काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

राजेश झरपुरे की कविताएं





रोशनी के लिए
पेड़
जंगल की ताकत हैं
वे ही सूरज का ताप निगलकर
झुलसते हुए भी
ललकारते हैं मेघों को
और पृथ्वी लहलहा उठती है।

कोयला खान की सुरंग के अंधेरे
रोशनी की ताकत हैं
भूगर्भ से
खनिक खोदकर लाते हैं- कोयला
तो कल-कारखानों की मशीनें
और हमारे घर के ट्यूब लाइट्स
जगमगा उठते हैं।

पेड़ों को काटकर
जंगल को नहीं बचाया जा सकता
और खनिकों के हाथ से
छीनकर कुदाल(रोज़गार)
रोशनी को नहीं बचाया जा सकता।

अब तुम्ही बताओ दोस्तो
पेड़ और कुदाल के बीच
कुल्हाड़ी का क्या काम...?
***
मुश्किल समय में

जिन्होंने चाहा
डर डरकर जीना
वे सब आलिशान गलियारे के
अन्दर और बाहर बैठे रहे।

उन्होंने
सहमति और समझौते का
जीवन चुना।

वे सदैव
झुककर चलते
और अपनी आँख
ज़मीन पर
गड़ाये रखते।

वे जब भी देखते
सड़कों और चौराहे पर
धर्म की ध्वजा
ले जाती उन्मादित भीड़ को
उनके हाथ स्वत: उठ जाते
और उनके मुख से निकले
जयकारे के शब्दभेदी बाण
आसमान को चीरकर रख देते।
इन डरे हुए दिनों में
बड़ा मुश्किल और नामुमक़िन है
असहमत होकर
आलिशान शामियाना के
विरोध में बैठे लोगों को
डरा देना
जो डर डरकर कभी नहीं जीते।
****
डर

डर
वहाँ नहीं होता
जब आप किसी पहाड़ी पर खड़े
संतुलन खो बैठते हैं
और नीचे धरा को देखकर
सिहर उठते हैं।

जब आप
किसी गहरे कुएँ की
जगत पर खड़े
सहसा अन्दर झाँककर
पानी की सतह को देखकर
काँप उठते हैं
तब भी
डर भूगर्भ में
नहीं होता।

डर
बन्दूक की
नली में भी नहीं होता
जो सीधे
आपकी कनपटी पर
हत्यारा धर देता है
और आप
ट्रीगर दबने के पहले ही
मर जाते हैं।

दरअसल
डर तुम्हारे भीतर ही
कहीं छुपा बैठा होता है
जो सदा
तुम्हें धमकाता रहता
कभी कर्म से
कभी धर्म से
कभी षड्यंत्र से।

यह डर
जो तुम्हारे भीतर समाया है
पहाड़ों से भी ऊँचा
भूगर्भ से भी गहरा
और हत्यारे की
गोली से भी ज़्यादा
ख़तरना़क और जहरीला है।

क्या...
तुम सचमुच
डरे हुए हो...?
*****

समझ

आप अकेले
हँस नहीं सकते
हँसने के लिए
लेना होगा
अनुमति अनिवार्य
रोना हो तो
खुशी से रोयें
पर नहीं पड़ना चाहिए
राज़-काज में व्यवधान
अन्यथा
भुगतना पड़ेगा दंड।

यद्यपि यह कोई राजाज्ञा नहीं
पर कुछ तो समझ
आप में भी होनी चाहिए।
*****

उसका दु:खी होना

जो उसका नहीं था
उसके खोने के विचार से
उदास था- वह

जो उसने पाया नहीं
उसके गुम जाने का ख़याल कर
दु:खी था- वह

इस तरह भी
बेमतलब उदास और दु:खी
होते हैं- आदमी
यह मैंने
स्वयं के अन्दर उतर कर जाना।

सहयोग कोई बाध्यता नहीं है। अगर आप चाहते हैं कि 'मंतव्य' का यह सिलसिला सतत चलता रहे तो आप स्नेह और सौजन्यता वश हमारी मदद कर सकते हैं।

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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय