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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

'कफ़न' के पाठ की उलझनें


प्रमोद कुमार शाह

इस कहानी को पढ़ते समय नामवर सिंह का यह कथन याद आता है, जिसे उन्होंने कहीं सार्त्र के हवाले से कहा है कि कहानी पढ़ना आईने में कूदने की तरह है। कहानी के ठीक से नहीं पढ़े जाने पर आईना भी टूटेगा और पढ़ने वाला भी घायल होगा।1 कहानी जितनी संश्लिष्ट और बहुलार्थक होती है, शीशे के टूटने और पाठक के चोटिल होने की जोखिम उतनी ही बढ़ जाती है।
         प्रेमचन्द अपनी रचनात्मक यात्रा में शनै:-शनै: सामाजिक यथार्थ से मुठभेड़ करते हैं और उसमें निहित मानवीय सरोकार और संवेदना के तह तक पहुँचते हैं और उस परिवेश में शामिल शोषितों और दलितों के दुःख, पीड़ा, उत्पीड़न, टूटन, प्रतिरोध और विद्रोह की कहानी लिखने की ओर उन्मुख होते हैं। उन्होंने अपने अंतिम चार - पाँच वर्षों में एक के बाद एक इस तरह की कहानी लिखी - 'सवा सेर गेहूं' (1924), 'पूस की रात' (1930), 'सद्गति' (1931), 'ठाकुर का कुंआ' (1932) और 'कफ़न' (1935). इसमें उनकी 'कफ़न' कहानी बिल्कुल अलहदा है। इस कहानी में वस्तु और रूप दोनों में जबर्दस्त बदलाव दृष्टिगत होता है। कहानी का संरचनात्मक बदलाव चकित ही नहीं करता बल्कि उलझन में भी डालता है। यही कारण है कि भीष्म साहनी जैसे मंजे हुए कथाकार को यह कहानी अच्छी नहीं लगी थी। इसके चालीस साल बाद अस्सी के दशक में भीष्म साहनी की धारणा बदलती है।2 मार्क्सवादी साहित्यकार हंसराज रहबर ने 'कफ़न' को अत्यंत निकृष्ट कहानी बताया। उनका कहना था कि प्रेमचन्द अपने अंतिम समय में सठिया गए थे। यह उनकी अत्यंत गलिच्छ और निकृष्ट कहानी है और मैं इस निष्कर्ष पर बहुत बाद में अपने मार्क्सवादी अध्ययन द्वारा पहुंचा हूँ।3 यहाँ गौरतलब है कि पचास के दशक में हंसराज रहबर को यह कहानी पसन्द थी। किन्तु इसके तीन दशक बाद उनकी धारणा बदल गई।
         'कफ़न' कहानी पर सबसे ज्यादा आपत्ति दलित लेखकों की है। डॉ. धर्मवीर ने 'कफ़न' कहानी में दलित पात्र को निर्दयी दिखाने और जमींदार को दयालु बताने के लिए सामंती वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था के विरोधी प्रेमचन्द को 'सामंत का मुंशी' करार दिया।4 ओमप्रकाश वाल्मीकि ने 'कफ़न' कहानी को एक 'अस्वाभाविक घटना ' पर आधारित बताया। यद्यपि बाद में उनके विचार भी बदल गए।5
         किसी भी कहानी को पढ़ते हुए सजग पाठक के मन में पहला सवाल यही उठता है कि यह कहानी बन भी पायी कि नहीं। सामान्यतया पाठक कहानी को "संकट, द्वन्द्व, चरमोत्कर्ष और अन्त (समाधान)" इस रूप में पढ़ते-समझते आये हैं। पर जो कहानी आपको किसी भी गंतव्य तक नहीं ले जाए, तब भी यदि वह कहानी बन पायी है तो हमें विचार करना होगा कि इस कहानी की रोचकता इसके अन्त को जानने की जिज्ञासा से नहीं जुड़ी हुई है। कहानी की रोचकता के तार कहानी की यात्रा के दौरान मिलने वाली अर्थवत्ता से सम्बद्ध है।6
         हिन्दी कहानी के इतिहास में 'नयी कहानी' की शुरुआत पचास के दशक से मानी जाती है। लेकिन प्रेमचन्द की यह 'कफ़न' कहानी पहले की कहानी और नयी कहानी के बीच एक सेतु की तरह दिखाई देती है। यानी कि 'कफ़न' कहानी में पहले की कहानी और नयी कहानी दोनों के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं।
       नामवर सिंह ने ' कहानी नयी कहानी ' में 'नयी कहानी' पहले की कहानी से भिन्न कैसे है, के संबंध में बताया है कि "पहले की तरह आज की कहानी आधारभूत विचार का केवल अन्त में संकेत नहीं करती, बल्कि नयी कहानी का समूचा रूप-गठन और शब्द-गठन ही सांकेतिक है। कहानी के दौरान लेखक जगह-जगह संकेत देता चलता है और ये सभी संकेत एक दूसरे से जुड़े रहते हैं; इस प्रकार आधारभूत विचार द्रवीभूत होकर सम्पूर्ण कहानी के शरीर में भर उठता है, कहीं एक जगह स्थिर नहीं रहता! देह में जैसे रक्त अथवा प्राण! शास्त्रीय भाषा में इसे भाव और रूप की अतिसंगति भी कह सकते हैं। प्रभाव की सम्पूर्ण अन्विति को सांकेतिक बनाने का श्रेय नयी कहानी को है।नयी कहानी में वातावरण अलंकरण मात्र नहीं है बल्कि अन्त:करण है। और जो कहानीकार जितना ही संवेदनशील है, उसकी कहानी का वातावरण उतना ही मार्मिक और सजीव हुआ है। इन बातों से स्पष्ट है कि नयी कहानी में अभीष्ट भाव या विचार की अभिव्यंजना एक साथ ही अनेक स्तरों पर होती है और उसे समग्र रूप में प्राप्त करने के लिए पाठक को उतने स्तरों पर एक साथ संवरण कर सकने की क्षमता प्राप्त करनी होगी।"7
        कहानी आलोचना के उस्ताद की इस हाथबत्ती के आलोक में 'कफ़न' कहानी के मर्म तक पहुंचने में अवश्य मदद मिल सकती है। इसे हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि जिस कहानी में कहानी के अन्त के बजाय कहानी की यात्रा में रोचकता होती है, उसमें प्रक्रिया और प्रस्तुतिकरण अधिक महत्वपूर्ण है और ऐसी कहानी परिणति वाली कहानी से भिन्न होती है।
        'कफ़न' में सांकेतिकता नयी कहानी जैसी नहीं है। यहाँ संकेत गुत्थी के रूप में न होकर खुले रूप में हैं। किन्तु वातावरण का चित्रण और प्रस्तुतिकरण अवश्य सजावटी न होकर अर्थपूर्ण है। यह कहानी एक बार में पूरे पढ़े जाने के लिए बाध्य करती है ताकि एक ईकाई के रूप में प्रभावान्विति का अहसास हो सके। कहानी में खुली सांकेतिकता, वातावरण चित्रण और प्रस्तुतिकरण इन सबमें अभीष्ट विचार का संवहन एक साथ अनेक स्तरों पर है, जिसे समग्र रूप में प्राप्त करने, उन अनेक स्तरों पर संवहित विचार को एक साथ मिलाकर देखने की और कहानी के मर्म तक पहुँचने की चुनौती पाठक के सम्मुख उपस्थित है।
        कहानी को पढ़ लेने के बाद उसे बताने-समझने के लिए  उसे संक्षिप्त और सरल करके कथासूत्र निकालने के मोह की चर्चा नामवर सिंह ने की है कि, "लोग कितनी मासूमियत से हर कहानी का संक्षेप पूछते हैं और वे लोग भी कितने समर्थ हैं जो उस कहानी को संक्षेप में सुना जाते हैं। ईर्ष्या होती है। कथा - संक्षेप को देखता हूँ और फिर रवि ठाकुर के एक गीत की यह पंक्ति - 'माला छिलो तार फूलगुलि गेलो,रयैछे डोर।' माला थी, फूल चले गए, डोर रह गई है। फूलों की ममता न हो तो डोर को प्राप्त कर लेना कितना आसान है।'8
        यहाँ आशय यह है कि बड़े नुकसान की कीमत पर कहानी को संक्षेप में सुनाया जा सकता है। यह कहानी की प्रकृति पर निर्भर है कि नुकसान की जोखिम कितनी है। परिणति पक्ष पर केंद्रित कहानी की तुलना में प्रक्रिया पक्ष और प्रस्तुतिकरण पक्ष पर केन्द्रित कहानी के संक्षेपण में जोखिम इतना ज्यादा है कि ऐसे में नहाने के पानी के साथ बच्चे को बाहर फेंकना घटित हो सकता है।
यहाँ हम 'कफ़न' कहानी को संक्षिप्त रूप में कह कर देखते हैं :

दलित परिवार की इस कहानी में तीन मुख्य पात्र हैं। घीसू और माधव पिता - पुत्र हैं। माधव की जवान पत्नी बुधिया कोठरी के भीतर प्रसव - पीड़ा से छटपटा रही है। जाड़े की रात में झोपड़ी के बाहर दोनों बाप-बेटे अलाव के पास बैठे आलू भून कर खा रहे हैं। दोनों में से कोई भी बुधिया को देखने जाने के लिए तैयार नहीं, इसलिए कि उसके वहाँ से जाने के बाद दूसरा सारे आलुओं को चट कर जाएगा। सबेरे माधव कोठरी में जाकर देखता है कि बुधिया मर चुकी है। दोनों पिता पुत्र हाय हाय करके रोने लगते हैं और गांव वालों से लकड़ी और कफ़न के वास्ते सहायता माँगते हैं।
       गांव का जमींदार घीसू-माधव के निठल्लेपन को जानते हुए भी दो रुपए की मदद करता है। सबकी मदद से लकड़ी और कफ़न के लिए पाँच रुपए का इंतजाम हो जाता है।
       घीसू और माधव कफ़न खरीदने बाजार जाते हैं। दिनभर बाजार में चक्कर लगाने के बाद अंधेरा पड़ने पर कफ़न के लिए जुटाए रूपए से स्मृति में बसे स्वाद की मुराद पूरी करते हैं। पेटभर मनभावन भोजन करते हैं और दारू पीते हैं। फिर दोनों नशे में मदमस्त होकर गाने लगते हैं - ठगिनी क्यों नैना झमकावे, और वे गाते गाते  वहीं गिर पड़ते हैं।

       कहानी के संक्षेपण से स्पष्ट है कि  माला के फूल छूट गए हैं और हाथ में डोर बची है। इस बहुपरतीय, खुले संकेतों वाली और अपने अनूठे प्रस्तुतिकरण से ताकत अर्जित करने वाली कहानी को संक्षिप्त व सरल कथासूत्रों से समझने-परखने का मोह को त्याग कर जब हम समग्र रूप में एक साथ इस पर विचार करते हैं तो कहानी परत दर परत खुलती चली जाती है और हम इसके मर्म के तह में प्रविष्ट होते हैं।
        कहानी में दिए गए संकेतों से ज्ञात होता है कि घीसू और माधव कितनी भयावह बदहाली और दयनीय स्थिति में जी रहे हैं कि घर में मिट्टी के दो-चार बर्तनों के सिवा कोई संपत्ति नहीं। फटे चीथड़ों से नग्नता को ढंके हुए हैं। कर्ज से लदे हुए। गालियाँ और मार भी खाते। फिर भी उन्हें श्रम की कोई सार्थकता दिखाई नहीं देती। वे जानते हैं कि दिन-रात मेहनत करने वाले किसान भी अच्छे हालत में नहीं हैं। श्रम का शोषण करने वाले सम्पन्न हैं। किन्तु घीसू और माधव अपने श्रम के शोषण न होने देने के प्रति कृतसंकल्प हैं। यहाँ उनकी अकर्मण्यता और कामचोरी अपने श्रम के शोषण के न होने को लेकर  प्रतिरोध है।
       घीसू माधव का इस सामाजिक-आर्थिक यथार्थ से मुठभेड़ आखिर कैसे हुआ है। यह घीसू के किसानों के विचार शून्य समूह के बजाय विचारवानों की कुत्सित मंडली में बैठकी का नतीजा है। इस कुत्सित मंडली की बैठकी में गांव के सरगना और मुखिया भी आते हैं। वे साधन संपन्न सवर्ण समाज से हैं, इसीलिए उन पर कोई अंगुली उठाने का साहस नहीं कर पाता। वहीं घीसू माधव और उनके कुनबे की सामाजिक आर्थिक हैसियत दीन-हीन है। इसलिए उन्हें और उनके कुनबे को सब बदनाम करते हैं। ऐसा कौन करता है, इसे समझना मुश्किल नहीं है। समर्थ, शोषक और सवर्ण समाज के अलावा और किसकी यह करतूत हो सकती है ?
         'कफ़न' कहानी में आए शोषण और उत्पीड़न संकेतों को विस्तार से समझने में प्रेमचन्द की अन्य उल्लिखित कहानियों यथा 'सवा सेर गेहूं', 'पूस की रात', 'सद्गति' और 'ठाकुर का कुंआ' पढ़ना सहायक सिद्ध हो सकता है। जैसे जेम्स जायस की डबलिनर्स में पन्द्रह कहानियाँ हैं। उन्हें स्वतंत्र रूप से भी पढ़ सकते हैं। लेकिन उनको सामूहिक रूप से पढ़ने से उनके प्रभाव की सघनता और अर्थवत्ता और प्रदीप्त हो जाती है।9 वैसे ही प्रेमचन्द की ये पाँचों कहानियाँ एक दूसरे से गूंथी हुई लगती है। इनके सामूहिक प्रभाव के आलोक में सामाजिक - आर्थिक अमानवीय शोषण का विकराल और विकृत स्वरूप देख सकते हैं।
       घीसू माधव ने इतना तो समझ लिया था कि मेहनत करते रहने से उनकी फटेहाली नहीं सुधरेगी। वे सामाजिक-आर्थिक शोषण व्यवस्था के जटिल जाल में फंसे हुए हैं जो उनकी बदहाली और भूखमरी का मुख्य कारण है। पेट की आग में उनकी संवेदना झुलस गई थी। दोनों में से कोई भी प्रसव वेदना से कराहती बुधिया को देखने नहीं जाते।
       कहानी का आरंभ उनकी भुखमरी जनित संवेदनहीनता से होती है। बुधिया की प्रसव-वेदना के प्रति उनके उपेक्षित रवैए से कुछ सजग पाठक भी सन्न रह जाता है। इस अमानवीयता का क्या कारण है ? यह घीसू -माधव की निजी अमानवीयता है या पूरी सामाजिक व्यवस्था की कोख से जन्मी अमानवीयता। उसके मन में यह बात उठ सकती है कि 'बुभुक्षितः किं न करोति पापं', भूखा व्यक्ति कौन सा पाप नहीं करता? उसे भूखे व्यक्ति के पाप का ख्याल आता है किन्तु वह भूख से ग्रस्त क्यों है, इसके तह में जाने के बजाय वह खुद को इसके सतही कारणों से आश्वस्त कर लेता है।
       यह कहानी भूख के कारणों के और उससे  उपजी संवेदनहीनता के तह तक जाती है। बुधिया ने मरकर भी घीसू -माधव को एक दुखांतिक तृप्ति से भर दिया है। क्योंकि उसके लिए मिले 'कफ़न' के पैसे से  वर्षों की भूख मिटती है। इसके पहले वर्षों तक भरपेट खाना नहीं खाया था उन्होंने। कहानी में प्रसंग आता है कि  भूख के मिटते ही वे दोनों संज्ञावान होते हैं। उनमें संवेदना जगती है : "भरपेट खाकर माधव ने बची हुई पूरिओं का पत्तल उठाकर एक भिखारी को दे दिया, जो खड़ा इनकी ओर भूखी आंखों से देख रहा था। 'देने ' के गौरव, आनंद और उल्लास का उसने अपने जीवन में पहली बार अनुभव किया।
घीसू ने कहा कि " ले, जा खूब खा और आशीर्वाद दे! जिसकी कमाई है, वह तो मर गई। पर तेरा आशीर्वाद उसे जरूर पहुँचेगा।"
       घीसू- माधव याचक बनकर शवदाह के लिए गांव वालों की मदद से लकड़ी और कफ़न के लिए रूपये का इंतजाम कर लेते हैं। 'कफ़न' के लिए पांच रुपए जमा होते हैं। अब उनके मन में कोपरनिकसीय क्रांति के समान कुत्सित विचार का उदय होता है। डेविड रिकार्डो के मन में भी एक कुत्सित विचार उपजा था कि भूमि प्रकृति का नि: शुल्क उपहार है। इससे प्रेरित होकर मार्क्स के मन में भी वर्ग संघर्ष का कुत्सित विचार आया था। अब घीसू -माधव धार्मिक पाखंड की खिल्ली उड़ाते हैं कि बुधिया के इलाज के लिए एक पैसा कहीं से नहीं मिलता। वहीं मरने के बाद शोषक वर्ग 'कफ़न' के लिए पैसा देकर धार्मिक संस्कारों के प्रति दिखावटी आस्था व्यक्त करता है। उसे 'कफ़न' के बहाने चंदा देकर अपनी छद्म मानवता प्रदर्शित करने का मौका मिल जाता है : "कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर 'कफ़न' चाहिए।... यही पांच रुपए पहले मिलते तो कुछ दवा-दारू कर लेते।"10
       कफ़न खरीदने के लिए बाजार में घूमते शाम हो गई। कफ़न का पैसा लेकर घीसू -माधव का मधुशाला जाना धार्मिक आदर्शों पर चोट है। यह वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था का प्रतिकार है। वे मधुशाला जा पहुंचे और बरामदे में बैठकर दारू पीने लगे। अब दोनों विद्रोह पर उतर आए थे। कफ़न के पैसे से शराब पीकर वे धर्माडंबर के प्रति विद्रोह करते हैं। नशे में  उनकी संवेदना अधिक बौद्धिक होने लगती है :
" कफ़न लगाने से क्या मिलता है ? आखिर जल ही तो जाता, कुछ बहू के साथ तो नहीं जाता।"11
" दुनिया का दस्तूर है, नहीं तो लोग बामनों को हजारों रुपए क्यों दे देते हैं! कौन देखता है ; परलोक में मिलता है कि नहीं!"12
घीसू खड़ा हो गया और बोला, " हां बेटा वैकुंठ में जाएगी। किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। वो न वैकुंठ जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं, और मन्दिरों में जल चढ़ाते हैं।"13
       वे " ठगिनी क्यों नैना झमकावे " गाते गाते जब गिर पड़ते हैं, ऐसा नहीं लगता कि उन्हें अपनी बहू या बीबी से मतलब नहीं था। उनमें जीने की तीव्र भूख थी। उनकी अमानवीयता सामाजिक व्यवस्था की उपज है जिसके कारण वे  अपने श्रम से, खुद से, अपने पारिवारिक और मानवीय जीवन से विलगाव का अनुभव करते हैं।
       'कफ़न' कहानी प्रचलित सौंदर्यबोध के इतर एक झकझोर देने वाली संवेदनशील कलात्मक रचना है। यह कहानी घोर आर्थिक शोषण के साथ साथ सामंती वर्णाश्रमी ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्थागत अमानवीय उत्पीड़न को भी रेखांकित करती है, और इस सामाजिक व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर खड़े दलितों के दुःख और पीड़ा, शोषण और उत्पीड़न, संवेदना और संघर्ष, प्रतिरोध और विद्रोह के स्वर को अनुनादित करती है।
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संदर्भ
1 रवि भूषण, "कफ़न पुनरवलोकन," समालोचना वेब पत्रिका, जुलाई 2023
2 वही
3 वही
4 डॉ. धर्मवीर, " प्रेमचन्द : सामंत का मुंशी, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2007, पृष्ठ 17
5 वीरेंद्र यादव ,  'कफ़न' को यहां से पढ़ें, आलोचना (73) , राजकमल प्रकाशन 2023, पृष्ठ 23
6 संजीव कुमार, " हिन्दी कहानी की इक्कीसवीं सदी " राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,2019 , पृष्ठ 11
7 नामवर सिंह, " कहानी नयी कहानी," लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,2005, पृष्ठ 32 -34
8 वही, पृष्ठ 106
9 बीक वारेन , जेम्स जायस डबलिनर्स  : सब्सटेंस, विज़न एंड आर्ट, ड्यूक युनिवर्सिटी प्रेस, दरहम, 1969.
10 प्रेमचन्द , "कफ़न"
11 वही
12 वही
13 वही


प्रमोद कुमार शाह 
दर्शन, साहित्य, इतिहास और अर्थशास्त्र में अभिरुचि । बुद्ध पर एक पुस्तक प्रकाशित। 'समालोचन' में दो लेख प्रकाशित - 'कथाकहन (नैरेटोलाजी) विज्ञान क्या है', 'जेम्स ज्वायस की कालजयी कहानी " द डेड" का आलोचनात्मक विश्लेषण'।  प्रोफेसर और प्राचार्य (सेवानिवृत्त)। ईमेल - pkshah6@gmail.com

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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

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कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय