काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

 

बिपिन तिवारी

बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्रेम में पागल थे नेहरू, कश्मीर समस्या की जड़ थे नेहरू, क्या नेहरू मुसलमान थे, नेहरू-गांधी के बीच विवाद की जड़, गांधी ने पटेल की जगह नेहरू को प्रधानमंत्री बनाया होता तो आदि। ऐसे और भी जवाब आपके पास हो सकते हैं। ऐसे में आपके दिमाग में नेहरू के प्रति नफरत पैदा हो जाना स्वाभाविक है। चूंकि आपका आधिकतम खाली समय सोशल मीडिया पर बीतता है। इसलिए आपके पास सोशल मीडिया पर प्रसारित सनसनीखेज खबरें ज्ञान के रूप में मौजूद हैं। वह ज्ञान कितना प्रामाणिक है, इसके बारे में आप कभी विचार करने की जहमत नहीं उठाते। एक बात यह भी है कि यह ज्ञान किसी एक चैनल पर नहीं प्रसारित किया जाता बल्कि अधिकतम चैनल इसी तरह की सामग्री प्रसारित करने में होड़ दिखाते हैं। आप सरकारी और गैर सरकारी का यहाँ फर्क नहीं कर सकते। लेकिन कुछेक लोग सोशल मीडिया पर ऐसे भी हैं जो अपने को इससे बचाकर रखते हैं। सही तथ्यों के आधार पर सामग्री प्रसारित करते हैं। कुछ वेबसाइट्स तो नेहरू, गांधी को लेकर मौसम के हिसाब से झूठी कहानियाँ गढ़कर प्रसारित करती हैं। ऐसे में जब कुछ किताबें नेहरू पर आती हैं तो सीमित लोगों के बीच ही सही मगर नेहरू की दूसरी छवि बनती है। इनमें पुरुषोत्तम अग्रवाल की 'कौन है भारतमाता', सुधीर विद्यार्थी की 'नेहरू और क्रांतिकारी', शुभनीत कौशिक की 'राज्य संस्कृति और राष्ट्रनिर्माण - नेहरू का भारत', पीयूष बवेले की 'नेहरू - मिथक और सत्य', पंकज चतुर्वेदी की 'जवाहरलाल हाज़िर हों' आदि। इन सबके बीच नेहरू पर एक किताब इतिहासकार आदित्य मुखर्जी की पेंगुइन स्वदेश इंडिया से प्रकाशित हुई है। किताब का शीर्षक है 'नेहरू का भारत - अतीत, वर्तमान और भविष्य'। इस किताब का अनुवाद इतिहासकार आलोक बाजपेयी ने किया है। यह किताब पहले अंग्रेजी में 'नेहरुज़ इंडिया - पास्ट, प्रजंट एण्ड फ्यूचर' शीर्षक से पेंगुइन इंडिया से प्रकाशित हुई थी। आदित्य मुखर्जी ने इस किताब में नेहरू को लेकर प्रचलित झूठों की तथ्यों के साथ सच्चाई बयान की है। आदित्य मुखर्जी बिपन चन्द्र स्कूल के इतिहासकार हैं और इसका असर किताब पर साफ तौर से देखने को मिलता है।  
         आज लोकतंत्र का जो रूप हमारे सामने है, उसमें भारत की उपलब्धियों को लेकर बहुत तरह के दावे किए जाते हैं। जबकि ये दावे सच्चाई से बहुत दूर हैं। भारत में लोकतंत्र किस तरह का बचा है, इसे हम लोकतंत्र का मूल्यांकन करने वाली कुछ रिर्पोट्स से देख सकते हैं। आदित्य मुखर्जी इन रिर्पोट्स का हवाला देते हैं। स्वीडन का वी-डेम इंस्टीट्यूट, अमेरिका का फ्रीडम हाउस और द इकोनॉमिस्ट का ईआईयू (इकॉनोमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट) जैसे अंतरराष्ट्रीय संस्थान जो कि लोकतंत्र सूचकांक (इंडेक्स) बनाते हैं, वे अब भारत को एक पूर्ण लोकतंत्र नहीं मान रहे हैं। कहा जा रहा है कि भारत में लोकतंत्र का पतन हो रहा है और इसे ‘आंशिक स्वतंत्र लोकतंत्र’, ‘त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र’ या यहाँ तक कि ‘चुनावी एकाधिपत्य’ कहा जा रहा है। इसलिए भारत को अब एक पूर्ण लोकतांत्रिक देश नहीं कहा जा सकता है। इसी मानक पर- यदि हम नेहरू के दौर में लोकतंत्र की छवि दुनिया में क्या थी- विचार करें तो बात स्पष्ट हो जाएगी। नेहरू के लिए लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता अपने में ही संपूर्ण मूल्य थे, जिन्हें किसी भी मकसद के लिए हल्का नहीं किया जा सकता था। नेहरू ने साफ घोषणा की, ‘मैं किसी भी चीज के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को नहीं छोड़ सकता।’ नेहरू आजादी के आंदोलन में तप कर निकले थे। इसलिए वह लोकतंत्र की कीमत जानते-समझते थे। नेहरू की इस सोच के पीछे महात्मा महात्मा गांधी की वैचारिकी थी। महात्मा गांधी ने एक बार ने कहा था - ‘नागरिक आजादी का अहिंसक होने से मेल है... (यह) आजादी की बुनियाद है। इसमें मिलावट या समझौता नहीं हो सकता। यह जीवन का जल है। मैंने पानी को फीका करने का नहीं सुना।’ नेहरू आजादी के बाद के दौर में इस विचार को पूरी तरह अपनाए रहे। नेहरू अपने पूरे कार्यकाल में लोकतंत्र को दिन प्रतिदिन मजबूत करते दिखाई देते हैं। इसके लिए वह कई मोर्चों पर सख़्त कदम उठाते हैं। चाहे वह सांप्रदायिकता का मुद्दा हो या फिर वैज्ञानिक सोच का। 16 अगस्त, 1947 को लाल किले के प्राचीर से अपने स्वतंत्रता दिवस के संबोधन में नेहरू ने हिंदुस्तान को लेकर अपनी सोच को स्पष्ट कर दिया। ‘सांप्रदायिक विवाद बर्दाश्त नहीं किए जाएंगे और यह भी कि भारत एक धर्म-निरपेक्ष राज्य होगा, न कि पाकिस्तान की नकल बनकर एक हिंदू राज्य।’ इसी भाषण में वह आगे कहते हैं - ‘सरकार का पहला काम (भारत की) धरती पर अमन-चैन बनाना और बनाए रखना होगा और सांप्रदायिक विवादों को कठोरता से कुचलना...यह कल्पना करना (भी) गलत होगा कि इस देश में कोई एक खास धर्म या संप्रदाय का राज होगा। वो सब लोग जो झंडे (राष्ट्रीय ध्वज) के प्रति निष्ठा रखते हैं उन्हें नागरिकता के समान अधिकार मिलेंगे, भले ही उनकी धर्म-जाति कुछ भी हो।’ आज इन दोनों सवालों पर विचार करने पर विपरीत तथ्य मिलते हैं। भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए लगातार प्रयास किये जा रहे हैं। इसीलिए संविधान से धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्द निकाले जाने की बात की जाती है। और कभी-कभी संविधान को पश्चिम से आयातित बताकर मनुस्मृति को संविधान की जगह रखने की वकालत भी की जाती है। भारत में पिछले दशेक वर्षों में अल्पसंख्यक समुदायों के साथ जो बर्ताव किया गया है, उससे भारत के धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होने पर सवाल खड़े हो रहे हैं। जिसकी झलक गाहे-बगाहे हुक्मरानों की विदेश यात्राओं में पत्रकारों के सवालों में दिख जाती है।
        1951-52 के आम चुनाव में भारतीय जनसंघ को करारी हार मिली थी। इससे नेहरू को लगा था कि सांप्रदायिक शंक्तियों को नेस्तनाबूत कर दिया गया है। नेहरू ने कहा था - ‘इन चुनावों से जो एक अच्छी बात निकलकर आई है, वह है सांप्रदायिकता के खि़लाफ़ हमारी सीधी लड़ाई और जीत...आखिरकार हम देख पाए हैं कि सांप्रदायिकता से डरने की जरूरत है और इससे समझौता करने की जरूरत नहीं है...जब हम इसके खिलाफ सीधे और ईमानदारी से लड़ते हैं, हम जीतते हैं। जब हम इससे समझौता करते हैं, हम हारते हैं।’ वह जानते थे कि जब तक सांप्रदायिक शक्तियों के प्रभाव को समाज में समाप्त नहीं किया जाएगा, तब तक हिंदुस्तान को गांधी की वैचारिकी के रास्ते पर नहीं बढ़ाया जा सकता। मार्च 1952 में ऑल इंडिया कांग्रेस कमेटी का प्रस्ताव नेहरू की सोच को प्रस्तुत करता है - ‘सांप्रदायिकता का विरोध करने की कांग्रेस की नीति पर मतदाताओं ने जो अपना जवाब दिया है, उस पर एआईसी गहरा संतोष व्यक्त करती है। हालांकि इस जवाब से कांग्रेसियों को नहीं सोचना चाहिए कि सांप्रदायिक शक्तियों का खतरा पूरी तरह खत्म हो गया है। सांप्रदायिक और विभाजनकारी प्रवृत्तियाँ अभी भी मौजूद हैं...उन पर लगातार निगाह रखनी है और उनसे लड़ना है, भले ही वो हिंदू, मुस्लिम, सिख या कोई और हों...एआईसी घोषणा करती है कि ऐसा कोई भी संगठन जो बुनियादी तौर पर अपने चरित्र या कार्य प्रणाली में सांप्रदायिक है, उसके साथ कांग्रेस का कोई भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष गठजोड़, सहयोग या मेल नहीं होना चाहिए।’ गांधी की हत्या के बाद सांप्रदायिकता के खिलाफ संघर्ष तो किया गया लेकिन एक समय बाद इस संघर्ष का स्वर बहुत प्रभावी नहीं रह गया। जिसके कारण समाज में सांप्रदायिक शक्तियों की स्वीकारोक्ति होने लगी। आठवें दशक तक आते-आते सांप्रदायिक शक्तियाँ राजनीति में एक हैसियत हासिल कर लेती हैं। आप नेहरू को यदि याद करें तो वह सांप्रदायिकता के खिलाफ राज्य की ताकत के साथ एक वैचारिक संघर्ष चलाने की बात पर जोर देते हैं। कहते हैं-‘इस घिनौनी सांप्रदायिकता को जड़ से उखाड़ने के लिए चलाना होगा। इसका धरती से नामोनिशान मिटाना होगा, जिससे यह फिर से जड़ न पकड़ सके। यह जहर...धरती पर फैल चुका है।’ नेहरू इस बात को बहुत शिद्दत से महसूस कर रहे थे कि समाज में सांप्रदायिक शक्तियाँ बहुत से रूपों में काम कर रही हैं। इसलिए चुनावों में हरा देने मात्र से इनका खात्मा नहीं हो सकता। अतीत में घटी घटनाओं से यही सबक भी मिला था। गांधी की हत्या जिस संगठन से जुड़े सदस्य ने की थी, उस संगठन में गांधी हत्या के बाद मिठाइयाँ बांटी गई थीं। इसके बाद इस संगठन पर प्रतिबंध भी लगाया गया था। नेहरू ने राज्य के मुख्यमंत्रियों को 5 फरवरी, 1948 को इस बारे में चिट्ठी लिखी थी- ‘ऐसा लगता है कि बहुत से लोगों की हत्याएँ करके और एक सामान्य अफरा-तफरी का माहौल फैलाकर एक खास समूह द्वारा सत्ता कब्जियाने के लिए बाकायदा तख्ता पलट की योजना बनाई गई। यह षड्यंत्र काफी बड़ा मालूम पड़ता है जो कि कई प्रांतों तक फैला हुआ है।’ आज नेहरू की बातों के प्रकाश में भारत में सांप्रदायिक शक्तियों की इतिहास को देखें तो अक्षरशः सत्य मालूम पड़ेंगी। नेहरू के बाद भारत की राजनीति ने सांप्रदायिकता की चुनौती को गंभीरता से लिया होता तो समाज में इतनी नफरत शायद न होती। नेहरू ने इस बात को समझा था कि हिंदुस्तान में जो हिंदू-मुसलमानों के बीच धर्म के आधार पर भेद करने का षड्यंत्र किया जा रहा है उसके पीछे कहीं न कहीं औपनिवेशिक इतिहासकार रहे हैं। 19 वीं सदी की शुरुआत में जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास को ‘तीन बड़े काल खंडों में बाँट दिया - प्राचीन या हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश काल।’ नेहरू का मानना था कि ‘इतिहास को इस तरह से बाँटना अवैज्ञानिक है...यह धोखे में डालने वाला है और गलत परिदृश्य देता है। यह शीर्ष पर होने वाले सतही बदलावों से ज़्यादा मतलब रखता है, बनिस्बत भारत के लोगों के राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक तरक्की में होने वाले बुनियादी बदलावों के।’ इस इतिहास लेखन में सिर्फ शासकों के धर्म को ध्यान में रखा गया है। जैसे अंग्रेजो के आगमन को ईसाई आक्रमण कहना या ब्रिटिश काल को ईसाई काल कहना गलत होगा, वैसे ही भारत पर मुस्लिम आक्रमण या भारत में मुस्लिम काल की बात करना गलत और भटकाने वाला है। नेहरू के इन विचारों में बहुत गहरी दृष्टि है। वह हिंदुस्तान की बुनियाद में छिपी भावना को देख रहे थे। इस विभाजन में भारत में अंग्रेजों के आगमन और मुसलमानों के आगमन को बराबर की श्रेणी में लाकर रख दिया। दोनों का हिंदुस्तान के साथ रिश्ता एक जैसा नहीं है। मुसलमान हिंदुस्तान में आने के बाद यहाँ रच-बस गए। यहाँ के लोगों के साथ अपने संबंध बनाए। बहुत कुछ उनसे लिया-दिया। हिंदुस्तान की संस्कृति समृद्ध हुई। जबकि अंग्रेज हिंदुस्तान में व्यापारी के रूप में आए और षड्यंत्र करके हिंदुस्तान पर अधिकार कर लिया। नेहरू ने 1933 में ही अंग्रेजों के चरित्र को बेहतरीन ढंग से विवेचित किया था। कहते हैं, ‘हजारों साल में बड़े-बड़े साम्राज्य हुए, लेकिन आधुनिक साम्राज्यवाद एक नई चीज है, जो पिछले अभी के सालों में पहली बार विकसित हुई है...लेकिन हममें से बहुत कम लोग इसके असली मायने समझ पाए हैं और अकसर इसे पुराना साम्राज्यवाद ही समझने की चूक कर बैठते हैं। जब तक हम इस नए साम्राज्यवाद को अच्छी तरह समझ नहीं लेते और इसकी जड़ों और शाखों को नहीं पहचान पाते, तब तक हम आज की दुनिया के हालातों को नहीं पकड़ सकते और न ही आजादी के लिए लड़ाई को ठीक से चला सकते है।’ अब आपको कोई गलतफहमी नहीं रह जाएगी कि ब्रिटिश हुकूमत का असली चेहरा क्या है। ब्रिटिश हुकूमत ने हिंदुस्तान पर अपने शासन को स्थिरता प्रदान करने के लिए हिंदू-मुस्लिम के बीच फूट डालकर आपस में लड़ाने के षड़यंत्र किये। हिंदुस्तान की जाति-व्यवस्था को मजबूत किया। एक समय तो रूढ़िवादी विचारों को संरक्षण भी दिया। ऐसे में मिल के इतिहास विभाजन की मंशा स्पष्ट हो जाती है।
       नेहरू कहते हैं कि आज कनेक्टेड हिस्ट्रीज का जमाना है। आज इतिहास में सामाजिक पहलू पर जोर दिया जा रहा है। वह कहते हैं - ‘आम आदमी की रोज़मर्रा की जिंदगियों पर ज़्यादा गहरी रिसर्च की जरूरत। जैसे, सौ या हजार साल पहले घरेलू बजट में...जो हमें कुछ एहसास दिला सके कि पिछले ज़माने में इंसानी जिंदगी कैसी थी।’ तभी इतिहास लेखन का उद्देश्य पूरा होगा। आज नेहरू की इस बात को सही साबित होते हुए हम देख रहे हैं। आज दुनिया में हो रही बड़ी घटनाओं का असर कमोबेश सभी पर पड़ता है। रूस-यूक्रेन युद्ध का असर दुनिया के दूसरे देशों पर भी पड़ा है। मगर अफसोस यह है कि आज औपनिवेशिक इतिहासकारों की धारणाओं को भारत के मुसलमानों पर लागू किया जा रहा है। उन्हें बाहरी बताकर उनसे मुक्ति की बात की जा रही है। ऐसे में मुसलमानों के पूजा-स्थलों के साथ समय-समय पर जो बर्ताव किया जाता है, वह हिंदुस्तान की साझी विरासत को दागदार करता है। तर्क यह दिया जा रहा है कि हम अपने अतीत का बदला लेकर रहेंगे। ऐसे में सदियों से अलग-अलग धर्म के लोग एक साथ रहने-बसने के बावजूद अपनी धार्मिक अस्मिता के साथ खड़े दिखाई देने लगते हैं। नेहरू ने यूरोपीय और खासतौर से यूनाइटेड किंगडम के इतिहासकारों के इतिहास को लेकर आगाह किया था। साथ में भारत के उन राष्ट्रवादी इतिहासकारों के इतिहास से भी सचेत किया था। ‘इसकी प्रतिक्रिया में हमारे इतिहासकार कुछ ज़्यादा ही आगे निकल गए हैं...एक राष्ट्रवादी इतिहास है जो तगड़े राष्ट्रवादी पूर्वाग्रह से शुरू करके अन्य बातों को नजरअंदाज कर हर उस चीज की तारीफ़ करता है, जो राष्ट्रीय है।’ नेहरू कहते हैं, ऐसे राष्ट्रवादी इतिहासकार हिंदुस्तान के अतीत में स्वर्णयुग की कल्पना करते हैं। ऐसे इतिहासकार हर देश में पाये जाते हैं। यानी हिंदुस्तान के लोगों को दोनों तरह के इतिहासकारों से बचने की जरूरत है। आज राष्ट्रवादी इतिहासकारों के इतिहास की बाढ़ आयी है, जहाँ हिंदुस्तान के बारे में मनगढंत कहानियाँ इतिहास के नाम पर लिखी जा रही हैं। इतिहास लेखन की इस धारा में अभी एक धर्म के खिलाफ बहुत सी कहानियाँ बुनी जा रही हैं, लेकिन आगे चलकर कोई और समुदाय इस स्थिति में खड़ा कर दिया जाएगा। हिंदुस्तान का इतिहास मिली-जुली संस्कृति का रहा है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण भक्ति आंदोलन है। वहाँ राम-कृष्ण किसी धर्म विशेष से जुड़े कम, लोक आख्यान का हिस्सा ज़्यादा लगते हैं। मुगल काल में भी इसकी बड़ी मिसालें आपको देखने को मिल जाएंगी। लेकिन जैसे ही हम जेम्स मिल के इतिहास के आधार पर मुसलमानों को देखते हैं तो वैसे ही वे हमें विदेशी दिखाई पड़ने लगते हैं। और आगे फिर उन्हें इसी कड़ी में आक्रांता, नरसंहारक आदि भी कहा जाने लगता है। ऐसे में समाज में विद्वेष की भावना बढ़ती है। और हिंदुस्तान की साझी विरासत वाली छवि पर दाग दिखने लगते हैं। आदित्य मुखर्जी की इस किताब में ऐसे बहुत से और सवालों को जैसे आजादी के बाद खेती, उद्योग, प्रेस की स्वतंत्रता, चुनाव आयोग की स्वायत्तता, विश्वविद्यालयों या संस्थानों की स्वायत्तता आदि को लेकर भी गंभीर ढंग से विचार किया है। कुल मिलाकर यह किताब हमें नए सिरे से नेहरू को देखने की दृष्टि देती है। साथ ही यह भी सोचने को मजबूर करती है कि हमारे दिमागों में सोशल मीडिया द्वारा जो हिंदुस्तान के इतिहास, नायकों, खेती, संस्थाओं आदि के बारे में कितने गलत विचार भरे गये हैं। इसीलिए हिंदुस्तान की छवि दुनिया में बदल रही है। ऐसे हिंदुस्तान के इतिहास का सही पाठ करते हुए हिंदुस्तान के नायकों गांधी-नेहरू-सरदार पटेल से प्रेरणा लेने की जरूरत है या फिर हरेक समस्या के लिए नेहरू को जिम्मेदार साबित करने की।
         हिंदुस्तान के बाहर गांधी-नेहरू के बिना भारत की छवि नहीं बन सकती। गांधी ने अपने विचारों के लिए जीवन लगा दिया। नेहरू ने उनके रास्ते पर चलते हुए दुनिया के मामलों में भारत की एक अलग छवि बनाई। वह चाहे स्वेज नहर की समस्या हो, कोरियाई युद्ध हो, वियतनाम युद्ध हो या ऐसी ही कोई और समस्या। इसी कारण नेहरू के धुर विरोधी रहे नेताओं ने भी अंततः उनकी वैश्विक भूमिका को स्वीकार किया। विंस्टन चर्चिल ऐसे ही राजनेता थे। उन्होंने कहा - ‘मैंने हमेशा शांति की आपकी भावना के लिए आपकी तारीफ की, और हमारे बीच में अतीत में जो वैर भाव हमें आपस में बांटता था, उसमें आपकी ओर से किसी कटुता में न होने की भी। सच में आप पर एक भारी बोझ और जिम्मेदारी हैं, अपने करोड़ों देशवासियों की किस्मतें बनाने की और दुनिया के मामलों में अपनी शानदार भूमिका निबाहने की। मैं आपके कार्यभार के लिए शुभकामनाएं देता हूँ। याद रखिए ‘द लाइट ऑफ एशिया।’
         नेहरू अंग्रेजी शासन में लगभग नौ साल जेल में रहे, जहाँ उन्होंने कई महत्वपूर्ण किताबें लिखीं जिनमें 'विश्व इतिहास की झलक', 'भारत की खोज', 'मेरी कहानी' प्रमुख हैं। नेहरू के जेल जीवन में लिखी गई इन किताबों की तुलना इतिहासकार इरफान हबीब अंतोनियो ग्राम्शी की 'प्रिजन नोटबुक' से करते हैं। इरफान हबीब कहते हैं-‘अपने फैलाव और गुणवत्ता दोनों में, उनके जेल लेखन की तुलना एंटोनियो ग्राम्शी के उस लेखन से करने का मन होता है जो उन्होंने एक कम्युनिस्ट के रूप में फासिस्ट इटली की जेलों में किया था। इन दोनों में सच्ची समानताएं हैं...(दोनों लोग) एक कर्मशील इंसान के रूप में अपने मन में उठ रहे सवालों के जवाब खोजने के लिए इतिहास की ओर गए।’ इरफान हबीब के विचारों का एक मायने है। वह नेहरू को वैश्विक फलक पर रखकर देख रहे हैं। नेहरू की इन किताबों को पढ़ते हुए आप समृद्ध होते हैं । आपके दिमाग में एक राजनेता की कम, एक बौद्धिक छवि ज्यादा उभरती है। ऐसे में हमें नेहरू को समझने के लिए थोड़ा दिमागी कसरत करने की जरूरत है। सिर्फ सोशल मीडिया से हम नेहरू को नहीं समझ सकते।
समीक्ष्य पुस्तक : नेहरू का भारत अतीत, वर्तमान और भविष्य
लेखक : आदित्य मुखर्जी
हिंदी अनुवादः आलोक बाजपेयी
पेंगुइन स्वेदश इंडिया, 2025
मूल्यः 299


बिपिन तिवारी
'महामारी में मनुष्य' किताब का संपादन, 'अभिनव कदम' पत्रिका  के दो किसान विशेषांकों का संपादन, पिछले पांच वर्षों से 'किताबीदुनिया' यूट्यूब चैनल का संपादन एवं प्रसारण। दस वर्षों से  गोवा विश्वविद्यालय में अध्यापन। मो .- 9130570121


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय