काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

राजेंद्र लहरिया के नये उपन्यास 'अंधकूप' से एक अंश

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 ‘‘और सुरंजन,’’ कहते हुए रामभोगबाबू ने वहाँ उपस्थित अजनबियों की ओर हाथ से इंगित कर एक तरफ से बताना शुरू किया, ‘‘ये हैं श्री वशिष्ठ जी, ये श्री राष्ट्रसेवक जी और ये श्री दीनानाथ जी- ये तीनों ही ‘संगठन’ के वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं। इनके बारे में किंचित् और प्रकाश डालना आवश्यक है: श्री वशिष्ठ जी हमारे जिले के बौद्धिक-प्रमुख के पद पर कार्य कर रहे हैं और एक बहुत गंभीर वक्ता और श्रेष्ठ विद्वान हैं!... और ये श्री राष्ट्रसेवक जी एक ऐसे कर्मठ कार्यकर्ता हैं कि इसे बताने के लिए एक ही उदाहरण पर्याप्त है कि इन्होंने दिसम्बर ब्यानवे में अपने दस्ते के साथ अकेले अपनी दम पर मिट्टी के तेल और पैट्रोल की सहायता से दुश्मनों के लगभग सौ घरों को भस्मीभूत कर दिया था! इसीलिए ‘संगठन-प्रमुख’ के द्वारा इन्हें ‘राष्ट्रसेवक’ की उपाधि से विभूषित किया गया है!... और ये श्री दीनानाथ जी दिल्ली से आये हैं, ये ‘पार्टी’ और ‘संगठन’ के अत्यन्त विश्वसनीय और महत्वपूर्ण कार्यकत्र्ता हैं! इन्होंने तीन पुस्तकें लिखी हैं: एक तो ‘धर्म एव हतो हन्ति’, दूसरी ‘मनुस्मृति का महत्व’ और तीसरी.. कौन-सी है दीनानाथ जी..?’’
 दीनानाथ जी ने अत्यन्त सधी हुई आवाज में कहा, ‘‘तीसरी है ‘वेदों में विज्ञान’।’’
 ‘‘हाँ, ‘‘वेदों के विज्ञान’! रामभोगबाबू ने उत्साह के साथ सुरंजन की तरफ देखा, ‘‘दो किताबें तो मेरे पास हैं, मैं तुम्हें पढ़ने के लिए दूँगा...
 ‘‘खैर, अब तुम्हें यहाँ बुलाने का कारण बताता हूँ... इतनी रात को तुम्हें यहाँ बुलाने का कारण छोटा-मोटा नहीं है सुरंजन! हमें अब बहुत बड़ा काम करना है- अपने लिए, अपने राष्ट्र के लिए!.. इसीलिए ये लोग यहाँ तक परेशान हुए हैं। इन लोगों को निर्देश प्राप्त हुए हैं कि अब ‘संगठन’ के क्रियाकलाप गाँव-देहात तक ले जाने होंगे। और इसके लिए गाँव-देहात में मौजूद युवा प्रतिभाशाली लोगों को अपने साथ जोड़ कर, उनके कंधों पर अपने कार्यक्रमों का भार डालना होगा!... इस गाँव में मुझे तुमसे ज्यादा प्रतिभावान् और योग्य व्यक्ति इस कार्य के लिए और कोई नहीं दिखाई देता है...’’
‘‘कौन-से कार्य के लिए?’’ सुरंजन बीच में ही पूछ उठे।
सुन कर रामभोगबाबू ने अपनी निगाह सुरंजन के चेहरे पर डाली, फिर बोले, ‘‘इसके लिए मैं अपने सम्माननीय अतिथियों से निवेदन करूँगा कि आप लोग सुरंजन को उनके कार्य के बारे में बतायें।’’ कह कर उन्होंने अपने सम्माननीय अतिथियों की ओर देखा।
जवाब में सर्वप्रथम श्री वशिष्ठ जी ने अपना लगभग आधे घण्टे का व्याख्यान दिया, जिसकी शुरुआत ‘प्रिय सज्जनों’ से हुई और समाप्ति ‘हम सबका पुनीत कर्तव्य है’ से।
उनके बाद दीनानाथ जी लगभग बीस मिनट धारा प्रवाह बोले। उनके भाषण में ‘राष्ट्र’, ‘धर्म’, ‘जाति’, ‘वर्ण व्यवस्था’ और ‘ऋग्वेद’ आदि शब्दों का इतनी बार प्रयोग हुआ कि भाषण समाप्त होने के बाद भी वे शब्द लगातार सुरंजन के कानों को सुनाई दे रहे थे।
दीनानाथ जी के बाद राष्ट्रसेवक जी ने अपनी लगभग ऊजड़ और किरकिरी भाषा में ‘संगठन’ के कार्यकर्ता के कर्तव्यों पर प्रकाश डाला था...।
उन सबको एक के बाद एक सुनने के बाद सुरंजन लगभग भौंचक्के रह गये थे!
और पता नहीं, वह उस बैठक में जल रहे साठ वाट के बल्ब की मटमैली रौशनी की करामात थी या लगातार गहराती रात की तासीर या कोई और बात कि सुरंजन को वहाँ मौजूद सभी लोगों के मुँह अब आदमियों-जैसे नहीं, बल्कि डाइनासौरों के मुँहों-जैसे लग रहे थे!... आदमियों के धड़ों पर डाइनासौरों के सिर- आँख, नाक, कान, मुँह!...
और अब सुरंजन उन चेहरों से नजरें हटा कर बैठक की दीवारों पर देख रहे थे, जहाँ लगभग दो-दो तीन-तीन फीट की दूरी पर काँच के भीतर फ्रेम की हुई कुछ तस्वीरें टँगी थीं- जिनमें से एक तस्वीर एक बाबानुमा दाढ़ी-मूँछ और केशधारी सज्जन की थी, दूसरी एक टोपीधर मूँछों वाले महानुभाव की, और तीसरी...
‘‘तो सुरंजनबाबू,’’ रामभोगबाबू ने उस तस्वीर-दर्शन से सुरंजन का ध्यान अपनी ओर मोड़ा, ‘‘अब रात भी पर्याप्त व्यतीत हो चुकी है। और हम सब चाहेंगे कि आप दिये गये निर्देशों और संकेतों के आधार पर शीघ्र ही अपना काम प्रारंभ कर दें- यही हम सबके और राष्ट्र के हित में योगदान होगा!’’
जवाब में सुरंजन बिना कुछ कहे खाट से खड़े हुए और चुपचाप बैठक से बाहर निकल गये थे।
 
पर घर पहुँच कर सुरंजन को नींद न आ सकी थी। एक अजीब तरह की बेचैनी थी, जो उन्हें भीतर-ही-भीतर परेशान किये हुए थी। लगता था उन्हें कि उनसे रू-ब-रू हर ‘आदमी’ के चेहरे के भीतर एक और चेहरा है, जो कभी-कभी ऊपर वाले चेहरे का खोल फोड़ कर बाहर निकलता है और जो निहायत अनपहचाना, भयानक और सनसनीखेज है! हो सकता है कि उस चेहरे के नीचे भी एक और चेहरा छिपा मौजूद हो!... वे उन अदृश्य चेहरों के खौफ से आक्रांत बने रहे थे...




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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय