– रीता दास राम
प्रेमचंद की कहानियाँ समय का हस्ताक्षर हैं। प्रेमचंद अपनी हर कहानी में सामाजिक मूल्यों को आकार देते कुछ समस्याओं का समाधान या निदान जरूर दर्शाते हैं। यह चीज़ कहानी का बेहतरीन सकारात्मक पहलू होते हुए सरोकार रचती है। प्रेमचंद की कहानियाँ ग्रामीण समाज का बेहतरीन अक्स सँजोती हैं।
‘अलग्योझा’ ग्रामीण समाज को व्याख्यायित करती कहानी है। कहानी एक किसान परिवार की है। ‘अलग्योझा’ याने घर से अपना अलग घर करना। परिवार से खुद को अलग करना। यहाँ परिवार के बिखरने की दुखद स्थिति का आभास है, जिसके बाद किसी को कुछ हासिल नहीं होता। कहानी सौ साल और उससे पहले के समाज में निहित व्यक्तिगत संबंधों पर गौर करती रिश्तों के उधेड़बुन को दर्शाती है। जहाँ एक से अधिक पत्नियाँ या बच्चों की बड़ी संख्या स्वाभाविक लगते हुए अलग मायने रखती है।
यह वह समय था, जब ग्रामीण समाज कम शिक्षा, कानूनी अज्ञानता से बँधा था। ग्रामीण लोग खेती को पारिवारिक पूँजी मानते, खेती पर निर्भर थे। जरूरत के अनुसार संबंध लचीले कर लेना किस्मत समझा जाता था। किसान खेती करके पूरे कुनबे को आसानी से पाल लेने का दम-खम सहेजते हुए खुश था। गरीबी और संतोष लोगों को सोने की तरह तपाते थे। अमूमन समाज का हर बंदा दुख को किस्मत का नाम देकर स्थिति को झेलना स्वीकारता, जीवन जीने के नए मजबूर करते रास्ते भी बेझिझक अपना लेना जानता था। जहाँ समयानुसार वैचारिक आदर्श स्थिति से समर्थ समझौते करते हैं और फैसले समय को बदलते रहते हैं।
बीमारी से लोगों का घरों में ही मरना, अचंभित करते हुए भी ये घटना हादसों में शुमार थी। अशिक्षा और सीमित सुविधाएँ - यही गरीबों का संसार था। जाहिर है, मृत्यु दर अधिक थी। कहानी में एक के बाद एक मौत का उल्लेख और उससे बदलती परिस्थिति पर कहानी अपना कहन कहती है। लेखक कहानी बुनते हुए उस समय के समाज में होते घटनाक्रम को सामने रखते हैं। घटनाएं कहानी और समाज को परत-दर-परत खोलती हैं। कहानी से गुजरना उस समय के मानव समाज की बनती-बिगड़ती परिपाटी को समझना है। इंसान समयानुसार समाज को बदलता रहा है और समाज नए रूप में लोगों के सामने आता है।
भोला महतो की पहली पत्नी की मृत्यु ही कहानी की शुरुआत है, जो एक स्त्री की रिक्तता का आभास कराती है, जिसका दस साल का बेटा रग्घू, पिता के होते हुए भी अकेला हो चुका है। दारोमदार नई माँ पर है कि वह रग्घू को कैसे देखेगी। ऐसे में एक तनाव भरी कहानी की यात्रा का इंतजार लेखक पाठक से कराते हैं। पिता की दूसरी पत्नी मतलब रग्घू की दिक्कतें बढ़ती हैं। नई माँ के दिमाग में रग्घू के लिए विष घुलना, मंथर गति से चलता है। समय पुनः बदलता है। नई माँ के चार बच्चे रग्घू के अपने भाई-बहन हैं। आत्मपरिवर्तन ही कहानी की भीतरी सच्चाई है जो गूढ़ अर्थ लेती है।
पिता की दूसरी पत्नी को रग्घू 'काकी' कहता है और सभी बच्चों के लिए ‘माँ’ का नाम ‘काकी’ ही मंजूर हो जाता है। यह प्रथा नहीं बल्कि बाल मन की सुविधा है। बहुधा बच्चे चाचा के मुँह से अपनी माँ के लिए 'भाभी' सम्बोधन सुनते अपनी माँ को खुद भी भाभी कहने लगते हैं। कहानी में सीढ़ी-दर-सीढ़ी उतरना भाता है। कहानी सीधे-सीधे समाज के भीतरी कोष्ठ पर रोशनी डालती जीवन जीने के फलसफ़ों की तुरपाई का मौका देती है। इसे जीवन की सहूलियत कह लें या आसान मोड़, जिसमें आदर्श भी है और आत्मसम्मान बचा लेने की सोच भी काम करती रहती है।
मर चुकी सौत के बेटे ‘रग्घू’को अपने बच्चों के बड़े भाई के रूप में महसूस करना, पन्ना में सुचिन्तित आत्मपरिवर्तन है। पति के मरने के बाद सारे बच्चों में पनपता आपसी स्नेहिल रिश्ता ही था, जो पन्ना के मन में यह परिवर्तन बोता है। रग्घू का भाई-बहनों से आत्मीयता भरा व्यवहार और खुद जिम्मेदारी का एहसास करते हुए अपना ‘मुहर’ बेच कर घर में गाय लाने के इंतजाम की इच्छा रखना, पन्ना को भीतर से बदल देता है। पन्ना ‘मुहर’ के बदले ‘हँसुली’ बेचना चाहती है। रग्घू का व्यवहार पन्ना के मन में अपने बच्चों केदार, खुन्नू, लछमन और झुनिया के प्रति निश्चिंतता लाता है। खाने-पीने में दूध का शुमार जैसी चीजें परिवार में संपन्नता बोती हैं। यह ग्रामीण समाज का चलन छोटी-छोटी खुशियों में, सुख-दुःख के खाँचे बनाता है जिसकी तलाश में खुशहाली है, चाहे जैसे मिले।
समय बीतते, पन्ना रग्घू की दुल्हन को घर लाने की जिद्द करती और ले ही आती है जिसका तेज व्यवहार रग्घू को शंकित किए था। बच्चों की भाभी, सुंदर मुलिया का आगमन होता है जो अपने पति के फायदे-नुकसान की पड़ताल में चिंतित, घर में क्लेश का कारण बनती है। ना चूल्हा संभालती, ना पन्ना का हाथ बटाती, बच्चों को भूखा रखने और खुद भी भूखी रहने में ही तकलीफ पाती दिन गुजारती है, जिसका मकसद अपनी आमदनी का एक-एक पाई अपने पास रखना है। दिन भर खेत में काम के बाद घर आई पन्ना पर काम का बढ़ता बोझ केदार देखता है लेकिन माँ के ही कहने पर भाभी मुलिया से कुछ ना कहता, चुप रहता है। परिवार में सदस्य एक दूसरे को समझते आगे बढ़ते भी है और सीखते भी है। संयुक्त परिवार के लाभ अच्छे लगते हैं।
रग्घू के पैसे की बागडोर संभालती मुलिया को, मेले में जाने के लिए सभी बच्चों के हाथ पैसे देना व्यर्थ का का खर्च लगता है। उत्सव सा ओज सहेजते, मेले में कोई नहीं जा पाता। रोटी के साथ अलग होते घर को देखना रग्घू नहीं चाहता लेकिन मुलिया का हठ उसे तोड़ता है। पाले-पोसे अपने छोटे-छोटे भाई-बहन की चिंता भी उसे अलग होने से रोकती है। रग्घू अपना कमाया पैसा मुलिया को देने को तैयार है पर पन्ना और बच्चों का साथ छोड़ने को उसका जमीर तैयार न था। मुलिया ‘अलग्योझा’ चाहती है पर पन्ना काकी व बच्चों को अपनी जिम्मेदारी समझता रग्घू अलग नहीं होना चाहता।
गाँव में सासों और बहुओं के अलग-अलग दल सलाह-मशविरा देने, भड़काने या सहानुभूति पाने के स्थल होते हैं। यह गाँव में ही नहीं हर जगह होते है, जहाँ-जहाँ लोगों का डेरा होता है, चाहे शहर हो या जंगल। स्त्रियों के अपने दायरे, अपनी सोच, अपनी जिरह। अपना पक्ष रखते मुलिया की बातें भी समाज का हिस्सा हैं। अपनी चारदीवारी उठाते लोग अपना हिस्सा स्पष्ट दिखाना चाहते हैं कि आगे चलकर कोई हड़प ना ले। यही बातें दिखाती हैं कि गठजोड़ इसी समाज का हिस्सा है तो धोखे भी इसी समाज में पनपते अंग हैं।
आखिरकार मुलिया के स्वार्थी, अदूरदर्शी स्वभाव के चलते रग्घू अलग्योझा करने को मजबूर होता है। जिसके पीछे पन्ना के नाटकीय व्यवहार का बड़ा हाथ था, जिसने रग्घू को भीतरी दंश दिया लेकिन पन्ना यह सब करती रही कि रग्घू और मुलिया का अपना घर बसे। घर में खींची दीवार, खेतों को विभाजित करतीं मेड़ें डलवा गई। बैल-बछिए बँट गए। यह बटवारा रग्घू को अलग और केदार, खुन्नू, लछमन को बड़ा कर गया। यही अलग होते परिवार की कहानी हैं। पन्ना और मुलिया एक दूसरे से चाहे अनबन रखती हों पर मुलिया के बच्चे पन्ना की गोद में पले। शोकमग्न, टूटा रग्घू अपमानित महसूस करता जिंदा रहा। आखिर रग्घू अलग्योझा सह न पाया। जवानी में मानसिक वेदना अशक्त और दुर्बल कर गई। रग्घू खेती-किसानी से जाता रहा, फसल होने के बदले ऋण चढ़ गया। बीमारी में अपना इलाज ना कर पाया। मृत्यु ने परिवार की एकता को फिर से प्रासंगिकता दी।
रग्घू की मृत्यु ने मुलिया को अकेला कर दिया। बावजूद इसके पन्ना की दृष्टि मुलिया के बच्चों से ना फिरी। केदार को भाभी की ही नहीं बल्कि बच्चों की भी चिंता सताने लगी और इस बात का अफसोस अलग हुआ कि अंतिम समय में भैया की सेवा ना कर पाया। केदार का कहना कि भैया ने ना जिलाया होता, तो भीख माँग रहे होते, खुन्नू की भी आँखें खोल गया। केदार समझ गया कि ‘अलग्योझे’ ने तीस बरस में ही, भैया की जान ले ली। भैया ने उनके लिए जीवन भर किया है, इस आत्माभास के चलते भैया के बाल-बच्चों की जिम्मेदारी केदार को अपनी लगने लगी। पन्ना केदार को परखती है और मुलिया के सामने केदार के रिश्ते की बात कहती है। एक समय था जब पन्ना के लिए रग्घू सौत का बेटा था। आज वही पन्ना रग्घू की विधवा के लिए अपने बेटे का रिश्ता तय करती है।
समय कभी एक सा नहीं होता। समय के अनुसार रिश्ते बदलते जाते हैं। कहानी को एक एंगल से स्त्री के राग-द्वेष से जोड़ा जा सकता है या स्त्री को परिवार तोड़ने का दोषी करार दिया जा सकता है किन्तु समाज में स्त्री पुरुष की अपनी-अपनी भूमिका है और समय किस करवट बैठेगा, यह कोई नहीं जानता है। कहानी जागरूकता का पैगाम है। बुराई को अच्छाई से खत्म करने की सीख देती है।
समाज को हम चाहे जैसे देखें, परम्पराएं, प्यार, मोहब्बत आपसी व्यवहार सहेजते हैं। नई परिपाटी बदलाव लाती आहिस्ते से अपना होना जताती है। समय सामाजिक रिश्ते परत-दर-परत बुनता जाता है। परिवार में रग्घू और मुलिया मृत्यु के प्रकोप के कारण अकेले हो जाते हैं। दूसरी माँ के आने से रग्घू को तकलीफ तो होती है किन्तु रास्ते भी निकलते है और वह पन्ना काकी का स्नेह पा ही जाता है। उसी तरह मुलिया को भी समय अकेले नहीं रहने देता। तकलीफ सहती मुलिया के लिए भी केदार के भीतर पनपता अपनापन रिश्तों की मिठास लाता है जो अपनी खूशबू बिखेर ही देता है।
कहानी कई बिंदुओं पर चकित करती है जैसे दूसरी पत्नी का बच्चे से सौतेला व्यवहार, असमय होती मौतें, स्त्रियों के बीच जलन की भावना, देवर की भाभी से शादी का संकेत, पन्ना का मुलिया के बच्चे पालना। कहानी के शीर्षक से ही पाठक घर-परिवार के टूटने की समस्या, स्थिति, फायदे और नुकसान का इशारा समझ लेते है। प्रगतिशील सोच को जीवंत करते लेखक कहानी द्वारा सरोकार ही नहीं रचते बल्कि यह जागरूकता लाने की सोच बोते हैं। इंसानों का आपस में एक दूसरे को समझना और समझ कर आगे रिश्ते कायम करना ही समाज को दिशा दे सकता है। केदार का अपने जीवन को रग्घू की देन मानना और रग्घू के बेसहारा हुए बच्चों को सहारा देना बेहतरीन सोच है। पन्ना का बातों में उलझाकर केदार का ध्यान मुलिया की ओर ले जाना संयोग ही सही पन्ना की दरियादिली जाहिर होना है। कहानी में बिखरे बिंदुओं को समय आखिर मिला ही देता है। ‘अलग्योझा’ संयुक्त परिवार का दर्द उकेरती मार्मिक कहानी है। एक बार फिर प्रेमचंद की समाज की समस्याओं पर प्रकाश डालती सरोकारी दृष्टि सुकून जगाती है।
डॉ. रीता दास राम
जन्म : 1968, नागपुर
पता : कांजूर मार्ग पश्चिम, मुंबई - 400078.
मेल : reeta.r.ram@gmail.com मो. नं : 9619209272
प्रकाशित पुस्तकें –
* लेख : “हमारा समाज और हम” 2025 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) * कविता संग्रह: 1“तृष्णा” 2012 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली). 2“गीली मिट्टी के रूपाकार” 2016 (हिन्द युग्म प्रकाशन, दिल्ली) * कहानी संग्रह –1 “समय जो रुकता नहीं” 2021 (वैभव प्रकाशन, रायपुर) 2 “चेक एंड मेट” 2025 (पुस्तकनामा, दिल्ली) * उपन्यास : “पच्चीकारियों के दरकते अक्स” 2023, (वैभव प्रकाशन, रायपुर) * आलोचना : 1 आलोचना और वैचारिक दृष्टि 2024 (अनंग प्रकाशन दिल्ली) , 2 “हिंदी उपन्यासों में मुंबई” 2023 (अनंग प्रकाशन, दिल्ली)
सम्मान – * ‘हिंदी अकादमी मुंबई’ द्वारा ‘महिला रचनाकार सम्मान’ 2021 “शिक्षा भूषण सम्मान” 2022, “साहित्य भूषण सम्मान” 2025, मुंबई। * उपन्यास ‘पच्चीकारियों के दरकते अक्स’ को ‘कादंबरी सम्मान’ 2024 जबलपुर। * ‘हिंदी अकादमी, मुंबई’ का “अंतर्राष्ट्रीय साहित्य सेतु सम्मान” 2023 लंदन पार्लियामेंट में। ‘गीली मिट्टी के रुपाकार’ को ‘हेमंत स्मृति सम्मान’ 2017,गुजरात विश्वविद्यालय सहित अनेक सम्मान-पुरस्कार।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें