वीरेन्द्र यादव ------------------------- पिछले कुछ वर्षों से हमारा समय, समाज, राजनीति और सारा घटनाक्रम जिस तरह से चल रहा है, उससे हम मानसिक रूप से एक खास टाइम जोन में होते हैं; इस समूचे दौर ने हमको एक खास तरह के टाइम जोन में डाल दिया है। ऐसे में इस दौर की कहानियों या उपन्यासों को पढ़ते हुए जब हम विचार करते हैं, तो पाते हैं कि इस बीच का अधिकतर साहित्यिक क्रिएशन या तो हमें इस टाइम जोन से बाहर निकालता है या उसे नज़रअंदाज करता है और इस तरह कभी-कभी हममें झुंझलाहट पैदा करता है, अरुचि भी पैदा करता है क्योंकि हमारी जो संकेंद्रित चिंताएं हैं, हमारे समय की चिंताएं, हमारे समाज की चिंताएं, वे भिन्न चिंताएं हैं। इस दौर का जो अधिकांश फिक्शन है, वह टुकड़ों में तो इन चिंताओं को संबोधित करता है; जैसे कि कोई किसी दलित प्रसंग को छू लेगा, कोई किसी सांप्रदायिक प्रसंग को छू लेगा, समय व समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में स्पर्श कर लेगा; लेकिन उसको स्पर्श करते हुए हमारा, हमारे समाज का जो समग्र यथार्थ है, उस समग्र यथार्थ का एक चित्र, समग्र यथार्थ का एक अंकन प्रस्तुत नहीं हो पाता है। ऐसे में उल्लेखनीय है कि संजय चौबे का उप...