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दीप्ति कुशवाह की कविताएँ



समय के वृत्त में


1. 

जो घट गया 
वह छूटता नहीं है सचमुच
एकांत की किसी गुंजलक में
अपने ही प्रतिबिंब को देखता
कुछ देर ठहरा रहता है चुपचाप 
क्षणों की धूल के नीचे दबी रहती है 
वह गलती
जिसे हमने नाम देना छोड़ दिया  
कोई गली सूनी अब भी 
अपने भरे होने की कामना में 
हर साँझ को गिनती है 
वह गोधूलि 
जो चौखट पर अधमुँदी आँखों की तरह रखी थी 
वैसी ही पड़ी है रंगों की चुप में

अर्धविस्मृत स्पर्श 
दीवार पर पानी की परछाइयों सा काँपता है
जैसे किसी सुनसान घाट पर कई अधूरे स्नान ठहरे रहते हैं
और लहरें उन्हें छूकर गीली होती रहती हैं।

2. 

धूप कमरे में उतरती है
पर किसी कोण को नहीं चुनती
दीवार पर रुकती है फिर बिना संकेत लौट जाती है
कभी ठहरती है
जैसे फेरती हो सुमरनी किसी ऐसे की
जो अब केवल नाम में शेष है
भीतर की छायाएँ उसके साथ खिसकती जाती हैं

किसी पुराने गुलदान पर ठहरी दृष्टि
अब भी उसी दिशा में जमी है
जहाँ से लौटना नहीं हुआ था

कुछ आहटें पाँव नहीं रखतीं
वे झुकी हुई कमीज़ों में
या अनिद्रा से थके तकिये की सलवटों में
अपना रह जाना चुनती हैं
धूप हर दिन कुछ कहती है
पर उसके वाक्य
कभी पूरे नहीं होते
जैसे विस्मरण से ठीक पहले
लिखा गया कोई अधूरा उच्चारण


3. 

पनघट पर पाँव डुबो देना 
बस वहीं तक
जहाँ तक जल तुम्हें पहचानता हो
उसके बाद छवियाँ धुँधली होने लगती हैं
ज़्यादा उतरते ही
अपनी ही परछाई विलीन हो जाती है 

मैं लौटती हूँ उसी किनारे पर 
जहाँ हँसी की नर्म थपकियाँ थीं  
दोपहर की लंबाई
कभी किसी बोली में सिमट जाती थी
अब जल शांत है
पर उसके भीतर घूमती है
एक पुरानी आहट
जो तुम्हारा नाम नहीं जानती
पर उसे पुकारना अब भी नहीं भूलती


4. 

कभी किसी टूटी हुई कंघी के दाँतों में अटका होता है 
कोई अनसुना नाम
जो बालों में उलझ कर सपनों की गाँठें बाँध देता है
वह नाम किसी अधलिखी चिट्ठी जैसा है 
जो मन की दीवार पर हाथ रख 
एड़ियाँ उठा-उठा कर पुकारा जाता है 
हम कहते नहीं
पर वह उँगली की हर छुअन में दोहराया जाता है

प्रेम टटोलता है उन स्पर्शों को
जो कभी घटे ही नहीं

5. 

जो कहा गया, 
किसी घाटी में गिर पड़ी आवाज़ की तरह चक्कर लगाते 
लौटता है
पहाड़ों पर जमा होती रहती हैं मनुहारें
अधूरे शब्द संकेतों में रिसते हैं
दूर किसी सूनी रात में
किसी और की साँसों में धीमे-धीमे गूँज उठते हैं
कोई पुकार देर तक ठिठकी रहती है
कभी धीमे से लौट आती है परिचित क़दमों की आहट में
हर उच्चरित स्वर कभी अनसुना नहीं होता
हर प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में भटकता रहता है
किसी अदृश्य अनुगूंज में


6. 

कोई नाम जंग खाए सिक्के पर खुदा रह जाता है
या पुरानी डाक टिकटों पर चिपका किसी अजनबी देश का अतीत
वे कभी नहीं आते वापस
पर महसूस किए जा सकते हैं
डोरबेल बजे और देहरी पर कोई न मिले 
तो मन के हाथ सबके दरवाजे थपथपा आते हैं 
समय की चिट्ठियाँ फड़फड़ाती रहती हैं बंद घरों में
उनके मायने बचे रहते हैं 
जरूरतें ही खत्म हो जाती हैं 

7. 

ओस की बूँद
किसी अँधेरे पत्ते पर सुबह का इंतज़ार करती है
वह जानती हैं कि उजाले से उसका क्षय होगा
फिर भी ठहरी रहती हैं प्रतीक्षा के मोल में

जैसे कोई स्मरण अपने मिट जाने से पहले
संपूर्ण होना चाहता हो
हर बूँद में छिपा है एक असंभव क्षण
जो घटा नहीं
पर जिसके घटित होने की संभावना ने हमें जीवित रखा।

दीप्ति कुशवाह
पुणे
deepti.dbimpressions@gmail.com

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