काली मुसहर का बयान

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चिट्टा (उपन्यास)

पवन खुराना आज वो ऑफ़िस नहीं आया था। रोज़ ऑफ़िस वही खोलता था। सुबह जल्दी आकर वो ऑफ़िस खोलता था और साफ़-सफ़ाई करके तैयार रखता था, परन्तु आज वो नहीं आया था। सभी लोग इकट्ठे होकर मेरे केबिन में आये और बोले कि ‘‘देखो सर, वो बिना बताये नहीं आता और साफ़-सफ़ाई भी नहीं है। आप उसको कुछ बोलते नहीं।’’ मैं जानता था कि इनको साफ़-सफ़ाई की चिंता नहीं है। इनको तो ऑफ़िस का गेट खोलने में परेशानी है। नये-नये अधिकारी जो भर्ती हुए हैं। अब इनको ये सब अच्छा कहाँ लगता है। समय में बहुत परिवर्तन आया है, अब तो लोग खुद को ‘अधिकारी’ समझते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। सभी अपने आप को ‘कर्मचारी’ ही मानते थे। मैंने उनकी तरफ़ नज़र उठाकर भी नहीं देखा, कोई फ़ायदा नहीं था। ऑफ़िस में सारा दिन कार्य भी तो सुचारू रूप से चलाना था, मैं फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। सभी लोग अपने कार्य में लग गये।         दोपहर में खाना सब लोग पैन्ट्री के साथ बने डाइनिंग टेबल पर साथ-साथ खाते थे। आज भी टेबल पर सब इकट्ठे हुए खाना खाने के लिए। उसी बात की चर्चा थी क्यूंकि आज कोई पानी देने वाला नहीं था, बर्तन रखने वाला नहीं था।...

विवादास्पद 'संगत' से रचनात्मक विश्वसनीयता को झटका




'हिंदवी' की साक्षात्कार सीरीज 'संगत' की सौवीं कड़ी में वरिष्ठ कथाकार और संपादक ज्ञानरंजन के साहसिक खुलासे के बाद स्वयं न सिर्फ यह सीरीज बल्कि साक्षात्कारकर्ता अंजुम शर्मा भी विवादों में घिर गये हैं। आइये देखते हैं, कुछ प्रमुख लेखकों के मंतव्य....


यह संवाद का आनंद नहीं, विवाद का मजा है!

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शंभुनाथ

आज के हिन्दी संसार को समझने के लिए भारतेंदु के ’अंधेर नगरी’ नाटक के ’समर्पण’ पृष्ठ की पंक्तियाँ काम की साबित हो सकती हैं। इसकी ओर सामान्यतः ध्यान नहीं गया है। आज संस्कृत के उस श्लोक का अर्थ जानना बहुत जरूरी है : ’जो चंदन, आम और चंपा के वन को काटकर कीकड़ के पेड़ों की रक्षा करता है, हंस और कोयल के प्रति हिंसक होकर काग लीला का मजा लेता है और जो कपूर और कपास को उनके श्वेत रंग के कारण एक जैसा समझता है – जहाँ के गुणी जन ऐसी समझ रखते हों, उस स्थान को नमस्कार है!’ क्या रक्षणीय है और क्या त्याज्य, क्या सुरुचि है और क्या विकृति तथा क्या खोकर क्या हासिल हो रहा है, जब इसका विवेक लेखक और बुद्धिजीवियों के समाज में ही विलुप्त होता जा रहा हो, तो चिंता होती है।
साक्षात्कार के संबंध में सामान्यतः कहना जरूरी लग रहा है कि यह ज्ञान की जगह न होकर अब सर्कस बन रहा है। दर्शक यह देखकर मजा लेते हैं कि देखो अमुक ने अमुक को कैसा जमकर रगड़ा, अपनी ताल पर किस तरह नचाया या उसके व्यक्तिगत मामलों को सार्वजनिक कर दिया। मैंने फेसबुक पर साक्षात्कार लेने वाले की इस वीरता का वर्णन पढ़ा है। यह मुझे लोकतांत्रिक बोध के क्षय और सत्ता की विचारधारा से सहानुभूति रखने के चिह्न की तरह दिखता है। आज यह एक संक्रामक रोग है, इसलिए आश्चर्य नहीं होता।
मैं यह कभी कहना नहीं चाहता था, पर आज बता रहा हूं कि मेरे सामने ऐसा प्रस्ताव आया तो मैंने स्पष्ट कहा कि ऐसे साक्षात्कार में मेरी कोई रुचि नहीं है। सचमुच मैंने ऐसा एक भी साक्षात्कार नहीं देखा है और नहीं लगता कि कुछ खोया है। हजार – पांच हजार लोगों को अच्छा लगता है तो वे देखें–सुनें, मजा दें–लें, उन्हें स्वतंत्रता है। मुझे भीड़ में नहीं बहना। इस मामले को मैं ’अंधेर नगरी’ के उपर्युक्त समर्पण की तरह लेता हूं।
जब साक्षात्कारकर्ता यह न सोचकर कि कैसे लेखक के भीतर के छिपे सर्वोत्तम को बाहर निकाले और उसकी वैचारिक प्रेरणाओं का उद्घाटन करे, इसकी जगह जब वह केवल उसके भीतर के निकृष्टतम को बाहर करना चाहता है या वह कहलाना चाहता है, जो साक्षात्कारकर्ता खुद सुनना चाहता है और खुद नायक बनना चाहता है, तो जाहिर है कि यह अहंकार भरा कितना पूर्वग्रहग्रस्त साक्षात्कार हो सकता है। यह संवाद का आनंद नहीं है, विवाद का मजा है!
एक लगभग अलेखक द्वारा लिए गए साक्षात्कार और एक लेखक द्वारा लिए गए साक्षात्कार में फर्क है। मुझे अज्ञेय के रघुवीर सहाय और रमेशचंद्र शाह के लिए साक्षात्कार की याद आ रही है। उस समय साक्षात्कार सामान्यतः लेखक को दिखा लिए जाते थे, ताकि वह आखिरी टच दे सके। रामविलास शर्मा से नामवर सिंह का साक्षात्कार है। वर्तमान दौर के प्रसिद्ध विदेशी लेखकों के साक्षात्कार भी हैं, उनसे भी कुछ सीखना चाहिए। ऐसे साक्षात्कारों का उद्देश्य साहित्यकार को अपनी ताल पर नचाना या लोगों की आंखों में उसे गिराना या उसे रगड़ना नहीं होता था।
साक्षात्कारकर्ता के प्रश्न सबसे पहले उसके अपने साहित्यिक ज्ञान का खुलासा करते हैं!
(लेखक प्रसिद्ध समालोचक व 'वागर्थ' पत्रिका के संपादक हैं)



ज्ञानरंजन का अपना विशिष्ट लहजा और शैली है

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अशोक अग्रवाल

अर्थशास्त्र का प्राचीन सिद्धांत है कि खोटे सिक्के खरे सिक्कों को चलन से बाहर कर देते हैं। साहित्य में यह सिद्धांत पूरी तरह ग़लत हो जाता है। साहित्य में खोटे सिक्के तभी तक खनखनाते और शोर मचाते रहते हैं, जब तक खरे सिक्के सामने नहीं आते। वह इस खनखनाते और शोरगुल की व्यर्थता और आयु से अच्छी तरह वाक़िफ होते हैं और इसलिए निस्पृह और ख़ामोश बने रहते हैं। उनकी खामोशी को कमज़ोरी समझने की भूल न की जाए। इनकी संख्या तादाद में बहुत अधिक है जो पूर्वोत्तर से लेकर दक्षिण भारत तक और मध्य प्रदेश से लेकर देश के बाहर तक फैली हुई है।
ज्ञानरंजन जी से मेरा संबंध वर्ष 1970 से है। पहली बार मित्र प्रभात मित्तल के साथ इलाहाबाद जाना हुआ। गर्मियों की कॉलेज की छुट्टियों में ज्ञानरंजन इलाहाबाद आए हुए थे। मैंने अभी साहित्य की दुनिया में ढंग से आँखें भी नहीं खोली थीं और ज्ञानरंजन का डंका साहित्य की दुनिया में मचा हुआ था। साइकिल के कैरियर पर बैठा वह मुझे दूधनाथ सिंह, रवींद्र कालिया, शेखर जोशी और नीलाभ से मिलवाते हुए कॉफी हाउस ले आए। सब कुछ इतना सहज, क्षण भर के लिए भी नहीं लगा कि मैं एक बड़े कहानीकार की संगत कर रहा हूं। इसके बाद अनेक मौके आए जब उनके साथ मिलना-जुलना रहा। वर्ष 1970 के दिसंबर में पटना में हुए युवा लेखक सम्मेलन तो यादगार रहा ही, जिसमें अनेक वरिष्ठ और युवा पीढ़ी के रचनाकारों को पहली दफा नजदीकी से देखने का अवसर उपलब्ध हुआ।
ऐसा नहीं है कि इतने लंबे संपर्क के दौरान हममें पारस्परिक गलतफहमियाँ या मतभेद न हुए हों। मुझे लताड़ लगाते पोस्टकार्ड न लिखे हों। उनका मूल स्वभाव आवेगशील होने के कारण कई बार अफवाहों पर सहज विश्वास कर लेने का रहा है, लेकिन सत्य का पता चलते ही ‘इस पोस्टकार्ड के द्वारा मुझे प्रयाश्चित करने दो कि मैं तुम्हारे प्रति गलतफहमियों को अपने भीतर जगह दे बैठा था’ यह लिखने का साहस उन जैसा बड़ा रचनाकार ही कर सकता है। दिल्ली आगमन पर मुझे पोस्टकार्ड द्वारा हौज खास स्थित विश्वनाथ बडोला के घर आने के लिए कहा, जहाँ वह दिल्ली प्रवास में ठहरे हुए थे।मेरे मन में उत्पन्न मलाल को मिटाने के लिए यह उनका उपक्रम था।
वर्ष 1990 में जब जबलपुर हाईकोर्ट के चक्कर लग रहे थे। राजकमल प्रकाशन के सेल्स डायरेक्टर रमेश शुक्ला के मित्र जिसका सरनेम पटेल था के घर में हमारा निसंकोच ठहरना हुआ, क्योंकि वह अविवाहित थे। उन 5 दिनों में ज्ञानरंजन का अपने मित्रों के साथ मुझे दिलासा और आश्वस्त करने के लिए नियमित संध्या के समय आना हुआ। देर रात तक बैठकी चलती रहती।
वर्ष 1994 में प्रभात मित्तल का आकस्मिक रक्त कैंसर से निधन हो गया। उनके दोनों बच्चे अभी तक अविवाहित थे। दोनों बच्चों के विवाह के अवसर पर जबलपुर से कुंदन सिंह परिहार के साथ वह हापुड़ आए। यह मित्रों के प्रति उनकी सहृदयता दर्शाता है। मेरी बीमारी के दौरान वह लगातार चिंता से ग्रस्त गोपाल नायडू, कर्मेंदु शिशिर, जितेंद्र भाटिया और विनोद कुमार श्रीवास्तव से लगातार समाचार जानते रहे। आज भी इस 90 वर्ष की आयु के आसपास पहुँचने पर उनकी मित्रों के प्रति चिंता आश्चर्य उत्पन्न करती है, जबकि शहर के रहने वाले मित्र ही कतराने लगते हों तो उनके फ़ोन पर खनखनाते स्वर जीवन को उल्लास से भर देते हैं। इतना विस्तार से इसीलिए कि वह आज साहित्य की निष्ठुर दुनिया में शेष रह गए कुछ चुनिंदा लेखकों में एक हैं जिनकी उपस्थिति एक आश्वासन देती है।
80 के दशक में पहल द्वारा आयोजित पातालकोट यात्रा जिसकी शुरुआत भोपाल से हुई थी। उस यात्रा में शामिल दिल्ली, जबलपुर और भोपाल के मित्रों में मलय की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। पातालकोट से ऊपर आते हुए राजेश जोशी, राजेन्द्र दानी कुछ असहजता महसूस हुई। मलय बार-बार उम्र में बड़े होने के बावजूद हमें प्रोत्साहित करते हुए ऊपर तक लाए। जो लोग मलय और ज्ञानरंजन के बीच के संबंधों को नहीं समझते, वही सबसे अधिक शोर मचा रहे हैं।
ज्ञानरंजन जी की अपनी बात को कहने का अपना विशिष्ट लहजा और शैली है। नादान लोग उनके कहे का मनमाना अर्थ ख़ोज लेते हैं। उनके दुश्मन कहने और दुश्मन समझने के बीच के अंतर को आसानी से नहीं समझा जा सकता। नामवर जी को अपना दुश्मन कहने पर उन पर प्रहार करने वाले 'पहल' के इतिहास से बिल्कुल अपरिचित हैं। नामवर सिंह का अभी तक का सबसे महत्वपूर्ण और शानदार साक्षात्कार सुरेश पांडे ने लिया था, जिसे ‘पहल’ ने पुस्तिका रूप में पृथक से प्रकाशित किया था।
‘घंटा’ कहानी की एक पंक्ति को नारी विमर्श का हिस्सा बनाने वाले व्यक्ति को कहानी की पहचान संदिग्ध बनाती है। वह पंक्ति कहानी में विन्यस्त है और कहानी को समझने के लिए उसे साक्षात्कारकर्ता को पुनः पढ़ने की ज़रूरत है।
सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी शंभुनाथ की रही है, जो बताती है कि साक्षात्कारकर्ता ने ज्ञानरंजन जी के श्रेष्ठतम को बाहर निकालने की बजाय उनके निम्नतम को खंगोलने को अधिक तरजीह दी। ‘संगत’ को प्रदर्शन से पहले ज्ञानरंजन जी को उसे एक बार दिखाना उनकी नैतिक जिम्मेदारी थी। शायद ज्ञानरंजन जी ने खुद ही अपने कहे को ख़ारिज़ या परिमार्जित कर लिया होता। बेहतर तो यही होता कि यह साक्षात्कार अविनाश मिश्र ने खुद लिया होता। अविनाश मिश्र का अशोक वाजपेई से एक शानदार इंटरव्यू ‘पहल’ में ही प्रकाशित हुआ है।
इसके बाद ‘संगत’ की टीआरपी बढ़ी या नहीं, मुझे नहीं मालूम। विश्वसनीयता अवश्य कमज़ोर हुई है।इतना ज़रूर जानता हूं कि इससे ज्ञानरंजन जी की कहानियों या ‘पहल’ की प्रतिष्ठा पर कोई ख़रोंच भी नहीं आने वाली है।
ज्ञानरंजन अपनी सोच में कितने खरे हैं, इसका एक छोटा सा उदाहरण सुभाष पंत के अंतिम कहानी संग्रह ‘दौड़’ की भूमिका है। इसमें उन्होंने अपनी पसंद के लेखकों में चमकदार नामों की जगह उन नामों को तरजीह दी है जो हाशिए के बाहर हैं। जो छोटे शहरों में रह रहे हैं, जैसा कि उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा भी है कि वास्तविक लेखन छोटे शहरों में हो रहा है।
(लेखक जाने-माने कथाकार हैं। )


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हीरालाल नागर, कथाकार

ज्ञान जी से यूं आसानी से बात नहीं हो सकती। ज्ञान जी जो कहते हैं उसकी पूरी पृष्टभूमि होती है। उनका अपना अनुभव होता है। वे वही कहते हैं जो उन्हें कहना होता है। दुख इस बात है कि जिस युवा पीढ़ी को ज्ञान जी ने 'पहल' में छाप-छापकर कहानीकार और आलोचक बनाया, आज वही उन पर कीचड़ उछालने की कोशिश में लगे हैं। ऐसे कथाकारों और आलोचकों की गिनती अंगुलियों में है। कहानी के पिछले 20-25 साल के इतिहास को मैं अच्छी तरह जानता हूं। कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, ज्ञानरंजन और रवीन्द्र कालिया न होते तो हिंदी कहानी की यह सर्वग्राही पीढ़ी कहीं नजर भी न आती। ज्ञानजी ने प्रगतिशील कविता की एक बड़ी पीढ़ी भी तैयार की है और उन्हें सर्वाधिक सम्मान 'पहल' ने ही दिया है। रही उनकी कहानी की बात तो उनकी 'घंटा' तथा 'पिता' कहानियों के समकक्ष नई पीढ़ी के पास कोई कहानी नज़र नहीं आती। 'संगत' के 'प्रोप्राइटरों' में बोलने का जज़्बा इस महादेश की वैज्ञानिक सोच वाली पत्रिका 'पहल' ने ही अता किया। और आज जब उसके द्वारा तैयार नहीं पीढ़ी ही 'पहल' और 'पहल' संपादक पर हमलावर होने को उतारू हो तो, उनको माकूल जवाब मिलना ही चाहिए।
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लेखक की गरिमा उसकी पारदर्शिता में निहित है!



(साक्षात्कारकर्ता अंजुम शर्मा का पक्ष)

कहना तो नहीं चाहता था लेकिन एक अतिवरिष्ठ आलोचक-संपादक ने अभी लिखा कि 'लगभग अलेखक' और लेखक के साक्षात्कार में फ़र्क होता है। पहले के लोग साक्षात्कार लेखक को दिखा दिया करते थे ताकि लेखक उसे अंतिम 'टच' दे सके।
मैं उनसे ससम्मान कहना चाहता हूँ कि ज़माना बदल गया है। 'पीठ खुजाने' की रस्म बहुत हो चुकी। चीज़ें अब बहुत डेमोक्रेटाइज़ हो गई हैं। जो समय-संवाद से डरने लगे, वह आलोचना के नाम पर आत्मसंरक्षण ही करता है।
आगे उन्होंने लिखा कि साक्षात्कारकर्ता अब लेखक के 'निकृष्टतम' को उजागर करता है, रचना को नहीं। इसीलिए वह पुराने लेखकों के साक्षात्कार या वेस्ट के इंटरव्यू देखते-पढ़ते हैं।
अव्वल तो निकृष्ट उजागर की बात सच नहीं! और अगर सच मान भी लिया जाए तो मैं जानना चाहूँगा, क्या इससे लेखक की असहजता, असहमति और आत्मदंभ उघड़ता है? तब सवाल है कि रचना कैसे बाहर आती है? और अगर निकृष्टता बाहर आने का भय है तो क्या यह मान लिया जाए कि वह लेखक की सर्जनात्मकता का सबसे सच्चा प्रतिबिंब है?
मेरा उनसे अनुरोध है, कुछ साक्षात्कार देख लीजिए और बताइएगा कि सौ में से कितनों का 'निकृष्टतम' बाहर आया है?
वैसे! यह कहाँ और कब तय हुआ कि लेखक का साक्षात्कार केवल एक लेखक ही ले सकता है? अगर हम इस तर्क को मान लें, तो फिर लेखक की रचना भी केवल लेखक ही पढ़े, और पाठक बने रहें सिर्फ़—निर्जीव, मौन, प्रतिक्रिया-विहीन।
क्या संवाद की अवधारणा इतनी संकीर्ण है कि वह केवल समान कक्षा के लोगों के बीच ही घटित हो सकती है? फिर तो विमर्श का समूचा आधार ही ढह जाएगा। साहित्य, अंततः, एक सतत पाठक और उत्तरदाता की माँग करता है—वह लेखक भी हो सकता है, अलेखक भी, पाठक भी, जिज्ञासु भी, और प्रश्न पूछने वाला भी।
साक्षात्कार रचना का विकल्प नहीं है, लेकिन आपने उसे रचनाकार के आत्म से टकराने का एक ज़रिया मान लिया है। और अगर मान ही लिया है तो यह टकराव कई बार उस 'निकृष्ट' की ओर भी ले जा सकता है जिसे हम बड़े जतन से छिपाकर रखते हैं। यह निकृष्टता यदि सतह पर आती है, तो यह पूछना भी ज़रूरी है कि क्या वह लेखक का सच है?
जब आप कहते हैं कि साक्षात्कार पहले दिखा दिए जाते थे, और अब नहीं दिखाए जाते या ऐसे कहें कि पहले प्रश्न और उत्तर की काँट-छाँट दोनों लेखक ही तय करता था तो यह स्पष्ट है कि आपने संवाद को पहले से ही नियंत्रण और सुविधा का यंत्र मान लिया है। लेकिन अब वह युग नहीं रहा, जब बातचीत एक पूर्व-निर्धारित, पूर्व-लिखित प्रदर्शन मात्र हो।
लेखक की गरिमा उसके अपवर्जन में नहीं, उसकी पारदर्शिता में निहित है। और अगर किसी साक्षात्कार से कोई 'असुविधाजनक' परत उघड़ती है, तो शायद वह उस रचनात्मक ईमानदारी का हिस्सा है, जिसे हम ‘रचना’ के बाहर रखते आए हैं।
तो सवाल यह नहीं है कि कौन साक्षात्कार ले रहा है—सवाल यह है कि कौन-सा समाज, कौन-सा साहित्य और कौन-सी चेतना उस साक्षात्कार को देख या पढ़ रही है।
आदर सहित
(लगभग अलेखक)

(ये विचार लेखकों ने अपने-अपने फेसबुक वाल पर दर्ज किये हैं। वही से लेकर यहाँ साभार प्रस्तुत किया गया है।)

इस प्रसंग में यह भी देखें - 'संगत' का 'असंगत' पक्ष


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय