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काली मुसहर का बयान

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चिट्टा (उपन्यास)



पवन खुराना

आज वो ऑफ़िस नहीं आया था। रोज़ ऑफ़िस वही खोलता था। सुबह जल्दी आकर वो ऑफ़िस खोलता था और साफ़-सफ़ाई करके तैयार रखता था, परन्तु आज वो नहीं आया था। सभी लोग इकट्ठे होकर मेरे केबिन में आये और बोले कि ‘‘देखो सर, वो बिना बताये नहीं आता और साफ़-सफ़ाई भी नहीं है। आप उसको कुछ बोलते नहीं।’’ मैं जानता था कि इनको साफ़-सफ़ाई की चिंता नहीं है। इनको तो ऑफ़िस का गेट खोलने में परेशानी है। नये-नये अधिकारी जो भर्ती हुए हैं। अब इनको ये सब अच्छा कहाँ लगता है। समय में बहुत परिवर्तन आया है, अब तो लोग खुद को ‘अधिकारी’ समझते हैं। पहले ऐसा नहीं होता था। सभी अपने आप को ‘कर्मचारी’ ही मानते थे। मैंने उनकी तरफ़ नज़र उठाकर भी नहीं देखा, कोई फ़ायदा नहीं था। ऑफ़िस में सारा दिन कार्य भी तो सुचारू रूप से चलाना था, मैं फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। सभी लोग अपने कार्य में लग गये। 
       दोपहर में खाना सब लोग पैन्ट्री के साथ बने डाइनिंग टेबल पर साथ-साथ खाते थे। आज भी टेबल पर सब इकट्ठे हुए खाना खाने के लिए। उसी बात की चर्चा थी क्यूंकि आज कोई पानी देने वाला नहीं था, बर्तन रखने वाला नहीं था। वो काम ही ऐसे करता था। उसने सबको लगभग अपंग जैसा बना दिया था। वैसे वो भी ऑफ़िस का पक्का कर्मचारी था, परन्तु उसे ऑफ़िस का कार्य करने के लिए कम समय ही मिलता था। अठारह का स्टा़फ था ऑफ़िस में। आधे से अधिक लोग पास के शहर से आते थे। दिन भर उससे कोई दवाई मँगा रहा था, कोई किसी कार्यालय में बिल वगैरह भरने के लिए भेज देता था या पोस्ट ऑफ़िस डाक के लिए। खाने-पीने का सामान मंगवाने वालों की तो कोई कमी नहीं थी। ऑफ़िस में कुछ महिला कर्मचारी भी थीं, उनको तो और भी ज्यादा काम रहता था। पता नहीं क्या-क्या मंगवाती थीं। उनको यह एहसास ही नहीं था कि वो भी किसी ऑफ़िस का स्थायी कर्मचारी है। इनमें से एक सविता थी, जिसे सबसे ज्यादा उससे काम रहता था। 
समय में परिवर्तन बहुत हुआ है। आजकल सोशल मीडिया का ज़माना है, जब इनकी भर्ती होती है, उसी समय व्हाट्सएप ग्रुप बन जाते हैं। पता नहीं कहाँ से इतनी जानकारियाँ लाते हैं इन ग्रुप्स में...। क्या-क्या बेनिफिट और कौन-कौन-सी छुट्टियाँ मिल सकती हैं... यही मैसेज फ्लैश होते रहते हैं। और पूरे ग्रुप के लोग पहुँच जाते हैं इसे लेकर सीनियर्स के पास कि हमें तो यह अभी तक नहीं मिला। उनकी कोई रूचि नहीं होती कि हम जिस संस्था में काम करते हैं, वो किस तरह से चलती है, क्या-क्या काम होते हैं और वो उन्हें सुधारने के लिए क्या-क्या कर सकते हैं, इन सबमें उनकी कोई रूचि नहीं होती। पुरानी पीढ़ी को ये सब आदत हो चुकी है कि अब विरासत तो इन लोगों को ही संभालनी है। अब इनको साथ लेकर तो चलना ही है। नये ज़माने के लोग हैं, कंप्यूटर इत्यादि ज्यादा जानते हैं, तो उच्च प्रबंधन को प्रभावित भी जल्दी ही कर लेते हैं। उच्च प्रबंधन को भी आज के समय में यही सब तो चाहिए, तुरंत डाटा चाहिए। आंकड़ों का खेल ही रह गया है। ऐसा नहीं है कि पुरानी पीढ़ी ये सब नहीं कर सकती परन्तु उनका दायरा समय के साथ बढ़ गया है, तो वो इन पर ध्यान नहीं दे पाते। उन्होंने और भी बहुत कुछ देखा है, तो उनका ध्यान बिज़नस बढ़ाने की तरफ रहता है परन्तु नई पीढ़ी इस ओर ध्यान नहीं देती। एक और बात है, नई पीढ़ी में आत्म-विश्वास बहुत ज्यादा है। वैसे तो ये अच्छा भी है, अगर इसको ऑफ़िस का बिज़नस विस्तार करने में प्रयोग करते हैं तो...।
       सबने खाना समाप्त किया, राजीव जो कि एक अधिकारी है, बहुत सारी मिठाई लाया हुआ था। उसने सबको खाने के लिए पूछा। मधुमेह का रोगी होने के बावजूद मैंने एक जलेबी उठाई और विषय परिवर्तन करने के लिए मैंने पूछा, ‘‘इतनी सारी मिठाई कहाँ से लाये हो?’’ तो उसने बताया कि दादी सास की मृत्यु हो गयी है, तो उसमें सभी आने वालों को 14 दिन तक मिठाई खिलाते हैं। ये सुनकर मेरा मन विचलित हो गया कि बहुत बड़ी सामाजिक बुराई है लेकिन इस पर कोई बात करना कहाँ पसंद करता है क्यूंकि हमारा समाज तो जातिवाद में बँटा हुआ है। अगर किसी के समाज की किसी बुरी बात के बारे में बताओ, तो वह उसके समाज की तीन बुराइयों के बारे में बता देगा परन्तु हमारे ऑफ़िस में यह बहुत अच्छी बात थी कि सभी जातियों का स्टाफ होने के बावजूद भी कोई भेदभाव नहीं था। युवा पीढ़ी में यह एक बहुत अच्छी बात है कि वह इन सब बातों को नहीं मानती। सब मिलकर रहते हैं। कोई किसी की जाति न तो पूछता है और न ही उसके उपनाम का कोई अर्थ निकलता है। जो नाम है, केवल उसी से पुकारते हैं। ऐसा भी कई बार देखा है कि अगर किसी को कोई तकलीफ या कोई मदद की ज़रूरत है, तो दूसरी जाति के साथी मदद के लिए आगे आते हैं, नहीं तो पुराने समय में तो ऑफ़िस वगैरह में बड़ी गुटबाज़ी रहती थी। अलग-अलग जातियों के गुट बन जाते थे और यह तब अधिक देखने को मिलता था, जब किसी के घर पर कोई विवाह या मृत्यु हो जाती थी, तो वहाँ आने-जाने का सिलसिला ये बता देता था कि अमुक व्यक्ति इसी की जाति का था। इसको कुछ लोग बदलने की कोशिश भी करते थे, तो अपने आप को अपमानित-सा महसूस करते थे क्यूंकि जितना अपने आप को दिखा लो, फर्क सा़फ नज़र आ जाता था। चाय पीने के भी ग्रुप बने होते थे और सब अपने ग्रुप में जाकर चाय पी रहे होते थे। जाति पूछने की भी आदत होती थी कि किसी ने अपना नाम बताया, तो पूछ लेते थे कि किस गाँव का है। सीधा पूछने की हिम्मत नहीं हो तो पूछ लेते थे कि कौन से परिवार से हैं, उसी से पता लगा लेते थे कि उसकी जाति क्या है परन्तु आजकल ऐसा नहीं होता। केवल कोई विभागीय परीक्षा का परिणाम आता है, तो उसमें लिखा रहता है या कर्मचारी यूनियन, जो अलग-अलग बनी होती है, उनकी मीटिंग्स में इन सब चीज़ों का पता चलता है। आजकल की पीढ़ी तो इतनी फ्रेंडली है कि अगर कोई बात हो तो अपनी जाति वालों से भी लड़ पड़े। 
       खाना खत्म हो चुका था। सभी लोग कार्यालय में अपने-अपने केबिन में जाकर कार्य करने में जुट गये। मैं भी अपने केबिन में आकर तैयारी करने में जुट गया, शाम 4 बजे एक मीटिंग में जो निकलना था। 
       शाम को जब मैं मीटिंग से लौटा, तो सभी कर्मचारी जा चुके थे। ऑफ़िस का चैनल गेट बंद था लेकिन ताला नहीं लगा हुआ था। पड़ोस के दुकानदार को बोलकर गये थे कि साहब आएंगे तो ऑफ़िस बंद करना है। पड़ोस में गरीब दुकानदार था, जो हमारे ऑफ़िस के कार्यों में मदद कर देता था। मुझे उससे भी बना कर रखना होता था क्यूंकि वो गाहे-बगाहे छोटे-मोटे कार्यों में हमारी मदद कर देता था। मैं अपने केबिन में गया और पड़ोसी दुकानदार को ऑफ़िस को लॉक करने के लिए कहा। चाबी लेकर मैं भी अपने घर के लिए निकल पड़ा। अगले दिन मैंने सुबह जल्दी आकर पड़ोसी दुकानदार से ऑफ़िस का ताला खुलवाया और ऑफ़िस खोल दिया। धीरे-धीरे ऑफ़िस के स्टाफ के आने का सिलसिला शुरू हुआ और सभी स्टाफ अपने-अपने केबिन में जा रहे थे। आज कोई नाराज़ नहीं था, न ही किसी ने उसके बारे में पूछा क्यूंकि ऑफ़िस भी खुला मिला था और हाजिरी रज़िस्टर में मैंने उसके नाम के आगे लाल पेन से ‘अबसेन्ट’ जो लिख दिया था। 
       ऑफ़िस में स्टाफ के बीच ‘लीव’ और ‘अबसेन्ट’ में जो फर्क होता है, बहुत संतुष्टि देता है, उन्हें ऐसा लगता है, जैसे अबसेन्ट वाले ने कोई अपराध कर दिया हो। आज किसी को ना सफाई की चिंता थी और न ही दोपहर के खाने की। 
       सविता जो कि ऑफ़िस में लगभग हर रोज़ 15 मिनट की देरी से आती थी, उसने प्रवेश किया। कपड़ों से मिलती-जुलती इअरिंग्स और हाथों में ब्रास्लेट डाला था। नेल पॉलिश भी उसी रंग की थी। ड्रेस भी बिलकुल नए डिज़ाइन की थी। शायद नई ही सिलवाई होगी। उसने हाँफते-हाँफते पर्स अपने केबिन में कंप्यूटर के साथ रखा और अंदर वाशरूम की तरफ चली गई। 
       मेरा केबिन बिल्कुल गेट के पास था, परन्तु कुछ स्टाफ़ आँखें झुकाकर निकल जाता था। कई बार मैं अपने कार्य में व्यस्त होता था। देख ही नहीं पाता था। दरअसल मैं इन सब बातों का अभ्यस्त हो चुका था। मुझे इन सब बातों से अब ज़्यादा कोई फर्क भी नहीं पड़ता था। मेरी सोच में परिवर्तन आता जा रहा था। मुझे लगता था, अब विरासत तो इन्हें ही संभालनी है। ये लोग अपने तरी़के से कार्य करेंगे। 
       मैं फिर अपने कार्य में व्यस्त हो गया। इतने में सविता वाशरूम से लौटी। साथ वाली महिला कर्मचारी पूनम उसके केबिन में गई और वो दोनों कुछ गहरी डिस्कशन करने लगीं। उनकी गहरी डिस्कशन न तो राजनीतिक थी और न ही ऑफ़िस से सम्बंधित किसी कार्य की थी, वो तो जो नई ड्रेस सविता पहन कर आई थी, उसके बारे में चर्चा कर रही थीं। उनके हाव-भाव से, दूर से ऐसा प्रतीत हो रहा था। 
       अचानक फोन की घंटी बजी। क्षेत्रीय कार्यालय से फोन था, उनको क्लेम विभाग का डाटा देना था। उसका डाटा बनाने के लिए मैंने सविता को एक दिन पहले 12 बजे दिया था। मैंने इण्टरकॉम पर उसको फोन किया और डाटा के बारे में पूछा। अगर क्षेत्रीय कार्यालय से कोई फोन आता था, तो मैं बेचैन हो जाता था और तुरंत फाइल भेजने के बारे में सोचता था। मेरा इण्टरकॉम जाने के बाद पूनम अपने केबिन में चली गई और सविता भुनभुनाती हुई मेरे केबिन में आई और बोली, ‘‘फाइल में बनाने वाला डाटा तो मेरा कब से तैयार है लेकिन दूसरे सेक्शन से आने वाला डाटा मुझे नहीं मिला, जिससे मैं कंसोलिडेट कर सकूँ।’’ मैंने इण्टरकॉम पर दूसरे विभाग वाले को डाटा तुरंत देने की बात कही। 
       11:30 बजने वाले थे, मेरी चाय पीने की प्रबल इच्छा हो रही थी। कैंटीन वाले को चाय के लिए फोन लगाया, मुझे पता था कि वो काफी समय लगाएगा। हमारी बिल्डिंग के आस-पास कई छोटे-छोटे ऑफ़िस थे, सबमें उसे चाय देनी होती थी, इसलिए वह थोड़ी देर लगाता था। थोड़ी देर में वो चाय लेकर आया और मैं चाय पीने में मशगूल हो गया। सभी कर्मचारी अपना-अपना कार्य करने में व्यस्त थे। सभी लोग एक ही दिन में उसको भूल चुके हैं। किसी ने लंच टेबल पर भी उसकी बात नहीं की। 
       शाम को जब ऑफ़िस से निकलने का समय हुआ तो सभी लोग मेरे केबिन में आये और चलने के लिए कहा। मैंने कहा कि मुझे अभी ऑफ़िस में थोड़ा काम है। आप लोग निकल जाओ। मुझे पता था कि ऑफ़िस को बंद करते समय सभी उसी की चर्चा करेंगे कि आपने उसे बुलाया क्यूँ नहीं। मैं जानता था कि हम लोग सब सरकारी कर्मचारी हैं, तो सबको छुट्टियाँ मिलती हैं, तो उसको भी तो छुट्टी लेने का हक बनता है। उनके जाने के तुरंत बाद मैंने साथ वाले दुकानदार को ऑफ़िस बंद करने के लिए बोला और चाबी लेकर घर को निकल लिया। 
       अगले दिन सुबह उसी तरह से मैंने ऑफ़िस उनके आने से पहले खुलवा दिया। सभी लोग आने शुरू हो गये। आज तीसरा दिन था। वो ऑफ़िस में नहीं आया था। थोड़ी-थोड़ी धूल सब जगह नज़र आने लगी थी। आज भी सफाई का कोई प्रबंध नहीं था। अति व्यस्त होने के कारण ना तो मैं किसी सफाई वाले को ला सकता था और ना ही कुछ सुरक्षा कारणों से हर एक व्यक्ति से यह कार्य करवा सकता था। मैंने देखा, मेरे साथी कर्मचारियों ने इसका उपाय कर लिया था। कोई अखबार का टुकड़ा फाड़कर और कोई पुराना कपड़ा लेकर अपनी सीट व कंप्यूटर को साफ कर रहा था। आज उसको आये हुए सात दिन हो चुके थे। ऑफ़िस में जगह-जगह धूल जमनी शुरू हो गयी थी। मेरे स्टाफ को कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। उन्हें तो रेड पेन से हाज़िरी रज़िस्टर में ‘अबसेन्ट’ लिखा हुआ नज़र आता था, जो उनको तसल्ली देता था। 
       मेरा सब्र अब खत्म हो गया कि अगर अचानक कोई क्षेत्रीय कार्यालय से आ गया, तो सफाई की अव्यवस्था देखकर मुझे ही डांट लगाएगा। फिर मैंने उसी पास वाले दुकानदार का सहारा लिया और उसे कोई सफाई वाला लाने के लिए बोला। वो बोला, ‘‘सर सफाई तो मैं कर दूँगा सारे कर्मचारियों के जाने के बाद। परन्तु मुझे कुछ पैसे उधार चाहिए।’’ 
       मैंने खुश होकर कहा, ‘‘ठीक है, ले लेना।’’  
       वो बहुत गरीब था, कभी-कभार उधार पैसे ले लेता था और लौटा भी देता था। कम ही लेता था, मैं कभी माँगता नहीं था, वह अपने आप ही लौटा देता था। मुझे भी यही था कि ना भी देगा, तो इसी बहाने गरीब की मदद हो जाएगी। शाम को बाकी कर्मचारियों के जाने के बाद उसने बहुत अच्छे तरी़के से सफाई कर दी। 
       इस बीच मैंने उसे फोन लगाया, यह जानने के लिए कि वह क्यूँ नहीं आ रहा। मैंने उसके नंबर पर फोन लगाया, तो उसकी बेटी ने फोन उठाया। उसके बारे में पूछने पर वह बोली कि पापा बीमार हैं और अस्पताल गये हैं। मुझे उसकी आवाज़ से नहीं लग रहा था कि उसके पापा बीमार हैं। मैंने उसके अस्पताल से आने के तुरंत बाद बात करवाने के लिए बोला। उसने यह सुनते ही फोन काट दिया, लेकिन बाद में उसका कोई फोन नहीं आया। 
       मुझे पता था कि वो अस्पताल में नहीं है। वो घर पर ही था। वो ऐसा कभी करता नहीं था परन्तु अब वो ऐसा क्यूँ कर रहा है, यह अनुमान लगाना मुश्किल था। मैंने उस साथ वाले दुकानदार से बोला कि तुम शाम को आकर सफाई करवा दिया करो। हमारे ऑफ़िस में आयु में एक वरिष्ठ अधिकारी थे, कृष्ण जी, वो बड़े शांत स्वभाव के थे। मुझे जब अपने स्टाफ को कोई संदेश देना होता था, तो कृष्ण को बुलाकर बोल देता था। वो स्टाफ से बात कर लेते थे। उनको इण्टरकॉम से अंदर बुलाया और बोला कि साथ वाले दुकानदार को बुलाकर फाइलिंग के कुछ काम निपटवा दो, उसको ऑफ़िस से पैसे दे देंगे। उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और चला गया। शाम को 6 बजे तक उसने फाइलिंग का काफी काम निपटा दिया और फिर सफाई में लग गया। स्टाफ सारा चला गया था, ऑफ़िस बंद करवा कर मैं भी ऑफ़िस से निकल गया। 
       आज 27 अगस्त थी। अब हमें उसके बिना आदत हो गई थी। अब हम सफाई भी करवा लेते थे और फाइलिंग भी। एक दिन अचानक दोपहर के बाद मैं अपने केबिन में अपना काम निपटा रहा था। उसने ऑफ़िस में प्रवेश किया और चुपचाप जाकर अपना सफ़ाई वाला कार्य करने लग गया। मैं गुस्से में तो बहुत था, परन्तु एक मज़बूरी सी हो गई थी उसके साथ काम करने की, बहुत डिपेंड थे हम उस पर क्योंकि छोटे से बड़ा, सारा काम वो करता था। मैं चुपचाप उसे देखता रहा। थोड़ी देर में वो अपना कार्य समाप्त करके मेरे केबिन में आया और प्रणाम करने के बाद मुझसे बोला, ‘‘सर मुझे कुछ पैसे दे दीजिए, आवश्यकता है।’’ मैंने उसकी तरफ देखा और मेरा गुस्सा और बढ़ गया। उसका इस तरह से मेरे केबिन में आकर पैसे माँगना... मेरा पारा सातवें आसमान पर था। मैं चिल्ला कर बोला, ‘‘मेडिकल लाये हो तुम? क्योंकि कोई कर्मचारी अगर मेडिकल छुट्टी होने के बाद ड्यूटी ज्वाइन करता है, तो उसे डॉक्टर का फिटनेस सर्टि़फकेट देना होता है।’’ उसने कोई जवाब नहीं दिया और उसकी आँखों से आँसू झर-झर बहने लग गए। मैंने उसे रोते देखा, तो घबरा गया क्योंकि उसकी आयु लगभग 50 वर्ष थी और वो बहुत स्ट्रांग व्यक्तित्व का धनी था क्योंकि उसकी ज़िन्दगी बहुत संघर्षमय थी। ज़िन्दगी में बहुत कुछ देखा था उसने। उसे इस हालात में देख कर मैं थोड़ा घबरा गया। मैंने उसे चुप करवाया और उससे पूछा, ‘‘क्या बात हो गई है? मैंने पहले तो तुम्हें कभी कोई टेंशन में नहीं देखा। ऐसा क्या हो गया?’’ काफी देर तक वो रोता रहा और फिर वो बोला, ‘‘सोनू जेल में है, उसे छुड़ाने के लिए पैसे की आवश्यकता है।’’ 
       मैं यह सुनकर सन्न रह गया क्योंकि सोनू उसके लड़के का नाम था, जिसको मैं अच्छी तरह से जानता था। मैंने एक पल के लिए आँखें मुंदी, मेरी आँखों में वे दृश्य ताज़ा हो गये। आज से लगभग एक साल आठ महीने पुरानी बात है, जब मैंने इस ऑफ़िस में ज्वाइन किया था। पुराने ऑफ़िस से सीधा मैं यहाँ पहुँचा था। लगभग दो बजकर 45 मिनट का समय था, जब मैं अपनी कार से यहाँ पहुँचा था। आँखों में थकावट थी, दिमाग कहीं और था और दिल कहीं और था। समझ नहीं पा रहा था कि हुआ क्या है। पुरानी जगह को छोड़ने की कसक भी थी और नये स्थान पर आने की ललक भी थी। इन्सान जहाँ रहता है, वहाँ के बारे में नहीं सोचता परन्तु बाद में समय मिलने पर सब आँखों में तैर रहा होता है। कल जब वहाँ से रिलीव हुआ था, तो एक छोटी-मोटी पार्टी रखी थी, यह एक परम्परा रहती है, जाते वक्त सम्मान देने की। यह अलग बात है कि दूसरे ही दिन नया आने वाला उनको बहुत अच्छा लगने लगता है और सब नये वातावरण में ढल जाते हैं। उस पार्टी का एक वीडियो मोबाइल से बनाया था। मेरी बेटी ने रास्ते में मुझे दिखाया था कि उस ऑफ़िस का एक सिक्यूरिटी गार्ड रो रहा था। वो बड़ा ऑफ़िस था, वहाँ पर 3 सिक्यूरिटी गार्ड थे, जो कि 8 घंटे की शि़फ्ट करते थे। ये सिक्यूरिटी गार्ड एक एजेंसी द्वारा नियुक्त किए जाते थे, जो कि ऑफ़िस से मोटी रकम वसूल करते हैं और उन्हें बहुत कम सैलरी देते हैं लेकिन कुछ तो बेरोजगारी और कुछ सरकारी ऑफ़िस में कार्य करने की प्रतिष्ठा इनको जोड़े रखती है और ये बड़े निष्ठा भाव से लगे रहते हैं। अपने ऑफ़िस में मैं यह सोच रहा था कि मैंने ऐसा क्या किया पिछले एक साल में, जो इनका व्यवहार ऐसा था, जो मेरे साथ इनकी भी आँखों में आँसू टपक पड़े, तो मेरे दिमाग में दो घटनाएँ आईं। एक तो यह जब मेरे पास अपनी सैलरी की बात को लेकर आये तो मैंने इनके सुपरवाइजर से बात की, तो उसने मेरे दबाव डालने पर इनकी सैलरी मात्र 790 रुपये महीना बढ़ा दी और दिवाली पर मैंने अपने ऑफिस के दिवाली खर्च के मद को इधर-उधर व्यर्थ ना खर्च करके अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को मिठाई व गिफ्ट बाँटना उचित समझा। मेरे साथ वो लड़का भी था, जो काफी गरीब परिवार से था, जिसे मैंने अपने ऑफ़िस के जो काम आउटसोर्स होते थे, उन पर लगा दिया था। काफी मेहनती, ईमानदार व गरीब परिवार का लड़का था। वो भी मेरे से बहुत लगाव रखता था। मेरे स्थानान्तरण से वो बहुत उदास था। बोला कि सर आपको छोड़कर आऊंगा ताकि आपसे मेल-मिलाप बना रहे। मैंने भी उसका मन रखने के लिए उसे अपने साथ ले लिया। 
       जब मैं ऑफ़िस पहुँचा, तो सब मेरे स्वागत के लिए खड़े थे। एक-एक करके सबसे परिचय हुआ, सबसे पीछे एक लड़का खड़ा था, ऊँची कद-काठी, हल्की दाढ़ी, गठीला शरीर... ये लड़का हमारे स्टाफ से मेल नहीं खाता था। अलग तरह का व्यक्तित्व लग रहा था। मैंने स्टाफ से पूछा कि यह कौन है? तो स्टाफ बोला, यह सोनू है अपने अटेंडर महेंद्र का लड़का। अभी छह महीने पहले महेंद्र को दिल का दौरा पड़ा था,  ऑफ़िस में महेंद्र को काफी काम रहता है, तो यह उसकी सहायता के लिए आ जाता है। सबसे मिलने के बाद थोड़ी देर मैं ऑफ़िस में रुका और ज्यादा थकावट होने के कारण वापिस घर आ गया। 
       हमें शिफ्टिंग के लिए सात दिन का अवकाश मिलता है, उसे पूरा करने के बाद जब नियत समय पर ऑफ़िस पहुँचा, तो मेरे केबिन में बैठते ही सोनू पानी का गिलास लेकर आ गया, तो मैं उसकी और मुखातिब हुआ और मैंने उससे पूछा कि तुम कितने पढ़े-लिखे हो तो वह बोला, दूरवर्ती शिक्षा से ग्रेजुएशन ऑनर्स कर रहा हूँ। मुझे बड़ा ताज़्ज़ुब हुआ कि एक ग्रेजुएशन करने वाला लड़का सफाई इत्यादि के कार्यों में अपने पिता का हाथ बँटा रहा है। मन में एक खुशी भी हुई कि आजकल की पीढ़ी कहाँ ये सब करती है। उसके बाद मैं अपने काम में लग गया और वो अंदर जाकर अपने पिता के काम में हाथ बँटाने लग गया। मैंने देखा 11:30 पर जब चाय का समय होता है, वो मेरे केबिन में आया और चाय, पानी और कुछ स्नैक्स रखकर चला गया। दोपहर को मैंने देखा, वो लंच समय पर सबके टि़फिन निकालकर पैंट्री के पास जो डाइनिंग टेबल बनी हुई थी, उस पर लगा रहा था। मैं भी वहाँ गया और अपना लंच किया। मेरी दिनचर्या अपने रूटीन पर चल रही थी। 
       ऑफ़िस की लाइफ़ काफी व्यस्त रहती है और इधर-उधर देखने का ज्यादा समय नहीं होता। जब मैं थोड़ा थक जाता, तो जब चेयर पर रिलैक्स हो रहा होता था, तब मेरा ध्यान अंदर जाता था। चूँकि मेरे केबिन में चारों तरफ पारदर्शी ग्लास लगे हुए थे, तो बाहर की सारी गतिविधियाँ दिखाई देती थीं। मैंने नोट किया कि हमारे ऑफ़िस का स्टाफ़ कभी उससे कोई डॉक्यूमेंट स्कैन करवा रहा होता था, कभी मेल करवा रहा होता था और छोटा-मोटा हार्डवेयर का काम भी करवाता था। प्रिंटर्स में इंक बदलना तो उसका स्थायी काम था। ऑफ़िस के स्टा़फ की डाक व खाना लाने इत्यादि से लेकर बिजली, जनरेटर चलाने तक के सारे काम वो करता था और न तो मैंने कभी उसे मुस्कुराते देखा था और न ही कभी उदास देखा था। वह केवल अपने कार्य में व्यस्त दिखता था। ऐसा लगने लगा था कि मानो सोनू नहीं होगा, तो ऑफ़िस का कार्य रुक ही जाएगा। 
       हमारा ऑफ़िस तहसील स्तर पर था और मैं एक मेट्रो ऑफ़िस से स्थानांतरित होकर आया था। धीरे-धीरे मैं इस वातावरण में अपने आपको एडजस्ट कर रहा था। एक दिन अचानक क्षेत्रीय कार्यालय से फोन आया कि जिला स्तर के ऑफ़िस में शाम को 6 बजे एक मीटिंग रखी है, उसमें मुझे उपस्थित होना था। जिला कार्यालय मेरे यहाँ से लगभग 75 किलोमीटर दूर था और मैं इन मीटिंगों से परिचित था कि एक बार शुरू हो जाती हैं, तो बहुत लम्बे समय तक चलती हैं। तो मैंने यह सोचा कि मैं कार ड्राइव करने की बजाय टैक्सी ले जाता हूँ। शाम को हो सकता है, लौटते हुए लेट भी हो जाए, तो मैंने अपनी बेल बजाई तो मेरा अटेंडर महेंद्र आया। मैंने उसको बोला, ‘‘मुझे  मीटिंग के लिए निकलना है, शाम को 4 बजे जाऊँगा और लौटते हुए रात को लेट हो जाऊँगा, इसलिए यहाँ पर टैक्सी की क्या व्यवस्था रहती है?’’ तो वो बोला - ‘‘सर यहाँ पर टैक्सी की उतनी अच्छी व्यवस्था नहीं है। ड्राइवर भी साफ-सुथरे नहीं होते सर। आपके पास तो अपनी गाड़ी है, तो आप अपनी गाड़ी क्यूँ नहीं ले जाते।’’ मैं उससे बोला - ‘‘मैं रात को गाड़ी कम ड्राइव करता हूँ, इसलिए बोल रहा था कि टैक्सी ले जाता हूँ।’’ वो बोला - ‘‘सर आप मेरे लड़के सोनू को ले जाओ।’’ मैंने उससे पूछा कि ‘‘वो गाड़ी चला लेता है?’’ वो बोला - ‘‘बहुत अच्छे से चला लेता है। मेरे को हार्ट अटैक आने से पहले वो अपनी पढ़ाई का खर्चा निकालने के लिए एक डॉक्टर के पास गाड़ी चलाता था। मेरे बीमार होने पर उसको वह नौकरी छोड़नी पड़ी।’’ मैं आश्वस्त हो गया, चलो मैं इसी को ही ले जाऊँगा। 
       चार बजे सही मैं अपने केबिन से निकला और सोनू को चलने के लिए बोला। उसने मुझसे चाबी ली और पार्किंग से गाड़ी निकालने चला गया। मैं बाहर आया, तो वो गाड़ी निकाल चुका था। मैं जाकर गाड़ी में बैठ गया और हम निकल पड़े। वो बड़े अच्छे से गाड़ी चला रहा था। मैं भी फोन में व्यस्त हो गया। पूरे रास्ते मेरी उससे कोई बात नहीं हुई। 
       शाम को 9 बजे मीटिंग ख़त्म हुई, तो गाड़ी में बैठा वो मेरा इंतज़ार कर रहा था। मेरे बैठने के बाद उसने गाड़ी स्टार्ट की और मैंने उससे हल्की-फुल्की बातचीत शुरू की। मैंने उससे पूछा - ‘‘जब तुम ग्रेजुएशन कर रहे हो, तो तुम्हें यह छोटे-मोटे काम करने में खराब नहीं लगता?’’ वो बोला कि ‘‘नहीं सर, मेहनत करना तो कोई ख़राब नहीं होता। पिता जी को 6 महीने पहले हार्ट अटैक आया था, तो बहुत सी छुट्टियाँ ले ली, अब और लेते तो बिना वेतन के मिलतीं, तो घर का खर्चा कैसे चलता? घर में एक बहन है, वो कॉलेज से ग्रेजुएशन कर रही है और एक छोटा भाई है उसने इंटर किया हुआ है और वह लघु फिल्म मेकिंग में अपना कैरियर बनाना चाहता है जो कि एक महँगा कोर्स है और दिल्ली या मुंबई में होगा। मेरा सपना है कि उसको यह कोर्स करवाऊं और बहन की अच्छे घर में शादी करवाऊं।’’ मैं उससे बोला कि ‘‘तुमने अपने कैरियर के लिए कोई सपना नहीं देखा?’’ तो वह बोला, ‘‘मैं पुलिस या आर्मी में अपना कैरियर बनाना चाहता हूँ। दो-तीन बार लिखित व फिजिकल परीक्षा भी पास कर चुका हूँ लेकिन फाइनल नहीं हुआ अभी। डिग्री पूरी करने के बाद फिर पूरी मेहनत से तैयारी करूँगा।’’ मैंने उससे खाने के बारे में पूछा, तो वो बोला सर जल्दी घर पहुँच जाएंगे। मैं घर जाकर ही खा लूँगा। बातचीत करते हुए हम वापिस पहुँच गये। उसने गाड़ी रोकी और मैं ड्राइव करने के लिए उतर कर आया। मैंने पर्स से निकालकर 200 रुपये उसे दिये। उसने बहुत मना किया लेकिन मैंने जबरदस्ती उसे पकड़ा दिये और गाड़ी लेकर घर आ गया। 
       अगले दिन नियत समय पर मैं अपने ऑफ़िस पहुँचा, तो रोज़ की तरह वो पानी रखकर गया। दो-चार दिन बाद क्षेत्रीय कार्यालय से फोन आया कि टोटल क्लेम विभाग की फाइल है। उनका डाटा क्षेत्रीय कार्यालय अपने पास भी रिकॉर्ड में रखना चाहता है, तो उसका पूरा डाटा एक्सेल फाइल में बनाकर क्षेत्रीय कार्यालय को भेजना है। क्लेम विभाग उसी लड़की सविता के पास था, जिसको ऑफ़िस में हमेशा 15 मिनट लेट आने की आदत थी। हर रोज़ नये-नये वस्त्र पहनकर आना और उसके साथ मिलती हुई लिपस्टिक व नेल पॉलिश होना, सैण्डिल भी सेम तरह का होना, इतनी बन-ठनकर रहती थी तो ऑफ़िस के बाकी कर्मचारियों का ध्यान उसकी तरफ ही रहता था। गाहे-बगाहे उसके केबिन में पहुँच जाते थे। एक सहकर्मी की तरफ तो वो पूरी तरह आसक्त हो चुकी थी। लगभग हर एक घंटे में पीछे वो पैंट्री में चले जाते थे और 15-20 मिनट रहते थे। बाकी स्टाफ के हाफ कट वाले केबिन थे और उसका केबिन मेरे फ्रंट की तरफ पड़ता था, तो उसकी सभी गतिविधियाँ मुझे दिखती थीं लेकिन कार्य की अधिकता होने के कारण मैं इसकी ओर ध्यान नहीं देता था। 
       आजकल की युवा पीढ़ी का कार्य करने का तरीका कुछ अलग होता है, इस कारण भी मैं इग्नोर करता था। मैंने इण्टरकॉम करके उसको अंदर बुलाया। मेरे बुलाने पर अंदर आई और उसे मैंने क्षेत्रीय कार्यालय से आये उस फोन के बारे में बताया और उसे जल्द-जल्द कार्य पूरा करने के लिए बोला, तो उसने बोला कि अपने पास लगभग 1200 के करीब फाइलें हैं। मेरे से तो लगभग बहुत दिन लग जाएंगे। वो बोली, ‘‘मेरे पास लैपटॉप है, मैं सोनू को बोल देती हूँ वो एक्सेल फाइल बना देगा।’’ 
       मैंने आश्चर्य से पूछा कि ‘‘वो कर लेगा ये काम?’’ 
       वो बोली, ‘‘हाँ सर, आपके आने से पहले क्षेत्रीय कार्यालय ने दूसरे विभाग का भी डाटा माँगा था, तो भी सोनू ने ही बनाया था।’’ 
       मुझे तो काम होने से मतलब था। मैंने कहा, ‘‘चलो तुम इसे किसी तरह भी पूरा करवाओ।’’ 
       और फिर वो मेरे केबिन से चली गयी। तीन दिन बाद वो पेन ड्राइव में फाइल लेकर आई और मुझे दी। मैंने पेन ड्राइव अपने कंप्यूटर पर लगा दिया और फाइल चेक करने लगा। मैंने देखा कि बहुत अच्छी फाइल बनी थी। मैंने पूरी फाइल चेक की। मुझे लगता था कि हमारे नये कर्मचारी ज्यादा टेकी (Technology Advanced) होते हैं, कंप्यूटर पर कार्य करते हैं परन्तु यह लड़का तो आर्ट्स से B.A. कर रहा था, वो इतना बढ़िया कार्य कर सकता है, मैंने सोचा न था। 
       मैंने उसे केबिन में बुलाया और पूछा कि तुमने इतनी बढ़िया एक्सेल फाइल इतने कम समय में कैसे बनाई।
       वो बोला, ‘‘सर 10+2 के एग्जाम होने के बाद मैं एक फोटोस्टेट की दुकान पर काम करता था, तो वहाँ पर कंप्यूटर से सम्बन्धित भी कार्य होते थे। मैंने वहीं पर सब सीख लिया।’’ 
       ये सुनकर मैं उसका कायल हो गया। हर तरह का कार्य वो कर लेता था। मैंने उस फाइल को क्षेत्रीय कार्यालय को भेज दिया। वहाँ से बाद में हमें सबसे पहले सब्मिट करने के लिए प्रशस्ति पत्र भी मिला। अब उसने मेरे दिल में जगह बना ली थी। अब मैं उसे अपने काम भी बोलने लगा था और ऑफ़िस की तरफ से कुछ मेहनताना भी दिलवा देता था। धीरे-धीरे मुझे लगने लगा, मुझे उसकी आदत-सी हो गई थी। अब उसके मेरे काम में मदद करने के कारण दूसरे ऑफ़िस कर्मचारियों के काम थोड़े-बहुत इग्नोर भी हो जाते थे। इससे वो खीझने लगे थे। उन्हें अपने पर्सनल काम जो करवाने होते थे और कोई मेहनताना भी नहीं देते थे, तो वो भी कब तक उनके काम करता क्यूंकि पैसे की ज़रूरत तो सबको रहती है। स्टाफ के लोग सोचने लगे थे कि किसी तरह वो निकल जाए और उनके लिए कोई दूसरी व्यवस्था बने। 
       हमारे यहाँ के ऑफ़िस में सिक्यूरिटी एजेंसी द्वारा एक सिक्यूरिटी गार्ड प्रोवाइड करवाया गया था, जिसका पेमेंट ऑफ़िस कंपनी को करता था। एक दिन वो सिक्यूरिटी गार्ड मेरे केबिन में आया और बोला, ‘‘सर मुझे अब ये नौकरी छोड़नी है और घर वापिस जाना है।’’ वो बिहार से था। मैंने पूछा - ‘‘क्यूँ?’’ तो वो बोला - ‘‘मेरे बेटे ने बिहार सिविल PAC परीक्षा पास कर ली है और उसकी बहाली तहसीलदार के पद पर हो गई है और उसे अब मेरा इस पद पर काम करना पसंद नहीं है और मेरा स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता।’’ मैंने उसे बधाई दी और कहा - ‘‘वो जैसा चाहे, जब जाना चाहे जा सकता है।’’ 
       उसी समय मेरे दिमाग में ये विचार आया, क्यूँ न सोनू की नौकरी मैं सिक्यूरिटी गार्ड के पद पर लगवा दूँ। मैंने तुरंत बेल बजाकर उसे अंदर बुलाया और उससे पूछा कि वह ये नौकरी करना चाहता है? उसने तुरंत ख़ुशी से हामी भर दी। मैंने शाम को कंपनी के सुपरवाइजर को फोन लगाया और उसे कहा कि सिक्यूरिटी गार्ड नौकरी छोड़ना चाहता है और मेरे पास इस पद के लिए एक अच्छा लड़का है। उसने तुरंत ये कहा, ‘‘सर आप जिसे उचित समझें, रख सकते हैं। आप उसे ज्वाइन करवा दीजिये और उसका बायोडाटा मेरे पास भिजवा दीजिये। मैं उसका आई. डी. कार्ड और ड्रेस भिजवा देता हूँ।’’ 
       मैंने उसे सुपरवाइजर का मोबाइल नंबर दिया और बायोडाटा भेजने के लिए बोला। तीन-चार दिन बाद उसका आई. डी. कार्ड और ड्रेस भी आ गई और नियुक्ति पत्र भी मिल गया। 15000 रुपये उसका वेतन भी फिक्स किया गया था। 
       अगले दिन सुबह वो वर्दी पहनकर आया और उसके हाथ में मिठाई का डिब्बा था। उसने सभी स्टाफ को मिठाई खिलाई। स्टाफ में आपस में खुसर-फुसर शुरू हो गई कि सर ने हमारा काम खराब कर दिया। अब इसको इतना वेतन मिलने लगेगा, तो यह हमारा काम नहीं करेगा। कुछ स्टाफ अंदर पैंट्री में चले गये, इस मुद्दे पर डिस्कस करने के लिए। उनका नेतृत्व वो लड़का अमन कर रहा था, जिस पर वो सुंदर लड़की सविता आसक्त थी। उसके लिए एक अच्छा मौ़का था मेरे विरुद्ध भड़काकर उसके दिल में और गहरी जगह बनाने का। 
       मैंने इन सब बातों पर ध्यान नहीं दिया और अपने काम में लग गया। सोनू भी अपना काम करने लगा। 11:30 बजे टी टाइम होता था, उस समय सोनू के पिता महेंद्र ने मेरे केबिन में प्रवेश किया। चाय लेकर आया था वो। उसने चाय रखी और हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और मुझसे बोला - ‘‘सर आपका बहुत अहसान है हम पर, आपने सोनू को रोजगार दिलवा दिया।’’ 
       मैं उससे बोला - ‘‘ऐसा कुछ नहीं है, वो इतना मेहनती लड़का है, नौकरी तो उसे मिलनी ही थी।’’
       ऑफिस का स्टाफ अब मुझसे थोड़ा चिढ़ने लगा था। सविता और अमन की महफिलें अब और भी ज्यादा होने लगी थीं। सविता के पार्सल भी ज्यादा आने लगे थे, एक-दो स्टाफ के लोग तो टिप्पणी भी करने लगे थे कि यह लड़की आय से बहुत ज्यादा खर्चा करती है, ज्यादातर पार्सल महँगी कंपनी जैसे Mayntra, Nyka or My Fashion.com इत्यादि से होते थे, जिसमें कपड़े और ब्यूटी प्रोडक्ट्स होते थे। ज्यादातर स्टाफ आनंदित ही रहता था। मैंने सुना कि वो काफी बोल्ड बातें करती है। उन सबके लिए वो ही बहुत था। एक-आध पुरुष स्टाफ जो उसके हमउम्र थे, वे खीजता भी रहते थे और मेरे पास अंदर आकर उसकी शिकायत करके मन की टीस निकाल लेते थे। मुझे यह भी अब पता चला था कि वो अब बाहर होटल-रेस्टोरेंट में भी मिलने  लगे थे। 
       सोनू अब और भी अच्छे से काम करने लग गया था। मैंने अब थोड़ा-बहुत घरेलू काम भी उसे बोलना शुरू कर दिया था। गाड़ी लेकर बच्चों को परीक्षा इत्यादि दिलवाने ले जाता था। बच्चे भी उससे घुल-मिल गये थे। मेरी पत्नी उसे घर में पड़ा खाने-पीने का सामान भी दे देती थी। उसके जो कपड़े वो नहीं पहनती थी, उसने उसकी माँ के लिए दे दिए थे। 
       मेरा इस ऑफ़िस में मन लगना शुरू हो गया था। मैं मेट्रो से स्थानांतरित होकर तहसील कार्यालय में आया था। वहाँ की भागदौड़ वाली ज़िन्दगी से ये एकदम अलग थी। शान्ति भरा माहौल था। जहाँ वहाँ पर वीकेंड में अलग चहल-पहल होती थी, यहाँ पर वीकेंड में शान्ति भरा माहौल होता था। ऑफ़िस में काम अपने रूटीन से चल रहा था। एक-दो नये स्टाफ स्थानान्तरित होकर आ गये थे और एक-दो चले गये थे परन्तु अमन और सविता अभी यहीं थे और उनकी आसक्ति बढ़ती जा रही थी और ऑफ़िस के काम में बड़ी बाधा आ रही थी। सविता ने अब सोनू से भी झगड़ा करना शुरू कर दिया था क्यूंकि वह उचित व अनुचित कार्य के लिए भेजती रहती थी, कोई कितना ऐसे कार्य कर सकता था। 
       एक दिन मैं बैठा अपने केबिन में काम कर रहा था, तो अचानक मेरे मोबाइल पर घंटी बजी। एक लड़की की रोते हुए आवाज़ थी, बोली, ‘‘अंकल पापा की डेथ हो गई है। यहाँ पर सँभालने वाला कोई नहीं है, प्लीज़ आप आ जाओ।’’ मैं एकदम से सन्न रह गया और मैंने पूछा कि कैसे? वो बोली, ‘‘उन्हें हार्ट अटैक आ गया है।’’ मैंने उसे दिलासा देते हुए बोला, ‘‘तुम अपनी मम्मा और खुद को संभालो। मैं अभी यहाँ से निकलता हूँ।’’ 
       वह मेरा बहुत पुराना दोस्त था। हालांकि आयु में मुझसे लगभग दस वर्ष बड़ा था लेकिन मुझे अपने छोटे भाई की तरह मानता था। एक फार्मा कंपनी में वो वरिष्ठ अधिकारी था। बहुत वर्ष पहले जब मेरी शादी भी नहीं हुई थी, उस समय हम दोनों की पोस्टिंग एक ही शहर में थी और अक्सर शाम की चाय व कॉ़फी इनके घर पर होती थी। इनकी एक छोटी-सी बिटिया थी, वो मुझसे बहुत लाड करती थी और भाभी भी अक्सर मुझे, जब हम शाम की चाय पीकर गपशप कर रहे होते, तो रात के खाने के लिए रोक लेती थी। बोलती, ‘‘भैया अब कहाँ आप होटल, ढाबे पर जाओगे। मुझे पता है, आप घर में तो कुछ बनाते नहीं।’’ उनकी ज़िद पर मैं भी कभी-कभार वहाँ पर खाना खा लेता था। हमारी बातचीत के दो ही विषय होते थे, राजनीति और अर्थव्यवस्था। इन दोनों में उनकी भी बहुत रूचि थी, इसलिए बातचीत का सिलसिला लम्बा चलता रहता था। 
       इस उधेड़बुन से निकला तो मुझे अब वहाँ पहुँचने की चिंता हो गई क्यूंकि आजकल उनकी पोस्टिंग अलीगढ़ में थी, जो कि लगभग 400 कि. मी. दूर था मेरे शहर से। मैंने घर में अपनी पत्नी को फोन लगाया और उसे स्थिति से अवगत करवाया। वो मुझसे बोली, आपको ज़रूर जाना चाहिए पर वो भी चिंतित थी कि इतने लम्बे सफर पर मैं जाऊँगा कैसे और उसी दिन वापिस भी लौटना है। अचानक वो बोली, ‘‘आप सोनू को ले जाओ ना।’’
       मुझे उसकी बात सही लगी, मैंने फोन रखकर सोनू को केबिन में बुलाया और उससे अलीगढ़ चलने के लिए बोला। उसने तुरंत ‘हाँ’ कर दी। मैंने उससे कहा कि तुम घर जाकर तैयार हो जाओ। हम रात को 9 बजे निकलते हैं। वो ऑफ़िस से निकल गया। मैं भी करीब 6 बजे घर के लिए निकला। रात को निकलना जो था। क्षेत्रीय कार्यालय को 2 दिन की छुट्टी की मेल मैंने निकलते वक्त कर दी। घर पहुँचकर मैंने थोड़ी देर आराम किया, फिर तैयार होकर खाना खाया और सोनू को मैंने फोन लगाया। उसने कहा कि वो भी तैयार है, तो मैं घर से निकला। मेरी पत्नी थोड़ी चिंतित थी कि रात का सफर है, कैसे होगा? उसने मुझे हिदायत दी कि रात को बिलकुल सोना मत और सोनू को बातों में लगाये रखना ताकि उसे नींद न आये और रास्ते में एक-दो बार चाय पी लेना ताकि नींद से बच सको। मैंने उसकी ‘हाँ’ में ‘हाँ’ मिलाया और बोला कि तुम बच्चों का ध्यान रखना और नींद पूरी कर लेना। कहीं हमारी टेंशन में रात भर जागती रहो और सुबह में तबियत खराब हो जाए। मैंने उसे कहा कि मैं रास्ते में जाते हुए तुम्हें whatsapp पर अपडेट करता रहूँगा, घंटे-घंटे भर में, कहाँ पहुँच गये, जिससे तुम डिस्टर्ब भी नहीं होगी और जब नींद खुलेगी, तब चेक कर लेना। 
       इतना कहकर मैंने गाड़ी निकाली और रास्ते से सोनू को लिया। मैंने उससे कहा, ‘‘गाड़ी में पेट्रोल यहीं से भरवाकर चलते हैं, ताकि रास्ते का झंझट न रहे।’’ वो बोला, ‘‘सही है सर।’’ हमने गाड़ी का टैंक फुल करवाया और निकल पड़े। 
       मैंने उससे कहा कि सफर लम्बा है। तुम्हें थकावट न हो, इसलिए अभी मैं गाड़ी चला लेता हूँ। वो मुझसे बोला, ‘‘नहीं सर, आप टेंशन न लो। मैंने बहुत लम्बे-लम्बे रूट पर गाड़ी चलाई है। जब मैं पहले डॉक्टर साहब की गाड़ी चलाता था, तो वो कभी वैष्णो देवी, कभी हरिद्वार और वृन्दावन अक्सर जाते रहते थे, वो काफी बिजी होते थे, तो उनका भी लगभग शेड्यूल वीकेंड नाइट का ही होता था।’’ 
       निकलने की थोड़ी देर बाद हम हाईवे पर चढ़ चुके थे। तो मुझे सोनू को सोने नहीं देना था और मुझे खुद को भी नींद ना आये, इसलिए उसे मैंने बातों में लगा लिया। मैंने उससे पूछा कि ‘‘ऑफ़िस में कैसे चल रहा है?’’ तो वो बोला, ‘‘सर माहौल बहुत बदल गया है। मैं तो सभी काम जैसे पहले करता था, वैसे ही अब भी करता हूँ लेकिन उनका व्यवहार मेरे प्रति वैसे नहीं होता, वो सोचते हैं, शायद मैं काम के लिए मना न कर दूँ। वो मुझे लाचार देखना चाहते हैं, उनको ऐसा लगता है कि अगर मेरी इनकम का सोर्स न होता तो ज्यादा अच्छा था। तब मैं उनके किसी काम के लिए मना न कर पाता।’’ मैंने उसे समझाया, ‘‘कोई बात नहीं। ये दुनिया ऐसी ही होती है, तुम चुप करके अपना काम करते रहो।’’ वह मुझसे बोला, ‘‘सर सविता व अमन का काम भी बढ़ता जा रहा है। आपको उन पर ध्यान देना चाहिए।’’ मैंने कहा, ‘‘क्या हुआ?’’ वो बोला, ‘‘जब पापा ऑफ़िस को बंद करते हैं। ये दोनों जान-बूझकर ऑफ़िस में रुकने की कोशिश करते हैं। जब पापा कहते हैं, उन्हें ऑफ़िस बंद करना है, तो बड़ी मुश्किल से उठते हैं। दोनों ऑफ़िस के बाहर आकर घंटों तक खड़े रहते हैं और इनकी बातें चलती रहती हैं। एक-दो बार सविता ने पापा को फोन करके बोला कि मुझे छुट्टियों पर घर जाना है, तो ऑफ़िस का कुछ बचा हुआ काम निपटाना है, इसलिए आप ऑफ़िस खोलो, मैं बैठकर काम करूँगी। पापा ने ऑफ़िस खोला। वो आई और बैठ गई। थोड़ी देर में अमन भी आ गया और दोनों पीछे पैंट्री रूम में चले गये। शाम के 4 बज गये, ना कोई फाइल खुली और ना ही कंप्यूटर खोला। पापा ने शाम को 4 बजे इनको टोका कि मुझे दवाई लेनी है और ऑफ़िस बंद करना है तो बड़ी मुश्किल से ये निकले। एक दिन और एक त्यौहार की छुट्टी थी, तब भी इन्होंने ऐसे किया। जब तीसरी बार पापा को इन्होंने ऑफ़िस खोलने के लिए बोला, तो पापा ने मना कर दिया कि आप सर से परमिशन ले लो, तभी ऑफ़िस खुलेगा। उसके बाद इन्होंने ऑफ़िस खोलने की बात नहीं की।’’ वो बोला कि ‘‘अब ये एक घटिया सा गेस्ट हाउस है, वहाँ पर ये लोग मिलते हैं।’’ मैंने कहा, ‘‘कोई बात नहीं, दोनों एडल्ट हैं, ऑफिशियली तो हम इनको रोक नहीं सकते। कुछ ही दिनों में दोनों शादी तो कर ही लेंगे, फिर अपने आप टेंशन खत्म हो जाएगी।’’ तो सोनू मुझसे बोला, ‘‘काहे की शादी सर, अमन की शादी तो अभी 8-9 महीने पहले ही हुई है।’’ मैं ये सुनकर अचंभित रह गया। मैंने कहा, ‘‘अमन शादी-शुदा है?’’ वो बोला, ‘‘जी सर, आपके यहाँ आने से 3-4 महीने पहले ही इसकी शादी हुई है। पूरे ऑफिस के स्टाफ को इसने बुलाया था। बड़ी अच्छी वाली शादी थी। इसका परिवार बहुत ही प्रतिष्ठित परिवार है। यहाँ की बड़ी फैमिली है और संयुक्त है।’’ और मैंने कहा, ‘‘वो सविता?’’ वो बोला, ‘‘सर वो पी. जी. में रहती है। अमन तो आपके आने से 3-4 महीने पहले आया है इस ऑफ़िस में और सविता करीब डेढ़ साल से यहाँ पर है।’’ सोनू बोला कि ‘‘सविता तो ऑफ़िस से निकलकर शाम को दो ही जगह पर जाती थी, ब्यूटी पार्लर और बुटीक में। अब शाम का टाइम इनका इकट्ठा होता है, तो कपड़ों और मेकअप का सामान मँगवाने का काम ऑनलाइन साईट से करती है।’’ 
       मेरा दिमाग भन्ना गया, इस मुसीबत से कैसे निपटेंगे। अमन क्षेत्रीय कार्यालय से स्थानांतरित होकर आया था, तो क्षेत्रीय प्रबंधक उसकी बड़ी तारीफ करते थे। मुझसे बोलते थे, तुम्हारे पास अमन, सविता और राजीव बहुत अच्छे काम करने वाले अधिकारी हैं, तो पोजीशन बहुत ज्यादा सुधारनी चाहिए। अब उनको ये सब बोलूँ, तो एकदम से विश्वास भी नहीं करेंगे। वो कहेंगे कि आजकल की युवा पीढ़ी तो फ्रेंडशिप वगैरह तो रखती है। ये तो सब नार्मल बातें हैं। इससे क्या फर्क पड़ता है। उन्हें कैसे समझाऊंगा कि ये तो फ्रेंडशिप से बहुत आगे निकल चुके हैं और सारे ऑफ़िस का माहौल खराब कर रहे हैं। 
       मैंने सोनू से पूछा कि ‘‘सविता की शादी का कुछ नहीं?’’ 
       तो वो बोला, ‘‘सर वो भी एंगेज्ड है। एक दिन पूनम को इंगेजमेंट रिंग दिखा रही थी, जब मैं सविता को पानी पिला रहा था। पर ये बात सविता ऑफ़िस में किसी को नहीं बताती। कहीं इसके किस्से वहाँ न पहुँच जाएं।’’ 
       मैंने थोड़ी राहत की सांस ली। शादी कर चली जाएगी, तो कुछ ऑफ़िस का माहौल सुधरेगा। रात के 1 बजने वाले थे। हमें निकले हुए लगभग साढ़े तीन घंटे हो चुके थे। मैंने सोनू को बोला, ‘‘कोई अच्छा सा ढाबा देखकर रोक लो, थोड़ी चाय पी लेते हैं और पानी की बोतल भी लेनी है। पानी गाड़ी में रखना भूल गया।’’ वो बोला- ‘‘ठीक है सर, कोई अच्छा सा ढाबा आता है, तो मैं रोकता हूँ।’’ 
       15-20 मिनट बाद उसने गाड़ी रोकी। सामान्य-सा मोटेल था। मैं उतरा और वाशरूम जाने के बाद वेटर को दो चाय और दो पानी की बोतल के लिए बोला। सोनू ने इतने में गाड़ी के शीशे वगैरह साफ कर लिए। इतने में चाय आ गई। हम दोनों चाय पीने लगे। पीने के बाद हम दोनों उठे और काउंटर पर पेमेंट करने के लिए गए। वहाँ पर एक नवयुवक व नवयुवती खड़े थे, जो कमरा किराये पर लेने की ज़िद कर रहे थे और उस मोटेल का मैनेजर उसे न देने की ज़िद पर अड़ा था। दोनों बाइक से हमारे सामने ही वहाँ पर पहुँचे थे। मौसम भी खराब हो रहा था। बारिश आने की सम्भावना थी। 
      मैंने हस्तक्षेप किया और मैनेजर से बोला, ‘‘इनको रूम क्यूँ नहीं दे रहे हो? इस खराब मौसम में ये लोग कहाँ जाएंगे?’’ 
      तो वो मुझसे बोला, ‘‘सर आपको पता नहीं, ये घर से भागकर आते हैं और यहाँ पर कमरा लेंगे। इनका कुछ पता नहीं होता। आपस में झगड़ा भी कर लेते हैं। लड़कियाँ नशा भी करती हैं। कोई लफड़ा हुआ तो हमारा मोटेल तो बदनाम हो जाएगा और पुलिस तंग करेगी, सो अलग।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘तुम्हें कैसे पता कि ये लोग घर से भागकर आये हैं?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर ये रोज़ का रूटीन है। ये मेट्रो सिटी के लड़के होते हैं और छोटे शहरों या गाँव की लड़कियाँ होती हैं। इनको ये लड़के सोशल साइट्स जैसे Facebook, Snapchat, Instagram, Tinder इत्यादि पर फँसा लेते हैं और घर से इनको भगा लेते हैं। इन लड़कियों ने चकाचौंध की दुनिया देखी नहीं होती और यह घर से पैसे और गहने भी लेकर आती हैं। जब ये सब खत्म हो जाता है, तो लड़के इन्हें छोड़कर भाग जाते हैं।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘ये शादी नहीं करते?’’
       इतने में सोनू ने बीच में इंटरफेयर किया, ‘‘सर आप चलो ये शादी करने वाले कपल नहीं हैं। शादी करने वाले कपल दूसरे होते हैं।’’ 
       हम लोग उनको छोड़कर आगे बढ़े। उसने गाड़ी स्टार्ट की और हम वहाँ से निकल लिए। 
       मैंने गाड़ी में बैठने के बाद उससे पूछा कि ‘‘शादी करने वाले कपल कौन से होते हैं?’’ 
       तो उसने बताया, ‘‘जैसा कि मैं और सोनिया।’’ 
       मैंने बड़े ताज़्ज़ुब से पूछा कि ‘‘तुम्हारी भी गर्लफ्रेंड है?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर हाँ है।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘कब से?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर 6th class से।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘इतने समय से है? इतना लम्बा कहाँ पर चलता है?’’ 
       तो वो बोला, ‘‘सर हमारा तो इतने समय से चल रहा है और शादी भी करेंगे।’’
       मैंने पूछा, ‘‘कब करोगे?’’ 
       तो वो बोला, ‘‘सर बस सेटल हो जाऊं तो करेंगे।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘तुम्हारे घर पता है?’’ 
       वो बोला, ‘‘बिल्कुल सर। मेरे पेरेंट्स और उसके पेरेंट्स दोनों को पता है और दोनों आपस में मिलते-जुलते भी हैं। कोई परेशानी नहीं है। सब लोग सहमत हैं। बस मैं सेटल हो जाऊं तो शादी भी हो जाएगी।’’ 
       मैंने पूछा कि ‘‘वो क्या करती है?’’ 
       तो उसने कहा, ‘‘10+2 करने के बाद उसने polytechnique मे computer 3 year diploma में एडमिशन लिया है, जो अगले साल पूरा होने वाला है।’’ 
       ‘‘तुम्हारी उससे मुला़कात कैसे हुई?’’ मेरा अगला सवाल था। 
        ‘‘सर प्राइमरी स्कूल से 5th करने के बाद पापा ने मुझे नवोदय विद्यालय में डाल दिया। पापा मुझे वर्दी में देखना चाहते थे उनका सपना था, मैं सैनिक बनूँ, इसलिए उन्होंने मेरा एडमिशन नवोदय विद्यालय में करवा दिया। वहाँ सभी बच्चे 6th में नये थे और अलग-अलग जगहों से आये थे। क्लासेज शुरू होने के बाद हमारे P.T.I. टीचर ने खेलों की टीम बनाने के लिए सबसे उनके नाम माँगे, तो मैंने अपना नाम बैडमिंटन टीम में लिखवा दिया और हमने प्रैक्टिस भी शुरू कर दी। तीन महीने बाद हमारा पंचकुला में मैच था। हमारी class में 42 छात्र थे, उसमें 18 लड़कियाँ और 24 लड़के थे, जिसमें से 9 लड़कियाँ और 11 लड़कों ने अपना नाम बैडमिंटन टीम के लिए लिखवाया था। तीन महीने बाद टूर्नामेंट के लिए हमारी टीम रवाना हुई। हमारा टूर्नामेंट नेहरू स्टेडियम में था, इसमें भाग लेने के लिए 28 जिलों के छात्र-छात्राएं आये हुए थे। नेहरू स्टेडियम के हॉस्टल के कमरों में हमें ठहरा दिया गया। रात को 8 बजे खाना खाने के लिए हमें मेस में आने के लिए बोला गया। हमारे साथ आये P.T.I. सर ने अपना खाना रूम पर ही मंगवा लिया था। हम सब ग्रुप के बच्चे इकट्ठे खाना खा रहे थे। इस मुलाकात में सब बच्चे एक-दूसरे से उसके परिवार और जाति के बारे में पूछ रहे थे। मैंने उसको रोक कर पूछा जाति के बारे में। 'क्यूँ?' वो बोला, 'सर बच्चे तो लगभग ग्रामीण परिवेश से आते थे। उनका कहना था कि उनके गाँव में कोई आकर किसी का नाम पूछता तो सबसे पहले यही सवाल होता था। जात क्या है उसकी? तभी वो उसके घर का पता बता पाते हैं तो जब मैंने अपनी जाति बताई, तो मेरे सामने सोनिया बैठी थी। वो बोली, मेरी भी यही जाति है। तो सब एकदम मज़ाक से बोले, तो बैठ सोनू के पास। तो बात हँसी में खत्म हो गई। अगले दिन नाश्ते में फिर हम उसी मेस में पहुँचे। खाना खाकर प्रैक्टिस के लिए चले गये। शाम को जब हम मेस में खाना खाने पहुँचे, तो वो आकर मेरे साथ वाली कुर्सी पर बैठ गई और मुझसे बातें करने लगी। फिर हम जब भी मिलते, तो अक्सर हमारी बातें होतीं। हमारे स्कूल में दशहरे के बाद दिवाली पर सात दिनों की छुटियाँ थीं तो वो अपने घर चली गई। मैं अपने हॉस्टल में ही रहा। दिवाली के बाद जब वो लौटी, तो मेरे लिए गोंद के लड्डू का एक डिब्बा लेकर आई। मैंने उसे मना किया कि यह तुम अपने लिए लाई हो तो वो बोली, मैं दो लेकर आई हूँ, तो मैं बोला, दो क्यूँ? तो वो बोली, मैंने अपने घर बोला तुम्हारे बारे में तो मेरी मम्मी बोली कि उसके लिए भी एक लेकर जाओ। एक डिब्बा वो मुझे पकड़ाकर चली गई। वो पढ़ने-लिखने में बड़ी तेज़ थी। मैं सामान्य था, लेकिन मेरी गेम अच्छी थी। पूरी class मेरी गेम से इम्प्रेस थी। मुझे अपनी टीम का कैप्टेन बना दिया गया था। अगले साल का टूर्नामेंट हमारा रोहतक में हुआ और हमने ट्राफी जीती। सोनिया गाँव से थी। उसके पापा के पास कुछ ज़मीन थी। वो खेतीबाड़ी करते थे। वो जब भी गाँव जाती, घर से घी और घर का बना सामान लाती थी। तो आधा मुझे देती और आधा खुद रखती थी। सारी class  को पता था, हम अच्छे दोस्त हैं और मेरे घर में भी अब सोनिया के बारे में पता था। एक जाति का होने के कारण वो भी खुश थे। पता नहीं क्यूँ, एक अलग सा लगाव होता है अपनी जाति से। अब हमारा 10+2 का साल चल रहा था। इस साल बोर्ड एग्जाम थे। सभी लोग अच्छे से तैयारी कर रहे थे। हमारी परीक्षा शुरू हुई और अच्छे से खत्म हुई। अगले दिन सुबह हमें हॉस्टल छोड़ना था। सब एक-दूसरे से मिल रहे थे दोबारा। reunion अटेंड करने के लिए कसमें खा रहे थे। सोनिया मेरे पास आई और बोली, सोनू कब मिलोगे? मैं बोला, मम्मी-पापा को लेकर आऊंगा तुम्हारे घर। वो बोली, किसलिए? मैं बोला, शादी की बात करने। वो शरमा गई और बोली, इतने साल तो कुछ बोले नहीं। अब एकदम शादी पर आ गये। फिर वो बोली, अच्छा ठीक है। एक मोबाइल ले लेना और टच में रहना। यह कहकर वो चली गई और मैं बस में बैठकर चला आया। रास्ते भर उसकी तस्वीर आँखों से जा नहीं रही थी। मुझे अब लगा था कि मैं उससे कितना प्यार करता था। मैं घर पहुँचा तो घर आने की कोई खुशी नहीं थी। खाना खा रहा था, तो आँखों में वो थी। रात को सोया, तो आँखों में बस वही थी। मैं सोच रहा था कि हॉस्टल में तो ऐसा नहीं होता था। शायद वो पास थी दूर जाने के बाद ये एहसास हुआ कि वो मेरे लिए क्या थी। सुबह उठा तो पापा से बोला कि मुझे मोबाइल लेना है। वो बोले, कैसी बात कर रहा है? छह महीने से तेरी माँ बिस्तर पर है, मुझे पता है, मैं उसकी दवाइयों का प्रबंध कैसे करता हूँ। मुझे तो तेरे आगे एडमिशन की सम्भावना कम लग रही है। तुम तीनों बहन-भाई पढ़ने वाले हो। मैं तो अकेला कमाने वाला हूँ। यह कहकर वो ऑफिस के लिए निकल गये। मैं बहुत उदास हो गया। बारह बजे के करीब मैं घर से निकला और बाज़ार की तऱफ निकल पड़ा। मेरा मन बहुत उदास था। थोड़ी दूरी पर मुझे एक दुकान पर बोर्ड दिखाई दिया कि काम करने के लिए एक लड़के की आवश्यकता है। मैं उस पर रुका और मैंने दुकानदार से पूछा, क्या काम करना होगा? तो वो बोला, मेरे पास फोटोस्टेट और टाइप का काम है, तुम करना चाहते हो तो कर सकते हो। मैंने कहा, ठीक है। मैं उससे बोला, सीखा दो। उसने मुझे दुकान पर रख लिया। मैं एक घंटे में फोटोस्टेट करनी सीख गया। मुझसे वो बोला, कितना वेतन लोगे? मैं बोला, भैया जितना मर्ज़ी दे देना। वो बोला, ठीक है, काम देखकर दूँगा। मैं काम में लग गया। अगले दिन मैं 8 बजे दुकान पर पहुँच गया और अपने काम में लग गया। उनकी दुकान पर सरकारी कार्यालयों से फोटोकॉपी करने के लिए डॉक्यूमेंट आते थे। 12 बजे के करीब PWD विभाग का चपरासी आया और वो बोला कि 2500 कॉपी हैं और कल सुबह 10 बजे साहब को लेकर जानी हैं, इसलिए 8 बजे तक मैं आ जाऊँगा और लेकर जाऊँगा। दुकानदार उससे बोला कि इतनी कॉपी क्या एक दिन में होती हैं? हम नहीं कर सकते। मैं बोला, भैया ले लो, कर देंगे। वो बोला, नहीं होंगी इतनी। तो मैं बोला, भैया रात भर लगकर मैं कर दूँगा। वो बोला, कर दोगे तुम? मैं बोला, हाँ भैया। उसने वो ले ली और मुझे फोटोकॉपी करने के लिए बोला। मैं फोटोकॉपी करने लग गया। रात को 12 बजकर 45 मिनट तक मैंने पूरी 2500 कॉपी फोटोस्टेट कर दी। सुबह 8 बजे फिर दुकान पर पहुँच गया। दुकानदार को बड़ा ताज़्ज़ुब हुआ कि मैंने इतनी रात तक काम किया और सुबह भी जल्दी आ गया। वो मुझसे बोला, तुम्हारी प्री रिजल्ट वेकेशन हैं, इसमें तो सब बच्चे घूमते-फिरते हैं, तुम इतनी निष्ठा से काम कर रहे हो? मैं बोला, भैया मुझे एक मोबाइल लेना है। बहुत ज़रूरी है। उस दिन वो बड़ा खुश था क्यूंकि आस-पास उसके प्रतिस्पर्धी दुकानदार थे। उसके पास कोई लड़का न होने के कारण उसका काम भी प्रभावित हो रहा था। वो बोला, मोबाइल तुम्हें मैं आज ही दिलवा देता हूँ। यह तुम्हारी सैलरी का एडवांस होगा लेकिन जब तक तुम्हारी छुट्टियाँ चल रही हैं, तुम्हें मेरी दुकान पर ही काम करना होगा। मैं तो उसके ऑफर से इतना खुश था कि हर चीज़ के लिए ‘हाँ’ भरने को तैयार था। इतने में PWD विभाग का चपरासी आया और फोटोकापियों के लिए पूछा। फोटोकापियाँ तैयार थीं। उसको हमने उठा कर दे दी। उसके बाद वो मुझसे बोला, मेरे छोटे भाई की पालिका बाज़ार में मोबाइल शॉप है। मैं उसको फोन कर देता हूँ। वहाँ जाकर तुम मोबाइल ले लेना। एक आई. डी. व फोटो ले जाना। तुम्हें सिम भी वहीं मिल जाएगा। मेरी खुशी का ठिकाना न था। मैं तुरंत पालिका बाज़ार में गया और वहाँ पर भैया के द्वारा भेजे जाने की बात बताई। भैया का फोन उसके पास आ चुका था। उसने मुझे फोन दिखाए। मैंने सैमसंग का  A4 मॉडल, जिसका 16 मेगा पिक्सेल का ज़ूम कैमरा था, उसको पसंद किया और ले लिया। मोबाइल मेरे हाथ में आते ही मानो ऐसा लगा, जैसे सब कुछ मेरे हाथ में आ गया हो। मैंने तुरंत आई. डी. उसको दी, उसने सिम मुझे दिया और बिल बना दिया। सिम बाहर खड़े सेल्समेन ने मोबाइल में डाला और मुझे थोड़े फंक्शन्स समझाने लगा। मेरे हाथ काँप रहे थे। मोबाइल हाथ में लेते हुए मैं तुरंत मोबाइल लेकर फोटोस्टेट की दुकान पर आ गया और काम करने लगा। दुकान पर काफी भीड़ थी, जब लंच का टाइम हुआ तो भैया बोले, मैं लंच करने घर जा रहा हूँ। उनके जाते ही मैंने मोबाइल जेब से निकाला और निर्देश पुस्तिका पढ़ने लगा। फिर मैंने मोबाइल की तरफ देखा, तो वो सिग्नल नहीं दिखा रहा था। मेरा मन उदास हो गया। भैया लंच करके वापिस लौटे, तो हम फिर काम में लग गये। शाम को 4 बजे हम चाय पीते थे। भैया जब चाय पी रहे थे, तो मैंने फिर मोबाइल पर निगाह मारी, तो सिग्नल नहीं दिखा रहा था। अब मेरा धैर्य जवाब दे गया। मैं भैया से बोला, मेरा मोबाइल काम नहीं कर रहा, मैं एक बार दिखा कर आता हूँ। वो बोले, जाकर दिखा दे। मैं तुरंत दौड़ता हुआ वहाँ पहुँचा और सेल्समेन से बोला कि मोबाइल काम नहीं कर रहा। उसने मोबाइल हाथ में पकड़ा और बोला, क्या काम नहीं कर रहा? मैंने कहा, इसमें सिग्नल नहीं आ रहा। वो बोला, सिम तो आज डाला है, ये 24 घंटे के बाद एक्टिवेट होता है, कल चलेगा सिम तुम्हारा। मैं फिर वापिस आ गया। मैंने रात करवटें बदलकर काटी। मुझे यह था कि कब सिम चले और कब मैं सोनिया से बात करूँ। अगले दिन दुकान पर जाकर फिर मैं काम में लग गया। भैया जब लंच पर गये तो फिर मैंने जेब से मोबाइल निकाला, तो अब सिग्नल दिखा रहा था। मैंने तुरंत सोनिया को फोन लगाया और बोला, मैंने मोबाइल ले लिया है। ये मेरा नंबर सेव कर लो तुम, अब हम रात को बात करेंगे। इसके बाद रोज़ रात को हमारी बातें होने लगीं। रिजल्ट आने तक मैं इसी फोटोस्टेट की दुकान पर काम करता रहा और मैंने कंप्यूटर पर भी सभी रूटीन में होने वाली चीज़ें जैसे MS-WORD, WORDPAD, MS-EXCEL, POWERPOINT व टाइपिंग इत्यादि सीख ली और हार्डवेयर का काम भी थोड़ा-बहुत सीख लिया। 10 जून को हमारा रिजल्ट आना था। हमारे पास दुकान पर इन्टरनेट की भी सुविधा थी। दुकान पर पहले मैंने अपना और फिर सोनिया का रिजल्ट देखा। उसको बधाई दी और उससे पूछा कि अब वो आगे क्या करेगी, तो उसने कहा कि आज वो मम्मी-पापा से सलाह करके बताएगी। रात को रोज़ की तरह मैंने उसको फोन लगाया और उसकी फ्यूचर प्लानिंग के बारे में पूछा, वो बोली, मेरे पापा polytechnique college से कंप्यूटर में डिप्लोमा करने के लिए बोल रहे हैं। मैं उससे बोला, अच्छा ठीक है। मैं भी पापा से बात करके वहीं एडमिशन लूँगा। सुबह मैंने पापा से बात की और polytechnique में एडमिशन लेने के लिए बोला। वो मुझसे बोले, तुम्हारी माँ को टी. बी. की बीमारी है, इतने समय से इलाज़ चल रहा है। तुम्हारी बहन और भाई को भी पढ़ाना है, इतने पैसे मैं कहाँ से लाऊंगा? यह सुनकर मेरा मन बहुत उदास हो गया। पापा ऑफिस में चले गये और मैं अपने कमरे में जाकर रोने लग गया। रात को फिर हमारी बात हुई और मैंने उसे घर की सारी परिस्थितियाँ बताई, वो यह सब समझती थी। वो बहुत उदास हो गई लेकिन कुछ बोली नहीं। अगले दिन सुबह फिर मैंने पापा से बात की, वो झल्लाकर बोले, तू समझता क्यूँ नहीं। मैं सोच रहा हूँ कि तू मेरी मदद करेगा। मैं तो कहाँ सबका खर्चा उठाऊंगा। मैं मन मसोस कर रह गया और दुकान पर आ गया। इन्टरनेट खोलकर IGNOU से बी. ए. डिस्टेंस का फॉर्म भर दिया। सोनिया ने polytechnique में कंप्यूटर साइंस में एडमिशन ले लिया। मेरी सैलरी दुकानदार ने 4 हजार रुपये महीना तय की थी। अब जब मुझे कॉलेज ज्वाइन नहीं करना था, तो मैंने सोचा, कोई ज्यादा पैसे वाली जॉब करूँ, ताकि घर में कुछ हेल्प कर सकूँ। क्वालिफिकेशन कम थी। हमारा शहर भी छोटा था। मैं कुछ टेक्निकल काम करके ज्यादा पैसे कमाने की सोच रहा था। अगले दिन दुकान पर बैठा काम कर रहा था, तो एक व्यक्ति एक इश्तिहार के लिए डिज़ाइन बनवाने आया। 15 दिन में 1500 रुपये में कार चलाना सीखें। मैंने उससे पूछा, कितने बजे वो सिखाते हैं? वो बोला, सुबह 6 बजे हमारा पहला बैच शुरू होता है और अंतिम बैच शाम के 5 बजे तक है। मैं उससे बोला कि मैं सीखना चाहता हूँ पर मेरे पास ड्राइविंग लाइसेंस नहीं है। वो बोला, हम बनवा कर देंगे ड्राइविंग लाइसेंस। मैंने कहा, कब से आ सकता हूँ? वो बोला, चाहे कल से आ जाओ। मैंने उसे कहा कि ठीक है कल सुबह 7 से 8 बजे तक वाले बैच में मेरा नाम लिख लो। अगले दिन सुबह 7 बजे मैं वहाँ पहुँच गया। 7 बजे का टाइम मैंने इसलिए लिया था क्यूंकि 8 बजे मुझे दुकान पर आना था। 15 दिन तक मैंने क्लास ली और उसने मेरा ड्राइविंग लाइसेंस भी बनवा दिया लेकिन अभी मुझे गाड़ी चलाने का इतना अनुभव नहीं आया था। मैंने उससे इस बारे में बात की, तो वो बोला तुम 15 दिन का एडवांस कोर्स भी कर लो। ये जो तुमने किया है बेसिक कोर्स था। मैंने कहा, ठीक है, मैं कर लेता हूँ। मैंने अब 15 दिन का एडवांस कोर्स भी ज्वाइन कर लिया। मुझे सिखाते हुए ट्रेनर मुझसे बोला कि तुम कार चलाना क्यूँ सीख रहे हो? मैं बोला, ड्राइवर की नौकरी करनी है इसलिए। वो बोला, अच्छा ड्राइवर की नौकरी करोगे तुम? एक डॉक्टर को ड्राइवर की ज़रूरत है। मैंने तुरंत ‘हाँ’ भर दी। उसने मुझे डॉक्टर का एड्रेस दे दिया और कहा कि जाकर मिल लेना। दोपहर को जब मैं जाकर डॉक्टर साहब से मिला, तो उसने मुझे अगले दिन से आने के लिए बोल दिया और 13,000 सैलरी बताई। मैंने दुकान पर जाकर भैया से बोल दिया कि मुझे ड्राइवर की नौकरी मिल गई है, कल से मैं नहीं आऊंगा। वो बोला, मैं तेरा वेतन एक हजार रुपये और बढ़ा देता हूँ। तू ड्राइवर की नौकरी क्यूँ कर रहा है? वह कोई सम्मानजनक नौकरी नहीं है। मैं बोला, मुझे पैसों की सख्त ज़रूरत है। जो भी नौकरी होगी, मुझे करनी पड़ेगी। मेरी विवशता के आगे वो कुछ नहीं बोला और उसने मुझसे कहा कि अगर कोई रात का काम आया, तो मैं तुम्हें फोन कर दूँगा। तुम निकाल देना और उसके लिए मैं तुम्हें मेहनताना दे दूँगा। मैं बोला, भैया जब चाहे आप फोन करना। मैं ऐसी इमरजेंसी निकाल दिया करूँगा। अगले दिन मैं डॉक्टर साहब के घर पहुँच गया। डॉक्टर साहब का घर क्लिनिक के ऊपर ही था। वहाँ पर कोई ज्यादा काम नहीं था। डॉक्टर साहब के बच्चों को स्कूल छोड़ना और लाना था। डॉक्टर साहब वीकेंड में परिवार के साथ धार्मिक स्थलों पर जाते थे, हरिद्वार, वृन्दावन, वैष्णो देवी इत्यादि। अब मुझे सही लग रहा था। 13,000 रुपये यहाँ से सैलरी मिलती थी। दो हज़ार तक फोटोस्टेट वाली दुकान पर बन जाते थे, वो मेरे लिए टाइपिंग का काम रखता था और मैं रात को निपटा देता था। सोनिया मुझे कॉल करती रहती थी। मैं उससे पूछता रहता था, उसने polytecnique college में कोई फ्रेंड नहीं बनाया, तो वो बोली, जब शादी तुम्हारे से होनी है तो और कौन फ्रेंड बनेगा। हम दोनों रेगुलर फोन से संपर्क में थे। सोनिया कॉलेज के विडियो बना-बना कर मुझे भेजती रहती थी। एक दिन डॉक्टर साहब ने मुझे बुलाया और बोले कल हिसार चलना है। सुबह आ जाना। IMA की बैठक है। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा क्यूंकि हिसार के polytecnique college में सोनिया पढ़ती थी। मैं ‘ठीक है सर’ कहकर निकल आया। सुबह मैं सही समय पर आ गया और डॉक्टर साहब को लेकर हम हिसार की ओर निकल पड़े। हिसार के एक रिसोर्ट में मीटिंग थी। वहाँ पहुँचने के बाद डॉक्टर साहब मुझसे बोले। हमारी मीटिंग लम्बी चलेगी। तुम यहाँ नाश्ता करके गाड़ी में आराम कर लेना। मैंने बोला, सर ठीक है। मैंने हिसार आने की बात सोनिया से रात को ही कर ली थी। वहाँ से नाश्ता करने के बाद मैंने सोनिया को फोन किया। वो मेरे फोन का इंतज़ार कर ही रही थी। मैंने उसे हॉस्टल के बाहर मिलने को बोला। स्कूल से निकलने के बाद यह उससे मेरी पहली मुला़कात थी। मैं उसके हॉस्टल पहुँचा और उसे लेकर हम लोग पास ही एक रिसोर्ट था, ब्लू बर्ड, उसमें जाकर बैठ गये। बातें करते-करते कब दोपहर हो गई, पता ही नहीं चला। दोपहर 2 बजे के करीब डॉक्टर साहब का फोन आया। बोले, कहाँ हो तुम? लंच कर लो। मैं बोला, सर गाड़ी में मीटर मोबिल कम दिखा रहा था। चेक करवाने आ गया था। मैंने अपनी ज़िन्दगी में पहली बार झूठ बोला था। डॉक्टर साहब बोले, ठीक है, तुम आकर खाना खा लेना। ठीक 4 बजे मीटिंग खत्म होगी। फिर हमें निकलना है। मैंने कहा, ठीक है सर। सोनिया से मिलने के बाद भूख कहाँ थी? लंच करने का मन ही नहीं कर रहा था। इतने समय के बाद सोनिया से मुला़कात हुई थी। साढ़े तीन बजे तक हम बात करते रहे, फिर मैं उसे हॉस्टल छोड़कर वापिस आ गया। डॉक्टर साहब 4:10 बजे बाहर आये। उन्हें लेकर हम वापिस निकल पड़े। वापिस पहुँचने के बाद डॉक्टर साहब बोले, कल बच्चों का हॉलिडे है, चाहो तो तुम छुट्टी मार लेना। मैंने कहा, ठीक है सर। मुझे भी लगा कि कल दुकान पर जाकर काम कर लूँगा। कुछ एक्स्ट्रा पैसे बन जाएंगे।’’
       सुबह के 4:30 बज चुके थे। अलीगढ़ 100 km का बोर्ड दिखाई दे रहा था। आँखों में थोड़ी-थोड़ी नींद भी थी। मैंने उससे कहा, ‘‘कहीं चाय की दुकान पर रोक लो।’’ उसने गाड़ी आगे जाकर रोकी, तो मैंने उससे कहा, ‘‘गाड़ी में थोड़ी देर आराम कर लेते हैं। 100 km ही तो है, डेढ़ घंटे में पहुँच जाएंगे।’’ 
       हमने सीट रिलैक्स मोड में लगाया और सुस्ताने लगे। घंटा सवा घंटा सुस्ताने के बाद हम वाशरूम जाकर फ्रेश हुए और आकर चाय का ऑर्डर किया। मैं उससे बोला, चाय के साथ टोस्ट वगैरह भी खा लो। फिर हमें समय नहीं मिलेगा। वहाँ से चाय पीकर हम निकल पड़े। 7:30 बजे तक हम अलीगढ़ सिटी में पहुँच गये। 7:50 तक हम मेरे दोस्त के घर पर थे। मैंने उसे सख्त हिदायत दी कि ‘‘गाड़ी कहीं लगाकर तुम पूरा दिन रेस्ट करना। फिर पूरी रात ट्रेवल करना ’’ वो बोला, ‘‘आप चिंता न करें। सर, मैं रेस्ट कर लूँगा और अपनी ट्रेवल में कोई बाधा नहीं आएगी।’’ 
       मैंने अंदर प्रवेश किया, तो मेरे दोस्त की बेटी रोते हुए मेरे गले लग गई। सभी लोग बहुत परेशान थे। बिटिया चंडीगढ़ से MBA कर रही थी और उसका छोटा भाई आगरा से B.TECH कर रहा था। मेरे फ्रेंड प्राइवेट जॉब में थे। कोई संपत्ति भी नहीं थी। मकान भी किराये का था। बच्चे भी सेट नहीं थे, इसलिए भाभी का रो-रोकर बुरा हाल था। मैंने उन्हें थोड़ा संभाला और फिर हमने दाह-संस्कार इत्यादि का काम निपटाना शुरू कर दिया। उनके कुछ लोकल फ्रेंड व अड़ोसी-पड़ोसी थे। 2 बजकर 40 मिनट तक सारा काम निपटा लिया, फिर सोनू को मैंने अंदर बुला लिया और उससे बोला, ‘‘सबको खाना खिला दे।’’ 
       सभी काम करते हुए हमें 4 बज गये। मैंने सोनू को कहा, ‘‘बस अब निकलते हैं।’’ 
       मैं भाभी के पास गया और उनको कहा, ‘‘मेरी ऑफिस की छुट्टी नहीं है, इसलिए मुझे निकलना है।’’ उन्होंने हाथ जोड़ दिए और बोली कि ‘‘थोड़ा बच्चों का ध्यान रखना, बिलकुल नादान हैं।’’ मैंने उनसे कहा कि ‘‘बिलकुल चिंता न करें। सब सही होगा।’’ यह कहकर हम वहाँ से निकल पड़े। 
       शाम का समय था। शहर में बहुत भीड़ थी। हमें हाईवे पर पहुँचने में काफी समय लग गया। रात को साढ़े नौ बजे हमने खाना खाने के लिए ढाबे पर गाड़ी रोकी। खाना खाने के बाद जब हम दोबारा निकले तो मुझे चिंता थी कि कहीं सोनू को नींद न आये। मैंने उससे दोबारा पूछा कि ‘‘आगे क्या हुआ तुम्हारी प्रेम कहानी का?’’ वो बोला, ‘‘सर मंगलवार को जब मैं डॉक्टर साहब के यहाँ गया तो डॉक्टर साहब के पास कुछ मिठाई के डिब्बे आये हुए थे और उन्हें बधाई के कुछ फोन आ रहे थे। शाम को आते व़क्त वो मुझसे बोले कि सोनू ये दो डिब्बे तुम मिठाई के अपने घर ले जाना।’’ मैंने पूछा, ‘‘क्या हुआ सर?’’ तो वो बोले, ‘‘मुझे IMA का डिस्ट्रिक्ट प्रेसिडेंट चुना गया था परसों।’’ मैं बोला, ‘‘बधाई हो सर।’’ वो बोले, ‘‘बधाई तो ठीक है, मेरा काम बहुत बढ़ गया अब। IMA का ऑफिस हिसार है, मुझे हर 15 दिन में एक बार वहाँ काम संभालने जाना होगा।’’ मेरे मन में बड़ी मुस्कराहट आ गई। इस बहाने हर 15 दिन में सोनिया से मिलने का मौ़का मिलेगा। आने वाले सन्डे को डॉक्टर साहब ने फिर हिसार जाने के लिए बोला। ऑफिस का काम संभालना था। शनिवार रात को मुझे नींद नहीं आई। सोनिया से मिलने की खुशी थी। अगले दिन हम फिर मिले। अब हमारे मिलने का सिलसिला चलने लगा था। एक दिन उसका फोन आया, वो बहुत उदास थी। बोली, ‘‘मेरे पापा बहुत बीमार हैं, तुम एक बार आ जाओ। उन्हें दिल्ली लेकर जाना है।’’ मैंने डॉक्टर साहब से दो-तीन दिन की छुट्टी ली और वहाँ चला गया। जाकर देखा तो सोनिया के पापा बहुत बीमार थे। उनको लेकर हम एशियन हस्पताल पंजाबी बा़ग दिल्ली पहुँचे। डॉक्टर ने उनका इलाज़ शुरू कर दिया। दो-तीन दिन मैं वहाँ रहा। सोनिया के पापा की हालत ज्यादा खराब थी। शाम को मैं उनके पास बैठा था। मैं उनसे बोला, ‘‘अंकल मुझे जाना है। डॉक्टर साहब को ड्राइवर के ब़गैर परेशानी हो रही होगी।’’ उन्होंने मेरे हाथ पकड़ लिया और बोले, ‘‘मुझे जो बीमारी है, मैं ज्यादा दिन नहीं जीऊंगा। मेरी तुमसे प्रार्थना है, मेरा कोई लड़का तो है नहीं, तुम सोनिया से शादी करके दामाद और लड़के का फर्ज़ पूरा करो।’’ मेरे कमाने-खाने का कोई ठिकाना नहीं था। घर में भी इतनी परेशानियाँ थीं पर मैं क्या कह सकता था? मैं उनसे बोला, ‘‘आप चिंता न करें अंकल। आपको कुछ नहीं होगा। मैं अपने पापा से बात करूँगा।’’ वो बोले, ‘‘हाँ मैं जब यहाँ से डिस्चार्ज़ हो जाऊँगा, तो तुम्हारे पापा से मिलने आऊंगा।’’ मैं वहाँ से आ गया। आकर मैंने पापा को बताया, ‘‘सोनिया के पापा बहुत बीमार हैं।’’ वो बोले, ‘‘वो एक बार आ जाएं घर, तो मैं उनका पता लेने जाऊंगा।’’ तेरह दिन तक वो अस्पताल में रहे, उसके बाद उन्हें छुट्टी मिली। बीमारी बड़ी क्रिटिकल थी। सर्वाइवल का तो चांस नहीं था। बस इसी बात पे डिपेंड करता था कि कितना समय काटेंगे। मैंने पापा को बताया, ‘‘सोनिया के पापा घर आ गये हैं।’’ वो बोले, ‘‘ठीक है, मैं सन्डे को जाता हूँ और उनका पता करके आता हूँ।’’ पापा सन्डे को सोनिया के पापा का पता लेने के लिए उनके घर गये। वहाँ पर भी सोनिया के पापा ने अपनी सिचुएशन बताई और शादी की ज़िद की। मेरे पापा ने उनकी स्थिति देखते हुए शादी के लिए ‘हाँ’ कर दी। घर आकर उन्होंने मेरे से बात की। मैं शादी के लिए हाँ करके आया हूँ। मैं बोला, ‘‘पापा खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं है और आप शादी की बात करके आ गये।’’ वो बोले, ‘‘हमें कौन सी महँगी शादी करनी है, साधारण शादी करेंगे और कुछ ज्यादा खर्च नहीं करेंगे। सोनिया की जगह तुम्हारी बहन की यही स्थिति होती, तो हम क्या करते?’’ उनकी बात का मेरे पास कोई जवाब नहीं था। मैंने भी ये मन बना लिया था कि जो भाग्य में लिखा है, वही होगा। मैं अपने काम में लग गया। मैंने सोनिया को सांत्वना दी कि ‘‘तुम चिंता मत करो, जो ठीक होगा, वो हम करेंगे।’’ उसकी पढ़ाई डिस्टर्ब हो गई थी। एक महीने के बाद फिर वो कॉलेज गई। अब मेरे दिमाग में टेंशन थी। कुछ पैसे तो इकट्ठे कर लूँ। शाम को डॉक्टर साहब के घर से जाते हुए आज फिर मैं फोटोस्टेट की दुकान पर गया और बोला, ‘‘भैया मेरे को पैसे की बहुत मज़बूरी है। आप थोड़ा काम रख लिया करो। मैं शाम को 7 बजे आकर रात को 11 बजे तक काम करूँगा।’’ वो बोला, ‘‘ठीक है तुम कल से आ जाना।’’ मैंने अब शाम को वहाँ जाना शुरू कर दिया। अभी 15-20 दिन हुए थे कि एक दिन दोपहर को पापा के ऑफिस से फोन आया कि सोनू तुम्हारे पापा को हार्ट अटैक आ गया है और उन्हें लेकर अरोड़ा हॉस्पिटल गये हैं, मैं घबरा गया। मैंने डॉक्टर साहब से बात की, ‘‘मैं जा रहा हूँ, पापा को दिल का दौरा पड़ा है।’’ वो बोले, ‘‘कौन से हस्पताल में हैं?’’ मैं बोला, ‘‘अरोड़ा हॉस्पिटल लेकर गये हैं।’’ वो बोले, ‘‘तुम जाओ, घबराओ नहीं। अरोड़ा हॉस्पिटल में कार्डियोलॉजिस्ट डॉक्टर राजेश खुराना मेरे अच्छे मित्र हैं। उनको मैं फोन कर देता हूँ।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है सर।’’ मैं वहाँ से भागा और अरोड़ा हस्पताल पहुँचा। मेरे पापा को अन्दर ऑपरेशन थिएटर लेकर गये थे, मुझे बताया गया कि उन्हें स्टंट डलेंगे। मैं बाहर घबराहट में चक्कर लगा रहा था। घंटे भर बाद ऑपरेशन थिएटर से बाहर आए और बोले, ‘‘ऑपरेशन सफल रहा ओर उन्हें वार्ड में शिफ्ट किया जा रहा है।’’ उन्होंने 15 दिन तक मेरे पापा को हस्पताल में रखा। 15 दिन मैं भी वही रहा। मैं तो कुछ और कमाने की सोच रहा था, ये तो और खर्चा बढ़ गया था। डॉ. साहब के बोलने के बाद हमारा बिल बहुत कम कर दिया, जितना पापा के ऑफिस से रीम्ब्रसमेंट मिल सकता था। शुक्र है, ये राहत हो गई कि कहीं से पैसा माँगना नहीं पड़ा। 
       पंद्रह दिन पापा ने घर पर और आराम किया। उनको कोई भारी काम नहीं करना था और खाने-पीने की बहुत-सी पाबंदियाँ भी लग गई थीं। पापा ऑफिस में चपरासी थे, जिससे उनको भारी काम करना होता था। वो मुझसे बोले, ‘‘मुझे ड्यूटी तो ज्वाइन करनी पड़ेगी। और छुट्टियाँ नहीं ले सकता। एक काम करो, तुम मेरे साथ चला करो, ऑफिस में मेरी सहायता करना और हो सकता है, तुम्हारे काम को देखते हुए कोई तुम्हारा भी मेरी तरह सरकारी नौकरी का बंदोबस्त हो जाए।’’ मैं बहुत मन मसोस कर रह गया। मैंने बड़े अनमने ढंग से डॉ. साहब को फोन किया और बोला, ‘‘अब मैं नौकरी नहीं कर सकता, पापा की तबियत खराब रहती है।’’ वो बोले, ‘‘अच्छा, जैसा तुम ठीक समझो पर मैंने तुम्हारे इन्तज़ार में कोई ड्राईवर रखा ही नहीं। अगर तुम्हारी नज़र में अच्छा ड्राइवर हो तो बताना।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है सर।’’ सोनिया को हमारी स्थिति का पता चल चुका था, वो भी काफी परेशान थी। वो मुझसे बोली कि ‘‘अंकल-आंटी दोनों ही बीमार हो गये हैं, अब तुम कैसे सम्भालोगे? अब शादी कर लेते हैं, कम से कम मैं घर तो संभाल लूँगी।’’ मैंने बोला, ‘‘कोई बात नहीं। मैं कुछ पैसों का प्रबंध करता हूँ और हम लोग शादी करते हैं।’’ 
       तो मैंने पूछा, ‘‘अभी की नहीं शादी?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर आपका एहसान है, आपने मुझे सिक्यूरिटी गार्ड वाली पोस्ट पर लगा दिया है। अब कुछ पैसे इकट्ठे हो रहे हैं। अब आपको जल्दी ही हमें शादी के लिए आशीर्वाद देने आना होगा।’’ 
       मैं बोला, ‘‘बहुत अच्छी बात है।’’ 
       10 बज कर 20 मिनट तक हम ढाबे से निकले थे। बीच में एक बार चाय पीने के लिए रुके। 3 बजकर 30 मिनट तक हम घर पहुँच गए। मैं सोनू को घर छोड़ आया। मैंने तो उस दिन छुट्टी के लिए मेल कर रखी थी। मन में सोचा, आज थोड़ा आराम करूँगा। बहुत थकान है। मैं घर जाकर सो गया। 9 बजे मेरी आँख खुल गई। मैंने देखा कि टाइम सुबह के 9 बजे हैं। मैंने अपनी पत्नी से कहा कि नाश्ता बना दो, ‘‘मैं तैयार होकर ऑफिस चला जाऊंगा।’’ 
       10 बजकर 15 मिनट पर मैं ऑफिस पहुँचा, तो सोनू आया हुआ था। मैंने उसे केबिन में बुलाया और बोला, ‘‘तुम आराम कर लेते, दो दिन के थके हुए हो।’’ 
       वो बोला, ‘‘कोई बात नहीं सर, कोई थकावट नहीं है। कुछ काम पड़ा था पापा वाला, मैं उसको निपटा देता हूँ।’’ इतना कह कर वो केबिन से चला गया। मैं भी अपने काम में व्यस्त हो गया। 
       थोड़ी देर बाद मैंने देखा, बाहर जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज़ आ रही थी। मैं तेज़ी से बाहर निकला तो देखा सविता सोनू पर चिल्ला रही थी। मैंने पूछा, ‘‘क्या हुआ सोनू?’’ 
       वह बोला, ‘‘सर मुझे केक का आर्डर करने के लिए बोल रही हैं, आज अमन का जन्मदिन है। मेरे पास बाइक नहीं है, मैंने मना कर दिया तो चिल्लाने लगीं।’’ 
       मैंने सविता से पूछा, ‘‘क्यूँ इस पर चिल्ला रही हो?’’ 
       उस पर तो इश़्क का भूत सवार था, वो मुझसे भी बदत्तमीजी से बोली, ‘‘सर ये आपके काम कर सकता है, तो हम लोगों के काम के लिए मना क्यों करता है?’’ 
       मुझे पता था, स्टाफ के बाकी लोग इसकी खूबसूरती के जाल में फँसे हुए हैं। सब तमाशा देखेंगे। मैंने सोनू से बोला, ‘‘तुम अंदर आकर बैठ जाओ।’’ मैं भी अपने केबिन में जाकर बैठ गया। मैं अब मन में सोचने लगा या तो मेरा ट्रान्सफर हो जाए या इसका। इस ऑफिस में काम करना मुश्किल लग रहा था। 
       शाम को सोनू मेरे केबिन में आया और बोला, ‘‘सर अब मेरा यहाँ काम करने का मन नहीं करता। मैं नौकरी छोड़ना चाहता हूँ।’’ 
       मैं उसे बोला कि ‘‘ऐसे लोग तो पूरी ज़िन्द़गी मिलते रहेंगे। हमको इस तरह के लोगों के साथ ही जीना सीखना होगा।’’ 
       वो थोड़ा आशावादी होकर वहाँ से निकल गया पर मैं मन ही मन समझ गया कि या तो इस लड़की का ट्रान्सफर हो जाए, नहीं तो ऑफिस को संभालना मुश्किल हो जाएगा। मैंने अपने दूसरे स्टाफ से बात करने की सोची कि वो इस लड़की के बारे में क्या सोचते हैं। मैंने एक-एक करके स्टाफ का मन टटोलना शुरू किया, तो सभी उसके फैन मिले। एक राजीव को छोड़कर। 
       शाम को इन्होंने अमन का जन्मदिन मनाया। मैंने भी अमन को बाहर जाकर बधाई दी। सबने केक खाया। ऑफिस से बाहर निकलते हुए स्टाफ के कुछ सदस्य मेरे केबिन में आये और बोले, ‘‘आज अमन ने पार्टी रखी है। आप भी चलो।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘मैं तो ड्रिंक नहीं करता।’’ 
        इतने में राजीव मुझसे बोला, ‘‘सर चलो। इस बहाने हमारे साथ बैठ तो जाओगे।’’ 
       मैंने भी साथ चलने की सोच ली। मेरे मन में जिज्ञासा थी। शायद सविता के बारे में कोई बात हो। हम सब लोग पास के एक होटल में चले गए। वो लोग अक्सर वहीं पर बैठते थे। दो-चार मिनट में वेटर रूम में आया, तो अमन उसको बोला, ‘‘एक वेटर और बुला लो, जो खाने का ऑर्डर भी ले लेगा। तुम तब तक जाकर शराब ले आना।’’ 
       वो बोला, ‘‘सर 102 नम्बर पर कॉल कर दो, तो दूसरा वेटर आ जाएगा।’’  
       राजीव ने 102 पर कॉल किया और वेटर को आने के लिए बोला। इतने में अमन ने जेब से पर्स निकाला और 500-500 के आठ नोट निकालकर वेटर को दे दिए और बोला कि ‘‘दो बोतल 100 पाइपर की, एक सीग्राम वाइन व एक सिगरेट का पैकेट ले आना।’’ 
       कृष्ण जी, जो आयु में वरिष्ठ अधिकारी थे, वो बोले कि ‘‘वाइन किसके लिए?’’ तो राजीव मुस्कराते हुए बोला, ‘‘रिटर्न गि़फ्ट देना है सविता को।’’ 
       अमन के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी। वेटर पैसे लेकर चला गया। दो मिनट बाद दूसरा वेटर आया। राजीव ने मीनू कार्ड उठाया और आर्डर करना शुरू किया। कृष्ण जी बोले, ‘‘सर तो नॉन वेज नहीं खाते, इनके लिए कोई वेज आइटम बोलो।’’ तभी राजीव ने मीनू मेरी तरफ बढ़ाया और बोला, ‘‘सर आप ऑर्डर कर दो।’’ 
       मैंने मीनू देखकर एक-दो स्नैक्स और लाइम वाटर का आर्डर किया। वेटर ऑर्डर लेकर चला गया। पाँच मिनट बाद पहले वाला वेटर बोतलें लेकर आया। वाइन की बोतल अमन ने निकाल कर वेटर को 100 रुपये टिप दिया और बोला, ‘‘इसको गिफ्ट पैक करवा के आओ।’’ मैं चुपचाप बैठ कर सब लोगों को ऑब्जर्व कर रहा था कि थोड़ा इनको नशा हो ओर मैं इस विषय पर बात करूँ। राजीव ने पैग बनाने शुरू किये। वहाँ हम दो लोग थे, जो ड्रिंक नहीं करते थे। मैंने लाइम वाटर पीना शुरू किया और उसने एक गिलास में पेप्सी डाल कर पीना शुरू किया। हमारे बीच में एक क्लर्क था, जो बहुत शरारती किस्म का था और बहुत बोलता था। उसकी नज़दीकियाँ ऑफिस की सभी महिलाओं से थी। उसका चरित्र समझ नहीं आता था। अभी तक बस वही बोल रहा था। पाँच पैग का दौर खत्म होने के बाद भी अमन के चेहरे पर कोई नशा नहीं आ रहा था। बाकी सबकी ज़ुबान लड़खड़ा रही थी। लगता था, अमन बहुत ज्यादा ड्रिंक करता था। 
       मैंने थोड़ा-सा माहौल हल्का करते हुए उस क्लर्क से बोला कि ‘‘सविता तुम्हारी फ्रेंड नहीं है क्या?’’ 
      वो बोला, ‘‘उसपे तो अमन का अधिकार है।’’ 
       अमन के चेहरे पर कोई भाव ना आया। बड़ा चालक था वो। मैंने देख लिया, यहाँ से कुछ निकलने वाला नहीं है। उस क्लर्क को ज्यादा नशा होने लगा था। वो राजीव को छेड़ रहा था कि तुमने सविता से दोस्ती छोड़ी, तो उसने अमन को पकड़ लिया। राजीव बोला, ‘‘वो तो ऐसी ही लड़की है। कल मेरे साथ थी और आज अमन के साथ है और कल किसी और के साथ होगी।’’ यह सुनकर अमन को गुस्सा आ गया। वो बोला, ‘‘वो ऐसी लड़की नहीं है। तुम उसको बदनाम करना बंद करो।’’ राजीव बोला, ‘‘सिगरेट का पैकेट मैंने उसके दराज़ में देखा है और वाइन तुम उसे गि़फ्ट कर रहे हो। इससे तुम उसे किस तरह की लड़की समझते हो?’’ अमन बोला, ‘‘तुम्हारे साथ उसकी नहीं बनी और वो तुमको छोड़ कर चली गई, इसलिए तुम अपनी खीज निकालने के लिए उसको बदनाम करते रहते हो।’’ 
       माहौल को गर्म होता देख कृष्ण जी बोले, ‘‘अरे छोड़ो, तुम लोग एक-एक लार्ज पेग बनाओ और चलो घर। घर के लिए लेट हो रहा है।’’ राजीव ने एक पेग बनाया और 102 नम्बर पर कॉल करके वेटर को बिल लाने के लिए बोला। थोड़ी देर में वेटर बिल लेकर आया। अमन ने वेटर को स्वाइप मशीन भी लाने के लिए बोला और अपना कार्ड दे दिया। अपना-अपना पेग खत्म कर सब खड़े हो गये। सबने गले लगा कर अमन को जन्मदिन मुबाऱक कहा और अपने-अपने घर निकल लिए। मैंने भी गाड़ी निकाली और घर पहुँच गया। 
       हमारी दिनचर्या फिर से पहले की तरह चलने लग गई। मैंने मन ही मन तसल्ली कर ली कि सविता की जल्दी शादी हो जाएगी और ये ट्रान्सफर होकर यहाँ से चली जाएगी। एक दिन शाम को सोनू मेरे केबिन में आया और बोला कि ‘‘सोनिया के पापा ज्यादा बीमार हैं और शायद वो ज्यादा दिन जीवित ना रहें और अपने रहते हुए उसकी शादी करना चाहते हैं।’’ 
       मैंने उसे पूछा कि ‘‘दिक्कत कहाँ आ रही है?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर पैसे बिलकुल नहीं हैं।’’ 
       मैंने बोला, ‘‘कम से कम तुम्हारा कितना खर्चा होगा?’’ 
       वो बोला, ‘‘50 हजार तो लग जाएंगे। 20 हजार तो मेरे पास हैं।’’ 
       मैं बोला, ‘‘तुम चिंता ना करो। बाकी बचे 30 हजार मैं दूँगा। तुम शादी की तैयारी करो। पैसे किस्तों में मुझे वापिस करते रहना।’’ 
       उसके चेहरे पर खुशी की लहर थी। वो बोला, ‘‘सर मैं आपका ये एहसान कभी नहीं उतार सकता।’’ 
       मैं बोला, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं। तुम शादी की तैयारी करो।’’ 
       वो बोला, ‘‘शादी फिक्स करने के लिए रविवार को सोनिया के घर पापा को लेकर जाऊंगा।’’ इतना कह कर वो वहाँ से निकल गया। 
      सोमवार को जब वो आया, तब मुझसे बोला, ‘‘सर शादी की तिथि इसी महीने की 17 तारीख मंगलवार को फिक्स हुई है।’’ 
       मैंने उससे बधाई दी और उसको 30 हजार रुपये निकाल कर दिये और कहा, ‘‘तुम तैयारी करो।’’ 
      ‘‘सर, सारा काम आपको ही संभालना है।’’ इतना कहकर वो मेरे केबिन से चला गया। 
       मैं अपने काम में लग गया। सोनू और उसके पिता शादी की तैयारी में लग गए और वो बीच-बीच में ऑफिस से भी चले जाते थे तैयारी करने के लिए।  आखिरकार उसकी शादी का समय आ गया। 
       14 तारीख शनिवार था। शाम को सोनू और उसके पिता जी मेरे केबिन में आये और हाथ जोड़ कर खड़े हो गये और मुझसे बोले कि ‘‘सर आप 17 तारीख को समय पर आ जाना और बच्चों को आशीर्वाद देना।’’ 
      मैंने उससे पूछा कि ‘‘शादी का क्या प्रोग्राम है?’’ 
       वो बोले, ‘‘हमने सोनिया के परिवार को 15 लोगों के साथ आने के लिए  बोला है।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘ठीक है, मैं 17 को आ जाऊंगा।’’ 
       मैंने घर आकर अपनी पत्नी शिल्पी से बात की और सोनू की शादी में जाने के बारे में पूछा। वो बोली, ‘‘वो बहुत गरीब हैं और मज़बूरी में शादी कर रहे हैं। आप अकेले ही जाकर आ जाना।’’ 
       मैंने रविवार को फोन करके सोनू को बता दिया कि मैं सीधा सोनिया के घर ही पहुँच जाऊँगा। 17 तारीख की मैंने छुट्टी ले ली थी। ऑफिस में सबको पता चल गया था कि सोनू की 17 तारीख की शादी है और उसने सि़र्फ सर को ही बुलाया है। 
       19 तारीख को सोनू और उसके पिता ऑफिस में आ गये। उन्होंने केवल तीन दिन की छुट्टी ली थी। ये उनकी ऑफिस के प्रति वफादारी भी थी, जो केवल तीन दिन की छुट्टी ली। सोनू मिठाई का डिब्बा लिया हुआ था और ऑफिस में सबको खिला रहा था। सविता को उसने मिठाई ऑफर की। तब उसने बोला, ‘‘ना तूने बुलाया और ना ही बताया और अब मिठाई खिला रहा है।’’ उसने कहा, ‘‘मैडम मेरी मज़बूरी थी’’ लेकिन वो टस से मस ना हुई। ना ही उसने मिठाई को छुआ। सोनू वहाँ से निकल गया। 
       वो अब सोनू को ज्यादा तंग करने लगी। बहाने से आवाज़ें लगाती थी। कुछ न कुछ जान-बूझ कर मंगाती रहती थी। सोनू की अब शादी हो गई थी, तो उसकी मज़बूरी ज्यादा हो गई थी काम करने की और कुछ मैं उसे समझाता रहता था कि सब ठीक हो जाएगा। सविता अब मेरे ऑर्डर की भी अवहेलना करने लग गई थी। मैंने उसे केबिन में बुलाना भी बंद कर दिया था। अगर मुझे उससे कोई काम होता था, तो मैं उसके केबिन तक चला जाता था। उसको कोई काम होता था, तो अमन के नेतृत्व में तीन-चार लोग मेरे केबिन में आ जाते थे। मैं इन सबका आदि हो चुका था। मुझे ये मालूम था कि इंगेजमेंट होने के बाद भी वो अमन के साथ टाइम पास ज्यादा करती थी और शायद अपने मंगेतर के साथ कम। एक दिन मैंने सोनू से पूछा कि ‘‘इसकी इंगेजमेंट किसके साथ हुई?’’ वो बोला कि ‘‘वो भी एक सरकारी अधिकारी है, एक दिन पूनम बता रही थी।’’ मुझे बड़ा ताज्जुब हुआ कि सरकारी अधिकारी होने के बाद भी उसने इसके बारे में कुछ पता नहीं किया। मैंने अपने आपको दूसरे काम में व्यस्त कर लिया।  
       एक दिन मैं बैठा अपना काम कर रहा था कि क्षेत्रीय कार्यालय से फोन आया कि प्रधान कार्यालय से निर्देश प्राप्त हुए हैं कि खर्चों में कमी करनी है। आप एक सप्ताह में मेल द्वारा बताएं कि कौन सी मद में खर्चा बचा सकते हैं। मैं बोला, ‘‘मेरे ऑफिस में कोई फालतू खर्च नहीं होता। केवल वेतन, बिल्डिंग किराया, जनरेटर, स्टेशनरी इत्यादि है। इसमें और  मैं क्या कम कर सकता हूँ?’’ उन्होंने कहा कि ‘‘आप 7 दिन तक मेल कर देना, नहीं तो क्षेत्रीय कार्यालय से लिस्ट भेजी जाएगी।’’ मैंने कहा, ‘‘ठीक है, मैं क्या खर्चा कम कर सकता हूँ, हमारे यहाँ कभी 100 रुपये का नजायज खर्च नहीं हुआ।’’ इतना कह कर मैंने फोन रख दिया और अपने काम में व्यस्त हो गया। 
       10 दिन बाद क्षेत्रीय कार्यालय से मेल आया कि आपके ऑफिस की जनरेटर सुविधा और सिक्यूरिटी गार्ड की सुविधा समाप्त कर दी गई है। जनरेटर की जगह इन्वर्टर की कूटेशन भेजने के लिए बोला गया। जनरेटर की तो कोई बात नहीं थी, लेकिन सिक्यूरिटी गार्ड को हटाना सोनू के पेट पर लात मारने वाली बात थी। मेरे शरीर ने काम करना बंद कर दिया। मैं चुपचाप लंच के बाद घर चला गया ओर शिल्पी को सारी बात बता दी। शिल्पी ने मुझे समझाया कि ‘‘उसकी किस्मत ही ऐसी है, तो आपका क्या दोष? आप उसको बता देना कि प्राइवेट नौकरी ही तो है, कहीं और देख लेगा। आप भी मदद कर देना उसकी नौकरी ढूँढने में।’’ ये बात सुनकर मैं थोड़ा रिलैक्स फील कर रहा था। 
       एक-दो दिन तक मैंने उसको कुछ नहीं बताया। मेरी हिम्मत नहीं पड़ रही थी। नई-नई उसकी शादी हुई थी। एक दिन शाम को मैंने उसको अपने केबिन में बुलाया और उसे बिठा कर बोला कि ‘‘इस महीने के अंत तक ही तुम्हारा पद है। क्षेत्रीय कार्यालय ने तुम्हारा ये पद खत्म कर दिया है। तुम काम करते रहो, जब तक तुम्हारी एडजस्टमेंट कहीं और नहीं हो जाती।’’ 
       उसके चेहरे पर बहुत उदासी आ गई। वो बोला, ‘‘सर मैं इतने वेतन की नौकरी कहीं भी ढूँढ़ लूँगा परन्तु आपसे जो मैंने सीखा है, ये अनुभव मुझे कहीं नहीं मिलेगा।’’ 
       वो चुपचाप उठकर चला गया। बाहर सारे स्टाफ को पता चल गया कि 30 तारीख के बाद सोनू दिखाई नहीं देगा। इस बात से अमन और सविता बहुत खुश थे। मेरे कहने के बाद भी सोनू ऑफिस आ रहा था। सविता ने उसे देखा, तो ऐसा लगा कि जैसे भूत देख लिया हो। अमन के पास जाकर खड़ी हो गई। वो शायद ये पूछ रही थी कि ये कैसे आ गया? उनकी आधा घंटा तक बैठक चलती रही  लेकिन बोले कुछ नहीं। सोनू को आते हुए 3-4 दिन हो गये थे। सविता की खीझ बढ़ती जा रही थी। 11:20 पर उसने सोनू को बुलाया और अमन और अपने लिए पैंट्री से काफी लाने के लिए बोला। 11 : 30 पर मुझे वो चाय देता था। वो मेरे केबिन में चाय देने के लिए आया। मेरे पास केबिन में दो लोग और थे। मैंने उनके लिए भी पानी और चाय लाने के लिए बोला। वो उनके लिए चाय और पानी लेने के लिए चला गया। हमें चाय देने के बाद वो सविता और अमन की भी कॉ़फी लेने चला गया। 11:45 हो चुके थे। सविता का गुस्सा सातवें आसमान पर था। शायद वो सोच रही थी कि सोनू उनको जान करके इग्नोर कर रहा है। वो जैसे ही कॉ़फी लेकर उसके पास पहुँचा, उसको किसी ने पीछे से पुकारा, ज्यों ही वो पीछे मुड़ा और सविता शायद अमन के केबिन में जाने के लिए उठी तो उन दोनों की टक्कर हुई और कॉ़फी सविता के ऊपर गिर गई। गुस्से से लाल तो वो पहले ही थी। कॉ़फी गिरते ही उसने एक थप्पड़ सोनू को जड़ दिया। ऐसी अपेक्षा किसी को नहीं थी। सारा स्टाफ वहाँ इकट्ठा हो गया। मैं भी उठकर बाहर चला गया। मैं भी बहुत गुस्से में गया और उसको डाँट दिया। वो तो गुस्से से पागल हुई खड़ी थी। उसने मुझे भी नहीं छोड़ा और बोली, ‘‘आपका सिर चढ़ाया हुआ है। इसने जान-बूझकर कॉफी गिराई है।’’ माहौल बहुत खराब हो रहा था। अमन और उसके साथ के लोग तमाशा देख रहे थे। मैं उनकी स्ट्रेटेजी समझता था कि मुझसे उसका जितना मतभेद बढे़गा, वो उसकी उतनी ही सहानुभूति प्राप्त करेगा। 
       कृष्ण जी ने आकर बीच-बचाव किया। मुझे अपने केबिन में लेकर आये। वो भी अपने कपड़े चेंज करने के लिए ऑफिस से निकल गई। 
       सोनू मेरे केबिन में आया और बोला, ‘‘सर मैं जा रहा हूँ। अब अपमान बर्दाश्त नहीं होता, न अपना और न ही आपका।’’ 
       मेरे पास कोई शब्द नहीं थे। मुझे पता था, अब इसको रोकना ठीक नहीं है। घर आकर शिल्पी को सारी बात मैंने बताई और उसने क्षेत्रीय कार्यालय को सविता की शिकायत करने के लिए बोला। मुझे भी लगा कि अब सही समय है इसकी शिकायत करने का। मैंने अगले दिन लंच के बाद पूरी घटना का लैटर बनाया और पोस्ट करने के लिए रखा। फिर काम में व्यस्त हो गया। उस दिन मैं पोस्ट नहीं कर पाया। 
       अगले दिन मैं अपने केबिन में आकर बैठा था कि 10  बजकर 20 मिनट पर सविता ऑफिस में आई। अपने केबिन में पर्स रखने के बाद वो सीधा मेरे केबिन में आई। उसके हाथ में एक मिठाई का डिब्बा और शादी का कार्ड था। मुझसे बोली, ‘‘सर परसों के लिए सॉरी। बीस तारीख को मेरी शादी है, अपनी फैमिली के साथ आना है।’’ 
       मैंने उसको अनमने मन से बधाई दी। वो केबिन में खड़ी रही। बोली, ‘‘सर मैंने 15 तारीख से एक महीने की छुट्टी अप्लाई कर दी है और ट्रान्सफर का लैटर क्षेत्रीय कार्यालय में भेज दिया है। प्लीज, आप मेरा नाम रेकेमंड कर देना।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘ठीक है।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘कहाँ की रिक्वेस्ट लगाई हुई है तुमने? उसने एक रिमोट जगह का नाम बताया और बोली राजेश की पोस्टिंग वहीं है।’’ सुनते ही मैंने बहुत रिलैक्स फील किया। जिस स्थान का नाम उसने ट्रान्सफर के लिए बताया था, वहाँ के हमारे ऑफिस में कोई जाने को तैयार नहीं होता था। मुझे पता था, क्षेत्रीय कार्यालय में जाते ही इसकी रिक्वेस्ट स्वीकार हो जाएगी। मेरी जैसी अपेक्षा थी, चार दिन बाद ही उसका ट्रान्सफर का आदेश क्षेत्रीय कार्यालय से आ गया। 
       सोनू के बारे में मेरी उसके पापा से बात होती रहती थी, उसको कोई जॉब नहीं मिली थी। वो फ्रीलान्स ड्राइवर का और उस फोटोस्टेट वाली दुकान पर काम कर  रहा था।
       सविता को मैंने 15 तारीख को ही रिलीव कर दिया। छुट्टी के बाद वो वहाँ सीधा ज्वाइन कर सकती थी। 20 तारीख को उसकी शादी थी। ऑफिस से अमन, राजीव, राहुल और कृष्ण जी गये थे। उनसे बाद में मुझे पता चला कि सबने ज्यादा शराब पी ली थी और सविता से फोटो खिंचवाते वक्त राहुल ने अमन और सविता के बारे में कुछ अंट-शंट बोल दिया था, जिससे सविता का पति राजेश अनकम्फर्टेबल महसूस कर रहा था। बाद में छन-छन कर यह समाचार मुझे लंच टेबल पर मिलता था कि सविता व राजेश के बीच नहीं बनती थी। शायद उसे अमन के बारे में पता चल गया था। वो सविता से मारपीट भी करता था। अमन से उसका कांटेक्ट खत्म हो गया था लेकिन पूनम से उसकी बात होती रहती थी। उसी से राजीव को पता चलता था और वो चटकारे लेकर लंच टेबल पर अपना ज्ञान बघारता था। 
       सोनू अब मेरे कांटेक्ट में नहीं रहा था। मैं उसके लिए कोई जॉब भी नहीं ढूँढ पाया था। बस उसके पापा से उसका हालचाल पूछ लेता था। इतने में अंदर कृष्ण जी ने प्रवेश किया। मैं भी फ्लैश बैक से बाहर निकला। महेंद्र के आँसू आने बंद हो गये थे। मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि सोनू को भी जेल हो सकती है। मैंने वॉलेट जेब से निकाला और उससे पूछा, ‘‘कितने पैसे चाहिए।’’ 
      वो बोला, ‘‘सर 10 हज़ार रुपये बहुत हैं।’’ 
       मैंने उससे कहा कि ‘‘खाली पैसे से काम नहीं चलेगा। मेरे एक मित्र चावला जी वकील हैं, उनका नंबर तुझे देता हूँ, सुबह जाकर उनसे मिल लेना। मैं फोन कर देता हूँ, वो जमानत का प्रबंध कर देगा।’’ 
       उसने ‘हाँ’ में सिर हिलाया और केबिन में से निकल गया। मैंने चावला जी को फोन लगाया और महेंद्र को अटेंड करने के लिए बोला। उन्होंने महेंद्र को 2 बजकर 30 मिनट पर उनके चैम्बर में भेजने के लिए कहा क्यूंकि सुबह कोर्ट में कोई सुनवाई थी, तो वो बिजी थे। मैंने महेंद्र को 2 बजकर 30 मिनट पर चावला जी के चैम्बर नंबर 112 में जाने के लिए बोल दिया। अगले दिन वो जब चावला जी से मिलकर आया, तो मैंने उससे पूछा कि क्या हुआ, तो वो बोला कि उन्होंने पुलिस स्टेशन से FIR की कॉपी लाने के लिए बोला है। मामला दूसरे राज्य का था और चावला जी एक व्यस्त वकील थे, इसलिए उन्होंने महेंद्र को ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी। 
       मैंने चावला जी को फोन लगाया और बोला कि ‘‘आप महेंद्र की मदद कीजिए’’, तो चावला जी ने कहा ‘‘NDMC का केस है, चुनाव सिर पर हैं और ऐसा माहौल है कि सब पे बहुत प्रैशर है। हमारे एरिया में ड्रग्स की तस्करी होती है, बहुत मुश्किल काम है। फिर भी मैं पूरी कोशिश करूँगा।’’ 
       मैंने महेंद्र को अगले दिन पुलिस स्टेशन जाकरा FIR की कॉपी लाने के लिए बोला। महेंद्र वहाँ जाकर पूरा दिन बहुत प्रयास करता रहा लेकिन पुलिस ने उसे FIR की कॉपी नहीं दी। वो निराश होकर वापिस आ गया और रोते हुए बोला, ‘‘सर कुछ नहीं हुआ। आप ही कुछ कीजिये।’’ 
       मैंने उसे ढांढ़स बँधाया और खुद चावला जी के चैम्बर में जाने का निर्णय लिया। मैंने शाम के 4 बजकर 30 मिनट का टाइम फिक्स करके जाने का निर्णय लिया। शाम को जब मैं चावला जी के चैम्बर पहुँचा। चाय इत्यादि पीने के बाद मैंने चावला जी को बोला, ‘‘आप ये काम खुद ही करवाइए। वो तो FIR की कॉपी ला नहीं सका।’’ उन्होंने तुरंत फोन उठाया और वहाँ की एक लॉ फर्म को फोन किया और सोनू व उसके पिता का नाम बताकर तुरंत FIR की कॉपी भेजने को बोला। चावला जी ने मुझे आश्वासन दिया कि ‘‘सर हो जाएगा ये काम।’’ 
       अगले दिन चावला जी का फोन मेरे पास आया और मुझसे बोले, ‘‘शाम को महेंद्र को भेज देना वकालतनामा साइन करवाना है।’’ 
       शाम को महेंद्र उनके चैम्बर में पहुँचा। वकालतनामा उनके मुंशी ने तैयार कर रखा था। उस पर साइन करवाने के बाद चावला जी बोले, ‘‘NDMC का केस है, इसमें जमानत के लिए ऐसा जमानती चाहिए, जो सिक्यूरिटी के तौर पर अपनी ज़मीन, मकान या दुकान के पेपर रख सके।’’ महेंद्र ने वहाँ ‘हाँ’ में सिर हिलाया और आ गया। दो दिन तक पूरी भागदौड़ करने के बाद भी उसको कोई जमानती नहीं मिला। जब निराश होकर वो घर बैठा था, तो सोनिया ने कहा, ‘‘पापा मैं घर बात करती हूँ और जमानती का बंदोबस्त करती हूँ।’’ पूरी तैयारी के पश्चात चावला जी को लेकर वो वहाँ की कोर्ट में गये और जमानत के पेपर दिए। कोर्ट में सरकारी वकील की तरफ से ज्यादा विरोध न होने के कारण सोनू की जमानत हो गई। 
       34 दिन जेल में रहने के बाद सोनू बाहर आया था। महेंद्र ने ऑफिस आकर मेरे पैर पकड़ लिए और बोले, ‘‘सोनू की जमानत हो गई है और वो घर आ गया है।’’  
       मैं उससे मिलने के लिए बड़ा अधीर था कि ऐसा क्या हुआ कि उसे जेल जाना पड़ा। मैंने महेंद्र से बोला कि उससे कहना कि कल आकर मुझसे मिले। अगले दिन महेंद्र ऑफिस आया और बोला कि सर वो यहाँ नहीं आना चाहता। कह रहा है कि मैं सर को फेस नहीं कर पाऊंगा। मैंने खुद सोनू को फोन लगाया और शाम को आने के लिए बोला। 
       सोनू शाम को 6 बजे मेरे ऑफिस आया। सारा स्टा़फ जा चुका था। मैंने उसे बैठने के लिए बोला। वो झिझकते हुए सामने वाली कुर्सी पर बैठ गया। मैंने उससे पूछा कि ‘‘बताओ क्या हुआ’’, तो वो बोला, ‘‘सर बड़ी लम्बी कहानी है।’’ 
       मुझे जिज्ञासा इतनी थी, मैं बोला, ‘‘कोई बात नहीं तुम शुरू करो, जितना टाइम लगेगा, मैं बैठा हूँ।’’ 
       उसने शुरू किया, ‘‘जब इस ऑफिस से मैं गया तो मुझे कोई नौकरी नहीं मिली। मैं फ्रीलांसर ड्राईवर और फोटोस्टेट की दुकान पर नौकरी करने लगा। शादी हो जाने के कारण घर का खर्चा भी बढ़ गया था। सोनिया भी प्रेग्नेंट थी। बड़ी मुश्किल से घर का खर्चा चल रहा था। सोनिया का नौवां महीना चल रहा था। डॉक्टर से जाँच करवाई, तो वो बोली कि बच्चा उल्टा है, नॉर्मल डिलीवरी नहीं हो सकती। सिजेरियन होगी। मैं बहुत परेशान हो गया। घर में पैसे पहले ही नहीं थे, ऊपर से सिजेरियन डिलीवरी, परेशानी में घर जा रहा था, इतने में लवप्रीत का फोन मेरे पास आया कि अमृतसर जाकर आना है। उसके पास टोयोटा इनोवा गाड़ी थी। मैं उससे बोला कि मैं नहीं जा सकता, एक-दो दिन में मेरी पत्नी की डिलीवरी है। उसने कहा, हमारे गाँव का पंजाबी सिंगर रणजीत गिल कनाडा से आ रहा है। सिक्यूरिटी रीज़न है, मैं किसी और को नहीं ले जा सकता। तुझे 10 हज़ार रूपये दूँगा। पैसे की तो सख्त ज़रूरत थी। मैंने उसकी ऑफर स्वीकार कर ली और उससे बोला कि ठीक है, आ जाता हूँ। मैं तुरंत उसके गाँव के लिए निकल पड़ा। हम दोनों गाड़ी लेकर निकल पड़े। रास्ते में वो किसी से बात कर रहा था कुछ सामान लेने की। हाईवे से निकलते हुए उसने गाड़ी एक कच्चे रास्ते में मोड़ने के लिए बोला। मैं बोला, कहाँ जा रहे हैं, तो वो बोला, अरे तुम क्यूँ चिंता करते हो? कुछ लेना है, अभी थोड़ी देर का काम है। हाईवे से 25 km दूर एक फार्म हाउस टाइप बना हुआ था। 15 फीट ऊँची दीवारें, 10 बाई 10 का मेन गेट और साथ में 2 फुट का छोटा गेट। उसने बाहर पहुँचने के बाद अंदर फिर फोन किया। अंदर से गाड़ी नंबर पूछा गया। उसके बाद गेट खुला, शायद CCTV से वो सब देख रहे थे। हमारी गाड़ी अंदर चली गई। गाड़ी से बाहर निकलकर लवप्रीत ने जेब से नोटों की गड्डी निकाली और सामने बैठे आदमी को पकड़ा दी। उसने एक दूसरे आदमी को इशारा किया। वो अंदर से एक छोटा-सा पैकेट लाकर लवप्रीत को पकड़ा दिया। लवप्रीत ने वो पैकेट जेब में डाल लिया। सामने बैठा व्यक्ति हमसे बोला कि अमृतसर की तरफ जा रहे हो ना, हमने ‘हाँ’ में सिर हिलाया। उसने उस लड़के को दोबारा इशारा किया और वो अंदर से एक बड़ा पैकेट ले आया। उसने पैकेट हमें पकड़ा दिया और सामने बैठा आदमी बोला, अमृतसर से 17 km पहले ‘स्टार वन’ नाम से एक ढाबा है। वहाँ पर एक पुलिसकर्मी बैठा मिलेगा, उसे ये पकड़ा देना। पुलिस का नाम सुनते ही लवप्रीत और मुझे झुरझुरी आ गई। उसने हमारे चेहरे की तरफ देखा और बोला, काके घबराना नहीं है। कुछ नहीं होगा। ऐथे वड्डी डिलीवरियाँ ताँ पुलिस ही करदी है। त्वाडे छोटे-मोटे पैकटा नाल साडा किथे काम चलना है। लवप्रीत ने डरते हुए वो पैकेट पकड़ लिया और मुझे गाड़ी चलाने के लिए बोला। मैंने बाहर निकलते हुए उससे पूछा कि क्या माजरा है? बोला कि इसमें 'चिट्टा' है। भाई थोड़ी-बहुत लगा लेता है। मैंने सोचा, कनाडा से आ रहा है, उसका स्वागत करेंगे। मेरे हाथ-पाँव फूल गये। मैंने उससे कहा कि तुमने मुझे कहाँ फँसा दिया? वो बोला, तू चिंता ना कर, कुछ नहीं होगा। उनका बड़ा स्ट्रांग नेटवर्क है। यहाँ ये सब चलता है। उसकी तसल्ली के बाद भी मेरा माथा पसीने से तर-बतर था। वो फिर मुझे तसल्ली दे रहा था, उनको मना नहीं कर सकते। ये हमारे को रास्ते में कहीं पकड़वा देते। मैं चुपचाप गाड़ी चला रहा था। अमृतसर से 17 km पहले जब ‘स्टार वन’ ढाबा दिखाई दिया, तो हमने गाड़ी रोकी। रात के 8 बजे का टाइम था। भूख भी जोर से लगी थी। गाड़ी से उतरकर हम वाशरूम गये और पुलिस वाले को पैकेट देकर खाना खाने की सोची। हमारी नज़रें पुलिस वाले को ढूँढ रही थीं। ढाबे पर बिलकुल भी भीड़ नहीं थी। शायद खाने की क्वालिटी अच्छी नहीं रही होगी। हमारी नज़र दूर बैठे एक पुलिस वाले पर पड़ी, जो हुलिया हमें बताया गया था, वही था। हम उसके सामने पहुँचे। वो शराब की बोतल लेकर बैठा था और नशे में धुत लग रहा था। हमें सामने देखते ही वो बोला, बैठो काके। हम डरते-डरते बैठे और पैकेट निकालकर दे दिया। अभी पैकेट टेबल पर था ही कि मुझे कान पर कुछ दबाव का एहसास हुआ। मैंने हल्का-सा पीछे मुड़कर देखा, 2-3 बंदे थे, हुलिया पुलिस वाला लग रहा था लेकिन वर्दी नहीं डाली हुई थी। उसके हाथ में 9 mm की पिस्टल थी और कंधे पर AK—47 टंगी हुई थी। मुझे ऐसा लगा कि मैं बेहोश हो जाऊंगा। सामने बैठा पुलिस वाला बोला, 'मैंनू पैकेट फडाना सी'। मेरे पीछे खड़ा पुलिस वाला बोला, 'बड़े साहब दा हुक्म है, चौनां (चुनाव) आ गये ने बड़ा प्रैशर है। गिरफ्तारी दिखानी ज़रूरी है। वैसे ही दूसरी स्टेट के हैं, ज्यादा लफड़ा नहीं पाऊंगा।' वो स्कार्पियो पे थे, उन्होंने हमसे हमारी गाड़ी की चाबी ले ली और हमे स्कार्पियो में बिठा लिया। हमें लेकर वो थाने आ गये। खाना उन्होंने कहीं से मंगवा रखा था, मीट थी, शराब थी और रोटियाँ। हमारे को खाना खाने के लिए बोला। हमारी तो टांगें काँप रही थीं। फिर भी हमने एक-एक रोटी खा ली। खाना खाने के बाद उन्होंने हमारे को खड़ा करके कुछ डिब्बों के साथ फोटो खींचकर प्रैस वालों को बुलाकर दे दिया। फिर हमें ले जाकर कोठरी में बंद कर दिया। अगले दिन सुबह चाय और ब्रेड दिए और बोले, 'तैयार हो जाओ। कोर्ट जाना है।' फिर हम तैयार हो गये और हमें वो गाड़ी में लेकर कोर्ट आ गये। डेढ़ बजे हमारा कोर्ट में नंबर आया और सरकारी वकील ने छह दिन के रिमांड की माँग की। हमारी तरफ से कोई वकील नहीं था। जज साहब ने बिना हमारी तरफ देखे छह दिन की रिमांड की मंजूरी दे दी। वो हमें लेकर वापिस आ गये और रिमांड रूम ले गये। रिमांड रूम 10बाई10 का एक कमरा था। हम दोनों को नीचे लेटने के लिए बोला और हमारे हाथ-पाँव इकट्ठे करके पीछे एक डंडा लगाकर बाँध दिये। पाँच मिनट बाद ऐसी पीड़ा का एहसास हुआ कि भगवान से प्रार्थना करने लगे कि मौत आ जाए। पूरा दिन उन्होंने हमारी सुध नहीं ली। हमें यह लगा कि हम दो-तीन बार पीड़ा की अधिकता से बेहोश हुए हैं। रात को 8 बजे उन्होंने हमें खोला और खाने के लिए मीट रोटियाँ और एक दारू की बोतल रख गये। दर्द इतना था कि ऐसा लग रहा था कि फिर बेहोश हो जाएँगे। मैंने कभी शराब नहीं पी थी पर दर्द को कम करने के लिए आधी बोतल मैंने और आधी बोतल लवप्रीत ने गटक ली। भूख के मारे बुरा हाल था। सारी रोटियाँ हमने खा ली और वहीं पर नींद आ गई। सुबह चाय के साथ ब्रेड आई। हमने चाय और ब्रेड ली। थोड़ी देर में वही कल वाले पुलिस वाले आए, जिन्होंने हमे पकड़ा था। वो बोले, मच्छीगोटा लगा इनको। हमारी आँखों में आँसू आ गये और बोले, 'हमने कुछ नहीं किया।' वो बोले, 'काके कुछ नहीं कित्ता ताँ ऐथे हो, नहीं ताँ एनकाउंटर हो गया हौंदा।' हमने उनके पैर पकड़ लिए लेकिन उनको कोई फर्क नहीं पड़ा और हमें बाँध कर चले गये। शाम को फिर 8 बजे आकर उन्होंने खोला और दारू-मीट के साथ खाना दिया। हमने खाना खाया और खाना खाने के बाद वो हमारे पास आए और बोले, काके कल भी मच्छीगोटा खाना है या मीट नाल रोटी? हमारी हालत ऐसी हो चुकी थी, हम मौत की कामना कर रहे थे। हम उनसे बोले, 'क्या करना है?' उन्होंने बोला कि ये काग़ज़-पेन है। इस पर लिखो हम alprex, torodoll, redlon, cordin syrup वहाँ से लाते हैं और यहाँ बेचते हैं। हमारे पास कोई चारा नहीं था। हमें लगता था कि 6 दिन यहाँ रहे तो मर जाएँगे। हम जब लिख रहे थे तो उन्होंने ये सब बोलते हुए हमारी विडियो भी बना ली और बोले, कोर्ट में मुकर गये तो एनकाउंटर हो जाएगा। हमने उनके कहे अनुसार सब किया। अगले 4 दिन उन्होंने हमें तीन टाइम खाना खिलाया। खाने की क्वालिटी इतनी बढ़िया होती थी, ऐसा लगता था, जैसे किसी अच्छे रेस्तरां से आता था। उनकी बातचीत से यह लगता था, कोई इनका राजनीतिक आका है, जो इन्हें फोन करता है और बड़े-बड़े इनके कनेक्शन हैं। उनके फोन आने पर ये रात को पेट्रोलिंग पर निकलते थे और कुछ सप्लाई करते थे। 6 दिन बाद उन्होंने हमें कोर्ट में ले जाने के लिए बुलाया और मैंने उस पुलिस वाले के पैर पकड़ लिए और बोला, 'हमें कितने साल की सज़ा होगी?' वो बोला, 'केड़ी सज़ा हेगी केंदे कोल टाइम है, इन्हां कम्मां वास्ते त्वाडी ज़मानत हो जाएगी। कदे तुसी नहीं आओगे तरीक ते, कदे जज नहीं आउगा। कदे साडे पुलिस वाले नहीं पहुँचण्गे। सालों-साल फाइलाँ धुल खांदी रह्नदी। हेन्न सिस्टम कौल टाइम नहीं है। त्वाडी ताँ नौकरी लाग गई है, 50 हज़ार रूपये महीना कमाओगे।' मैं बोला, 'नौकरी कैसे?' वो बोला, 'जेल जाओगे तो पता चलेगा।' उस दिन की तरह हमारा नंबर 12:30 बजे आया और सरकारी वकील ने चार्ज़ पढ़कर सुनाये। हमने सिर हिलाकर 'हाँ' भरी। पुलिस ने पुलिस रिमांड न मांगकर जुडिशल रिमांड की मांग की। ज़मानत की अर्ज़ी न होने से जज ने 14 दिन की जुडिशल रिमांड का हुक्म दिया। पुलिस की गाड़ी वारंट की कॉपी लेकर शाम को 5 बजे हमें जेल छोड़ आई। एक घंटा जेल में हमारी फॉर्मेलिटी पूरी हुई और फिर हमें बाद में वार्ड में भेज दिया गया। हमारी वार्ड में 40 कैदी थे। हम दोनों के अंदर आते ही हमसे बोले कि किस केस में आए हो? हम बोले, NDMC, उन्होंने हमसे पूछा, जेल या जुडिशल? हमने जवाब दिया, जुडिशल। उनमें से एक नेता-सा नज़र आ रहा था। सब उसे उस्ताद-उस्ताद बोल रहे थे। रात 8 बजे सही खाना आ गया। खाने में दाल के नाम पर पानी था और सूखी 4 रोटियाँ। उस्ताद के पास 6-7 लोग बैठे थे। उनका खाना अलग लग रहा था। शायद मीट थी और देसी घी का डिब्बा भी रखा था। खाना खाने के बाद दूध आ गया। वो भी दूध के नाम पर पानी था। थोड़ी देर में जिसको उस्ताद बोल रहे थे, उसने मुझे इशारा किया और बोला, 'काके इधर आ।' मैंने साथ वाले कैदियों से उसके बारे में पूछ लिया था। वो एक नेटवर्किंग कंपनी का सरगना था और लोगों को पैसे 21 दिन में डबल करने का लालच देता था। इस नेटवर्किंग से उसने करोड़ों रुपये कमाए थे और कुछ सामाजिक संस्थाओं ने जब मीडिया में इस मामले को उछाला तो सरकार को इस पर रेड डलवानी पड़ी थी। ये भी सुनने में आया कि लोकल एम. एल. ए. का दाहिना हाथ था और उसका 20 परसेंट पार्टी फंड में जाता था। जेल में भी इसने पैसे की नदियाँ बहा रखी थी और ऐशो-आराम की ज़िन्दगी जी रहा था। मेरी मानसिक स्थिति बहुत खराब हो चुकी थी। मुझे पता लग गया था कि सोनिया की डिलीवरी हो चुकी और हमारी एक गुड़िया हुई है। मेरी आँखों में उसकी एक तस्वीर थी। अक्सर हम दोनों जब बातें करते थे, तो उसको छवि हमारी आँखों में बनी हुई थी। मैं उसकी तरफ गया और बोला, 'बोलो'। वो बोला, 'बोलना नहीं काके। टांगे दबा।' मेरी मानसिक स्थिति ऐसी गुस्से वाली थी। मैं बोला, 'कौन सी टांग दबानी है?' वो गुस्से से बोला, 'कौन सी क्या? दोनों टाँगे दबानी है।' मेरे अंदर परस्थितियों से इतना गुस्सा था कि मैंने जोर से लात उसको मार दी। वो कराहा और थोड़ा उठा। मैंने एक घूँसा उसके जबड़े पर दे मारा। वह दर्द से कराहने लगा। उसके जो 7-8 चमचे थे, मेरे ऊपर कूदे। मैं उन पर टूट पड़ा। मेरी ता़कत का एहसास उनको हो चुका था। उनके मालिक को भी पता लग चुका था कि गलत जगह पे पंगा ले लिया है। दूसरे कैदियों ने हमें छुड़वाया और हमे शांत करवाया। उस्ताद जी की हेकड़ी निकल चुकी थी। अगले दिन सुबह हमें चाय और बन दी गई। 9 बजे हमें खोला गया, 9 बजे से शाम 5 बजे तक हमें खुला रखा जाता था। शाम को जब हम वापिस अपने वार्ड में आए, तो सारे कैदी मुझसे इम्प्रेस हो चुके थे कि बंदे में दम है। 1-2 कैदी मुझसे बोले कि उस्ताद समझौता करना चाहता है। उसकी इज्ज़त का सवाल है, तुम अगर मा़फी माँग लो, तो तुम्हारी ज़मानत में भी सहायता करेगा। मुझे उसका प्रस्ताव सही लगा। मैंने उस्ताद से जाकर माफी माँग ली। उसने मुझे बिठाया और कहा कि आज से तू मेरा चेला है। मुझे अपने साथ बिठाकर खाना खिलाया। अब हमारा खाना भी उस्ताद के साथ आता था और हमारे छोटे-छोटे काम भी दूसरे कैदी कर देते थे। 14 दिन बाद हमारी पेशी थी। सुबह जब चाय आई, तो सभी कैदी इकट्ठे हुए कि अब तुम जेल से निकल जाओगे, तो तुम्हारा कांटेक्ट नंबर दे दो, जो हमारे बाहर के कुछ काम होते हैं, वो कर दिया करना। इसके लिए उन्होंने एक फीस भी निर्धारित कर रखी थी। अब मुझे उस इंस्पेक्टर की बात याद आई, जो हमारी नौकरी की बात कर रहा था। 9 बजे हमें लेने पुलिस की वैन आ गई और हमें कोर्ट लेकर गई। मेरे घर से कोई नहीं आया था। लवप्रीत के घर के लोग वकील लेकर आये थे। उसकी ज़मानत हो गई और मुझे फिर 14 दिन की जुडिशल रिमांड। मेरी आँखों में आँसू आ रहे थे। मैं जेल को अपनी नियति मान चुका था। चुपचाप वैन में बैठकर जेल चला गया। बड़ी मुश्किल से 14 दिन फिर कटे। अब मुझे जेल के सब राज़ पता चल चुके थे। पैसा कैसे कमाया जाता है, कैसे हमारे जैसे लोग रिमोट से चलते हैं और ताकतवर लोग चाहे राजनीति में हों, प्रशासन में हों, धार्मिक व सामाजिक संस्थाओं में हों, पैसों से हमारे जैसे लोगों को रिमोट से चलाते हैं। अगली तारीख पर आपकी कृपा से मुझे ज़मानत मिली।’’ 
       उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे और उसकी कहानी सुनते हुए मेरी भी आँखें भीग गई थीं। वो कहाँ से कहाँ पहुँच गया था। अब मैं आगे उसकी कोई सहायता भी नहीं कर सकता था। रात के 9 बज चुके थे। मेरे मोबाइल की घंटी बजी। शिल्पा का फोन था। बोली, ‘‘आए नहीं आप।’’ मैं बोला, ‘‘बस निकल रहा हूँ।’’ वह मुझे लेट ही फोन करती थी। उसे पता था, ऑफिस में बहुत काम रहता है। हमने ऑफिस बंद किया और निकल पड़े। 
       मेरे मन में अभी कुछ सवाल थे। मैंने उसे कल फिर बुलाया। उसने शाम को इसी समय आने के लिए कहा और चला गया। रात को काफी देर तक मुझे नींद नहीं आई। मैं सोचता रहा। ये उसकी किस्मत का दोष है या सिस्टम का? सिस्टम कैसे एक दिन में सब कुछ बदल देता है। 
       अगले दिन शाम को 6 बजे फिर वो आया, मैंने उसे बिठा लिया। मन में कई सवाल थे। मैंने उससे पूछा कि ‘‘तुम्हारी FIR की कॉपी में तो alprex, redlon, cordin syrup  है, क्या झोल है?’’ 
       वो बोला, ‘‘सर पकड़ते तो ये चिट्टा हैं परन्तु ये बरामदगी दूसरे ड्रग्स की दिखाते हैं।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘ऐसा क्यूँ?’’ 
       वो बोला, ‘‘चिट्टा पाकिस्तान से स्मगल होकर आता है। इसमें बहुत बड़ा नेटवर्क है। बड़े लोगों की इन्वॉल्वमेंट है। एरिया बँटे हुए हैं। इसमें कोई सत्ता या विपक्ष नहीं होता। एरिया के हिसाब से चलता है। इस काम में इतनी ईमानदारी होती है कि 1-1 ग्राम का हिसाब रखा जाता है।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘इनका डिस्ट्रीब्यूशन नेटवर्क कैसे चलता है?’’ 
      वह बोला, ‘‘स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी में ये बच्चों को फँसाते हैं। कॉलेज, यूनिवर्सिटी के छात्रों के बीच पार्टियों का बड़ा चलन है। आजकल किसी न किसी बहाने स्टूडेंट पार्टियाँ रखते हैं। हर शहर में बहुत सारे छोटे-छोटे पार्टी हॉल बने हुए हैं। बहुत सारे पार्टी हॉल्स का ठेकेदार एक ही होता है। जब स्टूडेंट्स की पार्टी होती है तो पहली बार आने वाले छात्रों को फ्री सप्लाई करते हैं और बाद में लत लग जाती है, तो छात्र चाहे चोरी करे या कुछ और करे, पैसे जुटाकर लाता है और चिट्टा खरीदता है। आजकल तो यह व्यवस्था है कि इन्होंने गाँवों के स्कूल, कॉलेजों पर भी कब्जा कर लिया है। छात्रों को कहते हैं, 10 ग्राम बेचो और 1 ग्राम फ्री मिलेगा।’’ 
       मैंने अपने सिर पर हाथ रख लिया। मेरा सिर घूम रहा था। छात्रों के भविष्य के बारे में सोचकर सोनू ने बताया, ‘‘जब वो थाने में था तो वो पुलिस वाले आपस में बात कर रहे थे कि आज सैलरी आनी है, तो उनको कोई रात को उनका हिस्सा देकर जाता था। ऐसा सुनने में आया था कि हर हफ्ते उनका हिसाब होता था।’’ 
      मैंने सोनू से पूछा कि ‘‘वो सिंगर का क्या रोल था?’’ 
       सोनू बोला कि ‘‘ये लोग उनके शो स्पोंसर करते हैं और युवा पीढ़ी इन सिंगर्स से बड़ी प्रभावित होती है और ये सिंगर गाने भी ऐसे गाते हैं, जिसमें नशे का ज्यादा प्रचलन होता है।’’ 
       सोनू ने मेरी आँख खोल दी थी। मैंने उससे पूछा कि ‘‘अब तुम क्या करोगे?’’
       वो बोला, ‘‘अभी कुछ सोचा नहीं। अब तो कोई ड्राईवर की भी नौकरी नहीं देगा।’’ 
       मैं उससे बोला कि ‘‘तुम चिंता न करो। मैं तुम्हारा किसी बैंक से छोटा-मोटा लोन करवा देता हूँ और तुम फोटोकॉपी की दुकान खोल लेना।’’ 
      उसके चेहरे पर मुस्कान आ गई। अब फिर मैंने उसको चलने के लिए बोला।
      एक-दो दिन के बाद सोनू मेरे ऑफिस में फिर आया और बोला कि ‘‘सर मेरा लोन करवा दो।’’ 
       मैंने कहा, ‘‘ठीक है, मैं करवाता हूँ।’’ 
       मैं उसे लेकर पास के एक बैंक पहुँचा और अपना परिचय दिया। प्रबंधक महोदय ने हमारे लिए चाय का ऑर्डर दिया और आने का कारण पूछा। मैंने सोनू के लिए 1 लाख लोन के लिए पूछा, फोटोस्टेट की दुकान खोलने के लिए। प्रबंधक महोदय ने तुरंत घंटी बजाकर अपने ऋण अधिकारी को बुलाया और सारी औपचारिकताएं पूरी करने के पश्चात् 1 लाख रुपये का लोन देने के लिए बोला। उसने सोनू को बाहर बुलाया और औपचारिकताएं लिखकर दी और अगले ही दिन लोन सैंक्शन कर देने के लिए बोला। 
       2-3 दिन बाद मुझे महेंद्र से पता चला कि लोन सैंक्शन हो चुका है। सोनू ने दुकान किराये पर ले ली है और फोटोस्टेट की मशीन का भी ऑर्डर कर दिया है और 15 तारीख को दुकान का मुहूर्त है। मेरे मन को अब थोड़ी तसल्ली हुई थी। चलो अब उसका रोज़गार शुरू हो जाएगा। इस बीच यह सुनने में आ रहा था कि हमारे शहर में भी चिट्टे का प्रचलन बहुत बढ़ गया है। चुनाव भी आने वाले थे। ये भी सुना था कि कुछ सामाजिक संस्थाओं ने जिला अधिकारी के कार्यालय के बाहर भी प्रदर्शन किया है। पुलिस पर बहुत दबाव था इस नेटवर्क को तोड़ने का, 15 तारीख को सोनू की दुकान का मुहूर्त था। 
       14 तारीख शाम को हाँफते हुए महेंद्र मेरे केबिन में आया, ‘‘सोनू को पुलिस पकड़ कर ले गई है।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘अब क्या हुआ? अभी तो उसकी तारीख भी नहीं थी और ज़मानत का भी कोई दुरुपयोग नहीं हुआ था।’’ 
       वो बोला, ‘‘पता नहीं सर।’’ 
       मैंने पूछा, ‘‘कौन-सी पुलिस थी?’’ 
       वो बोला, ‘‘लोकल CIA स्टा़फ था।’’ 
       मैं तो इस पचड़े में पड़ना नहीं चाहता था। मैं बोला, ‘‘तुम जाओ।’’ 
       वो वहाँ से चला गया। यह दूसरी बार था, तो मुझे चावला जी को फोन करने में झिझक महसूस हो रही थी। मैं घर के लिए निकल पड़ा। मैं दुविधा में था कि क्या सही है?
       अगले दिन अ़खबार में खबर थी कि चिट्टे का बड़ा गिरोह पकड़ा गया। सरकारी लोग अपनी पीठ थपथपा रहे थे। 
       अगले दिन महेंद्र जब आया, तो मैंने पूछा कि ‘‘क्या रहा?’’ 
       वो बोला, ‘‘कल तो मिलने नहीं दिया। काफी भीड़ थी। मीडिया के लोग भी थे। आज कोर्ट में पेशी है। शाम को मिल पाऊंगा।’’ 
       शाम को महेंद्र, फिर गया। उसे पता चला कि छह दिन की रिमांड मिली है और जब उसने मिलने की बात की, तो SHO बोला, ‘‘रात को आ जाना, चाहे खाना साथ खा लेना।’’ रात को जब मैं पहुँचा तो SHO ने सोनू को बाहर बुलाया और मेरे सामने बिठा दिया और 50 हज़ार का पैकेट मेरी तरफ उछाल दिया। SHO बोला ‘‘6 दिन बाद कोर्ट में पेशी है, 10 हज़ार रुपये वकील को दे देना, ज़मानत हो जाएगी और 40 हज़ार खुद रख लेना। छह दिन के लिए 40 हज़ार कम नहीं हैं। छोटे को 15 दिन के लिए कहीं बाहर भेज देना। मीडिया वाले शांत हो जाएंगे इतने तक।’’ 
      महेन्द्र हाथ जोड़कर बोला, ‘‘सर केस का क्या?’’ 
      SHO बोला, ‘‘ढाई ग्राम बरामद करवाया है। कोई केस नहीं बनेगा। आराम से रहो।’’ 
       छह दिन बाद सोनू को ज़मानत मिल गई। 
      वो मेरे पास आया और मैंने पूछा कि ‘‘ये सब कैसे हुआ?’’ 
      वो बोला, ‘‘कुछ नहीं सर। जब भी पुलिस पर प्रैशर होता है, वो हम जैसे लड़कों को पकड़ लेते हैं और गिऱफ्तारी होने पर सब लोग शांत हो जाते हैं। फिर कुछ दिनों में सब कुछ भुला दिया जाता है।’’ 
       मैंने पूछा कि ‘‘केस का क्या होता है?’’ 
      वो बोला, ‘‘ढाई ग्राम की बरामदगी दिखाते हैं जो कि डोमेस्टिक होती है, कमर्शियल नहीं।’’ 
      मेरा दिमाग घूम रहा था और चिट्टे की नई तस्वीर नज़र आ रही थी।



पवन खुराना
पवन खुराना केनरा बैंक में डिविजनल मैनेजर के पद पर कार्यरत्त हैं। इनकी शैक्षणिक योग्यता M.A., CAIIB है। इनका बैंकिंग सेक्टर में 26 वर्षों का अनुभव है। इन्होंने बैंकिंग में विभिन्न क्षेत्रों में काम किया है और लगभग दस वर्षों तक शाखा प्रबंधक रहे हैं। इन्हें पढ़ने-लिखने का बहुत शौक है।


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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय