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पिछले कुछ वर्षों से हमारा समय, समाज, राजनीति और सारा घटनाक्रम जिस तरह से चल रहा है, उससे हम मानसिक रूप से एक खास टाइम जोन में होते हैं; इस समूचे दौर ने हमको एक खास तरह के टाइम जोन में डाल दिया है। ऐसे में इस दौर की कहानियों या उपन्यासों को पढ़ते हुए जब हम विचार करते हैं, तो पाते हैं कि इस बीच का अधिकतर साहित्यिक क्रिएशन या तो हमें इस टाइम जोन से बाहर निकालता है या उसे नज़रअंदाज करता है और इस तरह कभी-कभी हममें झुंझलाहट पैदा करता है, अरुचि भी पैदा करता है क्योंकि हमारी जो संकेंद्रित चिंताएं हैं, हमारे समय की चिंताएं, हमारे समाज की चिंताएं, वे भिन्न चिंताएं हैं। इस दौर का जो अधिकांश फिक्शन है, वह टुकड़ों में तो इन चिंताओं को संबोधित करता है; जैसे कि कोई किसी दलित प्रसंग को छू लेगा, कोई किसी सांप्रदायिक प्रसंग को छू लेगा, समय व समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में स्पर्श कर लेगा; लेकिन उसको स्पर्श करते हुए हमारा, हमारे समाज का जो समग्र यथार्थ है, उस समग्र यथार्थ का एक चित्र, समग्र यथार्थ का एक अंकन प्रस्तुत नहीं हो पाता है। ऐसे में उल्लेखनीय है कि संजय चौबे का उपन्यास ‘बेतरतीब पन्ने’ हमारे समय-संदर्भ को पूरी तरह से स्पर्श करता है और इस किताब ने इस समय-संदर्भ को केवल प्रस्तुत ही नहीं किया है बल्कि एक जो डॉमिनेंट ट्रेडिशन है, एक जो प्रभुत्वशाली विचार इन दिनों चल रहा है, उस प्रभुत्वशाली विचार का एक प्रतिविचार हमारे सामने पेश किया है; एक काउंटर नैरेटिव पेश किया है और यह छोटी बात नहीं है, यह एक बड़ी बात है। जिस दौर में वैचारिक अभिव्यक्ति के कारण बौद्धिकों की हत्याएं हो रही हों और हर दिन कुछ न कुछ ऐसा हो रहा है जिनसे हमारी चिंताएं बढ़ती जा रही हों; तब बौद्धिकों और लेखकों से जिस हस्तक्षेप की उम्मीद की जाती है, जिस रचनात्मक हस्तक्षेप की उम्मीद की जाती है यानी कि इस कठिन समय की वैचारिक अभिव्यक्ति की जो अपेक्षा कृतियों में की जाती है, मेरे लिए उस अपेक्षा की पूर्ति संजय चौबे के इस किताब से हुई है। इस तरह आज का जो पूरा समय है, जो समाज है; उस समय-समाज में एक जागरूक बौद्धिक के रूप में, लेखक के रूप में कौन-से मुद्दे, कौन-सी चीज़ें हमारी चिंता और हमारे लेखन के विषय बनने चाहिए; इसका उत्तर हमें इस उपन्यास,‘बेतरतीब पन्ने’ में मिलता है।
अगली बात यह है कि लेखक अपने विषय का चयन करते हुए कृति की जो संरचना बनाता है, जिस तरह से उसे गढ़ता है, उस पर भी विचार करना चाहिए, इसलिए विचार किया जाना चाहिए कि इस उपन्यास में वह एक नई संरचना है, कहन का एक नया अंदाज़ है। उपन्यास का मुख्य पात्र है, शेखर चमार। शेखर चमार नैरेटर है, जिसके माध्यम से पूरा उपन्यास प्रस्तुत हो रहा है। बुनियादी तौर पर शेखर चमार का नामकरण ही प्रतिरोध सूचक है। इस पात्र का नाम बस यूँ ही शेखर चमार नहीं रख दिया गया है। इसके पीछे एक पृष्ठभूमि है; इस उपन्यास में वह पृष्ठभूमि दी हुई है। बचपन में स्कूल में एडमिशन के समय उस पात्र के साथ जो घटना घटती है, उस पर गौर करने की ज़रूरत है। वह लड़का घर पर आकर कहता है कि मैं स्कूल नहीं जाऊँगा; उसे स्कूल से विरक्ति हो जाती है। उसका पिता उसको समझाता है यानी कि जूता सिलने वाला जो पिता है, जो उम्मीदों से भरा हुआ है, जो शिक्षा को एक बड़ा उपकरण मानता है, प्रगति के लिए और अपने पूरे समाज के लिए, अपने परिवार के लिए; वह उसको मनाता है और फिर अगले दिन जब उसको लेकर जाता है, तब उसके नामकरण के पीछे का पूरा घटनाक्रम घटित होता है। इस उपन्यास को पढ़ते हुए ज़रूरत इस बात की है कि हम इसके फाइन डिटेल्स को पकड़ें, यह उपन्यास ‘उड़न-छू टाइप’ का उपन्यास नहीं है। बहुत-सी बातें हैं, जिन्हें लेखक ने संकेतों में प्रस्तुत किया है।
संजय चौबे के इस उपन्यास को लेकर सवाल उठ सकते हैं कि यह दलित विमर्श का उपन्यास है या नहीं लेकिन एक पाठक के रूप में पढ़ते हुए यह सवाल आसानी से हल हो जाता है। यह दलित विमर्श का उपन्यास कैसे है, कैसे नहीं है, जब एक नैरेटर है और वह नैरेटर एक दलित है, वह नैरेट कर रहा है। पूरा उपन्यास, समूचा घटनाक्रम एक दलित के माध्यम से पेश किया गया है। किसी उपन्यास को पढ़ते हुए अगर उसका कथ्य इस बात की अनुमति देता हो कि दलित पात्र द्वारा पूरा उपन्यास रचे जाने के बावजूद उसमें दलित संवेदना नदारद है; तो उपन्यासकार पर हम यह आरोप लगा सकते हैं कि नहीं, यह दलित विमर्श का साहित्य नहीं हो सकता। लेकिन ‘बेतरतीब पन्ने’ में वास्तव में क्या ऐसा है? शेखर चमार के पात्र को लेखक ने एक मध्यवर्गीय पात्र के रूप में गढ़ा है और एक मध्यवर्गीय पात्र के रूप में आज जो स्थितियाँ हैं, चाहे दलित बौद्धिकों की स्थितियाँ हों, चाहे दलित मध्य वर्ग की जो स्थितियाँ हों, उसको लेकर आज का सबसे बड़ा क्रिटिक क्या है! उससे जुड़ा सबसे बड़ा क्रिटिक यह है कि अच्छी नौकरी में आने के बाद, मध्यवर्गीय जीवन अपनाने के बाद वह दलित अपनी जड़ों से कट जाता है; लेकिन इस शेखर चमार का अंतर्विरोध क्या है? यही कि वह अपनी ज़मीन से जुड़ा हुआ है। अपने पिता की सेवा करता है, सेवा करना चाहता है और पिता जब बीमार पड़ता है, गांव जाता है। उसका विवाह एक ऐसी स्त्री से होता है, जो एक बड़े राजनीतिक परिवार की है तो वह रोजाना कास्ट के साथ-साथ क्लास का अंतर्विरोध भी झेलता है। एक और बात है, जिस पर गौर किया जाना चाहिए। यह साहस की बात है कि एक गैर दलित या उच्च सवर्ण समाज में पैदा हुआ बौद्धिक या लेखक दलित पात्र द्वारा, उसको नैरेटर बनाते हुए समूचा कथा आख्यान करवा रहा है। ऐसा करने के लिए उसे अपने वर्ग और वर्ण से मुक्त होना होगा। संजय चौबे को काया-प्रवेश करना होगा, एक दलित पात्र में और उस काया-प्रवेश के पहले उन्हें अपने जो उच्च वर्ण के संस्कार हैं, उच्च वर्ण के उन संस्कारों से लड़ना होगा। तो क्या यह लड़ाई ‘बेतरतीब पन्ने’ में दिखती है? यहाँ लड़ाई दिखने का मतलब है कि जो दलित पात्र है, उसे द्विज संस्कारों से नफरत है या नहीं है। इस समूचे उपन्यास में उस पात्र की द्विज संस्कारों से नफरत साफ-साफ दिखती है। उदाहरण के तौर पर एलआईसी एजेंटों की मीटिंग का एक दृश्य है। शेखर चमार एलआईसी का ब्रांच मैनेजर है और शहर में एजेंट की मीटिंग आयोजित हुई है। समय व समाज के कई अंतर्विरोध यहाँ दर्ज होते हैं। यह मीटिंग एजेंटों के मॉटिवेशन के लिए है यानी कि उन्हें प्रोत्साहन दिया जाए, प्रेरित किया जाए कि वे बीमा का अपना व्यवसाय बढ़ाएं। समाज किस तरह से बदला है कि प्रोत्साहन देने के लिए सेना का एक रिटायर्ड अधिकारी बुलाया जाता है, जो मॉटिवेशन के साथ-साथ देशभक्ति, देशप्रेम, राष्ट्रप्रेम की छौंक लगाता है। इस कांग्रेगेशन अथवा मीटिंग में ब्रांच मैनेजर की हैसियत बहुत बड़ी नहीं है, क्योंकि वहाँ कई वरिष्ठ अधिकारी मौजूद हैं। ब्रांच मैनेजर होने के बावजूद शेखर चमार सबसे निचले पाये का अफसर है, उस ज़मात में। ऐसे में उसके जिम्मे बस धन्यवाद ज्ञापन की औपचारिकता को निभाना है। उसे धन्यवाद ज्ञापन यानी बस एकाध मिनट का अवसर मिलता है; लेकिन वह जोखिम लेता है, प्रोटोकॉल तोड़ता है। धन्यवाद ज्ञापन के लिए मिले छोटे-से अवसर पर वह क्रिटिक पेश कर देता है। उसका भाषण है पूरा, करीब डेढ़ पन्ने का है। उस डेढ़ पन्ने के भाषण में सैन्य अधिकारी और सेना की बात करते हुए वहीं वह भग्गू भंगी का ज़िक्र करता है कि सेप्टिक टैंक में काम करते हुए, डूब कर के जिसकी मृत्यु हुई, भग्गू; वह भग्गू भी देश के लिए काम कर रहा था यानी कि सफाई भी देश का काम है, तो यहाँ उसकी वह दलित चेतना है, 'संजय चौबे' की चेतना नहीं काम कर रही थी वहाँ पर। वहाँ संजय चौबे ने वर्गांतरण किया है; डिकास्ट किया, डिक्लास किया। डिक्लास और डिकास्ट होकर संजय चौबे ने उस दलित नैरेटर का चरित्र गढ़ा। उपन्यास के अन्य प्रसंगों में भी, हर मोड़ पर नैरेटर की दलित संवेदना स्पष्ट रूप से दिखती है; सरकारी नौकरी के रोज़मर्रे की पीड़ा को दर्ज करते हुए वह ‘सरकारी ब्राह्मण’ के तंज का ज़िक्र करता है। अगर निधि ठाकुर के साथ शेखर चमार का मैत्रीपूर्ण संबंध है, तो इसके संबंध में वह कहता है, ‘‘मित्र तरह-तरह के होते हैं और मित्रता के भी कई स्तर होते हैं। महिलाओं को एक तरह से बौद्धिक सम्मान की ज़रूरत होती है और दलितों की भी यही ज़रूरत होती है क्योंकि मॉड होने का लाख दावा करने के बावजूद स्त्रियों और दलितों को कमतर समझा जाता है। इस तरह से मुझे लगता है कि परस्पर सम्मान देने के कारण हम देखते ही देखते एक-दूसरे के निकट आ गए थे।’’ तो दलित पीड़ा का पूरा जो वातावरण है, उसकी एक पहचान इस उपन्यास में मिलती है।
हिंदी उपन्यास में दूसरा उदाहरण इस तरह का जो मैंने पढ़ा है, वह बाबा नागार्जुन का ‘बलचनमा’ उपन्यास है। ‘बलचनमा’ उपन्यास की खासियत यही है। यह भी आत्मकथात्मक उपन्यास है। मुख्य पात्र बलचनमा निम्न जाति के अंतर्गत गोप जाति का खेतिहर किसान है, जिसकी स्थिति बंधुआ मज़दूर की है। बंधुआ मज़दूर की स्थिति में रहते हुए वह बयान करता है यानी कि पूरा उपन्यास उसी का कहा हुआ है; उसी का नैरेशन है; लेकिन उस नरेशन में शामिल क्या-क्या है? अद्भुत! ‘बलचनमा’ 1935-1936 के दौर की पृष्ठभूमि पर लिखा हुआ उपन्यास है, जब स्वाधीनता आंदोलन चल रहा था। उस स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस के स्वाधीनता सेनानी थे जो जेल जा रहे थे, लेकिन उनके कैंपों या कि गांधी जी की प्रेरणा से बने आश्रमों में किस तरह का भेदभाव व्याप्त था, बलचनमा इसकी कहानी कहता है। सभी कांग्रेस के स्वयंसेवक हैं, लेकिन उनमें जो उच्च सवर्ण जाति के लोग हैं, उनसे कौन-सा काम कराया जाता है और जो निम्न सवर्ण जाति के हैं, वे कौन-सा काम करते हैं। इस तरह बाबू-बबुआन परिवारों के लोगों की स्वयंसेवक के रूप में क्या भूमिका थी और जो निम्न जातियों के लोग आते थे, उनसे क्या काम कराया जाता था; बलचनमा का यह सामर्थ्य है कि वह काम के बँटवारों की सूची पेश कर देता है। जब वहाँ भूकंप आता है, तो भूकंप आने के बाद गांव में जो मदद बाँटी जाती है। इस मदद राशि के बँटवारे में ऊँची जाति के लोगों के नाम के सामने कितना पैसा दर्ज है, वास्तव में कितना दिया जा रहा है और नीची जाति के लोगों के लिए कितना दर्ज किया जा रहा है, कितना मिल पा रहा है- इसकी सच्चाई उस उपन्यास में बयां होता है, तो भारतीय समाज का एक जो दंश है, जाति दंश; इस जाति दंश को बाबा नागार्जुन ने जब ‘बलचनमा’ की जुबानी पेश किया तो बाबा नागार्जुन ने स्वयं को डिकास्ट किया था, डिक्लास किया था। इस तरह प्रगतिशील लेखन, प्रगतिशील चेतना की जो परंपरा रही है, वह परम्परा यही रही है कि स्वयं को जाति और वर्ग से मुक्त करके लेखन करो। लेखन की इस परंपरा के बारे में मैं पहले कहता भी रहा हूँ, लिखता भी रहा हूँ कि विगत दो-तीन दशकों से मंद पड़ गई है। मुख्य धारा के लेखकों में वर्ण और वर्ग से मुक्त होकर लिखने की प्रक्रिया मंद पड़ी है। मैं समझता हूँ कि संजय चौबे का यह उपन्यास उस प्रक्रिया के वापसी की घोषणा है।
साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह है कि वैचारिक तौर पर जो भी दलित अस्मिताएं हैं, यह उपन्यास उन दलित अस्मिताओं के बीच एक एकता का भाव स्थापित करता है। संघर्ष के साथियों का जो चुनाव है, उस पर गौर करने पर दलित अस्मिताओं और दमनकारी अस्मिताओं के बीच का भेद पहचान में आता है। एक ओर दलित अस्मिताएं हैं, हमारे समाज की ऐसी अस्मिताएं जिनका दलन हुआ है, चाहे वह स्त्री हो, चाहे दलित हो और दूसरी ओर दमनकारी अस्मिताएं हैं, वे चाहे पितृसत्ता के रूप में हों, चाहे सैन्य सत्ता के रूप में हों या वर्णवादी सत्ता के रूप में हों। ऐसे में एक ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ की बात उठती है, लेकिन यह उपन्यास महज ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ का उपन्यास नहीं है। ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ तो तब भी हो सकती है, जब आप सेना का बिना क्रिटिक रचे, सेना की या इस तरीके की चीज़ों की प्रशस्ति कर दें और उसका कुछ क्रिटिक न करें तो भी उसमें ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ हो सकता है। ऐसे में ‘पॉलिटिकल मोरालिटी’ का सवाल उठता है और यह उपन्यास ‘पॉलिटिकल करेक्टनेस’ का उपन्यास न होकर ‘पॉलिटिकल मोरालिटी’ का है। कुल मिलाकर लेखकीय सामर्थ्य की भी सीमा होती है; वह सीमा यह है कि उसको एक लेखकीय अनुशासन में रहकर ही बात करनी है और बहुत अच्छा है कि संजय चौबे ने लेखकीय अनुशासन में रहकर बात की है और वे स्लोगनीरिंग से बचे हैं और जहाँ स्लोगनीरिंग दिखाई पड़ती है, वह इस कारण है कि नैरेटर ही दलित है; उसका आक्रोश है, उसका गुस्सा है।
आगे इस उपन्यास को मैं ‘इंटीग्रल रियलिटी’ का उपन्यास कहता हूँ और जब मैं कहता हूँ कि यह एक ‘इंटीग्रल रियलिटी’ का उपन्यास है, तो ‘इंटीग्रल रियलिटी’ का उपन्यास इस तरह से है कि इसमें हमारा समय और समाज पूरा-का-पूरा ज्यों-का-त्यों दिखता है, एक तरह से खबरों अथवा रिपोर्ताज़ की शक्ल में। यहाँ पर दूधनाथ सिंह के उपन्यास, ‘आखिरी कलाम’ का ख्याल आता है जिसमें अ़खबारों की कटिंग है; अ़खबारों की कटिंग तारी़खों के साथ है कि फलां अखबार में यह खबर छपी और एक ही खबर चार अखबारों में किस तरह से पेश हुई है, इन खबरों को चार तरह से उन्होंने उपन्यास में पेश किया है। बाबरी मस्जिद ध्वंस पर शशि थरूर का उपन्यास ‘रायट’ आया; ‘रायट’ में डी. एम. खुद कई-कई अ़खबारों की कटिंग देता है, तो इस तरह के उपन्यासों में घटनाओं की या स्थितियों की प्रमाणिकता के लिए डिवाइस के रूप में लेखक अपनी प्रस्तुति में खबरों का उपयोग करता है। इसी कड़ी में अरुंधति राय का उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑ़फ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ उल्लेखनीय है। इस उपन्यास की शक्ति क्या है! इसकी सबसे बड़ी शक्ति है कि इस उपन्यास में कश्मीर है, इसमें थर्ड जेंडर है, स्त्री और आदिवासी हैं। इस तरह उपन्यास उत्पीड़न की कहानी कहता है; उत्पीड़न अलग-अलग जगहों के; चाहे वह छत्तीसगढ़ का हो, चाहे वह कश्मीर का हो और अरुंधति राय ने एक प्रतीक के रूप में लिया है- जंतर-मंतर, जहाँ प्रदर्शन हो रहे हैं। जंतर-मंतर के प्रदर्शनों के माध्यम से उन्होंने भारतीय समाज के भारतीय प्रतिरोध का माइक्रोकॉज्म प्रस्तुत कर दिया यानी एक-एक झाँकी, एक-एक टुकड़े उस उपन्यास में पेश किए गए हैं। वह उपन्यास पारंपरिक अर्थों में किसी केंद्रीय पाठ का उपन्यास नहीं है। किसी केंद्रीय घटना का उपन्यास नहीं है। इसके बारे में यह नहीं कह सकते कि दलित उपन्यास है, कि प्रेम का उपन्यास है, कि किसान का उपन्यास है, कि आदिवासी उपन्यास है; वह ‘इंटीग्रेटेड रिएलिटी’ का उपन्यास है। अरुंधति राय ने इसकी भाषा के बारे में कहा भी था कि अगर खून में डूबी हुई कहानी है, तो उसे हम फूलों के गंध के साथ, हम सुवासित इत्रों के साथ पेश नहीं करते, पेश नहीं कर सकते हैं, तो जैसा समाज, जैसी स्थितियाँ, जैसा कथानक है; उन स्थितियों में उस तरह की भाषा भी होगी, उस तरह की अभिव्यक्ति होगी। इस तरह संजय चौबे का यह उपन्यास ‘इंटीग्रल रियलिटी’ का ही उपन्यास है।
एक सवाल और उठता है। वैसे ये बहस पुरानी हो चुकी है और सेटल भी हो चुकी है कि उपन्यास के पात्रों से गाली दिलवाई जाए या न दिलवाई जाए। वास्तविक जीवन में पात्र गाली देते हैं, फिर उपन्यास में गाली दें या न दें; यह सवाल सबसे पहले हिंदी में राही मासूम रजा के उपन्यास ‘आधा गांव’ के संदर्भ में आया था। लोगों ने सवाल उठाए, ‘आधा गांव’ के बारे में, फिर ‘ओस की बूँद’ के बारे में। उन्होंने ‘ओस की बूँद’ में जवाब दिया; कहा, ‘मैं बहुत शरी़फ परिवार से आता हूँ और मेरे परिवार में गाली देने की कोई परंपरा नहीं है; लेकिन मेरे गली-मोहल्ले में, मेरे गांव की गलियों में जब गाली दी जाती है, तो मैं अपने कान बंद नहीं कर लेता हूँ। हुज़ूर, अगर आप अपने कान बंद कर लेते हों, तो मेरे उपन्यास को न पढ़िए।’ यह उनका जवाब था। वह बात अलग है कि जोधपुर यूनिवर्सिटी में उसको हटा दिया गया, गालियों का बहाना लेकर के तो हिंदी में यह बात तय हो चुकी है। ‘बेतरतीब पन्ने’ के पात्र के अंदर से अगर गाली निकलती है, तो लेखक उसे रोक नहीं सकता।
कुल मिलाकर कहना यह है कि संजय चौबे की जो सोच है, उनका जो केंद्रीय विचार है, वह आज के समय के लिए एक ज़रूरी और मैं यह भी कहूँगा कि जो़िखम भरी सोच है। हिंदी के कितने उपन्यासकार जोखिम लेते दिखते हैं। ऐसे में हिंदी के लेखन में अगर लेखक अपनी लेखनी के साथ जोखिम के इलाके में प्रवेश कर रहा है, तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए।
(2019)

वीरेन्द्र यादव
जन्म : 5 मार्च, 1950; जौनपुर (उ.प्र.)।
लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘, ‘विवाद नहीं, हस्तक्षेप‘, ‘उपन्यास और देस‘, ‘विमर्श और व्यक्तित्व‘ आदि महत्वपूर्ण कृतियाँ।
सम्मान : आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से समादृत।
सम्पर्क: सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016; ईमेल –virendralitt@gmail.com
मोबाइल - 9415371872
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