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लोकतंत्र पर हावी होता माफिया-तंत्र


डॉ. शंभु गुप्त 

अपराध एक आत्मकेंद्रित और परिणामत: समाज-विरोधी मनोवृत्ति है। समाज या समूह कभी अपराध नहीं करते, अपराध हमेशा एक व्यक्ति-इकाई की ही करतूत होता है। अपराध सबसे पहले एक व्यक्ति-इकाई के अंतर्मन में ही पैदा होता है; अपनी इस कुत्सा को क्रियान्वित करने के लिए वह फिर एक समूह या ग्रुप या प्रचलित शब्दों में जिसे ‘गिरोह’ कहते हैं, उसका निर्माण करता है। यदि युद्ध को एक अपराध माना जाए, जो कि वस्तुत: वह है भी; और इस संदर्भ में हिन्दी के कवि रामधारीसिंह दिनकर का हवाला दिया जाए, तो यह बात बख़ूबी प्रमाणित हो जाती है कि युद्ध का कीड़ा एक व्यक्ति-इकाई के मन में ही सबसे पहले कुलबुलाता है। रामधारीसिंह दिनकर अपने प्रबंध-काव्य ‘कुरुक्षेत्र’ के पहले ही सर्ग में लिखते हैं-
चाहता लड़ना नहीं समुदाय है,
फैलती लपटें विषैली व्यक्तियों की साँस से।
(राजपाल एंड संस प्रकाशन, नयी दिल्ली; संस्करण : 1980, पृ. 10)। 
इस प्रबंध-काव्य में कवि दिनकर स्पष्टत: बताते हैं कि युद्ध का कारण स्वार्थ, अनीति-पद्धति पर आधारित सत्ता की भूख तथा सत्ता का अन्याय, अविचारपूर्ण असत्य, पाशविक आचरण इत्यादि ही हैं। जब ये स्थितियाँ असह्य हो जाती हैं और इनसे मुक्ति का कोई और रास्ता नहीं रह जाता तो युद्ध एक अनिवार्यता बन जाता है। अधिसंख्य  जन-समुदाय युद्ध नहीं चाहता; युद्ध उस पर थोपा जाता है। सत्ताएँ ऐसा करती हैं। किंतु उसकी सहन-शक्ति की भी आख़िर एक सीमा तो होती ही है। यह सीमा जब पूरी हो जाती है तो वह भी युद्धोन्मुखता की मानसिकता में आने लगता है। इस तरह युद्ध की स्थितियाँ बनती हैं। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि युद्ध होता नहीं, बल्कि थोपा जाता है। जो लोग इसे थोपते हैं, दरअसल वही असल अपराधी हैं।
इस प्रकार स्पष्ट होता है कि स्वार्थ, अनीति, असत्य एवं पाशविक आचरण अपराध के मूल में होता है। यहाँ यह पुन: स्मरणीय है कि स्वार्थ, अनीति, असत्य एवं पाशविक आचरण व्यक्तिगत या कि व्यक्तिवादी ही प्रवृत्तियाँ हैं। बृहत्तर जन-समूह सदैव इन्हें  संदेह की दृष्टि से देखता है। बृहत्तर जन-समुदाय यानी कि समाज इन्हें कभी मान्यता प्रदान नहीं करता। समाज प्राय: उन्हीं प्रवृत्तियों को स्वीकृति एवं मान्यता प्रदान करता है, जो व्यापक मानवीय हितों के पक्ष में होती हैं। परस्पर प्रेम, सह-अस्तित्व‍, न्या‍य, समानता, सत्य एवं एतदनुरूप संतुलित मानवीय आचरण; ये प्रवृत्तियाँ न केवल किसी भी मानवीय समाज के सुसभ्य या सुसंस्कृत होने की सूचक हैं, बल्कि उसके निरंतर आगे बढ़ने, उन्नति करने तथा गतिशील रहने की गारंटी भी देती हैं। ये प्रवृत्तियाँ मनुष्य ने अपने लंबे संघर्ष, जीवनानुभव एवं जीवनेच्छा से अर्जित एवं निरंतर पुष्ट की हैं। दरअसल यही वे मानवीय मूल्य हैं, जिनके चलते मनुष्य-जाति अपने अस्तित्व पर कायम है। जिस दिन ये मूल्य न रहेंगे, मनुष्य का अस्तित्व भी इस पृथ्वी  पर न रहेगा। जब-जब भी ये मूल्य संकटग्रस्त होते हैं या इन पर संक्रमण की धूल चढ़ती है; मनुष्य-समाज का ढाँचा डगमगाने लगता है। यह ढाँचा डगमगाए नहीं; यह सुरक्षित और सुदृढ़ रहे; इसके लिए ज़रूरी है कि उक्त मानवीय मूल्य निरंतर विद्यमान रहें; सार्वजनिक तौर पर निर्भीक रूप से इनका निर्वाह किया जाता रहे; ये निरंतर प्रासंगिक रहें और पुष्ट  से पुष्टतर होते चलें। अस्तु,  अपराध चूँकि एक व्यक्तिवादी क्रिया है, अत: उक्त सार्वजनिक मानवीय मूल्यों का हनन इसकी विहित प्रक्रिया में स्वभावत: अंतर्निहित है। वह अपराध चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य या श्रेणी का हो! सत्ता की राजनीति से लेकर परिवार के रक्त-संबंधों तक अपराध की प्रकृति तथा प्रक्रिया लगभग एक-सी है। अपराध से लाभ- (यदि इसे लाभ कहा जाए तो! अन्यथा वास्तव में तो यह एक व्यक्ति का अध:पतन ही है) केवल एक व्यक्ति को या उससे जुड़े कुछ चुने हुए व्यक्तियों को ही होता है; जबकि हानि बाकी के पूरे समाज को होती है। यह हानि मूल्यगत तो है ही; किंतु बाद में धीरे-धीरे सामाजिक समूहों के अपने राजनीतिक एवं सामाजिकार्थिक हित भी प्रत्यक्षत: ठोस रूप में बाधित होने लगते हैं। सामाजिक समूहों के राजनीतिक एवं सामाजिक हितों पर होने या किया जाने वाला यह कुठाराघात सारी जनतांत्रिक एवं राष्ट्रवादी गतिविधियों और कार्य-योजनाओं के अधिकांशत: जन-विमुख या कि जन-विरोधी और एक वर्ग-विशेष के समर्थक और हितैषी होते चलने की अभिक्रिया के रूप में सामने आता है। देश की अधिकांश जनतांत्रिक और राष्ट्रीय गतिविधियाँ और योजनाएँ जब एक वर्ग-विशेष के हित-साधन में लगी होंगी या यों कहें कि एक वर्ग-विशेष जब इन गतिविधियों और योजनाओं को येन-केन-प्रकारेण अपने निहित हित में इस्तेमाल और उपयोग में लाएगा, तो तय है कि बृहत्तर सामान्य जन अधिकांशत: इनसे महरूम रह जाएगा। कोई स्वींकार करे या न करे; जो लोग इस समय सत्ता में या सत्ता की दौड़ में हैं, वे भी मानें या न मानें; वर्तमान सत्ता या व्यवस्था और उसकी गतिविधियाँ और योजनाएँ अधिकांशत: बृहत्तर सामान्य जन के हित-साधन से पराङ्मुख हैं; यही आज का सबसे बड़ा सत्य  है। यही आज का सबसे बड़ा सत्य क्यों है और कैसे है; दरअसल यही पहचानना इस प्रसंग का लक्ष्य है। 
आज हर तरफ यह कहा जा रहा है कि आज जीवन के प्राय: हर परिक्षेत्र में अपराध का बोलबाला है। सत्ता की राजनीति से लेकर पारिवारिक रिश्तों तक हर जगह हिंसा और आतंक की स्थितियाँ हैं। हिंसा और आतंक तो काफी लंबे समय से हमारे यहाँ था; जैसे-जैसे जनतंत्र और राजनीतिक सत्ता का विकास और विस्तार हमारे यहाँ हुआ; हिंसा और आतंक भी वैसे-वैसे अपना विकास और विस्तार करते रहे हैं। एक तरह से समानांतर ही; ये दोनों चीजें चली हैं। इस बात को समझने के लिए हम अपनी मौज़ूदा अर्थ-व्यवस्था के स्वरूप का उदाहरण लें। एक समय था, जब देश की अधिकांश कार्यशील पूँजी धरातल पर थी। ब्लैक-मनी या अंडर-वर्ल्ड की पूँजी या तो बहुत कम थी या उसे कोई महत्व प्राप्त न था। उसे सभी हेय दृष्टि से देखते थे। बेईमानी या कर की चोरी करनेवाला अलग-थलग पड़ा रहता था और सब उससे बचकर चलते थे। तब सत्ता की राजनीति इतनी विकृत और मूल्यहीन नहीं हुई थी। राजनीति तब देश-सेवा और लोक-हित का पर्याय थी। सामाजिक सक्रियता वाले लोगों में जब व्यक्तिवादिता लगभग नगण्य थी। लोग लगभग नामालूम और नाचाह तरीक़े से अपना काम करते चले जाते थे। यह आज़ादी की लड़ाई के दौरान तथा स्वतंत्रता-प्राप्ति के कुछ समय बाद तक की बात है। उस समय सत्ता की राजनीति से लेकर परिवार के रिश्तों तक प्राय: हर क्षेत्र में उक्त श्रेष्ठ  मानवीय मूल्यों के निर्वहन की गहन और ईमानदार निष्ठा अधिकांशत: दिखाई देती थी। उस समय सत्ता की राजनीति उतनी पेचीदा और सर्वग्रासी नहीं थी। परिदृश्य पर्याप्त स्पष्ट और पारदर्शी था। 
      किंतु यह स्थिति दरअसल बहुत ही कम दिन चली। धीरे-धीरे शीशे पर धूल और मैल चढ़ने लगा। जिन लोगों के हाथों में सत्ता थी या जो सत्ता के गलियारों में थे, उन्होंने एक के बाद एक पैंतरे बदलने शुरू किए। राष्ट्र के पुनर्निर्माण और स्वतंत्रता/लोकतंत्र की रक्षा का कार्य मुख्य था, पर हमारे तथाकथित भाग्य-विधाता इसे भूलने लगे। धीरे-धीरे राष्ट्रीय पुनर्निर्माण, स्वतंत्रता एवं लोकतंत्र की रक्षा अपनी सत्ता की सुरक्षा का पर्याय बनती चली गई। दरअसल यही वह घड़ी थी, जब पुराने विकृत सामंतवाद ने एक नयी अँगड़ाई लेना शुरू की। यों सामंतवाद जनतंत्र का मुखौटा पहने निरंतर सक्रिय था, पर सत्ता का सामंतवादी चरित्र अब धीरे-धीरे जड़ पकड़ने लगा और जैसा कि हम जानते हैं; हिंसा और आतंक, जो कि भारतीय ही नहीं, लगभग दुनिया-भर के सामंतवाद के हमजोली रहे हैं; धीरे-धीरे भारतीय जनतांत्रिक सत्ता के हमराह बनने लगे। और दरअसल यही वह समय है, जब राजनीति में अपराध/अपराधियों का प्रवेश प्रारंभ होता है। शुरू-शुरू में यह गठजोड़ अत्यल्प और आंशिक था, किंतु धीरे-धीरे यह विस्तृत और व्यापक होता चला। सामंतवाद में तो हिंसा और आतंक यानी कि अपराध की सर्वप्रमुख भूमिका समझ में आती है, पर जनतांत्रिक राजनीति में अपराध का बढ़ता हस्तक्षेप एक ऐसी पहेली के रूप में सामने आया, जो जितना समझ में आती है, उतना ही हमें उलझाती जाती है। अपराध/अपराधियों के निरंतर बढ़ते हस्तक्षेप ने राजनीति की दिशा ही बदलना शुरू कर दी। 
  कहा जाता है कि हिंसा और आतंक शासन-संचालन के दो सबसे बड़े सूत्र हैं। लेकिन जनतंत्र में भी जब ये शासन के हिस्से बन जाते हैं तो जनतंत्र की सारी अवधारणा ही धूमिल होने लगती है। जनतंत्र तो जनता द्वारा जनता के लिए जनता पर किया जाने वाला शासन है और हिंसा और आतंक चूँकि जनता की चीजें नहीं हैं, अत: जिस शासन में हिंसा और आतंक का सहारा लिया जाता हो, उक्त परिभाषानुसार, वह कम से कम जनतंत्र तो नहीं ही है! तात्पर्य यह कि हमारे जनतंत्र में जैसे-जैसे हिंसा और आतंक का प्रभुत्व बढ़ने लगा, उसका मौलिक स्फूंर्तिदायक स्वरूप घटने लगा। हालाँकि यह प्रश्न भी अपने-आप में अभी अनेक शंकाओं और संदेहों से भरा मुँह बाए हमारे सामने खड़ा है कि हमारे इस लोकतंत्र का मौलिक स्वरूप क्या था और क्या वस्तुत: वह स्फूर्तिदायक था? क्योांकि जिसे हम ‘आज़ादी’ कहते हैं और जो तथाकथित रूप से 15 अगस्त, 1947 को हमें मिली थी, क्या वस्तुत: वह एक जनतांत्रिक स्वतंत्रता थी या यह मात्र एक दिखावटी विशेषण उसके साथ लगा दिया गया था? इस तथाकथित आज़ादी के आसपास कुछ ऐसी भयावह घटनाएँ घटती हमें दिखाई दीं, जिनके दीर्घकालिक प्रतिफल अब स्पष्टत: हमारे सामने हैं। आज़ादी के कुछ समय बाद कहा जाने लगा कि यह तो मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता थी। आर्थिक एवं सामाजिक स्वतंत्रता तो अभी हमें हासिल करनी है; इत्यादि। 
   किंतु जानने वाले जानते हैं कि आज़ादी इस तरह टुकड़ों में नहीं आती। बीसवीं शताब्दी ने विश्व -स्तर  पर जिस आधुनिक चेतना का विकास मनुष्य-जाति के लिए किया; वह वस्तुत: यही थी कि स्वतंत्रता एक समग्र स्थिति है। राजनीति, अर्थ, संस्कृति, समाज, परिवार इत्यादि समस्त उपागम परस्पर एक-दूसरे से सापेक्ष रूप से अंतर्संबद्ध हैं। ऐसा नहीं होता / हो सकता कि एक जगह आप स्वतंत्र हों या हो जाएं और दूसरी जगह परतंत्र हों या बने रहें। यदि ऐसी स्थिति बनती है या बनी रह जाती है, तो समय धीरे-धीरे उलटे पांव चलने लगता है, पीछे लौटने लगता है। आज अपनी आजादी की स्वर्णजयंती की ओर अग्रसर (अब तो मना भी चुकी) जब हम पीछे मुड़ कर देखते हैं तो पाते हैं कि हम अब तक दरअसल एक मृगतृष्णा में खोए थे। जिसे हम जलाशय समझे हुए थे, वह तो वस्तुत: रेत की सतह पर सूर्य की तेज चमक से पैदा हुआ एक आभा-वृत्त था, जो पानी जैसा नजर आता था। पानी तक पहुंचने के लिए निरंतर हम चलते रहे; पर पानी दरअसल वहाँ कहीं होता तो न मिलता! पानी वस्तुुत: वहाँ था ही नहीं! वहाँ तो सिर्फ रेत का विस्तार था और उस पर चमकती-चिलचिलाती धूप और उसकी तपिश! आज, आजादी के पचास साल पूरा करते-करते एक नागरिक के रूप में अपनी तथाकथित आजादी के प्रति मेरा यह अनुभव, सिर्फ मेरा नहीं, मेरे जैसे लाखों-करोड़ों सामान्य लोगों का भी है। 
आज, जबकि सांस्कृतिक गुलामी के मार्फत एक नए किस्म की साम्राज्यवादी, राजनीतिक एवं सामाजिकार्थिक गुलामी की ओर हमारा यह संप्रभु राष्ट्र धीरे-धीरे स्व‍यं को आगे बढ़ा रहा है तो सोचने को विवश होना पड़ता है कि वे आखिर कौन के कीटाणु थे; जो एक समय लगभग नष्ट हो गए प्रतीत हुए थे और शरीर काफी निरोग और स्वस्थ  हो गया लगता था; पर जिनके अवशेष कुछ बाकी रह गए थे और जिन्होंने प्रजनित होते-होते पुन: अपनी संख्या को दो से चार, चार से आठ, आठ से सोलह, सोलह से बत्तीस, बत्तीस से चौंसठ, चौंसठ से एक सौ अट्ठाईस और इस तरह और आगे बढ़ाना जारी रखा और धीरे-धीरे पूरे रक्त में इस क़दर फैल उठे कि शरीर की सारी नसों को ही घेर लिया! रक्त में रहने वाले लाल कण-जो कि हमारी प्रतिरोध-शक्ति के स्रोत होते हैं- निरंतर कम होते चले गए और अल्पमत में आ गए! शरीर देखने में तो भरा-पूरा और ठीक-ठाक लगे, पर अंदर ही अंदर खोखला होता चला जाए! 
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         हिन्दी के वरिष्ठ लेखक राकेश वत्स की एक कहानी है - ‘आग’ (‘अब’; कहानी अंक, सासाराम, बिहार; जन. ’95; पृ.- 36-39)। इस कहानी में एक पेड़ है, जो निरंतर अंदर से खोखला होता चला गया है। इस पेड़ के अंदर यह खोखल दरअसल इस पेड़ की शुरुआत से ही है, जो पेड़ के बड़ा होने के साथ-साथ विकसित होता चला गया है। यह खोखल "अंदर ही अंदर पेड़ की चोटी तक पहुंच गया था।" (वही; पृ.-37)। इसका प्रमाण यह था कि गिलहरियाँ नीचे से घुसकर बहुत ऊपर तने पर जा निकलती थीं। (वही)। राकेश वत्स की इस कहानी का यह खोखला पेड़ वस्तुत: हमारे इस पचास-साला जनतंत्र का प्रतीक है, जो अंदर ही अंदर खोखला होता गया है। गिलहरी जैसे अवसरवादी, भ्रष्ट और आत्मग्रस्त  लोग नीचे से लेकर ऊपर तक इसमें अंतर्यात्राएं करते रहते हैं और मौज मारते रहते हैं!
इस कहानी में एक महत्वपूर्ण उल्लेखनीय बात यह है कि इस पेड़ का तना चाहे एक खोखल में बदल चुका हो, पर इसकी जड़ें अपनी ज़मीन में टिकी हैं। इस पेड़ में आग लग गई थी, लगभग सारा पेड़ जल चुका था। सिर्फ़ जड़ के पास का थोड़ा-सा हिस्सा बच गया था। कहें कि, आग का कोई असर इस हिस्से पर नहीं हुआ। क्यों नहीं हुआ? दरअसल इसलिए कि यह हिस्सा ठोस था और इसमें आग से लड़ने की, उसे परास्त करने की अंदरूनी अप्रतिहत ताक़त थी। कहानीकार लिखता है - "जमीन में गड़ा हुआ जो गोल आकार दिखाई दे रहा है, वह रोग के कीटाणुओं से बचा जड़ का हिस्साी है, जिसमें रोग से लड़ने की ताकत सबसे ज्यादा होती है।" (वही; पृ.-38)। दरअसल खोखला होकर जल चुके इस पेड़ रूपी जनतंत्र का जड़ वाला बचा हुआ यह हिस्सा इस देश का वह बृहत्तर सामान्य जन-समुदाय है, जो अपनी बद्धमूल जातीय चेतना से, जातीय संस्कारों से, अपनी ज़मीन से अब भी गहरे जुड़ा हुआ है। कहते हैं कि पेड़ में सबसे महत्व की चीज उसकी जड़ होती है। जैसे किसी इमारत में उसकी नींव। यदि सारा पेड़ जल जाए या कट जाए, तो भी जड़ उसकी यदि सलामत है तो उसके पुन: पल्लवित-पुष्पित होने की संभावना बची रहती है। इमारत का ऊपरी हिस्सा यदि ध्वस्त हो जाए पर नींव यदि उसकी सलामत है तो आगे उसके पुनर्निर्माण की गु्ंजाइश बनी रहती है।
         आज यह हमारा महादेश लगभग इसी स्थिति में चल रहा है। इस देश का जनतंत्र अंदर से कितना खोखला हो चुका है; यह हम पिछले कुछ दिनों की घटनाओं का आकलन करके ही देख सकते हैं। इस देश की राजनीति लगभग पूरी तरह छिन्न-भिन्न है। कोई भी राजनीतिक दल इस समय ऐसा नज़र नहीं आता, जो अपने तात्कालिक सत्ता-स्वार्थों से ऊपर उठकर इस देश के विशाल जन-गण के संकटग्रस्त भविष्य  के प्रति चिंतित या सक्रिय हो। उनकी अंदरूनी प्रतिरोध-क्षमता जैसे स्वार्थ और अवसरवाद की तपेदिक की बीमारी ने पूरी तरह हर ली है। वे बिना रीढ़ के किसी पुतले की तरह जिधर की हवा है, उधर ही रुख कर फरफराने लगते हैं। आज राजनीति न केवल एक विकल्पहीनता की स्थिति में पहुँच गई है, बल्कि एक प्रकार से वह जन-विरोधी भी हो गई है।
         निश्चय ही राजनीति को विकल्पहीनता और जन-विरोध की वर्तमान स्थिति में पहुँचाने में अपराध-तंत्र का बहुत बड़ा हाथ है। इसके पीछे काले धन की एक निरंतर चली आती और अब वर्चस्व में पहुँचती समानांतर अर्थ-व्यवस्था का उल्लेख किया गया। इस अर्थ-व्यवस्था से बिल्कुल हाथ से हाथ मिलाकर एक समानांतर शासन/कानून-व्यवस्था भी चली है। यह शासन एवं कानून-व्यवस्था माफिया या अपराध-तंत्र की है। इस शासन एवं कानून-व्यवस्था को काली पूंजी ने पुष्पित-पल्लवित एवं संचालित किया है। यह शासन एवं कानून-व्यंवस्था राज्य की शासन एवं कानून-व्यवस्था से बहुधा बाजी मार ले जाती है। यह धरती के अंदर की दुनिया है, जिसे ‘अंडरवर्ल्ड’ कहते हैं। इस अंडरवर्ल्ड के अपने ही नियम-कायदे हैं। यह दरअसल अपराधियों की दुनिया है, जहाँ बड़ी मछली छोटी को खाकर ही जीवित रह सकती है। बड़ी छोटी को; यह छोटी फिर अपने से छोटी को, यह छोटी भी फिर अपने से छोटी को खाती चलती है। इस तरह एक मगरमच्छ  का अस्तित्व उभरकर सामने आता है, जो सारे संसार को अपने हिसाब से चलाने लगता है। अंडरवर्ल्ड की भाषा में इसे ‘डॉन’ कहा जाता है। कई बार एक शहर में एक से अधिक डॉन होते हैं, जो या तो हिलमिल के चलते हैं या प्रतिस्पर्धा में होते हैं तो यहाँ भी वही छोटी-बड़ी मछली वाला अस्तित्व-सिद्धांत लागू होने लगता है। अंत में एक महामगर रह जाता है। कहना न होगा कि इस महामगर की शक्ति शहर के मेयर या जो भी शहर का सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान राज्याधिकारी है; उससे कहीं ज़्यादा और संक्रामक होती है। कई बार यह भी होता है कि राज्य की शक्ति (पुलिस इत्यादि की हिंसा और आतंक) से बचने के लिए लोग माफिया की शरण में जाते हैं। माफिया जो अब धीरे-धीरे लगभग सर्वशक्तिमान और निरंकुश हो चला है तो यह यकायक नहीं हो गया है। इसमें राज्य की असंगत व्यवस्थाएं तथा अनीति भी बहुत अधिक ज़िम्मेदार है।
         आज जीवन के हर क्षेत्र में माफिया का वर्चस्व धीरे-धीरे बढ़ रहा है, तो इसका सबसे बड़ा कारण दरअसल यह है कि सत्ता से जुड़े, सत्ता में बैठे या सत्ता की मंज़िल के राही लगभग सभी महत्वाकांक्षी लोग सत्ता-प्राप्ति की प्रक्रिया में अपने-अपने क्षेत्र के माफिया से निरंतर संपर्क में रहते हैं। चाहे राजनीति हो, धर्म हो, अर्थ/व्यापार हो, संस्कृति हो, शिक्षा हो या कोई और। आज़ादी के इन उत्तरवर्ती दशकों में एक प्रकार से हमारा यह जनतंत्र धीरे-धीरे माफिया के हाथ में खिसकता गया है। सत्ता के आकांक्षी आत्मग्रस्त हमारे नेता-लोग अपना एक पांव जनता में तो दूसरा पांव माफिया की देहरी के अंदर टिकाए रहते हैं। हमारे ये नेता लोग जनता के सत्व को चूस उसे अन्यथा करते हुए दूसरों के हवाले करते जाते हैं। इस मामले में इन नेताओं का जो चरित्र हमारे सामने उभर कर आता है, वह किसी अनाज-मंडी के कमीशन-एजेंट आढ़तिया के जैसा है। कमीशन एजेंट आढ़तिया कम कीमत पर किसानों से अनाज खरीदता है और उसे साफ करके, अच्छी  पैकिंग इत्यादि करके थोड़े दाम बढ़ाकर बड़े स्टाकिस्ट  को बेच देता है। यह स्टाकिस्ट फिर मन-माफिक कीमत बढ़ाकर उसे बाजार में रिलीज करता है। इस तरह उत्पादक से उपभोक्ता तक पहुँचते-पहुँचते एक रुपये की वस्तु का दाम दो या दो से भी ज्यादा हो जाता है। यह जो एक रुपये की वस्तु पर एक या एक से अधिक का मुनाफा है; यह उत्पादक से उपभोक्ता के बीच फैले राज्य और माफिया के तंत्र में अवसर और व्यक्ति की हैसियत के अनुसार पूरा का पूरा बंट जाता है। 
पूंजीवादी अर्थ-व्यवस्था  और व्यापार-तंत्र व्यावसायिक मुनाफे पर ही चलते हैं, यह ठीक है, पर जब काला-बाजारी और घूसखोरी में व्यापार-माफिया और राज्य-तंत्र का ऊपर से लेकर नीचे तक का सारा अमला एक-दूसरे से बाजी मारने जैसी होड़ करता चल रहा हो; तो इस स्थिति को आप क्याा कहेंगे? सचमुच ही आज यह पहचानना लगातार कठिन होता जा रहा है कि असल अपराधी कौन है? वह राज्य-तंत्र और उसके ऊपर से नीचे तक के नुमाइंदे; जिन पर इस कल्याणकारी राज्य के जनतांत्रिक तरीके से संचालन का दायित्व  है, पर जो पेशेवर माफिया से कंधे से कंधा मिलाकर चलते नजर आते हैं; या फिर वह पेशेवर माफिया या अपराध-तंत्र; जो झुंड के झुंड दीमक की तरह भू-गर्भ से निकलकर निरंतर ऊपर चढ़ता हुआ हमारी इस पूरी जनतंत्र की इमारत की दरो-‍दीवार और यहाँ तक कि छत तक फैलता चला गया है और सारी व्यवस्था को जिसने अंदर ही अंदर चाट लिया है। यदि यह कहा जाए कि राज्य-तंत्र ने इस दीमक की बांबी का काम किया है तो कोई अत्युक्ति संभवत: न होगी। यह सचमुच ही अविश्वसनीय था कि राजनीति इस तरह माफिया को एक अचूक सुरक्षा-तंत्र प्रदान करेगी। कभी यह अविश्वसनीय रहा हो; पर आज यह समय का सबसे बड़ा सच है कि राजनीति माफिया का सबसे बड़ा सुरक्षा-कवच है। जैसे चंबल खादर डाकुओं के लिए सबसे सुरक्षित और संजीवन शरण-स्थली हैं ठीक वैसे ही समकालीन राजनीति माफिया का सबसे सुरक्षित और जीवनदायी अभयारण्य है। यदि यह कहा जाए कि राजनीति और माफिया दोनों एक-दूसरे को आज फीड कर रहे हैं; तो यह भी कोई अत्युक्ति न होगी। दोनों को एक-दूसरे से उत्प्रेरणाएं, अभिशंषाएं और परिपूरकताएं मिल रही हैं। राजनीति और अपराध की इस जुगलबंदी ने दुनिया के इस सबसे बड़े जनतंत्र को हास्यास्पद तो बना ही दिया है; इसका वज़ूद भी ख़तरे में पड़ गया है। 
जहाँ तक इस देश के आम आदमी की बात है; वह बहुत ही भयाक्रांत और असुरक्षित है। राजनीति और अपराध दोनों ने मिलकर उसकी नींद, उसका चैन, उसकी आश्वस्ति को जैसे ग्रहण लगा दिया है। माफिया तो अपने रास्ते  चलता ही है, लेकिन राजनीति को उससे लोगों को सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए थी। यह राज्य का न केवल दायित्व  था, बल्कि उसका कर्तव्य-कर्म भी यही था। किंतु राज्य  अब स्वयं एक माफिया जैसा रूप लेता जा रहा है। राजनीति में छाए वंशवाद, अवसरवाद, शीघ्रतावाद, प्रदर्शनवाद, आत्मवाद, अधिनायकवाद तथा एतज्जन्य स्वार्थ, छल, फरेब, झूठ, मक्कारी, घूसखोरी, मुसाहिबी, आलस्य, मद, गैरज़िम्मे‍दारी आदि-आदि ने लोगों के विश्वास और आत्मविश्वास को जैसे एकदम तोड़कर रख दिया है। जनता बेहाल है तथा उसकी स्थिति अनाथ जैसी है। माफिया उसकी जिंदगी/दिनचर्या में गहरे हस्तक्षेप कर रहा है। इस हस्तक्षेप ने उसकी मूल्य-निष्ठा पर हमला बोला है। इस आक्रमण से उसे बचाने वाला कोई नहीं है। वह जाए तो कहाँ जाए, करे तो क्या करे? माफिया उसे आत्मसमर्पण के लिए मज़बूर कर रहा है! विमल कुमार की एक कविता है- ‘गिरोह’ (सपने में एक औरत से बातचीत; आधार प्रकाशन-पंचकूला, हरियाणा; 1992;पृ.- 123-24)। इस कविता में एक गिरोह है, जो निरंतर हमारे पीछे पड़ा हुआ है। इस गिरोह के अनेकानेक सदस्य हैं, जो एक-एक कर आते हैं और हमें आतंकित करते हैं। 
         एक सदस्य आता है, वह एक रात चुपके से हमारी छत उखाड़कर ले जाता है। दूसरा सदस्य आता है, वह दीवारों को ले जाता है। तीसरा आता है, वह हमारी जेबें लूट ले जाता है। चौथा आता है, वह हममें आपस में फूट डाल जाता है। पाँचवां आता है, वह हत्याएं करता-करवाता है। इसके बाद और सदस्य, हैं, जो शहर-भर में हमारा पीछा करते रहते हैं; आदि-आदि। गिरोह के इन लोगों ने हमारे जीवन, चिंतन, आचार-विचार सबको गहन संदेह, अभाव, असुरक्षा और अनिश्चय की स्थिति में पहुँचा दिया है। इसी संदेह, अभाव, असुरक्षा और अनिश्चय की स्थिति में गिरोह का एक और आदमी रात को हमारे पास आता है। इस आदमी के हाथ में एक सूटकेस है। चुपचाप एक ख़ास लिबास पहने हमारे पीछे-पीछे आता यह आदमी चुपके-से हमारे कान में कहता है, "तुम्हें किसी प्रकार की नहीं होगी तकलीफ/ तुम हमारे गिरोह में शामिल हो जाओ" (पृ.-124)। उल्लेखनीय है कि यह व्यक्ति अंत तक पीछा नहीं छोड़ता! इस कविता में कवि ‘मैं’ की जगह ‘हम’ का इस्तेमाल करता है। यानी कि न केवल वह अकेला; बल्कि हमारा सारा समकालीन समाज इस गिरोह के इस आतंक और आक्रमण के कब्‍ज़े में आ रहा है/आ गया है!! कवि ने ‘गिरोह’ शब्द  का इस्तेमाल किया है। कहना न होगा कि इस गिरोह में केवल माफिया नहीं है, कहीं-न-कहीं राज्य भी शामिल है। राज्य और माफिया ने मिलकर इस गिरोह के विभिन्न सदस्यों  का रूप लिया है। राज्य और माफिया का मिला-जुला यह गिरोह वर्तमान समय का एक भयावह सच है, जिसकी ओर यह कविता सार्थक संकेत करती है। 
जैसा कि मैंने पूर्व में कहा; राजनीति तथा इस देश के अन्य परिक्षेत्रों में माफिया का प्रवेश बहुत पहले ही हो गया था। यह कोई आज की बात नहीं है। आज तो स्थितियाँ पक रही हैं और निर्णायक दौर में पहुँच रही हैं। हाँ, तब और अब में इतना अंतर ज़रूर है कि पहले देसी माफिया का बोलबाला यहाँ था, अब उसमें विदेशी या अंतर्राष्ट्रीय माफिया भी आ मिला है। विदेशियों के आ जाने से इस क्षेत्र में भी वही संकट पैदा हो गया है, जो उदारीकरण और खुली छूट के कारण अन्य  क्षेत्रों में उत्पन्न हुआ है। विदेशी या अंतर्राष्ट्रीय माफिया सबसे पहले ‘स्वदेशी’ माफिया को हज़म करेगा; फिर उसे अपना एजेंट नियुक्ति कर इस देश के कोने-कोने में भेजेगा। अंतर्राष्ट्रीय माफिया इस तरह से माफिया का एक ऐसा प्रबंध-तंत्र बनाएगा कि सब उसकी देहरी पर ढोक देने पहुँचने लगेंगे। यह प्रबंध-तंत्र अंग्रेजी राज में ईस्ट इंडिया कंपनी के उस प्रबंध-तंत्र से काफी मिलता-जुलता होगा, जिसने देसी रियासतों को पहले तो अपने आधिपत्य में लिया और फिर उन्हें  ब्रिटिश साम्राज्य का प्यादा बना दिया। यह प्यादा जब विदेश-यात्रा कर अपने ‘राज्य’ में लौटा तो इसने मनमाने तरीके से प्रजा को मूंडना शुरू किया। अंग्रेजी राज में बृहत्तर जनता इस तरह दुहरे शासन-तंत्र या कि लूट-तंत्र कुल मिलाकर माफिया-तंत्र के तले पूरी एक सदी तक दबती-कुटती-पिसती रही। 
देसी सामंतवाद और विदेशी साम्राज्यवाद दोनों ने मिलकर राज्य के नाम पर जैसे यहाँ एक माफिया-तंत्र चलाया। आज़ादी के आंदोलन के दौरान तथा उसके कुछ समय बाद तक ऐसा लगा था कि यहाँ जनता का स्वराज्य स्थापित हो गया है, लेकिन आजादी के पहले दशक के बीतते-न-बीतते ही लोगों का मोह बुरी तरह टूटना शुरू हुआ कि उसकी प्रक्रिया अब तक चालू है! जनता ने अनेक बार क्रांतिकारी और व्यवस्था-विरोधी राजनीति के मार्फत अपने अंदर की प्रतिरोध-चेतना से इस प्रक्रिया को रोकने तथा परिवर्तन लाने की संभावना पैदा करने की कोशिश की, पर सत्ता की राजनीति और माफिया के गठबंधन ने हमेशा इन कोशिशों को अन्यथा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ हम स्पष्ट  कर दें कि माफिया केवल वह नहीं है, जो हिंसा और आतंक (गुंडई) को अपनी स्वार्थ-पूर्ति का साधन बनाता है। माफिया से कभी हम सिर्फ इतना-सा अर्थ लेते थे। जो गुंडई, चोरी, डकैती, तस्करी, हत्या इत्यादि करता-करवाता था; वही माफिया समझा जाता था। दूसरे शब्दों में इन लोगों को हम असामाजिक तत्व कहकर पुकारते थे। किंतु अन्य शब्दों और संदर्भों की तरह माफिया का भी अर्थ एवं क्षेत्र-विस्तार हुआ है। आज माफिया अहिंसक, सहिष्णु, शांत-शीतल स्वभाव-धारी, कानून को कानून से परास्त करने वाला, धैर्यशाली और दीर्घसूत्री हो गया है! बल्कि यही ज़्यादा हो गया है। 
हिंसा और आतंक अब पुराने हथियार हो गए हैं। यह माफिया का बदला हुआ रूप है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यहाँ सिर्फ रूप बदला है; अंदरूनी चरित्र वही है, बल्कि और ज़्यादा क्रूर हुआ है। ऊपर की उग्रता और आक्रामकता अब अंदर समा गई है और उसके स्थान पर सहिष्णुता और सौम्यता आ गई हैं। आज चेहरे से माफिया को आप नहीं पहचान सकते। उसका चेहरा बहुत ही चिकना और रमणीय हो गया है। वह हमें आज उतना विकृत और घृणास्पद नहीं लगता। एक तरह से वह समाज की मुख्य धारा में आसानी से चलता चला जाता है। पहले माफिया समाज से एक तरह से बहिष्कृत और अलग-थलग था, किंतु अब वह समाज की मुख्य धारा में है। बल्कि सामाजिक या सामूहिक कार्यों में वह बढ़-चढ़कर हिस्सा  लेता है। वह अब असामाजिक तत्व नहीं रह गया है, बल्कि कई जगह समाज का नेतृत्व- ही उसके हाथ में आ गया है। वह जन-हित के कार्यों में अपने पूरे जन एवं धन-बल से हाथ बंटाता दिखाई देता है। वह राजनेताओं को चुनाव के लिए धन देता है,अस्पताल, मंदिर, धर्मशाला बनवाता है, पुरस्कार देता है, अनाथालय, विद्यालय खुलवाता है तथा इन्हें धन देता है; आदि-आदि। वह समाज का अब एक अपरिहार्य और अनुपेक्षणीय अंग बन गया है। वह अब हमें भयभीत करता प्रतीत नहीं होता, बल्कि उससे अब हमें एक आश्वस्ति मिलती है!
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नवें दशक के कवि बद्रीनारायण ने कुछ समय पहले एक कविता लिखी थी, ‘हिंस्र आत्मा‍एं पहचान ली जाती हैं’ (सच सुने कई दिन हुए; राधाकृष्ण प्रकाशन; नयी दिल्ली; 1993; पृ.-21)। इस कविता के अंतिम हिस्से में उन्होंने लिखा-
जहाँ भी जाती हैं हिंस्र आत्माएँ
पहचान ली जाती हैं
पहचान ली जाती हैं तो
खदेड़ दी जाती हैं। 
         लेकिन उनसे कुछ समय के पश्चात् ही उनसे पहले की पीढ़ी के कवि मंगलेश डबराल ने अपनी ‘अत्याचारी के प्रमाण’ शीर्षक कविता (कहानी; नयी दिल्ली; अप्रैल-मई ’94; पृ.-39) में लिखा कि-
अत्याचारी इन दिनों खूब लोकप्रिय है
कई मरे हुए लोग भी उसके घर आते-जाते हैं। 
यह जो अत्याचारी है, उसका बाह्य रूप बहुत ही आकर्षक और आश्वस्तिदायक है। कवि लिखता है-
उसके नाखून या दांत लंबे नहीं हैं
आंखें लाल नहीं रहतीं
बल्कि वह मुस्कराता रहता है
अक्सर अपने घर आमंत्रित करता है
और हमारी ओर अपना मुलायम हाथ बढ़ाता है
उसे घोर आश्चर्य है कि लोग उससे डरते हैं। 
इस अत्याचारी का अंडरवर्ल्ड अब भयावह प्रतीत नहीं होता, बल्कि वहाँ एक तरह की सुरक्षा ही अनुभव होती है-
अत्याचारी के घर पुरानी तलवारें और बंदूकें
सिर्फ सजावट के लिए रखी हुई हैं
उसका तहखाना एक प्यारी सी जगह है
जहाँ श्रेष्ठ कलाकृतियों के आस-पास तैरते
उम्दा संगीत के बीच
जो सुरक्षा महसूस होती है, वह बाहर कहीं नहीं है। 
         यह अंडरवर्ल्ड का ऊपरी बदला हुआ रूप है। इस बदले हुए रूप की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इससे अत्याचारी शक के घेरे से बाहर है और वह निर्दोष प्रमाणित हो रहा है। कवि ने कविता के शुरू में लिखा था-
इन दिनों
अत्याचारी के निर्दोष होने के कई प्रमाण हैं।
दरअसल आज के संश्लिष्ट  समय का सबसे बड़ा संकट ही यह है कि जो ऊपर दिखाई देता है, वह अंदर नहीं होता और जो अंदर है, वह ऊपर प्रत्यक्ष नहीं हो पाता; एक विचित्र घातक संक्रमण सत्य-असत्य, काले-सफेद और मनुष्य और पशु के बीच इस दौर में हुआ है। हिंसक अब हिंसक लगता ही नहीं है। वह चीजों में अब उस तरह प्रवेश करता ही नहीं है, जैसा अब तक करता था। अब वह चीजों में कुछ इस तरह प्रवेश करता है कि चीजें चाहे पूरी तरह मूल्य-हीनता में चली जाएं, पर यह मूल्यहीनता भी हमें काम्य प्रतीत होती है। जब तक यह मूल्यहीनता पकड़ में या पहचान में आती है, तब तक माफिया और ये चीजें दोनों हमारे हाथ से निकल चुकी होती हैं। ये अपना काम पूरा कर अंदर से हमें नेस्तनाबूद कर चुकी होती हैं। जैसे कि मीठा ज़हर होता है। माफिया अब इस रूप में सक्रिय है। हमारा सारा सत्व धीरे-धीरे उसकी नसों में पहुँचता जा रहा है; एक बहुत ही सूक्ष्म और अदृश्य रक्त-प्रत्यारोपण जैसी प्रक्रिया के मार्फत! हिन्दी के शीर्षस्थ प्रगतिशील कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की बहुत प्रसिद्ध कविता ‘अंधेरे में’। यह मुक्तिबोध ही नहीं; यह हिन्दी की भी एक बहु-चर्चित कविता है। जो भी हिन्दी-साहित्य को थोड़ा-बहुत भी जानता है, वह मुक्तिबोध और उनकी इस कविता से अपरिचित नहीं होगा। यह कविता पहले-पहल ‘आशंका के द्वीप अंधेरे में’ शीर्षक से प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में छपी थी। इस कविता में एक प्रोसेशन का कल्प-दृश्य है; लेकिन यह दृश्य इतना यथार्थ और वास्तविक है कि आश्चर्य होता है कि आज़ादी के मात्र दस साल बाद ही देश में सक्रिय माफिया को बड़ी तत्परता और गंभीरता के साथ हिन्दी के कवि ने तत्काल पकड़ा! यह जुलूस बहुत ही भयंकर है। 
शहर की सड़कों पर आधी रात के अंधेरे में सबकी नज़रों से बचकर चुपचाप यह जुलूस चलता है। इस जुलूस में जो लोग चल रहे हैं, वे रात में तो इस जुलूस में चलते हैं, पर दिन में अपने-अपने ठिकानों पर अपना-अपना काम करते रहते हैं। क्या करते हैं ये? कवि लिखता है-
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केंद्रों में घरों में। 
(मुक्तिबोध रचनावली- खंड-2;पेपरबैक; राजकमल, दिल्ली : 1985; पृ.- 330-31)। 
         दिन में षड्यंत्र रचते और रात में उन्हें क्रियान्वित करते ये लोग कोन हैं? कवि लिखता है कि इस जुलूस में लगभग हर तरफ के लोग शामिल हैं। इन लोगों में प्रसिद्ध पत्रकार हैं, शहर के हर क्षेत्र के बड़े, नामी-गिरामी कहे जाने वाले प्राय: सभी लोग हैं, इनमें कई आलोचक, विचारक, कवि, मंत्री, उद्योगपति, विद्वान आदि-आदि सभी लोग हैं। सेना के कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल इत्यादि भी हैं। और सबसे उल्लेखनीय व्यक्ति जो है, वह यह है-
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलवन
(वही, पृ. 330)। 
          यानी कि माफिया केवल वह नहीं जो हत्या, चोरी, डकैती, तस्करी आदि करता है, माफिया वे सभी लोग हैं, जो अपनी-अपनी जगह पर, अपने-अपने कार्य-क्षेत्रों में विशाल जन-गण और राष्ट्र के हितों के खिलाफ षड्यंत्र रचते और उन्हें क्रियान्वित करते रहते हैं। ये सारे षड्यंत्र और इनके सूत्रधार अंतत: एक जगह आकर मिल जाते हैं। इनके लक्ष्य समान हैं। 
इस देश के संसाधनों, संपत्ति, सत्ता, संस्थाओं, भूमि, संस्कृति, ज्ञान-विज्ञान, प्रतिभा और शक्ति को अपने आत्मवादी एकाधिकार में ले लेना और जनता को अपने अधीन और अपना हसबखाह बना देना इनका समेकित लक्ष्य है। शैलियाँ और क्षेत्र चाहे भिन्न हों, पर इनका लक्ष्य यही है और एक है। जुलूस में ये सब एक-साथ हैं, यह इनकी एकता का प्रती‍क है। कहते हैं कि चोर-चोर मौसेरे भाई! इन मौसेरे भाइयों ने मिलकर प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लूट मचाई हुई है। कवि मुक्तिबोध अपनी गहन अंतर्दृष्टि से इनके अंदर के चेहरे को एकदम सामने लाते हैं-
हाय-हाय!!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय,
भीतर का राक्षसी-स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छुपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आए हैं,
यह शोभा-यात्रा है किसी मृत्यु-दल की। 
(वही)।
         ये सब दरअसल अमानवीय या मानव-विरोधी शक्तियाँ हैं। प्रकारांतर से यह अपने-अपने क्षेत्र का माफिया है, जो यहाँ एकजुट है। मुक्तिबोध की यह कविता सन् 1962 की है। 1962 में देश में माफिया की यह स्थिति थी। आज उसके  बाद के वर्षों में यह स्थिति मजबूत से मजबूत हुई है। आज भी हिन्दी -कविता में जब भी आधी रात और अंधेरे पर कोई बात की जाती है, तो माफिया का यह रूप आप से आप उजागर होता चला जाता है। मसलन नवें दशक के महत्त्वपूर्ण कवि कुमार अंबुज की एक कविता - ‘रात आधी है’ को लिया जा सकता है। (किवाड़; आधार प्रकाशन, पंचकूला, 1992; पृ.-73-74)। इस कविता में सामान्य जन की विपन्न स्थितियों और जीवन की अर्द्धरात्रिकालीन सामान्य अभिक्रियाओं के साथ-साथ कवि का ध्यान स्वभावत: माफिया की उन गतिविधियों पर भी गया है, जो वस्तुत: सामान्य  जीवन के अनेक शाश्वत-समकालीन कष्टों के लिए उत्तरदायी हैं। ये सदर्भ ये हैं- 
शेर हैं शिकार पर
जंगल भरा हुआ है डर से
शहर सन्नाटे से
झींगुरों की आवाज़ सबसे तेज़ है
इस समय...इस समय एक आदमी सोच रहा है
विश्व-विजय का स्वप्न
एक वैज्ञानिक बना रहा है
मीठी जहरीली गैस
एक कंप्यूटर-पहरेदार रक्षा कर रहा है
सारे अणु-बमों की
एक क्रांतिकारी छिपा रहा है खुद को
तानाशाह की निगाहों से।
जहाँ तक राजनीति के साथ माफिया या अपराध-तंत्र के गठजोड़ की बात है तो आज स्थिति दरअसल यह है कि बिना माफिया के आज कोई राजनीति कर ही नहीं सकता! अपराध, अनीति, असत्य, अभद्रता, अश्लीलता और अहम्मन्यता के बिना आज राजनीति का कोई प्रसंग पूरा होता ही नहीं है। सत्ता की राजनीति के इस खेल ने हमारी सारी जीवन-चर्या को अंदर से बाहर तक बुरी तरह आक्रांत किया हुआ है। अपराध-तंत्र राजनीति का आज सबसे प्रमुख हिस्सा बन गया है। हर राजनीतिक पार्टी के पास अपना अपराध और माफिया का पूरा का पूरा विकसित तंत्र है, जिसका इस्तेमाल अपनी सत्ता की प्राप्ति और उसकी सलामती में वह आए दिन करती रहती है। राजनीतिक पार्टियों के घोषणा पत्र मात्र एक ढकोसला हैं। जब वह सत्ता में आ जाती हैं तो इन्हें अधिकांशत: भूल जाती हैं और उनके समीकरण पूरी तरह बदल जाते हैं। कभी-कभार ज़रूर किसी बिल्ली के भाग्य से कोई छींका टूट जाता है! लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे के बराबर है। लोकतंत्र के बिगड़ते हुए ढांचे को इन टोटकों से न संभाला जा सकता है, न इनकी अपनी उम्र कोई ज़्यादा होती है। 
लेकिन राजनीति और अपराध के गठबंधन का एक बिल्कुल ही नया रूप इन दिनों विकास की प्रक्रिया में है। राजनीति का अपराधीकरण तो अब तक हमने देखा-भोगा। पर अब अपराध का राजनीतिकरण होने लगा है। अपराध या माफिया से जुड़े लोग अब जनतांत्रिक संसदीय राजनीति में सीधे-सीधे हिस्सेदारी करने लगे हैं। वे अब सत्ता की राजनीति में एक जन-नेता के रूप में उभरकर सामने आ रहे हैं। राजनीतिबाज़ों के हाथों में खेलते-खेलते अब उन्हेें अपनी शक्ति का संभवत: पूरा-पूरा अहसास हो गया है और अब वे उन्हें पीछे धकेल स्वयं राजनीति का खेल खेलने लगे हैं। यह अपराधियों और माफिया का राजनीति की मुख्य-धारा में आ जाना है। अपराधियों का राजनीति की मुख्यधारा में आना और जनता का प्रतिनिधि बनकर संसद या सरकार को चलाना अब कोई आश्चर्य नहीं माना जाता। संसद या विधान-सभाओं के सत्रों में कार्रवाई के दौरान हाथापाई, मार-पीट, गाली-गलौज, एक-दूसरे के कपड़े फाड़ देना जैसी शर्मनाक घटनाएं अब कोई नयी बात नहीं रह गई हैं। अब यह सब सुचिंतित और पूर्व-नियोजित तरीके से होने लगा है। सभ्यता, शालीनता, सहनशीलता, सदाशयता इत्यादि चीजें राजनीति से जैसे रूख़सत कर गई हैं।
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         समकालीन हिन्दी-कहानी से कुछ उदाहरण लेकर बात को साफ़ किया जा सकता है। वहाँ समकालीन राजनीति का यह बेहया चरित्र व्यापक रूप में चित्रित हुआ है। यहाँ तीन-चार कहानियों के उदाहरण से इस तथ्य की पुष्टि आसानी से की जा सकती है। 
         इनमें एक कहानी है- कहानीकार जयप्रकाश की ‘रामदीन का शोक-संदेश’ (‘अब’-20, कहानी अंक; सासाराम-बिहार; जनवरी’95;पृ.- 223-27)। इस कहानी में सांप्रदायिक दंगों के बाद एक मंत्री जी शहर में सांप्रदायिक सौहार्द और सद्भावना कायम करने दंगाग्रस्त इलाके में आते हैं। यहाँ इनकी एक सभा होने वाली है, जिसमें सुरक्षा का बड़ा भारी बंदोबस्त है। इस कहानी में एक और पात्र है- सुलेमान। यह शहर का नंबर वन दादा है। यह जेल में था, पर मंत्रीजी के कहने पर आज ही उसे छोड़ा गया था। इसे मंत्रीजी ने इसलिए छुड़वाया था कि उनकी यह सभा सफल हो सके, उसमें कोई गड़बड़ न होने पाए। यह सुलेमान एक माफिया है। कहानी में इसके विषय में लिखा है - "सुलेमान उनके लिए नोट-वोट की व्यवस्था करता है। उन्हीं की कृपा से कमा-खा रहा है। वैसे कोकीन का धंधा करता है। कमाई का एक हिस्सा मंत्रीजी तक पहुँचा देता है और पुलिस आफिसरों को ठेंगा दिखाता है।" (पृ.- 225)। यही सुलेमान अब अपने स्वतंत्र अस्तित्व  के लिए छटपटा रहा है। वह अब राजनीति की मुख्य-धारा में आना चाहता है। उसे अपनी शक्ति का अब जैसे अहसास हो गया है। अब उसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंद्वी यही मंत्री देवेंद्र ओझा है, जिसके इस्तेमाल में अब तक वह आता रहा था। लिहाजा वह इसी सभा से अपनी स्वतंत्रता का बिगुल फूंक देता है। वह इस तरह कि, मंत्री जी की सभा के ऐन बीचों-बीच; जबकि स्वयं मंत्रीजी भाषण कर रहे थे; वह बम-विस्फोट करा देता है। बाद में पता चलता है कि उसका इरादा मंत्री जी को ही उड़ा देने का था, जो किसी तरह बचकर निकल जाते हैं। सुलेमान ने यह सब इसलिए किया कि "अब उसने अपना अलग गिरोह खड़ा कर लिया था और अगली बार वह इन्हीं मंत्री जी के खिलाफ चुनाव में उतरेगा।" (वही, पृ. 226)।  यह अपराध का राजनीतिकरण है। 
इसी तरह से ‘अब’ के इसी अंक में हेमंत की एक कहानी है-‘मंजर’ (पृ.- 147-154)। इस कहानी में एक स्वतंत्रता-सेनानी हैं - महेश यादव। इनके दो बेटे हैं- बड़ा, मुन्ना बाबू तथा छोटा, राजेश यादव। इस कहानी में एक रामबली सिंह हैं, जो आगे चलकर अगड़ों के बड़े नेता बन जाते हैं। इन रामबली सिंह ने मुन्ना बाबू की हत्या कर दी थी तथा उनका आम का खानदानी बगीचा हथिया लिया था। मुन्ना बाबू के छोटे भाई यानी महेश यादव का छोटा लड़का राजेश यादव राजनीति में कूद पड़ते हैं और बहुत जल्दी ही पिछड़ों के बड़े नेता बन जाते हैं। इनके पास बंदूकधारियों की वैसी ही फौज होती है, जैसी क्रिमिनल रामबलीसिंह के पास थी! राजेश यादव राजनीति भी करते जाते हैं और अपराध भी। वे हत्या का बदला हत्या से लेते हैं। पहले रामबली सिंह ने इसी बगीचे में मुन्नां बाबू तथा उनके साथियों की हत्या कर इस बगीचे को श्मशान बना दिया था, अब राजेश यादव ने रामबली सिंह तथा उसके साथियों को मार कर इसी बगीचे में गाड़ना शुरू किया। इस तरह यह बगीचा, जो कभी अंग्रेज़ों से जूझते क्रांतिकारियों की कार्य-स्थली और उनके बलिदान का प्रतीक था; धीरे-धीरे अपराधी-गिरोहों का अड्डा बन गया। कहानी में बगीचे को प्रतीकार्थक तरीके से आजादी, नित नयेपन तथा सृजन का पर्याय बताया गया है। यह बगीचा इस कहानी में अपने देश का भी प्रतीक है; जिस पर अब एक के बाद एक क्रिमिनल गिरोहों का कब्ज़ा होता रहता है। इस बगीचे की ज़मीन में अब लाशें ही लाशें गड़ी हैं। यहाँ क्रिमिनल गिरोह राजनीतिक नेताओं में और राजनीतिक नेता क्रिमिनल गिरोह में बदलते-पलटते देखे जा सकते हैं। चाहे रामबली सिंह हों या राजेश यादव; दोनों का चरित्र एक-जैसा है। एक अपराध का राजनीतिकरण करता है और दूसरा राजनीति का अपराधीकरण। परिणाम भी दोनों का एक है : एक हरे-भरे बगीचे का एक मुर्दाघाट में बदल जाना। बगीचे के प्रति दोनों का रवैया एक-जैसा है। 
इसी तरह से ‘अब’ के इसी अंक में एक और कहानी है- सुरेश कांटक की ‘रात’ (पृ.- 155-63)। इस कहानी में एक पोलिंग बूथ का दृश्यांकन है कि किस तरह बंदूक की नोंक पर बूथ-कैप्चरिंग की जाती है और इसमें अपराध-जगत से जुड़े लोग अपना कमाल दिखाते हैं। जनबल और धनबल के सहारे पिछड़ों, गरीबों और मजूरों को आज भी वोट नहीं डालने दिया जाता और समर्थ लोग सारा वोट अपने खाते में डलवा ले जाते हैं। इस कहानी में एक बुद्धदेव बाबू हैं, जो पोलिंग पार्टी के पीठा‍सीन अधिकारी हैं, जिन्हें न केवल अगड़ों के बंदूकधारियों और गुंडा-एजेंटों का मुकाबला करना पड़ता है, बल्कि अपने साथ के कर्मचारियों के ताने-उलाहने और असहयोग भी झेलना पड़ता है। बुद्धदेव बाबू बड़ी हिम्मत से सारी स्थितियों का सामना करते और अपनी जान पर खेलकर जनतांत्रिक मर्यादा की रक्षा करते दिखाए गए हैं। बंदूकधारी ऐन उनके सीने पर खड़े होकर धमकियाँ देते रहते हैं। उनसे गाली-गलौज करते हैं, पर वे टस से मस नहीं होते। वे एक भी बैलट-पेपर साइन नहीं करते तथा पोलिंग रुकवा देते हैं। 
पोलिंग बूथ के बाहर दोनों पार्टियों के लोगों में आपस में गाली-गलौज, नारेबाजी, पथराव, गोलीबारी होती रहती है, पर बुद्धदेव बाबू बावजूद अपनी तमाम आशंकाओं और भय के, अपनी नैतिकता पर टिके रहते हैं। वे दोनों में से किसी के सामने नहीं झुकते।...यह हमें एक लेखकीय आदर्श लग सकता है, लेकिन आज भी ऐसे लोग हमारे यहाँ हैं ही! चाहे इक्का-दुक्का ही सही। इस कहानी में अगड़ों की दादागिरी है, पर जिन इलाकों में पिछड़े जनबल और धनबल में अग्रणी हैं, वे भी अपने इलाकों में ऐसा ही आचरण करते हैं। आज की जनतांत्रिक असलियत यही है। समकालीन हिन्दीे कहानी इस तथ्य को गहराई और आत्मीयता से उजागर कर रही है। दरअसल समकालीन यथार्थ पर जब भी कोई सतर्क ईमानदार लेखन करेगा; भारतीय राजनीति का यह नंगा रूप उसमें आप से आप उभरकर सामने आएगा ही। ... नारायण सिंह की अनेक कहानियाँ, जैसे-‘तीसरा आदमी’, ‘अजगर’, ‘पानी’ आदि राजनीति के अपराधीकरण तथा अपराध के राजनीतिकरण के समकालीन यथार्थ को शिद्दत से सामने लाती हैं। 
एक समय था जब साध्य ही नहीं, साधन की पवित्रता भी भारतीय राजनीति में महत्त्व रखती थी। बाद में साधन की पवित्रता से राजनेताओं का ध्यान हटने लगा। युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज़ है; यूरोप की इस कहावत की तर्ज़ पर हमारे यहाँ की राजनीति ने आगे अपने कदम जो बढ़ाने शुरू किए, तो धीरे-धीरे स्थिति यह हुई कि युद्ध और प्रेम की पंक्ति में उसका नाम भी जुड़ गया। अब युद्ध और प्रेम में सब कुछ जायज़ होता हो या न होता हो, राजनीति में ज़रूर सब कुछ जायज़ होता जा रहा है! साधन की पवित्रता जब आहत होती है तो इसका अनिवार्य असर साध्य पर भी स्वभावत: पड़ता ही है। पैसा हालांकि पैसा ही होता है, लेकिन लूट के माल और मेहनत की कमाई का अंतर एक न एक दिन नज़र आने ही लगता है। मेहनत की कमाई को आदमी दांत से पकड़कर रखता है। रखना चाहता है, जबकि लूट की कमाई पानी की तरह बहती और नष्ट होती चली जाती है। इसके साथ आदमी का क्षय होता है; वह अलग से। आज राजनीति में राष्ट्र तथा उसकी जनता के प्रति प्रतिबद्धता और उत्तरदायित्व  का सामान्यत: जो अभाव पाया जाता है, उसका कारण संभवत: यही साधन की अपवित्रता का कुटेव है। येन-केन-प्रकारेण तथा उल्टे-सीधे तरीके से सत्ता के कक्षों और गलियारों तक पहुँचे हुए बेमुरव्वत लोग अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के वशीभूत इन कक्षों और गलियारों में वही सब कुछ करने लगे जो माफिया अपने तहखानों में करता है तो दरअसल यह कारण-कार्य प्रक्रिया का एक स्वााभाविक तकाज़ा है। 
आखिर जिस जन-बल और धन-बल के सहारे आप कुर्सी तक पहुँचे हैं और उसके अहसानमंद हैं तो यह अहसान तो तभी चुकेगा न कि जो कुर्सी आपको मिली है, उसके मार्फत आप उन्हेंं भी उपकृत करें। ऐसा किया जाना न केवल स्वाभाविक है, बल्कि अब यह एक आवश्यक उपक्रम हो गया है। आप यह उपक्रम नहीं करेंगे तो आपकी कुर्सी के पाये हिल जाएंगे या हिला दिए जाएंगे। आपका भविष्य खटाई में पड़ जाएगा। अपने पचास वर्ष पूरा करते न करते दुनिया का नंबर एक हमारा यह विशाल जनतंत्र इसी लेन-देन और सौदेबाजी में फंस गया। इस हाथ ले और उस हाथ दे की प्रक्रिया में पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा हो जाता है। इस लेन-देन और सौदेबाज़ी के दो पाटों के बीच इस देश का स्वराज्य और सामान्य जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। पहले यह लेन-देन परदे के पीछे होता था, अब खुले आम होता है। संकट दरअसल यह नहीं है कि यह लेन-देन और सौदेबाज़ी यहाँ होती है। यह संकट तो है ही। पर इससे भी बड़ा संकट यह है कि इस लेन-देन और सौदेबाजी को अब लोग बुरा नहीं मानते! यह सबकी अब एक आदत बनती जा रही है! राजनीतिज्ञों का यह स्वभाव होता जा रहा है कि वे लेन-देन और सौदेबाज़ी के बिना एक कदम आगे बढ़ ही नहीं सकते। या तो उनमें आत्मविश्वास की कमी है या फिर उनके मन में खोट है। लेन-देन और सौदेबाजी दरअसल अब एक मूल्य बनता जा रहा है। लेन-देन और सौदेबाजी के एक मूल्य में बदलने की प्रक्रिया भी बहुत पहले से शुरू होती है। यह कोई आज पैदा हुई चीज नहीं है। आज तो यह निरंतर पकते हुए एक ठोस और स्थायी चीज बन गई है! इस प्रक्रिया की जड़ें भी हमारी स्वतंत्रता-प्राप्ति के समय तथाकथित भारतीय जनतांत्रिक नेतृत्व द्वारा अमल में लाई गई कुछ जन-विरोधी और गैर-लोकतांत्रिक नीतियों में हैं, जो पूरे होशो-हवास और दीर्घगामी आकलन के साथ गठित की गई थीं। 
इन नीतियों ने जनक्रांति की ओर बढ़ते भारतीय स्वाधीनता-संग्राम की दिशा एक ऐसी गलत दिशा में मोड़ दी कि स्वतंत्रता-प्राप्ति मात्र एक सत्ता-हस्तांतरण बनकर रह गई और वह भी कटा-पिटा और लूला-लंगड़ा। इस सत्ता-हस्तांतरण में जो कुछ कटा; वह वस्तुत: सच्चा स्वराज ही था। जिस नेतृत्व के हाथ में उस समय सत्ता आई, वह वस्तुत: इस विशाल जनतंत्र के बृहत्तर सामान्य जन का प्रतिनिधि नहीं था, बल्कि वह इस देश के पुराने किंतु इस बीच पुनरुत्थित एवं पुनर्जीवन प्राप्त सामंतवाद एवं नए स्वदेशी पूंजीपति एवं उच्च सुविधा-संपन्न वर्ग का ही प्रतिनिधि था। इस नेतृत्व ने प्रारंभ से ही जो नीतियाँ अपनाईं; वे आम लोगों के हित में नहीं थीं, वे अपने स्वयं के वर्ग-हित की समर्थक थीं। आखिर यह एक सोचने की बात है कि आज पचास साल पूरा होते-होते भी क्या कारण है कि इस देश का मेहनतकश आदमी विपन्न से विपन्नतर हुआ है और परजीवी वर्ग संपन्न से संपन्नतर। गरीब-अमीर की खाई निरंतर चौड़ी ही होती गई है और गरीबी की रेखा निरंतर ऊंची होती गई है। महंगाई पर कोई लगाम नहीं है। भ्रष्टाचार अपनी सभी सीमाएं लांघ चुका है। ईमानदार, सच्चे मूल्यनिष्ठ नागरिक का गुजारा इस देश में निरंतर कठिन होता जा रहा है। जो बेईमान, झूठा, मक्कार, भ्रष्ट और बदचलन है, उसकी हमेशा चांदी रहती है। उसे सारे अवसर हर समय प्राप्त हैं। वह पैसे को पानी की तरह बहाता है, फिर भी पैसे की कमी कभी उसके पास नहीं रहती जबकि ईमानदारी और वर्जनाओं के रास्ते पर चलने वाला आदमी हमेशा तंग रहता है। उसकी सौर हमेशा पैर पर ओढ़े तो सिर से और सिर पर ओढ़े तो पैर से उघड़ जाती है। 
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भारत में जनतंत्र दरअसल हमेशा से ही एक धोखे की टट्टी रहा है। यहाँ असलियत कुछ और रही है और प्रचारित कुछ और किया जाता रहा है। सन् ’47 अगस्त आजादी को ही लें तो, जैसा कि प्रचार किया गया था; यह आजादी सबके लिए थी। विशेषत: इस देश के विशाल जन गण के लिए थी। पर हमने देखा कि यह मात्र एक भुलावा एवं झूठा प्रचार था। राजनीति के तहखाने में कुछ और ही खिचड़ी पक रही थी- पकती रहती थी। इस संबंध में सन् ’42 के किसान-संगठनकर्ता स्वामी सहजानंद की पुस्तिका ‘अब क्या हो’ द्रष्टव्य है, जो उन्होंने इस तथाकथित आजादी के दस दिनों के अंदर लिखकर प्रस्तुत कर दी थी। इस पुस्तिका में तत्कालीन परिस्थितियों का जो गहन, भविष्यगर्भी विश्लेषण उऩ्होंने किया था, वह आज भी अकाट्य है और वे सब बातें आज प्रमाणित हो रही हैं; हो चुकी हैं। स्वामी सहजानंद ने जो कुछ कहा था, वह दरअसल आज एक नए ही सिरे से प्रमाणित हो रहा है। आज जो यह देश अंतर्राष्ट्रीय पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का चरागाह बनता जा रहा है तो दरअसल यह उन्हीं  छद्म नीतियों और चालबाजियों का नतीजा है, जो सत्ता अब तक यहाँ बरतती रही थी। समाजवाद का रास्ता अब त्याग दिया गया है, लेकिन दरअसल वह वास्तव में अपनाया ही कब गया था? वह तो महज एक नारा था, जिसे जनता को भरमाने के लिए जब-तब उछाला जाता रहा।
आज जब हम इक्कीसवीं सदी में कदम रखने जा रहे हैं तो देखने की बात यही है कि इस देश के कौन-कौन लोग, कौन-सा वर्ग इस नयी सदी में वस्तुत: जाएगा। जहाँ धर्म एवं संप्रदाय के नाम पर देश का बहुत बड़ा हिस्सा पीछे लौटकर पन्द्रहवीं-सोलहवीं सदी में ले जाया जा रहा हो, पहुँचा दिया गया हो, वहाँ इक्कीसवीं सदी की बात एक फूहड़ और भयंकर मजाक नहीं तो और क्या है? और यह भी भारतीय राजनीति का एक इधर शक्तिशाली हुआ हिस्सा कर रहा है। धर्म के साथ राजनीति का गठबंधन भारतीय लोकतंत्र को फासिज्म  की ओर धकेल रहा है, फिर भी हम हैं कि इक्कीयसवीं सदी में पहुँचने का भ्रम पाले बैठे हैं। घातक और लोकतंत्र-विरोधी दक्षिण-पंथ की ओर निरंतर बढ़ता हमारा यह जनतंत्र वस्तुत: किन खास लोगों के लिए इक्कीसवीं सदी में जाएगा; यह अब अस्पष्ट नहीं रहा गया है। इस देश का सामान्य बृहत्तर जन-समुदाय तो केवल मतदान के लिए है, इस लोकतंत्र में या तो उसका कुछ हिस्साा है ही नहीं, और यदि है तो सिर्फ यह कि वह अलग-अलग समय पर अलग-अलग संप्रभुओं के इस्तेमाल में आता रहे। यहाँ कविता से ही अपनी बात को पुष्ट करता हुआ मैं नवें दशक में लिखी गई दो कविताएं उद्धृत करना जरूरी समझता हूँ, जिनमें इस जनतंत्र की असलियत का व्यंग्य  की शैली में आख्यान किया गया है। इनमें एक कविता ख्याति-प्राप्त कवि देवी प्रसाद मिश्र की है और दूसरी व्यंग्यधर्मी सशक्त कवि संजय चतुर्वेदी की। ये दोनों ही कविताएं एकदम ताजा तो हैं ही, इनमें आया हुआ यथार्थ भी एकदम समकालीन है। संजय चतुर्वेदी की कविता है-‘सभी लोग और बाकी लोग’ (प्रकाश वर्ष; आधार प्रकाशन,पंचकूला, 1993; पृ.-9); जो इस प्रकार है- 
सभी लोग बराबर हैं 
सभी लोग स्वतंत्र हैं 
सभी लोग हैं न्या‍य के हकदार 
सभी लोग इस धरती के हिस्सेदार हैं 
बाकी सभी अपने घर जाएं 
सभी लोगों को आजादी है 
दिन में, रात में आगे बढ़ने की 
ऐश में रहने की 
तैश में आने की 
सभी लोग रहते हैं सभी जगह 
सभी लोग, सभी लोगों की मदद करते हैं 
सभी लोगों को मिलता है सभी कुछ 
सभी लोग अपने-अपने घरों में सुखी हैं 
बाकी लोग दु:खी हैं तो क्या सभी लोग मर जाएं 
ये देश सभी लोगों के लिए है
ये दुनिया सभी लोगों के लिए है 
हम क्या करें अगर बाकी लोग हैं सभी लोगों से बहुत ज्यादा
बाकी लोग अपने घर जाएं। 
         यहाँ ‘बाकी लोग’ इस देश का बृहत्तर सामान्य जन-समुदाय है और ‘सभी लोग’ मुठ्ठी-भर सुविधा-संपन्न  वर्ग। बाकी लोग सभी लोगों से बहुत-बहुत ज्यादा हैं। पर विडंबना देखिए कि यह देश सिर्फ सभी लोगों के लिए है। बाकी लोग यहाँ सीमांतों पर धकेल दिए गए हैं। उनके लिए यहाँ कुछ नहीं है। बराबरी, स्वतंत्रता, न्याय, अधिकार, प्रगति-उन्नति, सुविधाएं, आत्मसम्मान, निर्भीकता, अवसर, सुख इत्यादि जनतंत्र की सारी उपलब्धियाँ सिर्फ समर्थ लोगों के लिए हैं। इन समर्थ लोगों में गजब का सह-अस्तित्व है। ये कुछ भी करें, इन्हें दोष देने की किसी में हिम्मत नहीं। यह जनतंत्र इन्हीं लोगों का है, इन्हीं के लिए है!
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देवी प्रसाद मिश्र की कविता ‘गणतंत्र’ (प्रार्थना के शिल्प में नहीं; लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद; 1989; पृ.-45)- इस लोकतंत्र का और खुलासा करती है। इस कविता में कवि उस छद्म की ओर स्पष्ट संकेत करता है, जिसका उल्लेख हमने ऊपर किया। इस जनतंत्र का संविधान आम आदमी के लिए नहीं है। वह सिर्फ समर्थ लोगों के हित में है। कविता इस प्रकार है - 
इस गणतंत्र के नियम 
इस तरह नहीं बनते 
कि जैसे जनभाषा बनती है 
अभिजन जब सुरक्षाओं के लिए चीखते हैं 
गणतंत्र के नियम उसी दिन निर्मित होते हैं 
गणतंत्र के ढेर सारे नियम 
ठगों, रोगों, बाढ़ों और पागल कुत्तों की तरह घूमते हैं 
गणतंत्र झूठ है- 
यह कोई रहस्य नहीं है 
फिर भी यह रहस्य है 
गणतंत्र गणतंत्र नहीं है 
फिर भी गणतंत्र गणतंत्र है 
इस गणतंत्र के नियमों के अनुसार 
निश्चय ही, जैसा कि पीछे कहा गया, इस गणतंत्र को एक धोखे की टट्टी और झूठ बनाने में आत्मग्रस्त राजनीति का सबसे बड़ा हाथ है। इस आत्मग्रस्त राजनीति का माफिया से गहरा गठबंधन प्रारंभ से ही रहा है। आज वह गठबंधन ही हमारा प्रतिनिधित्व कर रहा है। 
अपराध के साथ राजनीति का गठबंधन आज दिन की सबसे गंभीर समस्या है। इसने राजनीति को सिरे से भटका दिया है। राजनीति की नसों में नशे की तरह यह अब जज्ब  हो गया है। फिलहाल उसका कोई निदान संभव नहीं है। इन दिनों लगभग हर रोज यह और से और गहरा और अटूट हो रहा है। ये घटनाएं बताती हैं कि आने वाले समय में यह गठबंधन और मजबूत होगा। न राजनीति अपराधियों को अपने से अलग होने देगी; उसे हमेशा उसकी जरूरत पड़ती रहेगी और न अपराध ही राजनीतिक आश्रय लेना छोड़ेगा। बिना राजनीतिक प्रश्रय के वह फल-फूल ही नहीं सकता। अत: इनका अन्योन्याश्रित सह-अस्तित्व अभी जारी रहना है। पाप का घड़ा अभी भरा नहीं है। जनता के कष्ट अभी और बढ़ने हैं, उन्हें चरम पर पहुँचना है। 
ऐसा अनुमान है कि अपराध-तंत्र या माफिया आने वाले दिनों में सत्ता की समकालीन भ्रष्ट राजनीति को भारी शिकस्त देगा। राजनीतिक नेताओं के छद्म को उजागर करता हुआ उनके लोक-सेवा के मुखौटे को नोंच उनके असली रूप को वह जगजाहिर करेगा और बताएगा कि देखो, ये नेता-लोग भी हमारे जैसे ही हैं! इनमें और हममें अब कोई विशेष अंतर नहीं रह गया है!! इस तरह राजनीति का घड़ा फूटेगा और उसमें भरा अपराध का जल अपराध के समुंदर के जल से एकमेक हो जाएगा। फिर हर तरफ अपराध का ही शासन होगा। माफिया पूरी तरह केंद्र में होगा और शासन-सूत्र उसी के हाथों में होगा। फिर सब तरफ देश में लगभग वही स्थिति होगी, जो लोक कवि तुलसी ने कलियुग-वर्णन के प्रसंग में कही है। धीरे-धीरे हमारा यह जनतंत्र इसी स्थिति की ओर अग्रसर हो रहा है। धर्म के साथ राजनीति का ताजा चर्चित गठबंधन इसका कोई विकल्प नहीं है, बल्कि वह इस स्थिति को और सुदृढ़ और गंभीर बनाएगा। क्योंकि इन दिनों धर्म और राजनीति को मिलाकर एक नयेपन का भ्रम जो लोग फैला रहे हैं, वह दरअसल एक भारी छद्म ही है, क्योंकि इन लोगों का तो उद्देश्य ही फासिज्म है। धर्म और राजनीति का गठबंधन समकालीन स्थितियों में कोढ़ में खाज से भी बदतर है, क्योंकि जिस तथा‍कथित धर्म का पल्लां इन लोगों ने पकड़ा है, वह लोगों को कूढ़मगज ही बनाता है। वह मध्य काल का वह ब्राह्मणवाद है जिसने इस देश में सामंतवाद की जड़ें पाताल तक पहुँचा दी। 
हो सकता है, कुछ दिनों तक लोग इस भ्रम के सहारे जी लें, पर अंतत: बहुत जल्दी ही इससे उनका मोह-भंग होना तय है। इस गठबंधन से जो मोहभंग होगा, वह बहुत तीव्र गति से और बहुत ही घातक और मारक- अब तक का सबसे असहनीय और एकदम असहाय कर देने वाला- होगा, क्योंकि यहाँ की धर्मप्राण जनता यह देख-देखकर ही अधमरी हो जाएगी कि जिस धर्म से और ईश्वर से वह अपने अब तक के सारे कष्टों को दूर किए जाने की तीव्र और बलवती आशा लिए बैठी थी, उसने तो उनके कष्टों  को दूर करना तो बहुत दुर की बात; उन्हें छुआ तक नहीं है! इस धर्म और इसके नियंताओं ने दरअसल उनके कष्टों को, उनकी समस्याओं को मूल-बिंदु से हटाकर उनका अन्यथाकरण ही कर डाला है! जीवन के भौतिक और प्रत्यक्ष संदर्भों से काटकर उनकी चेतना को एक वायवीय और मनगढ़ंत लोक के इंद्रजाल में उलझा दिया है!!! और लोग तब इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे कि धर्म किसी मर्ज की दवा नहीं! लेकिन हकीकत यह है कि लोग जब तक इस निष्कर्ष पर पहुँचेंगे, भारतीय राजनीति में कई छोटे-बड़े हिटलर, मुसोलिनी, नादिरशाह, इद्दी अमीन, अयातुल्ला खुमैनी पैदा हो चुके होंगे। तब एक नए ही सिरे से इनसे लड़ने के लिए जनता को सामने आना होगा! लेकिन सवाल दरअसल यही है कि वह कौन-सी, कैसी जनता होगी, जो इनके सामने, इनकी आँखों में आँखें डाल, डटी रहेगी? क्यों जनता तब तक पूरी तरह टूट न चुकी होगी!यदि भारतीय राजनीति की इस समय जो दशा और दिशा है, उसमें कोई गुणात्मक परिवर्तन नहीं आया तो उसका यही भवितव्य फिलहाल हमें नजर आता है। कोई माने या न माने, हमारे देश में अब भी धर्म और संस्कृति का माफिया सबसे व्यापक और तगड़ा है। आनेवाले समय में यह माफिया राजनैतिक रूप से अत्यधिक शक्तिशाली होगा; यह अनुमान एकदम निराधार तो नहीं है! समय की चाल यही संकेतित कर रही है। 
लेकिन, यह एक तथ्य है और बार-बार इतिहास ने इसकी पुष्टि की है कि जनता कभी पूरी तरह नहीं टूटती। उसे पूरी तरह तोड़ने के कई उपक्रम चलते रहते हैं, षड्यंत्रों के तले अनवरत वह पिसती रहती है और झूरती रहती है, लेकिन इस टूटन, इस दमन और इस झूरने के पेटे से ही उसकी प्रतिरोध-चेतना और संघर्ष-शक्ति का बीज भी नयी-नयी जमीनें तोड़ता हुआ अंकुराने लगता है। जैसे प्रकृति कभी मरती नहीं है, घातक परिवर्तनों से चाहे वह धूल-धूसरित और चौपट हो जाए, पर समय पाकर वह फिर पुष्पित-पल्ल़वित होना शुरू हो जाती है। उसका वैभव पुन: लौट आता है। दरअसल घर्षण और अंत:संघर्ष प्रकृति का सबसे बड़ा लक्षण है। द्वंद्व उसका प्राण तत्व है। यही द्वंद्व उसे बार-बार नये सिरे से खड़ा करता है। जनता की प्रकृति भी वस्तुत: यही है। कम से कम भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया के एक बहुत बड़े भाग की जनता का स्वभाव यही है। इसका कारण उसका कृषि-जीवी होना है। अप्रतिहतता और निरंतर संघर्षशीलता किसान-चेतना के दो सबसे मुख्य अभिलक्षण हैं। एक सच्चा किसान कभी निराश नहीं होता। वह थक जाए या हार जाए, पर वह हाथ पर हाथ धर कर कभी नहीं बैठता। यदि ऐसा होता तो अब तक पूरी दुनिया भूख से तड़प-तड़प कर मर चुकी होती। निरंतर सक्रियता, विकल्प की खोज और यथास्थिति में परिवर्तन किसान की पहचान है। इसके अलावा किसान की एक और पहचान है और वह यह कि, वह कभी अपराध को मान्यता नहीं देता। 
मानवीय नैतिकता, सामाजिक मर्यादा और आचार-संहिता, न्याय, मानवीय सौहार्द और सहृदयता उसकी व्यक्तिगत जीवन-चर्या के बहुत ही स्वाभाविक और सामान्य आधारभूत तत्व हैं। ये एक तरह से उसके सहज संस्कार हैं। किसान चूंकि ज्यादातर गाँव में रहता है, अत: गाँव का वातावरण अब भी पर्याप्त निष्पाप और स्पष्ट  होता है। यों माफिया के एजेंट अब वहाँ भी हो गए हैं, पर सार्वजनिक मान्यता उन्हें वहाँ कभी नहीं मिलती। वे गाँव से ज्यादा शहर से ही इमदाद हासिल करते हैं। गाँव में हिंस्र आत्माएं जल्दी और ठीक-ठीक पहचान ली जाती हैं। यह दरअसल किसान का ही बूता है कि वह खटके को सबसे पहले और सबसे ज्या‍दा अच्छी  तरह महसूस कर लेता है, क्योंकि अंतत: हर अन्या‍य, अनैतिकता, अव्यवस्था और अत्याचार का अंतिम शिकार उसी को होना है! बाकी लोग तो चोर रास्ते  से चुपके-से अवसर तलाशते हुए बच निकलते हैं या उसमें अपनी संभावनाएं तलाश उससे समायोजन स्थापित कर लेते हैं, पर मेहनतकश सामान्य आदमी इतना चतुर-चालाक नहीं होता। इस दृष्टि से एक तरह से वह ‘अनाड़ी’ ही होता या माना जाता है। लेकिन यह हकीकत है कि मनुष्यता ऐसे ही अनाड़ियों के बूते इस दुनिया में जीवित है। ऐसे अनाड़ियों की संख्या अब भी इस देश में अवसरवादी चतुर-चालाक लोगों से बहुत-बहुत ज्यादा है; हालांकि यह अब धीरे-धीरे घटने लगी है। पीछे संजय चतुर्वेदी की कविता में जिन ‘बाकी लोगों’ का जिक्र है, वे दरअसल यही हैं। ऐसे लोग इस महान भारतीय गणतंत्र में राजनीति और अपराध के मिले-जुले जंगल में निरंतर चारे की तरह काम में आते रहे हैं। 
भारतीय राजनीति को अपराध की बेइंतिहा भूलभूलैया से यदि निकालना है और उसे एक सही लोकतांत्रिक दिशा में आगे बढ़ाना है तो इसका एक ही उपाय है और वह है इस देश की प्रसुप्त किसान-चेतना को जगाना; उसे आंदोलित कर हस्तक्षेप की स्थिति में ले आना यानी कि एक व्यापक और जन-पक्षीय अंतर्दृष्टि से पूर्ण मजबूत किसान-आंदोलन! अवसरवादी और ढुलमुल किसान गतिविधियाँ नहीं, बल्कि एक ठोस, दृढ़ और राष्ट्रीय/जातीय चेतना से लैस किसान-आंदोलन। यही आंदोलन अब हमारी राजनीति को ठिकाने पर ला सकता है। इतिहास में एक समय ऐसा गुजरा है, जब इसने हमें सही राह दिखाई थी। यह आजादी की लड़ाई का सन् ’40-’42 के आसपास का दौर था, जब किसान-आंदोलन लगभग देश-व्यापी थे और आजादी की लड़ाई को सही दिशा में ले जा रहे थे। स्वामी सहजानंद यहाँ पुन: स्मरणीय हैं। उनके नेतृत्व में हमारे यहाँ की राष्ट्रीय किसान-चेतना का सकारात्मक/सृजनात्मक विकास हुआ था। तब कुछ सत्ता-लोलुप अंग्रेजपरस्त स्वदेशी प्रभावशाली नेताओं ने इसे महत्व न देकर साम्राज्यवाद/स्वदेशी पूंजीवाद और सामंतवादी शक्तियों से गुपचुप हाथ मिला इसे बुरी तरह हतोत्साहित किया तथा बाद में इसका दमन किया। किसान आंदोलन की यह ऊर्जा तथा उसका दमन तथा उस समय के सत्ताकामी तथाकथित राष्ट्रीय नेताओं का जन-विरोधी चरित्र; इस सबका लेखा-जोखा उस समय लिखी गई हिन्दी की बहुत-सारी कविताओं में हमें मिलता है। 
कहना न होगा कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस; जिसके हाथ में उस समय देश का नेतृत्व था, किसानों के दमन में सबसे आगे थी। उसने एक भारी छद्म अपने आचरण में अपनाया। ऊपर से वह सामंतों/जमींदारों के खिलाफ कानून बनाने की बात करती रही, मगर अंदर ही अंदर चुपचाप उनसे हाथ मिलाए रही। ब्रिटिशशाही झंडे के रूप में जरूर दिल्ली से उतर गई, मगर दिल में वह जो अपनी गहरी जगह बना चुकी थी; वह ज्यों  की त्यों  बनी रही। आज जो मंजर हमें अपने देश का दिखाई दे रहा है, उसके बीज दरअसल इसी समय पड़ गए थे। इसका पीछे हमने उल्लेख किया। पीछे हमने हेमंत की कहानी ‘मंजर’ का भी उल्लेख किया। इस कहानी के स्वतंत्रता-सेनानी महेश यादव की इच्छा थी कि वे अपने बगीचे के माध्यम से आजादी के शहीदों की स्मृति को अमर बनाएंगे। आने वाली पीढ़ी को वे इससे उत्प्रेरित करेंगे, किंतु उनका यह सपना कभी पूरा नहीं हो पाया। आजादी मिलते न मिलते यह बगीचा राष्ट्रीय बलिदान की कहानी को परे धकेल हिंसा और आतंक का केंद्र बन गया। भारतीय राजनीति के इस बदले हुए पैंतरे के सूत्र उस समय के राष्ट्रीय नेतृत्व के बदले हुए पैंतरे में निहित थे। कहानीकार एक जगह लिखता है- "सत्ता की छीना-झपटी में लगी सभी पार्टियाँ महेश यादव विभूति मिश्र और गुलाब खां को बांटने का ताना-बाना बुनने लगीं। .... जनता को वोट का कोरा कागज मान लिया और उसे जाति की कैंची से काटना शुरू किया। प्रथम चुनाव में ही जाति और हैसियत के हिसाब से टिकट बंटने शुरू हुए।"(अब-20; पृ.-152)।
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स्पष्ट है कि जाति में यहाँ संप्रदाय भी शामिल है। उस समय के किसान-आंदोलन को भी इन्हीं पैंतरों से दचकी दी गई। कांग्रेस की यह पैंतरेबाजी भारतीय जनतांत्रिक चेतना के विकास के इतिहास के काले पृष्ठोंं की तरह हमेशा याद की जाती रहेगी। रामविलास शर्मा का काव्य-संग्रह ‘सदियों के सोए जाग उठे’ की कविताएं तथा इसकी भूमिका इस संदर्भ में विशेष पठनीय है। इसके अतिरिक्त जन-कवि केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, शील और शिवमंलग सिंह ‘सुमन’ की उस समय की कविताएं व गीत इस प्रसंग में एक दस्तावेज की तरह हैं। इन काव्य-रचनाओं में बहुत ही सहज-साधारण भाषा-शैली में एकदम स्पष्ट  रूप से उस समय का राजनीतिक घटना-चक्र नामजद रूप से अंकित है। ‘‍सदियों के सोए जाग उठे’ की कविताएं तो जैसे तत्कालीन कांग्रेसी पैंतरेबाजी का कच्चा चिट्ठा है। 
बचपन में माँ हमें एक सीख दिया करती थी। जब यकायक हम कोई चीज़ कहीं रखकर भूल जाते थे या कोई बात याद नहीं आती थी तो माँ कहती थी कि तुम दुबारा उसी जगह या उसी ध्यान में जाओ; जहाँ सबसे पहले वह बात तुम्हारे दिमाग में आई थी। वहाँ पहुँचकर अपने मन को एकाग्र करो और सोचो कि तुम क्या करना चाहते थे! हम बिलकुल यही करते थे और पिछली स्थिति में पहुँचते ही सारी अगली-पिछली बातें हमारे दिमाग में रील की तरह घूमने लगती थीं। कुछ ही क्षणों में हमें वह बात ध्यान में आ जाती थी, जो कुछ समय पहले हमारे ध्यान से उतर गई थी। ऐसा हम अक्सर करते थे। कई बार मजा लेने के लिए भी यह सब करते थे। स्मृति को पुनर्संचयित करने की यह तकनीक आज भी निर्विकल्प है। भारतीय राजनीति को भी आज इसी तकनीक को अपनाने की जरूरत है। जनपक्षधरता और सच्चा सुराज की बात को वह सालों से भूली पड़ी है। यह दरअसल केंद्रीय लक्ष्य  था। इसे भूलकर जो कुछ उसने किया और जिधर वह चली; वह एक भटकाव ही था। इस भटकाव को यदि बंद करना है और राजनीति को यदि पटरी पर आना है तो उसे किसान और दूसरे मेहनतकश वर्गों के पास जाना चाहिए। जैसी कि वह आजादी के लिए संघर्ष के समय में थी। वहीं उसे अपनी सबसे अधिक संभावनाएं और एक सही पहचान मिल सकती है। रामविलास जी ने ‘सदियों के सोए जाग उठे’ की भूमिका में सबसे पहले ही यह लिखा- "आज का भारत चालीस साल पहले के भारत से काफी भिन्न  है, फिर भी आज देश के सामने जो समस्यारएं हैं, वे चालीस साल पहले के सिलसिले से जुड़ी हुई हैं। साम्राज्यवाद, देशी पूंजीवाद, उसके नेता, भारत के मजदूर और किसान, कम्युनिस्ट दल, सब अपनी-अपनी जगह हैं, समस्याएं भी अपनी जगह हैं। उस दौर के इतिहास का अध्ययन आज के भारत के लिए अत्यंत शिक्षाप्रद है।" (सदियों के सोए जाग उठे; वाणी प्रकाशन, नयी दिल्लीे; 1988; पृ.-5)। 
यह भूमिका रामविलास जी ने मई ’87 में लिखी थी। उसके बाद स्थितियाँ और भी बदलतीं चली गईं हैं। अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़े हैं। साम्राज्यवाद और विश्व-पूंजीवाद का शिकंजा मजबूत हुआ है। एक नए किस्म की पराधीनता राष्ट्रीय स्तर पर दस्तक देने लगी है, जो संस्कृति और बाजार के माध्यम से आ रही है। देश की राजनैतिक संप्रभुता और आत्म-निर्णय खतरे में पड़े हैं। राष्ट्रीय राजनीति में दिशाहीनता और घौच-पौच की स्थितियाँ चरम पर पहुँच रही हैं। हमारे नेता, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र आदि के आधार पर मतदाताओं को बांट इन्हें एक राजनीतिक मूल्य बना चुके हैं। जो भटकाव आजादी के ठीक पहले के कुछ वर्षों में भारतीय जनतंत्र के माथे चढ़ा दिया गया था; अब अपनी चरम परिणतियों में है। क्रूरता लगातार बढ़ रही है। संकट दरअसल यह नहीं है कि क्रूरता बढ़ रही है। यह संकट तो है ही। पर इससे भी बड़ा संकट यह है कि यह अब एक मूल्य की तरह बढ़ रही है। यह हमारी दिनचर्या में गहरी सेंध लगा रही है और हमें कोई ऐतराज नहीं हो रहा है। हम इसका एक तरह से स्वागत-सा कर रहे हैं। नवें दशक के समर्थ कवि कुमार अंबुज ने अपने दूसरे कविता-संग्रह ‘क्रूरता’ की इसी शीर्षक की कविता में इस स्थिति को गहरे पहचाना है। वे लिखते हैं-
धीरे-धीरे क्षमा भाव समाप्त हो जाएगा 
प्रेम की आकांक्षा तो होगी मगर जरूरत न रह जाएगी 
झर जाएगी पाने की बेचैनी और खो देने की पीड़ा 
क्रोध अकेला न होगा वह संगठित हो जाएगा 
एक अनंत प्रतियोगिता होगी जिसमें लोग 
पराजित न होने के लिए नहीं 
अपनी श्रेष्ठता के लिए युद्धरत होंगे 
तब आएगी क्रूरता 
पहले हृदय में आएगी और चेहरे पर न दीखेगी
फिर घटित होगी धर्म-ग्रंथों की व्याख्या  में 
फिर इतिहास में और फिर भविष्यवाणियों में 
फिर वह जनता का आदर्श हो जाएगी 
निरर्थक हो जाएगा विलाप 
दूसरी मृत्यु थाम लेगी पहली मृत्यु से उपजे आंसू
पड़ोसी सांत्वना नहीं एक हथियार देगा 
तब आएगी क्रूरता और आहत नहीं करेगी हमारी आत्मा को 
फिर वह चेहरे पर भी दीखेगी
लेकिन अलग से पहचानी न जाएगी 
सब तरफ होंगे एक जैसे चेहरे 
सब अपनी-अपनी तरह से कर रहे होंगे क्रूरता 
और सभी में गौरव भाव होगा 
वह संस्कृति की तरह आएगी उसका कोई विरोधी न होगा 
कोशिश सिर्फ यह होगी कि किस तरह वह अधिक सभ्य
और अधिक ऐतिहासिक हो 
वह भावी इतिहास की लज्जा की तरह आएगी 
और सोख लेगी हमारी सारी करूणा
हमारा सारा शृंगार 
यही ज्यादा संभव है कि वह आए 
और लंबे समय तक हमें पता ही न चले उसका आना। 
(क्रूरता; राधाकृष्ण, नयी दिल्ली ; 1996; पृ.- 22-23)।
क्रूरता/मनुष्यहीनता का इस तरह आना आज का असल संकट है। इस स्थिति ने हमारी सारी जनतांत्रिक अवधारणाओं, जनतंत्र की हमारी समूची अवधारणा और सार्थकता को ही खटाई में डाल दिया है। और दरअसल यह इसलिए हो रहा है कि अपराध अब हमारे यहाँ राजनैतिक मान्यता प्राप्त कर रहा है। अपराध राजनीति की मुख्य-धारा में आ रहा है। राजनीति का अपराधीकरण फिर भी किसी न किसी तरह काबू में किया जा सकता है, लेकिन जब अपराध ही राजनीति का पर्याय बन जाए, अपराध का ही जब राजनीतिकरण होने लगे; तब स्थिति को संभालना सचमुच असंभव हो जाता है। इस असंभव को संभव बनाने का अब एक ही रास्ता बचा है। और वह है, इस देश के किसान और बृहत्तर श्रमशील सामान्य जन-समूह। वे ही जन राजनैतिक रूप से जनवादी तरीके से एकजुट होंगे और प्रतिरोध और आंदोलन का झंडा खड़ा करेंगे; भारतीय जनतंत्र तभी दरअसल अपनी सही दिशा सुनिश्चित कर पाएगा, क्योंकि दरअसल मानवीय सौंदर्य का श्रम से बड़ा ही गहरा और सकारात्मक नाता है। जिस जनतंत्र में मनुष्यता खत्म होती हो, वह ज्यादा दिन टिक नहीं पाता। 
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पुनश्च:
वन्दना राग की एक कहानी है ‘आज रंग है’ (मैं और मेरी कहानियाँ; कौटिल्य बुक्स, नयी दिल्ली; 2022)।इस कहानी में एक उप-कथा की तरह मौज़ूदा अपराध जगत की एक झाँकी चुन्नू यादव, उसके कारनामों, उसके अनैतिक चरित्र, राजनीति में उसकी घुसपैठ, उसकी सरे-बाज़ार सपत्नीक हत्या, गैंगवार, आदि प्रसंगों के माध्यम से प्रभावी तरीक़े से संरचित की गई है। ऐसे अपराधियों व माफ़िया की राजनीति में बढ़ती अहमियत को विशेष रूप से रेखांकित किया गया है। इस आपराधिकता ने किस प्रकार हमारे समय पर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया है, लेखक शाइस्तगी के साथ इस ओर संकेत करता है। ‘समय पर स्वामित्व’ जैसा एक नया कथा-प्रत्यय यहाँ हमें देखने में आता है, जो इस बात की सूचना देता है कि आपराधिकता किस तरह हमारे आज के समय का एक बहुत बड़ा सच बन गई है- "जिस दबंगई से वह चल रहा था, उसमें उस घर में रहने वालों के ‘समय’ पर उसके स्वामित्व की टंकार भी मिली हुई थी।"
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(1996; पुनरीक्षित : जयपुर/04.09,2025)

शंभु गुप्त
1953 में ब्रज-प्रदेश राजस्थान के भरतपुर ज़िले के हलैना नामक गाँव में जन्म।
प्रारम्भिक-माध्यमिक शिक्षा गाँव के सरकारी स्कूल में। उच्च शिक्षा भरतपुर एवं आगरा में। आगरा के प्रसिद्ध कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ से एम.ए. तथा पी-एच.डी.
तीस वर्षों तक उच्च शिक्षा में प्राध्यापक। राजस्थान के विभिन्न राजकीय महाविद्यालयों में हिन्दी प्राध्यापक/विभागाध्यक्ष तथा महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा (महाराष्ट्र) में स्त्री अध्ययन विभाग में प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद पर आठ वर्ष कार्यरत रहने के बाद फ़िलहाल सेवानिवृत्त। 
पत्रकारिता तथा नाट्य-कर्म से जुड़ाव।अभिनय एवं पटकथा-लेखन।
30 वर्षों से आलोचना में सक्रिय। हिन्दी की समस्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में आलोचना प्रकाशित।
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा की त्रैमासिक पत्रिका ‘बहुवचन’ का दो वर्ष तक सह संपादन।                                                                                                                      
पुरस्कार-सम्मान : ‘अभिव्यक्ति’युवा आलोचक पुरस्कार-1992, रामविलास शर्मा आलोचना सम्मान-2008, स्पंदन आलोचना पुरस्कार-2009, अर्जुन कवि जनवाणी पुरस्कार-2011, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय आलोचना सम्मान- 2020, विशिष्ट साहित्यकार सम्मान-2023 (राजस्थान साहित्य अकादमी)।
प्रकाशित पुस्तकें : मैंने पढ़ा समाज, कहानी: समकालीन चुनौतियाँ, दो अक्षर सौ ज्ञान, अनहद गरजै, साहित्य-सृजन : बदलती प्रक्रिया, कहानी : वस्तु और अन्तर्वस्तु, कहानी की अन्दरूनी सतह, कहानी : यथार्थवाद से मुक्ति, डिबिया में धूप।  
विदेश-यात्रा : दक्षिण अफ्रीका (9वां विश्व हिंदी सम्मेलन, 2012,जोहान्सबर्ग) तथा 2018 में सिंगापुर की निजी यात्रा।      
o शंभु गुप्त,21 , सुभाष नगर , एन ई बी , अग्रसेन सर्किल के पास , अलवर-301 001 (राजस्थान) 
फ़ोन- 8600552663, 9414789779; ई-मेल – shambhugupt@gmail.com
 


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