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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

'गुल्ली-डंडा' - समाज और संबंधों के खेल का मर्म

 

सुषमा मुनीन्द्र

कालजयी रचनाकार प्रेमचंद का हिंदी साहित्य  के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान है। प्रेमचंद ने सिद्ध किया है कि यथार्थ को गहराई से पकड़ कर उसे व्यवस्थित क्रम देने का कौशल हो तो रचनाकार को अपने चौगिर्द ही कहानी के इतने विषय मिल जाते हैं कि पात्र ढूँढ़ने के लिये दूर जाने की जरूरत नहीं होती है। आम आदमी के जीवन को सूझ-बूझ से समझा जाये तो वहाँ कहानियाँ और उपन्यास अनायास मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने तत्कालीन ग्रामीण, कस्बाई, नगरीय जीवन को समीप से देखा है इसलिए वे स्थिति–परिस्थिति- मन:स्थिति का ऐसा चित्रण करते हैं कि वास्तविक जीवन और पात्रों के जीवन में साम्य नज़र आता है। प्रेमचंद की कहानियों के पात्र इतने सशक्त हैं कि पात्रों को समझना, प्रेमचंद के जीवन को समझ लेना है। उस कालखण्ड की सारभूत वास्तविकताओं को समझ लेना है। उनकी कहानियों में समस्या के साथ ऐसे समाधान भी होते हैं जो हृदय  परिवर्तन की दिशा देते हैं। प्रेमचंद की कहानियों की अद्भुत कारीगरी और लोकप्रियता ही है कि कहानियाँ प्राथमिक कक्षाओं से लेकर उच्च शिक्षा तक पढ़ाई जा रही हैं। भाषा में घुमाव या पेंच नहीं, सादगी रहती है जिससे पाठक जुड़ाव बना लेते हैं। जुड़ाव के कारण प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक और लोकप्रिय बने हुए हैं। मैंने कहीं पढ़ा था प्रेमचंद को गुल्ली–डंडा खेलने और पतंग उड़ाने का शौक था। वे खेल की बारीकियाँ समझते थे, इसलिए उन्होंने खेल पर यादगार कहानियाँ लिखी हैं। वैसे पूर्वज लेखक हों या समकालीन लेखक खेल पर बहुत कम कहानियाँ लिखी हैं। मुझे प्रेमचंद की गुल्ली–डंडा ने बहुत प्रभावित किया है। यह कहानी सभी को बचपन के उन प्रसंगों में ले जाती है, जब बच्चे  खेल के पीछे भूख–प्यास सब भूल जाते थे। मैं 'गुल्ली–डंडा' के माध्यम से प्रेमचंद की कहानियों की उस रचना शक्ति, भाषा शैली, कहानीपन की बात करूँगी जिन्हें वे कहानी की संरचना का आधार बनाते थे। कहानियों में मिलता कहानीपन, मानवीय भावना, संवेदना और माकूल संवाद कहानी को विशिष्ट असर और अंदाज देते हैं। 'पबजी' को पहली पसंद बनाने वाले आज के बच्चों को अनुमान न होगा 'गुल्ली- डंडा' बीसवीं सदी के कई दशकों तक ऐसा मनोरंजन बल्कि नशा बना हुआ था कि बच्चे भूख–प्यास की फिक्र किये बिना दिन भर इस खेल को खेलना चाहते थे। कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जो नशा ताश में होता है, वही गुल्ली‍-डंडा में था।
         'गुल्ली–डंडा' का केन्द्रीय भाव खेल है लेकिन खेल के माध्यम से आर्थिक, सामाजिक, जातीय समीकरण, अमीरों का रुआब – अहंकार, गरीबों का लचीलापन, नम्रता तमाम आचरण–व्यवहार की परतें खुलती हैं और कहानी उसी हृदय परिवर्तन पर खत्म होती है जो प्रेमचंद की कथा परम्परा का मानक है। कहानी बताती है, नम्रता के सामने आयुध, चाल, युक्ति, धाँधली असफल हो जाती है। आज क्रिकेट, टेनिस जैसे चकाचौंध वाले खेलों के सम्मुख गुल्ली डंडा, कबड्डी, खोखो जैसे देसी खेल अस्तित्व खो चुके हैं लेकिन एक दौर था, गुल्ली-डंडा ऐसा सार्वजनिक खेल था, जिसे प्रत्येक वर्ग के बच्चे खेलते थे। प्रेमचंद लिखते हैं, ‘’न लॉन की जरूरत, न कोर्ट की, न नेट की, न थापी की। मजे से किसी पेड़ से एक टहनी काट ली, गुल्ली  बना ली, दो आदमी भी आ जायें तो खेल शुरू हो गया। विलायती खेलों में सबसे बड़ा एब है, उसके सामान मँहगे होते हैं। जब तक कम से कम एक सैकड़ा न खर्च कीजिये खिलाडि़यों में शुमार ही नहीं हो पाते।‘’ विचार करें तो क्रिकेट की अवधारणा का आधार गुल्ली-डंडा ही है। डंडे की जगह बैट, गुल्ली की जगह बॉल।
         कहानी 'मैं शैली' में लिखी गई है। कथा नायक 'मैं' और 'गया' दोनों प्रमुख पात्र हैं। कथा नायक थानेदार का पुत्र है। गया अभावग्रस्त निम्न वर्ग का है। गया गुली डंडा का ऐसा चैम्पियन है कि दोनों टीम उसे अपनी टीम में लेना चाहती थीं कि गया के कारण जीत पक्की है। एक दिन कथा नायक और गया दो खिलाड़ी ही गुल्ली-डंडा खेलते हैं। गया पदा रहा था। कथा नायक पद रहा था। कथा नायक समझ गया, गया को हराना दुश्कर है। वह खेल छोड़ कर घर जाने लगा। खेल की एक रणनीति होती है। जीतने वाला खेल जारी रखना चाहता है। हारने वाला खेल खत्म करना चाहता है। गया अड़ गया – ‘’मेरा दाँव दिये बिना नहीं जा सकते।‘’ यहाँ दोनों खिलाडि़यों में तर्कपूर्ण संवाद होता है, जो उनकी बालसुलभ चतुराई को दर्शाता है। कुतर्क इतना बढ़ जाता है कि दोनों में मार–पीट हो जाती है। पस्त  हुआ कथा नायक खेल अधूरा छोड़ घर चला जाता है।
         जल्दी ही कथा नायक के पिता का तबादला हो गया। कथानायक कस्बे से शहर चला गया। बीस साल बाद जब हाकिम बन कर कस्बे का दौरा करने के लिये आता है, तो सबसे पहले गया और गुल्ली- डंडा को याद करता है। गया को प्रस्ताव देता है –
‘’आज हम दोनों गुल्ली-डंडा खेलेंगे। तुम पदाना, हम पदेगें। तुम्हारा एक दाँव हमारे ऊपर है। वह आज ले लो।‘’
         गया झेंप–झिझक में है। दोनों के मध्य बीस साल का अंतर आ चुका है। आर्थिक सामाजिक फर्क कई गुना बढ़ गया है। कथानायक हाकिम है, गया मजदूर है। गया नहीं खेलना चाहता, पर कथा नायक का आग्रह और दबाव प्रबल है। दोनों एकांत में जगह ढूँढ़ खेलते हैं। गया कथा नायक को खिलाड़ी नहीं, हाकिम मान कर उसकी मुँह देखी कर रहा है। उसके व्यवहार में बाल सखा का भाव नहीं, प्रौढ़ व्यावहारिक भाव है। कथा नायक बार–बार धाँधली कर रहा है, जिसे गया मान ले रहा है कि हाँ तुम आउट नहीं हुए हो। कथा नायक दंग है। गया तो ऐसा सिद्ध खिलाड़ी था जैसे गुल्लियों पर वशीकरण डाल देता हो। जैसे उसके हाथ में कोई चुम्बक है, जो गुल्लियों को खींच लेता है। लेकिन आज उसे 'आउट' करने का प्रयास ही नहीं कर रहा है। जैसे खेल नहीं रहा है वरन खेलने की औपचारिकता कर रहा है। बेईमानी देख मार–पीट करता था, अब मौखिक विरोध तक नहीं कर रहा है। यहाँ तक कि गुल्ली 'टन' की ध्वनि करती हुई डंडे से लगी, जो कथा नायक के आउट होने का स्पष्ट संकेत था, तब भी गया विरोध नहीं करता। कथा नायक कहता है गुल्ली, डंडे से नहीं ईंट से लगी होगी। गया मान लेता है ईंट से ही लगी होगी। कथा नायक दर्प बोध में है, गया में पुराना कौशल नहीं रहा। गुल्ली-डंडे की समझ खत्म हो गई है। लगभग एक घंटा पदाने के बाद कथा नायक, गया से कहता है अब तुम्हारी बारी है। मैं पदूँगा। गया निषेध करता है। जब दबाववश खेलता है, शीघ्र आउट हो जाता है। कथा नायक का दर्प भाव बढ़ गया - 
         ‘’गया तुम्हारा अभ्यास छूट गया। कभी खेलते नहीं ?’’
          ‘’खेलने का समय कहाँ मिलता है भैया ?’’ गया ने कहा साथ ही कथा नायक के दर्प भाव को परख लिया। दर्प को नष्ट करने के लिए निपुणता का प्रदर्शन जरूरी है। बोला – ‘’कल पुराने खिलाडि़यों का गुल्ली  डंडा होगा। आना।‘’
         कथा नायक खेल देखने आता है। दोनों टीम में दस–दस खिलाड़ी। गया गजब की निपुणता से खेल रहा है। विरोधी दल के खिलाडि़यों को बेईमानी करते देख ताल ठोंक कर लड़ रहा है। कथा नायक वास्तविकता को भाँप कर विचलित हो जाता है। गया तो आज भी श्रेष्ठ खिलाड़ी है। उसकी धाँधली को अनदेखा कर रहा था क्योंकि उसे प्रतिस्पर्धा के योग्य नहीं मान रहा था। खेल नहीं रहा था बल्कि सयाने की तरह उसे खेला रहा था। उसमें जीतने का भाव ही नहीं था। शायद समझ रहा था, कमजोर खिलाड़ी से जीतने में यश नहीं मिलता। कथानायक हीनता से भर गया। हताहत हो गया। गया निश्चित ही भूला नहीं है। कथानायक खेल को अधूरा छोड़ पीठ दिखा गया था। कथा नायक गया के व्यवहार का आकलन कर रहा है, ‘’मैं यदि उस दिन दाँव छोड़ कर न भागता तो शायद मैत्री बोध बना रहता। दूरी न बनती। अब मैं उसका लिहाज पा सकता हूँ, अदब पा सकता हूँ, साहचर्य नहीं पा सकता।‘’ तात्पर्य? गया यद्यपि अभावग्रस्त पृष्ठभूमि का है पर स्वाभिमानी है। यह भी सम्भव है, वह आज भी सच्चा मित्र है, इसलिए उसे एक बार फिर पराजित कर हताश नहीं करना चाहता था।
       कहानी गया के मनोविज्ञान को खूबी से व्यक्त करती है। वह कथा नायक को हताशा से बचाना चाहता था पर स्वयं अयोग्य सिद्ध नहीं होना चाहता था। प्रतियोगिता के माध्यम से उसने अपनी निपुणता को दिखा दिया।
       गया नम्रता से मर्म समझा देता है कि कोई भी क्षेत्र हो, धोखेबाजी, बेईमानी ऊँचा नहीं उठाती है। कुशलता और ईमानदारी से राह प्रशस्त होती है। कथा नायक मर्म को समझ लेता है। इसीलिए उसे लगता है - ''गया बड़ा हो गया है। मैं बहुत छोटा हो गया हूँ।''
         खेल भावना को मजबूत करने वाली कहानी 'गुल्ली-डंडा' आज भी प्रासंगिक है।


सुषमा मुनीन्द्र

जन्म तिथि व स्थान :  05.10.1959,  रीवा (म. प्र.)। अब तक लगभग 365 कहानियाँ, दो उपन्यास, 50 समीक्षा आलेख, 50 व्यंग्य, 50 आलेख, कुछ संस्मरण, यात्रा वृत्तांत लिखे हैं, जो प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। कहानियों का मराठी, मलयालम, कन्नड़, तेलुगू, उड़िया, उर्दू, पंजाबी, अंग्रेजी, गुजराती, असमिया आदि भारतीय भाषाओं में अनुवाद। मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का अखिल भारतीय गजानन माधव मुक्तिबोध पुरस्कार, प्रादेशिक सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार आदि।
सम्पर्क :  द्वारा श्री एम. के. मिश्र (एडवोकेट), जीवन अपार्टमेन्ट्स-1, फ्लैट नं.-7, द्वितीय तल, महेश्वरी स्वीट्स के पीछे, रीवा रोड, सतना (म. प्र.) - 485001
मोबाइल : 08269895950 


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

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कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय