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डॉ. रामदरश मिश्र - बड़े लेखक, बड़े मनुष्य

शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2025 को वरिष्ठतम साहित्यकार प्रो. रामदरश मिश्र हमारे बीच नहीं रहे। 
15 अगस्त, 1924 को डुमरी, गोरखपुर में जन्मे रामदरश मिश्र ने बीएचयू में उच्च शिक्षा पाई। उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में शोध कार्य किया था। वे कई वर्षों तक गुजरात में हिन्दी के प्राध्यापक रहे। दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाया। एक लंबा साहित्यिक जीवन जीने वाले रामदरश जी ने लगभग सभी विधाओं में सौ से ज्यादा पुस्तकें लिखीं और पद्मश्री अलंकरण सहित हिंदी के लगभग सभी प्रतिष्ठित सम्मान और पुरस्कार उन्हें मिले। 
उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ ः
काव्यः पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कन्धे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, मेरे प्रिय गीत, बाजार को निकले हैं लोग, जुलूस कहाँ जा रहा है?, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, हँसी ओठ पर आँखें नम हैं (ग़ज़ल संग्रह), ऐसे में जब कभी, आम के पत्ते, तू ही बता ऐ जिंदगी (ग़ज़ल संग्रह),हवाएँ साथ हैं (ग़ज़ल संग्रह),कभी-कभी इन दिनों, धूप के टुकड़े, आग की हँसी, लमहे बोलते हैं, और एक दिन, मैं तो यहाँ हूँ, अपना रास्ता, रात सपने में, सपना सदा पलता रहा(ग़ज़ल संग्रह), पचास कविताएँ, रामदरश मिश्र की लंबी कविताएँ, दूर घर नहीं हुआ (ग़ज़ल संग्रह), बनाया है मैंने ये घर धीरे धीरे (ग़ज़ल संग्रह), समवेत।
उपन्यासः पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफर, आकाश की छत, आदिम राग,बिना दरवाजे का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार, बचपन भास्कर का, एक बचपन यह भी, एक था कलाकार।
कहानी संग्रहः खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, बसन्त का एक दिन, इकसठ कहानियाँ, मेरी प्रिय कहानियाँ, अपने लिए, अतीत का विष, चर्चित कहानियाँ, श्रेष्ठ आंचलिक कहानियाँ, आज का दिन भी, एक कहानी लगातार, फिर कब आएँगे?, अकेला मकान, विदूषक, दिन के साथ, मेरी कथा यात्रा, विरासत, इस बार होली में, चुनी हुई कहानियाँ, संकलित कहानियाँ, लोकप्रिय कहानियाँ, 21 कहानियाँ, नेता की चादर, स्वप्नभंग, आखिरी चिट्ठी, कुछ यादें बचपन की (बाल साहित्य), गावँ की आवाज़ ,अभिशप्त लोक ,अकेली वह ।
ललित निबन्धःकितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख, नया चौराहा, फिर लौट आया हूँ मेरे देश ।
आत्मकथाः सहचर है समय।
यात्रावृतः घर से घर तक, देश-यात्रा।
डायरीः आते-जाते दिन, आस-पास, बाहर-भीतर, विश्वास ज़िन्दा है, मेरा कमरा ।
आलोचना: 1. हिंदी आलोचना का इतिहास (हिंदी समीक्षा: स्वरूप और संदर्भ, हिंदी आलोचना प्रवृत्तियां और आधार भूमि), 2. ऐतिहासिक उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा, 3. साहित्य: संदर्भ और मूल्य, 4. हिंदी उपन्यास एक अंतर्यात्रा, 5. आज का हिंदी साहित्य संवेदना और दृष्टि, 6. हिंदी कहानी: अंतरंग पहचान, 7. हिंदी कविता आधुनिक आयाम (छायावादोत्तर हिंदी कविता), 8. छायावाद का रचनालोक, 9. आधुनिक कविता: सर्जनात्मक संदर्भ, 10. हिंदी गद्य साहित्य: उपलब्धि की दिशाएँ 11. आलोचना का आधुनिक बोध|
रचनावलीः 14 खण्डों में, कविता संग्रह, कहानी-समग्र |
संस्मरणः स्मृतियों के छन्द, अपने-अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी, सर्जना ही बड़ा सत्य है।
साक्षात्कार: अंतरंग, मेरे साक्षात्कार, संवाद यात्रा|
संचयनःबूँद बूँद नदी, नदी बहती है, दर्द की हँसी, सरकंडे की कलम।


उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप किंचित कुछ वर्ष पूर्व लिखा यह संस्मरणात्मक आलेख प्रस्तुत है - 

- दामोदर दत्त दीक्षित

प्रतिष्ठित कथाकार-कवि-ग़ज़लकार-आलोचक डॉ. रामदरश मिश्र के लेखन से परिचय ‘धर्मयुग’ और ‘सारिका’ पत्रिकाओं के माध्यम से हुआ। बात तब की, जब किशोरावस्था की दहलीज़ पर था। जीवन-ज़मीन-जल से जुड़ी उनकी रचनाएँ प्रभावित करती रही हैं। सरकारी कार्यों की व्यस्तता और अनिश्चितता के कारण - जहाँ छुट्टी स्वीकृत होने के बाद भी निरस्त हो जाना विस्मय की बात न हो - चाहकर भी उनसे भेंट न हो सकी। भेंट तभी हो सकी, जब रिटायर हुआ। कुछ पत्रों के आदान-प्रदान के बाद उनसे मिलना हुआ।

दिल्ली जाना हुआ था। फोन से मिलने का समय माँगा। अगले दिन मेट्रो ट्रेन से उत्तम नगर पहुँचा और वहाँ से रिक्शे से मिश्र जी के घर पहुँच गया। घण्टी बजाने पर उन्होंने गेट तक आकर मेरी अगवानी की और स्नेह-सम्मान के साथ अपने ड्राइंग-रूम में ले गए। उनकी जीवनसंगिनी श्रीमती सरस्वती मिश्र जी से भेंट हुई। उन्होंने चाय-नाश्ते की व्यवस्था की। मिश्र जी से साहित्य और साहित्येतर विषयों पर उन्मुक्तता-निर्बन्धता से बातें होती रहीं। काफ़ी ज्ञानवर्धन हुआ। श्रीमती मिश्र जी भी ज़्यादातर समय तक साथ बैठी रहीं। यही नहीं, वार्तालाप में सक्रिय सहभागिता भी दिखाईं। वह मेरी चंद रचनाओं से परिचित रही थीं।  

बातों-बातों में कब दो घण्टे बीत गए, पता ही न चला। मैंने विदा ली। मना करने के बावजूद वह गेट तक छोड़ने आए। मैं पानी-पानी हो गया। वट वृक्षीय व्यक्तित्व के मुरीद हुए मन से आवाज़ आई - क़ाश, पहले मिला होता! यह ‘क़ाश’ शब्द जो है, अपनी प्रकृति में कितना अफ़सोसनाक होता है!

मिश्र जी से मेरा सम्पर्क बना रहता है। दिल्ली जाने पर उनसे मिलने की कोशिश करता हूँ। भेंट होने पर बातों का सिलसिला चलता, तो चलता ही रहता। हर तरह की बातें होतीं। कोई छिपाव नहीं, कोई दुराव नहीं। सब कुछ सहज और अनौपचारिक। पर मैं दो घण्टे से ज़्यादा कभी उनके पास रुकता नहीं था यद्यपि उठने का मन नहीं होता था। यही सोचता था कि एक जगह पर लगातार बैठे-बैठे उनके पैरों में तकलीफ़ न बढ़ जाए।

मैं क़रीब-क़रीब उनके बेटे की उम्र का हूँ, फिर भी वह बातचीत में, व्यवहार में हमउम्र जैसा व्यवहार करते हैं। यही उनका बड़प्पन है। उनकी उन्मुक्त हँसी का जवाब नहीं - कल-कल, छल-छल, झर-झर। अपने पास कुछ भी रोककर-बचाकर नहीं रखते। ऐसी हँसी किसी निर्मल-निश्छल व्यक्ति की ही हो सकती है। आयुजन्य व्याधियाँ (जिन्हें विद्यानिवास मिश्र जी वृद्धावस्था के आभूषण कहा करते थे) उन्हें भी हैं, परन्तु उनसे मुक़ाबला-मुचेहटा करने की अद्भुत क्षमता उनके अन्दर है। जीवन रस-जिजीविषा से भरपूर हैं वह। 

मेरे कहानी-संग्रह ‘गाँव की चुनिन्दा कहानियाँ’ को पढ़कर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया पत्र के माध्यम से भेजी थी, ‘‘ ‘गाँव की चुनिन्दा कहानियाँ’ से गुज़रना प्रीतिकर लगा। आपने गाँव को गहरे जिया है। इसलिए उसकी गहराई और व्यापकता का गहरा अनुभव किया है। इन कहानियों में गाँव के सुख-दुख, यातना और संघर्ष, क्रूरता और मनुष्यता के विविध आयामों की अभिव्यक्ति हुई है। ... हर कहानी गाँव की किसी-न-किसी बाहरी-भीतरी समस्या से रूबरू हुई है। हर कहानी में आम आदमी की विवशता और सत्ता-व्यवस्था की क्रूरता का तनाव दिखाई पड़ता है जिससे आम आदमी के जीवन-मूल्य आहत होते दिखाई पड़ते हैं।’’

मेरे लेखों की पुस्तक ‘मुझे भी कुछ कहना है’ पढ़कर उन्होंने फ़ोन किया और प्रशंसा की। बाद में पता चला कि उन्होंने प्रतिक्रिया अपनी डायरी में लिपिबद्ध की है और वह उनके डायरी-संकलन ‘विश्वास जिन्दा है’ (2011) में प्रकाशित भी हुई है, जो इस प्रकार हैः-

‘‘दामोदर जी की यह पुस्तक दिल्ली और कुछ दिल्ली के बाहर के साहित्य-जगत की कुछ अकथनीय कथा से मुझे परिचित कराने लगी। दीक्षित जी ने साहित्य-जगत में व्याप्त अनेक विसंगतियों का निरावरण किया है। मुझे स्पष्ट लगा कि दीक्षित जी ने किसी की खिल्ली उड़ाने के लिए या किसी से हिसाब चुकता करने के लिए यह सब नहीं लिखा है, उन्होंने सत्य कहने के भाव से प्रेरित होकर अत्यन्त पांडित्य एवं तर्क के साथ उस झूठ का पर्दाफ़ाश किया है जो जय जयकार बनकर साहित्य-जगत में छाया हुआ है।’’

‘‘शुरुआत राजेन्द्र यादव से की है। राजेन्द्र यादव ‘मेरी तेरी उसकी बात’ में जो कुछ कहते रहे हैं, दीक्षित जी ने उसकी गहरी छानबीन की है और सिद्ध कर दिया है कि यादव जी बहस में बने रहने के लिए प्रायः हर क्षेत्र के अधकचरे ज्ञान को संपादकीयों में उड़ेलते रहते हैं। दीक्षित जी का कहना है कि राजेन्द्र जी की हंस-कृपा अनेक लेखकों पर रही है। दीक्षित जी ने उन लेखकों में मैत्रेयी पुष्पा का नाम विशेष रूप से रेखांकित किया है और महत्वपूर्ण घोषित होने वाली उनकी कृतियों ‘गुड़िया भीतर गुड़िया’ और ‘चाक’ के महत्त्व की परीक्षा की है। लक्ष्मीबाई के संदर्भ में संजीव जी ने जो विचार व्यक्त किए हैं, दीक्षित जी ने उन्हें ग़लत सिद्ध किया है। ‘झूठी वीरांगना या झूठा इतिहास’ निबंध में दीक्षित जी ने कौशलेन्द्र प्रताप यादव के इतिहास ज्ञान और दृष्टि पर प्रश्न-चिह्न लगाया है।’’

‘‘इसी तरह अन्य कई विचारों और कथनों में व्याप्त झूठ का विरोध करते हुए सत्य की पहचान की गई है। ‘देह विमर्श से आगे’ बहुत प्रभावशाली निबंध है। यह आज के एक बड़े विमर्श से गुज़रा है। दीक्षित जी ने कुछ स्त्री विमर्शकारों के बारे में लिखा है - ‘ये देहविमर्शकार हैं। ये सोचते तक नहीं कि स्त्री से संबंधित बहुत-से गंभीर और महत्वपूर्ण मुद्दे हो सकते हैं।’ दीक्षित जी का कहना है कि आज सबसे विकट समस्या स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर है। इसी सोच के तहत दीक्षित जी ने नारी-जीवन की अनेक समस्याओं पर विचार किया है। पुस्तक का अंतिम लेख राजनीतिक दलों की कुरूपता का तो पर्दाफ़ाश करता ही है, समकालीन साहित्यकारों के दुहरे चरित्र का भी उद्घाटन करता है। पुस्तक अपने आप में तो महत्वपूर्ण है ही, मेरे लिए इसलिए भी विशेष है कि इसके माध्यम से मुझ घरघुसरे को साहित्यकार-परिवेश का बहुत कुछ जानने को मिला।

इसका यह अर्थ नहीं कि मिश्र जी अप्रशंसनीय की प्रशंसा करते हों। मेरी एक कहानी एक पत्रिका में पढ़कर उन्होंने साफ़गोई से कहा कि कहानी बन नहीं पायी। इसे आपको दुबारा लिखना चाहिए। उनकी प्रतिक्रिया जानकर उनके प्रति विश्वास गहरा हुआ। महसूस हुआ कि वह मुँहदेखी नहीं करते और मेरे वास्तविक शुभचिन्तक हैं वरना हिन्दी जगत में कुछ ऐसे स्वनामधन्य लेखक-आलोचक हुए हैं कि वे जिस पुस्तक का लोकार्पण करते हैं, उसे महान बताकर ही घर वापस जाते हैं।

मिश्र जी के सौवें वर्ष की शुरुआत हुई। जन्मदिन के ग्यारहवें दिन यानी 26 अगस्त को उनके वर्तमान निवास ब्रह्मा अपार्टमेन्ट्स (द्वारका, नई दिल्ली) पर पहुँचा। कई महीने पहले जब मिश्र जी और श्रीमती मिश्र जी की तबीयत ज़्यादा ख़राब हुई, पुत्र शशांक जी उन्हें अपने फ्लैट पर ले आए थे। पहले भी उन्होंने माता-पिता से साथ रहने का अनुरोध किया था, पर वे तैयार नहीं हुए थे। मैंने छठवीं मंज़िल पर स्थित फ्लैट सं0 24 की घण्टी बजायी। मिश्र जी छड़ी का सहारा लेते हुए आए और दरवाज़ा खोला। यह देखकर अत्यन्त प्रसन्नता हुई कि वह अपने से उठकर चल-फिर सकते हैं। उन्होंने सदा की भाँति आत्मीयता और सहज स्नेह से स्वागत किया। मैंने अभिवादन किया और सौवें वर्ष में प्रवेश के लिए बधाई दी। उन्होंने धन्यवाद दिया। 

हम ड्राइंग-रूम में बैठे। शशांक जी आए और विनम्रता से अभिवादन किया। मैं परिचय देने को हुआ। वह बोले, ‘‘आपसे मिलना नहीं हुआ, पर परिचित हूँ। पिता जी आपकी चर्चा करते रहते हैं।’’

मिश्र जी से बातें होने लगीं। वह बोले, इधर अर्से से आपसे भेंट नहीं हुई, पर आपको बराबर याद करता रहा। मैंने कहा, कोरोना के कारण दिल्ली आना हुआ ही नहीं। बस केवल एक बार नवम्बर, 2022 में दिल्ली से होकर गुज़रा था।

चाय-नाश्ता आ गया। बात हो रही थी कि श्रीमती मिश्र जी को ड्राइंग-रूम में बुलाया जाए या नहीं। मैंने कहा, ‘‘दिक़्क़त हो तो मत लाइए। मैं उनके कमरे में जाकर भेंट कर सकता हूँ।’’

कुछ समय बाद शशांक जी उन्हें हाथ का सहारा देते हुए ले आए और सोफे़ पर बैठा दिया। मैंने अभिवादन किया। उन्होंने सदाबहार मुस्कान के साथ हाथ जोड़ दिए। उनका चाय का कप भी बाहर आ गया। उन्होंने नाश्ता लेने से मना कर दिया। मुझसे पूछा, ‘‘आप कैसे हैं?’’

‘‘ठीक हूँ।’’ मैंने उत्तर दिया।

कुछ समय बाद बोलीं, ‘‘आपसे मिलकर अच्छा लगा।’’

‘‘मुझे भी आप लोगों से मिलकर बहुत अच्छा लगा।’’

शशांक जी ने उत्साह के साथ कहा, ‘‘अभी तक मम्मी एक-आध शब्द ही बोलती थीं। बीमारी के बाद पहली बार पूरे वाक्य आपसे बोली हैं।’’

मिश्र जी ने उनके कथन की पुष्टि की।

मैंने अपने को सौभाग्यशाली माना।

मैंने बातों-बातों में उनके आतिथ्य, कर्मठता, वैचारिक दृढ़ता और स्पष्टवादिता की प्रशंसा की। मेरी बातों को सुनकर वह मुस्कराने लगती थीं। कुछ समय तक वह हम लोगों को सुनती रहीं। फिर शशांक जी उनका हाथ पकड़कर भीतर ले गए।

मिश्र जी ने बताया कि आँखों पर ज़ोर पड़ने के कारण वह अब पढ़ नहीं पाते हैं। कहानी, उपन्यास जैसी बड़ी चीजें अब लिख नहीं पाते। हाँ, कविता और ग़ज़ल अब भी लिखते हैं। कलेवर में छोटी होती हैं, इसलिए लिखने में आसानी होती है। उन्होंने राजेन्द्र यादव और मैत्रेयी से सम्बन्धित मेरे लेखों का उल्लेख करते हुए शशांक जी से कहा कि दीक्षित जी ने प्राचीन ग्रन्थों और ऐतिहासिक सन्दर्भों का हवाला देते हुए उनके कुतर्कों और ग़लत बातों का सप्रमाण, तर्क सहित प्रतिवाद किया।

उन्होंने बातचीत में यह भी कहा, ‘‘भले ही देर से सही, मेरे लेखन की सराहना की गई। मुझे पुरस्कृत-सम्मानित किया गया। भारत भारती सम्मान मिला, व्यास सम्मान मिला, साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। कुछ समय पहले बिड़ला समूह का सरस्वती सम्मान मिला।’’

मैंने उनकी सुप्रसिद्ध ग़ज़ल की पंक्तियाँ दुहरायीं - ‘‘जहाँ आप पहुँचे छलाँगें लगाकर, वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे ...।’’

वह मुस्करा उठे।

लगभग घण्टा भर बातचीत कर मैंने विदा ली। वह दरवाज़े तक और शशांक जी लिफ़्ट तक छोड़ने आए।

लिफ़्ट से उतरकर गेट की ओर बढ़ते हुए सोच रहा था - जाने अब कब मिलना हो! क़ाश, जल्दी हो! 

मिश्र जी ने छोटे-बड़े 15 उपन्यास, 28 कहानी-संग्रह, 24 कविता-संग्रह, 6 ग़ज़ल-संग्रह, 5 ललित निबन्ध-संग्रह, 6 संस्मरण-संग्रह, 5 डायरी-संकलन और आत्मकथा के रूप में विविध और विपुल लेखन किया है। वह जितने समर्थ कहानीकार और उपन्यासकार हैं, उतने ही समर्थ कवि और ग़ज़लकार हैं। उन्होंने अपने परिवेशगत अनुभवों और सच्चाइयों को साहित्य सर्जना का विषय बनाया है। उनका प्रारम्भिक जीवन गाँव में गुज़रा। उनके मन में गाँव रचा-बसा है जो उनकी रचनाओं में गहनता और संवेदनशीलता के साथ रूपायित हुआ है।

डॉ. रामदरश मिश्र जी सरल, सहज, विनम्र और विवेकशील लेखक हैं। अहंकार छू तक नहीं गया। वह साहित्यिक जगत के गुटों, खेमों और मठों से दूर हैं और अपने लेखन के प्रचार-प्रसार और पुरस्कार-सम्मान के लिए झोला उठाकर भाग-दौड़ करने वाले लेखक नहीं हैं। वह स्वयं को घरघुसरा लेखक कहते हैं। वह रूढ़िवादिता और पोंगापंथी के विरोधी, तर्कप्रधान, नीर-क्षीर विवेकी, सच के साथ खड़े होने वाले, ग़लत का प्रतिरोध करने वाले और विपन्न-वंचित- निर्बल-शोषित वर्ग के पक्ष में खड़े लेखक हैं। उनकी परिकल्पना में समतामूलक समाज है। वह स्वस्थ, सक्रिय और सार्थक रहते हुए दीर्घायु प्राप्त करें, यही कामना है। 


दामोदर दत्त दीक्षित
1/35, विश्वास खण्ड, गोमती नगर, 
लखनऊ-226010 (उ. प्र.)
मो. - 9415516721
ईमेल-radhadamodar21@gmail.com

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