काफ़ी मज़ा आया उस दिन
बहुत-बहुत बातें हुईं
साहित्य की, जीवन की, राजनीति की
दर्शन और सौन्दर्यशास्त्र की
उस दिन शेषजी के घर।
भावुक बातें हुईं, आत्मस्वीकृतियाँ हुईं,
थोड़ी चुग़ली हुई, थोड़ी चापलूसी
थोड़े चुटकुले
थोड़ी ठिठोली और थोड़ी खिसखिल्ली भी
कुछ ग़ज़लें और कुछ गीत
कुछ क़समें, कुछ वायदे
कुछ शिकवा-शिकायतें
खाने में व्यंजन थे बहुविध
और पीने में भी विकल्प थे कई-कई
तनाव बह गया सारा का सारा
उस दिन शेषजी के घर।
दीवारें टूटी
दुनिया सुखी हुई उस दिन शेषजी के घर
शेषजी ने कहा ज़मीन नयी तोड़नी है
कविता में। गनेशजी ने बात की कहानी की
ज़मीन की। ज़मीन की आलोचना
खिसकती दीखी महेशजी को। ग़ुस्सा हुए वे।
दिनेशजी ने मौजूँ प्रश्न उठाया सेक्स और जनवाद का
सुरेशजी बोले अलगाव पर
साम्प्रदायिकता पर और फे़मिनिज़्म पर।
शेषजी ने सुरेशजी से पूछा अपने मुक़दमे के बारे में।
सुरेशजी ने गनेशजी से कहा,
महँगाई बहुत बढ़ गयी है। गनेश जी ने
महेशजी से कहा, दर्शन और सौन्दर्यशास्त्र में तो
आप हमारे बाप हैं। महेशजी हँसे। बोले,
हेगेल भी महारथी थे दोनों के और बताया कि
मार्क्स भी ऐसे ही थे
और भी बहुत कुछ थे।
बताया, बिटिया की शादी गर्मियों में
लग्न शुरू होते ही कर देंगे।
दिनेशजी ने पूछा शेषजी से, हमारे मकान का
नक़्शा कब तक पास होगा?
शेषजी बोले – डंकल प्रस्ताव को स्वीकारना देर-सबेर
मजबूरी है भारत जैसे देशों की।
महेशजी बताते रहे
कायनेटिक होण्डा की ख़ूबियाँ और ख़ामियाँ,
पूछा, आपकी पत्रिका फिर कब निकलनेवाली है?
सुरेशजी ने पर्यावरण-प्रदूषण और पारिस्थितिक असन्तुलन पर
चिन्ता प्रकट की,
बताया, ब्राज़ील में आई. एम. एफ़. दंगे हो रहे हैं
और यह कि मुद्रास्फीति घट नहीं सकेगी
लाख चाहते हुए भी मनमोहन सिंह के।
गनेशजी ने बताया सम्पादन-सम्बन्धी
कुछ सुझावों के बाबत, जो वे देते
महावीर प्रसाद द्विवेदी को, यदि वे जीवित होते आज
या फिर गनेशजी हुए होते उनके समय में।
दिनेशजी ने विचार प्रकट इस बारे में कि
नाज़िम हिकमत पाब्लो नेरुदा क्यों नहीं थे
और लातिन अमेरिका में क्यों पैदा हुए मार्ख़ेज़ और
क्यों नहीं पैदा हुए गोर्की!
महेशजी ने शैली-विज्ञान सम्बन्धी
कुछ नयी बातें कीं, उन्हें सौन्दर्यशास्त्र से
जोड़ा फिर सौन्दर्यशास्त्र को नैतिकता से
नैतिकता को आज़ादी से, आज़ादी को
जनतंत्र से, जनतंत्र को संविधान से और संविधान को
विधिशास्त्र से जोड़ा
और यह भी बोले कि एक कलाकार या
साहित्यकार को बहुत कुछ चाहिए होता है
और सिर्फ़ पत्नी से ही नहीं पा सकता
वह सब कुछ। उसे चाहिए कई धरातलों पर
भावनात्मक जुड़ाव और कम से कम
एक या अलग-अलग अभिरुचियोंवाली
कई एक प्रेमिकाएँ भी।
शेषजी ने महेशजी को
महेशजी ने दिनेशजी को
दिनेशजी ने गनेशजी को
गनेशजी ने सुरेशजी को
और सुरेशजी ने शेषजी को
बतायी कुछ राज़ की बातें और सुझाव दिए
लेखन-सम्बन्धी कि कैसे चमका जाये
बिना गरम हुए बिना जले-तपे साहित्य के
क्षितिज पर, जाकेट कैसी पहनी जाये, दोस्तों
पर कैसे लिखे जायें संस्मरण, रिक्शे पर
कैसे बैठा जाये, संकलन कैसे छपाये जायें और
सम्पादक कैसे पटाये जायें।
सबने मिल-बैठकर सोचा कि पूर्वी यूरोप और रूस की
घटनाओं के बाद, साहित्य के
स्टॉक-एक्सचेंज में क्या स्थिति रहेगी
वामपन्थी तेवरों के शेयरों की।
चिन्तित थे गनेशजी, अभी दस वर्षों पहले ही तो
उनका शान्तिपूर्ण संक्रमण हुआ था
मार्क्सवाद में!
चिन्ता मत करो, सुरेशजी ने समझाया, साहित्य में
अब वैसा फ़रक़ नहीं रहा ऐसी चीज़ों में।
यहाँ तक कि अब छापती हैं कुछ वामपन्थी पत्रिकाएँ भी
पुण्य स्मृतियाँ अज्ञेय की।
चर्चा थी अनादि-अनन्त
एकता थी हितों की अखण्ड
हृदय थे सभी के अभेद।
तय करने से पहले अपनी रणनीति और रणकौशल
सबने फिर सोचा सबके बारे में।
सबने सबको ताड़ा, फिर एक साथ मिलकर
ताड़ा हालात को। यहीं पर थी उनकी
आम सहमति – एक बार फिर
सबने यह जाना।
घर गये सभी आधी रात को
लेटे, डकारा पेट भर, हाथ फेर बोले – हे राम!
अनादि अनन्त जी
जल्दी ही निकालने वाले थे
अपनी ख़ुद की पत्रिका
और इस सूचना से चिन्तित थे
वे तमाम सुधी सम्पादकगण
जिनकी पत्रिकाओं की मदद करते रहते थे
अनादि अनन्तजी।
अनादि अनन्तजी लेनेवाले थे
सन् 2015 में स्वैच्छिक अवकाश
भारत सरकार की सेवा से
ताकि साहित्य की सेवा कर सकें पूरी तरह।
वैसे सेवा तो वे अब भी कर रहे थे
साहित्य की तन-मन-धन से।
•
उस दिन इन्तज़ार हो रहा था
अनादि अनन्तजी का
उन्हीं के घर में जमी महफि़ल में
जो फँस गये थे किसी आपातकालीन
विभागीय बैठक में।
गम्भीर साहित्य-वैचारिकी पत्रिका के सम्पादक
नलिनशंकरजी, जो जमे रहते थे हरदम
आनादि अनन्तजी के घर पर ही
किचेन में पका रहे थे चिकेन ख़ानसामे के साथ
स्कैण्डेनेवियन शैली में।
तन्दूर में कुछ भून रहे थे
वामपन्थी ऐक्टिविस्ट सूर्यकान्तजी।
अनादि अनन्तजी आये
तो कुछ उखड़े-उखड़े से थे।
कारण था पुलिस विभाग में,
पर कुछ हद तक तो भुगतना ही था साहित्य को भी,
बहरहाल, बदस्तूर निकाली उन्होंने
शेषजी, महेशजी, गनेशजी, दिनेशजी, सुरेशजी के लिए
बड़ी उम्दा क़िस्म की स्कॉच व्हिस्की।
गले तर हुए
तो शेषजी ने चर्चा छेड़ी
कविता पर केन्द्रित पत्रिकाओं के कुछ महाविशेषांकों की
और महेशजी ने कुछ ताज़ा संकलनों की।
हाथ उठाकर चुप करा दिया अनादि अनन्तजी ने उनको।
फिर प्रश्न उठाया मूलभूत, धीर-गम्भीर स्वर में,
“क्यों लिखते हैं आप कविताएँ? –
साहस है आपमें कि इन्हें ले जा सकेें
जनता के बीच?
कौन पढ़ता है आपको?
कौन समझता है आपकी कविताएँ?” –
घहराये एक के बाद एक कई यक्ष-प्रश्न।
सिलसिला आगे भी जारी रहा,
“और आप कविगण
कविता और आलोचना के अतिरिक्त
और भी कुछ पढ़ते हैं?”
और भी काफ़ी कुछ कहा उन्होंने, जैसे कि
विश्व कविता की अधुनातन प्रवृत्तियों से
कितने परिचित हैं हिन्दी के कवि... आदि-आदि।
सबने सुनीं।
सुनने की बातें थीं।
कहते भी क्या?
अनादि अनन्तजी विश्व कविता की
दुर्लभ पत्रिकाएँ पढ़ते थे
और ई.पी.डब्ल्यू., मंथली रिव्यू आदि भी
पढ़ते थे और वे
प्रदेश के दूसरे नम्बर के
सबसे बड़े पुलिस अधिकारी थे।
और यह भी था एक युगीन यथार्थ कि वे पिला रहे थे
उन सबको उम्दा स्कॉच।
नसीहतें फटकार तक पहुँचीं
तो खाना लग चुका था।
नलिनशंकरजी ने उद्धार किया सबका।
•
रात करीब एक बजे
शेषजी, महेशजी, गनेशजी, दिनेशजी और सुरेशजी
जब निकले बँगले से बाहर,
तो सि़र्फ कुत्ते जग रहे थे।
मौसम ख़ुशगवार था।
“चीज़ बहुत उम्दा थीं।
क्या ‘शिवाज़ रीगल’ थी?” पूछा दिनेशजी ने
शेषजी की ओर मुख़ातिब होकर।
“क्या मैं बोतल के लेबल पढ़ता रहता हूँ?” –
मुँह बनाया शेषजी ने।
“अजी नहीं, आप तो लेबल लगाते हैं,”
महेशजी ने टिप्पणी की।
आधी रात की ठण्डी हवा में
बढ़ता जा रहा था सुरेशजी का सुरूर,
बोले दिल की पूरी ईमानदारी से,
“अजी, हमारी-आपकी क्या औकात
जो लेबल लगायें।
हम तो ख़ुद ही लेबल हैं।”
गनेशजी ने प्रतिवाद किया तत्क्षण, “लेबल नहीं,
हम तो महज़ बोतल हैं।
चाहे जो भर दो भीतर
और लगा दो चाहे जो भी लेबल।”
सभी चुप थे।
इस सामूहिक आत्मस्वीकृतिमूलक समाहार पर
सोच रहे थे फि़लहाल।
ऐसे मौक़े पर
वे सभी सोचते थे एक साथ
और अगले दिन हो जाते थे वही
जो हुआ करते थे।
क्षोभ बहुत गहरा था।
क्रोध, हालाँकि सात्विक था,
फिर भी था।
और इस बात पर था कि
कुछ भी तो नहीं बिगाड़ा था
उनकी लेखनी ने इस सत्ता का,
कभी भी तो नहीं कही
उन्होंने सीधे कोई बात,
अभिधा से बचते रहे हमेशा
बताते रहे रचना का अर्थात्।
फिर भी
साजि़शें, उपेक्षा,
पीठों-पुरस्कारों के वितरण में पक्षपात?
इतना अमर्ष था
कि घनघोर विमर्श हुआ
सांस्कृतिक संकट के हर पहलू पर।
और फिर निकला यह सलोना समाधान
कि दस बरसों तक चलाया जाये
ज़बर्दस्त हस्ताक्षर-अभियान।
कात्यायनी
जन्म :1 मई 1959 | गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
समकालीन कवयित्री कात्यायनी का जन्म 7 मई 1959 को गोरखपुर, उत्तर प्रदेश में हुआ। हिंदी साहित्य में उच्च शिक्षा के बाद वह विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं से संबंद्ध रहीं और वामपंथी सामाजिक-सांस्कृतिक मंचों से संलग्नता के साथ स्त्री-श्रमिक-वंचित से जुड़े प्रश्नों पर सक्रिय रही हैं। बकौल विष्णु खरे ‘समाज उनके सामने ईमान और कविता कुफ़्र है, लेकिन दोनों से कोई निजात नहीं है-बल्कि हिंदी कविता के ‘रेआलपोलिटीक’ से वह एक लगातार बहस चलाए रहती हैं।’
‘चेहरों पर आँच’, ‘सात भाइयों के बीच चंपा’, ‘इस पौरुषपूर्ण समय में’, ‘जादू नहीं कविता’, ‘राख अँधेरे की बारिश में’, ‘फ़ुटपाथ पर कुर्सी’, ‘एक कुहरा पारभाषी’ और 'सर्पदंश और अन्य कविताएँ' उनके काव्य-संग्रह हैं। उनके निबंधों का संकलन ‘दुर्ग-द्वार पर दस्तक’, ‘कुछ जीवंत कुछ ज्वलंत’ और ‘षड्यंत्ररत मृतात्माओं के बीच’ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित है।
उनकी कविताओं के अनुवाद अँग्रेज़ी, रूसी और प्रमुख भारतीय भाषाओं में हुए हैं।
सम्पर्क : डी-68, निराला नगर, लखनऊ-226020
ई-मेल :katyayani.lko@gmail.com
दूरभाष : 09936650658
Bahut badhiya
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