यहाँ मैं अपनी ओर से कुछ लिखने से पूर्व श्रीमद् वाल्मिकी रामायण का एक अंश हूबहू उतार रहा हूँ। हूबहू इसलिए कि आप स्वयं ही इस पर विचार कर सकें, बग़ैर किसी चश्मे के। हाँ, जीवन के तमाम अध्यायों की भाँति इस अध्याय का भी समापन हमारे-आपके शब्दों में ही होना है।
‘‘सौम्य! तुम इन महाराज विभीषण से आज्ञा लेकर लंका नगरी में प्रवेश करके मिथिलेश कुमारी सीता से उनका कुशल-समाचार पूछो। तुम वैदेही को यह प्रिय समाचार सुना दो कि रावण युद्ध में मारा गया। तत्पश्चात उनका सन्देश लेकर लौट आओ।’’
‘‘विदेहनन्दिनी! श्रीरामचन्द्र जी लक्ष्मण और सुग्रीव के साथ सकुशल हैं। अपने शत्रु का वध करके सफल मनोरथ हुए उन्होंने आपकी कुशल पूछी है।श्रीराम ने आपको यह संदेश दिया है : देवी! मैंने तुम्हारे उद्धार के लिए जो प्रतिज्ञा की थी, उसके लिए निद्रा त्याग कर अथक प्रयत्न किया और समुद्र में पुल बाँधकर रावण-वध के द्वारा उस प्रतिज्ञा को पूर्ण किया।’’
‘‘देवी! आप क्या सोच रही हैं? मुझसे बोलती क्यों नहीं?’’
‘‘अपने स्वामी की विजय से संबंध रखने वाला यह प्रिय संवाद सुनकर मैं आनंदविभोर हो गई थी; इसलिए कुछ देर मेरे मुँह से बात नहीं निकल सकी। वानर वीर! ऐसा प्रिय समाचार सुनाने के लिए मैं तुम्हें कुछ पुरस्कार देना चाहती हूँ, किन्तु बहुत सोचने पर भी मुझे इसके योग्य कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। सोना, चांदी, नाना प्रकार के रत्न अथवा तीनों लोकों का राज्य भी इस प्रिय समाचार की बराबरी नहीं कर सकता।’’
‘‘सौम्ये! आपका यह वचन सारगर्भित और स्नेहयुक्त है; अत: भाँति-भाँति की रत्नराशि और देवताओं के राज्य से भी बढ़कर है।’’
‘‘वीरवर! ऐसा वचन केवल तुम्हीं बोल सकते हो। तुम वायुदेव के प्रशंसनीय पुत्र और परम धर्मात्मा हो। तुममें अनेक गुण हैं, इसमें संशय नहीं है।’’
‘‘देवी! यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं इन सभी राक्षसियों को जो पहले आपको बहुत डराती-धमकाती रही हैं, मार डालना चाहता हूँ।’’
‘‘मुझे अपने पूर्वकर्मजनित दशा के योग से यह सारा दु:ख निश्चित रूप से भोगना ही था, इसलिए रावण की दासियों का यदि कुछ अपराध हो भी, तो उसे मैं क्षमा करती हूँ; क्योंकि इनके प्रति दया के उद्रेक से मैं दुबली हो रही हूँ। इस विषय में मुझे एक पुराना धर्मसम्मत श्लोक याद आ रहा है, सुनो! श्रेष्ठ व्यक्ति दूसरे की बुराई करने वाले पापियों के पापकर्म को नहीं अपनाते, बदले में उनके साथ स्वयं भी पापपूर्ण व्यवहार नहीं करना चाहते। अत: अपनी प्रतिज्ञा एवं सदाचार की रक्षा ही करनी चाहिए; क्योंकि साधु व्यक्ति अपने उत्तम चरित्र से ही विभूषित होते हैं। सदाचार ही उनका आभूषण होता है।’’
‘‘देवी! जैसे शची देवराज इन्द्र का दर्शन करती हैं, उसी प्रकार आप भी पूर्णचन्द्र के समान मनोहर मुख वाले उन श्रीराम और लक्ष्मण को आज देखेंगी, जिनके मित्र विद्यमान हैं और शत्रु मारे जा चुके हैं।’’
‘‘तुम विदेहनन्दिनी सीता को मस्तक से स्नान कराकर दिव्य अंगराग तथा दिव्य आभूषणों से विभूषित करके मेरे पास ले आओ।’’
‘‘विदेहराजकुमारी! आप स्नान करके दिव्य अंगराग तथा दिव्य वस्त्राभूषणों से भूषित होकर सवारी पर बैठिए। आपका कल्याण हो; आपके स्वामी आपको देखना चाहते हैं।’’
‘‘राक्षसराज! मैं बिना स्नान किए ही अभी पतिदेव का दर्शन करना चाहती हूँ।’’
‘‘देवी! आपके पतिदेव ने जैसी आज्ञा दी है, आपको वैसा ही करना चाहिए।’’
‘‘सदा मेरी विजय के लिए तत्पर रहने वाले सौम्य राक्षसराज! तुम विदेहकुमारी से कहो, वह शीघ्र मेरे पास आये।’’
‘‘विपत्तिकाल में, शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसरों पर, युद्ध में, स्वयंवर में, यज्ञ में अथवा विवाह में स्त्री का दिखाई देना दोष की बात नहीं है। यह सीता इस समय विपत्ति में है। मानसिक कष्ट से भी युक्त है और विशेषत: मेरे पास है; इसलिए इसका परदे के बिना सबके सामने आना दोष की बात नहीं है।’’
‘‘भद्रे! समरांगण में शत्रु को पराजित करके मैंने तुम्हें उसके चंगुल से छुड़ा लिया। पुरुषार्थ के द्वारा जो कुछ किया जा सकता था, वह सब मैंने किया।तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हें मालूम होना चाहिए कि मैंने जो यह युद्ध का परिश्रम किया है तथा इन मित्रों के पराक्रम से इसमें जो विजय प्राप्त की है, वह सब तुम्हें पाने के लिए नहीं किया गया है।सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के लिए ही मैंने यह सब किया है।तुम्हारे चरित्र में सन्देह का अवसर उपस्थित है, फिर भी तुम मेरे सामने खड़ी हो। जैसे आँख के रोगी को दीपक की ज्योति नहीं सुहाती, उसी प्रकार आज तुम मुझे अत्यंत अप्रिय जान पड़ती हो।कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही हुई स्त्री को केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहकर सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा?रावण तुम्हें अपनी गोद में उठाकर ले गया और तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल चुका है, ऐसी दशा में अपने कुल को महान बताता हुआ मैं फिर से तुम्हें कैसे ग्रहण कर सकता हूँ?अत: जिस उद्देश्य से मैंने तुम्हें जीता था, वह सिद्ध हो गया- मेरे कुल के कलंक का मार्जन हो गया। अब मेरी तुम्हारे प्रति ममता या आसक्ति नहीं है, अत: तुम जहाँ जाना चाहो, जा सकती हो। अब यदि तुम चाहो, तो लक्ष्मण अथवा भरत के संरक्षण में तुम्हारे सुखपूर्वक निवास की व्यवस्था की जा सकती है।’’
‘यह मिथिलेशनन्दिनी सर्वथा निष्पाप है। आप इसे सादर स्वीकार करें। मैं आपको आज्ञा देता हूँ, आप इससे कभी कोई कठोर बात न कहें।’’
‘‘... एक बात खटकती है। वह युद्ध में रावण को मारकर सीता को अपने घर में ले आये और सीता के चरित्र को लेकर उनके मन में कोई रोष अथवा अमर्ष नहीं हुआ। उनके हृदय में सीता-संभोगजनित सुख कैसा लगता होगा? पहले रावण ने बलपूर्वक सीता को गोद में उठाकर उनका अपहरण किया था, फिर वह उन्हें लंका में भी ले गया और वहाँ उसने अन्त:पुर के क्रीड़ा-कानन अशोकवाटिका में रखा। इस प्रकार राक्षस के वश में होकर वह बहुत दिनों तक रहीं, तो भी श्रीराम उनसे घृणा क्यों नहीं करते? अब हम लोगों को भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेंगी; क्योंकि राजा जैसा करता है, प्रजा भी उसी का अनुसरण करने लगती है।’’
‘‘यदि सीता का चरित्र शुद्ध है और यदि उनमें किसी प्रकार का पाप नहीं है, तो वह आप महामुनि की अनुमति से यहाँ आकर जनसमुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें।’’
‘‘मैंने कई हज़ार वर्षों तक भारी तपस्या की है। यदि मिथिलेशकुमारी सीता में कोई दोष हो, तो मुझे उस तपस्या का फल न मिले।’’
‘‘जनसमुदाय में शुद्ध प्रमाणित होने पर ही मिथिलेशकुमारी से प्रेम हो सकता है।’’
‘‘...मेरी कही बात यदि सत्य है, तो भगवती पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें।’’
‘‘शुद्धता प्रमाणित करने की शर्त पर टिके प्रेम से बेहतर है, इस रिश्ते से मुक्त हो जाना।’’
संजय चौबे की प्रमुख कृतियाँ हैं : ‘भीड़-भारत’ (बदलते भारत का आकलन) ‘9 नवंबर’ और ‘बेतरतीब पन्ने’ (उपन्यास) के अतिरिक्त स्त्री जीवन की समस्याओं पर केंद्रित ‘वह नारी है...’ और कविता संकलन ‘अवसान निकट है..’।
ईमेल : sanjtika74@gmail.com
बहुत ही मार्मिक चित्रण एवं जनसमुदाय के सम्मुख राजा का चरित्र, सीता का विशुद्ध प्रेम और अपने चरित्र की रक्षा हेतु लिया निर्णय एवं एक पति की अंतर्वेदना के स्पष्ट दर्शन इस कथा में होते हैं । लेखक को हार्दिक बधाई एवं शेयर करने के लिए आपका आभार ।
जवाब देंहटाएंयह मर्मस्पर्शी प्रसंग है।आप उल्लेखनीय रचनाएं सामने ला रहे हैं। बहुत बधाई!
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