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आज के यथार्थ का पूर्वाभास अर्थात् प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियाँ और यथार्थवाद (‘हार की जीत’ तथा ‘नमक का दारोगा’ के बहाने एक बातचीत)



शंभु गुप्त  

प्रेमचंद की अधिकांश कहानियों पर आदर्शोन्मुख यथार्थवाद का ठप्पा  लगाया गया है जो कहानी की अध्यापकीय आलोचना का नायाब उदाहरण है। कहा जाता है कि प्रेमचंद की दृष्टि क्रमश: विकसित होते हुए आदर्शोन्मुख यथार्थवाद से यथार्थवाद की ओर बढ़ी। प्रारंभिक कहानियों में आदर्शवाद अथच आदर्शोन्मुख यथार्थवाद है और इसीलिए वे कच्ची हैं और बाद की कुछेक कहानियाँ इसलिए परिपक्व हैं कि वे पूरी तरह यथार्थवादी हैं; इत्यादि।
कहना चाहता हूँ कि आदर्श और यथार्थ का यह कथित विभेद बहुत ही कृत्रिम है और खण्डित दृष्टि का परिणाम है। यह प्रेमचंद के कथा-सामर्थ्य  का समग्र आकलन नहीं करने देता। परिणाम यह होता है कि हम प्रेमचंद की उस वास्ताविक ताक़त तक नहीं पहुँच पाते जो उन्हें आज भी सर्वाधिक पठनीय और लोकप्रिय बनाए हुए है।
प्रेमचंद के विषय में आदर्श और यथार्थ के विभेद की इस दृष्टि के शिकार हमारे अध्यापक ही नहीं, कई जाने-माने लेखक और कहानीकार भी रहे हैं और हैं। यहाँ तक कि कई युवा कहानीकार भी बहुत-कुछ ऐसा ही सोचते देखे जाते हैं। अनेक वरिष्ठ कथाकार भी इस मर्ज़ के शिकार हैं। जैसे कि महत्वपूर्ण वरिष्ठ कथाकार संजीव भी। संजीव का एक लेख ‘निष्कर्ष’ (सुलतानपुर) के कहानी-विशेषांक (1989-90) में प्रकाशित हुआ है-‘हिन्दी कहानी : शिल्प के बदलते तेवर’- जिसमें शिल्प-प्रविधियों के विकास की दृष्टि से उन्होंने हिन्दी कहानी के इतिहास पर एक सिंहावलोकनीय दृष्टि डाली है। इसमें पहले तो उन्होंंने प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियों को सुदर्शन, कौशिक, भगवती प्रसाद वाजपेयी आदि के साथ जोड़ते हुए उन्हें ‘आदर्शवादी मिजाज’ की कहानियाँ घोषित किया है और फिर इनके सकारात्मक और नकारात्मंक पक्षों पर टिप्पणी की है। उनका कहना है-“इस आदर्शवाद के शिल्प के प्रभाव का सकारात्मक पक्ष यह रहा कि मूल्यों के प्रति आस्था जगी और नकारात्मक पक्ष यह रहा कि प्रभावान्विति कहीं-कहीं युटोपियन होकर रह गई।” (निष्कर्ष-15-16; पृ.- 181)। फिर प्रेमचंद की दो कहानियों पर उनकी यह टिप्पणी-“(‘नमक का दारोगा’ का सहज अर्थ ‘ईमानदारी की अन्‍तत: जीत होती है’ ही निकलता है और ‘हार की जीत’ का भी।)”(वही)। फिर उन्होंने लिखा है-“इनसे भिन्न यथार्थवादी कहानियाँ (जो उसी काल की हैं) तटस्थ विश्लेषण की राह पकड़ती हैं।” (वही)। [प्रेमचंद की नहीं; दूसरे लेखकों की; संभवत: संजीव का मंतव्य यही है।]। अस्तु,
संजीव की उक्त तुलना से ऐसा आभास होता है कि वे मानते हैं कि यथार्थवादी कहानियाँ तो तटस्थ  विश्लेषण करती हैं पर आदर्शवादी कहानियाँ- जिन पर यह मुलम्मा दरअसल चस्पाँ कर दिया गया है- ऐसा नहीं करतीं। इसके अतिरिक्त  आदर्शवादी कहानियाँ अपने टोटल ऐफ़ेक्ट में यूटोपियन भी होती हैं। मैं यहाँ सुदर्शन, कौशिक या वाजपेयी की बात नहीं करता; उनके यहाँ ऐसा हो सकता है; मैं यहाँ केवल प्रेमचंद की बात करता हूँ और मेरी धारणा है कि प्रेमचंद के यहाँ ऐसा नहीं है। प्रेमचंद की जिन कहानियों को आदर्शवादी कहा गया है, या कहा जाता रहा है, वे वस्तुत: यथार्थ का तटस्थ ही नहीं; बल्कि कहना चाहिए; दृष्टिसम्पन्न और आत्मीय तटस्थ विश्लेषण करती हैं। बात यहाँ केवल ‘तटस्थ विश्लेषण’ की चल रही है। क्या संजीव यह कहना चाहते हैं कि प्रेमचंद अपनी प्रारंभिक कहानियों में जिन चरित्रों को उठाते हैं और उनके परिवेश को उठाते हैं; वे सब के सब मनगढ़न्त या कृत्रिम या प्रायोजित हैं? यानी कि यथार्थ उनमें कहीं नहीं है? जबकि वस्तु-स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। ‘नमक का दारोगा’ और ‘हार की जीत’ को ही लें तो दरअसल अपने अन्तिम प्रभाव में ये दोनों ही कहानियाँ यूटोपियन नहीं हैं। यह एक बड़ा ही भोथरा और सरलीकृत निष्कर्ष है कि इनका सहज अर्थ ‘ईमानदारी की अन्‍तत: जीत होती है’ ही निकलता है। कम से कम मुझे तो ऐसा नहीं लगता। संजीव ऐसा संभवत: इसलिए मानते हैं कि ‘हार की जीत’ में जो लज्जावती प्रेम में सुशीला से हार रही थी, अन्त में विजयी होती है और सुशीला उसके रास्ते से हट जाती है। और,‘नमक का दारोगा’ में पं. अलोपीदीन मुंशी वंशीधर की सत्य, ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के आगे झुकते हुए उन्हें  अपनी एस्टेट का स्थायी मैनेजर बना देते हैं। संजीव का यह मानना पूरी तरह निराधार नहीं है क्योंकि कहानी फ़ौरी और ऊपरी तौर पर यही संदेश छोड़ती है। 
किंतु वस्तुत: यह कहानी की ऊपरी सतह है। कहानी अपने अंदर और भी बहुत कुछ छुपाए हुए है। और, प्रेमचंद के शिल्प की यह एक अद्वितीय विशेषता है कि जितना कुछ वह ऊपर-ऊपर कहते हैं: कहानी के अन्दंर उससे बड़ा और भारी सत्य कह रहे होते हैं। प्रेमचंद की प्रत्येक कहानी बहुआयामी और बहुस्तरीय है। ऊपर-ऊपर से और प्रत्यक्षतः देखने पर लगता है कि लज्जावती ‘हार की जीत’ के केन्द्र में है और यह कहानी स्त्री के त्याग, बलिदान, समर्पण और समझौतावाद पर लिखी गई है और दरअसल संजीव इसी प्रक्रिया के तहत अपने उक्त निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। किंतु वस्तुत: ऐसा है नहीं! इस कहानी के केन्द्र  में वस्तुत: शारदाचरण हैं जो उत्तम पुरुष-शैली में फ़्लैश-बैक में अपनी कथा कहते हैं। शारदाचरण एक ताल्लुकेदार हैं, रईस हैं; जिनका झुकाव साम्यवाद की ओर है। किंतु उनकी असलियत है कि “प्रत्येक रूपवती और क्‍वांरी युवती को देखकर उनकी ऐसी हालत हो जाती है कि उनका ईश्वर ही मालिक है।” (मानसरोवर-8; पृ.-161)। वे जब पहली बार प्रोफेसर भाटिया की पुत्री लज्जावती को देखते हैं और जब सुनते हैं कि लज्जावती उन्हें  नहीं, उनके मित्र केशव को अपना स्नेह-पात्र बनाना चाहती है तो वे ईर्ष्या-द्वेष से जल उठते हैं। यहाँ तक कि स्वयं लज्जा्वती पर भी व्यंग्य करने से नहीं चूकते। वे लज्जावती को पाने के लिए अपनी रियासत की तिलांजलि तक देने की भावुकता तक आ पहुँचते हैं, जिसकी वह ख़बर लेती है। (वही; पृ.-157)। शारदाचरण जब अपने इलाके में आ जाते हैं और वहाँ कौंसिल में जब एक दिन कश्मीर के दीवान लाला सोमनाथ कपूर की पुत्री सुशीला को देखते हैं तो उनकी हालत ऐसी हो जाती हैं-“मैं अब लज्जावती का हो चुका था, वही अब मेरे हृदय की स्वामिनी थी। मेरा उस पर कोई अधिकार न था लेकिन मेरे सारे संयम, सारी दलीलें निष्फल हुईं। जल के उद्वेग में नौका को धागे से कौन रोक सकता है।” (वही; पृ.-160)। शारदाचरण का विवाह लज्जावती से लगभग निश्चित हो चुका था पर जब उन्होंने सुशीला को देखा तो वे उसके कुँवारेपन और रूप-सौन्दर्य पर लट्टू हो गए। उनकी यह आशिकी यहाँ तक पहुँची कि “उनकी विचारशक्ति भी शायद अन्तर्धान हो  गयी थी।” (वही; पृ.-162)। इसी विवेकहीनता के चलते वे झूठ का आश्रय लेने को विवश होते हैं और लज्जावती को यह पत्र लिखते हैं कि उन्हें तपेदिक हो गया है। ताकि इस असाध्य बीमारी की ख़बर सुनकर वह उनसे पराड्.मुख हो जाए और उनका रास्ताे साफ़ हो जाए। क्योंकि उनके मन में अभी भी यह चोर है कि वे “अब भी लज्जावती को अपनी प्रणयिनी समझते थे। वह अब भी उनके हृदय की रानी थी, चाहे उस पर किसी दूसरी शक्ति का अधिकार ही क्यों न हो गया हो!” (वही;पृ.-162)। तपेदिक का बहाना लगाकर वे लज्जावती से विवाह के वादे से मुकरना चाहते हैं और उस पर भी तुर्रा यह कि वह उनसे घृणा भी न करे! हालाँकि उन्हें यह अहसास है कि ऐसा करते हुए वे पूरी तरह अपनी स्वार्थपरता के वशीभूत हैं (पृ. 163)। तो, यह है ‘हार की जीत’ कहानी का यथार्थ! क्या  यह यथार्थ नहीं है और क्या  इसे तटस्थ विश्लेषण नहीं कहेंगे?
अब हम आएँ इस कहानी की प्रभावान्विति पर जिसे संजीव युटोपियन कहते है।...लज्जावती को जब शारदाचरण की बीमारी की सूचना मिलती है तो वह पहले पत्र के द्वारा और फिर स्वयं आकर अपना अहेतुक स्नेह और समर्पण प्रदान करती है। कहानी में यह स्पष्ट‍ नहीं है कि जो लज्जावती पहले शारदाचरण को अपनी नज़रों से गिराए थी, उसे तिरस्कार और क्रूर मुस्कान से देखती-बोलती थी, यकायक बाद में ऐसा क्यों और क्या हो गया कि उनके प्रति उसमें “श्रद्धा और प्रेम की मात्रा दिनों-दिन बढ़ती जाती थी।” (पृ.158)। यानी कि केशव के प्रति उसका मोह-भंग क्यों हुआ? कहानी में जो संकेत मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि लज्जावती भी साम्यवाद के प्रति मोहित थी। उसका झुकाव प्रारंभ में केशव के प्रति इसलिए था क्योंकि वह गरीब था। लज्जावती मानती थी कि यह चूँकि गरीब है, अत: इसका साम्यवाद अंत तक जीवित रहेगा। शारदाचरण चूँकि समृद्ध थे और संभ्रांत परिवार से थे, अत: लज्जा को लगता था कि इनके साम्यवाद की कालान्तर में फूँक निकल जाएगी। किंतु स्थितियाँ कुछ दूसरा ही मोड़ लेती हैं। केशव; जिससे लज्जा को बहुत आशाएँ थीं; अंत में पोच साबित होता है। जबकि शारदाचरण आशा के विपरीत अपनी आस्थाओं पर दृढ़ सिद्ध होते हैं। केशव के बारे में कहानी में बताया गया है कि वह लज्जा के प्रति प्रारंभ में भी विरक्त था तथा बाद में भी वह उदासीन ही था। तीन साल बाद तो वह जीवन से असंतुष्ट ही हो गया था! तो, सवाल यह है कि कहानी में आख़िर लज्जाावती की स्थिति क्या् है? और, यह कहना होगा कि प्रेमचंद यहाँ अस्थिर हैं और इस कहानी का यह सबसे बड़ा छिद्र है। प्रश्न है कि लज्जावती आख़िर आकर्षित किसके प्रति है? केशव या शारदाचरण, दोनों में से किसी के प्रति या फिर साम्यावाद के प्रति? या फिर इन सबके स्थान पर वह केवल अपने पिता की इच्‍छा की पुतली है? लज्जावती का यह अनिश्चय और डाँवाडोलपन केवल लज्जावती के चरित्र की नहीं, अपितु इस कहानी की भी सबसे बड़ी कमज़ोरी है। लज्जावती का यह कथन इसका प्रमाण है- “परमात्मा साक्षी है, मैं विवश हूँ, मुझे अभी तक स्वयं मालूम नहीं है कि मेरी डोंगी किधर जाएगी;” (वही; पृ.-157)। लज्जावती, यों, कहती है कि - “मैं एक ऐसे गहन विषय में, जिस पर दो प्राणियों के समस्त  जीवन का सुख-दुख निर्भर है, भावुकता का आश्रय नहीं ले सकती। शादी बनावट नहीं है।” (वही)। जबकि असलियत यह है कि कहानी में प्रारंभ से लेकर अंत तक वह भावुकता के चंगुल में बुरी तरह फँसी हुई है! केशव के प्रति प्रारंभिक आकर्षण के मूल में साम्यवाद के प्रति उसके झुकाव की भावुकता ही है, बाद में शारदाचरण के प्रति उसकी श्रद्धा और प्रेम की बढ़ोतरी के मूल में भी उसकी भावुकता ही है और इसके पश्चात् शारदाचरण की ज़िंदगी में सुशीला को आया हुआ देख शारदा से कन्नी काटने को तत्पर होने में भी उसकी भावुकता ही है। तो, सवाल फिर वही और वहीं का वहीं है कि आख़िर कहानी में और कहानी से ज़्यादा स्वयं अपनी ज़िन्दगी में एक स्त्री  के रूप में लज्जावती की स्थिति क्या है? यानी कि वह कहाँ से संचालित है? अब तक यह स्पष्ट हो गया है कि वस्तुत: अपने विषय में वह कहीं भी स्थिर या सुनिश्चित नहीं है। एक बात जो उसके विषय में निश्चित रूप से कही जा सकती है, वह यह है कि वह प्रारंभ से लेकर अंत तक भावुकता की पुतली है! इस भावुकता और अनिश्चय का परिणाम कुल मिलाकर क्या होता है? सिर्फ़ यह कि लज्जावती को अंत में अपने पिता की इच्छा और दिशा-निर्देश पर निर्भर हो जाना पड़ता है। मज़े की बात यह है कि कहानी का शिल्प प्रत्यक्षत: लज्जावती की इस स्थिति को सामने नहीं लाता बल्कि परिस्थितियाँ और घटनाएँ स्वयं लज्जावती को इस ओर ले आती हैं। और इसका कारण, मेरी दृष्टि में, वस्तुत: यह है कि प्रेमचंद के लिए कहानी के केन्द्र में लज्जावती है ही नहीं; केन्द्र  में शारदाचरण हैं और विभिन्न घटनाएँ और परिस्थितियाँ हैं। यह प्रेमचंद की कहानी-कला की अप्रतिम विशेषता है कि वे कहानी को इस तरह कहते हैं कि कहानी अंत में कुछ से कुछ हो आती है! प्रेमचंद कहानी को अपने हाथ में नहीं रखते बल्कि उसे अपने पात्रों और घटनाओं के हवाले कर देते हैं। उनकी भूमिका सिर्फ़ यह होती है कि वे इन पात्रों और घटनाओं को एक-दूसरे से भिड़ाते, एक-दूसरे से प्रभावित कराते आगे बढ़ते चलते हैं। और इस तरह कहानी ऊपर-ऊपर से जो कह रही होती है, उसकी आंतरिक ध्वनि कुछ और ही निकल रही होती है। और यह बात उनकी परवर्ती और तथाकथित रूप से यथार्थवादी कही जाने वाली कहानियों पर ही लागू नहीं होती, उनकी आदर्शवादी कही जाने वाली प्रारंभिक कहानियों पर भी लागू होती है। वस्तुत: सत्य तो यह है कि प्रेमचंद यथार्थ से कहीं पीछा नहीं छुड़ाते। हाँ, इतना अवश्य  कहा जा सकता है कि अपनी प्रारंभिक कहानियों में प्रेमचंद कहानी को जितना ढीला और स्थितियों-परिस्थितियों के हवाले छोड़े रखते हैं, परवर्ती कहानियों में वे ऐसा नहीं होने देते। बहरहाल। संजीव ने कहा कि प्रेमचंद की प्रारंभिक कहानियों का मिज़ाज़ आदर्शवादी है! तो मेरा सवाल यह है कि क्या भावुकता ही आदर्शवाद है? ‘हार की जीत’ में लज्जावती जिस भावुकताजन्य अनिश्चय की अंत तक शिकार रहती है, क्या यही आदर्शवाद है? और क्या यही ईमानदारी है? और फिर सवाल यह भी है कि ‘हार की जीत’ में आख़िर जीत किसकी होती है? मेरी दृष्टि में; कम-से-कम लज्जावती की तो नहीं ही होती! जीत कुल मिलाकर परिस्थितियों की होती है। दूसरे शब्दों  में कहे तो यथार्थ की होती है! और वह यथार्थ क्या है? कुल मिलाकर यही कि प्रेमचंद जिस कालावधि में यह कहानी लिख रहे थे, उस समय की स्थितियाँ यही थीं! स्पष्‍ट है कि प्रेमचंद यहाँ किसी की जीत या हार नहीं दिखला रहे, बल्कि वे उन स्थितियों-परिस्थितियों को दिखला रहे हैं, जो उस समय थीं। उनके पात्र जो कुछ हैं, इन्हीं स्थितियों-परिस्थितियों के प्रतिक्रियास्वरूप हैं। प्रेमचंद यहाँ बहुत कम हैं। बल्कि कहना चाहिए, वे यहाँ हैं ही नहीं। अत: यह कहना कि इन प्रारंभिक कहानियों या मिज़ाज़ आदर्शवादी है; एक व्यर्थ का लेबल है। प्रेमचंद की ये कहानियाँ यथार्थ का तटस्थ  विश्लेषण करती हैं। यहाँ इतना अवश्य है कि वह तटस्थता प्रच्छन्न है। यही बात प्रेमचंद की ‘शांति’ कहानी के बारे में भी कही जा सकती है।
OO
अब हम ‘नमक का दारोगा’ को लें। संजीव [यहाँ यह एक बार फिर स्पष्ट मानना चाहिए कि संजीव यहाँ सिर्फ़ एक उदाहरण हैं। हिन्दी कथाकारों में ही नहीं, आलोचकों में भी बहुत-से लोगों की यही धारणाएँ और मान्यताएँ अरसे से चली आती हैं; जो संजीव ने व्यक्त की हैं। प्रेमचंद की कहानियों की पुनर्व्याख्या या पुनर्मूल्यांकन की अभी भी नए सिरे से ज़रूरत है।] ने कहा कि ‘नमक का दारोगा’ का सहज अर्थ ‘ईमानदारी की अंतत: जीत होती है' ही निकलता है।’ मेरा विचार है कि कम से कम इस कहानी के विषय में इससे बड़ा झूठ कोई नहीं हो सकता। इस कहानी के विषय में, फिर वही बात कही जा सकती है कि वस्तुत: इस कहानी के केन्द्र में मुंशी वंशीधर (नमक के दारोगा) नहीं हैं - जैसा कि ऊपर-ऊपर से लगता है- बल्कि ज़मींदार पं. अलोपीदीन हैं। इस कहानी में यदि ईमानदारी की ही जीत होनी होती तो कहानी वहीं ख़त्म हो जाती जहाँ “धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपदीन ने एक हृष्ट -पुष्ट मनुष्य को हथकड़ियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्च्छित होकर गिर पड़े।” (वही; पृ.-271)। या फिर वहाँ, जहाँ “वंशीधर चुपचाप खड़े थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र।” (वही; पृ.-272)। किंतु कहानी यहाँ ख़त्म नहीं होती बल्कि आगे चलती है। कहानी दरअसल वहाँ भी ख़त्म नहीं होती, जहाँ अदालत में, सत्य को क़ानून की अंधी निगाहों द्वारा पं. अलोपीदीन के ‘एक बड़े भारी आदमी’ के चलते, परे कर दिया जाता है और मुंशी वंशीधर की ईमानदारी को उद्दण्डता और विचारहीनता क़रार दिया जाता है; बल्कि वहाँ खत्म होती हैं, जहाँ ईमानदारी पूरी तरह पस्त  है, निलंबित है, लज्जित और शर्मसार है! लेकिन प्रेमचंद कहानी को दरअसल यहाँ भी ख़त्म नहीं करते! वे कहानी को जहाँ ले जाकर पूरा करते हैं; कहानी वस्तुत: वहाँ से शुरू होती है। और कहना होगा कि यह प्रेमचंद के अपने समय और युग की एक बहुत बड़ी सच्चाई है, जिसका स्वतंत्र भारत में निरंतर विकास होता चला है। पं. अलोपीदीन मुंशी वंशीधर को अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर बनने का न्यौता देते हैं और मुंशी वंशीधर परम कृतज्ञ भाव से उसे स्वीकार कर लेते हैं! यहाँ संजीव को या किसी को भी, यह भ्रम होना स्वाभाविक है कि यह मुंशी वंशीधर की सत्य-ईमानदारी की जीत है! इस भ्रम के पुष्ट  होने के कई आधार भी कहानी में हैं। मलसन, अब तक पं. अलोपीदीन उनकी कर्तव्य-परायणता, सत्य और ईमानदारी के कायल हो चुके हैं। वे वंशीधर के सामने अपनी पराजय स्वीकार करते हैं और यह कहने स्वयं चलकर उनके यहाँ आते हैं। वे मुंशी वंशीधर के समक्ष उन्हें  नियुक्त करने की भिक्षा-सी माँगते हैं। (द्रष्टव्य; वही; पृ.- 274-75)। 
पर, वस्तुत: इन घटनाओं की प्रतिध्वनि क्या है और प्रेमचंद वस्तुत: यहाँ कहना क्या चाहते हैं; यह सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात है! और वह बात यह है कि अब जमींदार पं. अलोपीदीन मुंशी वंशीधर का अपने हित में इस्तेमाल करेंगे। यह इस कहानी से प्रतिध्वनित होने वाली वह सच्चांई है जिसे संभवत: प्रेमचंद भी उस समय (इस कहानी को लिखते समय) न जानते होंगे। पं. अलोपीदीन कैसे आदमी हैं, उनकी क्या प्रवृत्तियाँ हैं और वे क्या् चाहते हैं; यह इस कहानी में पूरी तरह स्पष्ट  है। उनका चरित्र कहानी में साफ़ है। अत: उनके विषय में यहाँ कुछ कहना पिस्टपेषण ही होगा। प्रश्न यह है कि पं. अलोपीदीन मुंशी वंशीधर की ओर क्यों झुके तथा उन्हें अपनी जायदाद का मैनेजर क्यों बनाना चाहते हैं? और, उत्तर स्पष्ट है कि वे अब उनकी प्रतिभा, कर्तव्यपरायणता, ईमानदारी, निष्ठा और सत्य से अपना व्यक्तिगत लाभ उठाना चाहते हैं। मुंशी वंशीधर तो अलोपीदीन के यहाँ मैनेजरी करते हुए भी सत्य, ईमानदारी, कर्तव्यपरायणता आदि पर अडिग रहेंगे पर दरअसल किसके लिए! क्या‍ मनुष्य-मात्र या सम्पू‍र्ण समाज और देश-हित को दृष्टिगत रखते हुए? संभवत: नहीं! वे अब सिर्फ़ पं. अलोपीदीन के वफ़ादार रहेंगे। (प्राइवेट सेक्टर के क़ायदे-क़ानून यही हैं।)। अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मुंशी वंशीधर का आगे चलकर क्या हश्र हो जाने वाला है! क्योंकि कहानी में यह कहीं संकेत नहीं है कि पं. अलोपीदीन का कायाकल्प या हृदय-परिवर्तन हो गया है और वे अब मुंशी वंशीधर जैसे सत्य, ईमानदारी और धर्म के रास्ते पर लौट आए हैं। उनका चरित्र पूर्ववत है। वे अब भी सत्य, न्याय, धर्म, नियम-क़ानून इत्या्दि को अपनी जेब में रखकर डोलने वाले ज़मींदार हैं और यही रहेंगे। अलबत्ता मुंशी वंशीधर का कायाकल्प‍ आगे चलकर अवश्य  हो जाएगा और वे भी उस ज़मात में शामिल हो जाएँगे जिसका ज़िक्र प्रेमचंद ने इस कहानी के अदालत वाले प्रसंग में किया है। (द्रष्टव्य; मानसरोवर, भाग-8; पृ.- 272-73)। पं. अलोपीदीन का तो हृदय-परिवर्तन होता ही नहीं है। पात्रों के हृदय-परिवर्तन या कि मानस-परिवर्तन की एक विशिष्ट प्रक्रिया या एक विशेष शिल्प प्रेमचंद के यहाँ हम पाते हैं। हृदय-परिवर्तन से पूर्व उनके पात्र एक भीषण ऊहा-पोह, चेतना-उपचेतना के भारी अन्तर्द्वन्द्व  और भविष्यदर्शी अन्तर्मंथन से गुज़रते हैं। और यह प्रसंग काफ़ी देर तक उनकी कहानियों में चलता है। ‘मंत्र’ (भगत) और ‘शांति’ (मानसरोवर; भाग-7) कहानियाँ इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। कहना न होगा कि पं. अलोपीदीन इस प्रक्रिया से नहीं गुज़रते। कहानी के मंच पर अदालत में जीतने के बाद वे मुंशी वंशीधर के घर पर ही नमूदार होते हैं। इस बीच वे कहानी से ग़ायब हैं। इस बीच कहानी में या तो मुंशी वंशीधर हैं या फिर उनके पिता बूढ़े मुंशी जी। और दरअसल अन्तर्मंथन और एक प्रकार के ‘आत्मबोध’ और आत्मग्लानि से ये ही गुज़रते हैं जो पं. अलोपीदीन के साथ उनके वार्तालाप में भी प्रकट है। (द्रष्टव्य; मानसरोवर; भाग-8; पृ.- 273-75)। अत: पं. अलोपीदीन का वंशीधर के समक्ष उस तरह झुकना और विनय करना एक छद्म है और यह उनकी वर्गगत प्रवृत्ति है। सुधीजन थोड़ा खुली आँखों से देखें कि वस्तुत: इस कहानी में जीत अन्तत: किसकी हुई है? ईमानदारी की या किसी और चीज़ की!
यहाँ यह कहना पड़ता है कि प्रेमचंद इस कहानी में अनजाने ही हमारे देश के उस यथार्थ का पूर्वाभास करा देते हैं जिसे हम आज प्रत्यक्षत: अपनी आँखों से देख रहे हैं। आज कौन नहीं जानता कि हमारे यहाँ प्रतिभाओं और व्यक्तियों की सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता इत्यादि का इस्तेमाल समर्थ लोग अपने हित में कर रहें हैं!

(1992; पुनरीक्षण : 2025)
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शंभु गुप्त
1953 में ब्रज-प्रदेश राजस्थान के भरतपुर ज़िले के हलैना नामक गाँव में जन्म।
प्रारम्भिक-माध्यमिक शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल में। उच्च शिक्षा भरतपुर एवं आगरा में। आगरा के प्रसिद्ध कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ से एम.ए. तथा पी-एच.डी.
तीस वर्षों तक उच्च शिक्षा में प्राध्यापक। राजस्थान के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में हिन्दी प्राध्यापक/विभागाध्यक्ष तथा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा (महाराष्ट्र) में स्त्री अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद पर आठ वर्ष कार्यरत रहने के बाद फ़िलहाल सेवानिवृत्त। 
पत्रकारिता तथा नाट्य-कर्म से जुड़ाव।अभिनय एवं पटकथा-लेखन।
30 वर्षों से आलोचना में सक्रिय। हिन्दी की समस्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना प्रकाशित।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की त्रैमासिक पत्रिका ‘बहुवचन’ का दो वर्ष तक सह संपादन।                                                                                                                      
पुरस्कार-सम्मान : ‘अभिव्यक्ति’युवा आलोचक पुरस्कार-1992, रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान-2008, स्पंदन आलोचना पुरस्कार-2009, अर्जुन कवि जनवाणी पुरस्कार-2011, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचना सम्मान- 2020, विशिष्ट साहित्यकार सम्मान-2023 (राजस्थान साहित्य अकादमी)।
प्रकाशित पुस्तकें : मैंने पढ़ा समाज, कहानी: समकालीन चुनौतियाँ, दो अक्षर सौ ज्ञान, अनहद गरजै, साहित्य-सृजन : बदलती प्रक्रिया, कहानी : वस्तु और अन्तर्वस्तु, कहानी की अन्दरूनी सतह, कहानी : यथार्थवाद से मुक्ति, डिबिया में धूप।  
विदेश-यात्रा : दक्षिण अफ्रीका (9वां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2012,जोहान्सबर्ग) तथा 2018 में सिंगापुर की निजी यात्रा।      
o शंभु गुप्त,21 , सुभाष नगर , एन ई बी , अग्रसेन सर्किल के पास , अलवर-301 001 (राजस्थान) 
फ़ोन- 8600552663, 9414789779; ई-मेल – shambhugupt@gmail.com


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