पाठक संख्या

नई प्रस्तुति

कुछ प्रमुख लेख

एक नज़र यहाँ भी डालें

प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि


स्त्रीवाद की अनैतिहासिक समझ व बचकाने उत्साह का परिणाम है प्रेमचंद को खारिज करने की लठैतवादी घेराबंदी

वीरेंद्र यादव

विमर्शों के इस दौर में जनतांत्रिक दृष्टि से साहित्य का पुनर्मूल्यांकन समय की जरूरत है । यह करते हुए  प्रचलित धारणाओं का प्रश्नांकन और साहित्यिक व्यक्तित्वों का मूर्तिभंजन स्वाभाविक ही है। प्रेमचंद भी इस दायरे से बाहर नहीं हैं। विगत कुछ वर्षों में जहाँ दलित बौद्धिकों के एक वर्ग द्वारा प्रेमचंद को दलित विरोधी सिद्ध करने के प्रयास हुए, वहीं कुछ स्त्री विमर्शकारों द्वारा प्रेमचंद पर यह तोहमत मढी गई कि वे ‘स्त्री प्रश्नों व स्त्री की मानवीय अस्मिता पर विचार ही नहीं करना चाहते’। प्रेमचंद को खारिज करने की इस प्रवृत्ति के पीछे प्रेमचंद को उस सांचे ढली सोच में क़ैद करना था, जो उन्हें ‘सामंत का मुंशी’ की छवि में ढालकर, ‘बडे घर की बेटी’ के चौखट से बाहर नही आने देना चाहती थी। इसकी शुरुआत दलित लेखकों की एक टोली द्वारा प्रेमचंद के उपन्यास ‘रंगभूमि’ के दहन से लगभग दो दशक पूर्व हुई थी। तब डा. धर्मवीर ने इस ‘दिव्यदाह’ की पुरोहिताई  के साथ साथ  प्रेमचंद की स्त्रीदृष्टि को भी प्रश्नांकित किया था। प्रेमचंद उन्हें ‘तगड़ी पहने हुए हिंदू’ लगते हैं, कारण यह कि—

 “1-प्रेमचंद  स्त्री की वास्तविक आर्थिक स्वतंत्रता की दिशा में रत्ती भर भी आगे नहीं बढ़े हैं।

 2-स्त्री की पढ़ाई-लिखाई के द्वारा वे पारम्परिक परिवारों में ज़रा-सा  बदलाव भी सहन करने को तैयार नहीं हैं।

3-स्त्री को केवल घर से बाँध और जकड़कर प्रेमचंद ने स्त्री की दासता और असमानता को पुख्ता किया है. घर में स्वतंत्रता देने के नाम पर प्रेमचंद के पास स्त्री स्वातंत्र्य की हवा तक नहीं है। 

4- जीविका की स्वतंत्रता न देकर स्त्री को गरीब रखा है और फिर उसे ‘बेचारी’ कहकर उसके लिए भरण-पोषण देने की दयालुता प्रदर्शित की है।

ऐसी स्थिति में दूसरे लोग प्रेमचंद की कोई और तस्वीर पेश करें, मुझे वे तगड़ी पहने हिंदू दीखने लगते हैं।” (डा. धर्मवीर, सामंत का मुंशी, पृ.36)

प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि के बारे में डा. धर्मवीर के उपरोक्त निष्कर्षों का न तो कोई औचित्य रहा है और न प्रामाणिक आधार। इसके मूल में  प्रेमचंद के वैचारिक लेखन से उनकी अनभिज्ञता ही है। स्त्री की आर्थिक स्वतंत्रता के बारे में प्रेमचंद का स्पष्ट मत था कि  : “महिलाओं को केवल वैवाहिक जीवन के लिए क्यों तैयार किया जाए, उन्हें जब तक आर्थिक स्वतंत्रता न प्राप्त होगी उस वक्त तक पति-पत्नी में साम्यवाद न उत्पन्न होगा। अगर साम्य का  एकमात्र आर्थिक आधार हो ही जाए, तब भी कमी-बेशी का झंझट रहेगा ही। ...स्त्री घर में जो काम करती है, वह उसकी कमाई से कई गुना ज्यादा महत्व की चीज़ है। पुरुषों ने महिलाओं को इतना सताया है कि अब वे माताएं और गृहिणी न बनकर अपनी आर्थिक स्वाधीनता प्राप्त करने पर तुली हुई हैं। अगर पुरुष बच्चे पालना और भोजन पकाना नहीं जानते, तो स्त्री क्यों सीखे? जो विद्या पढ़कर पुरुष रोटी कमाता है और इसलिए औरतों को अपनी लौंडी समझता है, वही विद्या स्त्रियाँ भी सीखना चाहती हैं। वह खाना क्यों पकाएं, वकालत क्यों न करें, अध्यापिका क्यों न बनें? इसका फ़ैसला हमारी देवियों को ही करना चाहिए कि उनकी कन्याएं कैसी शिक्षा पायें। स्वार्थी पुरुषों का फ़ैसला वह क्यों मंजूर करने लगीं? “ (प्रेमचंद, विविध प्रसंग-भाग तीन, पृ.266-267)

प्रेमचंद स्त्री की आर्थिक आत्मनिर्भरता के ही पक्षधर नहीं थे, बल्कि वे इस बात से भी खिन्न थे कि एक काम के लिए स्त्री को पुरुष से कम मज़दूरी क्यों मिलती है?  ‘नारियों के साथ अन्याय क्यों’ शीर्षक  टिप्पणी में उन्होने लिखा : “....नारियों ने सिद्ध कर दिया है कि बहुत से कामों में वह पुरुषों के बराबर ही नहीं पुरुषों से ज्यादा काम करती हैं। रहा परिवार का सवाल, तो अब यह ज़रूरी नहीं रह गया है कि नारी परिवारविहीन हो। इस बेकारी के जमाने में कितने ही पुरुष अपनी पत्नियों की कमाई पर गुजर-बसर करते हैं और अब तो अविवाहित स्त्री भी पिचकारियों द्वारा संतातनवती हो सकती है, फिर किस कायदे से उसे कम वेतन दिया जाए ? हाँ, नारियों से हमारा नम्र निवेदन है कि अब वे एकांत भोग की बात छोड़ें और अपने बेकार पुरुषों की उसी तरह नाजबरदारी करें जैसे पुरुष अब तक अपनी बेकार स्त्रियों की करता रहा है.” (उपरोक्त, पृ.270)

       प्रेमचंद  नारियों का यह आह्वान तब कर सके थे, जब न स्त्री विमर्श की केंद्रीयता थी और न नारी आंदोलन की उपस्थिति। यह उनकी उस तार्किक समझ का परिणाम था जो हर शोषण व असमानता के विरुद्ध थी लेकिन इक्कीसवीं सदी के इन वर्षों में स्वयंभू दलित प्रवक्ता की भूमिका का निर्वहन करते हुए  डा. धर्मवीर के विचार इतने प्रतिगामी  और स्त्री विरोधी थे कि उन्होंने दलित स्त्री को अपने काबू में रखने के लिए यह दलील दी कि,” वे अपने खुले संस्कारों के कारण पर-पुरुष से कामाचार अवश्य करेंगी। इन्हें मना करो तो आत्महत्या की धमकी देंगी  तथा उद्धत हो जाएंगी।” ( स्त्री के लिए जगह’, सं.-राजकिशोर, पृ.79). इसके विपरीत प्रेमचंद न तो स्त्रियों को अपने काबू में रखे जाने के पक्षधर थे  और न ही वे वेश्या बनने के लिए स्त्रियों को जिम्मेदार मानते थे। अप्रैल 1923 में प्रकाशित कहानी ‘नैराश्य लीला’ में प्रेमचंद ने कहानी की पात्र कैलाशी की जुबानी अपने विचारों को यूं अभिव्यक्त किया है - “ मैं अपने को अभागिनी नहीं समझती। मैं अपने आत्मसम्मान की रक्षा आप कर सकती हूँ। मैं इसे अपना घोर अपमान समझती हूं कि पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, नित्य कोई चरवाहों की भांति मेरे पीछे लाठी लिए घूमता रहे कि किसी खेत में न जा पड़ूं। यह दशा मेरे लिए असह्य है। ” प्रेमचंद स्त्रियों को वेश्या बनाने के लिए पुरुषों को उत्तरदायी मानते थे। ‘सेवासदन’ उपन्यास के कुंवर अनिरुद्ध सिंह का यह  कथन  दृष्ट्व्य है- “हमें वेश्याओं को पतित समझने का कोई अधिकार नहीं है। ...हमारे शिक्षित भाइयों की ही बदौलत दालमंडी आबाद है, चौक में चहल-पहल है, चकलों में रौनक है। यह मीनाबाज़ार हम लोगों ने ही सजाया है, ये चिडियाँ हमलोगों ने ही फांसी हैं, ये कठ्पुतलियां हमने बनायीं हैं। जिस समाज में अत्याचारी जमींदार, रिश्वती राज्य कर्मचारी, अन्यायी महाजन, स्वार्थी बंधु आदर  और सम्मान के पात्र हों, वहां दालमंडी क्यों न आबाद हो?” ('सेवासदन', राजकमल पेपरबैक्स, पृ.266) 

       प्रेमचंद तलाकशुदा स्त्री को गुजारा राशि देने के साथ साथ पति की सम्पत्ति में उसके अधिकार के पक्ष में भी थे। मार्च 1933 में जब सर हरिसिंह गौड़ द्वारा प्रस्तुत तलाक बिल पर काफी सरगर्मी थी, तब प्रेमचंद ने स्पष्ट शब्दों में लिखा था : “ हिंदू विवाह और तलाक दो परस्पर विरुद्ध बातें हैं, लेकिन इस आदर्श का मूल्य बहुत कम हो जाता है, जब उसके पालन का भार केवल स्त्रियों पर रख दिया जाता है। विशेषकर जब हिंदू देवियाँ खुद इस बिल की मांग पेश कर रही हैं तो पुरुषों को उसे स्वीकार करने के सिवा और कोई मार्ग नहीं रह जाता। जब तक देवियाँ चुपचाप, बिना किसे तरह का असंतोष प्रकट किए अपने कष्टों को सहन करती जाती थीं, पुरुषों के पास अपने को धोखा देने का एक बहाना था। वह कह सकते थे –हमारी देवियां पतिव्रत पर इतनी जान देनेवाली हैं कि चाहे पुरुष कितना ही जुल्म करे उनके मन में कोई दुर्भावना आ ही नहीं सकती। अब भी हमारी अधिकांश बहनों की यही मनोवृत्ति है, लेकिन ज्यों ज्यों उनमें शिक्षा का प्रचार हो रहा है, उनमें अपनी वर्तमान अधोगति से विद्रोह उत्पन्न हो रहा है और तलाक की मांग उसी विद्रोह का सूचक है। ...हां, इस बिल के साथ इस बात का भी विचार करना आवश्यक है कि पुरुष की जायदाद में स्त्रियों का कुछ अधिकार रहे। अन्यथा ऐसा हो सक्ता है कि नित नए फूलों का रस लेने वाली मनोवृत्तियाँ तलाक को एक बहाना बना लें। ( प्रेमचंद, विविध प्रसंग-भाग तीन, पृ.258.) प्रेमचंद की तलाक के पक्ष में इस सुस्पष्ट राय के बावजूद डा. धर्मवीर का निष्कर्ष है कि ‘’ प्रेमचंद सुधार विरोधी खेमें में खड़े होकर विवाह की अटूटता की जबर्दस्त वकालत करते हैं। वे पूरे प्रतिक्रियावादी और सनातनी हिंदू बनकर स्त्री दारा अपनी आजीविका आप कमाकर आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के उसके रास्ते को रोके खड़े हैं।” ( प्रेमचंद-सामंत का मुंशी, पृ. 37) अपने इस मिथ्या कथन को सिद्ध करने के लिए उन्होनें प्रेमचंद की कहानी ‘सुहाग का शव’ का आधा-अधूरा उद्धरण प्रस्तुत किया है। जबकि कहानी की मुख्य पात्र सुभद्रा जहाँ यह कहती है कि –“....विवाह का सबसे ऊंचा आदर्श उसकी पवित्रता और स्थिरता है” वहीं इसका अगला वाक्य जो धर्मवीर उद्धृत नहीं करते,  वह यह है कि “पुरुषों ने सदैव इस आदर्श को तोड़ा है, स्त्रियों ने निबाहा है। अब पुरुषों का अन्याय स्त्रियों को किस ओर ले जाएगा, नहीं कह सकती।” यह सम्पूर्ण कहानी विवाह की उस संस्था पर बहस है जिसके साथ पुरुष मनमानी सुलूक करता हुआ स्त्री को अक्सर उत्पीडित करता है। सुभद्रा पति द्वारा दूसरी स्त्री से सम्बंध जोडने पर सुहाग की रक्षा के नाम पर बिसूरने के बाजाय पति का परित्याग कर देती है। इतना ही नहीं सुभद्रा यहाँ तक सोचती है कि  “क्या पुरुष हो जाने से ही सभी बातें क्षम्य और स्त्री हो जाने से सभी बातें अक्षम्य हो जाती हैं। नहीं, इस निर्णय को सुभद्रा की विद्रोही आत्मा इस समय स्वीकार नहीं कर सकती। उसे नारियों के ऊंचे आदर्शों की परवाह नहीं है। उन स्त्रियों में आत्माभिमान न होगा ?  वे पुरुषों के पैरों की जूतियाँ  बनकर रहने में ही अपना सौभाग्य समझती होंगीं? सुभद्रा इतनी आत्माभिमान शून्य नहीं है। वह अपने जीते जी यह नहीं देख सकती कि उसका पति उसके जीवन का सर्वनाश करके चैन की वंशी बजाए.. वह केवल अपनी वासनाओं की तृप्ति के लिए सुभद्रा के साथ प्रेम स्वांग भरता था। फिर उसका वध करना क्या सुभद्रा का कर्तव्य नहीं?” 

        ‘सुहाग का शव’ की सुभद्रा व्यभिचारी पति की हत्या तक का विचार मन में ले आती है। वे अपने अंतिम दौर के लेखन में ही नहीं बल्कि आरंभिक दौर में भी स्त्री के तलाक के अधिकार के समर्थक थे। वर्ष 1919 में प्रकाशित अपने उपन्यास ‘सेवासदन’ में वे उपन्यास की पात्र भोली की जुबानी तलाक का समर्थन इन शब्दों में करते हैं- “हम कोई भेड़-बकरी तो नहीं कि माँ-बाप जिसके गले मढ़ दें, बस उसी की हो रहें.  ....यह बेहूदा रिवाज़ यहीं के लोगों में है कि औरत को इतना जलील समझते हैं; नहीं तो सब मुल्कों में औरत आजाद हैं, अपनी पसंद से शादी करती हैं, जब उसे रास नहीं आती तो तलाक दे देती हैं लेकिन हम सब वही पुरानी लकीर पीटे चली  जा रही  हैं।” (सेवासदन,राजकमल पेपरबैक्स ,पृ.67) इसके बावजूद गीतांजलि पांडे प्रेमचंद की नारीदृष्टि पर यह टिप्प्णी करती हैं कि “..उनके सम्पूर्ण कथात्मक लेखन में तलाक का कहीं समर्थन नहीं है...वे हिंदू विधवा को उसके आदर्शों से डिगते नहीं देखना चाहते थे...आदि”. (इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 31 दिस्म्बर,1986.) क्या सचमुच प्रेमचंद  विधवा स्त्री को हिंदू आदर्शों में ढालने के पक्षधर थे? यदि ऐसा होता तो क्या ‘बेटों वाली विधवा’ (1932)  कहानी  की फूलमती विधवा होने के बाद मनुस्मृति को चुनौती देने का  साहस कर सकती थी? कहानी का एक अंश यूं है—

   “उमा (नाथ)  ने निरीह भाव से कहा – कानून यही है कि बाप के मरने के बाद जायदाद बेटों की हो जाती है । मॉ का हक केवल रोटी-कपडे का है! फूलमती ने तड़पकर पूछा – किसने यह कानून बनाया है? 

  उमा शांत स्थिर स्वर में बोला –हमारे ऋषियों ने। महाराज मनु ने और किसने? 

   फूलमती एक क्षण अवाक रहकर आहत कंठ से बोली – तो इस घर में मैं तुम्हारे टुकड़ों पर पड़ी हुई हूँ? 

  उमानाथ ने न्यायाधीश की निर्ममता से कहा - तुम जैसा समझो. 

    फूलमती की सम्पूर्ण आत्मा मानो इस वज्रपात से चीत्कार करने लगी। उसके मुख से जलती हुई चिन्गारियों की भांति यह शब्द निकल पड़े— मैने घर बनवाया; मैंने सम्पत्ति जोडी , मैंने तुम्हें जन्म दिया ,पाला और आज इस घर में गैर हूँ? मनु का यही कानून है और तुम उसी कानून पर चलना चाहते हो ? अच्छी बात है। अपना घर-द्वार लो। मुझे तुम्हारी आश्रिता बनकर रहना स्वीकार नहीं! इससे कहीं अच्छा है कि मर जाऊं। वाह रे अंधेर! मैंने पेड़ लगाया और मैं ही उसकी छांह में खड़ी नहीं हो सकती; अगर यही कानून है, तो इसमें आग लग जाय।” 

        ‘गबन’ उपन्यास में भी हिंदू परिवार मे विधवा के अधिकारों को लेकर एक ऐसा ही प्रसंग है, जिसमें बेटा मणिभूषण माँ रतन से कहता है – “सम्मिलित परिवार में विधवा का अपने पुरुष की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता”। माँ स्वयं से प्रश्न करती है, “मगर ऐसा कानून बनाया किसने? क्या स्त्री इतनी नीच, इतनी तुच्छ, इतनी नगण्य है? क्यों?” फिर बेटे से कहती है , “ न जाने किस पापी ने यह कानून बनाया था। अगर ईश्वर कहीं है और उसके यहाँ कोई न्याय होता है, तो एक दिन उसी के सामने उस पापी से पूछूंगीं, क्या तेरे घर में माँ-बहने न थीं? तुझे उनका अपमान करते लज्जा न आयी? अगर मेरी जबान में इतनी ताकत होती कि सारे देश में उसकी आवाज़ पहुँचती, तो मैं सब स्त्रियों से कहती – बहनो, किसी सम्मिलित परिवार में विवाह मत करना और अगर करना तो जब तक अपना घर अलग न बना लो, चैन की नींद मत सोना। यह मत समझो कि तुम्हारे पति के पीछे उस घर में तुम्हारा मान के साथ पालन होगा। अगर तुम्हारे पुरुष ने कोई तरका नहीं छोड़ा तो तुम अकेली रहो चाहे परिवार में, एक ही बात है। तुम अपमान और मजूरी से बच नहीं सकती। अगर तुम्हारे पुरुष ने कुछ छो‌ड़ा है, तो अकेली रहकर तुम उसे भोग सकती हो, परिवार में रहकर तुम्हें उससे हाथ धोना पड़ेगा। परिवार तुम्हारे लिए फूलों की सेज नहीं, कांटों की शय्या है; तुम्हारा पार लगानेवाली नौका नहीं, तुम्हें निगल जानेवाला जन्तु” (गबन, हंस प्रकाशन, पृ.232).  ‘कर्मभूमि’ उपन्यास की “सुखदा का विद्रोही मन संसार से प्रतिकार के लिए जैसे नंगी  तलवार लिए खडा रहता है। कभी-कभी उसका मन इतना उद्विग्न हो जाता है कि समाज और धर्म के सारे बंधनों को तोडकर फेंक दे। ऐसे आदमियों की सज़ा यही है कि उनकी स्त्रियाँ भी उन्हीं के मार्ग पर चलें। तब उनकी आँखें खुलेंगीं और उन्हें ज्ञात होगा कि जलना किसे कहते हैं। एक मैं कुल मर्यादा के नाम पर रोया करूँ; लेकिन यह अत्याचार बहुत दिनों न चलेगा। अब कोई इस भ्रम में न रहे कि पति चाहे जो करे, उसकी स्त्री उसके पाँव धो-धोकर पिएगी, उसे  अपना देवता समझेगी; उसके पाँव दबाएगी और वह उससे हँसकर बोलेगा, तो अपने भाग्य को धन्य मानेगी। वह दिन  लद गए। ” इसके बावजूद यदि कोई स्त्री विमर्शकार ‘नारी का धरम है कि गम खाय’ का कथन प्रेमचंद पर चस्पा करे तो उसे दुराग्रही ही कहा जा सकता है। ध्यान देने की बात है कि ये वही प्रेमचंद हैं, जिन्होंने अपने शुरुआती दौर में संयुक्त परिवार के आदर्शों के पक्ष में ‘बडे घर की बेटी” (1910) कहानी लिखी थी। यह अनायास नही है कि प्रेमचंद की ‘बडे घर की बेटी’ की छवि को तो अक्षुण्ण बना दिया गया, लेकिन उनके बाद के स्त्री संबंधी लेखन को विमर्श बाहर कर दिया गया। 

     कुछ विमर्शकारों ने प्रेमचंद की स्त्री दृष्टि को ‘गोदान’  के प्रो. मेहता के विचारों से जोड़कर प्रश्नांकित किया है।  विजयमोहन सिंह को ‘गोदान’ के प्रो. मेहता के स्त्री संबंधी विचार इतने प्रतिगामी लगते हैं कि कि ‘कोई पोंगापंथी  परम्परावादी भी कोसों पीछे छूट जाए’। निश्चित रूप से ‘गोदान’ के प्रो. मेहता के स्त्री सम्बंधी विचार ‘पोंगापंथी परम्परावादी’ हैं लेकिन प्रो. मेहता को विजयमोहन सिंह उपन्यास का ‘प्रोटागानिस्ट” क्यों मानते हैं?  इसलिए कि इससे प्रेमचंद की धुनाई का रास्ता आसान हो जाएगा। अगर प्रो. मेहता के रूप में प्रेमचंद बोलते हैं तो ‘गोदान’ की धनिया, झुनिया, नोहरी, चुहिया, पुन्नी सरीखे मुखर स्त्री पात्रों का सिरजनहार कौन है? दरअसल प्रो. मेहता के विचारों को प्रेमचंद के विचारों का हमजाद मानने की शुरूआत डॉ. रामविलास शर्मा ने ही कर दी थी। उन्हीं के शब्दों में, “अगर मेहता से होरी को जोड़ा जा सके तो जो व्यक्ति होगा, वह बहुत कुछ प्रेमचंद से मिलता-जुलता होगा। मेहता को यदि उन्होने (प्रेमचंद) अपने विचार दिए हैं तो होरी को बराबर परिश्रम करने की शक्ति।” (प्रेमचंद और उनका युग, पृ.111)  रामविलास शर्मा के इस  निष्कर्ष को स्वीकार करते हुए मेहता को यदि प्रेमचंद के विचारों का प्रतिनिधि मान लिया जाए तो ‘गोदान’ के उन नारी पात्रों की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो नारी अस्मिता एवं नारी अधिकार का बोध कराती हैं। दरअसल ‘गोदान’ में मेहता उस पितृसत्तात्मक राष्ट्रवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो स्त्रियों को ‘आप अपने धर्म का पालन किए जाइए’ का तोतारटंत पाठ सुनाकर उसे ‘दया, श्रद्धा ,त्याग’ की प्रतिमूर्ति बनाना चाहता है। देवी और मातृछवि की यह धार्मिक संरचना नारी की आधुनिकता, प्रगतिशीलता एवं समानता के आदर्श को पश्चिमी मूल्य के रूप में प्रस्तुत कर भारतीय समाज के नारी दासत्व का महिमामंडन करती है। नारी को लेकर मेहता के दकियानूसी विचारों के  माध्यम से प्रेमचंद उस मध्यवर्गीय पुरुषसत्तात्मक सोच को उजागर करते हैं, जिसके राष्ट्रवादी एजेंडा पर देश की आजादी तो थी, लेकिन नारी की आज़ादी नहीं थी। वह स्त्रियों की शिक्षा, रूप, गुण, हुनर का पक्षधर तो था, लेकिन उसकी पुरुषों के साथ समानता, साझेदारी एवं सहभागिता का विरोधी था। शायद यही कारण था कि प्रेमचंद मालती के चरित्र के द्वारा आभिजात्यवर्गीय नारी के उस पक्ष को उजागर करते हैं,  जो अपनी अंतिम परिणतियों में पारम्परिक भूमिका का ही वरण करता है। अक्सर मालती की तितली रूपी उन्मुक्त मोहक छवि उसके उस वास्तविक रूप को दृश्य ओझल कर देती है, जिस पर अपने बीमार पिता व दो बहनों के खान-खर्च व रख-रखाव का भार था। “मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब- कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था।” इतना ही नहीं, प्रेमचंद मालती की औपन्यसिक उपस्थिति को निर्मित करते हुए यह उल्लेख भी करते हैं कि “मालती बाहर से  तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हँसी ही हँसी नहीं है....वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इसमें उसके कर्तव्य का भार कुछ हलका हो जाता है।” (गोदान, पृ.131) मालती की इस त्रासदी को अनदेखा करने का ही परिणाम है कि मीनाक्षी मुखर्जी जैसी गम्भीर साहित्यिक अध्येता भी उसकी व्याख्या इन शब्दों में करती हैं, “ मालती साँचे ढला चरित्र है: पश्चिमी रंग-ढंग में रची-बसी चालू महिला, जिसे भारतीय संस्कृति में व्यावसायिक हिंदी फिल्मों की खलनायिका सरीखी छविवाला माना जाता है।” ( रियलिज्म एंड रियल्टी , पृ. 152)   मालती की इस रूप में व्याख्या करके  मीनाक्षी अनजाने ही उसे उस पुरुष विमर्श में डालती है, जो खुले विचारों एवं उन्मुक्त व्यवहार करनेवाली हर स्त्री को कुलटा व भोग्या का दर्ज़ा देता है, निश्चित रूप से मालती के चरित्र की यह छवि प्रेमचंद का अभीष्ट नहीं था। यहां सुधा सिंह  का यह निष्कर्ष उचित ही है कि “ उपन्यास के इस जोडे (मेहता-मालती) के जरिए प्रेमचंद ने स्त्री-पुरुष संबंध को नई दिशा दी है। यह अधिकार और अधिकारी का संबंध नहीं है, स्वामी-दासी का भी संबंध भी नहीं है। मेहता के विवाह के प्रस्ताव  के जवाब में मालती कहती है, “मैं महीनों से इस प्रश्न पर विचार कर रही हूँ और अंत में मैंने यह तय किया है कि मित्र बनकर रहना स्त्री-पुरुष बनकर रहने से कहीं सुखकर है।” ( ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, पृ.303)  वर्तमान संदर्भों में जिसे ‘लिव-इन’ के रूप में जाना जाता है,  उसे मेहता- मालती के रिश्तों के बीच विमर्शकारी बनाना प्रेमचंद की अग्रगामी सोच का द्योतक है। प्रेम रिश्ते के बीच समानता की पक्षधरता का ही परिणाम है गोबर से झुनिया का यह कथन कि “सर्बस तो तभी पाओगे, जब अपना सर्बस दोगे”  और यह भी कि “मर्द का हरजाईपन औरत को उतना ही बुरा लगता है, जितना औरत का मर्द को.” (गोदान, पृ. 44) 

     प्रेमचंद के लेखन में भारतीय सामाज का जो नारी परिप्रेक्ष्य उजागर होता है, वह कई जटिलताओं को लिए हुए है। इन जटिलताओं की गहरी समझ के कारण ही प्रेमचंद जहाँ ‘गोदान’ की दुलारी सहुआईन  और पंडित दातादीन की महाजनी में भेद कर पाते हैं, वहीं सिलिया चमाईन व धनिया  की एकता का भेद भी जान पाते हैं। नारी होने की नियति दुलारी सहुआईन, होरी की बेटी रूपा और जमींदार राय साहब की बेटी मीनाक्षी की सामाजिक पृष्ठभूमि एवं आर्थिक हैसियत के अंतर को मिटा देती है। मीनाक्षी की नियति होरी की बेटी रूपा की ही तरह अपने से दुगने वय के कुंवर साहब दिग्विजय सिंह सरीखे विधुर के साथ ब्याहे जाने की क्यों है,  जो ‘शराब, गांजा, अफीम, मदक, चरस सरीखे नशों के भंडार थे।’  स्पष्ट है कि इस सबके मूल में नारी की वह दलित नियति ही है, जिसे डा. राममनोहर लोहिया पांचवे वर्ण की संज्ञा देते थे। गायत्री चक्रवर्ती 'स्पीवाक' में अपने लेख ‘कैन सबाल्टर्न स्पीक?’ में जिस समस्या को  सैद्धांतिक स्तर पर उठाती हैं, प्रेमचंद अपने दलित व स्त्री पात्रों को उनकी वाणी देकर उसे रचनात्मक स्तर पर सुलझाते नज़र आते हैं। धनिया ’गोदान’ का सर्वाधिक मुखर चरित्र है, अपनी संपूर्णता में वह होरी का प्रतिपक्ष प्रस्तुत करती हुई एक विद्रोहिणी स्त्री है। जहाँ धनिया होरी को उसकी भीरुता के लिए फटकारती है, वहीं पंचों द्वारा होरी पर जुर्माना लगाने पर वह समूची बिरादरी को ही चुनौती दे डालती है। जिस दातादीन ने जमीन-जायदाद गिरवी रखकर होरी को किसान से  मज़दूर बना दिया, धनिया उस दातादीन को भी ललकारती है- “ भीख माँगो तुम, जो भिखमंगे की जात हो। हम तो मजूर ठहरे, जहाँ काम करेंगें, वहीं चार पैसे पायेंगें।” (गोदान, पृ.171) 

   प्रेमचंद यहाँ नारी स्वतंत्रता को नारी-श्रम से जोड़ते हुए पितृसत्तात्मक समाज की दासता से मुक्ति का जो रास्ता दिखाते हैं, वह स्त्री की आत्मनिर्भरता का ही नहीं, बल्कि आत्मनिर्णय का भी द्वार खोलता है। यह राष्ट्रीयता के उस नारी-विमर्श को भी ध्वस्त करता है जो अंग्रेजों की गुलामी के विरुद्ध तो आंदोलित था, लेकिन नारी को पितृसत्ता के कटघरों से मुक्त नहीं करता। प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि पर विचार करते हुए  यह तथ्य भी उजागर होता है कि दलित, किसान व हाशिए के समाज की स्त्रियाँ अपने अधिकारों व निजी मुक्ति के प्रति अधिक सजग व मुखर हैं। झुनिया, नोहरी, पुन्नी, चुहिया, सुखिया, मुलिया, गंगी आदि प्रतिरोधी चेतना से सम्पन्न ऐसी ही पात्र हैं। ग्रामीण नारी की यह प्रतिरोधी चेतना भारतीय समाज का वह ‘सबाल्टर्न’ ( निम्नवर्गीय) प्रसंग है, जो तत्कालीन ‘राष्ट्रवादी चेतना’ का आनुषंगिक हिस्सा नहीं था, इसीलिए प्रेमचंद ने नारियों का यह आह्वान किया था कि “ अपने को मिटाने से काम न चलेगा, नारी को समाज कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पडेगी। उसी तरह जैसे इन किसानों को अपनी रक्षा के लिए देवत्व का कुछ त्याग करना होगा।” 

       प्रेमचंद का स्त्री- विमर्श एकलवादी न होकर भारतीय सामाजिक संरचना के अनुकूल बहुलवादी है। यहाँ पितृसत्तात्मक समाज का अनुकूलन है, तो उससे मुक्ति की छटपटाहट भी। विवाह व परिवार संस्था की आलोचना है तो उसके महत्व का रेखांकन भी। बिन-विवाह ‘लिव-इन’ की चाहत है तो प्लेटॉनिक प्यार की मरीचिका भी, पति-परमेश्वर का अनुकूलन है तो तलाक की जरूरत भी। महत्वपूर्ण यह है कि यह सब प्रेमचंद तब कर सके थे, जब न तो नारी मुक्ति की कोई मुखर चेतना थी और न ही कोई संगठित आंदोलन लेकिन क्षोभ का विषय यह है कि जिस तरह कुछ वर्ष पूर्व दलित विमर्शकारों के एक संवर्ग द्वारा प्रेमचंद को ‘सामंत का मुंशी’ करार दिया गया था, उसी तरह  कतिपय स्त्री लेखिकाओं द्वारा भी उन्हें ‘पुरुषवादी’ व स्त्री-विरोधी सिद्ध करने के निष्फल प्रयास विगत दिनों किए गए हैं। रोहिणी अग्रवाल का प्रेमचंद पर यह आरोप है कि “प्रेमचंद स्त्री –मानस को नहीं समझते क्योंकि वे स्त्री-प्रश्नों और स्त्री की मानवीय अस्मिता पर विचार ही नहीं करना चाहते। सेवा और त्याग की देवी बनाकर वे उसका स्थान और सीमा सुनिश्चित कर देते हैं, बस।” ( हिंदी उपन्यास का स्त्री-पाठ, पृ.18)  क्या सचमुच? दरअसल इस तरह के मनोगत निष्कर्ष प्रेमचंद के उस कुपाठ और अज्ञान  का परिणाम है जो उन्हें पुरुषवादी सिद्ध करने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। सुधा सिंह ने उचित ही लिखा है कि “हिंदी में इधर कुछ वर्षों में कुछ साहित्यिक लठैत पैदा हुए हैं जो आए दिन हिंदी के यशस्वी लेखकों को कूटते रहते हैं और उन्हें पुसंवादी सिद्ध करते हैं। इस तरह की लठैती का भारतीय स्त्रीवाद की परंपरा से कोई संबंध नहीं है। इस तरह का लेखन स्त्रीवाद को स्कैंडल की तरह इस्तेमाल करता है। स्त्रीवाद को उन्मादी बनाता है।”(ज्ञान का स्त्रीवादी पाठ, पृ.305). सुधा सिंह का प्रेमचंद के बारे  में उचित ही यह निष्कर्ष है कि “हिंदी में प्रेमचंद पहले ऐसे बड़े लेखक हैं जो स्त्री को स्त्री संदर्भ में देखते हैं। ...प्रेमचंद का समस्त लेखन वर्चस्व की अवधारणा को अस्वीकार करता है। यही वह बिंदु है जहाँ पर प्रेमचंद नवजागरण की विचारधारा की सीमाओं का अतिक्रमण कर जाते हैं और स्त्री मुक्ति का नया एजेंडा सुझाते हैं। प्रेमचंद हिंदी के प्रथम लेखक हैं जो स्त्री के प्रश्नों पर वैज्ञानिक समझ का परिचय देते हैं। उनके लिए स्त्री समस्या राष्ट्रीय एवं लिंगीय समस्या है।” (उपरोक्त, पृ. 308) 

       दरअसल स्त्रीवाद की अनैतिहासिक समझ व बचकाने उत्साह का ही परिणाम है, प्रेमचंद को खारिज करने की यह लठैतवादी घेराबंदी। प्रेमचंद के अंतर्विरोधों व सीमाओं पर बात जरूर की जानी चाहिए, लेकिन उनके समय और समाज को दृष्टिगत रखते हुए। इस संदर्भ में चेक उपन्यासकार मिलान कुंदेरा का यह कथन ध्यान देने योग्य है- “आदमी कुहरे में  आगे चलता है। जब वह पीछे मुड‌‌कर अतीत के लोगों पर अपना फ़ैसला देता है तो उसे उनके रास्तों पर कोई कुहरा नज़र नहीं आता। अपने वर्तमान से जो उनका दूरस्थ भविष्य था, उसे उनका रास्ता बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देता है। पीछे देखने पर उसे उसे रास्ते बढ़िया दृष्टिगोचर होते हैं, आगे बढते हुए लोग दीखते हैं, दीखती हैं उनकी भूल–गलतियाँ, उनका कुहरा नहीं। फिर भी वे सब – हाइडेगर, मायकोवस्की, अरांगां, एजरा पाऊंड, गोर्की आदि – सब कुहासे में चल रहे थे और इस पर हैरत हो सकती है कि कौन अधिक दृष्टिहीन है? लेनिन पर कविता लिखने वाला मायकोवस्की, जिसे लेनिनवाद का गंतव्य पता नहीं था? या हम जैसे लोग जो उस पर निर्णय दे रह हैं, बिना उस कुहासे पर ध्यान दिए जिसकी गिरफ्त में वह था? “ ( टेस्टामेंट बिट्रेड,पृ.240) 

काश, प्रेमचंद  के निंदक यह समझ पाते!

(पुस्तक 'विमर्श  और  व्यक्तित्व' (सेतु प्रकाशन) से साभार)




वीरेन्द्र यादव

जन्म : 5 मार्च, 1950; जौनपुर (उ.प्र.)।

लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘, ‘विवाद नहीं, हस्तक्षेप‘, ‘उपन्यास और देस‘, ‘विमर्श और व्यक्तित्व‘ आदि महत्वपूर्ण कृतियाँ।

सम्मान : आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से समादृत।

संपर्क - 9415371872


टिप्पणियाँ

  1. मूर्तिभंजन आवश्यक है, लेकिन अर्द्धसत्यों व पूर्वाग्रहों के आधार पर लठैती 'न्यू नॉर्मल' है। तो आवश्यक है, सच को एक बार फिर से दोहराना, तथ्यों को फिर से प्रस्तुत करना-- लठैत भाग जाएंगे, टिक नहीं पाएंगे।
    लठैती के विरुद्ध वीरेंद्र यादव जी खड़े होते रहे हैं।
    एक ज़रूरी लेख प्रकाशित करने के लिए हरेप्रकाश जी को धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें


सहयोग कोई बाध्यता नहीं है। अगर आप चाहते हैं कि 'मंतव्य' का यह सिलसिला सतत चलता रहे तो आप स्नेह और सौजन्यता वश हमारी मदद कर सकते हैं।

अपने सुझाव/प्रस्ताव भेजें

नाम

ईमेल *

संदेश *

संपादक

आपकी मेल पर नई रचनाओं की जानकारी मिलती रहे, इसलिए ईमेल के साथ सब्सक्राइब कर लें

काली मुसहर का बयान

लोकप्रिय

‘बेतरतीब पन्ने’ : इंटीग्रल रियलिटी का उपन्यास

दीप्ति कुशवाह की कविताएँ

एक मशहूर बाल रोग चिकित्सक का बचपन

प्रेमचंद की कहानी 'ठाकुर का कुआँ'

प्रेमचंद की कहानी 'गुल्ली-डंडा'

ठाकुर का कुआँ : दलित चिंतन दृष्टि से एक अन्तर्पाठ

'गुल्ली-डंडा' - समाज और संबंधों के खेल का मर्म

प्रेमचंद की कहानी 'बड़े घर की बेटी'

जाग्रत चेतना, अद्भुत साहस और अनवरत संघर्ष की गाथा : दो बैलों की कथा