जन्मदिन (28 अगस्त) पर विशेष
वीरेन्द्र यादव
यदि आज राजेन्द्र यादव जी हमारे बीच होते तो 96 वर्ष के होते। वर्ष 2013 में वह हमारे बीच नहीं रहे और उनके न रहने के बाद अब तक ग्यारह वर्षों का अन्तराल है। इन ग्यारह वर्षों के अंतराल में भारतीय राजनीति और समाज बदल गया है। यानी कि जिस 2014 की चर्चा होती रहती है, वह 2014 राजेन्द्र यादव जी के जीवन में नहीं आया। लेकिन 2014 से आज तक का राजनीतिक, सामाजिक और जो सांस्कृतिक घटनाक्रम है, उसकी आहट राजेन्द्र यादव जी को काफ़ी पहले से थी। वर्ष 1986 में ‘हंस’ का प्रकाशन शुरू हुआ था, 'हंस' के प्रकाशन से लेकर के अक्टूबर 2013 तक यानी उनके जीवनकाल तक का जो घटनाक्रम है, वह भारत के सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक घटनाक्रम तथा इन सभी परिवर्तनों की आहट दे रहा था। भले ही यह महज़ संयोग हो कि ‘हंस’ का प्रकाशन और भारतीय समाज के ये परिवर्तन एक साथ घटित हुए, क्योंकि अगर हम याद करें तो वैश्विक स्तर पर सोवियत यूनियन का विघटन, भारतीय सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर सामाजिक न्याय आंदोलन का मज़बूत होना, सामाजिक न्याय की आवाज़ों को सुना जाना और सामाजिक न्याय के आंदोलन की काट के लिए उसके प्रतिविमर्श के लिए मंदिर का आंदोलन यानी कि जो हिंदुत्व का आंदोलन है, यह भी उसी दौर में शुरू हुआ । मोटे तौर पर छः दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस को एक विभाजक रेखा मान सकते हैं। यह धर्म-निरपेक्ष राज्य और धर्म आधारित राज्य के बीच की पहली दरार थी। दस वर्षों के बाद गुजरात 2002 भी इसी दौर में हुआ और इन सबके बीच चाहे बिहार में सवर्ण सेनाओं के द्वारा दलितों का संहार हो या दूसरी अन्य घटनाएं हों, उन सब का काल भी कमोबेश यही है। इतिहास का पुनर्लेखन, गणेश जी का दूध पीना तथा भारतीय जनता पार्टी का पहली बार सत्ता में आना वह सब भी इसी दौर में हुआ।
राजेन्द्र यादव इन सारे घटनाक्रमों को ‘हंस’ में अपनी टिप्पणियों व संपादकीय के माध्यम से, अपने लेखकीय हस्तक्षेप को दर्ज कर रहे थे। इन सब का दर्ज किया जाना महज़ कुछ घटनाओं का दर्ज किया जाना नहीं था, इसके माध्यम से वे भारतीय समाज, भारतीय संस्कृति का विश्लेषण भी कर रहे थे, धारदार तरीक़े से कर रहे थे और इसके साथ-साथ उनका व्यक्तित्वांतरण भी हो रहा था। हम सब जानते हैं कि राजेन्द्र यादव जी 'नई कहानी' आंदोलन के पुरोधाओं में शामिल थे और नई कहानी आंदोलन मध्यवर्गीय दृष्टि से मध्यवर्गीय सरोकारों का लेखन था। राजेन्द्र जी ने इसे स्वीकार भी किया और बाद के दौर में उन्होंने अपने उस दौर के लेखन को जिसे कहा जा सकता है कि ‘डिसओन’ (खारिज) भी किया। तो इस समूचे घटनाक्रम के साथ राजेन्द्र यादव की सोच और उनका व्यक्तित्व भी बदल रहा था। कथाकार राजेन्द्र यादव से उनका व्यक्तित्वांतरण संपादक, जनबुद्धिजीवी और भारतीय सामाजिक, राजनीतिक परिदृश्य के हस्तक्षेपकर्ता के रूप में भी हुआ। राजेन्द्र यादव का यह व्यक्तित्वांतरण 'हंस' के पृष्ठों पर लगातार दर्ज होकर विमर्शकारी होता गया । उन्होंने भारतीय समाज के उन सारे मुद्दों को विमर्शकारी बनाया जो कि शुद्ध साहित्यिक फ्रेम में नहीं भी आते थे। उन पर आरोप भी लगाए गये। यह भी कहा गया कि ‘हंस’ अब साहित्यिक पत्रिका नहीं रही, लोगों ने फ़तवा दिया कि 'मैं अब हंस नहीं पढ़ता', किसी ने कहा कि 'अब ये ओबीसी पत्रिका हो गई है'... तो इस तरह की बातें भी की गईं। राजेन्द्र यादव ने इन सबका तुर्की-ब-तुर्की जवाब दिया। उन्होंने कहा कि शुद्ध साहित्य नाम की कौन सी चीज़ होती है? उन्होंने ‘हंस’ को प्रेमचंद के ‘हंस’ की परंपरा से जोड़ते हुए यह प्रतिप्रश्न किया कि प्रेमचंद अपने समय में ‘हंस’ का प्रकाशन करते हुए कौन से सामाजिक, राजनीतिक या वैश्विक प्रश्न थे, जिन पर टिप्पणियां नहीं करते थे या नहीं लिखते थे! जवाब में उन्होंने प्रेमचंद के लेख 'क्या हम वास्तव में राष्ट्रवादी हैं?' को पुनर्प्रकाशित किया। उस लेख में प्रेमचंद ने कहा था कि राष्ट्रवाद की पहली शर्त वर्ण-व्यवस्था को जड़-मूल से उखाड़ फेंकना है। यानी राजेन्द्र यादव अपने ‘हंस’ को प्रेमचंद के हंस की परंपरा से जोड़ रहे थे. उनका कहना था कि ‘प्रेमचंद को उस समय हिंदूद्रोही, ब्राह्मणद्रोही और तरह-तरह के विशेषणों से अभिहित किया गया था, यदि आज जब मुझे भी इस तरह के विशेषण दिए जाते हैं तो मैं समझता हूं कि मैं सही रास्ते पर हूँ।‘
विचारणीय यह है कि राजेन्द्र यादव ने जिन सवालों से मुठभेड़ की, यानी की जो साहित्य की कथित मुख्य धारा थी जिसमें उन प्रश्नों पर चर्चा नहीं होती थी, उन प्रश्नों पर बहस ही नहीं होती थी, राजेन्द्र यादव ने उन सबको एक विमर्शमूलक विषयों के रूप में 'हंस' के पृष्ठों पर समाहित किया। यह भी एक संयोग है कि मराठी में जारी दलित साहित्य, दलित पैंथर व दलित आंदोलन की अनुगूंज भी उन दिनों हिंदी साहित्य में सुनाई पड़ने लगी थी। लेकिन इसे एक मुकम्मल मंच, एक संपूर्ण मंच राजेन्द्र यादव ने ‘हंस’ के माध्यम से दिया। यानी हिंदी में दलित विमर्श अपनी सैद्धांतिकी के साथ, अपने विचारों के साथ तथा आत्मकथात्मक लेखन के साथ ‘हंस’ में प्रकाशित होना शुरू हुआ। ‘हंस’ के पहले हिंदी की कोई पत्रिका ऐसी नहीं थी, जिसमें कि दलित विमर्श को इतना महत्व व स्थान मिला हो। दलित मुद्दों पर 'हंस' के कई विशेषांक प्रकाशित हुए, उन विशेषांकों का संपादन भी दलित लेखकों द्वारा किया गया। यह सब कुछ करते हुए राजेंद्र यादव ने हाशिए की उन आवाज़ों को साहित्य में केंद्रीयता प्रदान करने का प्रयत्न किया, जो लगभग हिंदी में अनसुनी थीं जिनकी चर्चा नहीं होती थी। लेकिन यह करते हुए दलित वैचारिकी व दलित चिंतन में जो विपथन भी आया, उसकी भी लगातार उन्होंने निशानदेही की और प्रश्नांकित किया। इसी दौर में जब वर्ष 2005 में 'रंगभूमि' को जलाया गया या इसके आसपास जब डा.धर्मवीर ने प्रेमचंद को 'सामंत का मुंशी' कहा या जारकर्म की जो बहस शुरू की, उन सबका तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हुए बल्कि उनसे बहस करते हुए उन्होंने एक विमर्श भी प्रस्तुत किया।
साहित्य को शुद्धतावाद से मुक्त करते हुए राजेंद्र यादव ने मुख्यधारा के साहित्य को वाद-विवाद व संवाद का मुद्दा बनाया। स्त्री-विमर्श व स्त्री-लेखन को स्त्री-वैचारिकी या स्त्री-सैद्धांतिकी के साथ जोड़कर उन्होंने ‘हंस’ के कई विशेषांक प्रकाशित किए और उन मुद्दों पर बहस छेड़ी। दलित और स्त्री मुद्दों पर बहस के साथ-साथ जो भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध था, जिसे कहा जाए सवर्ण पितृसत्ता और मनुवाद का भी लगातार उन्होंने विश्लेषण किया। हिन्दी प्रदेशों की वैचारिकी जिस ठहराव व जड़ता का शिकार थी, उसका विखंडन व विश्लेषण करते हुए, धारदार तरीक़े से उसका प्रतिविमर्श रचते हुए राजेन्द्र यादव ने उस मनुवाद या वर्णाश्रमी सत्ता संरचना की चर्चा को, जो प्रायः बहस के बाहर थी, ‘हंस’ के पृष्ठों के माध्यम से उसे बहस के केंद्र में लाए। इसके साथ-साथ यही वो समय था जब कि मंडल का विमर्श, आरक्षण का विमर्श चर्चा में आया। हिंदी के जो कथित मुख्यधारा के बुद्धिजीवी थे या तो इसके विरोध में खड़े हुए या कुछ ने मौन धारण कर लिया। राजेन्द्र यादव ने इस दौर में आंखों में उंगली डालने के अंदाज में बहुत ही साफ़गोई के साथ लिखा कि 'आरक्षण ज़रूरी है’। उनकी स्थापना थी कि आरक्षण महज़ कुछ पदों का, कुछ रोज़गारों का या कुछ शिक्षा के अवसरों का आरक्षण नहीं था, बल्कि हज़ारों वर्षों से भारतीय समाज में जो एक सामाजिक दासता थी, जिसके चलते एक बहुत बड़ा श्रमशील वर्ग जो ग़ुलामी की स्थिति में जी रहा था, जो शिक्षा व संपत्ति के अधिकार से वंचित किया गया था, आज़ाद भारत में उनको नये अवसरों का दिया जाना है। यानी कि एक पूरा सवर्णवाद जो कि एक रुकावट बनकर, एक अवरोध बनकर, अपनी लाभ की स्थितियों को सुरक्षित करते हुए जो एक छद्म विमर्श पेश कर रहा था, मेरिट के नाम पर, या इन सब चीज़ों के नाम पर, इन सबका तुर्की-ब-तुर्की राजेन्द्र यादव ने जवाब दिया और बहस की। यह करते हुए उन्होंने हिंदी बुद्धिजीवियों की या हिंदी क्षेत्र की जो एक सबसे बड़ी बाधा थी, मानसिक बाधा, सांस्कृतिक बाधा या एक लम्बे समय से जो मूल्य चलते आये हैं , उनकी जो जकड़बंदी थी, उस जकड़बंदी की उन्होंने तर्कों के साथ काट प्रस्तुत की और विमर्शकारी बनाया। हिंदी समाज में जो जड़ता थी, जो पारंपरिक समझ थी यानी हिंदी समाज के जो पारंपरिक बौद्धिक थे, वे चाहे विद्यानिवास मिश्र रहे हों, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेई रहे हों या नरेंद्र कोहली सरीखे लेखक रहे हों या इस तरह के जो दूसरे यथास्थितिवादी लेखक, चिंतक, विचारक थे, वो किस भूमि पर अपनी रचना कर रहे थे और वो रचना करते हुए कितने बड़े भारतीय समाज की अनदेखी कर रहे थे, इसको उन्होंने प्रश्नांकित किया। इतना ही नहीं अपने बीच के यानी कि साहित्य की मुख्यधारा के या साहित्य की प्रगतिशील धारा के जो लोग थे, उनके मौन को भी उन्होंने रेखांकित किया। डा. रामविलास शर्मा व डॉ. नामवर सिंह से भी उन्होंने ‘हिंदी जाति’ व आरक्षण के सवाल पर बहस की या इस तरह के दूसरे सवालों पर।
डा. रामविलास शर्मा जो इस दौर के चिंतन के शीर्ष साहित्यिक व्यक्तित्व थे, जिन्होंने हिंदी नवजागरण की एक सैद्धांतिकी ही रची थी और जिसके आधार पर उन्होंने 1857, भारतेंदु हरिश्चंद्र और उसके बाद के साहित्य और भारतीय समाज का विश्लेषण किया था, यह राजेन्द्र यादव का ही साहस था कि डॉ. रामविलास शर्मा के इस चिंतन को, उस हिंदी नवजागरण को राजेंद्र यादव 'हिंदू नवजागरण' कह सके थे। इतना ही नहीं राजेन्द्र यादव ने यह भी कहा कि डॉ रामविलास शर्मा का जो इन दिनों वैदिक अध्ययन है, वो वैदिक अध्ययन हिंदुत्ववादियों के लिए सबसे बड़ा शास्त्रागार साबित होने जा रहा है। अत्यंत साफ़गोई के साथ उन्होंने आज़ादी के बाद हिंदी-हिंदू-हिंदुस्तान की प्रतिगामी सोच को भी बेपर्दा किया। हिंदी साहित्य का जो एक सुखासीन समाज था, जो इन मुद्दों को साहित्य के दायरे में लाना ही नहीं चाहता था तथा इन पर चर्चा भी नहीं करना चाहता था, राजेंद्र यादव ने 'हंस' के माध्यम से उन बहसों को केंद्रीयता प्रदान की और हिंदुत्ववाद लगातार उनके निशाने पर रहा था। आज जिस हिंदू राष्ट्र का ख़तरा हम देख रहे हैं, इस हिंदू राष्ट्र की निर्मिति किन विचारों के आधार पर और किस सोच के आधार पर हुई थी, राजेन्द्र यादव लगातार उसका विश्लेषण कर रहे थे।
राजेंद्र यादव ने ‘नवजागरण के रक्तबीज’ शीर्षक से ‘हंस’ का एक संपादकीय (जुलाई,2002) लिखा जिसमें उन्होंने बेबाकी के साथ कहा कि “जिसे हिंदी नवजागरण कहा जाता है मूलत: वह हिंदू पुनरुत्थान अधिक था क्योंकि वहॉ गौ-ब्राह्मण संवर्धन की चिंता ही सबसे प्रमुख थी। आपसी संवाद के लिए सबसे बड़ा हथियार हिंदी और नागरी लिपि को बनाया गया व ‘हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान’ नया राष्ट्रीय नारा बना। विश्वविद्यालयों में हिंदी के प्राध्यापक जिस नवजागरण का गदगद यशोगान करते हैं, मुझे वह सबसे बड़ा फ्रॉड (छद्म) लगता है। वह नई चुनौतियों के सामने अपना पुनर्मूल्यांकन करने के स्थान पर अपने धर्म को पुन:स्थापित करना अधिक था।” 1857 से लेकर बाद के दौर का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी कोई चीज़ नहीं है, बल्कि वह एक हिंदुत्ववादी वर्णाश्रमी व्यवस्था है। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से बहस करने के लिए हिंदू वर्ण-व्यवस्था पर हमें बहस करनी होगी। राजेन्द्र यादव के समय में जो भारतीय जनता पार्टी का शासन था, वह जिस तरह से शिक्षा व इतिहास में दखलंदाज़ी या अपनी वैचारिकी को समूचे चिंतन में शामिल कर रहा था यानी कि विश्वविद्यालयों में, विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों में पारंपरिक रूप से जो एक प्रकार का हिंदूवादी चिन्तन था, जो बिना किसी घोषणा के उनके लिए खाद-पानी का काम कर रहा था, उसे भी उन्होंने प्रश्नांकित किया। यह राजेन्द्र यादव का ही साहस था कि वह कह सके कि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग प्रतिभा के कत्लगाह हैं।
राजेन्द्र यादव ने उन मुद्दों को चिह्नित किया, जिनकी प्राय: चर्चा नहीं की जाती थी। वे जिस मध्यवर्ग से आये थे, वह इसकी अनुमति नहीं देता था। उन्होंने अपने आप को वर्गांतरित किया। एक तरह से वर्गच्युत हुए। राजेन्द्र यादव स्वयं मध्यवर्ग की उपज थे। उन्होंने इसके लिए मध्यवर्ग की चीड़फाड़ तथा पड़ताल की। उन्होंने कहा कि आज का जो मध्यवर्ग है, वह वो मध्यवर्ग नहीं है जो आज़ादी के पहले का मध्यवर्ग था। उनकी सोच थी कि आज़ादी के पूर्व का जो मध्यवर्ग था, वह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का हिरावल दस्ता था। लेकिन आज़ादी के बाद जो मध्यवर्ग निर्मित हुआ, वह मध्यवर्ग उपभोक्तावाद के लिए एक चारा है, उसके लिए एक कच्चा माल सरीखा है। इसकी प्रेरणा में कोई बड़ा दर्शन नहीं है, कोई बड़ी चिंताएं नहीं शामिल हैं। यह एक व्यक्तिवादी, आत्मकेंद्रित ऐसा वर्ग है, जो स्वयं में संतुष्ट रहने वाला है। इससे समाज में कोई व्यापक परिवर्तन की उम्मीद उस तरह नहीं की जानी चाहिए, जिस तरस से आज़ादी के पूर्व के वर्षों में की गई थी।
इस मध्यवर्ग का विश्लेषण करते हुए उन्होंने इसे स्वार्थी और भोगवाद के दर्शन में लिप्त रहने वाले एक सुखासीन समाज के रूप में परिभाषित किया। राजेंद्र यादव ने थोड़ा पूर्व जाकर भक्तिकाल के आंदोलन, कबीर की परंपरा, रैदास की परंपरा, मीरा की परंपरा की पड़ताल की। उन्होंने कहा, जो श्रमशील संत थे उन्होंने भक्ति के ही व्यापक आध्यत्मिक मुहावरे में जो ब्राह्मणवाद को चुनौती व वर्णाश्रम व्यवस्था की चुनौती दी थी, वही आज इन वर्गों की मुक्ति का रास्ता है। आज के समय में जो दलित हैं, स्त्रियाॅं हैं, आदिवासी हैं, ये आज के नये समाज के परिवर्तनकामी समूह हैं। इन समूहों से सम्बोधित हुए बिना, इन्हें साथ लिए बिना, भारतीय समाज में किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती है। यह करते हुए राजेंद्र यादव ने हिंदी साहित्य व हिंदी समाज की समूची सोच को झकझोरने का काम किया। यह राजेन्द्र यादव ही कह सकते थे कि बीसवीं सदी यदि गांधी की थी, तो इक्कीसवीं सदी आंबेडकर की है। यानी कि गांधी के बाद आंबेडकर को सबसे बड़े नायक के रूप में प्रतिष्ठित करना किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा नहीं बल्कि उस विचार की प्रतिष्ठा थी। राजेन्द्र यादव मार्क्स के दर्शन से प्रेरित थे और जब सोवियत यूनियन का विघटन हुआ, जब यह कहा जाने लगा था कि अब साम्यवाद का अंत हो गया है, तब उन्होंने कहा था कि समता, स्वतंत्रता और भाईचारे का जो विचार है, जब तक इसकी ज़रूरत महसूस होती रहेगी, तब तक साम्यवाद भी जीवित रहेगा और मार्क्सवाद भी जीवित रहेगा।
राजेंद्र यादव ने दलित वैचारिकी को केंद्रीयता प्रदान करते हुए उसका क्रिटिक भी किया। उसकी विवेचना करते हुए कहा कि दलित-लेखन या दलित-विचार महज़ पीड़ा की अभिव्यक्ति नहीं है। यह पीड़ा की अभिव्यक्ति तो है ही, पीड़ा के साथ-साथ इसमें संघर्ष और एक व्यापक बड़ा स्वप्न भी जुड़ा हुआ है। वह व्यापक-बड़ा स्वप्न समूचे समाजिक बदलाव का है और उन्होंने कहा कि यह आंबेडकर की वैचारिकी से होता हुआ मार्क्स के दर्शन तक जाता है। वह आंबेडकर और मार्क्स के बीच एक संवादभूमि की भी तलाश कर रहे थे।
राजेन्द्र यादव के स्त्री-विमर्श को लेकर कई बार कहा गया कि वह देह-विमर्श तक सीमित है। उनका कहना था कि स्त्री की सबसे बड़ी क़ैद देह की ही है तो उसकी मुक्ति उसकी देह से ही शुरु होनी है। देह की मुक्ति का रास्ता केवल देह तक सीमित नहीं रहता बल्कि देह की मुक्ति का रास्ता व्यक्तित्वांतरण से होकर गुजरता है। स्त्री व शूद्र को वो एक साथ जोड़ते थे। यद्यपि इसको लेकर सवर्ण समाज की कुछ लेखिकाएं कुपित भी हुईं, उन्होंने कहा कि आप स्त्री को दलित के साथ कैसे जोड़ सकते हैं! राजेन्द्र यादव ने इसको मनुस्मृति के हवाले व भारतीय सामाजिक संरचना के द्वारा तर्कसिद्ध करते हुए कहा कि ‘ठीक है कि स्त्रियों का एक वर्ग भद्र, कुलीन तथा उच्चवर्णीय समाज का हिस्सा है लेकिन उस समाज का हिस्सा रहते हुए भी अंततः उसकी स्थिति दलित की ही है।‘
तो इन सारी बहसों के साथ-साथ उन्होंने फूलन देवी को भी विमर्शकारी बनाया। यानी इस पूरे दौर में देखें तो फूलन, जिसे एक दस्यु के रूप में पेश किया जाता था, उन्होंने उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि के हवाले से फूलन का फूलन होना और फूलन होने के पीछे जिस समाज ने फूलन की निर्मिति की थी, उसे बीच बहस में ले आए। राजस्थान की भॅंवरी देवी के साथ बलात्कार हुआ और उसके बाद वहाॅं की अदालत ने निर्णय दिया कि सवर्ण बलात्कार कर ही नहीं सकता या इस तरह की जो अन्य बातें कहीं, उन्होंने इसे प्रश्नांकित किया। इसके साथ-साथ दिवराला का जो सती कांड था , उसको लेकर के हिंदुत्व की कथित बलिदान व उत्सव की परंपरा को भी उन्होंने प्रश्नांकित किया। यह करते हुए उन्होंने हिंदुत्व के वर्णाश्रमी विभाजन और विभेदकारी शोषण व्यवस्था को लगातार प्रश्नांकित किया। कहना न होगा कि राजेंद्र यादव ने हिंदी के साहित्यिक विमर्श व सांस्कृतिक विमर्श को जो नया आयाम दिया वह कबीर, फुले, पेरियार और आम्बेडकर की परम्परा का विस्तार ही था।
यह सब करते हुए राजेन्द्र यादव सही अर्थों में एक पब्लिक इंटेलैक्चुअल व जनबुद्धिजीवी की भूमिका का निर्वहन कर रहे थे। यह कहा जा सकता है कि राजेन्द्र यादव जिस दौर में थे, उस दौर में किसी भी हिंदी लेखक ने जनबुद्धिजीवी की उस भूमिका का निर्वहन नहीं किया था, जो राजेन्द्र यादव ने किया। आज अक्सर कहा जाता है कि हिंदी साहित्य में, हिंदी समाज में विमर्श नहीं हैं, बहसें नहीं हैं तो राजेंद्र यादव ने सन् 86 से लेकर 2013 के वर्षों में 'हंस' के पृष्ठों पर जो बहसें कीं, जो विमर्श किये, वह बहस और विमर्श अपने समय के साथ काल कवलित नहीं हो गये बल्कि उनकी प्रासंगिकता पहले से अधिक आज है। लेकिन उन बहसों के लिए उन विमर्शों के लिए एक लेखक को, एक बौद्धिक को समग्र बौद्धिकता अख़्तियार करनी पड़ेगी। यानी ये नहीं कि आप हिंदू राष्ट्रवाद से तो लड़ना चाहते हैं, हिंदू राष्ट्रवाद से तो मुक्ति चाहते हैं लेकिन दलित-प्रश्न पर, आरक्षण के प्रश्न व मनुवाद के प्रश्न पर मौन धारण कर लें।
राजेन्द्र यादव का स्पष्ट कहना था कि सांप्रदायिकता की लड़ाई वर्णाश्रम और मनुवाद के विरोध के बिना नहीं लड़ी जा सकती। लेकिन इसके साथ ही साथ इस्लाम के बारे में भी वह समान रूप से आलोचनात्मक थे। उनका यह कहना था कि आज के दौर में इस्लाम एक बंद धर्म है। आख़िर क्यों नहीं सवाल किये जाने चाहिए, वो चाहे शरीयत का प्रश्न हो या दूसरे सवाल हों, इन पर खुली बहस होनी चाहिए। और वह ललकारते थे कि कि अगर इस्लाम को आज का धर्म होना है तो उसे खुलना पड़ेगा, खुली बहस का हिस्सा होना पड़ेगा। इसके लिए राजेन्द्र यादव पर उॅंगलियाॅं भी उठाई गईं। लेकिन राजेन्द्र यादव जब धर्म की बात करते थे, वह यह मानते थे अल्पसंख्यक धर्म के लिए बहुसंख्यक धर्म यानी हिंदुत्ववाद, हिंदू राष्ट्र की चुनौती एक बड़ी चुनौती है। लेकिन इसके साथ हिंदू सांप्रदायिकता पर चोट करते हुए वो इस्लाम या मुस्लिम साम्प्रदायिकता को भी अपने सवालों को घेरे में खड़ा करते थे। राजेन्द्र यादव की वैचारिकी विभाजित वैचारिकी नहीं थी। संपूर्णता में अगर कहें तो धार्मिक राज्य की या धर्म आधारित देश बनने की जो आशंका थी, उस आशंका को निर्मूल करने के लिए जो उनका चिंतन था, वह एक संपूर्ण चिंतन था। वह इस्लाम को, ईसाइयत को या हिंदुत्व को लेकर समान तरीके से, समान तरीके का अर्थ यह है कि उनके जो जड़वादी मूल्य थे, जो ठहराववादी मूल्य थे, उनकी आलोचना करते थे। लेकिन उनके सर्वाधिक निशाने पर हिंदुत्ववाद था, हिंदू राष्ट्र था क्योंकि हिंदू राष्ट्र की अवधारणा या हिंदुत्व आज के समय की सबसे बड़ी चुनौती भी है।
आज जब हम राजेन्द्र यादव को याद कर रहे हैं तो राजेन्द्र यादव ने जो बहसें की, जो विमर्श किये तथा जिन मुद्दों पर चर्चा की आज उन मुद्दों पर, उन बहसों को विमर्शकारी बनाने की आवश्यकता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान को लेकर या जो दूसरे इस तरह के मुद्दे हैं, उन्हें लेकर नीर-क्षीर विवेक के साथ विश्लेषित किया जाय। हो यह रहा है कि बहुत से मुद्दों के प्रति हम एक चुप्पी साध लेते हैं, कहते हैं कि ये साहित्य के मुद्दे नहीं हैं। आवश्यकता इस बात की है कि राजेंद्र यादव की वैचारिकी पर चर्चा की जाय, बहसतलब बिंदुओं पर बहस भी की जाए और जरूरी हो तो उनसे असहमत भी हुआ जाए। राजेन्द्र यादव की जनतांत्रिकता असहमति को पूरा स्थान देती थी। यहाॅं तक कि ‘हंस’ में जो संपादक के नाम पत्र आते थे, उन्हें वे कई-कई पृष्ठों पर छापते थे, संपादक के ख़िलाफ़ पत्रों को प्राथमिकता देते थे। वे अपने संपादकीय कक्ष में बैठकर के अपने ही विरुद्ध बहसों को निमंत्रित करते थे। उनकी जनतांत्रिक सोच आज भी प्रासंगिक व ज़रूरी है। आज हम जो सिर धुनते हैं कि इस दौरान कोई बहस नहीं है, कोई विमर्श नहीं है, जबकि सर्वाधिक बहसें और विमर्श इसी दौर में होने चाहिए थे। यदि विमर्श और बहसों से एक बार फिर से जुडना है तो हमें राजेन्द्र यादव ने जिन बहसों व विमर्शों को शुरू किया था उन विमर्शों और बहसों के बीच एक बार फिर जाना होगा। हिंदी समाज राजेन्द्र यादव को यदि उनके द्वारा किये गए विमर्शों व वैचारिक अवदान के माध्यम से याद करे तो यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
वीरेन्द्र यादव
जन्म : 5 मार्च, 1950; जौनपुर (उ.प्र.)।
लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘, ‘विवाद नहीं, हस्तक्षेप‘, ‘उपन्यास और देस‘, ‘विमर्श और व्यक्तित्व‘ आदि महत्वपूर्ण कृतियाँ।
सम्मान : आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से समादृत।
सम्पर्क: सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016; ईमेल –virendralitt@gmail.com
मोबाइल - 9415371872