काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

'संगत' का 'असंगत' पक्ष

रेख़्ता फाउंडेशन के हिंदवी उपक्रम के यू ट्यूब चैनल की साक्षात्कार सीरीज 'संगत' की सौवीं कड़ी पिछले शुक्रवार ( 18 जुलाई ) को लाइव हुई। इसके साथ ही हिन्दी लेखकों के बीच तूफान खड़ा हो गया। अपने साक्षात्कार में वरिष्ठ लेखक ज्ञानरंजन ने कुछ प्रमुख लेखकों पर ऐसी टिप्पणियाँ की, जो उन लेखकों के समर्थकों और प्रशंसकों पर नागवार गुजरीं। बहुत सारे पुराने ज़ख़्म हरे हो गये और साहित्य की दुनिया में पुराने हिसाब-किताब का बहीखाता फिर से खुल गया। आइये एक झलक देखते हैं -




ज्ञानरंजन का जन्म 21 नवम्बर, 1936 को महाराष्ट्र के अकोला ज़ि‍ले में हुआ। प्रारम्भिक जीवन महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में व्यतीत हुआ। उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हुई। 2013 में जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा मानद ‘डॉक्टर ऑफ़ लिटरेचर’ की उपाधि प्रदत्त (मानद डी.लिट.)।

जबलपुर विश्वविद्यालय से सम्बद्ध जी. एस. कॉलेज में हिन्दी के प्रोफ़ेसर रहे और चौंतीस वर्ष की सेवा के बाद 1996 में सेवानिवृत्त।

सातवें दशक के प्रमुख कथाकार। अनेक कहानी-संग्रह प्रकाशित। अनूठी गद्य रचनाओं की एक क़िताब कबाड़खाना बहुत लोकप्रिय हुई। कहानियाँ देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उच्चतर पाठ्यक्रमों में पढ़ाई जाती हैं। शान्ति निकेतन से कहानियों का एक संग्रह बांग्ला में अनूदित होकर प्रकाशित। अंग्रेज़ी, पोल, रूसी, जापानी, फ़ारसी और जर्मन भाषाओं में कहानियाँ प्रकाशित। 

आपातकाल के आघातों के बावजूद 35 वर्ष निरन्तर विख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘पहल’ का संपादन व प्रकाशन। 2 वर्ष के अन्तराल के बाद पुनः प्रकाशित। 

सम्मान : ‘सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड’, हिन्दी संस्थान का ‘साहित्य भूषण सम्मान’, म.प्र. साहित्य परिषद का ‘सुभद्रा कुमारी चौहान’ और 'अनिल कुमार पुरस्कार’, मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का ‘शिखर सम्मान’ और ‘मैथिलीशरण गुप्त सम्मान’, भारतीय भाषा परिषद, कोलकाता का ‘प्रतिभा सम्मान’, ‘शमशेर सम्मान’ और पाखी का ‘शिखर सम्मान’, भारतीय ज्ञानपीठ का अखिल भारतीय ‘ज्ञानगरिमा मानद अलंकरण’, अमर उजाला का ‘शब्द सम्मान’।

आपातकाल के प्रतिरोध में मध्य प्रदेश संस्कृति विभाग का एक पुरस्कार और मुक्तिबोध फ़ेलोशिप का अस्वीकार।

ग्रीनविच विलेज (न्यूयार्क) में सातवें-आठवें दशक में कहानियों पर फ़िल्म निर्माण। भारतीय दूरदर्शन द्वारा जीवन और कृतित्व पर एक पूरी फ़िल्म। आई.सी.सी.आर. (विदेश मंत्रालय) समेत देश की अनेक उच्चतर संस्थाओं की सामयिक सदस्यताएँ। मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के ज्वलंत वर्षों में लम्बे समय तक उसके महासचिव रहे। हरिशंकर परसाई के साथ राष्ट्रीय नाट्य संस्था 'विवेचना' के संस्थापक सदस्य भी रहे।


संगत और ज्ञानरंजन प्रसंग

ज्ञानरंजन की ‘संगत’



वीरेंद्र यादव

‘संगत’ में ज्ञानरंजन जी को इस रूप में देखना मन को कहीं गहरे संतप्त कर गया। शमशेर जी की एक काव्य पंक्ति बरबस ही कौंध गई कि ‘ऐसे ऐसे लोग कैसे कैसे हो गए!’ ज्ञान जी से पहली भेंट 1980 में प्रगतिशील लेखक संघ के राष्ट्रीय सम्मेलन में जबलपुर में हुई थी। इसके बाद प्रगतिशील लेखक संघ और 'पहल' के चलते उनके साथ निकटता और आत्मीयता बढ़ी। जब कभी लखनऊ आते तो वे और उनकी पत्नी सुनयना जी अक्सर अखिलेश के घर पर ठहरते, पास ही मेरे घर भी आते. अखिलेश से उनका विशेष स्नेह था। मुझे यह भी याद आ रहा है कि इंदौर के एक आयोजन में शामिल होने के बाद जब अखिलेश और मैं वाया भोपाल वापसी की यात्रा पर थे तब ज्ञानरंजन जी भोपाल स्टेशन पर स्नेहवश पानी की बोतल और मिष्ठान का डिब्बा लेकर आये थे। लखनऊ में जब कामतानाथ को पहल सम्मान देने के लिए समारोह आयोजित किया गया तो उसके संयोजन का दायित्व उन्होंने मुझे ही दिया था। उसका प्रशस्तिपत्र भी मुझसे लिखवाया था। ज्ञानरंजन जी को यह श्रेय भी है कि शाहजहाँपुर के 'पहल' के हृदयेश सम्मान के अवसर पर मेरे द्वारा उपन्यासों पर दिये गए वक्तव्य को सुनने के बाद उन्होंने मुझ पर दबाव डालकर तीस उपन्यास भेजकर व एक वर्ष का समय देकर नवें दशक के उपन्यासों पर लम्बा विनिबंध लिखवाया और वर्ष 1998 में उसे पहली ‘पहल’ पुस्तिका के रूप में प्रकाशित किया। सच कहें तो वहीं से मेरे उपन्यास आलोचना संबंधी लेखन की गंभीर शुरूआत भी हुई। इस बीच यह याद आ रहा है कि जब 1987 में अमरकांत जी की प्रेरणा से मैंने राकेश के साथ मिलकर ‘प्रयोजन’ पत्रिका निकाली तो पत्रिका प्राप्त होने पर ज्ञानरंजन जी ने प्रसन्न होकर लौटती डाक से एक लिफाफे में 100 रु. का नोट रखकर आह्लाद्पूर्वक लिखा कि ‘अंक बहुत अच्छा है और यह राशि तुम लोगों के बीयर पीने के लिए है.’ और जाने कितने अवसरों पर वे हम लोगों को स्नेहसिक्त करते रहे थे। उनके लगभग पचास से अधिक पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं। और अब जब ‘संगत’ के साक्षात्कार में उनको यह कहते सुना कि ‘मैनें तो वीरेंद्र यादव, अखिलेश और ‘तद्भव’ का बहिष्कार कर रखा है’ तो संतप्त होना स्वाभाविक ही था। विशेषकर तब जबकि वे स्वयं ‘तद्भव’ के शुरुवाती किसी अंक के लेखक रह चुके थे। ज्ञान जी द्वारा ‘ तद्भव’ के इस कथित बहिष्कार को किस तरह समझा जाय ?
इस बीच यह हुआ कि ज्ञानरंजन जी ने प्रगतिशील लेखक संघ छोड़ दिया। अपने उस दौर के साथियों और 'पहल' के शुरुआती दौर के सहयोगियों से किनाराकशी कर ली। हम लोगों से भी उनकी वह गर्मजोशी न रही। दिल्ली पुस्तक मेला में मेरा उनसे आमना-सामना भी हुआ तो उनकी तरफ से एक ठंडापन ही रहा था। मेरा भी काफी कुछ लेखन इस बीच ‘तद्भव’ में ही आता रहा है. अब उनका हम लोगों और ‘तद्भव’ के बहिष्कार संबंधी यह कथन! यह लिखना इसलिए पड़ा कि इस साक्षात्कार को सुनने के बाद कई लोग हम लोगों के बारे में ज्ञान जी के इस कथन को डिकोड करना चाहते हैं। ज्ञान जी को इस रूप में देखना सचमुच स्तब्द्धकारी है। ज्ञान जी ने इस साक्षात्कार में अपने मित्रों व अनन्य निकटस्थ लोगों और संगठन के प्रतिबद्ध साथियों के संबंध में जो बातें कही हैं, उम्र के इस पड़ाव पर यह उनका अपना मत है, उस पर क्या टिप्पणी करना! काश वे इससे अपने को बचा सके होते! इस सबके बावजूद उनके बेहतर स्वास्थ्य और सक्रिय रचनात्मक जीवन के लिए हमारी शुभकामनाएं।
अब साक्षात्कारकर्ता अंजुम शर्मा से कुछ सवाल :
1-ज्ञानरंजन जी के इस कथन पर कि उन्होंने ‘इमरजेंसी' के बाद ‘पहल’ में कोई विज्ञापन नहीं छापा, अंजुम ने यह प्रतिप्रश्न क्यों नहीं किया कि विज्ञापन तो लगातार ‘पहल’ में छपते रहे थे, फिर वे कैसे यह कह सकते हैं? और यदि उन्हें इतनी भी जानकारी नहीं थी तो उनकी बहुत कमजोर तैयारी थी। संयोग से मेरे सामने ‘पहल’ का 88 वां अंक है जिसमें सरकारी व गैर सरकारी दस विज्ञापन प्रकाशित हैं। ‘पहल’ 86 भी सामने है उसमें भी कुल ग्यारह पृष्ठों के विज्ञापन प्रकाशित हैं।
2- ज्ञानरंजन जी ने साक्षात्कार में यह जानकारी दी कि नामवर जी ने उन्हें गुणवत्ता के आधार पर सोवियत लैंड नेहरु अवार्ड दिया था। क्या यह प्रश्न नहीं पूछा जाना चाहिए था कि यह संयोग कैसे घटित हुआ कि इसके बाद ‘पहल’ ने नामवर जी पर केन्द्रित एक समूचा अंक प्रकाशित किया. इस अंक के लिए नामवर जी के कुछ पत्रों को जुटाने का दायित्व ज्ञान जी ने मुझे भी सौंपा था। यह भी कि इसी दौर में कहानी पर केन्द्रित नामवर जी से सुरेश पांडे द्वारा लिए गए साक्षात्कार की पुस्तिका ‘पहल’ द्वारा प्रकाशित हुई थी। यह सब ज्ञान जी को इसलिए याद दिलाना चाहिए था क्योंकि इस साक्षात्कार में उनकी यह घोषणा है कि नामवर जी उनके सबसे बड़े शत्रु थे और ज्ञान जी उनको दंडित किये जाने के पक्ष में थे।
3-ज्ञानरंजन जी ने जब चुनौतीभरे अंदाज़ में इस सवाल को कई बार दुहराया कि नामवर जी के एक पुस्तक के अलावा दूसरी पुस्तकों के नाम बताइए तो उनकी 'दूसरी परम्परा की खोज', 'छायावाद' , 'इतिहास और आलोचना' व 'कविता के नये प्रतिमान' सरीखी पुस्तकों के नाम अंजुम शर्मा ने क्यों नहीं बताए? क्या उन्हें नामवर जी की पुस्तकों की जानकारी नहीं थी? क्या नामवर जी को ज्ञान जी द्वारा महज वाचिक परंपरा तक सीमित रखकर खारिज करना उचित था? क्या इसे प्रश्नांकित नहीं किया जाना चाहिए था? और यदि नामवर जी इतने ही गये-गुजरे आलोचक थे तो 'पहल' ने उन पर समूचा अंक क्यों केंद्रित किया था?
4- राजेन्द्र यादव के आरोप के हवाले से पहल सम्मान की सफाई देते हुए जब ज्ञान जी ने कहा कि स्वयंप्रकाश के अलावा किसी अन्य कायस्थ को यह सम्मान नहीं दिया गया तो उनकी इस गलतबयानी पर अंजुम शर्मा ने मौन क्यों साध लिया? क्या उन्हें नहीं पता था कि यह सम्मान कामतानाथ और नरेश सक्सेना को भी मिला है? जानकारी तो उन्हें यह भी होनी चाहिए थी कि जबलपुर के ही महेश योगी से ज्ञान जी का नाम क्यों जुड़ा था?
5-ज्ञानरंजन जी के इस दावे को भी प्रश्नांकित करना चाहिए था कि ‘पहल’ का कभी कोई पैड नहीं छपा। मेरे पास तो 'पहल' के मंहगें रंगीन काग़ज़ और डिज़ायनर पैड पर ज्ञान जी द्वारा लिखे पत्र मौजूद हैं। यह बहुत मामूली बात है, लेकिन जिस तरह से ज्ञान जी ने इसे सादगी के मूल्य की तरह पेश किया क्या इसका उल्लेख नहीं किया जाना चाहिए था?
6-जब ज्ञानरंजन जी उदय प्रकाश और योगी आदित्य नाथ के प्रसंग की आलोचनात्मक चर्चा कर रहे थे तब अंजुम शर्मा का यह सवाल कि क्या अपने अनुकूल विचारधारा के राजनेता के साथ मंच शेयर करना ठीक है? इस पर ज्ञान जी ने जब यह कहा कि बिल्कुल नहीं, तब क्या अंजुम को यह नहीं कहना चाहिए था कि आपने तो स्वयं मुलायम सिंह के साथ मंच शेयर कर उ.प्र. हिन्दी संस्थान का साहित्य भूषण सम्मान ग्रहण किया था? मुझे यह इसलिए भी याद है कि पुरस्कार प्राप्त करने की शाम लखनऊ के एक होटल में ज्ञान जी ने सांध्यकालीन पार्टी भी दी थी, जिसमें हम सब शामिल थे.
7– ज्ञान जी को यह याद दिलाने के बजाय कि उन्होंने तो स्वयं मुलायम सिंह के हाथों पुरस्कार ग्रहण किया था, अंजुम ने अप्रासंगिक रूप से उनसे यह सवाल कर दिया कि वीरेंद्र यादव ने तो अखिलेश यादव के साथ मंच शेयर किया तो किसी ने विरोध नहीं किया, इस पर ज्ञान जी ने बड़बोलेपन के साथ यह कह दिया कि ‘मैंने विरोध किया ‘ और साथ में अखिलेश और तद्भव को भी लपेट लिया और बहिष्कार तक की जानकारी दे दी। क्या इस पर अंजुम को यह सवाल नहीं करना था कि 'तद्भव' का बहिष्कार ज्ञान जी ने क्यों और किस तरह किया?
8- मेरा अंजुम शर्मा से यह गंभीर प्रश्न है कि ज्ञान जी से बात करते हुए मेरे द्वारा अखिलेश यादव के साथ मंच शेयर करने का जब जिक्र किया तो यह क्यों नहीं याद रखा कि उसी मंच पर प्रो. रुपरेखा वर्मा, प्रो. रमेश दीक्षित, प्रो. रीता चौधरी, व्यंग्यकार प्रो. मेडूसा और अन्य कई लोग शामिल थे. एक किताब के विमोचन का वह बौद्धिक मंच था, जिसमें लखनऊ के बौद्धिक समाज के लोग उपस्थित थे?
9- क्या अंजुम शर्मा को यह जानकारी नहीं है कि लखनऊ में इफ्को सम्मान शेखर जोशी जी को अखिलेश यादव और तत्कालीन मंत्री शिवपाल यादव के हाथों ही मिला था? क्या केदारनाथ सिंह, दूधनाथ सिंह, काशीनाथ सिंह, ममता कालिया, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, नसिरा शर्मा, संजीव आदि सहित बहुत से हिन्दी लेखकों ने मुलायम सिंह और अखिलेश यादव के हाथों हिन्दी संस्थान के पुरस्कार नहीं ग्रहण किये? केदारनाथ सिंह जी तो मुलायम सिंह के सैफई उत्सव के मुख्य अतिथि ही रहे थे। क्यों नहीं काशीनाथ सिंह जी से अंजुम ने यह सवाल किया कि आपने अखिलेश यादव से क्यों पुरस्कार ग्रहण किया? क्या अखिलेश यादव के साथ मेरा नाम अंजुम शर्मा इसलिए जोड़ते हैं कि इससे यादव नामधारी लेखक द्वारा यादव राजनेता का नाम जुड़ने से जातिवाद का लेबल चिपकाया जा सकता है? अंजुम शर्मा क्यों यह गुंजाइश छोड़ते हैं कि लोग इसे उनके अपने सवर्ण मानस का परिणाम मानें?
10 - वैसे तो इस साक्षात्कार में बेशुमार तथ्यात्मक गड़बड़ियाँ हैं, लेकिन ज्ञान जी का यह कहना कि वीरेंद्र यादव चालीस साल तक अकेले उ. प्र. प्रलेस का सचिव रहे, उनका स्मृति भ्रम है। 1981 में उत्तर प्रदेश प्रलेस का पुनर्गठन हुआ था, तब कामतानाथ प्रदेश के महासचिव और मैं पहली बार अजित पुष्कल के साथ सचिव बना था। हाँ, यह जरूर था कि मैं ही संगठन के मोर्चे पर अधिक सक्रिय था। और यह भी कि लगभग पिछले पंद्रह वर्षों से न मैं इसका महासचिव हूँ और न ही सचिव। खैर यह गौण बात है। लेकिन इसी झोंक में ज्ञान जी ने यह भी कह दिया कि 'वीरेंद्र यादव ने इस दौर में समझौता करने में कोई कमी नहीं दिखाई'। क्या अंजुम शर्मा को ज्ञान जी से यह नहीं पूछना चाहिए था कि वीरेंद्र यादव ने कौन से समझौते किये? और यदि उनसे नहीं पूछा तो मेरे ऊपर मढ़े गए इस आरोप के बाबत क्या उन्हें मेरा पक्ष नहीं जानना चाहिए था? मेरा सार्वजनिक जीवन खुली किताब है, अंजुम यहाँ लखनऊ के किसी अन्य व्यक्ति से ही इस बाबत पुष्टि कर लेते। बिना किसी तथ्य और प्रमाण के इस आरोप को साक्षात्कार में जाने देना क्या मेरा व्यक्तित्व हनन नहीं है? अंजुम शर्मा इसके सहभागी क्यों बने और 'संगत' के प्लेटफार्म को इसका सहभागी क्यों बनाया?
इन सवालों के जवाब अंजुम शर्मा को देने ही चाहिए ।
वैसे मुझे अंजुम शर्मा से कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं है। उन्होंने 'संगत' के लिए मेरा साक्षात्कार भी किया था। लोगों का कहना है कि उन्होंने जाति केंद्रित सवालों के साथ मेरी घेराबंदी की, लेकिन मैं इसे इस रूप में नहीं लेता। मैं इसे उनके काम का हिस्सा मानता हूँ। प्रश्नों का चयन उनका विशेषाधिकार है। मैंने इस बारे में अब तक उनसे कोई आपत्ति नहीं जताई। लेकिन असुविधाजनक सवाल और घेराबंदी क्या सेलेक्टिव लोगों की ही की जानी चाहिए? जब अंजुम शर्मा ने ज्ञान जी के साक्षात्कार में तथ्यों की अनदेखी की तो जवाबदेही तो उन्हीं की बनती है।

(लेखक वीरेंद्र यादव जाने-माने समालोचक हैं)
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कौन कितना जानता है ज्ञानरंजन को!



राजेंद्र दानी

एक बार ज्ञानरंजन ने अपने अग्रज हरिशंकर परसाई के लिए लिखा था कि "कौन कितना जानता है परसाई को!" परसाई जब तुच्छ आलोचनाओं के शिकार थे, तब यह लेख परसाई के सर्वोच्च लेखकीय गुणों को उद्घाटित करने के लिए लिखा गया था । अब समय आने वाला है कि लिखा जाएगा कि "कौन कितना जानता है ज्ञानरंजन को!" यह कोई गर्वोक्ति नहीं है पर सच ज़रूर है। मैं भी अपने लगभग 50 वर्ष के संग-साथ के बावजूद यह नहीं कह सकता! ( ध्यान रहे यह उनके सद्गुणों के लिए कहा ) वैसे सारे लोग मानवीय कमजोरियों के साथ ही जीते हैं ।
इसको समझ लेना बहुत जरूरी है कि ज्ञानरंजन की ऊंचाई के प्रश्न उनसे पूछे नहीं जा सके। यह संभव किया इस अभियान में कुछ पोशीदा अनुबोधको (Prompter) ने । संभवतः उनका उद्देश्य ही यह रहा हो।
संदर्भ में अधिक प्रतिक्रिया देना मैं जरूरी नहीं समझता पर याद दिलाता हूं कि एक दौर ऐसा भी था, जब आस्तीन के सांपों ने ज्ञानरंजन से "पहल" पर आर्थिक प्रबंधन को लेकर ढेर सारे अनर्गल और संदिग्ध प्रश्न पूछे थे जिसका बिना विचलित हुए एक पुस्तिका के रूप में उन्होंने जवाब दिया था। तब हमें लगता था कि "कौन कितना जानता है ज्ञानरंजन को !"
तब भी ज्ञानरंजन पर हमला था और यह भी है। तो ज्ञानरंजन आपातकाल के दौर से हमलों से परिचित हैं और उनका विवेक बना रहता है ।
'संगत' के साक्षात्कार के संदर्भ में नामवर सिंह और राजेंद्र यादव को लेकर बड़ी मार्मिकता देखी जा रही है कि उनके न रहने पर उन पर कीचड़ उछाला जा रहा है! तो ज्ञात कराना चाहता हूँ कि इन दोनों के जीवित रहते हुए ही ज्ञानरंजन ने इन पर आक्रामक व बहुत सटीक टिप्पणियाँ की थीं जो उनकी किताब "कबाड़खाना" में प्रकाशित है और जो धीरेन्द्र अस्थाना द्वारा"सबरंग" के लिए इंटरव्यू में है। गौर करें कि धीरेन्द्र अस्थाना ने इस प्रसंग में बेहद संक्षिप्त पर कमाल की टिप्पणी की है। गौरतलब है कि धीरेन्द्र अस्थाना का कोई एक शब्द भी "पहल" में कभी प्रकाशित नहीं हुआ है। इसी इंटरव्यू में ज्ञानरंजन ने टिप्पणी की है कि "वहाँ लेनिन गिरे यहां नामवर जी। लेनिन गिरकर भी खड़े हो गए, नामवर जी खड़े-खड़े गिर गए।" जो जलवा नामवर का उस दौर में था, उस वक्त यह लिखना-कहना ज्ञानरंजन के साहस को दिखाता है। यह वही कर सकते थे। इसका भी एक उपसंहार बनता है कि "कौन कितना जानता है ज्ञानरंजन को !"
दूसरी तरफ बड़ा द्रवित होकर स्वर्गीय कवि मलय को लेकर बातें कही जा रहीं हैं । मलय जी के लिए बड़े जज़्बाती हो रहे हैं लोग! मलय से मेरे अत्यंत घनिष्ठ संबंध थे। मैं भी उनके लिए जज़्बाती था पर एक प्रसंग के बाद न रहा। मैंने उनके अस्सी वर्ष पूरे होने पर ख्यात पत्रकार मनोहर नायक के अखबार "आज समाज" में उन पर लिखा भी था। साथ में मंगलेश डबराल आदि के भी लेख थे। इधर जब मलय के अस्सी वर्ष पूरे होने के पूर्व एक दिन लीलाधर मंडलोई आए तो ज्ञानरंजन के घर मैंने, मंडलोई ने और ज्ञानरंजन ने मलय की उपस्थिति में उनके अस्सी वें जन्मदिन के लिए एक कार्यक्रम "फ्रेंड्स ऑफ मलय" के नाम से तय किया। मलय जी खुश हुए और राजी हो गए। ज्ञानरंजन प्रारंभिक तैयारियों में जुट गए पर कुछ ही दिनों में मलय जी ने इनकार कर दिया। मलय की अंदरूनी दिक्कत यह थी कि उन्हीं दिनों भोपाल में प्रगतिशील लेखक संघ की "महत्व भगवत रावत" की तैयारी चल रही थी। और उन्हें लगा कि इस आयोजन से यह समझा जाएगा कि यह कोई बगावत है और हम लोग समांतर कोई कार्यक्रम कर रहे हैं। यह लगना लाजिमी था क्योंकि मलय जी से भागवत रावत छोटे थे। मलय के साहस न करने से हम लोग शर्मिंदा हुए जबकि हम लोगों ने बगावत जैसी बात की कल्पना नहीं की थी। वे कभी न कर सके। नामवर के निष्ठुर होने का एक प्रमाण और मलय के साहसहीन होने का प्रमाण तब और मिला, जब मलय को भवभूति अलंकरण दिए जाने के आयोजन में नामवर मुख्य अतिथि थे पर अपने संबोधन में एक भी बार मलय की कविता और मलय का नाम तक नहीं लिया । यह गुप्त आघात था। मलय जी के संबंध में एक विचार बार-बार उठता है कि व्यक्ति शरीफ हो पर दयनीय न हो।
'संगत' में ज्ञानरंजन के समक्ष कोई प्रति प्रश्न नहीं आया। नामवर के संबंध में पूछ न सके कि उन्होंने नामवर केंद्रित पहल का विशेषांक क्यों निकाला? अब यही लगता है कि इंटरव्यू की वांछित तैयारी नहीं थी या उसे गॉसिप तक ही सीमित रखना था।
'संगत' में ज्ञानरंजन का इंटरव्यू हो जाए इसलिए इनडायरेक्टली मुझसे पूछा गया था कि मैं ज्ञानरंजन से सहमति लेकर बता दूँ। पूछने वाली थी सुविख्यात कवयित्री बाबुषा कोहली। मैंने उससे कहा कि लोग उनसे ही पूछें । पहली बार बाबुषा पूछ न सकी। उसका फिर आग्रह सहित फोन आया तो अंततः मैने पूछा। ज्ञानरंजन ने साफ़ इनकार कर दिया। बाबुषा ने उनसे कई बार बात की। उन्हें आशंका थी इसलिए यह भी कहा कि "देखो दानी मेरे कहने से विवाद बनते हैं ।" उनकी आशंका सही थी। और यह पता चल ही जाता है कि ज्ञानरंजन से बात करने के पूर्व कर्ताधर्ताओं की मानसिकता कैसी थी ! अपनी पहलकदमी पर आज बाबुषा शर्मिंदगी से भरी हुई हैं।
ज्ञानरंजन के साथ के अनेक मसले इसलिए समझ नहीं आते क्योंकि वे असहज बातों को अपनी अनिवार्य चिंता से गोपनीय रखते हैं। यह उनका बड़ा गुण है कि जीवन के बहुत सारे प्रसंगों में लोग उनसे सलाह लेते हैं। अपनी विकट स्थितियों से वे सलाह से उबरते भी हैं। इस लंबे दौर में मेरी विपत्तियों के समय हर वक्त ज्ञानरंजन राहत सामग्री से लैस मेरे साथ रहे हैं।
ज्ञानरंजन की टिप्पणियों पर लोगों की बड़ी मार्मिक भावनाएं सामने आ रही हैं पर ज्ञानरंजन के लिए कोई मार्मिकता नहीं है जबकि वे अभी बिस्तर पर हैं, लगभग उसी दिन के एक दिन पहले, जब 'संगत' का यह एपिसोड आया, ज्ञानरंजन की एंजियोप्लास्टी हुई है !
अपनी जरूरी बातें यहीं समाप्त करता हूं अंत में यह कहते हुए कि " कौन कितना जानता है ज्ञानरंजन को !"

(राजेंद्र दानी वरिष्ठ और महत्वपूर्ण कथाकार हैं।)

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यह इंटरव्यू कमजोर शोध का जीता-जागता परिणाम है



- पंकज स्वामी

संगत का ज्ञानरंजन यह इंटरव्यू अंजुम शर्मा के कमजोर शोध का जीता-जागता परिणाम है। अंजुम शर्मा को अब तक उनकी बातचीत के लिए तारीफ की जाती रही है लेकिन ज्ञानरंजन से बात करने के पूर्व उनकी न तो ज्ञानरंजन की लिखी कहानियों और न तो पहल को लेकर कोई समझ उभर कर सामने आई। अंजुम शर्मा दिल्ली से यह तय करके इंटरव्यू लेने आए थे कि उन्हें ज्ञानरंजन के माध्यम से अपने कार्यक्रम की टीआरपी बढ़ानी है। पूरे इंटरव्यू को देखने के बाद यह बात स्पष्ट हो गई कि उनकी साहित्यिक पृष्ठभूमि कोरी है।
'हिन्दवी' में अंजुम शर्मा के साथ अविनाश मिश्र भी टीम का हिस्सा हैं। दोनों ने ज्ञानरंजन की 'पहल' निकालने की संघर्ष-यात्रा पर ज़रा भी चर्चा नहीं की। प्रगतिशील लेखक संघ पर कोई बातचीत नहीं करना हैरान करने वाली बात रही। दरअसल पूरा मामला यानी कि अंजुम शर्मा के दृष्टिकोण का चलताऊ होना है। उन्हें 'संगत' की व्यूज और टीआरपी को सिर्फ बढ़ाना है।
इस पूरे इंटरव्यू में 90 साल के ज्ञानरंजन के तेवर, दृढ़ता, ऊर्जा, साहस, स्मृति वही दिखी, जैसे पचास साल पहले थी। पिछले दो दिनों से जब से यह इंटरव्यू आम हुआ है, लोगों के विचार सामने आ रहे हैं और कुछ लोगों के चेहरे से नकाब उतर रही है। एक विश्वविद्यालय के प्राध्यापक कवि 'पहल' में कविता छपने के लिए जिस प्रकार लपलपाते थे, वे आज और अब परसाई और ज्ञानरंजन के संबंध की मीमांसा कर कर रहे हैं।
इंटरव्यू के बाद अलग-अलग माध्यम में प्रश्न के उत्तर को लेकर ज्ञानरंजन के वक्तव्य पर पोस्टमार्टम किया जा रहा है। कुछ लोगों की सतही टिप्पणी पढ़कर उनकी मेधा व समझ पर शक होने लगता है।
ज्ञानरंजन जैसा डेमोक्रेटिक संपादक अभी कोई नहीं हुआ। ऐसा संपादक जो किसी लेखक को उसकी रचना न छापने के कारण बताता था। साहित्यिक दुनिया के साथ सामान्य लोगों को इस बात की जानकारी होना जरूरी है कि वे संभवतः इस देश के पहले ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने सर्वाधिक पोस्टकार्ड लिख कर पोस्ट किए। ऐसा संपादक जो अपने संपादक मंडल के साथियों के साथ प्रत्येक रचना छापने और न छापने को लेकर लम्बी बातचीत करता था। उन्होंने 'पहल' के समापन को लेकर संपादक मंडल के प्रत्येक व्यक्ति से बात की।
'पहल सम्मान' के किसी आयोजन में ज्ञानरंजन कभी मंच में नहीं दिखे। कहानी लिखने की शुरुआत से पहल के अंतिम अंक के संपादन तक ज्ञानरंजन कभी आत्ममुग्धता के शिकार नहीं हुए और उन्होंने अपने आसपास के लोगों को भी इससे बचाया।
मलय जी ज्ञानरंजन जी से आयु में बड़े थे लेकिन वे जीवन भर ज्ञानरंजन जी का अनुसरण करते रहे। जबलपुर सहित हिन्दी के पूरे साहित्य संसार को इस बात की जानकारी है कि मलय और ज्ञानरंजन के क्या संबंध थे। जब तक मलय जीवित रहे, तब तक वे ज्ञानरंजन के घर में जमने वाली बैठक के स्थायी सदस्य रहे। मलय वर्षों तक ज्ञानरंजन के जबलपुर स्थित अग्रवाल कॉलोनी के मकान में शाम को साढ़े पांच बजे उपस्थित हो जाते थे। कुछ ऐसा ही सिलसिला हरिशंकर परसाई के घर में भी चलता था। बाद में जब ज्ञानरंजन रामनगर अधारताल स्थित घर में पहुंच गए, तब दूर होने के बावजूद मलय यहां नियमित रूप से आते रहे।
ज्ञानरंजन 'पहल' का संपादन करते वक्त सतर्क रहते थे। ज्ञानरंजन इस बात का विशेष ध्यान रखते थे कि कहीं से भी उन पर यह आक्षेप न लगे कि 'पहल' में उन्होंने रिश्ते निभाने के लिए किसी लेखक को छाप दिया। ज्ञानरंजन ने मलय की कविता तो छापी ही साथ ही 'पहल'- 71 में एक महत्वपूर्ण वह इंटरव्यू भी प्रकाशित किया था, जिसमें राजेश जोशी व लीलाधर मंडलोई ने मलय से कविता को लेकर बातचीत की थी।
जिस वक्त जानरंजन ने प्रगतिशील लेखक संघ को छोड़ा, इस बात की जानकारी उनकी पत्नी सुनयना जी को भी नहीं थी। ज्ञानरंजन अपने साहित्यिक निर्णय ऐसे ही लेते हैं। मुझसे मलय जी ने तब मुझसे व्यक्तिगत रूप से बोला था कि यदि उन्हें इस बात की तनिक भी जानकारी होती तो वे ज्ञानरंजन के साथ प्रगतिशील लेखक संघ को छोड़ देते। ज्ञानरंजन के प्रगतिशील लेखक संघ के छोड़ने में एक कारण संगठन द्वारा लगातार मलय की उपेक्षा था। प्रगतिशील लेखक संघ लगातार 'महत्व' आयोजन कर रहा था और मलय उपेक्षित जबलपुर में सीमित थे। ज्ञानरंजन ने मलय को केन्द्रित करके जबलपुर में दो दिवसीय आयोजन की रूपरेखा बनाई। देश भर के आलोचक सहित लगभग अधिकांश वरिष्ठ रचनाकारों ने 'महत्व मलय' में शामिल होने की सहमति दी। मलय जी को जब इस आयोजन की जानकारी मिली तो वे सुबह 7 बजे ज्ञानरंजन के घर पहुंच गए और उन्होंने इस आयोजन को न करने के लिए ज्ञानरंजन से अनुरोध किया। दरअसल मलय प्रगतिशील लेखक संघ के कर्ताधर्ताओं को नाराज नहीं करना चाहते थे। इस पर ज्ञानरंजन जरूर मलय से बहुत दिनों तक नाराज हुए।
मलय को जब वर्ष 2019 में जब कवि मान बहादुर सिंह के नाम पर दिए जाने वाले सम्मान से सम्मानित किया गया तब वहां उपस्थित लोगों में यह खुसर-फुसर चल रही थी कि ज्ञानरंजन आएंगे कि नहीं? भला ज्ञानरंजन क्यों नहीं आते। वे आए और उन्होंने अपनी सार्थक उपस्थिति दर्ज करवाई। इस कार्यक्रम के माध्यम से ज्ञानरंजन के पुराने साथी नीलकांत व कर्ण सिंह चौहान वर्षों बाद मिले। ज्ञानरंजन मंच व भाषण से बचते हैं लेकिन मलय के सम्मान में उन्होंने दोनों बातों से समझौता किया।
मलय जी के पुत्र संजुल शर्मा के अपने पूर्वाग्रह हैं। उनका मानना है कि ज्ञानरंजन ने मलय को 'पहल सम्मान' से सम्मानित क्यों नहीं किया। जैसे पूर्व में उल्लेख किया गया है कि ज्ञानरंजन 'पहल' और 'पहल सम्मान' को लेकर बहुत सतर्क थे। 'पहल' में रचना प्रकाशित करने और पहल सम्मान के चयन में भी उनके मापदंड थे। संजुल शर्मा नरेश सक्सेना को बेहतर कवि नहीं मानते। मलय के लिए कविता जिजीविषा है और ज्ञानरंजन हर समय इस जिजीविषा का सम्मान करते रहे।
लोगों को यह जानकारी भी होना चाहिए कि मलय जी स्वयं कई सम्मानों के निर्णायकों, संस्तुतिकारकों में एक रहे हैं। उन्हें 'पहल' में जितनी बार, जितना स्थान दिया गया है, शायद किसी और साथी को। वे 'पहल' के इतने निकट थे कि ज्ञान जी से कई मुद्दों के लिए बहस भी कर लेते थे। और यदि 'पहल-सम्मान' उन्हें दे भी दिया जाता तो ज्ञान जी पर किन्हीं और द्वारा तब भी लगते कि देखो अपने ही लोगों को सम्मानित किया जा रहा है। इस सम्मान के योग्य कई और काबिल लोग रहे, जिन्हें यह नहीं मिल पाया, जबकि 'पहल' से उनका गहरा नाता रहा। और सवाल उठते रहे।
पहल-सम्मान की राशि बहुत सीमित रही, पर उसका रुतबा और गरिमा किसी भी लखटकिया पुरस्कार से कहीं बढ़कर ही रही। फिर जिस शहर, कस्बे में इसका आयोजन हुआ, उसमें देश भर से आये युवा वरिष्ठ रचनाकारों ने इसमें शिरकत की। वह भी स्वयं के व्यय पर। उस जगह के रचनाकारों का स्पष्ट मत यह रहा कि उस शहर में ऐसा भव्य और गरिमापूर्ण आयोजन पहले कभी नहीं हुआ।
सम्मान के दौरान दिल्ली में राजेन्द्र दानी जी और दो-एक साथियों के साथ 'हंस' कार्यालय में हम राजेन्द्र यादव जी से मिलने गये थे। बातचीत के दौरान यादव जी ने खुलकर स्वीकार किया था कि यह सम्मान शीर्ष और काबिल ऐसे लोगों को मिल रहा है, जिन्हें उपेक्षित किया जाता रहा है।
पहल-सम्मानों की प्रतिष्ठा की वजह से ज्ञान जी पर कई लोगों द्वारा बार-बार तीखे हमले हुए हैं। एक बार तो 'पहल' को जवाब देने के लिए एक पुस्तिका तक प्रकाशित करना पडी़। बहुत सारी बातें हैं जिन्हें एक टिप्पणी में समेटा जाना संभव नहीं। पर यहाँ यह कह देना ज़रूरी लगता है कि ज्ञान जी अविचलित सामना करने वाले अथक योद्धा हैं। 90 साल की ओर पहुँचने वाले अस्वस्थता के बावजूद वे मैदान में अविजित खडे़ हैं। अभी अभी 'पहल' के पाश विशेषांक पर वाणी प्रकाशन से आई किताब का शीर्षक उन्होंने दिया है - "तूफान कभी मात नहीं खाते"!
(पंकज स्वामी सुपरिचित लेखक व संस्कृतिकर्मी हैं।)



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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय