अरविंद चतुर्वेद की दस कविताएँ
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artist Ankit Kushwaha |
भास्कर चौधुरी के स्वर में अरविंद चतुर्वेद की कविताएं
लीला लोक
शहर के स्वच्छता अभियान में निकले
मलबे और कचरे के पहाड़नुमा ढूह से
फिसलकर
डूबने जा रहे सूरज को
सुंदरीकरण के बाद पार्क के बाहर
फेंके गये कू़ड़े की वर्षा सिंचित
उर्वर गोद में उग आये कुछ संकोची पौधे
सिर उठाये उत्सुक देख रहे हैं
घंटे भर बाद जब निकलेगा पूर्णिमा का चाँद
ये संकोची पौधे
अपने नन्हें कोमल हाथों से
चाँद का गाल सहलाने के सपने में डूब जाएंगे
इस लीला से बेख़बर
झोपड़पट्टी के अधनंगे बच्चों की टोली
कोई नामालूम-सा खेल खेलने में मगन है
एक संगीत प्रेमी ऑटो वाला
झोंके की तरह
जोर-जोर से गाना बजाते
गुज़र गया-
'छोटी-सी उमर मोहें लग गया रोग...'।
क़ैद
पूर्वाग्रह की दीवारें
जड़ता की बुनियाद पर
खड़ी होती हैं।
ऐसी दीवारों में जो क़ैद हैं
खुली हवा में
साँस नहीं ले पाते
‘बेदरों-दीवार-सा इक घर बनाया चाहिए।’
प्यार
मैं अपने कुत्ते को प्यार करता हूँ
क्योंकि भूख लगने पर वह मुझ पर भौंकता है
हे भूख! हे रोटी!
मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ
सबसे ज़्यादा प्यार करता हूँ उससे
जो रोटी पैदा करता है।
आधा-अधूरा
कोई किसी के साथ
संपूर्णता में नहीं रहता
(रह नहीं सकता)
सारा लगाव आधे-अधूरेपन का है
यही बंधन मुक्ति है,
इसी में ख़ूबसूरती है।
आत्मसर्मपण और आत्मविसर्जन से
बुरा और कुरूप
कुछ हो नहीं सकता।
अमर
जीवन से बड़ी है प्यास
कभी नहीं बुझती
मरते हुए आदमी के नहीं
अनंत प्यास के सामने
खड़ा होता है यमराज
इसके मुँह में डालो दो बूँद पानी
तो इसे ले चलूँ
फिर भी इस दायरे से बाहर खड़ी है प्यास
वह अमर है
उसे नहीं छू पाएंगे यमराज के हाथ।
आसान और कठिन
कोई मुस्कुराये तो हम भी
मुस्कुरा देते हैं
कितना आसान है
मुस्कुराहट का सामना करना
मगर रुलाई!
वह पीछा करती है
बेचैनी का ताप
बुखार की तरह चढ़ता है
ओह, कितना कठिन है विलाप
हमारे पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ
कहाँ है मुक्ति की कोई सूरत!
असर
दोस्त चाहे जितना पुराना हो
मिलता है, तो एक ताज़गी
आ ही जाती है
और न मिले बरसों-बरस
तब भी लगता है
वह नहीं हुआ होगा बूढ़ा
अब भी होगा वैसा ही ताज़ा दम
भागती उम्र में भी बना हुआ है वहम
तो यह दोस्ती का है असर
कुछ वहम मिलकर
ज़िन्दगी को खूबसूरत बनाये रखते हैं!
अधूरा वाक्य
जीवन
एक अधूरा वाक्य है
और संपूर्णता
एक छल।
.
मंजिल एक भ्रम है
सफ़र ही सच है।
नयी गरीबी
यह अमीरों के यहाँ पायी जाती है
और उन्हें इस हद तक
असामाजिक बनाती जाती है
कि आदमी तो आदमी
समूचा परिवेश बिलबिला उठता है
कराहते हैं पहाड़
जंगल अधमरे
और नदियाँ दम तोड़ती जाती हैं
नहीं बचता चील-कौवों तक का ठिकाना
पशु-पक्षी मारे-मारे फिरते हैं
और कितने तो मर ही जाते हैं
नयी गरीबी की पहचान इतनी आसान है
कि इसे हर कोई देख सकता है
यह विकास के रथ पर
सज-धजकर निकलती है
इसके घोड़े सरपट दौड़ते हैं
और हिनहिनाते रहते हैं
उनके खुरों के नीचे
कुचलती हैं आत्माएं
पीछे उड़ती है धूल
पुरानी गरीबी को बनाये रखती है नयी गरीबी
इसकी निगाह बैंकों के खजाने पर रहती है
और यह उनको भी दरिद्र बनाकर छोड़ती है
नयी गरीबी की भूख सर्वभक्षी है
वह कभी नहीं मिटती।
प्रिय उपभोक्ता
देखो खड़ा है बाज़ार
आँचल पसार
सुनो उसकी विनम्र पुकार
आत्मनिर्भरता की राह पर बढ़ना है तो
अनसुनी नहीं रहनी चाहिए गुहार
प्रिय उपभोक्ता
तुम हो करुणा के अवतार
हे त्यागी
संकुचित है तुम्हारी जेब
लेकिन यही है शुभमुहूर्त
जितना हो सके, होना ही चाहिए परोपकार
भले ही लेना पड़े उधार
स्वावलंबन के लिए ज़रूरी है यह
सोचो, कहाँ रहोगे बिन बाज़ार
वह कब से अँखियाँ बिछाए
तुमको रहा निहार
कबीर को ऐसे भी याद करो -
रमैया की दुलहिन ने लूटा बाज़ार
तुक मिलाओ
कविता से नहीं
बाज़ार से
प्रिय उपभोक्ता!
भास्कर चौधुरी के स्वर में अरविंद चतुर्वेद की कविताएं
अरविंद चतुर्वेद
6 मार्च, 1958 को उत्तर प्रदेश में सोनभद्र जिले के एक किसान परिवार में जन्म। इलाहाबाद और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में पढ़ाई-लिखाई। शोध छात्र-व्याख्याता के रूप में बीएचयू की स्नातक कक्षाओं में दो वर्षों तक हिंदी अध्यापन। छात्र जीवन में समाजवादी आंदोलन व जेपी आंदोलन में सक्रिय भागीदारी। लेखन की शुरुआत तभी से। पेशे से पत्रकार। कविताएं, कुछ कहानियाँ, लेख, टिप्पणियाँ आदि प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित।
बांग्ला कविताओं का संग्रह ‘आमि बांग्ला खेये बांग्ला बोली’ प्रकाशित।
दस बरस तक ‘जनसत्ता’ कोलकाता की साप्ताहिक पत्रिका ‘सबरंग’ और वार्षिक साहित्य विशेषांकों के प्रभारी संपादक रहे। नवारुण भट्टाचार्य के साथ बांग्ला की सर्वभारतीय पत्रिका ‘भाषाबंधन’ का संपादन किया।
लखनऊ में दैनिक ‘डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट’ का लंबे अरसे तक संपादक।
वाट्सअप नंबर : 9451414104