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निर्मल गुप्त की कविताएँ


कलिंग कहाँ कहाँ है ? 

बहुत दिन बीते कलिंग की कोई सुध-बुध नहीं लेता
चक्रवर्ती सम्राट को बिसराए हुए अरसा हुआ 
प्रजा लोकल गोयब्ल्स के इर्द-गिर्द जुटती है
उसे इतिहास की तह में उतरने से अधिक 
शब्द दर शब्द फरेब के व्याकरण में 
अपना त्रिकालदर्शी भविष्य 
इस किनारे से साफ-साफ दिखने लगा है।

बहुत दिन बीते 
किसी राजसी रसोईए को नहीं मिला 
सामिष पकाने के बजाए 
खालिस घी मे बघार कर दाल-भात पकाने का हुक्मनामा
राजसी गुप्तचर करछी लिए 
चूल्हे पर चढ़ी हंडियों में तपन के सुराग ढूंढते हैं।
कलिंग में अब 
आमने सामने लड़ाई की बात नहीं होती
वहाँ की रक्तरंजित धरती में 
बिना किसी खाद पानी और साफ हवा के 
उपजते हैं सुगंधित बहुरंगी  फूल
वहाँ के लोग अब न घायलों  की कराह को याद करते हैं 
न मायूस विजेता के पश्चताप को
वे लगातार पूछते रहते हैं 
परस्पर साग-भाजी के चढ़ते उतरते भाव।

कलिंग में जब युद्ध हुआ तो हुआ होगा
मरने वाले मर गए होंगे
घायलों ने भी थोड़ी देर तड़पने के बाद 
दम तोड़ दिया होगा आखिरकार
एक राजा विजयी हुआ होगा
एक अपनी तमाम बहादुरी के बावजूद हार गया होगा।

शिलालेखों पर दर्ज हुई इबारत 
यदि इतिहास है तो 
इसे जल्द से जल्द भूल जाने में भलाई है
अन्यथा महान बनने के लिए 
लाखों लाख गर्दनों की बार-बार जरूरत पड़ेगी।


कलिंग वहाँ नहीं है 
जहां उसका होना बताया जाता है
वह हर उस जगह है
जहाँ मुंडविहीन देह के शीर्ष पर 
सद्भावना और वैश्विक शांति की पताका 
बड़े गर्व से फहराने  का सनातन रिवाज है।


उचाट उदासी में लिपटी लड़की 

अभी-अभी एक लड़की नहा कर गीले बाल लिए छत पर आई है
जहाँ तेज धूप से लिपटी गर्म हवा, धूल के कण और उचाट उदासी है
सामने वाले घर की खिड़की अधखुली है
जहाँ हमेशा एक दुबला लड़का हथेली पर चेहरा टिकाये रहता है
कहते हैं कि सदियों से वह वहाँ खड़ा
आती-जाती लडकियों की ओर नि:शब्द फब्तियाँ उछालता है
कभी-कभी उसकी युक्तियों में कामुकता भरी होती  है
फिर भी उस लड़के के होने भर के अनुमान से
कतिपय मादा देह रह-रह कर सिहर-सिहर उठती हैं.  
 
अभी-अभी भरी दोपहर में गली के दूसरे सिरे से
कुत्तों के गुर्राने और बिल्लियों के रोने की भ्रामक आवाजें आई हैं  
अपने एकांत में घिरा घर का इकलौता बुजुर्ग सोचता है
हरदम गली में चिल्ल-पों करते बच्चे कहाँ गुम हुए यकायक
वे छुपम-छुपाई खेलते कहीं बड़प्पन की तलाश में
वक्त की अल्पज्ञात दिशाओं में तो नहीं निकल गये
गली में फैली सूखी पत्तियों के ऊपर से 
किसी अपशकुन की तरह दूर सड़क से हूटर बजाती एम्बुलेंस गुजरी है
 
कोई कहीं कोने में चुपचाप खड़े आदमी से  पूछ रहा है
ए,  तू यहाँ क्यों खड़ा, मंशा क्या है
यहाँ तेरे लायक कोई नहीं दूर-दूर तक
वैसे तेरी उम्र क्या है ?
आदमी खड़ा-खड़ा उँगलियों पर गिनने लगा
अतीत के स्याह सफ़ेद पन्ने
बोला, तुमने तो यह क्या काम दे दिया मुझे
अब बाकी बची उम्र तो बेसाख्ता बीत जाएगी
समय की गिनतियों को जोड़ते-घटाते-मिटाते।
 
छोटे से शहर में आजकल सिर्फ दीवारे ही दीवारें हैं
कोई खुलेआम यहाँ ताकाझांकी नहीं करता
हर सुगबुगाहट से बुरी ख़बर आती है
किसी घर के भीतर खाली बर्तनों से भूख रिसती है
बच्चे रोते-पीटते झपटते हैं एक दूसरे पर
उन्होंने चमत्कारिक मदद के लिए
आसमान की ओर ताकना छोड़ दिया है
वहीँ कहीं एक घर ऐसा भी है
जिसके अंदर की बेमकसद ठण्डक में गलीचे पर लेटे
भरपेट खाए-अघाए लाला-लालाइन खेलते हैं लूडो
सोचते हैं, आओ चलो हँसते खेलते दबे पाँव
अपने वक्त के पार निकल जाएँ


लड़कियों के ख्वाब 

कोई कहीं
घुमाती होगी सलाई
रंगीन ऊन के गोले
बेआवाज़ खुलते होंगे

मरियल धूप में बैठी
बुनती होगी
एक नया इंद्रधनुष

लड़कियाँ
कितनी आसानी से उचक कर
पलकों पर टांग लेती हैं
सतरंगे ख्वाब


फिसलता वक्त 

एक-एक कर छूटती जा रही
मनपसंद आदत, शानदार शगल, दिलफ़रेब लत
जीवन में गहरे तक समायी अराजकता
जब-तब उदासी ओढ़ लेने का हुनर और
कहीं पर कभी भी बेसुध नींद में उतर जाना
मानो मन ने उसे भुला दिया अरसा हुआ।
 
उम्र फिसल रही है हाथ से धीरे-धीरे..
बहुत दिनों तक हर फ़िक्र को
बेहद लापरवाही से धुंए में उड़ाया
मन बेवजह मुदित हुआ तो
नुक्कड़ वाले हलवाई के यहाँ जा जीम आये
दौने में धर दो-चार इमरती
देर तक पानी न पिया कि
जीभ पर टिका स्वाद तत्क्षण गुम न जाये।
 
ढेर सारी हिदायत तमाम परहेज
हर सांस के साथ तरह-तरह की नत्थी शर्तें
जिन्दा बने रहने को बार-बार करना हो
प्राणांत का फुलड्रेस रिहर्सल
देह से गमन ऐसा जैसे अमरत्व का कोई स्वांग
मरना जीने से भी जटिल हुआ मानो।
++++


निर्मल गुप्त
बंगाल में जन्म। मेरठ में पला-बढ़ा। प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। नौकरी के सिलसिले में  मेरठ से दिल्ली, नोएडा और गाजियाबाद आदि शहरों की ओर लगातार आना -जाना  रहा। शुरू में कहानियाँ लिखीं, फिर कुछ बरसों के लिए चुप्पी साधी। डेली पेसेन्जरी के उन यायावर  दिनों में मन ही मन काफी कुछ लिखा  और गुना भी । जब-जब मौका मिला व्यंग्य लिखे, कविताएं लिखीं और कभी-कभी कहीं न भेजे जाने वाले शायद प्रेम पत्र भी लिखे। 
प्रकाशन :  दैनिक जागरण, अमर उजाला,  दैनिक हिंदुस्तान,ट्रिब्यून,  नई दुनिया,  जनसत्ता, हरिभूमि, आउटलुक, वर्तमान साहित्य, व्यंग्य यात्रा सहित देश लगभग सभी प्रमुख पत्र पत्रिकाओं में व्यंग्य, कहानी व कविताएँ प्रकाशित। कुछ कविताओं व कहानियों का अंग्रेजी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में अनुवाद। 
व्यंग्य की दो किताबें- इस बहुरुपिया समय में,  बतकही का, कविता की दो किताबें- मैं जरा जल्दी में हूँ तथा वक्त का अजायब घर  प्रकाशित।
सम्प्रति : सरकारी नौकरी के उपरांत स्वतंत्र लेखन.
सम्पर्क  : 208 छीपी टैंक, मेरठ -250001 
मो. - 8171522922

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