दीपक शर्मा की तीन कहानियाँ
कहन-सुनन
सितम्बर का दूसरा शनिवार है। माँ और बाबूजी के कमरे में बिस्तर के बगल में बैठी बहन माँ से कह रही है, ’’इस मालिश और व्यायाम से आप बहुत जल्दी फिर से पहले की तरह नहाने लगेंगी, खाना बनाने लगेंगी।’’
इस वर्ष की जनवरी माँ को बिस्तर पकड़ा गई है, बाबूजी को नया जीवन-लक्ष्य तथा बहन को पुत्री-सुलभ अपने मातृ-प्रेम का प्रदर्शन करने का नया माध्यम।
अपने इस नए जीवन-लक्ष्य के अन्तर्गत बाबूजी रोज़ की तरह माँ के रोग-ग्रस्त बाएँ भाग में औषधीय उस तेल की मालिश कर रहे हैं जिसे माँ के फ़िज़ियोथैरपिस्ट ने कुछ विशिष्ट व्यायाम के साथ करने को प्रदिष्ट किया है। उच्च रक्तचाप के कारण निष्क्रिय हो चुके माँ के बाएँ भाग में फिर से उनकी पुरानी सक्रियता लौटाने की उतावली है उन्हें।
’’सच?’’ मूर्खा माँ बहन की सान्त्वना गटगट गटक लेती हैं। जलबुझ बनीं अपनी असंमजस-भरी आँखों के साथ। पूछती नहीं, अनिर्धार्य को निर्धारित करने वाली बहन कौन है? क्या है?
’’क्यों नहीं?’’ मन्त्रमुग्ध मुद्रा में बाबूजी कभी माँ की ओर देखकर मुस्कराते हैं तो कभी बहन की ओर। दो वर्ष पहले वे उसी डिग्री कॉलेज के अंग्रेजी विभाग से सेवा-निवृत्त हुए हैं जिसमें पिछले सात वर्षों से मैं दर्शन-शास्त्र पढ़ा रहा हूँ।
’’सोमवार की अपनी टिकट तो आप साथ लाई होंगी?’’ अन्तरंग उस दृश्य को भंग करते हुए मैं बहन से पूछता हूँ।
माँ की ’शुभ-चिन्ता’ को सामने रखते हुए प्रत्येक माह के दूसरे शुक्रवार बहन मुम्बई से रेलगाड़ी पकड़ती है और शनिवार की दोपहर यहाँ, कस्बापुर, पहुँच लेती है। सोमवार की शाम फिर से उसमें सवार होने हेतु।
’’हाँ। सोमवार की टिकट है।’’
’’सोचता हूँ, उस टिकट को आगे बढ़ा लाऊँ। बुध की ले आऊँ।’’
’’बुध को रंजन का जन्मदिन है और मैं वह दिन रेलगाड़ी में बिताना नहीं चाहती।’’
रंजन मेरा तथाकथित ’बहनोई’ है। ’तथाकथित’ इसलिए क्योंकि बहन से उसकी विधिवत शादी होनी अभी बाक़ी है। किन्तु यह भेद हम चारों के अतिरिक्त कस्बापुर में कोई नहीं जानता। मेरी पाँच वर्ष पुरानी पत्नी, उर्वशी भी नहीं। दूसरे परिवारजन एवं मित्रों-परिचितों की भाँति वह भी यह मानती है बारह वर्ष पहले बहन ने मुम्बई पहुँचते ही हम तीनों की उपस्थिति में रंजन से शादी की थी।
’’मगर उसका प्रोग्राम तुम बदलना क्यों चाहते हो?’’ बाबूजी हथियार-बन्द हो जाते हैं। बहन के पक्ष में। बहन के सामने वे मेरे संग एक खेल शुरू कर ही देते हैं। खेल उस मायने में जिसका उल्लेख रोलां बार्थ ने आन्द्रे यीद के सन्दर्भ में किया था। डन फॉर नथिंग (अकारण)।
’’क्योंकि मैं उर्वशी को थोड़ा घुमा लाना चाहता हूँ। बेचारी जनवरी से इधर पिस रही है।’’
’’पिस रही है ? या पीस रही है ?’’ माँ बोल उठती हैं ।
’’मृत्यु की धार से लौटकर भी कड़वा बोलेंगी ? गलत बोलेंगी ?’’ मैं चीख पड़ता हूँ।
’’तुम्हें शर्म आनी चाहिए’’ बाबूजी चिनगते हैं, ’’बीमार को भी बोलने की छूट नहीं दे सकते।’’
’’कुछ नहीं जी,’’ माँ फिर बोल उठती हैं, ’’जो कुछ मैं पहले देखती-सुनती थी, वही अब भी देख-सुन रही हूँ। कोई लिहाज नहीं।’’
’’आप उर्वशी के साथ अन्याय कर रही हो माँ।’’ बहन समझती है, वह सन्धिकर्त्री नहीं बनेगी तो यहाँ अग्निगोले दग जाएँगे।
’’तो आप न्याय कर दो। अपनी मुम्बई की टिकट आगे की ले लो। यहाँ तीन दिन और रूक जाओ। आलोक और वृन्दा भी खुश हो जायँगे,’’ आलोक मेरा चार वर्षीय बेटा है और वृन्दा, एक वर्षीया बेटी।
’’मुझे बहुत बुरा लग रहा है। अगर रंजन का जन्मदिन आड़े न आया होता तो मैं ज़रूर रूक जाती।’’
’’यह अगर-मगर क्या होता है ?’’ मैं भड़क जाता हूँ, ’’सच तो यह है कि आप उसके बाट पर अपने को लगातार बनाए रखना चाहती हैं क्योंकि आप जानती हैं वह कभी भी आपको बारह बाट करके कोई नया रिश्ता गाँठ सकता है।’’
’’तुम बड़ी बहन से कैसे बोल रहे हो ?’’ बाबूजी माँ की बाँह छोड़कर मेरी ओर मुड़ लेते हैं। दुर्जेय भाव से।
’’क्योंकि आप उससे सच नहीं बोल पाते।’’
’’तुम्हें सच सुनना ही है तो मुझसे सुनो। मुम्बई मैं अपनी कला के लिए गई थी और अब भी वहाँ अपनी कला ही के लिए रह रही हूँ। बुनियादी तौर पर मैं एक कलाकार हूँ और अपनी कला को बन्द नहीं रख सकती। उधर रहती हूँ तो यह पहचान भी पाती है और अभिव्यक्ति भी।’’ बहन का टीवी की दुनिया में ऊँचा नाम है। उसे इस दुनिया में रंजन ही लाया था। उस समय बहन लखनऊ में एम.ए. कर रही थी और वह बतौर निर्देशक अपना टीवी सीरियल बना रहा था। और फिर जैसे ही उसे मुम्बई में काम मिला था वह बहन को साथ ले गया था। इधर बहन तीन-तीन लोकप्रिय टीवी सीरियलों में ’माँ’ की भूमिका में दिखाई भी दे रही है।
’’मतलब ?’’ मैं ताव खाता हूँ, ’’हम लोग के लिए तुम्हारी कोई ज़िम्मेदारी नहीं? जवाबदेही नहीं? तुम्हें अपनी अभिव्यक्ति चाहिए ? पहचान चाहिए? स्वतन्त्रता चाहिए? और मुझे? दंडाज्ञा? माँ और बाबूजी के बने बाड़े में बने रहने की ?’’
’’तुम्हें ऐसी कोई मजबूरी नहीं, ’’ बाबूजी उठ खड़े होते हैं, ’’तुम चाहो तो आज अलग हो जाओ। अभी अलग हो जाओ.....।’’
’’ऐसा न कहिए, बाबूजी।’’ बहन रोने लगती है, ’’आपको अलग तो मुझे करना चाहिए। अलग तो मुझे होना चाहिए।’’
’’जो बात आपको बारह साल पहले समझनी चाहिए थी वह आज समझीं आप ?’’ मैं चिल्लाता हूँ।
’’बस भी करो,’’ अपनी पूरी ताकत के साथ माँ अपना दायाँ हाथ अपने बिस्तर पर पटकती हैं, ’’बहुत हो गया।’’
’’बहुत तो हुआ ही है। कहर तो बरपा ही है। पूरे शहर में न हमारे बाबूजी जैसे पिता ढूंढ़े से मिलेंगे और न उनकी बेटी जैसी कोई बेटी। इधर बेटी बोली, मैं कलाकार हूँ, अभिनय करूँगी। उधर बाबूजी बोले, तुम सच में बहुत बड़ी कलाकार हो, उत्तम अभिनय कर सकती हो। इधर बेटी बोली, रंजन मेरा कद्रदान है। मैं उसके साथ लिव-इन रिलेशनशिप में रहूँगी। उधर बाबूजी बोले, हाँ वह तुम्हारी बहुत कद्र करता है। तुम उसके साथ जैसे भी चाहो रहने के लिए ’आज़ाद’ हो।’’
’’हम सभी आज़ाद नहीं हैं क्या?’’ बहन मेरे समीप आकर मेरी पीठ घेर लेती है– पुराने दिनों की तरह–”तुम्हीं ने मुझे हेडेगर की बात बताई थी, अपने माँ-बाप चुनने की आज़ादी से वंचित इस सृष्टि में हम सभी ’फेंके’ जाते हैं, वी आर ’थ्रोन’ हियर और हमारे जीवन में बहुत कुछ ’गिवन’ होता है। मगर......’’
’’मतलब ? रंजन तुम्हें ’गिवन’ था ? या मुम्बई तुम्हारे पास चली आई थी? तुम्हारी ’गिवन’ मंज़िल? या फिर मैं ही तुम्हें वहाँ ’फेंकने गया’ था?’’ बहन की बाँह मैं अपनी पीठ से नीचे झटक देता हूँ। जानता हूँ ’मगर’ के बाद वह हेडेगर की अगली बात किकियाने वाली है, हमारा भविष्य ज़रूर हमारे लिए अपने को नए सिरे से स्थापित करने की सम्भावना रखता है लेकिन इस समय मैं कुछ नहीं उससे सुनना चाहता। गोटी उसके हाथ में नहीं देना चाहता।
’’अपनी बहन से तुम ऐसे नहीं बोल सकते,’’ बाबूजी अपने स्वर में रोदन ले आते हैं। उनकी चित्त प्रकृति तर्क स्वीकारती नहीं, अश्रुमुख से गला भर लेती है, ’’उसकी खुशी मेरे लिए बहुत महत्त्व रखती है।’’
’’और मेरी खुशी का कोई महत्त्व नहीं?’’
’’अगर तुम्हारी खुशी उसकी खुशी में हस्तक्षेप नहीं करती तो वह महत्त्व रखती है, वरना नहीं,’’ आत्यन्तिक वीरोचित अपने मंच की ओर बाबूजी तेजी से बढ़ रहे हैं।
’’आप कभी तो मर्द बनकर बात कर लिया करें,’’ मैं चिल्ला उठता हूँ,’’क्यों आप रंजन से छाती तानकर उसे शादी के लिए तैयार नहीं करा सकते ?’’
’’उर्वशी को सुना रहे हो ?’’ उर्वशी के साथ माँ बहुत भेदभाव रखती हैं।
’’ठीक है, उसे ही जा सुनाता हूँ,’’ मैं दरवाजे की ओर कदम बढ़ाता हूँ।
’’सुनो तो!’’ बहन पीछे से मुझे पुकारती है किन्तु मेरे गुस्से की हड़बड़ी मुझे कमरे से बाहर निकाल ले आती है।
’’क्या सुनाना है मुझे ?’’ उर्वशी मुझे दरवाजे के बाहर ही मिल जाती है।
’’बुध को जीजाजी का जन्मदिन पड़ रहा है और जीजी का इस सोमवार ही को जाना जरूरी है।’’
’’बस, इतना ही सुनाना है या कुछ और भी ?’’ उर्वशी अपनी गोटी बिठाना चाहती है।
’’और क्या होगा ?’’ मैं सतर्क हो लेता हूँ।
’’अन्दर बातचीत तो आपकी देर तक चली है और खूब हो-हल्ले के बीच चली है’’ , उर्वशी अपना बाण फिर बाँधती है।
’’जीजी अपने नए टीवी सीरियल की बात कर रही थीं’’ , मैं टाल जाता हूँ। उर्वशी के संग बहन को संवाद का विषय बनाने से मैं हमेशा बचता रहा हूँ।
’’लेकिन कोई उनसे पूछे कि यहाँ वे किसी रिएलिटी शो में अपनी स्टार वैल्यू बाँटने आती हैं या फिर हमारे परिवार में अपनी साझेदारी मजबूत बनाने ?’’
’’मतलब ?’’ मैं थोड़ा चौंकता हूँ।
’’मतलब यह कि वह यहाँ ऐसे आती हैं जैसे स्टार लोग किसी रिएलिटी शो में जाया करते हैं। ताली बजाकर वाहवाही लूटने और शाबाशी देकर जय-जयकार करवाने।’’
टीवी देखने का उर्वशी को सनक की सीमा तक शौक है। हालाँकि माँ उसे शौक नहीं, उसकी युक्ति मानती हैं। टीवी की ओट में अपनी ज़िम्मेदारियों से बचने की युक्ति।
’’छोड़ो.....”,उर्वशी के इस वार का साथ मुझे नहीं देना है।बहन जो भी है, जैसी भी है, है तो बहन ही।
बहन की आत्महत्या की सूचना मुझे अपने दफ्तर में मिलती है। चौथे दिन। बुधवार। दोपहर में। उर्वशी से,’’फ़ौरन अपने मोबाइल पर टी वी खोलिए। जीजी ने फांसी लगा ली है।रंंजन जीजा जी की वजह से। और तो और, यह भी कहा जा रहा है, वह दोनों शादी ही नहीं किए रहे। सच है क्या?”
“मैं अभी घर पहुँच रहा हूँ। मां और बाबू जी से इस बारे कुछ नहीं कहना-सुनना।”
“मगर यह तो बताइए, वे लोग सच ही में शादी के बिना ही साथ साथ रह रहे थे?”
***
देनदार
“टुकटुक की शादी मैंने तय कर दी है”, बेटी को मेरी पूर्वपत्नी 'टुकटुक' कहती, “शादी इसी चौबीस जुलाई को होगी। और रिसेप्शन पच्चीस को…..”
“शादी से पहले मैं लड़के को देखना चाहूँगा,” मैंने आग्रह किया, “तुम बताओ कौन से होटल में चाय का आयोजन रखूँ?”
“सब कुछ तय हो चुका है,” मेरी पूर्वपत्नी ने मुझे टाल दिया, “अब लड़के से शादी के समय ही मिलना।”
“बेबू को फ़ोन दो,” मैं अपनी पूर्वपत्नी से बहस नहीं करता। बेटी मेरे लिए हमेशा ‘बेबू’’ ही रहती रही थी।
“हाय, पपा,” बेटी फ़ौरन फ़ोन पर आ गई।
“लड़का ठीक है?” मैंने पूछा।
“हाँ, पपा, ठीक है,” बेबू ने कहा।
“क्यों? बहुत अच्छा नहीं?”
“नहीं,” बेेबू हँस पड़ी।
माँ की उपस्थिति में माँ की जानकारी के बिना माँ के विरुद्ध बात करना उसे बहुत गुदगुदाता।
“तो शादी रोक दो।”
“नहीं, पपा,” बेबू फिर हँस दी, “ममा लड़के को लेकर बहुत उत्साहित हैं। अब वह हमारी एक न सुनेगी…..”
“लड़की को गुमराह मत करो,” मेरी पूर्वपत्नी ने बेटी से फ़ोन छीन लिया, “अपने काम से काम रखो। और हाँ, टुकटुक के लिए तुम्हारे वाले पाँच लाख मुझे पंद्रह तारीख तक मिल जाने चाहिए।”
“मिल जाएंगे…..” मैं ने फ़ोन काट दिया।
बारह वर्ष पहले जब मैंने अपने तलाक के समय हर्जाने की एवज़ में एक कानूनी वचनपत्र पर बेबू की शादी में पाँच लाख देने का वचन दिया था तो मेरी आर्थिक स्थिति ठोस व पुष्ट रही थी। कस्बापुर के एक प्रमुख दैनिक के संपादक- मंडल का मैं एक महत्वपूर्ण सदस्य था। और कोई नहीं जानता था उस समाचार-पत्र का प्रकाशन चार साल बाद बिल्कुल बंद हो जाएगा।
कस्बापुर मैं छोड़ नहीं सकता था, क्योंकि अपने परिवार का अकेला बेटा होने के कारण अपने फ़ालिजग्रस्त पिता की परिचर्या का पूरा भार मेरे कंधों पर था। उधर प्रतिद्वंद्वी समाचार पत्रों में अपने स्तर की नौकरी पाना भी मेरे लिए दुस्साध्य रहा था। जो दो- चार साप्ताहिक कालम मैं लिखता, वे मुझे बौद्धिक तुष्टि ही अधिक देते, पर्याप्त रुपया-पैसा नहीं।
नौ वर्ष पूर्व अपने स्कूल के पियानो टीचर की हैसियत से रिटायर हुए मेरे पिता के प्रोविडेंट फ़ड का अधिकांश अंश उनकी बीमारी पहले ही निगल ले गई थी। ऐसे में पूर्वनिर्धारित पाँच लाख की उस राशि का प्रबंध करने के लिए मुझे अपने पिता की पेंशन वाली जमा-पूंजी पर प्रत्याहार करने के बाद भी अपनी माँ के गहनों को गिरवी के रूप में अपने बैंक में जमा करने पड़े। ताकि मैं बैंक से एक मोटी रकम उधार ले सकूं। अपने गहने लिए जाने पर मेरी माँ मेरी पूर्वपत्नी पर झल्लाई भी : “अच्छी धौंस है। दुष्टा रुपए भी पूरे वसूलेगी और अपना हाथ भी दस बित्ता ऊपर रखेगी…..”
किंतु बेबू के नाम उस प्रतिदान की अभिपूर्ति न कर पाना मेरे लिए असंभव था।
पंद्रह जुलाई को पाँच लाख का डिमांड ड्राफ़्ट लेकर मैं पूर्वपत्नी के दफ़्तर जा पहुँचा, जहाँ इन दिनों वह लखनऊ के एक निदेशालय में नियुक्ति पाए रही थी।
“टुकटुक की शादी में अपने मौम- डैड के सहयोग से ज़रूरी फ़र्नीचर व व्यावहारिक गहने- लत्ते के अलावा मैं एक कार भी दे रही हूँ,” पूर्वपत्नी ने मेरे ड्राफ़्ट को देख-परख कर अपने पर्स में धर लेने के बाद अपनी मेज़ पर रखी घंटी बजाई, “इसलिए रिसेप्शन का बिल चुकाने में दिक्कत आ रही थी।”
“येस, मैडम?” पूर्वपत्नी का अर्दली फ़ुर्तीला था।
“एक कप चाय लाओ,” पूर्वपत्नी ने उसे आदेश दिया।
“मैं चाय नहीं पिऊंगा,” मैं ने कहा।
“तुम चाय ले आओ,” पूर्वपत्नी अर्दली की ओर देख कर मुस्कराई।
“ये दस कार्डज़ तुम्हारे लिए रखे थे,” अर्दली के ओझल होते ही पूर्वपत्नी ने अपनी मेज़ की दराज़ में से कुछ लाल लिफ़ाफ़े निकाले, “तुम्हारे पेरेंट्स तो आएंगे नहीं, मैं जानती हूँ, लेकिन तुम कुछ और लोग को रिसेप्शन पर बुलाना चाहो, तो बुला लेना।”
“धन्यवाद,” मैंने कार्ड ले लिए, “लेकिन मैं आऊंगा अकेले ही।”
“कार्ड खोल कर देखो। तुम्हारा नाम कार्ड में है।”
कार्ड पूर्वपत्नी के पिता की ओर से था :
डाक्टर दयानाथ त्रिपाठी तथा श्रीमती इंदु त्रिपाठी
अपनी नातिन अक्षिता ( सुपुत्री नमिता त्रिपाठी, आए.ए.एस. तथा पैट्रिक एलफ़र्ड)
तथा सौरभ, आए.पी.एस.
( सुपुत्र डाक्टर कुंदन शुक्ल तथा श्रीमती आशा शुक्ल)
के विवाह के उपलक्ष्य में रात्रिभोज के लिए हम आप को निमंत्रण देते हैं।
25,जुलाई,रात्रि 8 बजे से 10.30 बजे तक
नीचे एक पांच सितारा होटल का नाम लिखा था।
“कन्यादान आप करेंगी?” शादी में अपनी भूमिका की सीमा का निरूपण मैं जानना चाहता था।
“नहीं। कन्यादान मेरे माता-पिता की ओर से रहेगा। चौबीस को। उस दिन वहाँ तुम्हारे आने का कोई तुक नहीं। तुम रिसेप्शन में आना और फिर खाना खा लेने के बाद तुम खाली रहोगे।”
“क्या बहुत लोग आ रहे हैं?”
“हाँ। यह एक कोर्ट मैरिज नहीं है।”
हमारी शादी कचहरी ही में हुई थी।
एक वाद- विवाद प्रतियोगिता ( विषय: सुख-मृत्यु, स्थान : डिग्री कालेज, कस्बापुर, हमारी हैसियत, निर्णायक) के अंतर्गत हुई हमारी पहली भेंट एक प्रेमातुर व सफल प्रणय-याचन से गुज़र कर जब प्रेम- शून्य व विफल विवाह में परिणत हुई तो चैन की तलब हमें एक बार फिर कचहरी ले गई थी। वास्तव में, हमने अपने व एक दूसरे को अपने समाज के प्रकरण में अपनी शादी के बाद ही जाना और पहचाना था।
निश्चित तौर पर हम एक दूसरे के लिए नहीं बने थे।
“मैडम, चाय,” पूर्वपत्नी के अर्दली ने अपनी उपस्थिति प्रकट की।
पूर्वपत्नी ने मेरे सम्मुख चाय रखवा कर मेज़ पर रखे दो टेलिफ़ोनों में से एक उठाया और कुछ नंबर मिला कर बोली, “रामशरण जी, ज़रा इधर आइए।”
अगली पलक झपकने से पहले एक पी.ए. नुमा अधेेड़ व्यक्ति आन प्रकट हुए।
“मैं एक मीटिंग में जा रही हूँ,” पूर्वपत्नी अपनी कुर्सी से उठ खड़ी हुई, “यह साहब यहाँ चाय पी रहे हैं।”
“यस, मै'म।”
“नहीं, मैं यहाँ चाय नहीं पी रहा,” अविलंब मैं भी उठ खड़ा हुआ, “मुझे बेबू से आज मिलना है। साढ़े बारह ठीक रहेगा न?”
और पूर्वपत्नी से पहले मैं उस के दफ़्तर से बाहर निकल आया।
“आए एम सौरी, पपा,” साढ़े बारह बजे बेबू हमारे मनपसंद कैफ़े में मुझे देखते ही मेरे गले लग कर रो पड़ी, “मेरी वजह से आप देनदार हो गए।”
जब तक बेबू अपने स्कूल के छात्रावास में रही, मैं नियमित रूप से हर दूसरे माह उसके विज़िटर्ज़ डे पर उसे मिलने वहाँ जाता रहा था। परंतु स्कूल से उसकी रिहाई के बाद यहीं तीन साल पहले पूर्वपत्नी ने लखनऊ के एक नामी कालेज में जब उसे दाख़िला दिलवाया तो मुझे निर्देश दिया, ‘टुकटुक से मिलने तुम उस के कालेज कभी नहीं जाओगे। हाँ महीने में एक बार जब भी उस से मिलना चाहो तो मुझसे समय निर्धारित करने के बाद किसी मर्यादित रेस्तरां में घुमाने ज़रूर ले जा सकते हो। और ध्यान रहे, ठांव-कुठांव फैले तुम्हारे दोस्त उस के सामने नहीं पड़ने चाहिए।’
“मैं तुम्हारा देनदार तो हूँ ही,” रोती हुई बेटी को शांत करने हेतु मैं उसके बाल सहला दिया, “तुम्हारे होते मैं पागल नहीं हुआ, मरा नहीं। वरना ज़िंदगी तो मेरे साथ अनुदार ही रही…”
“नहीं,पपा,” बेबू की रुलाई बढ़ी ही, घटी नहीं, “ममा और मैं बहुुत क्षुद्र हैं। आडंबरी हैं। स्वार्थी हैं…”
“सारा कैफ़े हम पर हँस रहा है,” उसका हाथ थामे-थामे मैं उसे दो कुर्सियों वाले उस मेज़ पर ले आया जिस की एक कुर्सी पर मैं पिछले पैंतालीस मिनट से बैठा रहा था, “हमें अब अपने और्डर पर ध्यान देना चाहिए…”
बेबू बच्ची तो थी ही!
अपनी कुर्सी ग्रहण करते ही मैन्यू कार्ड के खाद्य पदार्थों को अपनी निगाह में उतारने लगी।
रिसेप्शन वाले दिन मैं टैक्सी से सीधे पूर्वपत्नी के घर गया।
वहाँ चारों तरफ़ लोग बिखरे थे। उनमें कहीं मुझे रामशरण दिखाई दे गए। मैंने उन्हें अपने पास आने का इशारा किया तो वह तत्काल मेरे पास चले आए।
वह शायद मुझे पहचान लिए थे।
“मैं पैट्रिक एलफ़र्ड हूं,” मैंने कहा, “आपकी मै'म कहाँ हैं?”
“आप यहीं रुकिए,” रामशरण मुस्कराए, “हम उन्हें अभी सूचित करते हैं । आपका नाम कार्ड में रहा।”
तमतमाए अपने चेहरे के साथ पूर्वपत्नी शीघ्र ही बाहर आन खड़ी हुई , “क्या है?”
“बेेबू के लिए यह वेडिंग केक लाया हूँ,” मैंने विनीत, अति विनीत स्वर का प्रयोग किया, “बेबू कहाँ है?”
“आए ऐम सौरी, इस समय हम सभी बहुत व्यस्त हैं। केक तुम्हारा उस तक पहुँच जाएगा मगर वह तुम्हें अब रिसेप्शन के समय ही मिलेगी,” इतना कह कर पूर्वपत्नी अपने घर के अंदर लोप हो ली।
“आप शायद कोई उपहार लाए हैं,” रामशरण अगले ही पल मेरे पास फिर पहुँच लिए, “आप इत्मीनान रखिए, आपका उपहार हम बिटिया को दे देंगे। वह आपके प्रति बहुत स्नेह रखती हैं। उस दिन देखा हमने। उस कैफ़े पर हमीं उन्हें लेकर गए रहे…..”
“धन्यवाद,” बेबू का केक मैंने उन्हें सुपुर्द कर दिया।
शाम को निर्धारित समय पर मैं रिसेप्शन स्थल पर पहुँचा तो शामियाने के प्रवेेश- द्वार पर मुुझे अपनी पूर्वपत्नी अपने माता-पिता के साथ अतिथियों का स्वागत करती हुई मिली। उसकी वेशभूषा व रूप-सज्जा मुुझे कुछ ज़्यादा ही भड़कीली लगी। परिधान के लिहाज़ से उसके माता-पिता भी कम चमक- दमक न रखे रहे।
मेरे अभिवादन का दोनों ही में से किसी ने उत्तर न दिया और मेरे पीछे चले आ रहे एक दम्पती से कानाफूसी में लग गए। पिछले बीते लगभग पंद्रह वर्षों बाद मैंने उन्हें अब देखा था। उनका दिखाव-बनाव अब भी पहले की तरह चमकीला और शोख था। चेहरे की झुर्रियों और गर्दन की सिलवटों का योग बढ़ जाने के बावजूद दोनों पूर्णतया स्वस्थ व संतुलित लग रहे थे। सहसा मुझे समतोल खो चुके, बनियान और लुंगी पहने अपने गंजे पिता के तथा बिना प्रैस की धोती पहने रसोई में केक के लिए चीनी के साथ अंडे फेंट रही, सफ़ेेद बालों वाली, अपनी मां के क्लांत चेहरे याद हो आए।
“बेबू कहाँ है?” मैंने पूर्वपत्नी से पूछा।
“उधर स्टेज पर। सौरभ के साथ,” उपेक्षित उसका स्वर मुझे आहत कर गया।
अपने को प्रकृतिस्थ करने हेतु मैं देर तक दूर और अलग रखी एक कुर्सी पर जा बैठा। मंच पर आसीन बेबू और उसके वर पर अपनी नज़र टिकाए। जो किसी झांकी का भाग लग रहे थे, खूब सजे- बजे। हाथ में गिफ़्ट लिए अतिथियों की कतार में से जिस किसी अतिथि की आगे बढ़ने की बारी आती, वह वर-वधु के हाथ भरता और जवाब में दो कठपुतलियाँ यंत्रवत झुक कर या तो उनकी ओर शीश झुकातीं या फिर पैर छूतीं और बगल की एक मेज़ पर अपने एक साथी के साथ खड़े रामशरण उनके हाथ का सामान लेकर मेज़ पर रख देते।
इस बीच कई वेटर अपने निर्देशानुसार समय-समय पर मछली, चिकन, पनीर व मंचूरियन के टुकड़े तथा तरह तरह के ठंडे-गर्म पेय मुझे दिखाते रहे परंतु मैंने एक भी चीज़ न छुई। न ही आगे बढ़ कर किसी से बतियाने की कोई चेष्टा ही की।
ग्यारह बीस के लगभग जब मेरी पूर्वपत्नी के लगभग सभी महत्वपूर्ण अतिथि खाकर जा चुके तो रामशरण मेरे पास आकर बोले, “मै’ म आपको बेबी के ससुर से मिलवाना चाहती हैं। उस टेबल पर…”
“यह रहे पैट्रिक एलफ़र्ड…..” पूर्वपत्नी ने खाली हो चुके एक मेज़ पर बैठे बेहद शौकीन काले सूट के साथ लाल टाई वाले एक सज्जन की ओर देख कर कहा, “और आप हमारे समधी, डाक्टर कुंदन शुक्ल…”
“आप क्या करते हैं?” लड़के के पिता ने अपना पान चबाना जारी रखा।
“मैं एक कालम लिखता हूँ। पत्रकार हूँ…”
“मैं वर- वधु को देख आऊं?” अप्रतिभ हो आई मेरी पूर्वपत्नी खिसक ली।
“कहाँ रहते हैं?” ‘समधी’ अपनी पूछताछ पर लौट आया।
“ कस्बापुर में….”
“जहाँ नमिता शुुरू की अपनी तैनाती के तहत कुछ समय तक एस. डी. एम. रहीं थीं?”
“करेक्ट….” मैंने हामी भरी।
“इंटरेस्टिंग। वेरी इंटरेस्टिंग…..”
“यह आपके लिए है,” जभी रामशरण एक परोसी हुई प्लेट मेरे हाथ में थमाने चले आए, “आप अभी तक कुछ नहीं लिए हैं…..”
“मैं इतना खा नहीं पाऊंगा,” वहाँ से दूर भागने का अच्छा अवसर पाकर मैं उठ कर खड़ा हो लिया, “खाना फेंकना मुझे अच्छा नहीं लगता। मै अपनी प्लेट खुद भरूंगा...”
“हाँ, हाँ, आप शौक से जाइए,” समधी पान चबाते-चबाते बोले, “हमारी समधिन ने खाना अव्वल नंबर का परोसा है...”
खाने का आयोजन एक भिन्न शामियाने में रखा गया था। जब मैं वहाँ पहुँचा तो एक ताज़े सजे मेज़ पर बैठी एक टोली के पास मेरी पूर्वपत्नी खड़ी थी। मुझे देख कर वह मेरे पास चली आई।
“क्या बात है?” उसने पूछा।
“यह आप लीजिए,” अपने हाथ की प्लेट मैं ने उसके हाथ में देनी चाही, “मैं अपना खाना खुद परोस लूंगा।”
“कब तक हमें भूखा रखोगी, नमिता?” टोली में खड़े एक सज्जन ने नाटकीय ढंग से पहले अपने हाथ ऊपर उठाए और फिर नीचे झटक दिए, “अब आ भी जाओ। यकीन मानो, आखिरी खानेवालों में आखिरकार अब हम आ ही गए हैं…..”
“एक्सक्यूज़ मी,” मुझसे नज़र चुुरा कर पूर्वपत्नी तत्काल उधर मुड़ ली।
सुनिश्चित दूरी पर जा कर मैं ने अपने हाथ की प्लेट एक वेटर को लौटा दी। और मंच की ओर बढ़ लिया।
“पपा,” बेबू मुझे अपने पास आते देख कर गर्मजोशी से मुस्कराई, “आपने खाना खाया?”
“तुम बताओ, तुमने खाया?”
“हाँ, पपा, खाना बहुत अच्छा था। हम दोनों ने खूब डट कर खाया। चाहें तो सौरभ से पूछ देखें।”
लड़के ने विद्रूप से अपनी भौंहें चढ़ा लीं।
“यह सौरभ है, पपा,” बेबू ने अपने स्वाभाविक भावातिरेक को तजा नहीं, “नानू और इसके पिता एक ही अस्पताल के और्थोपीडिक विभाग में हैं…..”
लड़का बुुत बन कर बैठा रहा। मुझे ध्यान आया पिछले तीन घंटों के दौरान कैैसे मैंने उसे अनेक महानुभावों के सम्मान में बीसियों बार उठ कर खड़े होते देखा था। कुछ के तो उसने पैर भी छुए थे।
“कैसे हो?” मैंने फिर भी उस की ओर अपना हाथ बढ़ा दिया। प्रस्तावित एक हैंडशेक के तहत।
“ओह, मैं ठीक हूँ। बिल्कुल ठीक,” लड़के ने आपत्तिजनक असावधानी से मेरे हाथ में अपना हाथ देकर उसे तुरंत लौटा लिया।
“सौरभ को भी संगीत बहुत पसंद है, पपा…..”
“तो? क्या आदेश है? मुझे इस समय संगीत सुनना होगा या सुनाना?”
लड़के की कटूक्ति मुझे कुपित कर गई।
“ग्रैंडपा कैसे हैं,पपा?और ग्रैंडमा?” बेबू ने मुझे प्रश्रय देने के प्रयोजन से मेरा ध्यान बंटाना चाहा।
“तुम अभी भी उन्हें अपने सगों में मानती हो? जो तुम्हारी शादी में आए ही नहीं…..” शिष्टाचार का उल्लंघन करने में लड़का पारंगत था।
“मालूूम है?” बेेबू ने अपनी धारा का प्रवाह रोका नहीं, “मेरे वह ग्रैंडपा बहुत अच्छा पियानो जानते हैं। बहुुत अच्छा बजाते भी थे……ममा ने मोज़ार्ट, बीथोवन और बाकी सब भी बजाना उन्हीं से सीखा था….. मगर एक दिन बारिश में ऐसे फिसल गए कि…..”
“क्वाइट अ फ़ैमिली हिस्ट्री, आए से (मैं कहता हूँ, परिवार अच्छा खासा इतिहास रखता है ).....”
“मैं अभी बाद में मिलता हूं,” मेरे लिए वहां और रुकना असंभव हो गया।
“क्यों पपा,” बेबू ने मुझे रोकना चाहा, “ऐसे बीच बात में क्यों?”
“उन्हें जाने दो न, स्वीटहार्ट,” लड़के ने बेबू का हाथ अपने हाथ में ले लिया।
बिना दूसरा पल गंवाए मैं उस रिसेप्शन स्थल से बाहर निकल आया। बेबू से पूछे बिना कि वह वेडिंग केक उसे कैसा लगा जो मेरी माँ ने अपने हाथों उसके लिए पकाया व सजाया था।
***
ठगोरी
साइकल चला रही प्रमिला और उसकी भांजी हमें पाँच बजे दिखाई दीं।
दुकान छोड़ कर बाबूजी और मैं अपनी डयोढ़ी में आन खड़े हुए। उन्हें मकान का रास्ता दिखाने। जो ड्योढ़ी के छोर पर खड़ी सीढ़ियों पर स्थित था।
“इतनी देर लगा दी?” बाबूजी अपना रोष अपनी ज़ुबान पर ले आए। जलबाला को उसकी टहलिन के हाथ सौंपने की उन्हें जल्दी थी।
“देर कहाँ हुई?” नर्स की नीरस पोशाक की बजाय प्रमिला अब चटकदार गुलाबी बुंदकी लिए हरी सलवार- कमीज़ पहने थी। उम्र भी उस समय उसकी कम लग रही थी : यही कोई तेइस- चौबीस साल। वह सुंदर थी। मांसल भी। कल्पना-विहारी मेरी अभिरुचि का स्वप्न-चित्र। प्रेम-वंचित मेरे मनोराज्य का प्रीति-भोज।
“पाँच बज रहे हैं,” उसे अपने समीप बुलाने की खातिर हाथ उठा कर मैंने उसे अपनी घड़ी दिखानी चाही।
“मैं भी घड़ी पहने हूँ,” प्रमिला अपनी जगह से टस से मस न हुई, “ दो बजे अस्पताल से छुट्टी पाकर पहले अपने घर गई थी। बहन के घर बाद में। भांजी मेरी यह सगी नहीं। बहन मेरी इसकी सौतेली माँ है। और उसकी बात इसके मन में बैठती नहीं। अड़ गई। पिता से मिले बगैर अजनबी- बेगानों के घर कतई नहीं जाएगी। बहनोई की प्रिंटिंग प्रेस पुरानी बस्ती में है। वहाँ गई। उसे राज़ी किया। फिर उसने इसे समझाने- बुझाने में समय लिया। देर तो फिर होनी ही थी…..”
“स्कूल छोड़ने का दुख लग रहा है?” उस ‘भांजी’ के चेहरे की शिथिलता को मैंने उसकी अनिच्छा से ला जोड़ा। प्रमिला की तुलना में उसके लिबास की काट व करीज़ कम दुरुस्त थी। बाल भी उसके बेसिलसिले असमतल कटे थे। तिस पर इतने घुंघराले कि उनमें मांग या चोटी काढ़ने की गुंजाइश ही खत्म हो चुकी थी। उसके ठीक विपरीत प्रमिला के बाल उन्नीस सौ पचास के दशक के उन दिनों की अधिकतर लड़कियों की तरह रिबन में बंधे थे। बायीं ओर एक कैंची- मोड़ देकर दो चोटियों में।
“दुख क्यों होगा?” प्रमिला ने अपने दांत चमकाए— उसकी दंत पंक्ति भी बहुत मोहक थी, सम और श्वेत— “यहाँ अच्छा खाने को मिलेगा। अच्छा पहनने को मिलेगा। अच्छा सोने को मिलेगा। मरीज़ के पास चलें?”
“किशोरीलाल,” बाबूजी ने हमारे नौकर को पुकारा। वह अभी अविवाहित था और रात में इधर डयोढ़ी ही में सोता था। दिन में दुकान के छिटपुट काम निपटाने के साथ-साथ घर का फुटकर सामान भी ले आया करता।
“आइए,” किशोरीलाल तत्काल उपस्थित हो लिया, “बहूजी से मैं आपको मिलाता हूँ…”
(2)
उसी सुबह हम जलबाला को उसकी दवा-दरमन की पर्चियों और रिपोर्टों के साथ शहर के सबसे बड़े डॉक्टर, डॉक्टर गर्ग के पास लेकर गए थे।
“अपनी बहू को अच्छी देखभाल दीजिए। अच्छा भोजन खिलाइए। और एक साल तक पूरा आराम लेने दीजिए। इन्हें तपेदिक हो रहा है,” जलबाला के मैनटोक्स टेस्ट और फेफड़ों के एक्स-रे देख कर डाक्टर गर्ग ने बाबूजी से कहा था।
“फिर तो उसके संग उठने- बैठने से हमें परहेज़ रखना चाहिए,” बाबूजी के चेहरे पर चिंता की कई रेखाएं उभर आईं थीं। अपनी और मेरी तंदरुस्ती के बारे में वह बहुत चौकस रहा करते।
“बिल्कुल। बल्कि कम से कम तीन-चार महीने तो आप दोनों को इससे एकदम अलग रहना चाहिए। ताकि इसकी छींक व खांसी से वातावरण में फैले विषैले कीटाणु आपको अपनी चपेट में न ले लें। जब तक मैं इसे ऐंंटी टी.बी. ऐंटीबायोटिक्स का ट्रीटमेंट दूँगा। इसके बुखार, इसके फेफड़ों व इसकी थूक पर निरंतर नज़र रखूँगा।”
“ऊपर हमारी चौथी मंज़िल पर हमारे पास एक बरसाती है तो,” बाबूजी ने कहा था, “ उसे हम आज ही खाली करवा लेंगे और बहू को ऊपर खिसका देंगे। मगर मुश्किल यह है कि बहू के साथ ऊपर रहेगा कौन? इसके पिता तो अपनी तैनाती के सिलसिले में सपरिवार उधर नाइजीरिया में हैं। और वहीं रहेंगे भी। अगले तीन साल तक…..”
“कहें तो अपनी किसी नर्स से पूछ देखूं?”
“क्यों नहीं?”
प्रमिला तभी हमारे पास लाई गई थी।
“मेरी एक भांजी है,” डाक्टर गर्ग के पूछने पर उसने उत्साह दिखाया था, “दसवीं में पढ़ती है। मरीज़ को दवा खिला देगी। उसका बुखार देख लेगी और मरीज़ के साथ आपके घर पर रह भी लेगी…”
“दुरुस्त रहेगा,” डाक्टर गर्ग ने संतोष जतलाया था, “और फिर हर चौथे-छठे रोज़ दवा में अदल-बदल करने और बहू का हाल पूछने मैं भी तो आता रहूँगा।”
“आप अपना पता लिखवाइए,” प्रमिला ने अपने हाथ में कापी और पेंसिल पकड़ ली थी।
“साईंदास रोड पर मरफ़ी रेडियो की हमारी एजेंसी है,” बाबू जी ने बताया था।
“देखी है । बिल्कुल देखी है।”
सन उन्नीस सौ पचास में हुई मेरे दादा की मृत्यु के बाद गांव की अपने हिस्से आई ज़मीन-जायदाद बेच कर बाबूजी कस्बापुर में आन बसे थे। अपने भाइयों से दूरl
“वहीं आना है। नीचे हमारी दुकान है और ऊपर हमारी रिहाइश।”
(3)
प्रमिला जल्दी ही हमारी बरसाती से लौट आई। उसे देख कर हम पिता-पुत्र फिर ड्योढ़ी में चले आए।
“लड़की को मैंने सब समझा दिया है,” प्रमिला ने कहा, “लेकिन घर के बाहर वह कभी रही नहीं। इस लिए अभी उसे थोड़ी मदद की ज़रूरत रहेगी…..”
“कैसी मदद?” बाबूजी ने पूछा।
“जैसे कोई स्त्री रहती…..”
“हमारा किशोरीलाल सब देख लेगा।”
“यहाँ घर में, परिवार में कोई स्त्री नहीं?” प्रमिला ने जिज्ञासा प्रकट की।
“मेरी माँ मेरे बचपन में ही चल बसी थी,” मैंने कहा, “जब मैं चार साल का था....”
“आपने दूसरी शादी नहीं की?” प्रमिला ने बाबूजी की दिशा में अपनी आंखें घुमाईं। चोचलहाई हाव-भाव के साथ।
“नहीं की,” बाबूजी ने सपाट स्वर में उत्तर दिया। स्त्रियों में उनकी रुचि शून्य के बराबर थी।
“आपकी ससुराल में भी कोई स्त्री नहीं?” प्रमिला ने अपना ध्यान मुझ पर केंद्रित कर लिया, “जो घर को रोज़ देख-संवार सके।”
“नहीं,” मैंने कहा।
“फिर मुझी को आना पड़ेगा, सुबह-शाम?” प्रमिला ने जलबाला की टहल-अभियान में अपनी सहचारिता निश्चित करनी चाही।
“बिल्कुल,” उसके चेहरे पर मैंने अपनी आंखें गड़ा लीं, “आप क्यों नहीं आयेंगी?”
(4)
शाम होते ही बाबूजी ऊपर मकान में चले गए और मैं भोजनालय से भोजन लाने। बाबू जी के प्रोत्साहन पर।
अस्पताल से लौटते ही उन्होंने संकेत दिया था, “अपनी रसोई अब हमें अलग रखनी होगी। बहू के हाथ के खाने का तो सवाल ही नहीं उठता। उसकी टहलिन के हाथ का भी नहीं खाएंगे। देसी घी के किसी भोजनालय से माहवार बांध लेंगे। सस्ता भी पड़ेगा और सेहत का नुकसान भी न होगा। बहू और उसकी टहलिन किशोरीलाल से अपना सामान अलग से मगाएं-खाएं…..”
गोभी-आलू और मूंग की दाल में हींग का ताज़ा छौंक लगवा कर मैंने दस चपातियों का ऑर्डर दिया और उनके अपने टिफ़िन में बंद होते ही साईं दास रोड पर लौट लिया।
अभी मैं सड़क पर ही था कि डयोढ़ी का एक वार्तालाप मेरे कानों से आ टकराया।
स्त्री- स्वर में रोदन-रुद्ध रहा, “उन दो डायन बहनों की हर बात आपको क्यों माननी होती है और फिर मुझे मनवानी होती है…..”
पुरुष-स्वर में अनुराग व भर्त्सना एक साथ छलका रहा, “इधर मैंने तुम्हें तुम्हारी भलाई के लिए भेजा है। तुम्हारे आराम के लिए…..”
डयोढ़ी में प्रमिला वाली लड़की एक अजनबी के साथ खड़ी थी।
“किशोरीलाल…..” मैंने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
“वह घर पर नहीं हैं,” घबराहट से लड़की की आवाज़ लड़खड़ाई , बाज़ार से सामान लेने गए हैं…..,”
“ऊपर आ ने खाना खाया?” मैंने पूछा। उसकी कृतज्ञता मापने हेतु।
“आपकी पत्नी ने कुछ मंगवाया तो है,” उसने लापरवाही और विरक्ति दिखलाई।
“आप कौन हैं?” मैं अजनबी की ओर मुड़ा।
“मैं इसका पिता हूँ। इसकी नई जगह देखने आया था। कुछ सामान भी इसे देना था,”अजनबी ने अपने हाथ वाला झोला ऊपर उठाकर मुझे दिखाया।
अड़तीस और चालीस के बीच की उम्र लिए उसका चेहरा रोबीला था। अपनी मूंछ को उसने ताव भी दे रखा था। उसकी कमीज़ का निचला भाग उसकी पैंट में ठुंसा था। जिसे एक पेटी की दक्ष संभाल ने सुव्यवस्थित दिखावट दे रखी थी।
“क्यों नहीं?” मैंने कहा। अपने स्वर में मैं अतिरिक्त नरमी ले आया था। उसकी अवहेलना करना कठिन था।
“आप से कुछ तय करना था,” वह मुस्कराया।
“क्या?”
“तू जा,” उसने हाथ का झोला लड़की को पकड़ा दिया, “जाकर आराम कर…”
सुस्त पांव वह सीढ़ियां चढ़ने लगी।
“शशि को कितनी तनख्वाह देंगे?” वह शशि किसे कह रहा था, पूर्ण रूप से मुझे समझने में समय लगा।
मुझे हैरानी हुई, प्रमिला की कथित‘भांजी’ की चर्चा हम दिन भर ‘लड़की’ ही के नाम से करते रहे थे। किशोरीलाल समेत।
“आप कितनी चाहते हैं?”
“डेढ़ सौ रुपया माहवार।”
“क्या?” मैं चौंक गया। सन छप्पन का रुपया ऊंचा भाव रखता था।
“हम एक पढ़ी-लिखी फ़ैमिली हैं। अपनी मेहनत का उचित मूल्य जानते हैं। मेरी पहली पत्नी, शशि की मां, एक स्कूल टीचर थी। मेरी दूसरी पत्नी भी मिडल पास है और घर में ट्यूशन पढ़ाती है। उसकी बहन, प्रमिला, से तो आप मिल ही चुके हैं। जो विक्टोरिया जुबली हॉस्पिटल से ट्रेनिंग पाए है…”
“मैं अपने पिता से पूछ कर आता हूँ,” घर के रुपए-पैसे का हिसाब और विखंडन बाबूजी के पास रहा करता, “आप यहीं रुकिए…..”
टिफ़िन मेज़ पर टिका कर मैंने बाबूजी को नीचे का पूरा हाल कह सुनाया।
“डाक्टर गर्ग से बात करता हूँ,” बाबूजी बैठक में चले गए। हमारी दुकान के टेलिफ़ोन का विस्तारण इधर हमारी बैठक से जुड़ा था।
बाबूजी जल्दी ही बैठक से लौट आए।
“डाक्टर गर्ग का कहना है, डेढ़ सौ रुपया हमें देना ही पड़ेगा। छूत वाले रोग की टहल का ज़िम्मा कोई कम रुपयों में क्यों लेगा? सेहत अपनी जोखिम में क्यों डालेगा?”
“बाबूजी आपकी बात मान गए हैं,” सीढ़ियों ही से मैंने अपनी स्वीकृति नीचे ड्योढ़ी में ढकेल दी।
“ठीक है,”अधिकार-पूर्ण स्वर में सहमति नीचे से ऊपर फेंक दी गई, “मुनासिब है।”
मैं हाथ धोने चल दिया। मुझे भूख लगी थी।
(5)
आगामी दिनों ने एक अजीब मोहनी मुझ पर आन लादी। घर देखने-संवारने के बहाने प्रमिला जैसे ही मेरे कमरे की दिशा में जाती, मैं उसके पीछे हो लेता।
इहलोक निवासिनी जलबाला के लिए दांपत्य का अर्थ लोकगत घरदारी से ज़्यादा जुड़ा था, प्रेम से कम। उसके ठीक विपरीत अलौकिक प्रमिला केवल प्रेम को ही प्रमुख स्थान दिया करती। खुले दिल से प्राकृतिक नियम स्वीकारती और उन्हें निष्पादित करती।
“मैं प्रमिला से शादी करूंगा,” हिम्मत बटोर कर एक दिन मैंने बाबूजी को जा घेरा।
“मूर्ख,” बाबूजी ने मेरी पीठ पर एक हल्का धौल जमाया, “ तू नहीं जानता जिस दिन से बहू की बीमारी का नाम जगज़ाहिर हुआ है, तेरे नाम पर बिरादरी के सारे आदमी अपनी पगड़ियाँ रंगवाने में लगे हैं और सभी औरतें अपनी साड़ियाँ कढ़वाने में…..”
“मैं प्रमिला की बात कर रहा हूँ…..”
“तेरे लिए बड़ा घर चुनेंगे। बड़ा खानदान देखेंगे। अपने हाथ मज़बूत करेंगे। बस तू कुछ दिन और सब्र से गुज़ार ले। बहू का इलाज तीन-चार महीने तो चले। फिर घोड़ी सजा कर तुझे उस पर बिठलाना तो है ही…”
“बहू इस बार पढ़ी-लिखी बेशक कम हो,” बाबूजी और अपने बीच की झिझक मैंने परे धकेल दी, “लेकिन हृष्ट-पुष्ट ज़रूर हो…”
जलबाला से मुझे ब्याहते समय उन्होंने उसके साथ आने वाली एम्बेसेडर देखी थी, चार किलो सोना देखा था, उसकी शक्ल-सूरत नहीं। उसे बेशक बदसूरत तो नहीं कहा जा सकता था, मगर वह बहुत दुबली थी। एकदम सींकिया। लावण्य उसमें सिरे से गायब था। पढ़ाई उसकी जरूर हमारे परिवार की सभी बहू-बेटियों से ऊंची थी। वह इंटर पास थी और रेडियो के बाद अगर उसे कोई चीज़ पसंद थी, तो किस्सा-कहानी। उसकी अच्छी सेहत के दिनों में उसे जब भी मैं बाज़ार लेकर गया था तो निरपवाद रूप से उसने चार- छः उपन्यास तो खरीदे ही खरीदे थे।
“खुश रह,” हँस कर बाबूजी ने मेरी पीठ थपथपाई।
(6)
अगली सांस लेने से पहले मैं अपने जीने की ओर बढ़ चला।
हमारे जीने में छः पड़ाव थे। हमारी बरसाती का दरवाज़ा छठे पड़ाव पर पड़ता था। इधर पाँचवां पड़ाव ही मेरा समापक गंतव्य स्थान बन गया था। जब भी मुझे जलबाला का हाल लेना होता यहीं से मैं उसे आवाज़ देता और वह छठे पड़ाव पर आन खड़ी होती।
“जलबाला,” मैंने पाँचवे पड़ाव से पुकारा।
बरसाती का दरवाज़ा बंद था।
अपना दरवाज़ा वह कब से बंद रखने लगी थी?
मुझे इधर आए कितने दिन हो गए थे?
चार? पांच? या फिर छः?
“जलबाला,” मैंने फिर पुकारा।
मेरी आवाज़ सुनकर उसने अपने रेडियो का वौल्युम बढ़ा दिया और रेडियो पर बिमल राय की फ़िल्म ‘देवदास’ का गाना ‘आन मिलो, आन मिलो श्याम सांवरे…... ‘मुझ तक चला आया।
रेडियो का जलबाला को एक उन्माद की सीमा तक शौक था। बल्कि हमारी अपेक्षा के विपरीत जलबाला ने रहने की अपनी अलग व्यवस्था का स्वागत भी अपने इसी उन्माद के अंतर्गत किया था : उधर बरसाती में मेरा रेडियो तो पहुँचा देंगे न?
असल में बाबूजी के सामने उसे रेडियो चलाने की पाबंदी थी। जिन पहियों वाली शेल्फ़ पर सजा कर मेरे ससुर ने उसे हमारी ही दुकान की खरीद का रेडियो दिया था, उसके पहिए हमारी बैठक में टिकाए गए थे।
अपनी दुकान पर ग्राहकों को संतुष्ट करने हेतु बाबूजी जो ए.एम. ( ऐंप्लीटयूड मौडयुलेशन), आवृत्ति के आरोह-अवरोह, को ट्यून करने के अंतर्गत दिन भर ध्वनि-तरंगों की बमबारी अपने कानों पर लेते तो घर के अंदर उससे छुट्टी पा लेना चाहते। बाबूजी के घर में कदम रखते ही जलबाला को रेडियो बंद रखने की मजबूरी रहा करती।
जीने की आखिरी दस सीढ़ियाँ पार कर मैं दरवाज़े पर पहुँच लिया।
मेरे दरवाज़ा खटखटाते ही तत्काल रेडियो बंद कर दिया गया और एक पदचाप दरवाज़े की दिशा में बढ़ ली।
पदचाप सुनते ही वे दसों सीढ़ियां मैंने लपक कर फलांगी और जीने के पांचवे पड़ाव पर पहुंच कर रुक लिया।
दरवाज़े पर पहले जलबाला का नीला दुपट्टा लहराया, फिर काले फूलों वाला उस का सलवार-कमीज़।
ब्लैक एंड व्हाइट फ़िल्मों के उस ज़माने में जलबाला के ज़्यादा कपड़े उनकी हीरोइनों की तरह दो ही रंग लिए रहते। जिनमें एक हल्का होता और दूसरा गहरा। अभी भी उसके अधिकांश कपड़े उसके मायके वालों ही के थे। अपने दहेज में उसे गहना-लत्ता बहुत मिला था। गहना बाबूजी ने अपनी तिजोरी में डाल दिया था। लेकिन कपड़ों पर जलबाला अभी भी पूरा कब्ज़ा जमाए हुए थी।
दरवाज़ा खुला तो मैंने जाना जलबाला के कपड़ो में शशि खड़ी थी।
खांसती हुई।
जलबाला कहाँ है? मैंने पूछा।
“वह आराम कर रही हैं,” वह फिर खांसी। लेकिन इस बार उसने अपनी खांसी जलबाला वाले दुपट्टे से ढांप ली।
उसने यह आदत ज़रूर जलबाला से ली थी। जब भी जलबाला खांसती, अपना मुंह ओट में ले जाती। रुमाल की, दुपट्टे की या साड़ी के पल्लू की या फिर उन में से यदि कुछ भी पास न रहता तो अपने हाथ ही की ओट ले लेती।बल्कि अपनी खांसी खत्म होने पर बाकायदा ‘सौरी’ भी बोलती। डाक्टर गर्ग अक्सर हँसा करते, ‘आपकी बहू अंग्रेजी शिष्टाचार की पूरी-पूरी भक्तिन है। घने कष्ट में भी सॉरी और थैंक यू कहना नहीं भूलती।’
“जलबाला को बोलो, मिस्टर फ़िफ़्टी फ़ाइव आए हैं,” प्रसन्नचित्त पलों में मैं अपने को मिस्टर फ़िफ़्टी फ़ाइव कहा करता और जलबाला को मिसेज़ फ़िफ़्टी फ़ाइव। संयोगवश सन उन्नीस सौ पचपन ही में हमारी शादी हुई थी और साथ देखी गई हमारी पहली फ़िल्म भी रही गुरुदत्त की ‘मिस्टर ऐंड मिसेज़ फ़िफ़्टी फ़ाइव’।
“आपने मुझे बुलाया?”
जलबाला के लिए मुझे ज़्यादा प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी। लेकिन जलबाला को देख कर मुझे गहरा धक्का लगा। दहशत की हद तक।
अस्त- व्यस्त, बिखरे बाल लिए वह अभी भी रात वाले कपड़े पहने हुए थी। एकदम लापरवाह ढंग से। सिलवटदार उसके ड्रेसिंग गाउन का कालर उसकी ठुड्डी छू रहा था और नाइट सूट की बुशर्ट का कालर उसकी गर्दन पर अलग उठा खड़ा था। दोनों ही कालर थपकी मांग रहे थे। सुव्यवस्थित दिखाई देने के लिए। तिस पर उसके ड्रेसिंग गाउन का रंग बैंगनी था और नाइट सूट का पीला। जबकि एक बार जलबाला ही ने मुझे बताया था कि पीला रंग बैंगनी रंग को तरेरता है। इन्हें एक साथ नहीं पहना चाहिए। अपने दहेज में जलबाला न केवल सात नाइट सूट ही लाई थी, बल्कि उनसे मेल खाते हुए सात ड्रेसिंग गाउन भी। उन दिनों स्त्रियोचित नाइट सूट पुरुषों के नाइट सूट जैसे ही रहा करते : बुशर्ट और पाजामा। केवल उनके कपड़े और काट में अंतर रहा करता।
“तुम अभी तक नहाई नहीं,” मैं ने आत्मीय स्वर में पूछा, “ग्यारह बज रहा है और फिर ऊपर से इतनी गर्मी भी पड़ रही है…..”
उस समय मई का महीना चल रहा था।
“ नहीं,” उसने अपना उत्तर संक्षिप्त रखा।
“तुम तो हमेशा साफ़-सुथरी रही हो। तरतीब-पसंद रही हो। अभी मैं किशोरीलाल से कहता हूँ, तुम्हारी शशि से बोले, सुबह होते ही तुम्हें तैयार कर दिया करे …..”
वह खांसने लगी।
बेलगाम और अंधाधुंध।
अपना मुंह पूरा खोल कर…..
अजनबी, अनजानी एक अलग ही खांसी…..
जिसकी खौं- खौं में उसके फेफड़ों और कंठ की खलबली की गड़गड़ाहट ही नहीं थी…..
एक फौं-फौं भी थी : बदमिज़ाज किसी हथिनी की चिंघाड़ जैसी…..
एक भौं-भौं भी थी : चिड़चिड़ी किसी कुतिया की भौंंक की भांति……
एक हुंआ-हुआं भी थी : उसी कुतिया की पूर्वजा कटखनी किसी मादा भेड़िया की गुर्राहट मानिंद .…..
मानो आदिम किसी भाषा में वह मुझे लताड़ रही थी ……
मुझ पर आरोप लगा रही थी : विकट व हिस्रं…..
मगर क्यों?
अगर हवा,धूप और चांदनी उसे छोड़ रही थी तो क्या मेरे कारण?
अगर आसमान और ज़मीन उसे अपने बीच से उसे उखाड़ रहे थे तो क्या मेरे कारण?
मेरे संग इतनी धृष्टता?
शिष्टाचार की इतनी अवज्ञा?
तपेदिक ने उसे इतनी जुर्रत दे दी?
इतनी बेलिहाज़ी?
अक्षम्य! अक्षम्य!! अक्षम्य!!!
छी…..छी…..छी…..
मेरे पैर सीढ़ियां नापने लगे।
(7)
लेकिन तीसरी मंज़िल के दरवाज़े को सामने पाते ही ठिठक लिए : अनायास। दरवाज़े पर ताला लगा था, जिसकी चाभी अब बाबूजी के पास नीचे रहा करती। जलबाला के सामान की सुरक्षा हेतु।
गृहस्वामिनी के रूप में जलबाला ने यही दरवाज़ा सब से पहले लांघा था।
तीसरी इस मंज़िल में दो कमरे और एक रसोई थी। दोनों ही कमरों में पाँच- पाँच खिड़कियाँ थीं जो सांई दास रोड पर खुलती थीं।
‘सभी में पर्दे होने चाहिए,’ पहला अवसर मिलते ही जलबाला ने याचना की थी।
हमारे दांपत्य जीवन का उसका वह पहला आग्रह था और बाबूजी के विरोध के बावजूद मैंने उसे कार्यान्वित भी किया था।
बेशक उत्तरवर्ती उसके कई आग्रह अमान्य रहे थे। ज़्यादा अनदेखी उन आग्रहों की हुई थी जिनके अंतर्गत वह अपने रिश्तेदारों से संपर्क कायम रखना चाहती थी। बाबूजी उसे उनके पास जाने नहीं देते थे और जब कभी उनमें से कुछ जन उसे मिलने आते भी तो वह नीचे अपनी दुकान ही से उन्हें रवाना कर देते, ‘अब वे बहू के सगे तो हैं नहीं। सभी बाहरी, बेगाने लोग हैं। उनके साथ बहू का लहराना-फहराना मुझे कतई पसंद नहीं…..’
शाम को जैसे ही प्रमिला मुझे अपनी साइकल खड़ी करती हुई दिखाई दी, मैं दुकान के बाहर लपक लिया और मैंने अपनी बेचैनी उसे कह डाली, “मैं समझ नहीं पा रहा जलबाला की सेहत किधर जा रही है?”
“आप क्या सुनना चाहते हैं?” प्रमिला ने चुहल की, “उनकी सेहत गिर रही है या संभल रही है?”
“सच बताओ,” मैं गंभीर बना रहा।
“सच यह है, तपेदिक के जीवाणु बहुत घातक होते हैं। तेज़ दवाइयों के असर से कुछ समय तक उन्हें निष्प्रभावी तो किया जा सकता है मगर उन्हें हमेशा के लिए खत्म नहीं किया जा सकता। एक बार वे डेरा डाल लेते हैं तो फिर खिसकते नहीं। मरीज़ की सेहत डोली नहीं कि वे फिर सक्रिय हो जाते हैं। फिर से धावा बोलने के लिए।”
“मालूम है शशि भी खांसने लगी है…..”
“आपके मन में बाबूजी की कद्र बढ़ जानी चाहिए। उन्हीं की सूझ-बूझ के कारण आपकी पत्नी की खांसी शशि बांट रही है, आप नहीं…..”
“बाबूजी की खबरदारी वाकई ज़ोरदार है,” मैं सहज हो लिया, “ जलबाला की खांसी पर उन्हीं का ध्यान पहले गया था और ध्यान जाते ही वही उसके सभी ज़रूरी टेस्ट करवाए थे और फिर डॉक्टर गर्ग के पास ले गए थे।”
“मेरी किस्मत अच्छी थी कि जो डॉक्टर गर्ग के पास गए, किसी अन्य डॉक्टर के पास नहीं।”
एक हल्कापन मेरे दिल में उतरने लगा और मैंने पुनः अपने को अपनी मोहनी को सौंप दिया।
(8)
मोहनी मेरी टूटी जिस दिन शशि के अचेत हो जाने की सूचना के साथ किशोरीलाल नीचे दुकान पर आया।
बाबूजी के फ़ोन पर डाक्टर गर्ग घर पर चले आए।
“ज़रूर यह लड़की पहले भी तपेदिक की मरीज़ रह चुकी है,” डाक्टर गर्ग ने शशि को जांचने के बाद घोषणा की, “और पीछे छूटा इसका तपेदिक यहाँ रहने से लौट आया है। इसे फ़ौरन अस्पताल ले जाना होगा। इसका फ़ौरन इलाज न हुआ तो यह मर सकती है। फ़रौम फ़ेलियर आव वेंटिलेशन ( हवादारी के अभाव के कारण)। फ़रौम जनरल टौक्सीमिया ऐंड एगज़र्शन ( व्यापक विषाक्तता और शिथिलता के कारण)।”
“ इस पर आपका ध्यान कैसे नहीं गया?” बाबूजी ने डाक्टर गर्ग से स्पष्टीकरण माँगना चाहा, “इसे यहाँ रहते दो महीने होने को आए और आप इस बीच इससे तो मिले ही मिले होंगे…..”
“आपकी बहू के साथ उस समय प्रमिला रहा करती, वह नहीं। एक दो बार मैंने पूछा भी, उसकी भांजी दिखाई नहीं दे रही तो प्रमिला ही जवाब दे दिया करती, वह नहा रही है…..”
“आप अपनी बात करते हो?” किशोरीलाल ने सिर धुना, “हमारी जड़मति देखिए। रोज़ उससे आमना- सामना होता था, लेकिन उधर मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया। उसकी सुस्त चाल पर। उसके पीले चेहरे पर। मुंह पर बंधी उसकी पट्टी से बाहर उछल रही उसकी खांसी पर। बल्कि कई बार हमें देख कर वह पीछे हट लेटी तो हम जानते वह शील- संकोच से ऐसे करती है। कमाल है, हम कैसे बूझ नहीं पाए वह हम सबको ठग रही है…..”
“प्रमिला ने हमसे जैसी बेईमानी की है,” अपने दिल की भड़ास मैं भी अपनी ज़ुबान पर ले आया, “उसकी मिसाल कस्बापुर में क्या, पूरी दुनिया में ढूंढने पर न मिलेगी।”
(9)
शशि की मृत्यु विक्टोरिया जुबली अस्पताल में हुई।
उसके दाखिल होने के दूसरे दिन।
जलबाला को भी हमने फिर घर पर न रखा। डाक्टर गर्ग के नर्सिंग होम में उसी रोज़ ला खिसकाया था।
उसका बुखार बढ़ लिया था। थूक में पीप की जगह लहू टपकने लगा था और खांसी उसकी रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी।
“एक ही सूरत बची है,” डॉक्टर गर्ग हताश नज़र आए, “फेफड़े के घाव को आपरेशन द्वारा बाहर निकालना होगा। द लिश्यन आव द लंग हैज़ टू बी रिमूव्ड सर्जिकली…..”
लेकिन दिन और समय तय करने से पहले ही जलबाला की मृत्यु उसे झपट कर ले गई।
“नाइजीरिया फ़ोन करेंगे?” मैंने बाबूजी से पूछा।
मरने से पहले जलबाला ने अपने हाथ की लिखी मुझे एक पर्ची भिजवाई थी, ‘मेरे मरने की सूचना मेरे घर वालों को फ़ोन पर देना, तार से नहीं। नाइजीरिया में तार भी महीनों बाद पहुंचते हैं।’
“इंटरनेशनल कॉल?” बाबूजी झल्लाए। सन उन्नीस सौ छप्पन में आइ.एस.डी. तक अकल्पनीय थी –आज के मोबाइल की तो बात ही क्या करनी—”यहीं अपनी दुकान से किशोरीलाल उसके किसी चाचा-मामा को लोकल कॉल कर देगा। अब वह रिश्तेदार किस-किस को, कब-कब, क्या-क्या बतायें, वही जानें। वे जन भी बहू के संस्कार के समय आवें या तेरहवीं में, हमारी बला से…..”
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अंततः उसी सन छप्पन के नवम्बर में मैंने अपनी दूसरी पत्नी पाई : लावण्यमयी, मांसल और सुंदर।
हर्षा कुमारी।
आयु में जलबाला से कम और रूप- आकृति में प्रमिला से अधिक लुभावनी।
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दीपक शर्मा
जन्म : 30 नवम्बर, 1946 (लाहौर, अविभाजित भारत)। मूलत: कथाकार। दो दर्ज़न से अधिक महत्वपूर्ण कथा संग्रह। लखनऊ क्रिश्चियन कॉलेज के स्नातकोत्तर अंग्रेज़ी विभाग से अध्यक्षा, रीडर के पद से सेवानिवृत्त।
संपर्क : बी-35, सेक्टर-सी, निकट अलीगंज पोस्ट ऑफ़िस, अलीगंज, लखनऊ-226024
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