बातों को बड़े गौर से सुनती। उस लड़की का तो पता नहीं कि वह मेरे वनस्पति विज्ञान के ज्ञान से कितनी प्रभावित थी, पर मैं अपने आप को हीरो से कम नहीं समझता था। 

      उन दिनों मैं अपने गांव से शहर में पढ़ने जाने वाला अकेला लड़का था। गांव के अन्य कुछ लड़के भी पढ़ते थे, पर वे पुंवारका गांव के स्कूल में पढ़ते थे। संभवतया हमारे गांव के अधिकतर लोग इस बात को जानते थे कि मुंशी जी का बेटा शहर में पढ़ता है। वह लड़की भी यह बात जानती थी कि मैं शहर में पढ़ने जाता हूँ। जब भी वह मेरे साथ बा़ग में घूमने जाती, तो बातचीत के दौरान वह मुझसे कभी शहर के बारे में पूछती, तो कभी मेरे साथ कौन-कौन पढ़ता है, दोस्त कौन-कौन हैं... के बारे में। एक दिन उसने बात-बात में मुझसे पूछा कि तू शहर में पढ़ने जाता है, तो क्या शहर की लड़कियाँ भी तेरे साथ पढ़ती हैं? मैंने उसे बताया कि शहर में लड़कियों के स्कूल अलग होते हैं और मेरे स्कूल में केवल लड़के ही पढ़ते हैं, हमारे साथ लड़कियाँ नहीं पढ़ती। यह सुनकर उसकी आँखों में चमक, चेहरे पर दमक और उसके होठों पर एक अद्भुत-सी मुस्कान आ गई थी।

      हम दोनों के बीच बातचीत का यह सिलसिला चलता रहा। वह प्राय: मेरे पास कुछ देर के लिए रुकती, तो मेरी किताब, कॉपी के पन्ने उलट-पुलट कर देखती। मुझे पता था कि वह बेचारी कभी स्कूल नहीं गई थी, पर जब वह किताब के पन्ने उलट-पुलट कर देखती थी, तो उसके चेहरे पर एक सौम्य-सी छटा बिखरी होती थी, जो मुझे अच्छी लगती थी।

      पिछले कुछ वर्षों में टीवी पर एक विज्ञापन देखा था, उसमें एक डायलॉग होता था - ‘टंल्ल ६्र’’ुी टंल्ल’ और फिर उसके बाद यह डायलॉग मैंने बहुत-से मित्रों के मुँह से सुना। वास्तव में 14-15 वर्ष की उम्र के किसी लड़के को ‘टंल्ल’ तो शायद नहीं कह सकते लेकिन ‘Man will be Man’ उस सन्दर्भ में मुझे ज्यादा समीप लगता है। तो मित्रो, मुझ पर भी अंग्रेजी की यह उक्ति 1982 में ही चरितार्थ हो गई थी। वह लड़की मुझे प्राय: रोज़ ही मिलती थी, टाइम भले ही उसे पाँच मिनट का मिलता हो या पंद्रह मिनट का। उसका मुझसे से यूँ मिलना, मुझे लगता था कि जैसे वह मेरी मित्र बन गई थी।

      रविवार का दिन था, वह लड़की हमेशा की तरह आई और मेरे साथ बा़ग में घूमने चल पड़ी। मुझे तो पक्का यकीन था कि अब वह मेरी मित्र बन गई है। बा़ग में घूमते-घूमते फिल्मी स्टाइल में मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। मेरे हाथ पकड़ लेने से वह थोड़ा असहज हो गई थी। फिल्मों में देखे ऐसे ही रोमांटिक दृश्यों से मुझे लगा कि ‘हाँ’ में ‘ना’ और ‘ना’ में ‘हाँ’ स्त्री का सामान्य स्वभाव है। मैंने लड़की की इस असहजता की उपेक्षा करते हुए उसका हाथ पकड़े-पकड़े फिल्मी अंदाज़ में प्रणय निवेदन कर डाला। फिर क्या था? लड़की मेरे हाथ से अपना हाथ छुड़ाकर अपने खेत की तरफ भाग गई। 

      किसी अनहोनी की आशंका में मैं भी अपनी कॉपी-किताब उठा कर खेत से घर भाग आया। मैं घेर में (‘घेर’, घर के अलावा एक ऐसा स्थान होता है, जो गांव के बाहरी छोर पर होता है। घर के बुज़ुर्ग लोग यहीं पर रहते हैं, घर में आने वाले मेहमान भी यहीं पर ठहरते हैं। घरेलू पशुओं के रहने और उनके चारे आदि कि व्यवस्था भी इसी स्थान पर होती है।) पहुँचा तो देखा, रविवार का दिन होने के कारण पिताजी भी घेर में ही थे। मेरे खेत से जल्दी वापस आने पर एक बार तो उन्होंने मुझे किसी शंका की दृष्टि से देखा, पर कहा कुछ नहीं। मैं चुपचाप घेर में बने एक कच्चे कमरे में घुस गया, जिसमें मेरे पढ़ने की कुर्सी-मेज लगी थी और मैं पढ़ने का अभिनय करने लगा। मेरे मन में एक संभावित भय हावी था कि लड़की ने यदि अपने घर जाकर मेरी शिकायत की होगी, तो यह निश्चित ही था कि घर के लोग मेरी अच्छी धुलाई करेंगे। 

      मेरे लिए एक-एक पल काटना बहुत मुश्किल हो रहा था और फिर वही हुआ, जिसकी मुझे आशंका थी। उस लड़की के दादा जी अब हमारे घेर में थे। पिताजी से राम-रहीम के बाद पिताजी ने उन्हें बिठाया और हुक्के की चिलम उतार कर और उसमें तम्बाकू-आग भर कर उसके दादा जी से हुक्का पीने का आग्रह किया। मेरी हालत कैसी बताऊँ - काटो तो खून नहीं, डर के मारे शरीर काँप रहा था। 

      मेरे पिताजी और लड़की के दादाजी में बातचीत शुरू हुई, तो लड़की के दादा जी ने पिताजी को बताना शुरू किया - ‘‘मुंशी जी, तेरे शहर में पढ़ने वाले लौंडे ने आज तो चाला ही काट दिया।’’ मैं अंदर से ही छिपकर उनकी बातें कान लगा कर सुन रहा था। उसके दादा जी ने आगे बताया - ‘‘मेरी पोती खेत पर गई थी और तेरा लौंडा उसका हाथ पकड़ के उसे लाला के बाग में खींच ले गया। मेरी पोती तो  थोड़ी-सी तकड़ी थी, जो उसके चुंगल से छूट-छाट के भाग आई। लौंडी हिम्मत ना करती, तो हम तो बर्बाद हो जाते मुंशी जी।’’

      लड़की के दादा जी बोलते जा रहे थे और मैं आँखें मीचे पिताजी की अवश्यम्भावी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रहा था। पिताजी उन बुजर्ग की बातें चुपचाप सुन रहे थे और हुक्के में घूँट भी मारते जा रहे थे। जैसे-जैसे उन बुज़ुर्ग की बातों का ताप बढ़ रहा था, हुक्के में घूँट भरने की गति भी उसी रफ्तार से बढ़ती जा रही थी।  पिताजी की चुप्पी से मेरी साँसें धौंकनी की तरह हाँफ रही थी, तो हुक्के में घूँट भरने की गति से उत्पन्न हुक्के की गुड़-गुड़ की आवाज़ों से मेरे खुद के पेट से भी गुड़-गुड़ की आवाज़ें उफान पर थीं। लड़की के दादा जी ने अपनी बात यह कहते हुए समाप्त की कि तेरा लौंडा तो शहर में जा के ढेर ही बिगड़ गया मुंशी जी। पिताजी जी चारपाई से उठे, इधर-उधर देखा और अब उस कमरे की तऱफ धीरे-धीरे बढ़ रहे थे, जिसमें आँखें मींचे मैं ज़िंदा लाश की तरह कुर्सी पर धरा हुआ था। मेरी आँखें तो बंद थी, पर मेरे कान ही आँखों का काम कर रहे थे। महाभारत में संजय तो आँखों देखी सुनाते थे, पर मुझे तो बंद आँखों से भी कुछ स्पष्ट दीख रहा था। पिताजी दरवाज़े तक आए, दरवाज़े पर रखा एक डंडा उठाया। मैं अंदर बैठा पल-पल यह प्रतीक्षा कर रहा था कि डंडा कमर पर अब पड़ा और अब पड़ा। 

      पिताजी कमरे में आ चुके थे। वे अंदर आकर मेरी कुर्सी के पास रुके। शायद वे मुझे गुस्से से घूर रहे थे। फिर उस कमरे में इधर-उधर घूमे, इस दौरान हाथ में लिया हुआ डंडा भी उन्होंने इधर-उधर मारा। मेरी स्थिति एक उस प्राणी की तरह थी, जिसके प्राण-पखेरू उड़ने ही वाले हों और वह रह-रह कर तड़प रहा हो। 

      अब पिताजी कमरे से बाहर आ चुके थे। पिताजी ने बुज़ुर्ग को बताया कि ‘‘फिलहाल तो वह खेत से वापस नहीं आया है और आ गया होता, तो आपके सामने ही उसके हाथ-पैर तोड़ता।’’ उन्होंने उन बुज़ुर्ग से कहा, ‘‘मैं अपने बेटे की इस गलती के लिए बहुत शर्मिन्दा हूँ और उसकी इस करतूत के लिए आपसे मा़फी माँगता हूँ।’’  पिताजी ने यह भी कहा कि ‘‘आने दो उसे घर, उसे ऐसा सबक सिखाऊँगा कि आज के बाद गांव की बहू-बेटियों की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देख पाएगा और आप देखना कल से उसका पढ़ना-लिखना, शहर जाना सब बंद।’’

      पिताजी की ऐसी बातें सुनकर बुज़ुर्ग को शायद बड़ी तसल्ली हुई थी और वे जाते-जाते पिताजी से यह कह कर गए कि ‘‘मुंशी जी बच्चे को ज्यादा मत मारना। अभी बच्चा है, बच्चों से गलती हो जाती है।’’ 

      लड़की के दादाजी जा चुके थे और मैं अंदर बैठा पसीने-पसीने हो रहा था। मैं मन ही मन सोच रहा था कि पिताजी अब मुझे अच्छे से धोएंगे। मैं उस घड़ी को खूब कोस रहा था, जिस घड़ी वह लड़की मुझे खेत में मिली थी। आँखें मीचे-मीचे मेरे मन में न जाने कैसे-कैसे भयावह विचार आ रहे थे।    

      पिताजी उसके बाद मेरे कमरे में नहीं आए। घर से खाना खाने का फरमान आ चुका था। पिताजी अन्य सदस्यों के साथ खाना खाने चले गए। किसी ने भी अन्दर झाँक कर नहीं देखा कि मैं भी अन्दर बैठा हूँ। न किसी ने मुझे बुलाया और न मैं खाना खाने गया। खाना लग गया होगा, तो पिताजी ने देखा कि मैं वहाँ नहीं हूँ। पिताजी घेर में आए और मुझे आवाज़ दी कि मैं खाना खाने चलूँ। 

      पिताजी आगे-आगे चल रहे थे और मैं पिताजी के पीछे ऐसे चल रहा था, जैसे कोई निरीह बकरी कसाई (पिताजी से क्षमा प्रार्थना) के साथ कटान के लिए खींच कर ले जाई जा रही हो। पिताजी घर के रास्ते में रुके, मेरी तरफ मुड़े और कहा - ‘‘बेटे, मेरे पास इज़्ज़त के अलावा कोई धन-दौलत नहीं है, मुझे दोबारा ऐसे शर्मिन्दा मत करवाना।’’ पिताजी की स्नेहासिक्त यह बात सुनकर मैं फूट-फूट कर रोया। जब से मैंने होश सम्भाला था, तब से उस दिन तक, मेरे जीवन का शायद यह पहला अवसर था, जब पिताजी ने मुझे अपने गले से लगाया। उन्होंने अपने कुर्ते के पल्ले से मेरे आँसू पोंछे और चुप कराकर घर ले गए। 

      घर के किसी अन्य सदस्य को इस घटना की जानकारी नहीं थी, लेकिन सभी अचंभित अवश्य थे कि पिताजी खाना छोड़कर मुझे बुलाने के लिए क्यों गए थे, क्या कारण था? पिताजी के स्वर्गवासी होने तक यह बात पिताजी ने शायद माँ को भी नहीं बताई थी।

      आज जब मैं इस घटना को शब्द दे रहा हूँ, तो सोचने मात्र से ही रह-रह कर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। मैं पिताजी के प्रति श्रद्धावनत हो जाता हूँ कि इतने बड़े अपराध की सज़ा ऐसी भी हो सकती थी? जिस सूझ-बूझ के साथ पिताजी ने उस समय काम लिया था, वह मेरे लिए अविस्मरणीय है। इस संस्मरण के लिखे जाने की पूरी यात्रा में मैं उन्हें अपने आसपास ही विद्यमान होने का अनुभव कर रहा हूँ।

(कृति पितृ स्मृति से साभार)





कश्मीर सिंह

जन्म स्थान : ग्राम - सरकड़ी शेख, जनपद - सहारनपुर (उ. प्र.)।                  
शैक्षिक योग्यता : एम. ए. (हिन्दी एवं अंग्रेजी साहित्य) सी. ए. आई. आई. बी.। 
कविता संग्रह ‘भूख का व्याकरण’ प्रकाशित।
सम्प्रति : सहायक महाप्रबंधक, इण्डियन ओवरसीज बैंक,  नोडल लेखा परीक्षा कार्यालय, हैदराबाद (तेलंगाना)   
संपर्क : ‘आशीर्वाद’ 55, न्यू गोपाल नगर, नुमाइश कैंप, सहारनपुर -247001 
मोबाइल : 79739 72845


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

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कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय