काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

हर औरत को ये 'पेंचकस' बाँट दो

 सोनी पाण्डेय की कहानी 

'पेंचकस'

सोनी पाण्डेय एक सधी हुई कथाकार हैं। उनकी कहानियों की भूमि मुख्यतः गांव है। वे अपनी कहानियों में ग्रामीण परिवेश को पूर्ण रूप से सजीव करती हैं। सोनी के पास एक समृद्ध भाषा है और ऐसे देशज शब्द हैं जो भूल जाने की कगार पर होकर भी इनकी कहानियों में आकर फिर से जीवन पा जाते हैं। कुछ कहानियां ऐसी होती है जिन्हें भूलना संभव नहीं होता। सोनी की लिखी  ऐसी ही  एक कहानी है ‘पेंचकस’ । यह कहानी मुझे  बहुत अच्छी लगी।
समाज के निचले पायदान पर पांव रखकर चलने वाली एक स्त्री की कहानी जो कई बार बलात्कार का शिकार होने से बच जाती है। इस कहानी में  ‘पेंचकस’  किसी पेंच को कसने के लिए एक टूल, एक औजार भर नहीं है। यह स्त्री का हथियार भी हो सकता है, यह सोचना तब तक संभव नहीं होता जब तक  किसी स्त्री ने समाज की चूड़ी कसने के लिए इसे सही ढंग से, सामूहिक रूप से इस्तेमाल करना तय न किया होता। यह कथाकार की अद्भुत कल्पनाशीलता है। यह किसी विमर्श की कथा न होकर स्त्रियों के जुझारूपन, संघर्ष और आत्मरक्षा के निर्णय स्वयं लेने की कथा है। 

- प्रज्ञा पांडेय




पेंचकस

 

सात घर का झाडू-पोंछा, बर्तन निबटा कर वह बस्ती की ओर तेज़ी से चली जा रही थी। कल से हो रही बारिश ने पगडंडियों के रास्ते को बिछलहर कर दिया था। दोनों तरफ़ सिर से ऊपर तक सरपत के पौधे हवा का झोंका पा साड़ी से उलझते तो वह परेशान हो जाती। तेज़ धारदार पत्ते साड़ी को चीर सकते थे, वह बचती-बचाती चली जा रही थी। वैसे तो अभी शाम के छः बज रहे थे पर बादल घिरे होने से घुप्प अन्धेरा चारों तरफ़ पसर गया था। वह टार्च जलाकर नीचे देखते चल रही थी। 

शहर से सटा गाँव होने से टोले की औरतें आस-पास के मुहल्ले में घरेलू सहायिकाओं का काम करती थीं, जिससे उनकी जीविका चल रही थी। खेत रहे नहीं, शराबी मर्दों ने औने-पौने दामों में जो दो-चार बिस्से खेत थे, बेचकर पी-खाकर उड़ा दिया था। अब किसानी के लिए खेत बचे थे खेतों में मजूरी मिलती थी। कांट्रेक्टर कौड़ियों के दाम खेत खरीद प्लाटिंग कर उनकी ज़मीन बेच चुके थे।

टोले में कुल पन्द्रह घर थे, मर्द दिहाड़ी मजूरी करते, औरतें कालोनियों में बर्तन चौका, झाडू-पोछा करतीं, लड़के किसी तरह प्राइमरी तक पढ़ते और दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता, गुजरात जाकर होटलों में काम करने लगते। मर्द हद दर्जे के पियक्कड़, अपनी मजूरी की कमाई तो पीते ही, औरतों से भी मारपीट कर छीन ले जाते। लड़कियाँ छोटी उम्र से ही माँ के साथ घरों में जातीं और उनका हाथ बंटाती। राधा आठ साल की बड़ी बेटी का हाथ पकड़े चली जा रही थी। बादल आसमान में जमे थे। आस- पास के घेर कर छोड़े गये प्लाटों से तरह-तरह की आवाज़ों के बीच एकत्रित पानी में मेंढकों की टर्र-टर्र की आवाज़ निस्तब्धता को भंग कर रही थी। सामने टोला दिखने लगा तो उसने चैन की साँस ली। 
आजकल अन्धेरे में औरतों के साथ क्या घट जाए कोई ठिकाना नहीं। इधर कुछ प्लाटों में ठेकेदारों ने मकान बनाना शुरू कर दिया था जो लगातार बारिश होने से इन दिनों बन्द चल रहा था, वरना देर शाम इधर से गुजरते उनकी घूरती आँखे भय पैदा कर देतीं। वह अब जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा रही थी। बेटी उसका हाथ छुड़ाकर सर्र से घर की ओर भाग गयी। अचानक उसे लगा, पीछे से कोई उसे रोक रहा है, दिल धक्क से हो गया। हिम्मत करके उसने पीछे मुड़ कर देखा आस-पास कोई नहीं था। अचानक बगल की झाड़ियों में सरसराहट हुई तो वह डर के मारे दौड़ने लगी। वह छूटी हुई बन्दूक की गोली की तरह भाग रही थी, मारे डर के पसीना छूटने लगा, अपने घर के पास जाकर धम्म से ज़मीन पर बैठ गई। वह बेतहाशा हांफ रही थी। बगल की कलुवा की माई उसके सास के साथ बैठ कर बीड़ी पी रही थी, देखते खड़ी हो गई–"का हुआ रे धनेसरा बो, काहे अइसे बौराई भागी रही है ?"

वह बौराई सी रास्ते की तरफ़ इशारा करके रोते हुए बोली–"काकी! उहाँ रोज मुझे कोई पीछे से टोकता है, मुड़ के देखती हूँ तो कोई दिखता भी नहीं।हाथ जोड़कर देवी को गुहराते हुए- "पता नहीं क्या है जो महीने भर से मेरा पीछा कर रहा है।"

वह डर के मारे काँप रही थी। उसको भागते देख अगल-बगल की औरतें जुट गईं, खुसुर-फुसुर होने लगी। कोई देवता का कोप कहता तो कोई ठेकेदार की बदमाशी, कुछ भूत-पिशाच तक पहुँच गये। खैर राधा खासी डर गई थी। सास ने घर में से लाल मिर्चा ला ओईछा और बाहर फूँकने चली गई। दगदग गोरी, छरहरे बदन और सुन्दर नैन नक्स की राधा टोले की सबसे सुन्दर औरत थी। पति धनेसर उसके ठीक विपरीत, छोटा कद, सांवला रंगगोल चेहरे पर छोटी-छोटी आँखों के नीचे पसरी हुई नाक और खूब मोटे ओंठो से ताकते बड़े- बड़े दाँत। धनेसर पत्नी को लेकर इतना शंकालु था कि वह किसी से हँस-बोल दे तो तुरन्त उसके चरित्र पर लांछन लगाने लगता। आज घर में घुसते जो सुना उसका खून खौल गया, कोई कुछ कहे उसके दिमाग में कुछ और ही चल रहा था। घर में से सूअर काटनेवाली दरेती ले बस्ती के रास्ते की ओर निकला। माँ ने रोका–"बउराए हो का, एतना अन्हार अउर बरखा-बुन्नी में किधर जाते हो?
वह माँ का हाथ झटककर निकल गया, घण्टे भर बाद पूरा भीगा हुआ घर लौटा, औरत खटिया पर पड़ी थरथर काँप रही थी। माँ सिरहाने बैठी बड़बड़ा रही थी–"कवनों कोप बुझाता है, देह तावे की तरह लहक रही है।"
धनेसर खटिए के पास पहुँचा, माथा छुआ, शरीर बुखार से जल रहा था। अचानक उसकी निगाह औरत के ब्लाउज में उभरे छोटे से बटुए पर पड़ी। झट से हाथ डाल निकाल लिया। अर्धचेतना में राधा ने हाथ पकड़ा, छिना-छिनौवल के बाद बटुआ धनेसर के हाथ लगा, बटुए को खोल कर देखा, बटुआ पैसे से भरा था। उसका हाथ उमेठते हुए उसने पूछा -"इतना रुपया कहाँ से आया ?"

उसकी तपती देह से उसे कोई मोह नहीं था। वह रो रही थी, आज पहली तारीख थी। सभी घरों से महीने की पगार मिली थी–"पगार है..." वह रोते हुए इतना ही कह पाई। धनेसर रुपया निकाल बटुआ फेंक घर से निकल गया। बूढ़ी माँ ने जाते हुए बेटे पर गालियों की बौछार शुरू की–"अरे दोगलवा! मेहरारू की कमाई खाते लाज नहीं आती रेssssss"

वह सिर पर हाथ धरे मन भर रोकर जब थक गई तो छाता ले अगल-बगल के घरों से बुखार की दवा मांगने निकल गई। राजकुमारी ने एक छोटे से डिब्बे से क्रोसिन निकाल कर दिया और बुढ़िया को हिदायत दी–"कौनों ऊपर-झापर लगता है काकी। ओझा-सोखा को दिखा दो वरना अइसे ही मंगली बो परियार डेरा कर पड़ी तो फिर उठी नहीं।"
बूढ़ी औरत ने आँसू पोंछते हुए सहमति में सिर हिलाया और घर आकर किसी तरह चूल्हे में आग जला रोटी सेंकी और पतोहू को जबरन एकाध कौर खिला दवा दी। धनेसर रात-भर लापता रहा।
धनेसर चार बहनों के बाद पैदा हुआ था। पिता राजमिस्त्री थे, इलाके में खूब नाम था, लोग घर बनवाने के लिए उनकी बाट जोहते। मेहनती पिता ने चार कमरों का पक्का मकान बनवाया और सामर्थ्य भर बच्चों को पढ़ाया भी। लड़कियाँ शहर पैदल जाकर हाईस्कूल, इण्टर तक पढ़ गयीं और अच्छे घरों में ब्याह गयीं। धनेसर की तीन बहने शादी के बाद आगे भी पढ़ती रही और प्राइमरी में टीचर हो गयीं। छोटी अपने पति के साथ दिल्ली चली गयी और वहाँ ब्यूटी पार्लर खोल अच्छा जीवन जी रही थी।
 
धनेसर चार बेटियों पर पछिली-पछाड़ी पैदा क्या हुए, मारे दुलार के सिर चढ़ गया। स्कूल में तनिक भी डांट पड़ती भाग आता, पिता की जेब से जब मन करता दस-पाँच निकाल लेता, माँ नजरंदाज करती। नतीजा यह निकला कि किसी तरह पाँचवी पास कर सका और किशोरावस्था में ही पिता संग काम पर जाने लगा।

कच्ची उम्र में पैसा हाथ में आने लगा तो ऐश बढ़े, लगे उड़ने। खूब रंग बान्ह कर नात रिश्तेदारों के यहाँ जाते। धीरे-धीरे बात बिरादरी में फैली कि खूब रुपया गाँठ कर पिता ने रखा है और बबुआ ऐश करते हैं। टोले का एकमात्र पूरी तरह बना हुआ पक्का मकान पहले ही सबके आकर्षण का केन्द्र था। इधर आए दिन रिश्ते की बात लिए कोई कोई रिश्तेदार दरवाजे पर संझा होते धमकता। 
पिता सुन्दर, सुकोमल राधा से बेटे का ब्याह कर अभी उछाह-बछाह भी नहीं माना पाए थे कि एक मकान का लिन्टर लगाते हुए बल्ली सरकने से गिरे तो फिर उठे ही नहीं। कमर की हड्डी टूटी थी, धनेसर ने लाख जतन किया पर पिता को बिस्तर से उठा नहीं पाए। कर्ज़ अलग बढ़ा, घर की माली हालत खराब होने से राधा को घर से पैर निकालना पड़ा, अपशकुनी का कलंक लिए वह घरों में चौका बर्तन करती, फसल के दिनों में कटिया, दौरी करती। ससुर बिस्तर पर पड़े कलपते कि फूल जैसी लड़की को मजूरी करनी पड़ रही है। 
साल बीतते रहे। धनेसर जिम्मेदारियों के बोझ से दबा, आए दिन पत्नी के साथ कलह करता। राधा ने एक बेटा और एक बेटी को जन्म दिया तो पढ़ी लिखी ननदों ने समझा बुझा कर नसबंदी करा दिया। 
चार साल तक बिस्तर पर कष्ट झेलते पिता चल बसे। धनेसर के सिर से पिता का साया क्या उठा बिना लगाम का घोड़ा हो गए। सब कुछ बेपटरी हो गया, मिस्त्री का काम बरसात को छोड़कर लगातार मिलता रहता। इधर उनका मन राग-रंग में भी जमने लगा। शराब का आदी हो ही चुका था। 

राधा दो बच्चों और और बूढ़ी सास के साथ जीवन समर में डटी थी। दोनों बच्चों को स्कूल भेजती, थोड़ा बहुत लिखना-पढ़ना जानती थी धनेसर के पैसे छीनने से आज़िज एक दिन छाया दीदी की मदद से बैंक में खाता खोल लिया और जिनके-जिनके यहाँ काम करती थी, उनसे कहा कि पगार सीधे खाते में भेजें। ये सारी शिक्षा उसे छाया दीदी से मिल रही थी। 

धनेसर घर में लाख कोहराम मचाता पर अब एक पैसा घर में उसे नहीं मिलता था। दाँत पीस कर धनेसर घर से निकल जाता। 
बरखा के दिन बीते तो कुँवार की चमकीली धूप सुहानी लगने लगी। मेला के बाद बच्चे नानी के गाँव जाने की जिद करने लगे तो राधा हफ्ते भर की छुट्टी ले मायके चली गई। इधर उसके गाँव बाँसडिहा में ऐसी घटना घटी की लोगों की रूह काँप गई। वैसे इस विपदा की आहट तो औरतों को पहले ही मिल चुकी थी पर बिना घटना घटे लोगों को भरोसा भी तो नहीं होता। 
टोले की चौदह साल की सविता एक शाम अपनी बकरियाँ चराते घेरे हुए प्लाटों के बीच से रही थी। कुछ बच्चों ने उसे बकरियों को चराते देखा था। अन्धेरा घिरने लगा तो उसकी बकरियाँ अकेले दुवार पर लौट आईं पर सविता नहीं लौटी। माँ और उसके दोनों छोटे भाई ढूँढ़ने निकले, ताल-तलैया, सगड़ा, इनार, प्राइमरी स्कूल से लेकर खण्डहर हो चुके प्राथमिक चिकित्सालय तक खोज मारा पर जैसे लड़की को आसमान निगल गया हो, पता ही नहीं चल रहा था। रात दस बजे माँ-बाप टोले के कुछ लोगों के साथ थाने पहुंचे। 

महिला पुलिस ने बड़ी बेशर्मी से कहा– “अरे कोई आाशिक-वाशिक था क्या लड़की का, पहले वहाँ पता करो, उसी के साथ भाग गई होगी।"
सविता की माँ को सुनते ही काठ मार गया–“नाही साहब, गऊ जैसी लड़की है हमारी। तनी रपट लिखिए और खोजिए साहब! हमारा जी घबराता है।"
महिला पुलिस ने हँसते हुए कहा–"जाओ तुम लोग यहाँ से नहीं तो चार डण्डे पीठ पर पड़ेंगे, पहले जाकर हितई-नतई खोजो और सबेरे दस बजे के बाद जब साहब आएँगे तो आना, तभी रपट लिखी जाएगी।"
 

डंडा फटकारते हुए सिपाहियों ने उन्हें थाने से भगा दिया। रोते-पिटते वे लोग घर लौट आए। बिपत की रात बहुत भारी होती है। जाड़े में ठिठुरे लोग अपने-अपने घरों में डरे-सहमें सविता की सलामती की दुआ करते रहे। 
भोर हुई, लोग लोटा लेकर खेतों की और निकल पड़े, औरतें झाड़ झुंखाड़ का आड़ देख बैठतीं। राधा की सास अभी पतलों की आड़ ले बैठती कि ज़मीन पर उसे खून दिखा। वह चिल्लाती हुई मेड़ों पर गिरती-पड़ती भागी। आवाज़ सुनकर लोग इकट्ठा हो गये। सरपत की झाड़ को लाठियों से हटाकर जब मर्दों ने देखा तो सन्न रह गए।
 
झाड़ी में सविता की लाश खून से लथपथ पड़ी हुई थी, बड़ी बेरहमी से दरिंदों ने उसे मारा था। चेहरे को पत्थर से कूंच दिया था। 

सविता की माँ सुनते पछाड़ें खाकर बेहोश हो गई, टोले में जैसे आग लग गई हो, नवयुवक उबल उठे। लड़की के साथ दरिदंगी की सारी सीमाएँ टूटी थीं। लड़कों ने पुलिस को सूचना दी और टोले के सामने की सड़क पर जाम लगाकर नारे लगाने लगे। देखते-देखते आस-पास के गांवों के जात-बिरादर भाई भी इकट्ठा हो गये, कुछ स्थानीय नेता भी अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए धमके। पुलिस के हाथ-पैर फूलने लगे।रात वाली सिपाही मैडम पर पत्थर लेकर सविता की माँ दौड़ी और छाती पीट-पीट गरियाने लगी। 

जनता का भारी दबाव और मीडिया की दखल को देखते हुए एस. पी. साहब खुद घटना स्थल पर पहुँचे। लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और बड़ी निर्ममता से हत्या हुई थी। पुलिस ने माँ-बाप से पूछा कि उन्हें किसी पर शक हो तो बताएँ पर उनको खुद समझ नहीं रहा था कि उनकी इस शांत दुनिया में किसने आग लगाई। वह 'ना' में गर्दन  हिलाकर रह गए।

महीनों धरना-प्रदर्शन चलता रहा पर हुआ वही ढाक के तीन पात, साक्ष्य के अभाव में मामला ठण्डे बस्ते में चला गया। इधर टोले की औरतों, लड़कियों में अजीब डर घर कर गया। वह अब बस्ती की ओर अकेले जाने से बचतीं। लड़कियों को खास कर कहीं अकेले नहीं छोड़तीं पर कब तक वह दरिदों की निगाह से बचतीं। सवाल यह भी था। 
कुछ महीने सब शांत रहा पर धीरे-धीरे पिछली घटनाएँ फिर घटने लगीं। राधा के साथ-साथ बहुत-सी औरतों को लगता कि अंधेरा घिरने पर कुछ हाथ झाड़ियों की ओर से उनकी तरफ बढ़ रहे हैं। घर के मर्दों से कहतीं तो एक ही जवाब मिलता–"तुम लोगों ने नाहक भय बना लिया है हम तो रात-बिरात आते जाते हैं, हमें तो कभी नहीं लगता।" बेचारी थक-हारकर सतर्क हो घर से निकलतीं पर भय था कि मन का आँगन घेरे हुआ था।
एक दिन राधा का हाथ एक मुँह बाँधे बलिष्ठ आदमी ने पीछे से झपटकर पकड़ा। उसने झट से कलाइयों पर दाँत गड़ाया और सन्न से टोले की तरफ भागी। उस दिन छाया दीदी के घर मेहमान आने से उसे निकलने में देर हो गई थी। वह जैसे घर पहुँची, देखा कि धनेसर सुरती रगड़ते हुए बरामदे में बैठा कलुआ से बतिया रहा था। वह जोर-जोर से हाँफ रही थी। सोचा आदमी से कहे पर तुरंत खयाल आया, वह पहले यह सुनकर मुझे पीटेगा, फिर दुनिया भर का बवाल काटेगा। वह चुपचाप घर के भीतर चली गई। मन में भयंकर उथल-पुथल मची थी, अनहोनी की सोचकर उसकी रूह काँप जाती। आदमी के हाथ पर उसने इतना कसकर दाँत गड़ाया था कि दाँत में खून लग गया था, वह घिनाकर बार-बार कुल्ला करती और सोचती कि करे तो क्या करे, किससे कहे, रात-भर यही सोचती छत की तरफ ताकती रही।
 
सुबह हुई, राधा बिस्तर पर बेसुध पड़ी थी। बच्चे स्कूल जाने के लिए तैयार होने लगे। सास बाहर का दुवार झार-बुहार कर अन्दर आई तो राधा को खटिया पर देख पास गईं। माथा तप रहा था, वह पुकारने पर आँख भी नही खोल पा रही थी। बचपन से जब राधा डरती तो उसे बुखार जाता, आज भी वही हाल था। सास ने चुल्हा जलाकर खाना बनाया और बच्चों को स्कूल भेजा। 

धनेसर सुबह-सबेरे टोले में घूमने निकल जाता और काम पर निकलने के समय घर लौटता। उस दिन सुरती रगड़ते वह घर में दाखिल हुआ। राधा का फोन लगातार बज रहा था। फोन की आवाज़ सुनकर वह पास गया, बिस्तर पर पड़ी राधा का माथा छुआ–"इसको तो बहुत तेज़ बुखार है अम्मा" माँ से कहा।
फोन फिर से बज उठा, उसने फोन रिसीव किया। उधर से राधा के अभी तक काम पर पहुँचने का तकादा था। "साहब बहुत बेमार है आज, नहीं जा पाएगी।" धनेसर ने उत्तर दिया और साइकिल उठा बाजार की ओर दवा लेने निकल गया। 
राधा अगले तीन-चार दिन तक काम पर लौटने की हिम्मत नहीं जुटा पाई पर करती भी तो क्या? काम पर लौटना ही था। वह सुबह काम पर निकली और सबसे पहले छाया दीदी के घर पहुँची, दीदी से सब हाल कह सुनाया। 
छाया के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आईं। "ऐसा कर राधा, तू शाम को उजाला रहते काम निबटाकर घर निकल जाया कर।" राधा ने गर्दन झुकाकर कर कहा–"ठीक है दीदी !"
दिन निकलने लगे। जाड़ा अपना साजो-सामान बाँधकर सिकुड़ने लगा और गर्मी ने दस्तक दी। छाया के घर गर्मी में काफी चहल-पहल रहती। ननदें अपने बच्चों को लेकर मायके आतीं। कभी-कभी बुआ सास लोग भी जातीं। दुवार पर बाटी-चोखा की दावतें होती। मीट-मुर्गा बनता। "आखिर ठाकुर का दुवार है सो ठाट-बाट दिखना भी तो चाहिए।" उसके ससुर ठाकुर मोहन सिंह मूछों पर ताव देकर कहते। छाया उस घर में सबसे सहज और सरल मनुष्य थी, दिखावे से कोसों दूर रहने वाली, स्कूल में सरकारी टीचर थी। पति ठेकेदार, दो प्यारे बच्चे, भरा-पूरा खुशहाल घर। राधा वर्षों से उसकी घरेलू सहायिका थी। दोनों के बीच आपसी समझ इतनी थी कि राधा बिना कहे छाया की बात अक्सर समझ जाती कि आज उसे क्या-क्या करना है। छाया हँसकर कहती, "तू पिछले जनम में मेरी माँ थी जो मेरा हर अनकहा समझ जाती है।"

उस दिन ऐसी ही दावत दुवार पर चल रही थी। काम निबटाते-निबटाते अंधेरा घिर आया, राधा काम में लगी थी। इधर काफी दिनों से सब सामान्य रहने से वह थोड़ी लापरवाह भी हो गई थी। छाया ने घड़ी देखी, सात बज रहे थे। "राधा! तू अभी तक गई नहीं? काम छोड़ और जा, बाकी काम मैं कर लूँगी। देख कितना अंधेरा हो गया है बाहर।"
 राधा ने खिड़की से बाहर झाँका, सच में अंधेरा घिर आया था। उसने झट हाथ धुला और माथे का आँचल समेटते हुए जाने लगी। अचानक छाया के मन में खयाल आया, उसने राधा को आवाज़ दी–"राधा सुन तो ज़रा!"
"जी दीदी!" राधा ने पलट कर उत्तर दिया छाया ने ड्रावर खोला और कुछ खोजने लगी। अचानक उसे ईंजन कसने वाला बड़ा सा पेंचकस दिखा। पेंचकस निकाल कर उसने राधा को पकड़ाते हुए कहा–"इसे कमर में खोंस ले, कोई आए तो जहाँ हाथ चले घोंप देना।
"

राधा हँस पड़ी–"आप भी दीदी, पता नहीं क्या-क्या सोचती हैं। चलिए, रख लेती हूँ।" वह पेंचकस कमर में खोंसकर निकल गई। बस्ती पार कर वह मेड़ों के रास्ते बढ़ी जा रही थी। सरपत की झाड़ के पास पहुंचने से पहले उसने पेंचकस हाथ में निकाल कर कसकर मुट्ठी में पकड़ लिया। वह तेजी से आगे बढ़ रही थी कि अचानक कोई आगे से मुँह गमछे से बाँधे झाड़ से निकला और उसकी तरफ झपटा। पहले तो राधा के हाथ-पैर ठण्डे पड़ गए पर फिर उसने हिम्मत बटोरी और पेंचकस पेट में भोंक दिया। आदमी धम्म से जमीन पर गिरा और झाड़ियों में हलचल बढ़ी, शायद कुछ और लोग भीतर थे। 
वह उल्टे पाँव बस्ती की ओर भागी। छाया के दरवाजे पर आकर चौखट पर धम्म से बैठ गई। बच्चों ने माँ से बताया तो छाया दौड़कर बाहर आई–"क्या हुआ राधा?" राधा बुरी तरह काँप रही थी। छाया ने उसे झिंझोड़ कर पूछा-” कुछ बोलो तो, हुआ क्या? "
दीदी किसी ने मुझे झाड़ में खींचने की कोशिश की मैंने पेंचकस घोंप दिया।" वह बेतहाशा रोए जा रही थी। राधा को छाया की ननदों ने पानी पिलाया। वह कुछ सामान्य हुई तो पति को फोन किया। 
धनेसर अपने साथियों संग भागते हुए आया। पुलिस को फोन किया, देखते-देखते पूरा टोला इकट्ठा हो गया। लोग लाठी-डण्डा, लेकर बदमाशों को ढूँढ़ने लगे। पुलिस को खून के धब्बे तो वहाँ मिले पर वह घायल आदमी चारों तरफ ढूँढ़ने पर भी नहीं मिला।
छाया ने इस गहमागहमी में पति को फोन लगाया, वह अभी तक घर नहीं लौटे थे। उसे चिंता हो रही थी। पहले तो घण्टी बजती और फोन नहीं उठता फिर स्विच ऑफ हो गया। उसने ससुर से कहा–"पापा! अजय कहाँ है फोन भी बंद जा रहा है।"
पिता ने भी चिंता जताया और पता करने का आश्वासन दे अपने कमरे में चले गये। छाया का मन बहुत खराब था। मन में तमाम तरह की आशंकाओं ने जैसे डेरा जमा लिया हो। वह कभी राधा के बारे में सोचती तो कभी पति को लेकर चिंता करती। 
रात बीत गई। लोग घटनाओं को डीलिट और रिमूव के इस दौर में जल्दी ही भूल जाते हैं। दो-तीन दिनों में आस-पास का जनजीवन फिर से सामान्य हो गया। टोले की औरतें फिर से काम पर लौटने लगीं। धनेसर रोज थाने जाता और पुलिस गोल-मोल जवाब देकर उसे लौटा देती।
 
छाया को अगले दिन ससुर ने बताया कि अजय दोस्तों के साथ वैष्णो देवी की यात्रा पर निकल गया है। वह अक्सर ऐसा करता था। शुरू-शुरू में छाया से इस मुद्दे पर खूब लड़ाइयाँ होती थी पर धीरे-धीरे माँ-बाप  के दबाव में आकर छाया ने समझौता कर लिया। सम्पन्न पिता का इकलौता बेटा अजय बचपन से अपने मन की करता चला रहा था। जिस चीज पर उंगली रखी, पिता ने लाकर रख दिया। जब से ठेकेदारी शुरू की थी, तब से पीने-खाने की लत और बढ़ गई थी।

  एक हफ्ते बाद राधा काम पर लौट आई, वह सूरज ढलने के पहले घर लौट जाती थी। दस दिन बाद अजय सिंह घर लौटे। पेट पर पट्टी लगी थी, छाया ने पूछा कि यह क्या हुआ है तो जवाब मिला कि पेट में पथरी हो गई या, उसी का अचानक लखनऊ में ऑपरेशन कराना पड़ा है। डॉक्टर ने कुछ दिन आराम करने को कहा है।
बात आई-गई, जीवन अपनी गति में आगे बढ़ता ही है, बढ़ने लगा। राधा अब अधिक चौकन्नी रहती, एक डर उसे हर घड़ी घेरे रहता। छाया राधा को समझाती और हर संभव मदद करती। 
एक दिन दोपहर में छाया की सास की तबियत अचानक खराब हो गई। पति बीमार था, ससुर बाहर गये हुए थे। छाया अभी स्कूल से लौटी ही थी कि सास की कराह सुनी। उसने तुरंत ड्राइवर को आवाज़ दी और सास को लेकर डॉक्टर के यहाँ गई। सास को दिल का दौरा पड़ा था, डॉक्टर ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया। छाया की जिम्मेदारियाँ बढ़ गईं, वह घर में पति और अस्पताल में सास की देखभाल की भाग-दौड़ में रहती। राधा ने छाया की मदद में कोई उठाव नहीं छोड़ा। पूरे एक हफ्ते बाद छाया की सास अस्पताल से घर लौटीं। ड्राइवर सास को पकड़ कर घर में ले गया, उनका शरीर इतना भारी था कि छाया के लिए संभालना मुश्किल था। 

छाया ने डिग्गी खोलकर सोचा, तब तक सामान बाहर रख दूँ। उसने डिल्ली खोला और सामान निकालने लगी। अचानक उसकी नज़र डिग्गी के कोने में गई। कोने में वही पेंचकस पड़ा था जिसे उसने राधा को दिया था। उसने हाथ बढ़ाकर पेंचकस निकाला, पेंचकस के कोने पर सूखा खून अभी तक लगा हुआ था। उसके दिल की धड़कने बढ़ने लगीं, दिमाग चक्कर खाने लगा, ऐसा लगा वह बेहोश होकर गिर जाएगी। ड्राइवर ने पीछे से आवाज़ दी– "हटिए भाभी! हम सामान भीतर रख देंगे।"

  उसने झट पेंचकस को हाथ में लिए थैले में डाला और खुद को सम्हालती हुई घर के भीतरआई। उसका मन चिल्ला-चिल्ला कर रोने का हो रहा था पर सास की तबियत का खयाल रख खुद को संयमित किया। उसे पति से इतनी घृणा हो रही कि उसके सामने जाने तक का मन नहीं हो रहा था। वह रात-भर रोती रही। अगले दिन माँ से सब बातें फोन पर बताई तो माँ ने उल्टे डाँटना शुरू कर दिया–"तुम्हारा दिमाग खराब है? कोई दोस्त, यार भी तो उसका हो सकता है", "कोई दुश्मनी बस गाड़ी में फेंक भी तो सकता तो", आदि-आदि माँ कहती रही। छाया जानती थी कि उसके विरोध से कुछ भी हासिल होने वाला नहीं है। 
वह बाज़ार गई और ढेर सारे बड़े साइज के पेंच खरीद कर लाई। राधा को एक कमरे में ले जाकर बिठाया और सारे पेंचकस देते हुए कहा–"राधा इसे अपने टोले की हर औरत और हर लड़की को बाँट दो। तुम लोग समूह में चला करो और जो कोई हाथ पकड़े उसे इतना कोंचों की दुबारा किसी को पकड़ने के लायक रहे। इतना जान लो राधा! अपने बचाव में की गई हत्या कानून में भी अपराध नहीं होती है।" वह कहते-कहते सिसकने लगी–"राधा कल से मेरे घर तुम काम पर मत आना।" राधा छाया का हाथ पकड़ कर रोने लगी। छाया ने हाथ झटक कर कहा–"जाओ राधा! जाओ, जल्दी जाओ और हर औरत को ये पेंचकस बाँट दो।

 

 










सोनी पाण्डेय का कहानी संग्रह बलमाजी का स्टूडियो बहुत चर्चित रहा है।

 

 

 

 



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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय