प्रेमचंद की मशहूर कहानी 'पंच परमेश्वर'
बिगाड़ के आगे ईमान
की परवाह
सुनील कुमार प्रसून
भारत के महान लेखकों की कोई भी सूची प्रेमचंद के बिना पूरी नहीं होगी। आख़िर वे कौन से कारक हैं,
जो किसी लेखक को महानता के विशाल भव्य प्रांगण में स्थापित कर देते हैं।
दुनियाभर में हजारों वर्षो से रचना की विशिष्टता या
अतिविशिष्टता के रेखांकन के प्रयास होते रहे हैं। लेकिन अंतिम रूप से यह प्रश्न शेष
ही रह जाता है कि आखिर रचनाओं की महानता का रहस्य क्या है? कई बार तो रचना की
महानता का कीर्तिगान शब्दातीत मानकर किसी तरह काम भर चलाया जाता है; कुछ-कुछ अंधे और हाथी
वाली बाल कहानी की तरह।
प्रेमचंद के साहित्य को कोई पसंद करे, प्रश्नांकित करे - यह तो हो सकता है; लेकिन उसकी
उपेक्षा न पहले संभव थी और न अब। कहा जाता है कि देखनेवाले का
दृष्टिकोण बहुत मायने रखता है कि वह खड़ा
कहाँ पर है। यह माना जाता है कि सुंदरता देखने
वाले की आँखों में होती है। इस बात से भले ही कोई असहमत हो, लेकिन जब दृश्य ही
धुंधला-सा हो, ऐसे में देखनेवाले की आँखें क्या ही कर लेंगी। प्रेमचंद का रचना-संसार दूर किसी निराली दुनिया का कोई जादुई आकाशकुसुम नहीं है। किसी की दृष्टि-परिधि में जब यह
आता है, कुछ न कुछ अपूर्व, अनूठा हाथ लगता है; हिवड़े (मन) की तिस्स (प्यास) मिटती है। न जाने
कितने ही दृष्टिकोणों से, कितने ही संदर्भों
में, कितने ही तरह से प्रेमचंद- साहित्य पर लिखा जा चुका है। फिर भी उसके पाठ पीढ़ी दर पीढ़ी होते हैं।
निस्संदेह आगे भी यह सिलसिला अक्षुण्ण ही रहेगा। कारण कि प्रेमचंद प्रासंगिक बने
रहते हैं; चुनौती देते हैं, प्रेरित करते हैं।
अक्सर ही कोई अपनी उलझनों के बीच सिर-माथे के अंधेरे को दूर करने के लिए उनकी
जलती मशाल के पास जाता है तो कोई कला-सृजन के क्षणो में उनकी अजस्र पीयूषधारा
से अपनी मानस भूमि सींचता है। कहने का आशय है कि प्रेमचंद के लेखकीय आकर्षण के कई
पहलू हैं; उनमें मनुष्यता का
पहलू आधारशिला के रूप में अवस्थित है।
प्रेमचंद की पिछली सदी में मनुष्यता के मृतप्राय होने का साक्ष्य देते
हुए गालिब कहते हैं - ‘’आदमी को भी मयस्सर
नहीं इंसाँ होना’’। गालिब ‘आदमी’ और ‘इंसाँ’ का फर्क साफ़ निगाह
से देख रहे थे-लिहाजा ऐसा कह सके। असल में 'आदमी' से 'इंसाँ' होने की मनुष्य की संघर्षमयी यात्रा
निर्णायक पड़ावों से गुजर कर अपराजेय हुई थी। प्रेमचंद के ज़माने में डॉ. अंबेडकर भी
इस यात्रा को सधी हुई दृष्टि से परखते हैं और वे लॉर्ड बेलफोर के कथन (डॉ. अंबेडकर की
मशहूर कृति ‘एनीहिलेशन ऑफ कास्ट’में उद्धृत) के साथ अपनी पूरी
सहमति प्रकट करते हैं कि अब मनुष्य का मस्तिष्क सच तलाशने वाला यंत्र नहीं रहा है; वह सूअर की थूथन
में बदल गया है और स्वार्थवश खाद्य-अखाद्य की सभी हदें पार कर चुका है।
प्रेमचंद ‘ज़माना’ अख़बार में
प्रकाशित होते थे, अपने ज़माने की
हक़ीक़तों से अनजान नहीं थे। वे जानते थे कि मनुष्य जीवन के लिए जो कुछ सुंदर, शुभ व सत्य है; उसका अनवरत क्षरण
हो रहा है। इस बिन्दु पर वे क्या सोचते रहे होंगे? उनके साहित्य के अवलोकन से सहजता से जाना जा सकता है। वे बतौर एक
रचनाकार मनुष्यता के इस संकट को चुनौती के रूप में लेते हैं और इसके बरअक्स अपना एक
रचनात्मक ‘यूटोपिया’ प्रस्तुत करते
हैं। यदि कायदे से देखें तो उनका अधिकांश साहित्य मनुष्यता को बचाने का एक महती
उपक्रम है। दूसरे शब्दों में कहें तो उनका जीवन और साहित्य संभाव्य मनुष्यता का
पक्षधर है। उनके इस ‘यूटोपिया’ में ‘न्याय का प्रश्न’ सघन रूप से
अंतर्निहित है। उनकी साहित्यिक पत्रिका के नामकरण के प्रसंग पर भी गौर करें तो उनके
द्वारा किए गए ‘हंस’ नामकरण में हंस की नीर-क्षीर-विवेक की कसौटी ही
रही लगती है। अकारण नहीं कि प्रसिद्ध कहानी ‘पंच-परमेश्वर’ में वे खाला से कहलवाते हैं – “क्या बिगाड़ के डर
से ईमान की बात न कहोगे?” एक प्रकार से यह
पंचलाइन सरीखा वाक्य उनके समूचे साहित्य का एक परिचायक सूत्र माना जा सकता है, जिससे उनकी
मनुष्यधर्मिता का ताना-बाना समझा जा सकता है। यह छोटा-सा, सरल-सा वाक्य हिन्दी भाषा का गौरव संवाद है। असल में महान रचनाकारों में ही यह सामर्थ्य होता है कि वे सहज, सरल-से शब्दों को भी
सूक्ति या मंत्र में रूपांतरित कर देते हैं। निस्संदेह ‘पंच परमेश्वर’ न्याय के
सार्वकालिक प्रश्न पर हिन्दी साहित्य की एक अविस्मरणीय धरोहर है।
प्रेमचंद की बहुत-सी रचनाएँ, जो अपने प्रकाशन काल में ‘मास्टरपीस’ के रूप में मशहूर
रही हैं, उनमें ‘पंच-परमेश्वर’ का भी नाम लिया
जाता है। इस कहानी से प्रेमचंद ‘प्रेमचंद’ क्यों हैं, इसका सूत्र समझ
सकते हैं। यह आज से 100 साल पहले लिखी गयी थी। वैसे पूछा जा सकता
है कि सालों के बदलने से क्या बदल जाता है? प्रत्युत्तर में कथित भौतिक विकास की स्तुतिपरक गाथा मिल सकती है। पर
मनुष्य के आत्मिक स्तर की संवेदन यात्रा कहाँ पर पहुंची? हालांकि ख़ालिस
कहानी पढ़ते हुए अधिकतर लोग अपने को तुष्ट कर सकते हैं कि ‘पंच-परमेश्वर’ का मामला उनके
हिस्से का सच नहीं है। जबकि हम थोड़ा भी ध्यान से देखें तो इस कहानी का सच हमारे
चारों तरफ बिखरा पड़ा है। जीवन के अनेक कार्य-व्यापारों के
संदर्भों में ‘बिगाड़ का डर’ भयभीत करता रहता
है, पीछा करता रहता
है। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो पूरी दुनिया में स्वार्थों के वशीभूत होकर एक-दूसरे के हित लूट
लेने की महामारी फैली हुई है। नतीजतन बिगाड़ के डर या प्रलोभन के पीछे ईमान दफ़न हो
जाया करता है।
वास्तव में बिगाड़ के डर के आगे ईमान की परवाह एक समस्यामूलक कालातीत
नैतिक प्रश्न है। रामायण में जब सीता का निर्वासन किया जाता है तो अयोध्या के सारे
नगरवासियों ने अपना बिगाड़ बचा लिया और निर्वासन के औचित्य पर एक महाचुप्पी ओढ़ ली
थी। महाभारत में द्रौपदी चीर-हरण के दौरान बड़े-बड़े राज सभासद अपना
बिगाड़ बचाते दिखते हैं। आधुनिक इतिहास को देखें तो महात्मा गांधी विभाजन के सवाल
पर ईमान की परवाह करते हैं, ‘अपनों’ से बिगाड़ मोल लेते
हैं; अंतत: मारे जाते हैं।
बिगाड़ और ईमान का द्वंद्व नया नहीं है। यह सार्वकालिक व सार्वभौमिक है।
इटली में अंजिलो और राफेल दो प्रसिद्ध कलाकार हुए थे। दोनों में भयंकर ईर्ष्या थी।
एक रईस आदमी ने चर्च की दीवार पर भित्ति-चित्र बनाने के लिए
राफेल को अग्रिम राशि के साथ ठेका दिया था। काम पूरा होने पर बकाया राशि देने की
जगह रईस ने आनाकानी की। विवाद सुलझाने के लिए रईस ने राफेल के प्रतिद्वंदी अंजिलो
को ही निरीक्षक चुना ताकि बकाया देना न पड़े। लेकिन अंजिलो ने ईमानदारी से कहा कि
बकाया देना पड़ेगा क्योंकि चित्रकारी सुंदर और सर्वोत्तम बनी है। इस प्रकार के ईमान
की प्रतिष्ठा की अनेक मिसालें देश-दुनिया में देखी जा सकती हैं। लेकिन कहना न
होगा कि इसके मुक़ाबले ईमान की परवाह न करने की मिसालें सदैव-सर्वत्र ज्यादा रही
हैं- भले ही कभी बिगाड़ के पीछे डर हो या प्रलोभन। जीवन के सभी सामाजिक-व्यवसायिक
संदर्भों में ईमान का सवाल जब-तब सामने आ खड़ा
होता है।
दरअसल ‘पंच-परमेश्वर’ में खाला का
उलाहना पूरी कहानी की जान है। यह वह कुंजी है, जहाँ कहानी पूरी तरह से खुल जाती है।
प्रेमचंद का मंतव्य हमारे सामने मूर्त हो जाता है - क्या बिगाड़ के डर
से ईमान की बात नहीं कहनी चाहिए? एक स्तर पर ऐसा
लगता है कि मानो वे अलगू चौधरी की जगह हमारे असमंजस के आयतन पर हथौड़ा मार रहे हैं - एक छोटा-सा नीतिगत प्रश्न
पूछकर।
पूरी कहानी नैतिक साधना का आदर्श रूप लेकर चलती है। प्रेमचंद नैतिकता की
आदर्श भूमि पर समाधान देने के लिए जाने जाते रहे हैं। यानी नीति पर बने रहो।
नीतिपरक सुवाक्य - सुविचार विषयक विविध तरह के ग्रंथों की न
पहले कमी थी और न ही अब। बच्चों के
स्कूलों में आज भी नीतिपरक शिक्षा का बंदोबस्त अच्छा-खासा रहता है। पर
लाख कोशिशों के बाद भी नीति की डगर सीधी मालूम नहीं पड़ती है। प्रेमचंद के साहित्य
में कई बार कथा के प्रयोजनार्थ अनेक नीतिपरक सुवाक्य, सुविचार
व सूक्तियाँ आती हैं। प्रस्तुत कहानी में खाला का प्रश्न जिस जगह आता है, वहाँ वे
सीधे तौर पर कोई अतिरिक्त नीति वाक्य देते प्रतीत नहीं होते हैं। यह वाक्य कथाक्रम
में आता है और कथानक निर्णायक रूप से आगे बढ़ जाता है। खाला के प्रश्न के उत्तर के
क्रम में पूरी कहानी बुनी जाती है।
कहानी का सार इतना ही तो है कि दो गाढ़े मित्र हैं। परिस्थितियों के कारण वे
एक दूसरे के पंचायती मामलों में सरपंच बनते हैं। जुम्मन शेख को पूरा विश्वास है कि
अलगू चौधरी, तो मित्र होने के
नाते उसके पक्ष में ही फैसला देगा; और हम देखते हैं
कि फैसला जुम्मन के खिलाफ़ आता है। परिस्थितियाँ बदलने पर अबकी बार जुम्मन भी सरपंच
बनता है; अलगू सोचता है कि
चूंकि जुम्मन प्राण-घातक शत्रु बन चुका है, फैसला उसके पक्ष
में नहीं देगा। लेकिन इस बार हम देखते हैं कि फैसला अलगू के पक्ष में आता है। इस
प्रकार कहानी में दो पंचायतें क्रमश: बैठती हैं, एक ही नीतिगत प्रश्न – ईमान के लिए।
दोनों मित्रों के दुनियादार होने बारे में प्रेमचंद बताते चलते हैं - ‘’पंचायत में किसकी
जीत होगी, इस विषय में
जुम्मन को कुछ भी संदेह न था। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, जो उसके अनुग्रहों
का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु
बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर
सके? आसमान के फरिश्ते
तो पंचायत करने आवेंगे नहीं।‘’ यानी जुम्मन अच्छा
खासा रसूख़दार आदमी है तो इधर अलगू चौधरी की भी हैसियत कुछ कम नहीं है। वह भी एक
दर्जेदार कानूनी आदमी है, हमेशा उसका कचहरी
से काम पड़ता रहता है। खाला दोनों की
दोस्ती से वाकिफ़ है। ‘’कई दिन तक बूढ़ी
खाला हाथ में एक लकड़ी लिये आस-पास के गाँवों में दौड़ती रहीं। कमर झुक कर
कमान हो गयी थी। एक-एक पग चलना दूभर था; मगर बात आ पड़ी थी।
उसका निर्णय करना जरूरी था।‘’ इसके बावजूद अलगू
के यहाँ याचना के साथ पहुंची - “ बेटा, तुम भी दम भर के
लिए मेरी पंचायत में चले आना।‘’ इस पर अलगू का
दुनियादारी जवाब देखिए -“यों आने को आ
जाऊंगा; मगर पंचायत में
मुँह न खोलूंगा” यहाँ कोई पूछ सकता है कि जब खाला ने
रजिस्ट्री तक करवा रखी थी तो विवाद होने पर वे पंचायत की जगह कचहरी में क्यों नहीं
गईं? ऐसा प्रतीत होता
है कि प्रेमचंद कचहरी की कार्यवाहियों की जटिल कार्य-प्रणाली, बेशुमार ख़र्चे व
जाया होने वाले वक्त को भली-भांति समझते हैं। कहानी का भी कहन है कि
खाला के पास तो गुजारा का ज़रिया तक नहीं बचा था। गाँव में खाला रहती हैं, उनके लिए पंचायत ही
सुलभ है और यह विश्वास भी है कि दीन-ईमान पंचों में होता है। संभव है तब
प्रेमचंद मानते रहे हों कि पंचायतें भ्रष्ट फैसले नहीं दे सकती हैं। लेकिन
प्रेमचंद के ज़माने की ऐसी पंचायतें आज के ज़माने में स्वप्न ही हैं। पंचायतें अक्सर
गाँव-देहात में कभी ‘हुक्का-पानी बंद’, तो कभी ‘मुंह काला’ जैसे अन्यायपूर्ण
फरमान सुनाती देखी जा सकती हैं। ये फरमान लोकतान्त्रिक शासन के दौर में अवांछित
कलंक की तरह हैं। लोग पंचायतों से जैसे-तैसे निपटकर कोर्ट
की लंबी कतार में खड़े हो जाने के लिए मजबूर होते हैं। और फिर शुरू होता है कभी न ख़त्म होने वाला इंतज़ार।
प्रेमचंद ने न केवल ग्रामीण जीवन को नज़दीक से देखा था, बल्कि उसे जिया-भोगा भी था। उनकी
कहन की शब्दावली में ग्रामीण यथार्थ अनायास आता है - “देहात का रास्ता
बच्चों की आँख की तरह साँझ होते ही बंद हो जाता है।‘’ आज भी देश के अनेक गांवों के अंधेरे रास्ते शाम के समय इस सच्चाई को
झुठलाते नहीं है। प्रेमचंद ग्रामीण जीवन का समग्र यथार्थ प्रस्तुत करते हैं - “बिरला ही कोई भला
आदमी होगा, जिसके सामने
बुढ़िया ने दुख के आँसू न बहाये हों। किसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-हाँ करके टाल दिया, और किसी ने इस
अन्याय पर जमाने को गलियाँ दीं।... कुछ ऐसे सज्जन भी थे, जिन्हें हास्य-रस के रसास्वादन का
अच्छा अवसर मिला।... ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत
कम थे, जिन्होंने उस अबला
के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो।‘’ सकारात्मक किस्म
के सहयोगी पहले भी कम होते थे और आज भी दुर्लभ हैं। कोर्ट-कचहरी के मामले तो
छोड़िए सामान्य मामलों में भी किसी से थोड़ा सहयोग मांगकर देखिए - मानो सच्चाई की परत
हाथ पर उतर आएगी। लोग अक्सर उदासीन हो लेते हैं, मुँह मोड़ लेते हैं। जिस तरह खाला को समर्थन जुटाने में समस्या आई थी, उसी
प्रकार से जुम्मन शेख को भी आई -‘’फर्श की एक-एक अंगुल ज़मीन भर
गयी; पर अधिकतर दर्शक
ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से
अपनी कुछ कसर निकालनी थी।‘’ जुम्मन होंगे रईस-रसूखदार पर गाँव
में और भी उनके मुक़ाबले के लोग हैं जो पंचायत में तमाशा देखने पहुँचते हैं और
अनिष्ट चाहते हैं। इसी प्रकार आगे जब हम देखते हैं कि जब अलगू अपना जायज बकाया
मांगने जाते हैं तो समझु साहू और उसकी पत्नी अच्छी-ख़ासी खरी-खोटी सुनाते देते
हैं - ‘’ वाह! यहाँ तो सारे जन्म
की कमाई लुट गयी, सत्यानाश हो गया, इन्हें दामों की
पड़ी है।‘’ यानी गाँव का
माहौल कोई ईमान की दृष्टि से निरापद नहीं हैं। प्रेमचंद की दृष्टि में सब के सब आ
रहे हैं और उनकी कूटनीतियाँ भी। ऐसा लगता है कि कहानी के पात्र-चित्रण में
प्रेमचंद कोई गुंजाइश छोड़ना नहीं चाहते हैं। जुम्मन के माध्यम से एक भद्रपुरुष की
मनोदशा का दृश्य देखिए - “यह फैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे में आ
गये। जो अपना मित्र हों, वह शत्रु का
व्यवहार करे और गले पर छुरी फेरे, इसे समय के हेर-फेर के सिवा और
क्या कहें? जिस पर पूरा भरोसा
था, उसने समय पड़ने पर
धोखा दिया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे मित्रों की परीक्षा की जाती है। यही
कलयुग की दोस्ती है। अगर लोग ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो देश में
आपत्तियों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा-प्लेग आदि
व्याधियाँ दुष्कर्मों के ही दंड हैं।‘’ जुम्मन के इस आहत मनोजगत को देखकर लगता है कि उसका कलेजा ही हिल गया है
तथा सारी शिक्षा व जीवनानुभव सूखे घड़े की तरह रीत गए हों। कहना न होगा कि प्रेमचंद
के लिए गाँव कोई अतीतजीविता (नॉस्टैल्जिया) का विषय नहीं है, जो कोई पुण्य
रंगभूमि हो।
कहानी का अंत इस बिन्दु पर होता है कि मित्रता की मुरझाई हुई लता फिर
हरी हो गयी। ऊपर से देखने पर लगता है कि यह कहानी दो भिन्न धर्मों (हिन्दू-मुसलमान) के व्यक्तियों की
मित्रता के बारे में है। यह कहानी इस प्रकार भारतीय समाज की मिली- जुली संस्कृति
प्रस्तुत करती है। दो भिन्न संप्रदाय के व्यक्तियों में मेल-मिलाप से लेकर आपसी
झगड़े भी रहते हैं। जीवन साझे रूप से सामाजिक समीकरण में जुड़ा हुआ है। प्रेमचंद
स्थापना देते हैं कि दोस्ती के लिए एक धर्म के लोग होना जरूरी नहीं बल्कि केवल
विचार का मिलान मित्रता का मूल मंत्र है। यानी कहानी में मित्रता पर बल तो है लेकिन
मित्रता के ओटे में ‘अनकहन’ है - बिगाड़ के डर के
सामने ईमान का प्रश्न। यह ‘अनकहन’ ‘कहन’ पर भारी पड़ता
दिखता है। दो मित्रों की यह कहानी हिन्दी की कालजयी रचना बन जाती है।
हृदय-परिवर्तन के लिए प्रेमचंद जाने जाते
हैं। लेकिन खाला, अलगू चौधरी को
सचेत करती हैं कि मित्रता के लिए न्याय को ताक पर मत रख देना। क्या इस तकाजे मात्र
से अलगू का हृदय परिवर्तित हो जाता है? जी हाँ, इस कहानी में हो
जाता है। जबकि ऐसे तकाजे जीवन में कभी न कभी सबको मिलते हैं, लेकिन क्या सबका
हृदय-परिवर्तन हो पाता है? ऐसा होना बिलकुल
नामुमकिन-सा लगता है। इस 'ट्रीटमेंट' के कारण इस कहानी
को कमजोर माना जाता रहा है। पर भले ही प्रेमचंद के 'ट्रीटमेंट' का यह तरीका आज के
समय में कारगर न दिखता हो, ठीक न लगता हो पर
एक ‘संभाव्य घटित
समाधान’ तो है ही। यह
कहानी उनकी शुरुआती दौर की होकर भी अपने
गठन में कोई कमतर नहीं है। असल में, प्रेमचंद हृदय-परिवर्तन को एक ‘टूल’ की तरह प्रयोग में
लाते हैं। यह उनके यूटोपिया का ‘टूल’ है। प्रेमचंद की
यह कहानी आदर्शवाद के ढांचे पर है - सारे यथार्थ एक तरफ और आदर्श अंत दूसरी
तरफ। उनकी कई कहानियाँ इसी आदर्शोन्मुख शैली पर हैं। ऐसा लगता है कि एक प्रकार से
यह उनका मनुष्यता के बचाने-संवारने का ही उपक्रम है।
जुम्मन ने लंबे-चौड़े वादे करके बूढ़ी खाला की मिल्कीयत अपने
नाम लिखवा ली थी। रजिस्ट्री न होने तक तो खाला जान का ख़ूब आदर-सत्कार, ख़ूब स्वादिष्ट
भोजन की वर्षा-सी की गयी; पर रजिस्ट्री के बाद सारी खातिरदारियाँ बंद हो गईं। संबंध तार-तार हो गया। अंत
में गुजर-बसर के लिए खाला के कुछ माँगने पर जुम्मन ने यह कड़वा और जहरीला जवाब दिया - “तो कोई यह थोड़े ही
समझा था कि तुम मौत से लड़कर आयी हो?” प्रेमचंद के समय की यह समस्या आज तक ज्यों की
त्यों बनी हुई है। हम देखते हैं कि ज़मीन-जायदाद के सवालात
कितने ही बुजुर्गों की दयनीय दशा के कारण बनते हैं। उनकी ज़िंदगी नरक हो जाती है और
वे ज़िंदा लाश बनकर रह जाते हैं।
प्रस्तुत कहानी की विषय-वस्तु न्याय तंत्र की कार्य प्रणाली पर
आधारित है। न्याय तंत्र काम कैसे करता है, इसकी कार्यवाही भी प्रेमचंद दिखाते चलते हैं। बिल्कुल आज की अदालती
कार्यवाहियों की तरह - एक बार में केवल एक ही मुद्दे की सुनवाई न
कि संबंधित अन्य मामलों की। बैल की मृत्यु लापरवाही से होने के आरोप पर जुम्मन बोले
– “यह दूसरा सवाल है! हमको इससे मतलब नहीं!”
दूसरी पंचायत पहली पंचायत के ‘कांट्रास्ट’ में है। इसमें
जुम्मन सरपंच बनते हैं, लेकिन मौका मिलने
पर भी अलगू से अपना पुराना हिसाब बराबर नहीं करते हैं। इस बार प्रेमचंद दिखाते हैं
कि जुम्मन बिगाड़ का बिलकुल प्रलोभन नहीं करते हैं। फैसले की प्रतिक्रिया का दृश्य
देखिए - ‘‘अलगू फूले न समाये।
उठ खड़े हुए और ज़ोर से बोले पंच परमेश्वर की जय।‘ कहानी निर्णायक रूप से यह स्थापित करती है- 'पंच' में 'परमेश्वर' वास करते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं –‘’पंच के पद पर बैठकर न कोई किसी का दोस्त होता है, न दुश्मन। न्याय
के सिवा उसे और कुछ नहीं सूझता।...पंच के जबान से
खुदा बोलता है।“ प्राय: अनेक धर्म-संप्रदायों में
न्यायाधीश की कल्पना ईश्वर के रूप में की गई है। आधुनिक न्यायालयों तक में ‘माई लॉर्ड’ इसी कारण कहा जाता
रहा। हालांकि यहाँ प्रेमचंद कोई नया सिद्धांत प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं।
न्यायशास्त्र की तमाम परंपराओं में पंच 'परमेश्वर' ही रहे हैं। यह कहानी पंच-परमेश्वर यानी
न्याय तंत्र की महत्ता और गंभीरता स्थापित करती है। प्रेमचंद मानते हैं कि पंच का
नैसर्गिक कर्तव्य एक गुरु- गंभीर दायित्व है। वे इस निर्णय पर कैसे
पहुँचे? इसका उल्लेख भी
कहानी में करते हैं - ‘’अपने उत्तरदायित्व
का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर
भटकने लगते हैं, तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता
है।‘’ हालांकि वास्तविक
जीवन में ऐसा होना एक आदर्श भूमि पर पहुँचना है। अन्याय की अंधेरगर्दी का खात्मा
होना है। कहा जा सकता है कि प्रेमचंद न्याय की संभाव्यता की प्रस्तावना प्रस्तुत कर
रहे हैं कि न्याय तंत्र को इस लाइन पर चलना होगा।
ऐसा क्यों है कि खाला का प्रश्न अलगू चौधरी को ‘हांट’ करता है? और वह एक
न्यायपूर्ण फ़ैसला दे देता है। हम जीवन को स्याह और सफ़ेद (सकारात्मकता व
नकारात्मकता) की ‘बाईनरी’ में देखने के आदी
हैं। न्याय के लिए संघर्ष बचपन से शुरू हो जाता है - ‘सही’ की मांग करना और ‘गलत’ को अस्वीकार करना।
हम ‘सही’ को ‘सही’ कहें, ‘गलत’ को ‘गलत’ कहें; असल में यही तो
मनुष्यता है। वस्तुत: मानुष धर्म का आधार न्याय है। मनुष्य सभ्यता न्याय की धुरी पर ही खड़ी हो
सकती है। लेकिन स्वार्थ का मिश्रण जब न्याय में हो जाता है तो अन्याय पैदा होता
है। न्याय की हत्या हो जाती है। पंच परमेश्वर की जय हो, इसलिए न्याय होना और दिखना
जरूरी है। न्याय तंत्र में लोगों का विश्वास बने रहना जरूरी है। हम देखते हैं, जब
न्यायालय के फैसले संदिग्धता के कठघरे में आते हैं, सीधे-सीधे अन्याय होता है। अन्याय के दूरगामी
परिणाम होते हैं और एक दिन इस प्रकार अन्यायी सत्ता-प्रतिष्ठानों के
नष्ट हो जाने की नियति तय हो जाती है। इस कहानी
में न्याय केवल सतही संवेदना या दया मात्र का प्रतीक नहीं है; बल्कि यह पीड़ित के
पक्ष में तथ्यों को संवेदना भूमि पर ले जाकर न्याय तंत्र की कसौटी को सही से अमल में
लाना है। कुल मिलाकर, यह कहानी प्रेमचंद
की मनुष्यधर्मिता का ताना-बाना प्रस्तुत करती है। अपने पाठक के सामने बिगाड़ के आगे
ईमान की परवाह की चुनौती खड़ी कर देती है – “क्या बिगाड़ के डर
से ईमान की बात न कहोगे?”
***
सुनील कुमार प्रसून
जन्म स्थान : फतेहपुर शेखावाटी, ज़िला- सीकर, राजस्थान
शिक्षा एवं परवरिश : दिल्ली में
मध्यकालीन साहित्य पर दिल्ली विश्वविद्यालय से पीएच.डी.
पुस्तक : प्रख्यात साहित्यकार : जन्मशती संदर्भ
अध्यापन : - दिल्ली विश्वविद्यालय के दयाल सिंह कॉलेज में लगभग पाँच वर्ष
संप्रति : पीएसबी के बीकानेर केंद्र में राजभाषा अधिकारी
ई-मेल
skmanas09@gmail.com