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हमनी के जिनगी में चउथा पहिया हेरा गइल बा

ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी की कविताएँ



एक दिन फिर

एक दिन 
अपने पुरखों की तरह
मैं भी आँखें मूँद लूँगा
उन बेहिसाब ख़ूबसूरत ख्वाबों
और तमाम उम्मीदों के हौसलों को 
मीठी नींद सुला

कि वो एक दिन फिर किसी
अलसाई सुबह उठेंगे
अपनी आँखें मींचते
लबालब भरे पुरवों में चाय पीते,

इस दुनिया को बेहतर
बनाने की कोशिशों में,
गंगा यमुना या कि 
रावी के कछारों में
मीठे तरबूज उगाते
छोटी नावों में 
छोटे-छोटे गाँवों की ओर 
चप्पू चलाते

जुगनुओं से मुठ्ठियों में
रोशनी करते
रातरानी के गिर्द
दुनिया को फिर से
और बेहतर बनाने की 
कोशिशों के दरम्यान
और भी ताम्बई होते...


हमारे आने से बरसों बरस पहले भी

हमारे आने से 
अरबों बरस पहले भी
सुनहरे सूरज के फेरे लेती थी
फ़िरोज़ी पृथ्वी,
उसके फेरे लेता 
धूसर चाँद था,
चाँद मामा था,
मामा के माथे पर
सूत कातती
एक बुढ़िया थी या कि
नर्म उजला सा एक खरगोश.

हमारे आने से 
अरबों बरस पहले भी
धूप बरबस नहलाती थी
ज़मीं को 
और चाँदनी
छनती थी शहद सी
रातों में...

हमें अपनी जबीं पर
बिठाया चंदा की बहन ने
पानी हवा और खाद से सींचा
हमारे पौध को कि
हम लपलपाते इतने लम्बे
हो गये कि नाप आये
चाँद को, सूरज को 
और अपने आश्रय के 
हर कोने को.

हमने मार दी 
चाँद की सूत कातती बुढ़िया
और खरगोश को 
चाँद के गढ्ढों में
दफ़्न कर दिया,

हमने चालाकी और धूर्तता
के नये प्रतिमान गढ़े
छल और दम्भ
के परचम बुलंद किये,
परचमों के बचकाने सपने
बुनते, 
ख्वाहिशों के खेतों में
तबाही के नये 
धोखे खड़े किये,

खड़ी की तमाम दीवारें
दीवारों में चुनवाये ज़ाहिद
ईजाद किये ज़हर और 
जहरीली बिसातें
इस इल्म के बावजूद
कि हमारा
हर बार इस नीले ग्रह पर
आना महज कुछ बरसों का
करार है,

ये करार तब भी था
जब हम यहाँ नहीं थे
पृथ्वी तब भी रहेगी
जब ये करार नहीं होगा,

हमारे आने से बरसों बरस पहले भी
अपनी एक बगल मंगल
और दूजे शुक्र के साथ
सुकून से सुनहरे सूरज के गिर्द
घूम रही थी 
अनवरत
ये धरती और
धरती पर उकेरी
ये बेहद ख़ूबसूरत दुनिया।




हमनी के जिनगी में चउथा पहिया हेरा गइल बा
___________

(हजूर! हमरा के खड़ी बोली कहे में भारी परशानी होखेला, लेकिन कोशिश करत बानी कि तिपहिया जिनगी के कुछ बात राउर लो से कहीं.)

धनेसरा बोला है कि
हम रेक्सा चलाने वाले लो का
जिनगी से चउथा पहिया
हेरा गया है
रेक्सा का ए गो जानकार 
बताया है के ए बाबू
रेक्सा में पाछे के दुइ पहिया में
दाहिना फ्री होता है
बाँया चेन से चलता है,

तभे हमरे समझ में आया
कि हमरा देह बाँईं तरफ
काहे झुका है?
और कि हमरा बाँयां कंधा से
बँयीं जाँघ तक
अतना दर्द काहे रहता है?

दुमका से बनारस 
औरी बनारस से पुरानी दिल्ली
का तिकोना सफ़र 
इहे तिपहिया चलाने के लिये
किये हैं हजूर!

चकाचक एक्जाई 
और मंटेन रखते हैं 
हम अपना रेक्सा,
मखमली मसनंद
और हवाई जहाज है
हमार रेक्सा,

एगो बात अखरता है हजूर
हमरा आधा समय
सवारी लो से
मोल भाव में जाता है
गरीब लो से जियादा
अमीर सवारी को रेक्सा का केराया
कम कराने में में
मजा आता है,

एक दिन बड़े भाग से
सरकार खुदे हमरे रेक्सा पे
बइठ गई
और सड़क से सीधे 
संसद में पहुंच गई,

उहां पहुंच के ऊ हमें
टा टा बाय बाय कइ दिहिस
और दस रूपया में 
संसद तक पहुंचावे का
हमार मेहनताना
तय कइ दिहिस,

दस रुपया में 
हजूर आपे बताइये
कतना बीड़ी मिलेगा
राशन का हाल 
राउर को पता है
ई बाजरे के आटा से
सिरिफ कब तक 
पेट भरेगा?

हजूर
अतना दर्द भलाने के लिये
हमरा मन तनी
माल्टा पाने का हुआ
पाउच का दाम देखे तो
सूंघे के काम चला लिया,

हजूर
ई कइसा अभिसाप है
कि रेक्सा में 
चउथा पहिया पाप है?
कउन भरोसा 
इहे सड़कवा पे चल पायेंगे
जहां पंचाइत खाप है?

हजूर
हम लो मेहनत से नहीं डरते
दर्द हैं दिन-रात सहते
पसीने की नदी में हैं बहते
और पुस्ता की झोपड़पट्टी में हैं रहते
किसी से कुछ भी नहीं कहते

लेकिन हजूर
राउरे बताइये
कि ई चउथा पहिया 
हमपे नज़र कब डालेगा?
ई देश का संसद
हमको कब देखेगा?
ई सब सवाल
हमको बहुत परसान करता है
हमरा रेक्सा का घंटी 
घनघनान करता है,

जब हजूर छीन लेते हैं
आप अपना रेक्सा
तब हमको बिस्वास नहीं होता
रेक्सा हमरे भीतर
और गोड़े के नीचे
ज़मीन नहीं होता,

हजूर
आज हम एगो 
गुस्ताखी किये हैं
सपना में अपना रेक्सा लेके
द्वारिका सेक्टर पाँच पे
खड़े हैं
नोयडा से मेट्रो आएगा
खूब सवारी लाएगा
हमरा रेक्सा
कइयो चक्कर लगाएगा,

लेकिन ए हजूर
सपनवा टूट गया है
सरकार का चउथा पहिया
छूट गया है
बदनसीब हैं हम हजूर
हमरा सपनवा टूट गया है
बाँईं जाँघ पे हुआ था 
एगो फोड़ा
रेक्सा चलाने से
ऊहो फूट गया है..
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ध्यानेन्द्र मणि त्रिपाठी


उत्तर प्रदेश सूबे के जौनपुर जिले के एक छोटे से गाँव बरपुर में जन्म। परवरिश पढ़ाई बनारस में। बीएचयू से विज्ञान स्नातक और आईआईटी ( आईएसएम) धनबाद से प्रौद्योगिकी में स्नातक। सिटी एन्ड गिल्ड्स लंदन से प्रौद्योगिकी मे परास्नातक और आईआईएम लखनऊ से एमबीए।
प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में पिछले २८ सालों से नौकरी। संप्रति फिनलैण्ड अवस्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी नॉर्मेट की भारतीय इकाई के परियोजना परिचालन महाप्रबंधक। 
तकनीकी और साहित्य की विधाओं में लेखन।
साहित्य लेखन की शुरूआत बनारस के आज अखबार और रेडियो वाराणसी से। शुरूआती बाल कहानियाँ पराग, नंदन और बाल भारती पत्रिकाओं मे अस्सी नब्बे के दशकों में प्रकाशित। कहानियाँ, कविताएँ, यात्रा वृतान्त, नाटक और व्यंग्य हंस, कथादेश, कादम्बिनी, जनसत्ता, नया ज्ञानोदय और तमाम समाचार पत्रों में प्रकाशित।
भारतीय महाकाव्यों पर लिखी नृत्य नाटिकाओं का मंचन महत्वपूर्ण शास्त्रीय नृत्य महोत्सवों में शामिल। हाल ही में नाट्यशास्त्र के जनक भरत मुनि की अष्ट नाटिकाओं पर आधारित नृत्य नाटिका का पद्म पुरस्कारों से सम्मानित। आठ भारतीय शास्त्रीय नृत्यांगनाओं द्वारा नयी दिल्ली में मंचन। 
हिन्दी साहित्य अभिनव लेखन में सहभागी लेखन श्रृंखला के तहत “थर्टी शेड्स ऑफ बेला’ उपन्यास का लेखन और 'लाकडाउन डेज' कहानी लेखन। पहले भोजपुरी अवधी लोक संगीत अल्बम का 2017 में लोकार्पण। यात्राएं और ग्रामीण इलाकों में संगीत प्रस्तुतियाँ पसंदीदा शग़ल। अभिनय और संगीत में सक्रिय भागीदारी। आध्यात्म, अंतरिक्ष विज्ञान, प्रौद्योगिकी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में गहरी रूचि।


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