धीरेंद्र प्रताप सिंह
कहानी क्या है? राजा-रानी का किस्सा या हीर-रांझा का इश्क़। ना। कहानी के हिस्से तो बहुत कुछ है। इतना कुछ कि दो बैलों के किस्सा के जरिए प्रेमचंद कहानी का मिजाज़ रास रंग से उठाकर आज़ादी के मेयार तक ले आए। दो बैलों की कथा को आज़ादी का परवाना बना दिया। बल्कि कहें आज़ादी का मशाल ही उठा लिया है।
'दो बैलों की कथा' नामक कहानी में प्रेमचंद ने केवल आज़ादी का सवाल ही नहीं उठाया है बल्कि मानवीय मूल्य, पशु-प्रेम, मैत्री और वीरता का भी अद्भुत किस्सा कह डाला है।
मोटे तौर पर यह कहानी हीरा और मोती नामक दो बैलों की है। उनकी दोस्ती की मिसाल की है। पशु प्रेम की है। मनुष्य और पशु के आत्मीय रिश्तों की मिठास की है। निर्मम मनुष्यों की निर्ममता की है। एक छोटी सी बच्ची के शिशु हृदय की उज्ज्वलता की है। लेकिन, इसमें केवल यही नहीं है। इस कहानी में जीवन से थके-हारे निराश लोगों की मानसिक दासता का भी वर्णन है। दो बैलों की जाग्रत चेतना, अद्भुत साहस और अनवरत संघर्ष की भी गाथा है। वस्तुत: यह कहानी अपने शिल्प और कहन के आंतरिक स्तर पर आजादी के मायने का सच्चा पाठ भी है।
कहानी का संक्षिप्त मजमून बताता चलूं कि इसमें दो बैल हैं - हीरा और मोती। ये दोनों अपने व्यवहार और कर्म से 'बैल' की परिभाषाओं के पूर्वग्रह को तोड़ते हैं। इनके मालिक-मुख्तार का नाम है झूरी काछी। झूरी अपने बैलों का बहुत ख़्याल रखता था। झूरी के साले का नाम था गया। एक दिन उसका साला हीरा और मोती को अपने घर ले गया। दोनों बैल वहाँ पहुँचते ही एकदम दुःखी हो गए। नए घर, बेगानी जगह उनको एकदम नहीं भाई। वह वहाँ से खूंटा तोड़कर भाग निकले। झूरी के घर, अपने घर पुनः आ गए। गया उन्हें पुनः लाया। अबकी बार गया उनसे जमकर काम लिया। खाने को उनके आगे रूखा-सूखा फेंक देता। अपने बैलों को खली-चूनी सब कुछ। अपमानित होकर और स्नेह न पाकर हीरा और मोती काम करने से पीछे हट गए। यह देखकर गया ने उन्हें बुरी तरह पीटा। हीरा व्यवहार से थोड़ा नरम था और मोती गुस्सैल। कई बार मोती गया को जान से मार देने को उद्धत होता है, लेकिन हीरा रोक देता है।
गया के घर एक छोटी बच्ची थी। वह बैलों की पिटाई देखकर बड़ी दुःखी हो जाती। एक दिन उसने बैलों को चुपके से खोल दिया। बैल भाग गए। रास्ते में एक हरी मटर के खेत में घुस गए। पकड़े गए। मारे गए। उन्हें कांजीहौस में बंद कर दिया गया। वहाँ के बाड़े को उन्होंने तोड़ डाला। पहले वहाँ बंद अन्य जानवरों को भगाए। फिर खुद भागे। पहले तो मोती की मोटी रस्सी टूट गई थी। वह चाहता तो निकल सकता था। लेकिन, हीरा की वजह से मोती रुक गया। दोस्ती खातिर रुक गया। सो दोनों पकड़ भी लिए गए। उनकी नीलामी हुई। कसाई के हाथों गए। लेकिन, अंत तक हिम्मत नहीं हारी। वह सब कसाई के हाथ से भी निकल भागे। झुरी के घर पुनः आ गए। पूरे गाँव में उनका अभिनंदन हुआ।
इस कहानी को कैसे पढ़ें? अभिधा में तो यह कहानी बेशक सीधे दिल में उतर जाती है, लेकिन इस कहानी को थोड़ा ठहरकर, थोड़ा उधेड़कर, इसके छिपाव पर थोड़ा जोर देकर पढ़ें तो कितना कुछ खुल जाता है। प्रेम और करुणा का सागर उमड़ पड़ता है। उमंग और उछाह बढ़ जाता है। रोमांच और उन्मुक्त हँसी फूट पड़ती है। शुष्क हृदय तरल हो जाता है। सुप्त मस्तिष्क जाग्रत हो जाता है। आज़ादी का अर्थ साकार होने लगता है। पशुओं से लगाव का यह किस्सा बताता है कि दोस्ती, दया, करुणा और प्रेम के मूल्य कितने ऊंचे दर्जे के होते हैं।
प्रेमचंद ने दो बैलों के जरिए दोस्ती की जो मिसाल दी है, वह जीवन में सिक्कों की तरह खनकना चाहिए। बैलों के बीच मैत्री का जो आलम था, उसे दर्ज करते हुए प्रेमचंद बताते हैं, जिस वक़्त ये दोनों बैल हल या गाड़ी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते, उस वक़्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज़्यादा-से-ज़्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिन-भर के बाद दुपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लिया करते। नाँद में खली-भूसा पड़ जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता, तो दूसरा भी हटा लेता था।
एक बार जब दोनों बैलों के बीच गलतफहमी की स्थिति बन गई तो मित्रता के प्रसंग में वह दृश्य भी बड़ा मजेदार है। हुआ यूँ कि हीरा-मोती जब गया के घर से भागे तो रास्ते में एक मटर के खेत में घुस गए। वहाँ पेट भर खाए। पुनः आपस में मस्ती करने लगे। वहाँ अचानक अजीब स्थिति बन गई। बकौल प्रेमचंद, जब पेट भर गया, दोनों ने आज़ादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई क़दम पीछे हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध आ गया। सँभलकर उठा और मोती से भिड़ गया। मोती ने देखा- खेल में झगड़ा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया। इतना ही नहीं जब उसी मटर के खेत में गाँव वालों के द्वारा हीरा घेर लिया गया और फंस गया तो वहाँ से बच निकला मोती वापस लौट आया। प्रेमचंद लिखते हैं, हीरा ने देखा, संगी संकट में हैं, तो लौट पड़ा। फँसेंगे तो दोनों फँसेंगे। रखवालों ने उसे भी पकड़ लिया।
मैत्री के संदर्भ में एक और प्रसंग की चर्चा जरूरी है। मटर के खेत से जब दोनों बैलों को पकड़कर कांजीहौस में जकड़ दिया गया तो दोनों बैल हार नहीं मानते। वहाँ से निकलने के उपाय पर लग जाते हैं। वह जहाँ बंद से उस दीवाल को तोड़ने लग जाते हैं। लेकिन, फिर हीरा पकड़ में आ जाता है। मोती तो आज़ाद हो चुका था। भाग सकता था, लेकिन मित्र को संकट में देख लौट आता है। हीरा जब अपने को छोड़कर उसे निकल भागने को कहता है, तो मोती कहता है, 'तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड़ गए, तो मैं तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ?'... मोती ने गर्व से बोला- 'जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पड़ा, उसके लिए अगर मुझे मार पड़े, तो क्या चिंता!'
औपनिवेशिक भारत में आज़ादी का जो आलम था, उसे इस कहानी में हीरा-मोती के संघर्ष और साहस के मार्फत भी समझा जा सकता है। प्रेमचंद ने दो बैलों के आज़ादी के जुनून को जिस तरह दर्ज़ किया है, मानो आज़ादी के परवानों का इतिहास लिख डाला है। हीरा और मोती जब कांजीहौस में बंद कर दिए जाते हैं तो देखते हैं कि तमाम जानवर वहाँ पहले से ही बंद हैं। सूखे-मरियल। उनको वहाँ खाने को कुछ मिलता नहीं। तब भी कुछ जानवर वहीं संतुष्ट थे। ख़ैर, हीरा और मोती वहाँ से आज़ाद होने के उपायों पर विचार करते हैं। जिससे और भी जानवरों को वहाँ से आज़ाद कराया जा सके। कांजीहौस की दीवाल कच्ची मिट्टी की बनी थी। दोनों बैल सिंग से दीवाल गिराने में लग जाते हैं। आज़ादी के जुनून में दीवाल गिरा भी देते हैं। वहाँ का पूरा दृश्य और दोनों बैलों के संवाद को जिस तरह प्रेमचंद ने दर्ज किया है, वह आज़ादी के जुनून, मायने और मेयार को बताने के लिए पर्याप्त है। इस बात की तस्दीक कहानी के इस उद्धृत अंश से की जा सकती है।
हीरा मज़बूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गड़ा दिए और ज़ोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड़ निकल आया। फिर तो उसका साहस बढ़ा। इसने दौड़-दौड़कर दीवार पर चोटें कीं और हर चोट में थोड़ी-थोड़ी मिट्टी गिराने लगा। उसी समय काँजीहौस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाज़िरी लेने आ निकला। हीरा का उज्जडपन देखकर उसे कई डंडे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।
मोती ने पड़े-पड़े कहा—'आख़िर मार खाई, क्या मिला?'
'अपने बूते-भर ज़ोर तो मार दिया।'
'ऐसा ज़ोर मारना किस काम का कि और बंधन में पड़ गए।'
'ज़ोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बंधन पड़ते जाएँ।'
'जान से हाथ धोना पड़ेगा।'
'कुछ परवाह नहीं। यों भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती, तो कितनी जाने बच जातीं। इतने भाई यहाँ बंद हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन यही हाल रहा, तो सब मर जाएँगे।'
'हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी ज़ोर लगाता हूँ।'
अंततः दीवार गिर जाती है। हीरा और मोती पहले वहाँ कैद तमाम जानवरों को भगा देते हैं। उनके भागने की बारी आई तो हीरा की रस्सी टूट न सकी। मोती आज़ाद था। चाहता तो भाग सकता था, लेकिन दोस्ती की खातिर नहीं भागा। इन्हीं सबके बीच तब तक कांजीहौस का चौकीदार आ जाता है। दोनों को और मोटी रस्सी में बांध दिया जाता है। अगले दिन दोनों बैलों की नीलामी एक कसाई के हाथों हो जाती है। लेकिन, अंत तक हिम्मत न हारने से दोनों बैल रास्ते में कसाई के हाथों से पुनः निकल भागते हैं। झूरी के पास आ जाते हैं। झूरी भी उनको पाकर निहाल हो जाता है।
'दो बैलों की कथा' पढ़ते हुए मुझे बीसवीं सदी के अंतिम दशक में आई कैलाश बनवासी की कहानी 'बाज़ार में रामधन' भी याद आ रही है। 'बाज़ार में रामधन' के बरक्स प्रेमचंद की कहानी 'दो बैलों की कथा' को पढ़ेंगे तो मालूम चलेगा कि पशुओं विशेषकर बैलों के प्रति प्रेम और दया का भाव कैसे विशुद्ध उपयोगितावादी दृष्टि से संचालित होने लगा है। पूंजीवादी बाज़ार के दबदबे में खेती-किसानी में पशुओं की भूमिका वैसे भी सिकुड़ती जा रही है। ट्रैक्टर के ज़माने में बैलों को बेचा जाने लगा है।यद्यपि कि यहाँ पुरानी और नई पीढ़ी का द्वंद भी जोरदार ढंग से सामने आया है। 'बाज़ार में रामधन' कहानी में रामधन है। उसके दो बैल हैं, जो उसके खेती किसानी के साथी थे। रामधन तो पुरनिया है। बैलों को पाला-पोसा है। उनके साथ जिया-मरा है। लेकिन, उसके बेटे मुन्ना के साथ ऐसा नहीं है। रामधन और बैलों के बीच का आखिरी संवाद उल्लेखनीय है, “बेचना तो पड़ेगा एक दिन!” बैल कह रहे हैं, “आख़िर तुम हमें कब तक बचाओगे, रामधन? कब तक?'' जवाब में रामधन मुस्कुरा दिया- एक बहुत फीकी और उदास मुस्कान... अनिश्चितता से भरी हुई। रामधन अपने बैलों से कह रहा है, “देखो... हो सकता है अगली हाट में मुन्ना तुम्हें लेकर आए।'' दरअसल, रामधन जो कहता है, वह प्रेमचंद के 'दो बैलों की कथा' का एक परिवर्तित नव्यतम रूप भी है।

धीरेंद्र एक युवा अध्येता हैं। साहित्यिक समीक्षा, आलोचनात्मक एवं शोधपरक लेखन तथा कविताएं लिखना उनकी रुचि का विषय है। इलाहाबाद से एम.फिल एवं डी. फिल की उपाधि के उपरांत हाल ही में इन्होंने '21 वीं सदी में भोजपुरी भाषी लोक जीवन' विषय पर पोस्ट डॉक्टोरल रिसर्च का भी काम पूरा किया है। कविताएं 'धवल' उपनाम से लिखते हैं। 'वागर्थ', 'सरस्वती' एवं हिंदवी तथा पहली बार ब्लॉग पर इनकी कुछ कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।
संपर्क: academicdhirendra@gmail.com
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें