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पूस की रात : हल्कू दरिद्रता से भय नहीं खाता, शीत से भय खाता है


दीपक शर्मा 

सूत्रों के अनुसार ‘पूस की रात’ कहानी पहली बार माधुरी के मई, 1930 अंक में प्रकाशित हुई थी। 
कैसे तो प्रेमचंद ने अपनी इस कहानी की भूमिका बांधी है!
‘पूस की अंधेरी रात! जब आकाश के तारे भी ठिठुरते हुए मालूम देते थे।’ ( ‘पूस की रात’ से उद्धृत )
और एक निर्धन किसान, हल्कू (प्रेमचंद यहाँ उसका परिचय भी उसके ‘भारी भरकम डील’ की बात करते हुए अपने उस्तादाना अंदाज़ में लिखते हैं ‘जो उसके नाम को झूठ सिद्ध करता था’) नीलगाय से अपनी फ़सल बचाने के लिए अपने घर से गाढ़े की एक पुरानी चादर के बल पर अपने कुुत्ते, जबरा के साथ अपने खेत की रखवाली के लिए निकलता है। ( शीत से अपने बचाव के लिए कंबल खरीदने हेतु जो तीन रुपये उसने जमा कर रखे थे, वे रुपये उसे उसका पुराना कर्ज़ वसूल करने आए ‘सहना’ को दे देने पड़े थे ताकि उसे फिर से कर्ज़दार न बनना पड़े। )
       कहानी के केंद्र में पूस माह की प्रचंंड शीत है। 
       उससे जूझ रहे हल्कू के क्षीण प्रयास हैं।
       और जबरे की एहतियाती चौकसी है।
       अपने खेत के किनारे, ईख के पत्तों की छतरी के नीचे, बांस के एक खटोले पर जब उसकी चादर हल्कू की ठिठुरन रोक नहीं पाती, तो पहले तो उसे दूर करने हेतु वह एक के बाद दूसरी बार, फिर तीसरी के बाद चौथी बार पीते-पीते वह दस बार अपने हुक्के की चिलम पीता है।
       फिर भी जब शीत का प्रकोप उस पर हावी ही रहता है तो वह जबरे के सिर को थपथपाते हुए जगाता है और उसकी देह से उठ रही भयंकर दुर्गँध के बावजूद उसकी देह से ऊष्मा लेने हेतु उसे अपने पास सटकाता है। ( प्रेमचंद के प्रिय कथाकार गोर्की की 1894 में प्रकाशित हुई  कहानी ‘वन औटम नाइट’ की याद दिलाता हुआ)।
       कड़ाके की ठंड के आगे उसका वह प्रयत्न भी जब विफल रहता है, तो हल्कू अरहर के खेत से कुछ पौधे उखाड़ता है, उनका झाड़ू बना कर एक सुलगता हुआ उपला लेकर बगल वाले आम के पेड़ से पतझड़ द्वारा झाड़ी गईं कुछ सूखी पत्तियाँ बटोरता है और उनसे ‘पत्तियों का पहाड़’ तैयार कर लेता है।
        थोड़ी देर में अलाव जल उठता है और हल्कू उसके सामने बैठ कर आग तापने लगता है। जब उसके बदन में गर्मी आती है, उसे आलस्य ‘दबा’ लेता है।
       ऐसे में जबरा जब आहट पाकर भौंक कर खेत की ओर भागता है और जानवरों की, शायद नीलगायों ही के कूदने- दौड़ने की आवाज़ें हल्कू के कान में पड़ती हैं और उसे मालूम भी देता है कि खेत में वे चर रही हैं ,’चबाने की चर-चर के साथ,’ फिर भी वह अपनी जगह से हिलता नहीं। केवल ‘लिहो- लिहो! लिहो!!’ चिल्लाता है।
       "उसे अपनी जगह से हिलना ज़हर लग रहा था। कैसा दंदाया हुआ था। इस जाड़े-पाले में खेत में जाना, जानवरों के पीछे दौड़ना असह्य जान पड़ा.."
       "...जानवर खेत चर रहे थे। फ़सल तैयार है। कैसी अच्छी खेती थी, पर ये दुष्ट जानवर उसका सर्वनाश किए डालते हैं..." ( ‘पूस की रात’ से उद्धृत )
        इस बीच हल्कू पक्का इरादा कर के उठता तो है, कुछ कदम चलता भी है किंतु ‘हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका’ जब उसे काटता है तो वह फिर बुझते हुए अलाव के पास आ बैठता है और राख को कुरेद कर अपनी ठंडी देह गरमाने लगता है।
       "अकर्मण्यता ने रस्सियों की भांति उसे चारों तरफ़ से जकड़ रखा था..."  ( ‘पूस की रात’ से उद्धृत )
       और वह उसी राख के पास गर्म ज़मीन पर चादर ओढ़ कर सो जाता है। 
       सवेरे जब उसकी नींद खुलती है तो उसे चारों तरफ़ धूप पसरी हुई मिलती है।
       मुन्नी के साथ अपने खेत की डांड़ पर आकर देखता है कि उसका सारा खेत ‘रौंदा’ पड़ा है और जबरा मड़ैया के नीचे चित लेटा है, मानों उसमें प्राण ही न हों।
        और जब मुन्नी उदास होकर कहती है, ‘‘अब मजूरी कर के मालगुज़ारी भरनी पड़ेगी,’’ तो हल्कू प्रसन्न मुख से कहता है, ‘‘रात को ठंड में यहाँ सोना तो न पड़ेगा।’’
        हल्कू की अनुभूत यह प्रसन्नता ही प्रेमचंद का वह जादुई तत्व है, जो इस कहानी को एक ‘कथा-वैचित्र्य’, एक ‘क्लासिक’ की श्रेणी में इसे लाता है। हल्कू के ‘निजत्व की परिधि’ में हमें सरकाता हुआ। उसके ‘सूक्ष्म मन’ को हमारे समीप लाता हुआ। उसे मनोविज्ञान के घेरे में घेरता हुआ। हममें उसके प्रति एकात्म भाव उड़ेलता हुआ। यही वह जादुई कथन है जो यथार्थवादी परिवेश में कही गई इस कहानी के द्वारा प्रेमचंद एक भावात्मक मानवीय सत्य के साथ- साथ एक अन्यायपूर्ण सामाजिक तथ्य भी हमारे सामने रखते हैं। 
       हल्कू दरिद्रता से भय नहीं खाता, शीत से भय खाता है।
      दरिद्रता उसके लिए एक दुष्कर स्थिति ज़रूर है किंतु उसकी भयावहता से निपटने के लिए उसके पास ‘मजूरी’ करने का विकल्प है, जबकि शीत उसके लिए वह अजेय व अभेद्य बैैरी है, जिससे निपटने के साधन वह कभी जुटा न पाएगा। क्योंकि यह साधनविहीनता उसे विरासत में मिली है। सदियों से चले आ रहे सामाजिक अन्याय की परिणति है। और विडंबना यह कि शीत तो एक वर्ष के कालखंड में केवल एक निश्चित अवधि ही रखती है, जबकि अनिश्चित काल से चली आ रही हल्कू की नियति की कोई अवधि नहीं।


दीपक शर्मा
जन्म : 30 नवम्बर, 1946 (लाहौर, अविभाजित भारत)। मूलत: कथाकार। दो दर्ज़न से अधिक महत्वपूर्ण कथा संग्रह। लखनऊ  क्रिश्चियन कॉलेज के स्नातकोत्तर अंग्रेज़ी विभाग से अध्यक्षा, रीडर के पद से सेवानिवृत्त।
संपर्क : बी-35, सेक्टर-सी, निकट अलीगंज पोस्ट ऑफ़िस, अलीगंज,  लखनऊ-226024  

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