मनीष
क्या प्रेमचन्द साहित्य
आज भी प्रासंगिक है?
क्या भारत
में अभी भी कोई
‘रंगभूमि’ स्थित है या भारत ‘स्वराज’ पा चुका है? भारतीय व्यवस्था ने ‘सूरदास’ से लड़ना छोड़ दिया है
या किसान आज भी अपनी ज़मीन के लिए उद्योगपतियों और सरकार की साँठ-गाँठ से लड़ रहा है? क्या प्रेमचंद केवल काग़ज़
काले करने के लिए लिख रहे थे या तत्कालीन भारतीय समाज को किसी वृहद लक्ष्य के प्रति
जागरूक कर रहे थे?
प्रेमचन्द
का लक्ष्य अपने समकालीन महात्मा गाँधी के लक्ष्य से क्या– क्या साम्य, वैषम्य रखता है तथा वहाँ
तक पहुँचने में दोनों ने कौन से रास्ते अपनाए? प्रेमचन्द के जीवन दर्शन को लेकर
आलोचकों की अलग–अलग राय
है। कुछ क्रांतिकारी आलोचकों का मानना है कि प्रेमचन्द एक स्पष्ट और व्यापक दृष्टि
नहीं रखते थे।
“मित्रो, ऐसी बात कभी-कभी गाँधी के बारे में
भी कही गई है। गाँधी जी सामाजिक विचारक थे किन्तु गाँधी का दर्शन क्या था।”1 कुछ आलोचक लकीर के फकीर
बनकर,
दयानारायण
निगम को लिखे प्रेमचन्द के एक पत्र से "मैं अब करीब–करीब बोल्शेविस्ट उसूलों का क़ायल
हो गया हूँ।”2 का प्रमाण
देते हुए प्रेमचन्द को सच्चा साम्यवादी घोषित कर चुके हैं। एक और वर्ग है जो शिवरानी
जी का हवाला देकर प्रेमचन्द को गाँधी(वाद) का तरफ़दार ही नहीं “अरे तरफ़दार होने को
तुम कहती हो,
मैं उनका(गांधी जी) चेला हो गया। चेला तो
उसी समय हुआ,
जब वह गोरखपुर
में आए थे।”3 हम ऐसे
किसी निर्णयात्मक एकांगी दावे से बचते हुए कुछ मूलभूत समस्याओं को लेकर ‘रंगभूमि’ उपन्यास में गाँधी दर्शन
कहाँ तक साथ चला है और कहाँ से प्रेमचन्द एक अलग रास्ता अख़्तियार करते हैं इस पर अपना
ध्यान केन्द्रित रखेंगे।
भारतीय राजनीति में गाँधी जी
के उदय का काल और हिन्दी साहित्य में प्रेमचंद के उदय का काल लगभग समान है और साम्राज्यवादी
सरकार ने दोनों को ही अपने लिए एक ख़तरे के रूप में लिया। 1908 में आए प्रेमचन्द के प्रथम कहानी
संग्रह
‘सोजे वतन’ को ब्रिटिश सरकार ने
ज़ब्त कर लिया।
1909 में
आई गाँधी जी की पुस्तक
‘हिन्द
स्वराज’
को भी ब्रिटिश
सरकार ने ज़ब्त कर लिया। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह के सफल प्रयोग के बाद गाँधी
जी भारत में
1917 में
चम्पारण के ग़रीब किसानों के पक्ष में और 1918 में खेड़ा के किसानों की लगान
समस्या के लिए सत्याग्रह का सफल प्रयोग करते हैं। गाँधी जी पहली बार भारतीय किसान की
समस्या को राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में लेकर आते हैं। इसी समय 1919 में रूसी क्रान्ति हो
चुकी है। और इसी समय हिन्दी साहित्य के पहले किसान आधारित महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’, की रचना प्रेमचन्द करते
हैं। जो
1922 में
प्रकाशित होता है। यह उपन्यास प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठापित करता है।
इसके बाद आता है
‘रंगभूमि’ उपन्यास जो 1924-25 में लिखा गया। इसने प्रेमचंद
को उपन्यास सम्राट की उपाधि दिलवाई। ग़ौरतलब है यह दौर भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में
सुस्ती का दौर है। चौरा-चौरी में घटित हिंसा
के बाद गाँधी जी ने असहयोग आन्दोलन वापस ले लिया है। भारतीय समाज में एक क़िस्म की
हताशा छाई हुई है। इस बीच सूरदास लड़ रहा है। अन्धा, चमार और भिखारी सूरदास लड़ रहा
है
“ऐसे पूँजीपति, जिनकी साँठ-गाँठ जमींदारों और राजाओं
से होती है,
अंग्रेजी
राज के परम भक्त और सहायक होते हैं। सूरदास इन सबकी ताकत को चुनौती देता है। उसकी लड़ाई
वस्तुत:
सामन्त-विरोधी और साम्राज्य-विरोधी है।”4
इस साम्राज्य विरोधी लड़ाई का स्वरूप क्या है? ये लड़ाई अंग्रेज जाति
के विरूद्ध नहीं है बल्कि अंग्रेजी सभ्यता के विरूद्ध है। ऐसे अंग्रेज जो खुद का भारत
के सरोकारों से तादात्म्य रखते हैं, उनका साथ देने से कोई गुरेज नहीं है। रंगभूमि में
ऐसे पात्रों का प्रतिनिधित्व करते हैं सोफिया और उसका भाई प्रभु सेवक। जान सेवक का
पूरा परिवार ख़ुद को अंग्रेजी सभ्यता से जोड़ना चाहता है, वहीं दूसरी ओर सोफिया सोच रही
है
– “यहीं
खड़ी होकर कह दूँ,
मैं अपने
को भारत सेवा के लिए समर्पित करती हूँ।”5 तो प्रभु सेवक कहता है – “हमारी मुक्ति भारतवासियों के
साथ हैं।”6 और पूरे
उपन्यास में दोनों चरित्रों का विकास उदात्तता की ओर होता है। यहाँ ध्यान देने वाली
बात यह है कि सोफिया और प्रभु सेवक अंग्रेज नहीं बल्कि भारतीय ईसाई है लेकिन इकबाल
वर्मा
‘सेहर’ को 1925 के अपने एक पत्र में
प्रेमचन्द ने लिखा है -
“हालांकि
सोफिया का असल मिसेज एनी बेसेंट है।”7 ऐसे ही विचार ‘हिन्द स्वराज’ में गांधी जी के भी है
वे लिखते है
“जो नियम
हिन्दुस्तानियों के बारे में है,
वही अंग्रेजो
के बारे में समझना चाहिए। सारे के सारे अंग्रेज बुरे हैं, ऐसा तो मैं नहीं मानूंगा। बहुत
से अंग्रेज चाहते हैं कि हिन्दुस्तान को स्वराज मिले।”8 इसके विपरीत भारतीय शिक्षित वर्ग
का प्रतिनिधित्व विनय सिंह और चतारी के राजा महेन्द्र कुमार सिंह करते है। विनय सिंह
का चरित्र जाति सेवा और देशसेवा के भाव से निर्मित होता है लेकिन अपने पूरे चारित्रिक
विकास में यह अपने सामन्ती संस्कार नहीं त्याग पाता और अपने देशाटन, देशसेवा, जातिसेवा के मार्ग पर
चलते-चलते ही देशी रजवाड़ों और औपनिवेशिक सत्ता द्वारा की जाने वाली, क्रूरता और गरीब रिआया
के दमन में शामिल ही नहीं होता बल्कि बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता है। वहीं राजा महेन्द्र
सिंह ऐसे जनवादी नेता है, जो तब तक ही जनवादी बना रहना चाहता है, जब तक उस पर आँच न आए।
खुद पर आँच आते ही वो
“ऐसे जनवाद
से तो धनवाद,
एकवाद सभी
वाद अच्छे हैं।”9 कहने लगते
हैं।
गाँधी जी के ही समान प्रेमचन्द
न केवल भारतीय समाज के आधार तत्व के रूप में भारतीय किसान की भूमिका को रेखांकित करने
वाले विचारकों में अग्रणी रहे हैं। बल्कि प्रेमचन्द औपनिवेशिक भारत में शिक्षित मध्यम
वर्ग के अंतर्विरोधों को भी बारीकी से समझ पाने में सक्षम रहे हैं। गाँधी जी की ही
तरह उन्हें इन शिक्षित मध्यम वर्ग से कुछ ख़ास आशा नहीं थी। प्रेमचंद के अपने शब्दों
में कहें तो
"हमारे
यहाँ पढ़ा-लिखा समाज सबसे ज़्यादा
ख़ुदगर्ज़ हो गया है।”10 इसे रंगभूमि
में प्रेमचंद ने भरत सिंह से यूँ कहलवाया है “यही तो सबसे बड़ी विपत्ति है।
शिक्षित वर्ग जब तक शासकों का आश्रित रहेगा, हम अपने लक्ष्य के जौ भर भी निकट
न पहुँच सकेंगे। उसे अपने लिए थोड़े-बहुत
दिनों के लिए दूसरा ही अवलम्ब खोजना पड़ेगा।”11 गाँधी जी इस शिक्षित वर्ग के
बारे यह सोचते थे
“यह शिक्षित
वर्ग अपने देश और जनता के प्रति उदासीन है और इसके हृदय में न देश के प्रति लगाव की
भावना है,
न अनेक
कष्टों के बीच जी रहे जनसाधारण के प्रति करुणा या सहानुभूति।”12
भारत में आधुनिकता के आगमन के साथ-साथ यह मिथक भी गहराता
गया कि पश्चिमीकरण ही आधुनिकीकरण है। इसका बड़ा कारण भारतीय बुद्धिजीवी वर्ग के निर्मिति
में निहित था। भारत में बुद्धिजीवी वर्ग का निर्माण पाश्चात्य शिक्षा और ज्ञान के सम्पर्क
में आने से हुआ। और यही आधुनिकता की अवधारणा ब्रिटिश साम्राज्य को वैधता प्रदान कर
रही थी। राष्ट्रीय आन्दोलन के तेज होने पर स्वदेशी आन्दोलन चले और पश्चिमीकरण के विकल्प
की तलाश में भारतीय समाज का एक धड़ा पश्चिम के अन्ध विरोध के साथ ‘हिन्दू पुनरुत्थानवाद’ की ओर बढ़ा, तो वहीं दूसरी
ओर
‘मुस्लिम
पुनरुत्थानवाद’
भी एक ‘अस्वस्थ प्रतियोगिता’ में शामिल हो गया। इनके
संकिर्ण अवधारणाओं के बरक्स एक प्रगतिशील, समावेशी और सुसंगत आधुनिकता की
अवधारणा,
पश्चिमी
सभ्यता के बरक्स भारतीय सभ्यता की अवधारणा हमें रवीन्द्र नाथ के दर्शन, गाँधी जी के राजनैतिक
विचार और प्रेमचन्द के साहित्य में देखने को मिलती है। गाँधी जी का ‘हिन्द स्वराज’ पश्चिमी सभ्यता की व्यवस्थित
आलोचना है,
इसमें उन्होंने
पश्चिमी शिक्षा,
रेल, वकील, डॉक्टर और मशीन की आलोचना
प्रस्तुत की है। आगे प्रेमचन्द के उपन्यास ‘रंगभूमि’ का एक संवाद दृष्टव्यहै –
“मिसेज सेवक – (आश्चर्य से) शिक्षा का इतना प्रचार
और भी किसी काल में हुआ था?
कुंवर साहब – मैं उसे शिक्षा ही नहीं
कहता,
जो मनुष्य
को स्वार्थ का पुतला बना दे।
मिसेज सेवक – रेल, तार, जहाज, डाक ये सब विभूतियां
अंग्रेजों ही के साथ आई!
कुंवर साहब – अंग्रेजों के बगैर भी
आ सकती थीं,
और आई भी
हैं तो अधिकतर अंग्रेजों ही के लाभ के लिए।
मिसेज सेवक – ठीक है, ऐसा न्याय विधान पहले
कभी न था।
कुंवर साहब – ठीक है, ऐसा न्याय विधान कहाँ
था,
जो अन्याय
को न्याय और असत्य को सत्य सिद्ध कर दे! यह न्याय नहीं न्याय का गोरखधंधा है।”13
‘रंगभूमि’ का यह ‘मिसेज सेवक – कुंवर साहब’ संवाद, ‘हिन्द स्वराज’ के ‘पाठक– संपादक’ संवाद की याद दिलाता
है। कुंवर साहब के विचार संपादक के विचार से मिलते-जुलते है। यहाँ कुंवर साहब की
जगह प्रेमचंद बोल रहे हैं,
वहाँ संपादक
की जगह गाँधी जी बोल रहे हैं। लेकिन यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि रंगभूमि सर्वथा ‘हिन्द स्वराज’ अथवा गाँधी जी के प्रभाव
में ही नहीं लिखा गया है।
“एक व्याख्या
तो यह है कि सूरदास द्वारा फैक्टरी – निर्माण का विरोध औद्योगीकरण के विरूद्ध प्राचीन
ग्रामीण अर्थव्यवस्था की हिमायत है। इस व्याख्या के अनुसार ‘रंगभूमि’ तत्वत: गांधी जी के ‘हिन्द स्वराज’ का कथात्मक रूपान्तर
है। किन्तु यहाँ महत्वपूर्ण प्रेमचंद का मनोजगत अभिप्राय नहीं, बल्कि ‘रंगभूमि’ द्वारा प्रस्तुत यथार्थ
है जो अंततः लेखक के मनोजगत अभिप्राय पर विजयी होता है।”14 ‘रंगभूमि’ में प्रेमचंद सामन्तवाद
और साम्राज्यवाद की साँठ-गाँठ को भली-भाँति पहचानते हैं। जमींदार, उद्योगपति, कानून और पुलिस को औपनिवेशिक
सत्ता के दलाल के रूप में चित्रित करते हैं। और इस पूरे तंत्र के विरुद्ध एक अन्धे, भिखारी चमार को खड़ा
करते हैं।
“ ‘रंगभूमि’ भारतीयता की तेजस्वी
प्रतिमा प्रस्तुत करता है, जिसमें शारीरिक दुर्बलता बीच भी अलौकिक बल है, परहित के लिए आत्मत्याग
की भावना है,
निष्काम
संघर्ष की नैतिकता है,
और है भारतीय
किसान की आश्चर्यजनक दृढ़ता।”15
प्रेमचन्द ने स्वयं इस बात का
ज़िक्र किया है कि सोफिया के चरित्र का असल एनी बेसेंट है लेकिन कहीं भी इस बात जिक्र
नहीं मिलता कि सूरदास के पात्र का असल गाँधी जी है। नामवर सिंह ने ‘रंगभूमि’ पर बात करते हुए कहा
है
– “ऐसा
प्रतित होता है जैसे सूरदास के रूप में प्रेमचन्द ने स्वयं गाँधी जी को ही अपनी समूची
नैतिक शक्ति के साथ
‘रंगभूमि’ में उतार दिया हो। प्रेमचन्द
का सूरदास केवल एक सामान्य कथा चरित्र नहीं बल्कि भारत की नई राष्ट्रीय शक्ति का प्रतीक
है।”16 सूरदास
के चारित्रिक गठन को लेकर समाजशास्त्री सुधीर चन्द्र ने अपने अध्ययन ‘प्रेमचन्द एण्ड इंडियन
नेशनलिज़्म’
में लिखा
है
“एक हास्यास्पद
रूप से असमान लेकिन वीर संघर्ष के बाद, सूरदास अपनी अन्तिम साँस ले रहा है। अपना काम कर
देने और अपने निकट अंत के प्रति सचेत, यह अन्धा भिखारी, रंगभूमि का नायक, जो स्पष्ट ढंग से महात्मा
गांधी के सांचे में ढला हुआ है,
पीछे और
आगे देखता जब तक कि बुराई की ताकतें न्याय की ताकतों से हार नहीं जाती।”17 हमने बात शुरू की थी
कुछ मूलभूत समस्याओं को लेकर,
‘रंगभूमि’ में व्यक्त प्रेमचन्द
के विचार और गाँधी दर्शन को लेकर और पहुँच गए गाँधी जी और सूरदास के चरित्र की तुलना
तक। अगर सूरदास का गाँधी जी के समान होना इस उपन्यास को गाँधीवादी स्थापित करें तो वीरपाल
सिंह की उपस्थिति, जो कहता है
“वीरपाल सिंह
मैं ही हूँ,
जिसने राज्य
के नौकरों को नेस्तनाबूद करने का प्रण कर लिया है।”18 इस उपन्यास को हथियारबन्द क्रान्ति
में यक़ीन रखने वाला उपन्यास स्थापित करेगा।
यहाँ पर मेरा मत यह है कि प्रेमचन्द
एक विशिष्ट साहित्यकार है। उन्होंने किसी भी विचारधारा का निरुपण मात्र करने वाले निर्जीव
साहित्य की रचना नहीं की,
बल्कि प्रेमचन्द ने
जो अपने समाज से पाया, उसका जीवन्त लेखा-जोखा
हमारे सामने प्रस्तुत किया है। इस दशा में प्रेमचन्द पर किसी वाद का ठप्पा लगाना, उन वादों के साथ तो ज्यादती
होगी ही साथ ही महान कथाकार प्रेमचन्द के साथ भी ज्यादती होगी। लेकिन यहाँ यह एक बात
और ध्यान रखने वाली है कि प्रेमचन्द जिस दौर में साहित्य रचना कर रहे थे, वो भारत के
स्वतंत्रता संघर्ष का दौर था। गाँधी जी के आगमन के बाद से ही वे संपूर्ण राष्ट्रीय
आंदोलन के केन्द्र में थे, इससे उस समय हर भारतीय साहित्यकार पर गाँधी जी का कुछ न कुछ
प्रभाव ज़रूर पड़ा। तब लाजमी है कि प्रेमचंद का साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहेगा।
इसी कड़ी में
‘रंगभूमि’ पर भी गाँधी दर्शन का
असर है लेकिन अपने अंतर्विरोधों के साथ। ‘रंगभूमि’ में भारतीय किसान को समाज का
आधार समझना तथा उसको राष्ट्रीय आन्दोलन की मुख्य धारा में लाना, शिक्षित मध्यम वर्ग की
सीमाओं को समझना तथा शिक्षित मध्यम वर्ग और मज़दूर किसान के बीच सेतु का काम करना, पश्चिमी सभ्यता के बरक्स
भारतीय सभ्यता की अवधारणा प्रस्तुत करना आदि में गाँधी जी और प्रेमचन्द के विचारों
में साम्य दिखता है। वहीं आवश्यक होने पर किसानों और जमींदारों के बीच संघर्ष, देशी रजवाड़ों से सशस्त्र
विद्रोह,
महाजनों
के प्रति खुला संघर्ष आदि का प्रेमचंद जिस दृढ़ता से समर्थन करते हैं, गाँधी जी वहाँ
अलग रास्ता अख़्तियार करते हैं।
सवाल यह भी था कि सौ साल बाद
रंगभूमि को क्यों पढ़ें?
इस सवाल
का जवाब इस एक सवाल के जवाब में अंतर्निहित है कि आज का नव उदारवादी लोकतंत्र एक आम
आदमी के लिए उस उपनिवेशी शासन से गुणात्मक स्तर पर कितना भिन्न है? आज का पूँजीपति, कानून और प्रशासन के
गठजोड़ के सामने
‘सूरदास’ की क्या स्थिति है? पाठक अपना जवाब स्वयं
ढूँढ़ लेंगे। अगर आज भी किसान अपनी ज़मीन के लिए लड़ रहा है तो ‘रंगभूमि’ आज भी प्रासंगिक हैं।
संदर्भ
- नामवर सिंह, प्रेमचंद और भारतीय
समाज,
राजकमल
प्रकाशन,
नयी
दिल्ली,
2017, पृ 80.
- कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद: पत्र कोश, स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2017.
- शिवरानी देवी, प्रेमचंद घर में, नयी किताब प्रकाशन, नयी दिल्ली, 2024, पृ 102.
- रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका
युग,
राजकमल
प्रकाशन,
नयी
दिल्ली,
2008, पृ 79.
- प्रेमचंद, रंगभूमि, मेपल प्रेस, नोएडा, 2022,पृ 37.
- वही, पृ 159.
- कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद: पत्र कोश, पृ 20.
- महात्मा गांधी, हिन्द स्वराज, मेपल प्रेस, नोएडा, 2022, पृ 13.
- प्रेमचंद, रंगभूमि, पृ 121.
- शिवरानी देवी, प्रेमचंद घर में, पृ 157.
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- पूरन चंद्र जोशी, आजादी की आधी सदी
स्वप्न और यथार्थ,
राजकमल
प्रकाशन,नयी दिल्ली, 2011, पृ 45.
- प्रेमचंद, रंगभूमि, पृ 182-183.
- नामवर सिंह, प्रेमचंद और भारतीय
समाज,
पृ 69.
- वही, पृ 70.
- वही, पृ 20.
- Sudhir Chandra, Premchand and Indian
Nationalism, Modern Asian Studies, Vol. 16, No. 4, 1982, P 608.
- प्रेमचंद, रंगभूमि, पृ 206.
शोधार्थी (हिन्दी भवन), विश्व-भारती, शान्तिनिकेतन, बोलपुर
सम्पर्क: 7318712443
ईमेल: chouhanmanish537@gmail.com