काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

‘कफ़न’ को यहाँ से पढ़ें


वीरेन्द्र यादव 

हिंदी में दलित विमर्श की आमद के साथ प्रेमचंद की कहानी ‘कफन’  लगातार बहस और विवाद के केंद्र में रही है। इस विवाद की शुरुआत नागपुर के हिंदी दलित लेखक सम्मेलन (अक्टूबर, 1993)  में ओमप्रकाश वाल्मीकि के उस वक्तव्य से हुई थी, जिसमें उन्होने कहा था,  “प्रेमचंद ने दलित चेतना की कई महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं, ‘सद्गति’, ‘ ठाकुर का कुंआ’, ‘दूध का दाम’ आदि। लेकिन अंतिम दौर की कहानी ‘कफन’ तक आते-आते वह गांधीवादी आदर्शों, सामंती मूल्यों, वर्णव्यवस्था के पक्षधर दिखाई पड़ते हैं। एक अंतर्द्वन्द्व है उनकी रचनाओं में – एक ओर दलितों से सहानुभूति, दूसरी ओर वर्णव्यवस्था में विश्वास।” (दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद, पृ 87-88)  लेकिन अपने बाद के एक लेख में उन्होनें पुनर्विचार करते हुए लिखा कि “ ‘कफन’ कहानी प्रेमचंद जी की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है, जिसमें शिल्प और विषय-वस्तु की गहन अभिव्यक्ति हुई है। किंतु मेरा यह मानना है कि उस कहानी में दलित चेतना नहीं, बल्कि व्यवस्था द्वारा उत्पन्न अलगाव और उसमें छले-दुहे जाने वाले चरित्रों का यथार्थवादी चित्रण है, जिसमें आदर्शहीनता को रेखांकित किया गया है।” (उपरोक्त, पृ.88)  ओमप्रकाश वाल्मीकि की यह व्याख्या उचित ही इस कहानी को व्यवस्था द्वारा उत्पन्न अलगाव की कहानी के रूप में पढ़ने का सूत्र प्रदान करती है, क्योंकि प्रेमचंद स्वयं लेखकीय कथन के माध्यम से घीसू और माधव का चरित्रांकन इसी रूप में करते हैं. इसे कहानी के इस अंश से समझा जा सकता है –“जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना चाहते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात नहीं थी।”  इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि प्रेमचंद  उन  खेतिहर मज़दूरों और  श्रमशील किसानों की व्यथा-कथा लिख रहे थे जिन्हें उनके श्रम और खेती-किसानी का मेहनताना नहीं मिल रहा था। कहानी में घीसू और माधव की ‘कामचोरी’  का परिप्रेक्ष्य उनकी जन्मना दलित जाति से निर्धारित न होकर, शोषण की  व्यवस्था से उपजे श्रम से अलगाव (एलियनेसन) है। शोषण के शिकार  किसानों के विचार-शून्य समूह में शामिल न होकर अपनी सरलता और निरीहता से दूसरे लोगों द्वारा बेजा फायदा न उठाने देने वाले घीसू को कहानीकार  ‘ज्यादा विचारवान’ मानता है, क्योंकि ‘कम से कम उसे किसानों की सी जाँ-तोड़  मेहनत तो नहीं करनी पड़ती’। यहाँ मेहनतकश दलित द्वारा अपने श्रमदोहन से इंकार निष्क्रिय प्रतिरोध की ऐसी कार्र्वाई है, जिसके कारण उस पर सारा गाँव उँगली उठाता था। यही कारण था कि ‘चमारों का कुनबा था और सारे गाँव में बदनाम’।  ध्यान देने की बात यह है कि  कहानी का यह वाक्य स्वयं कहानीकार का मंतव्य न होकर दलितों के प्रति  गाँव के गैरदलितों और सवर्ण समुदाय की अवधारणा का प्रतिबिम्बन है। इसे प्रेमचंद का अभिमत, लेखकीय मूल्य और प्राथमिकता करार देना कहानी के मंतव्य को झुठलाते हुए कहानी के पाठ के बाहर जाना है। प्रेमचंद की दलित पक्षधरता और लेखकीय मूल्य की शिनाख्त करने के लिए उनके विपुल कथात्मक और वैचारिक लेखन से गुजरना होगा। 
      फिलहाल लौटें ‘कफन’ कहानी पर। यह कहानी दलित टोले या बस्ती की कहानी न होकर, चमारों के कुनबे की कहानी  है यानि एक कुटुम्ब या  खानदान  की कहानी, जिसमें बाप, बेटा और बहू  पात्र के रूप में उपस्थित हैं। बाप, बेटा उचित मेहनताना न मिलने के चलते काम से जी चुरानेवाले और आलसी हैं।  बहू (माधव की पत्नी) के आने के बाद ‘दोनों और आरामतलब हो गए थे बल्कि कुछ अकड़ने भी लगे थे। कोई कार्य करने को बुलाता, तो निर्ब्याज्य भाव से दुगुनी मज़दूरी मांगते।’  वैसे भी लोग ‘इन दोनों को उसी वक्त बुलाते, जब दो आदमियों से एक का काम पाकर भी संतोष कर लेने के सिवा और कोई चारा नहीं होता’। जाहिर है घीसू-माधव का दुगुनी मज़दूरी माँगना काम पर न  जाने का बहाना ही था।  इसलिए इसे ‘अत्यंत अस्वाभाविक  और नाटकीय’ करार देते हुए यह कहना कि ‘ सौ साल पहले यदि एक चमार मज़दूर दुगुनी मज़दूरी  माँग ले तो उसे उसके परिवार सहित फूंक दिया जाता’, कहानी के परिप्रेक्ष्य की अनदेखी करना है। सच तो यह है कि जहाँ दलित समुदाय में अनुत्पादक श्रम के प्रति हिकारत का भाव रखने वाले घीसू और माधव सरीखे पात्र थे तो अपने श्रम की वाजिब मजदूरी के लिये संघर्ष करने वाले श्रमशील दलित भी। प्रो.तुलसीराम उसी दलित समुदाय के थे, जिसके घीसू और माधव। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल इलाके में दलित समुदाय के प्रतिरोध का  परिप्रेक्ष्य प्रस्तुत करते हुए उन्होने अपनी आत्मकथा ‘मुर्दहिया’ में लिखा है , “ डेढ़िया बेंगही का चक्रावधि भुगतान और ईंट  वाली तौल से चुकाई जाने वाली बनि आदि को लेकर दलितों तथा ब्राह्मणों के बीच अक्सर बड़ी तनातनी हो जाती थी। प्राय: हर साल दलित कुछ दिनों के लिए हड़ताल कर देते थे। हड़ताल के दौरान कभी-कभी लाठी-डन्डे तक  चल जाते थे। जब भी लाठी-डंडे चलने की नौबत आती, गाँव के सारे दलित पंचायत के लिए हमारे घर चौधरी चाचा के यहाँ आते। चौधरी चाचा सबकी राय से ‘कूर’ बांध देते थे। ‘कूर’ बांधने का मतलब था, किसी निर्धारित समय तथा स्थान पर ज़मीन पर खपड़े से एक ख़ूब लम्बी रेखा खींच देना। उस रेखा के दोनों तरफ काफी दूर पर दोनों परस्पर विरोधी पक्ष खड़े होते। रेखा के इस पार खड़े दलित उस पार खड़े ब्राह्मणों को चुनौती देते कि यदि हिम्मत हो तो रेखा पार करके दिखावें। यदि ब्राह्मण रेखा पार कर लेते, तो तुरंत दलितों से लड़ाई शुरु हो जाती। ....इस प्रक्रिया में हमेशा दलितों की जीत होती थी। ‘कूर’ बंधी लड़ाइयों की परंपरा दलितों के बीच संभवत: ‘महाभारत’ की ‘कुरुक्षेत्र’ में संपन्न कौरव-पांडव युद्ध से आई थी। इसके बाद कई ब्राह्मण गिड़गिड़ाते हुए पुन: काम शुरू करने के लिए राजी करते थे।” (मुर्दहिया, पृ 63-64)  प्रेमचंद ने भी वाजिब मज़दूरी की माँग को लेकर सौ वर्ष पूर्व (1924) लिखित अपने उपन्यास ‘कायाकल्प’  में चमार श्रमिकों की एकजुटता और प्रतिरोध को दर्ज़ किया है। उपन्यास में बेगार से इंकार करने वालों के बीच से दलित मज़दूर  ने ठाकुर के बिगड़े बोल का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हुए चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में कहा था, ‘’ यहाँ काम करने आये हैं, जान देने नहीं आए हैं। एक तो भूखों मरें, दूसरे लात खाएं। हमारा जन्म इसीलिए थोड़े ही हुआ है? जिससे चाहे काम कराइए, हम घर जाते हैं।”  चमारों के चौधरी ने भी कहा कि “जब लात खाते थे, तब खाते थे, अब न खाएंगें।” (कायाकल्प, पृ.94-95)  विचारणीय यह है कि चमार समुदाय के मेहनतकशों की इस प्रतिरोधी चेतना को दर्ज़ करने के बाद प्रेमचंद उसी समुदाय के बीच से घीसू और माधव सरीखा चरित्र क्यों रच रहे थे? संभवत: इसलिए कि वे इस दौर में उस ‘महाजनी सभ्यता’ की आहट सुन रहे थे जो श्रमिक को उसके अपने श्रम के अधिकार से ही वंचित करने वाला था। सामंती समाज में महाजनी व्यवस्था अपने विकृततम रूप में कृषि मज़दूरों  के बीच अपने ही श्रम से अलगाव की स्थितियाँ पैदा कर किस तरह उनका अमानवीकरण करती है, प्रेमचंद इसे ‘कफन’ का कथ्य बनाते हैं। प्रो. तुलसीराम ने इसे उचित ही ‘लुम्पेन सर्वहारा’ की कहानी कहा था यानि ऐसा सर्वहारा जो हर तरह की वंचना और उत्पीडन का शिकार होकर अमानवीकृत होने के लिए अभिशप्त है। घीसू और माधव को ‘न जवाबदेही का खौफ़ था, न बदनामी की फ़िक्र। इन सब भावनाओं को उन्होने बहुत पहले ही जीत लिया था।’   ‘कफन’ जितनी घीसू, माधव और बुधिया की कहानी है, उससे अधिक उस समाज की कहानी है, जिसने उन्हें ऐसा बनाने की स्थितियाँ पैदा की। यह अकारण नही है कि कहानीकार ने ऐसे समाज की भरपूर ख़बर कहानी के पात्रों व लेखकीय अभिव्यक्ति के माध्यम से ली है। घीसू का यह कथन दृष्टव्य है, “कैसा बुरा रिवाज़ है कि जिसे जीते जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफ़न मिले।” या कि यह “वह बैकुंठ में न जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनो हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढाते हैं?” और यह भी कि “गरीबों का माल बटोर-बटोरकर कहाँ रखोगे?  बटोरने में तो कमी नहीं है। हाँ, ख़र्च में किफ़ायत सूझती है।” ...”दुनिया का दस्तूर है, नहीं लोग बाभनों को हज़ारों रुपये क्यों दे देते हैं? कौन देखता है, परलोक में मिलता है या नहीं!” “बड़े आदमियों के पास धन है फूँकें। हमारे पास फूँकने को क्या है?”  यहां बाभन, गंगा,  बैकुंठ,  मंदिर का उल्लेख सायास है, महज शराब पीते बाप-बेटे के बीच की चिमगोई नहीं।
        ध्यान देने की बात यह भी है कि ‘कफन’ प्रेमचंद के अंतिम दौर ( दिसम्बर, 1935) की कहानी है, इसके पूर्व वे ‘महाजनी सभ्यता’  और ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं’ सरीखा लेख लिख चुके थे। जहाँ ‘महाजनी सभ्यता’ में उन्होने निर्मम मनुष्यविरोधी पूंजीवाद के विरुद्ध समाजवाद सरीखी नई सभ्यता का स्वप्न देखा था, वहीं ‘क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?’ में उन्होने यह उद्घोष किया था कि “ हमारा स्वराज्य केवल विदेशी जुए से अपने को मुक्त करना नहीं है, बल्कि इस सामाजिक जुए से भी। इस पाखंडी जुए से भी, जो विदेशी शासन से कहीं अधिक घातक है।” (प्रेमचंद के विचार-1, पृ.463) और यह भी कि “राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक पाखंड की जड़ खोदना है।” (उपरोक्त)  यही वह दौर था, जब ‘गोदान’ पूरा करने के बाद उन्होंने अपना अधूरा उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ लिखा था। जिसमें उन्होने यह सवाल प्रस्तुत किया था कि “ क्यों एक आदमी जिंदगी भर बड़ी से बड़ी मेहनत करके भी भूखों मरता है, और दूसरा आदमी हाथ-पांव न हिलाने पर भी फूलों की सेज पर सोता है?” (कलम का सिपाही, पृ.600) और यह भी कि “ दरिंदों के बीच  में उनसे लड़ने के लिए हथियार बांधना पड़ेगा। उनके पंजों का शिकार बनना देवतापन नहीं, जड़ता है।” (उपरोक्त). स्पष्ट है कि जिस दौर में प्रेमचंद ने ‘कफन’ की रचना की थी, वह उनकी वर्ण से वर्ग  तक की यात्रा का दौर था। इसी के चलते वह यह लिख सके थे कि “ मनुष्य समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने और खपने वालों का है और बहुत ही छोटा हिस्सा उन लोगों का है, जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े सम्प्रदाय को अपने बस में किए हुए है।” (उपरोक्त) घीसू और माधव सरीखे पात्रों की निर्मिति समझने के लिए इस परिप्रेक्ष्य से गुजरना जरूरी है। 
         ‘कफन’ कहानी की विपुल अभिव्यक्तियाँ कहानीकार का यह मंतव्य जानने के लिए पर्याप्त हैं कि उसने घीसू और  माधव सरीखे चरित्रों की निर्मिति उनके जाति-समुदाय को लांछित करने के लिये नहीं की है, अपितु उस पाखंडी समाज को बेपर्दा करने के लिए, जो मेहनत-मज़दूरी करने वालों का धर्म और रीति-रिवाज के आवरण में शोषण कर उनकी दुर्गति का आधार तैय्यार करता है। अधिकांश दलित विमर्शकार ‘कफन’  कहानी के उपरोक्त परिप्रेक्ष्य को चर्चा से बाहर रखकर प्रेमचंद को दलित विरोधी सिद्ध करने के उत्साह में कहानी के कुछ विवरणों के आधार पर उनकी समाजशास्त्रीय  समझ को भी प्रश्नांकित करते हैं, तो कुछ अन्य उन्हें वर्णाश्रमी जाति-व्यवस्था का पैरोकार तक सिद्ध करने में नहीं हिचकते। उदाहरण के लिए कहानी के इस वाक्य कि ‘गाँव में काम की कमी न थी। किसानों का गाँव था, मेहनती आदमी के लिए पचास काम थे’ को इस आधार पर खारिज करना कि अछूतों के लिए निर्धारित काम होते थे। जिन कामों में सवर्ण शुचिता पर आंच आ सकती थी, वही काम चमारों के लिए होते थे। चमारों के मुख्य काम मरे हुए मवेशियों को फेंकने और खाल उतारने तथा गोदाम में अनाज आने के पहले तक का किसनई मज़दूरी तक सीमित था। ऐसे में गाँव में चमारों के लिए बहुत सीमित काम होता था। क्या सचमुच? जी. डब्लू. ब्रिग्स ने 1920 में प्रकाशित उत्तर भारत के चमार समुदाय पर केंद्रित अपनी पुस्तक ‘दि चमार्स’ में लिखा है कि चमारों के पास करने को बहुत काम था, भले ही उन्हें इसकी वाजिब उजरत न मिलती हो। ब्रिग्स के अनुसार  “आर्थिक रूप से चमार समाज का अत्यंत  मूल्यवान हिस्सा है (था), मेहनत मज़दूरी से लेकर गाँव की चाकरी-बेगारी उसके खास काम थे। हमेशा गरीबी में रहने के बावजूद, उसके पास करने के लिए बहुत काम थे। पूरे साल उसके कामों की फ़ेहरिस्त कुछ यूं थी : जून से नवम्बर तक वह खेतों में हल आदि का काम करता था, नवम्बर-दिसम्बर में खरीफ की फसल काटने, जनवरी-फरवरी में मिट्टी आदि से जुड़े कच्चे घर का काम, मार्च-अप्रैल में रबी की फसल और मई में जमीन से जुड़े काम। इसके साथ जो कुछ दूसरे काम उसे मिल जाते, वह करता था। लेकिन यह सब करते हुए भी उसकी स्थिति  बंधुआ मज़दूर सरीखी ही बनी रहती”। (पृ.58)  ‘कफन’ के घीसू-माधव ने बेगार श्रम की इस व्यव्स्था से आत्म-निर्वासन ले लिया था। यद्यपि इसकी कीमत चुकाने के लिए वे ‘गालियाँ भी खाते, मार भी खाते। मगर कोई गम नहीं’। उत्तर भारत की कृषि व्यवस्था में श्रमशील बेगार और बंधुआ स्थिति के चलते चमार समुदाय की ग्राम समाज में दृश्यमान उपस्थिति थी। अछूत होने के बावजूद मालिक-जमींदार परिवार में उसकी आवाजाही निषिद्ध नहीं थी। ‘मुर्दहिया’ में प्रो. तुलसीराम के इस  वृतांत से इसे समझा जा सकता है, “ मेरे पिता जी जिन पंडित जी की हरवाही करते थे, उनकी बेटी आशा लगभग मेरी ही उम्र की थी, किन्तु देर से पढ़ाई शुरु करने के कारण कक्षा पाँच में पढ़ रही थी। हरवाही के चलते वह हमारे परिवार से घुली-मिली रहती थी।” (114) निश्चित रूप से यह घुलना-मिलना उसी तरह का था, जिस तरह से ‘कफन’ के जमींदार का ‘दयालु’ होना। ‘कफन’ के जमींदार उसी तरह दयालु थे, जिस तरह ‘गोदान’ के राय साहब, जो होरी से तो नीति और धरम की बातें कर रहे थे, लेकिन बेगारों द्वारा मज़दूरी माँगने पर आँखें निकालकर बोले – “ ..जब कभी खाने को नहीं दिया, तो आज यह नई बात क्यों? एक आने रोज के हिसाब से मज़ूरी मिलेगी, जो हमेशा मिलती रही है; और इस मज़ूरी पर काम करना होगा, सीधे करें या टेढ़े”। (गोदान, पृ 25)  ज़मींदारों के किसान विरोधी रवैये पर प्रेमचंद के कथात्मक और वैचारिक लेखन में विपुल सामग्री मौजूद है। ऐसी ही ‘जमींदारों ने फिर मुँह की खाई’ शीर्षक एक टिप्पणी में प्रेमचंद ने लिखा था ,” जमींदार लोग भूल जाते हैं कि किसानों पर वे जितनी सख्ती करते हैं, अगर  उसका शतांश भी सरकार उन पर करे तो वह जमींदारी छोड़ कर भाग खड़े हों। सरकार ज्यादा से ज्यादा हिरासत में ले लेती है, यहाँ तो किसानों पर डंडे  पड़ते हैं, उन्हें धूप में खड़ा किया जाता है, मुर्गा भी बनाया जाता है। और अब आप क्या अख्तियार चाहते हैं कि असामी से लगान न वसूल हो तो उसे पीस कर पी जायें?” (प्रेमचंद के विचार - भाग एक, पृ. 497) प्रेमचंद की इन निष्पत्तियों की अनदेखी कर ‘कफन’ के घीसू के इस कथन कि ‘ऐसा दिल-दरियाव था ठाकुर’ का प्रेमचंद पर आरोपण मनमाना निष्कर्ष नहीं तो और क्या है?  ठाकुर के ‘दिल-दरियाव’ होने का घीसू का यह उछाह जिस भोज की तृप्ति का परिणाम है, उसके बारे में भी यह कुतर्क पेश किया जा रहा है कि क्या  ‘कफन’ के  देशकाल में यह संभव था कि कोई  चमार किसी ठाकुर की बारात में निमंत्रित होता? इसका प्रतिप्रश्न यह है कि क्या किसी ठाकुर-जमींदार की बारात की कल्पना बिना दलित भृत्य और सेवकों के की जा सकती थी? कहानी में कहाँ यह उल्लिखित है कि घीसू  बाराती की हैसियत से शामिल था? उसकी हैसियत जमींदार के भृत्य व अनुचर की ही थी, जिसे शादी-ब्याह में सुस्वादु भोजन खिलाना कोई अजूबा न होकर ‘परजा’ को खुश रखने का एक सामान्य सामंती व्यवहार ही माना जाना चाहिए। याद कीजिए ‘मैला आँचल’ के तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद को, जिन्होने बेटी कमला के संतानवती होने पर उन्हीं किसानों के बीच जमीन बांट दी थी, जिन्हें सताकर वे बड़े भूस्वामी बने थे। सामंती सहृदयता का भी एक प्रदर्शनकारी निवेश होता है, इसे समरसता का पर्याय नहीं माना जा सकता। इसी  मानसिक अनुकूलन और धर्मिक कैद के चलते प्रो. तुलसीराम के पिता “ अक्सर कहा करते थे कि यदि हरवाही छोड़ दूँगा तो ‘ब्रह्महत्या’ का पाप लगेगा। अत्यंत धर्मांध होने के कारण वे हरवाही को अपना जन्मसिद्ध अधिकार एवं पवित्र कार्य समझते थे।" (मुर्दहिया, पृ.14)
        ‘कफन’ के पात्र घीसू और माधव के अमानवीकृत व्यवहार को क्रूरता करार देना कहानी के मूलकथ्य का कुपाठ है। यदि वे क्रूर होते तो, न  बुधिया की चीख-कराह पर ‘कलेजा थाम लेते’,  न ही उन्हें यह पछ्तावा होता कि ‘यही पाँच रुपए पहले मिलते, तो कुछ दवा-दारू करा लेते’। कहानी के अंत में माधव का चीखें मार-मार कर रोना उसकी क्रूरता नहीं, उसकी अंतश्चेतना में बची-खुची मानवता की अंतर्धारा का द्योतक है। कहानी के कुपाठ के साथ-साथ प्रेमचंद का गाँव संबंधी ज्ञान भी निशाने पर है। क्या घीसू माधव किसी टापू पर रह रहे थे या कि मरने पर कफ़न कौन खारीदने जाता है,  या कि गाँव में शराबखाना कहाँ से आ गया?  इस पर अंग्रेजी की उक्ति ‘मिसिंग दि वुड फार ट्रीज’ ही मौजूं है, फिर भी न तो घीसू माधव के कुनबे का गाँव से अलग-थलग रहना अजूबा है और न ही गाँव के बाज़ार में शराबखाने का होना। गाँव में  चमार कुनबे का जनसंकुल न होना क्या असम्भव स्थिति है? यहाँ कुनबा परिवार या कुटुम्ब का द्योतक है, समूची चमरौट का नही। संभव है कि उस कुनबे में और लोग न हों। घीसू का माधव को बताना कि उसके नौ बेटे हुए थे, यह संकेत करता है कि उनके न बचने पर कुनबा बड़ा न हो पाया हो। और हाँ, गाँव के जिस बाज़ार में कफ़न मिल सकता है, वहाँ शराब घर भी हो सकता है और कलेजी-नमकीन आदि का चिखना भी मिल सकता है। तुलसीराम ने ‘मुर्दहिया’ में अपने गाँव के नज़दीक के बाजार में ऐसे ही एक देशी शराबखाना के बारे में लिखा है “जहाँ बैठकर लोग देर रात तक शराब पीते रहते थे। उन दिनों ऐसे शराबखानों में दो प्रकार का मिट्टी का भरुका होता था. ..छोटे भरुके में आठ आने तथा बड़े में एक रुपए की शराब मिलती थी... शराबखाने के सामने विभिन्न प्रकार के चिखनों के ठेले लगे रहते थे। चने की मसालेदार घुघरी, तली हुई कलेजी तथा मछली आदि को चिखना कहते थे।( उपरोक्त, पृ. 153)
         उपरोक्त कथित दृश्यात्मक विसंगतियों के सहारे ‘कफ़न’ का पाठ कहानी की मूल संवेदना और संरचना की उपेक्षा ही नहीं है, बल्कि  उसी तरह नकार है जैसा डा. धर्मवीर ने बुधिया के पेट में सामंत के बच्चे की खोज कर प्रेमचंद को ‘सामंत का मुंशी’ करार दिया था। हर रचना का एक केंन्द्र बिंदु होता है, ‘कफ़न’ का केंद्र बिंदु श्रमिक का श्रम से व्यवस्थाजन्य अलगाव है और घीसू व माधव उस निर्मम मनुष्य विरोधी व्यवस्था के शिकार हैं, उसके कारक नहीं। कोई कारण नही है कि जिन प्रेमचंद ने अपनी पहली रचना से लेकर समूचे लेखन में चमार सहित समूचे दलित समुदाय की यंत्रणा और प्रतिरोध को दर्ज़ किया हो, वह अकस्मात घीसू और माधव के चरित्र के माध्यम से उस समुदाय की छवि बिगाड़ें और उसे प्रेमचंद की पक्षधरता और चुनाव करार दिया जाय। यानि ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुंआ’ .’मंदिर’, ’घासवाली’ आदि कहानियों के प्रेमचंद दलित पक्षधर और ‘कफ़न’ के  प्रेमचंद दलित विरोधी. ‘सद्गति’ के दुखी चमार , ‘घासवाली’ की मुलिया , ‘मंदिर’ की सुखिया, ‘ठाकुर का कुंआ’ की गंगी से लेकर ’गुल्ली-डंडा’ के गया चमार तक जाने कितने ही पात्र हैं, जिनकी व्यथा-कथा और प्रतिरोधी चेतना के माध्यम से प्रेमचंद ने वर्णाश्रमी जाति-शोषण की धज़्ज़ियाँ उड़ाई हैं। सच तो यह है कि  पहली रचना से लेकर ‘कफ़न’ तक उनकी दलित पक्षधरता असंदिग्ध है। इसके बावजूद यदि ‘रंगभूमि’ को जलाया गया और उन्हें ‘सामंत का मुंशी’ करार दिया गया, तो इसके कारणों की तलाश प्रेमचंद के लेखन में न करके अन्यत्र की जानी चाहिए। प्रो. तुलसीराम ने उचित ही लिखा था कि “ दलित साहित्य पर दावेदारी को लेकर दलित तथा गैर-दलित  सहित्यालोचकों के बीच पिछ्ला दशक प्रचंड मुठभेड़ का दशक रहा है। इस मुठभेड़ का सबसे बड़ा कारण मुंशी प्रेमचंद का साहित्य रहा है। 
        दलित कहता है कि सिर्फ़ वही दलित साहित्य लिख सकता है। इसी ‘लिखने और सकने’ के बीच बेवजह मुंशी प्रेमचंद का साहित्य ध्वस्त होकर रह गया है। इन्हीं दो धाराओं के बीच मुंशी प्रेमचंद एक मोहरे के रूप में इस्तेमाल किए जाने लगे। प्रेमचंद को आधुनिक दलित साहित्य की कसौटी पर कसना उन्हें फांसी पर लटकाने जैसा है।  प्रेमचंद ने कभी अपने साहित्य के बारे में किसी तरह का दावा नहीं पेश किया, किंतु वर्तमान दलित और गैर-दलित उन पर परस्पर-विरोधी दावा पेश कर प्रेमचंद की शक्ल को ऐसे बिगाड़ रहे हैं कि अब प्रेमचंद दलित साहित्यकार ‘थे या नहीं?’  इससे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि ‘वे दलित-विरोधी थे?’ उत्तर निश्चित रूप से ‘नहीं’ में होगा.” ( बहुजन वैचारिकी, अंक- एक, पृ.24)
         दरअसल ‘कफ़न’ के आलोचक प्रेमचंद के सरोकारों को न समझ पाने की अपनी सीमा को ‘कफ़न’ कहानी की  ही सीमा मान बैठे हैं। यह साहित्य का मनोगत और खंडित पाठ है। दो राय नहीं कि साहित्य की रचना में लेखक की अपनी सामाजिक अवस्थिति की भूमिका शामिल होती है। लेकिन प्रेमचंद सही अर्थों में वर्ण और वर्ग से मुक्त ( डिकास्ट  और डिक्लास) लेखक थे। उन्होने अपने कथात्मक व वैचरिक लेखन में अपनी  जन्मना कायस्थ जाति की मुखर आलोचना की है। ‘कायस्थ कांफ्रेंस’ (1931 शीर्षक एक टिप्पणी में प्रेमचंद ने लिखा था कि “ ऐसा हृदयहीन समाज जिसके कर्म और वचन में कोई मेल नहीं, जो स्वार्थ पर अपनी आत्मा बेच डालना भी पाप नहीं समझता, कभी नहीं उठ सकता। उसका दिन दिन अब पतन होता जाएगा और एक दिन कोई उसका नाम भी न लेगा. ...हमें तो आज कायस्थ समाज में एक भी उदाहरण नहीं मिला, जहाँ लेन-देन का घृणित व्यापार न हुआ हो।“ ( विविध प्रसंग-3, पृ. 256)  ‘मुक्तिधन’ कहानी के एक प्रसंग में प्रेमचंद ने लिखा है, “ब्राह्म्ण, क्षत्रिय या कायस्थ को रुपये देने से यह कहीं अच्छा है कि रुपया कुएं में डाल दिया जाय। इनके पास रुपए लेते समय तो अतुल सम्पत्ति होती है लेकिन रुपए आते ही वह सारी सम्पत्ति गायब हो जाती  है। इनकी कानूनी व्यवस्थाओं के सामने बड़े-बड़े नीति-शास्त्र के विद्वान भी मुँह की खा जाते हैं।” ( प्रेमचंद की सम्पूर्ण कहानियाँ, भाग एक पृ.547). ‘गोदान’ के लाला पटेश्वरी “ ..पटवारी होने के नाते खेत बेगार में जुतवाते थे, सिंचाई बेगार में करवाते थे और असामियों को एक दूसरे से लड़ाकर रकमें मारते थे। सारा गाँव उनसे काँपता था।” ( गोदान, पृ. 106)  प्रेमचंद द्वारा अपनी ही जाति की निंदा और दलितों की पक्षधरता के विपुल उदाहरण उनके लेखन में मौजूद है। इसके बावजूद यदि श्यौराज सिंह 'बेचैन' प्रेमचंद को ‘चमार विरोधी गाँधीवादी कायस्थ’ और ‘वर्ण भेद के समर्थक कायस्थ’ ( दलित साहित्य की अवधारणा और प्रेमचंद, सं.-सदानंद शाही, पृ.111-112) के रूप में पेश करते हैं तो यह उनका निराधार दुराग्रह नहीं तो और क्या है?
      यहाँ यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि ‘कफ़न’ कहानी के समूचे नकार से उपजी प्रेमचंद विरोधी मुहिम अब उतार पर है। किंचित अगर-मगर  के बावजूद इधर के वर्षों में अंबेडकरवादी विमर्शकारों के बीच प्रेमचंद को लेकर सकारात्मक बद्लाव के संकेत भी हैं। एक दौर में ‘कफ़न’ को ‘दलित जीवन को कलंकित’ करने वाली कहानी मानने वाले कँवल भारती ने प्रेमचंद पर पुनर्विचार करते हुए लिखा है - “ क्या प्रेमचंद वास्तव में दलित विरोधी थे? दस साल पहले उनकी ‘कफ़न’ कहानी को लेकर मैं इसी धारणा का हो गया था। पर जैसे-जैसे मैं उनकी अन्य काहानियाँ, उपन्यास और लेख पढ़ता गया, मैं अपनी धारणा से बाहर आने लगा। मैंने अनुभव किया कि 1936 तक के काल-खंड में प्रेमचंद अकेले ऐसे लेखक हैं, जिनसे साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत होती है।” (प्रेमचंद की महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, पृ. 498) इसके भी आगे जाकर उन्होंने प्रेमचंद पर अंबेडकर के प्रभाव की शिनाख्त करते हुए यह भी लिखा कि “प्रेमचंद पर अंबेडकर का प्रभाव 1927 के बाद पड़ता है पर, उनका दलित विमर्श सिर्फ अम्बेडकर से प्रभावित नहीं है, बल्कि उनके पूर्ववर्ती उन दलित आंदोलनों का भी उन पर प्रभाव दिखाई देता है, जो हिंदी क्षेत्र में, खासतौर से पूर्वांचल में सक्रिय थे। इनमें सबसे बड़ा आंदोलन स्वामी अछूतानंद ’हरिहर’ का आदि हिंदू आंदोलन था, जो 1900 के दशक में आरम्भ हुआ था और 1930 तक चला था। इस आंदोलन ने आर्यसमाज के शुद्धि आंदोलन और गांधीजी के हरिजन उद्धार की भी जमकर ख़बर ली थी। यह हम प्रेमचंद के दलित विमर्श में भी देखते हैं।  मैं कह सकता हूँ कि दलित वर्गों के लिए प्रेमचंद का साहित्य सामाजिक परिवर्तन की मशाल है।” (उपरोक्त, पृ. 503)  नि:संदेह प्रेमचंद पर यह पुनर्विचार वर्तमान संदर्भ में एक  जरूरी प्रस्थान बिंदु है। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रेमचंद पर खंडित दृष्टि और टुकड़े-टुकड़े में विचार न कर समग्रता से विचार किये जाने की जरूरत है। 
(कफ़न को यहाँ पढ़ें )


वीरेन्द्र यादव

जन्म : 5 मार्च, 1950; जौनपुर (उ.प्र.)।

लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘, ‘विवाद नहीं, हस्तक्षेप‘, ‘उपन्यास और देस‘, ‘विमर्श और व्यक्तित्व‘ आदि महत्वपूर्ण कृतियाँ।

सम्मान : आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से समादृत।

सम्पर्क: सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016; ईमेल –virendralitt@gmail.com

मोबाइल - 9415371872

   
     
 
          

 
           
                    

                                  
     


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय