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आख़िर उस गाँव में क्यों अटकी थी उनकी जान

क़िस्सा रमेश काका का


painting by parth pankaj


संस्मरण  

- कलावंती

वे गाँव के हर शादी-ब्याह, मरनी–जीनी, काज-परोजन में जरूर आते। हम समझते कि वे  पड़ोस के रामवचन बाबा के रिश्तेदार होंगे। क्योंकि आते तो उन्हीं के यहाँ रहते-खाते। उनके साथ उनके बाल-बच्चे भी आते। रामवचन बाबा अपने समय के बहुत रईस आदमी थे। तीन गाँव की जमींदारी थी। दुआर पर हाथी-घोड़े बंधते थे। जिस गाँव में जाते रैयत अपने घर का घी-दूध लेकर हाजिर हो जाते। तुरंत खस्सी कट जाता। वे तो चीतल-हिरण के शिकार के भी दिन थे। वे चाहते तो लोग हिरण-चीतल के शिकार कर के भी ले आते। पूरे गाँव का जश्न होता। उनके शिकार किए  बारहसिंघे के सिंग आज भी बैठक में लगे हुए हैं। उनके तीन बेटे हुए, तीन बेटियाँ। बेटियों की शादी हुई बहुत बड़े- बड़े घरों में। अपने ही टक्कर के हित-जन खोजे गए। दोनों ओर से भेंट आते-जाते रहते। यह रामा कहार और उसके भाइयों के जिम्मे था। उनका पूरा परिवार सेवा-टहल में लगा रहता। औरतें भीतर का काम संभालतीं और मर्द बाहर खेती और अन्य तीमारदारी करते। बाद में रामा कहार के बेटे ने ड्राइवरी सीख ली। वह गाड़ी चलाने लगा था। रामवचन बाबा के तीनों बेटों की शादी हुई । तीनों  बेटों को कुल मिलाकर नौ बेटियाँ और पाँच बेटे हुए तीनों ही बेटे निकम्मे निकले। वे अपनी खेती देखने भी न जाते । रामवचन  बाबा के शरीर का ज़ोर जब तक चला तब तक वे शानो-शौकत में  रहे। घर-बाहर पर उनकी पकड़ भी बनी रही। उनके बाद बेटों ने कमाया कुछ नहीं, खर्च अपने पिता की तरह ही किया। उस घर में लड़कियों के जवान होते- होते हाल ये हुआ कि बेटियों की शादी के लिए जमीने बिकने  लगीं। हाथी- घोड़े बिक गए। महेंद्रा जीप पुरानी होते-होते कबाड़ हो गई। आखिर में तीनों बेटों ने जमीन बाँट ली। क्योंकि मंझले भाई को छ: बेटियाँ थीं और सामूहिक रूप से वे इतनी जिम्मेवारियाँ उठाने को तैयार नहीं थे। मँझले को अपनी बेटियाँ ब्याहने में बहुत दिक्कत हुई । उस पर से उनकी बड़ी बेटी मंदबुद्धि थी। मैं जब भी गाँव जाती, इन सब लोगों से भेंट होती। 

रामवचन  बाबा के तीनों बेटों राजेश, ब्रजेश और रूपेश को मैं पहचानती थी। 

तो ये कौन थे? दिखते तो बिलकुल उन्हीं लोग जैसे थे। गोरा रंग, ऊंचा भाल, तेजस्वी आँखें ।मेरे कौतूहल को शांत किया मंझली ने। ये रमेश काका हैं। रामवचन बाबा ने आन गाँव में एक  रखनी रखी थी। वो गरीब थी। उसका कोई नहीं था। एक बूढ़ी माँ थी, जो मर गई और रमेश काका की माँ को रामवचन बाबा ने रख लिया। उनसे हुए रमेश काका । पर रमेश काका  के जन्मते ही वे मर गईं। 

रामवचन  बाबा ने  रमेश काका  को  मरने के लिए नहीं छोड़ा। वे लोक लाज त्यागकर उन्हें उठा लाये और बड़की आजी के गोद में डाल दिया। बड़की आजी थोड़ा हिचकती रहीं, पर नवजात बच्चे का क्या दोष, मानकर आखिर उन्होने उसके जीने का प्रबंध किया। उन्होने गाँव की एक लरकोरी दाई को उसे दूध पिलाने का जिम्मा सौंपा। बाद में गाय के दूध पर पालने लगीं। थोड़ा बड़े हुए तो गाय- भैंस चराने जाने लगे। सबकी सेवा टहल करते। बिना पैसे का सिर्फ खाने पर एक नौकर घर को मिल गया था। अन्य नौकरों को तो खाने के साथ थोड़ा वेतन या अनाज भी देना पड़ता था। पर रमेश बाबा पर कोई खर्चा नहीं था। बड़की आजी होली-दशहरा पर उन्हें जरूर हाथ पर पाँच-दस  रूपये धर देतीं। वे आजी को देवी समान समझते थे। आखिर वही थीं जो उन्हें मरने से बचा ले गई थीं। बहुत लोगों ने उस वक़्त बाबा से कहा था, इसे किसी गरीब परिवार को दे दो , कुछ खर्चा दे देना, वही इसे पाल देंगे। आखिर तुम कहाँ रखोगे? पर बाबा राजी न हुए। पर  बेटों की शादी के बाद जब पतोहें आईं तो वे भी वैसे  ही घरों से आईं थीं, जहां उनके बाप-चाचों के जनमाए एकाध ऐसे बच्चे गाँव में पाये ही जाते थे। ऐसे बच्चों से उन्हें कोई मोह नहीं था। उन्हें लगा कि ये यहाँ रहते रहे तो बखरेदार हो जाएंगे। उनको लेकर घर में झगड़े होने लगे। आजी के मलिकावन में घर में जो भी बढ़िया व्यंजन बनता, उसमें से उन्हें थोड़ा-बहुत मिल भी जाता। होली पर सस्ता ही सही पर एक जोड़ी नए कपड़े सिलवाये जाते। ताकि शादी-ब्याह, नाते-रिश्तेदारी में कहीं किसी काम से भेजना हो तो पहन सकें।  सबके उतारे पुराने-धुराने घिसे हुए कपड़े तो  वे पहनते ही थे। अब उनके खाने-पीने पर भी व्यवधान होने लगा। सूखी भात-रोटी धर दी जाती। मट्ठा तक नहीं। उनके काम में मीन-मेख निकाले जाने लगे। रामवचन  बाबा के जीवन भर वे वहाँ किसी तरह रहे। बाद में बड़की आजी को भी लकवा मार गया और वे बिस्तर पर पड़ गईं । रमेश काका का जीना और बदतर होता गया। एक बार बड़की और मँझली बहू किसी शादी में हवेली से बाहर गईं तो नवधनिक घर की बेटी, छोटी बहू ने उन्हें तीन दिनों तक भूखा रखा। आखिर वे क्या करते। बड़की आजी के कोठरी में जाकर उनके पैर छुवे और घर से निकल गए।

उनकी आँखों में आँसू थे। बड़की आजी का कमरा गू- मूत से गंधा रहा था। अब सफ़ाईवाला कल सुबह आएगा। तब तक ये ऐसी ही पड़े रहेंगी। बहू इसी गंदगी में किसी दाई के हाथों आजी का खाना भिजवा देगी। फिर वो खाएं या न खाएं। रमेश काका ने आजी के बढ़िया दिन देखे हैं। जेवरों से लदी नाटे कद की सुंदर आजी, खूब गोरी थीं। कोठी के कोठी अनाज भरे रहते । दाइयाँ मुस्तैद रहतीं। घर के अंदर उनका राज चलता था। वे खुले हाथ की मानी जाती थीं। बहुत सारे दाई-नौकर थे। खाना बनाने के लिए एक पंडित भी थे। धरम-करम पर भी खर्च करती थीं। वे बहुत बड़े घर की बेटी थीं और उनके नैहर से बहुत दिनों तक कहार नाई सौगात लेकर आते रहते थे। और जब उस घर से संपत्ति बिला गई तो बहुओं ने उन्हीं पर दोष गढ़ा। 

रमेश काका घर से भागे और ट्रेन पकड़ लिया। वे रेनूकूट उतर गए। वहाँ गाँव के कुछ लोग फ़ैक्टरी में काम करते थे। रमेश काका फैक्टरी के बाहर घूमते रहे। कोई परिचित नज़र नहीं आया। एक-दो दिन भटकते रहे । फिर सब्जी बेचना शुरू किया। फिर किसी परिचित से भेंट हुई। उन्होंने उन्हें फ़ैक्टरी में दिहाड़ी मजदूर के रूप में रखवा दिया। धीरे-धीरे वे परमानेंट हो गए। वे स्वभाव के बड़े सरल-सीधे थे। सबकी मदद करते थे। किसी कर्मचारी के मरने पर उसकी बेटी से उनका ब्याह करवा दिया गया। किसी ने न उनकी जात पूछी न उन्होने लड़की की जात पूछी। लड़की की माँ बंगाली बोलती थी। यह दो जरूरतमंद लोगों की शादी थी। शादी के बाद उन्होने अपनी पत्नी को भोजपुरी सीखाने की बहुत कोशिश की। ताकि वे सहज उससे मन की बात अपनी भाखा में बतिया सकें। उन्होने उससे शाखा पोला ( बंगाली महिलाओं द्वारा पहना जानेवाला सुहाग चिन्ह ) भी उतरवा कर सिर्फ काँच की चुड़ियाँ पहनने को कहा। पर उनकी पत्नी ने इसे सुहाग चिन्ह मानकर पहना था, सो उतारने से इंकार कर दिया। उनके  तीन बच्चे हुए दो लड़का और एक लड़की। वे शहर में थे। उनके पास एक नौकरी थी और वे गाँव में अपने छूट आए भाइयों से बेहतर जीवन जी रहे थे। उनके बच्चे निजी स्कूल में पढ़ रहे थे। वे गाँव से लौटते हर आदमी से खूब विस्तार से घर की बात जानने की कोशिश करते। बहुतों ने उनको भड़काया कि उन्हें अपना हिस्सा लेना चाहिए, आखिर वे उस घर के लड़के हैं। वे सीधे न दें तो कोर्ट में केस दायर कर दें। गाँव  में अब नई बहार थी। छोटी जाति के लोग बड़ी जातियों से डरते नहीं थे । बल्कि कइयों कि आर्थिक स्थिति तो ऊंची जाति के लोगों से अच्छी हो गई थी। जमींदारों के वंशज अपनी लड़कियों की शादी-ब्याह बस खेत बेचकर ही कर रहे थे। उसे नीची जाति के लोग खरीद रहे थे। आय का कोई अन्य साधन नहीं रह गया था। ऊंची जातियों में जिनके पास पैसा था, वे शहर की तरफ जाकर बस रहे थे। गाँव में या तो बड़े-बुजुर्ग या फिर जिसकी कहीं कोई व्यवस्था नहीं थी, वही रह रहे थे। 

मँझले की हालत सबसे खराब थी। एक बार वे रेनूकूट इलाज के लिए आए तो रमेश काका को खोजकर मिले। गाँव के लोगों से उन्हें रमेश काका के अच्छी आर्थिक स्थिति का पता चल चुका था। रमेश काका को लगा कि देवता घर आए। उन्होंने उनका बहुत स्वागत किया। डॉक्टर के पास ले गए, इलाज कराया। फल-फूल, दवा-दारू सब अपने पैसे से किया। लौटते समय टिकट कटवाकर ट्रेन में बैठा आए। स्टेशन पर दोनों की आँखों में आंसू थे। मँझले ने कहा कि घर क्यों नहीं आते। आओ। बाल- बच्चों को भी लाना। रमेश काका को लगा कि उम्र में भले वे बड़े हों पर मँझले के पैर छू लें इस वक़्त। मँझले ने कहा कि घर में तीनों भाइयों का चूल्हा अलग- अलग हो गया है । किसी को आपत्ति हो तो हो, वे उन्हें अपने घर बुला रहे हैं। 

मँझले की बड़ी और दूसरी बेटी का एक साथ एक ही मंडप में ब्याह हो रहा था। बड़ी मंदबुद्धि है, बहन के साथ एक ही घर में रहेगी तो संभल जाएगी। ये उनकी सोच थी। 

शादी में बुलावा आया। रमेश काका की खुशी का ठिकाना न रहा। आखिर जो हो, खून का संबंध है । उन्होने जी भर ख़रीदारी की। दोनों दामाद को देने के लिए सोने की  दो अंगूठियाँ, लड़कियों के लिए महंगी साड़ियाँ, वैसी ही मँझले की बीवी के लिए भी बढ़िया साड़ी। मँझले के लिए कपड़ा और 5000 रुपये नकद भी रख लिया। कहीं इज्जत की बात आ पड़ी और संभालना पड़ा तो वे पीछे थोड़े हटेंगे। आखिर घर की लड़की की शादी है। विवाह में उन्होंने खूब काम किया। दौड़-दौड़ कर सुबह से रात तक भागते रहते। उनका बेटा भी लगा रहता। अब हर बार शादी-ब्याह, श्राद्ध, काज-परोजन  में उन्हें बुलाया जाने लगा। आखिर वे काम के आदमी थे। वे जब गाँव के नजदीक रेलवे स्टेशन पर उतरते तो गाँव के भतीजे महिंद्रा जीप लेकर खड़े रहते। उनके लाये माल-असबाब को तुरंत लाद लिया जाता। लौटते हुए उन्हें कभी कोई छोड़ने नहीं आता। उनकी पत्नी आशा करती कि वे इतनी चीजें  लाये हैं तो जाते वक़्त उन्हें भी थोड़ा अनाज या कुछ सौगात मिलेगा। आखिर रेनूकूट जाकर वे क्या कहेंगे, वहाँ तो लोग यही जानते हैं कि वे अपने घर गए हैं। वे काफी  दूर तक पैदल, फिर किसी साधन से स्टेशन पहुँचते। पत्नी-बेटी को बहुत कष्ट होता। पत्नी हर बार सोचती कि अगली बार बिलकुल नहीं आएँगी पर रमेश बाबा की जिद के आगे उनको झुकना पड़ता। उनकी खुशी के आगे वे हार जाती। रमेश काका भाग्यशाली निकले, उनके बेटे की नौकरी भी उसी फ़ैक्टरी में लग गई। 

रमेश बाबा रिटायरमेंट के बाद गाँव में बसना चाहते थे। वे जानते थे कि खानदानी घर में तो कोई उन्हें हिस्सा देगा नहीं। उनके मन में इच्छा थी कि भतीजे लोग उन्हें गाँव में कहीं भी दो कट्ठा ज़मीन उन्हें दे दें ताकि वे घर बना सकें। पत्नी-बेटे ने कई बार कहा कि वे रेनूकूट में जमीन लें लें पर वे नहीं माने। वे हर काज-परोजन में आते-जाते रहे। अपनी हैसियत से ज्यादा पैसा खर्च करते रहे। मँझले की सभी बेटियों में उन्होने बहुत पैसे खर्च किया। मँझले कहते नहीं थकते कि रमेश काका से ज्यादा कोई अपना नहीं। दुआर पर जहां सब मर्द बैठते, वहाँ रमेश काका थोड़ी दूर ही बैठते। उनकी पत्नी को कभी किसी से हँसते-बोलते नहीं देखा। पर वे वहाँ आती तो कोई काम नहीं करतीं, चुपचाप बैठी देखती रहतीं। यह उनका अपने किस्म का एक शांत प्रतिरोध था। बाद में बेटे ने भी आना छोड़ दिया था। 

रमेश काका ने अपने लड़की की शादी अपने साथ काम करनेवाले एक साथी के बेटे से कर दी थी । वह अपने घर सुखी थी। उसकी शादी में गाँव से लोग गए थे पर कोई देन-लेन नहीं। रमेश काका उनके आने भर से खुश हो गए थे। उनको आशा थी कि दामाद के हाथ तो जरूर वे कुछ धरेंगे परंतु किसी ने कुछ नहीं दिया। काकी रमेश काका को कई बार समझा चुकी थीं कि ये आपके कभी अपने न होंगे। पर रमेश काका का कहना था कि वे जीते जी यहाँ आना न छोड़ेंगे। एक बार रमेश काका बहुत बीमार पड़े और रेनूकूट अस्पताल में भर्ती रहे। वे घर के लोगों की राह देखते रहे कि कोई जरूर उन्हें देखने आएगा। बहुत दिन बाद मंझले काका उन्हें देखने जरूर गये पर आने के वक़्त कहा कि आते वक़्त रास्ते में पाकेटमारी हो गयी, लौटने का खर्चा चाहिए और भी कई मांगें थीं, जो पूरी की गईं। उनके बहुत पुराने बवासीर का इलाज भी करवाया गया। 

बड़की आजी की जब मृत्यु हुई तो प्रथा के अनुसार बहुत धूम-धाम से श्राद्ध करना था। बीमारी में भले ही खर्च न किए जाएँ, भोज में कहीं से भी प्रबंध कर खर्च किया जाना था। पैसे तीनों भाइयों में किसी के पास नहीं थे। आखिर दो बीघे खेत बेचने का फैसला हुआ। तब रमेश काका ने आगे बढ़कर पैसों का इंतजाम किया, "रहन दो भैया, खेत पहले ही कम हो गए हैं । फिर दुनिया हँसेगी। खेत बिक गए तो बच्चे खाएँगे क्या?"  

अपनी चौथी बेटी की शादी में रमेश काका से मंझले ने 50,000 रुपया कर्ज के नाम पर लिया। वे कभी लौटाए नहीं गए। अब रमेश काका रिटायर हो गए थे और चाहते थे की मंझले पैसा भले ही न लौटाएँ पर दो कट्ठा जमीन घर बनाने के लिए अपने हिस्से से दे दें। गाँव के रामा कहार ने कहा कि गाँव में दो कट्ठे जमीन की कीमत 20,000 से ज्यादा नहीं है। वे अपना पैसा मांग लें और कहीं दूसरी जगह जमीन वे दिलवा देंगे। पर रमेश काका को आशा थी कि भैया उन्हें मानते हैं और वे जरूर जमीन देंगे। कहीं और जमीन खरीदने से भैया शायद नाराज़ हो जाएँ कि उनपर विश्वास नहीं रहा।  लोग उन्हें  भड़काते रहते थे, रमेश काका बंटवारा दायर कर दो। तुम तो आधे के हिसदार हो। उनकी तरह के कई लोग अपने हिस्से के लिए मुकदमा लड़ रहे थे। एकाध की जीत भी हो गई थी। पर रमेश काका इसी बात का एहसान मानते रहे कि आजी ने उस दिन उन्हें अपनाकर उनकी जान नहीं बचाई होती तो शायद आज वे इस दुनिया में नहीं होते। उनके बेटों का हिस्सा वे नहीं बाँटेंगे। आखिर वक़्त अपनी जनमभूमि पर गुजारने का मन है , सो जमीन माँग रहे हैं। गुजारे भर का पैसा है उनके पास। फिर जरूरत पड़ी तो बेटा मदद करने को है ही। 

रमेश काका अब बहुत बूढ़े हो गए हैं। घर उनके बेटे ने रेनूकूट में बना लिया है। मँझले काका के दोनों बेटों में एक गाँव में है दूसरा उनकी अमीर बहन के पेट्रोल पंप पर मुलाजिम लगा है। बाकी दोनों भाइयों के बेटों में भी एक बेटा सूरत चला गया है। मँझले  काका दुआर पर बैठकर गाँव के नए चलन व नवधनिकों को गालियाँ देते रहते हैं। उनके छोटे भाई की बूढ़ी होती अनब्याही बेटी कुछ दिनों पहले गाँव में जग (यज्ञ ) कराने आए एक पंडित के साथ भाग गई है। वे लाचार से इधर-उधर घूमते हैं। गाँव से कहीं भाग जाना चाहते हैं। रमेश काका  अब भी गाँव आते हैं –एक आदत की तरह । जितने दिन रहते हैं , खाने का खर्चा देते हैं। उनकी आँखों में अब कोई आशा नहीं बची थी। उन्होंने एक वसीयत लिखी है। उसमें और सारी बातों के अलावा यह भी लिखवाया है – “मेरी अंतिम क्रिया गाँव में ही करना। मैं अपनी जन्मभूमि पर मरना चाहता हूँ, अपने लोगों के बीच।“


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लेखक परिचय 

कलावंती 

जन्म - 12 अक्तूबर 

मुख्य  कृतियाँ 

नया ज्ञानोदय, इंडिया टूडे ,वागर्थ, पाखी, मंतव्य, आजकल, जनसत्ता, प्रभात खबर, आज, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, जानकीपुल ब्लॉग, हिन्दी समय, बिंदिया सहित अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन, आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से भी गत 35 वर्षों से रचनाओं का प्रसारण, प्रभात खबर में वर्षों तक स्तम्भ लेखन, आकाशवाणी रांची के लिए (स्वयंसिद्धा) सीरियल का निर्माण। कविता संग्रह " चालीस पार की औरत ", कई साझा संग्रहों में रचनाएँ प्रकाशित ।

सम्मान  - प्रभात खबर द्वारा सिटिज़न जर्नलिस्ट अवार्ड, कई समारोहों में पुरस्कृत, सम्मानित  ।

टिप्पणियाँ

  1. मार्मिक संस्मरण, अक्सर ऐसा ही होता आया है साफ दिल के इंसान का Emotionally and financially शोषण होता है. आपने बहुत अच्छा लिखा है.

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  2. बहुत मार्मिक संस्मरण है । कहते हैं कि गांव के लोग भोला नहीं भाले होते हैं। नीयत अच्छी होती और भाइयों के मन में कपट न होता तो कितनी सुख समृद्धि होती। अपने गांव की ऐसी दुर्दशा का सजीव चित्रण लिखा है।

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  3. अपनी जड़ों की तलाश में भटकते और आर्थिक तथा भावनात्मक दोहन का शिकार होते व्यक्ति के बारे में मार्मिक संस्मरण

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  4. बेहद मार्मिक चित्रण किया.आंसू निकल आये.

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