 |
| वर्ष 2017 में प्रकाशित |
वीरेंद्र यादव
“ उपन्यास की कला तब राजनीतिक नहीं होती जब उपन्यासकार राजनीतिक विचार अभिव्यक्त करता है बल्कि तब होती है, जब हम किसी ऐसे को समझने की कोशिश करते हैं जो हमसे सांस्कृतिक, वर्गीय और लैंगिक रूप से भिन्न होता है। तात्पर्य यह कि नैतिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक मूल्य निर्णय के पूर्व हम सहानुभूति महसूस करें।”---ओरहान पामुक
‘दि गाड आफ स्माल थिंग्स’ के लिखे जाने के दो दशक बाद अरुंधति राय के नए उपन्यास ‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ का प्रकाशन साहित्यिक और बौद्धिक समाज के लिए एक नयी सनसनी सरीखा है। प्रायः ऐसा कम होता है कि प्रकाशित होते ही कोई साहित्यिक कृति समूचे विश्व में सुधी पाठकों से लेकर साहित्य मनीषियों तक गंभीर चर्चा और जिज्ञासा का विषय बन जाए। यद्यपि यह कम विडम्बनात्मक नहीं है कि जब यह पुस्तक पाठकों तक पहुँचने को ही थी, तभी अरुंधति राय सत्ताधारी दल के एक सांसद के उस बिगड़े बोल के कारण बीच बहस थीं जिसमें यह इच्छा व्यक्त की गयी थी कि अरुंधति को सेना की जीप के आगे बांधकर कश्मीर की सड़कों पर घुमाया जाए ताकि कश्मीरियों द्वारा सेना पर पत्थर फेंकें जाने पर लगाम लग सके। अरुंधति राय का इस तरह ख़बरों में होना उनकी जन बुद्धिजीवी की उस भूमिका का परिणाम है जिसका निर्वहन करते हुए उन्हें प्रशंसा और निंदा दोनों का पात्र होने के साथ साथ राष्ट्रद्रोह और न्यायालय की अवमानना तक का आरोप झेलना पड़ा है। स्वीकार करना होगा कि भारतीय राष्ट्र-राज्य को लेकर बेबाक और जोखिम भरे तीखे आलोचनात्मक दृष्टिकोण के चलते अरुंधति राय आज भारत में जन-बुद्धिजीवी की उसी भूमिका में हैं, जिसमें सयुंक्त राज्य अमेरिका में नाम चाम्सकी रहे हैं। अरुंधति राय की इस भूमिका में नयापन यह भी है कि वे ‘पब्लिक इंटलेक्चुअल’ और ‘आर्गेनिक इंटलेक्चुअल’ दोनों को एकाकार करते हुए ‘एक्टिविस्ट राइटर’ की नयी भूमिका में प्रस्तुत हैं। परमाणु विस्फोट, बांधों के निर्माण से विस्थापन, आदिवासियों का दमन, जाति हिंसा, गुजरात के दंगे से लेकर हिदुत्ववादी अभियान का विरोध इस दौर में उनके मुख्य सरोकार रहे हैं, जिन्हें वे अपने वैचारिक लेखन द्वारा सशक्त ढंग से अभिव्यक्त करती रही हैं। ‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ उनके इन सरोकारों से भरा-पूरा है। अपने पहले उपन्यास ‘दि गॉड आफ स्माल थिंग्स’ की तुलना में यह उपन्यास सांस्कृतिक और भौगोलिक दोनों ही दृष्टिकोण से नयी ज़मीन का उपन्यास है। पुरानी दिल्ली की कब्रगाह से लेकर कश्मीर के ‘युद्ध क्षेत्र’, आंध्र-बस्तर के आदिवासियों से लेकर गुजरात में वली दकनी की मज़ार और हरियाणा के दुलिना के दलितों तक की त्रासदी समेटे ‘दि मिनिस्ट्री...’ का कथा वितान उपन्यास की पारम्परिक निर्मिति का अतिक्रमण करते हुए एक नए उपन्यास मॉडल को संकेतित करता है। उनकी स्वयं की मान्यता है कि ‘तहस-नहस कथा को हर व्यक्ति बनकर नही , धीरे धीरे हर कुछ बनकर कहा जाना चाहिए’। अरुंधति राय यहाँ उपन्यास के सुपरिचित आजमाए मॉडल से बाहर निकलते हुए अभ्यस्त रूचि के पाठकों को हैरान-परेशान करती हुईं सी भी दिख सकती हैं।
‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ उपन्यास का समर्पण उचित ही सांत्वना से वंचित लोगों के नाम है। सांत्वना से वंचित इन लोगों में किन्नर, वेश्याएं, दलित, अल्पसंख्यक, आदिवासी से लेकर तोता, कौव्वा ,गिद्ध ,कुत्ता, बिल्ली, चौपाये, पेड़-पौधे और वनस्पतियाँ तक शामिल हैं। यद्यपि हाशिये का वृत्तांत ‘दि गॉड आफ स्माल थिंग्स’ के केंद्र में भी था और यहाँ भी है लेकिन इस अंतर के साथ कि वहाँ जो ‘पर्सनल इज पोलिटिकल’ था यहाँ वो ‘पोलिटिकल इज पर्सनल’ है। यहाँ तक कि उपन्यास के पात्रों की निर्मिति भी राजनीतिक संकेतों से युक्त है। उपन्यास की प्रमुख पात्र तिलोत्तमा को लक्षित यह शब्दचित्र एक उदाहरण भर है- “ यह उसका जीने का ढंग था। अपनी काया के देश में। एक ऐसा देश जो न कोई वीसा जारी करता था और न ही जिसका कोई कांसुलेट था।” ‘दि गॉड आफ ..’ का केंद्रविन्दु केरल का एक क़स्बा और एक परिवार था तो ‘दि मिनिस्ट्री ..’ का नाभिकेंद्र समूचा भारतीय राष्ट्रराज्य और उसकी पतनगाथा है। भारतीय राष्ट्र की यह हाशिया-कथा यूं तो कश्मीर से लेकर बस्तर तक का विस्तार लिए हुए है लेकिन दिल्ली की प्रतिरोध स्थली जंतर-मंतर की हलचल का उपन्यास में शामिल किया जाना अपने समय और समाज की धडकनों का सुनना है। अन्ना आन्दोलन की दिलचस्प पैरोडी का वह रूपक भी यहाँ है जिसमें अन्ना ‘फैरेक्स बेबी’ हैं तो केजरीवाल ‘एकाउंटेट के शरीर में कैद क्रांतिकारी’। इसी जंतर मंतर पर अंजुम और तिलोत्तमा के वे तार भी जुड़ते हैं जो बस्तर से लेकर कश्मीर तक विस्तृत हैं। दरअसल इस उपन्यास के कई बिखरे-बिखरे असम्बद्ध से दिखने वाले पात्र भी उपन्यास की अनिवार्य उपस्थित्ति हैं। डा.आज़ाद भारतीय का प्रकट सिरफिरापन और उनकी परिवर्तनकामी मुहिम उपन्यास की मूलकथा को समझने में सहायक है। यह अनायास नहीं है कि उपन्यास में एक पात्र का नाम सद्दाम हुसैन है। दयाचंद चर्मकार द्वारा सद्दाम हुसैन नाम अपनाना महज एक औपन्यासिक प्रविधि न होकर प्रतिरोध के रूपक की संकल्पना भी है। दुलिना में गोभक्तों द्वारा अपने पिता की हत्या का बदला दलित दयाचंद उसी बहादुरी से लेना चाहता है जिस बहादुरी से अमरीकी साम्राज्यवाद का विरोध करने का मूल्य चुकाते हुए सद्दाम हुसैन फांसी के तख्ते पर चढ़ गए थे । दयाचंद ने टीवी के पर्दे पर देखा था कि सद्दाम हुसैन की आँखों में अपने हत्यारों के प्रति कितनी वितृष्णा थी। यही वितृष्णा उसे अपने पिता की आँखों में तब दिखी थी, जब उन्हें गोरक्षा के नाम पर पीट पीट कर मार डाला गया था। यहाँ डॉ. आंबेडकर के उस कथन का स्मरण हो आना स्वाभाविक ही है जिसमें उन्होंने ‘साम्राज्यवाद और ब्राह्मणवाद को समान शत्रु’ करार दिया था। हरियाणा के दुलिना काण्ड और गुजरात के ऊना के दलित प्रकरण के तार जोड़ते हुए अरुंधति राय यातना से लेकर प्रतिरोध तक का जो विमर्श प्रस्तुत करती हैं, वह वंचित समाज के प्रति उनकी गहरी संलग्नता का परिचायक है। यह करते हुए अरुंधति इस दौर के अंगरेजी उपन्यासों में दलित यथार्थ की लगभग अनुपस्थिति की क्षतिपूर्ति भी करती हैं। अरुंधति का स्पष्ट कहना है कि भारतीय समाज की कथा लिखते हुए दलित यथार्थ की अनदेखी वैसी ही है जैसे दक्षिण अफ्रीका के बारे में लिखते हुए रंगभेद के प्रति अंधत्व का होना। अपनी दलित पहचान की स्वीकारोक्ति करते हुए सद्दाम हुसैन का किन्नर अंजुम से यह कहना कि ‘जो तुम्हारे साथ फरवरी में हुआ, वही मेरे साथ नवम्बर में हुआ’ मुस्लिम और दलित की उस साझा त्रासदी को उजागर करता है जो वर्ष 2002 के गुजरात और हरियाणा का नंगा और क्रूर सच होने के साथ साथ आज समूचे भारतीय जनतंत्र की भयावह विकृति है।
 |
| advt |
‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ अपनी समूची औपन्यासिक संरचना में कथ्य की बहुस्तरीयता और पात्रों की बहुलता से समृद्ध है। यहाँ प्रकृति, पशु, पक्षी सभी एकाकार होकर जिस भारतीय महावृतांत को उद्घाटित करते हैं वह अत्यंत त्रासद और बदरंग है। यह अनायास नही है कि इस उपन्यास का ‘ख्वाबगाह’ और ‘जन्नत गेस्ट हाऊस’ जिस पुराने दिल्ली में अवस्थित है, वह सत्ता की केंद्र आधुनिक दिल्ली का ऐसा पिछवाड़ा या बैकयार्ड है जहाँ समाज से उलीच दिए गए लोग धर्म, जाति और लिंग की पहचान विस्मृत कर अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्षरत हैं। यह इलाका वर्ष में बस एक बार तब सुर्ख़ियों में होता है, जब लालकिले की प्राचीर से आज़ादी का जश्न मनाया जाता है। अरुंधति की मौलिकता यह है कि वे भारतीय राजनीति और समाज की विडम्बनाओं की पक्षहीन दृष्टा न होकर उसके उत्पीड़ितों की कथा उन्हीं की निगाह से प्रस्तुत करती हैं। वे अपने विमर्श में उस मरणासन्न गिद्ध को भी शामिल करती हैं जिसकी गर्दन इसलिए झुकती जा रही है क्योंकि वह उस मरी गाय का भक्षण करने के लिए अभिशप्त है, जिसे अधिक दुधारू बनाने के लिए जिस डिक्लोफेन का इस्तेमाल किया जाता है, वह ऐसा जहर है जो पशु पक्षियों के लिए भी प्राणघातक है। उपन्यास के पूर्वकथन में ही यह विडम्बना विन्यस्त है कि ‘ज्यों-ज्यों पशु बेहतर डेरी मशीन में तब्दील होते जा रहे थे, ज्यों-ज्यों शहर अधिक आईसक्रीम, बटरस्काच और चाकलेट खा रहे थे, ज्यों-ज्यों वे अधिक मैंगो मिल्कशेक पी रहे थे त्यों-त्यों गिद्धों की गर्दनें ऐसे झुकती जा रही थीं जैसे कि वे थकने के बाद जगे रहने में असमर्थ हों। अपनी चोंचों से चान्दीनुमा लार टपकाते एक-एक कर पेड़ की शाखाओं से लुढ़क-लुढ़क कर मर रहे थे’।
उपन्यास के प्रथम पृष्ठ पर गिद्धों के मरने का यह चाक्षुष वृतांत विनाशकारी विकास और उपभोक्ता संस्कृति की जिस नाभिनालबद्धता का परिचायक है, उसकी अंतर्धारा अलग-अलग रूपाकार लेकर समूचे उपन्यास को एक दुस्वप्न में तब्दील करती है। अरुंधति राय विद्रूपताओं और विराधाभासों से अपने कथा मुहावरे को सृजित करती हैं। बदरंग दुनिया के बरक्स गुलजार होता कब्रिस्तान, कब्रिस्तान में ब्यूटी पार्लर, मुर्दाघर में चौबीसों घंटे बिजली, बीस लेन के फ्लाईओवर के नीचे बजबजाती गन्दगी के बीच जीवन की धकमपेल, लाश की भिंची मुठ्ठी में फंसी रह गयी मिट्टी में सरसों के फूलों का खिलना, दुधमुहें बच्चे के दांतों की तरह ज़मीन से कब्र के पत्थरों का उगना, बच्चे के पेशाब में रात्रिकालीन आकाश के तारों का अक्स आदि कुछ ऐसी चित्र छवियाँ हैं जो पारम्परिक बिम्बों और अर्थ को ध्वस्त करती हैं। कौव्वे के पंखों का धारदार चीनी डोर में उलझना और फिर मुक्त होते ही आकाश में उड़ना नए अर्थगाम्भीर्य से युक्त है। उपन्यास में आफताब का अंजुम, दयाचंद का सद्दाम हुसैन, विप्लव दासगुप्ता (गारसन हाबर्ट) का सत्ता के जासूस तंत्र का पुर्जा होना और ‘साहसी’ पत्रकार नागा हरिहरन का सरकारी तंत्र से डबल क्रास आदि विद्रूपताओं और विसंगतियों की ऐसी अंतर्धारा हैं जिसमें उपन्यास अंतर्गुम्फित है। सर्वाधिक मारक और मार्मिक है आज़ाद कश्मीर के लड़ाके मूसा का ‘आतंकी’ गुलरेज़ होना और गुलरेज़ की कब्र का आतंकी की कब्र होना व ‘आतंकी’ मूसा को गुमनाम दफनाया जाना ।
‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ की कथा का एक सिरा अंजुम के हाथ में है तो दूसरा तिलोत्तमा (तिलो) के। यह भी कम विडम्बनात्मक नहीं है कि बेटे के रूप में जन्मे आफताब की मुक्ति उसके अंजुम बनने में हुई कयोंकि वह ‘पुरुष शरीर में कैद स्त्री’ था। अंजुम के भीतर के ‘भारत-पाक’ की उथल पुथल का शमन हिजड़ों की ‘ख्वाबगाह’ से बाहर निकल कर कब्रगाह के उस ‘जन्नत गेस्ट हाऊस’ में होती है जिसमें अंजुम ने ‘दुनिया’ के सामानांतर हाशिये के लोगों और वंचितों की अपनी जन्नत बना रखी थी। अंजुम का खुद का कहना था कि ‘जहाँ हम रहते हैं, जहाँ हमने अपना घर बनाया है, वह गिरे हुए लोगों की जगह है।’ ध्यान देने की बात यह है कि ‘ख्वाबगाह’ से ‘जन्नत’ तक का यह सफ़र अंजुम ने गुजरात 2002 के उन दंगों से गुजरते हुए किया था जिससे वह जीवित इसलिए बच पाई क्योंकि वह किन्नर थी’ और ‘हिजड़ों को मारना अपशकुन होता है’। यह क्या कुछ कम विडम्बनात्मक है जिस किन्नर पहचान के चलते वह हमेशा समाज से अलग-थलग रही, उसी के चलते गुजरात के दंगों में हत्यारों ने अपनी शुभचिन्ता करते हुए उसे बख्श दिया था। अंजुम के दिलोदिमाग में भगवा उन्माद के उस नारे की अनुगूंज शेष थी - ‘मुसलमान का एक ही स्थान, कब्रिस्तान या पाकिस्तान’। यहाँ ‘गुजरात का लल्ला’ का यथार्थवादी चित्रण सपाटबयानी न होकर सायास है। इसी के बाद अंजुम अपनी ‘ख्वाबगाह’ के बाहर की दुनिया को देखने-समझने उससे एकजुट होने के लिए प्रेरित हो सकी थी। यह करते हुए वह किन्नर होने की सीमाओं को तोड़कर जैनब की माँ की भूमिका अपनाती है। उसकी तमन्ना माँ बनने और और सामान्य स्त्रियों का जीवन बिताने की थी, इसलिए वह समाज द्वारा प्रदत्त पहचान को नकारते हुए कहती है कि ‘यहाँ कुछ भी हकीकत नहीं है। अरे हम खुद असली नहीं हैं। हमारा तो वजूद ही नहीं है’। उपन्यास के अंत में अंजुम अपनी बेटीनुमा जैनब की शादी सद्दाम उर्फ़ दलित दयाचंद से करके उत्पीड़ितों की एकता का सन्देश देती है। दरअसल अरुंधति राय कब्रिस्तान में जन्नत के विद्रूप का रूपक गढ़कर उन जीवित और मृत लोगों के हौसले का सम्मान करना चाहती हैं जो बहिष्कृत होने के लिए अभिशप्त हैं। अंजुम की सर्वधार्मिक ‘जन्नत’ में दयाचंद के पिता और तिलोत्तमा की माँ मरयम ईपे का प्रतीक रूप से दफनाया जाना और ईमाम जियाउद्दीन का नमाज़े ज़नाज़ा पढना ‘दुनिया’ के प्रति इस नयी दुनिया का विद्रोह ही है। दरअसल मरयम ईपे के शव को दफनाने के बजाय विद्युत शवदाह गृह में जलाया गया था क्योंकि सीरियाई ईसाई चर्च ने एक दलित प्रेमी से गर्भ धारण करने के कारण उन्हें ईसाई सीमेट्री में दफ़नाने से इनकार कर दिया था। आदिवासी नक्सली रेवती को भी लाल झंडे के साथ प्रतीकात्मक रूप से इसी कब्रगाह में दफ़न किया गया था। बदनाम जीबी रोड की रुबीना की लाश को भी जब न गुस्ल का कोई ठौर मिला, न कोई ईमाम उसके नमाज़े ज़नाज़ा के लिए तैयार हुआ और न किसी कब्रिस्तान ने उसे दफ़न करने की मंजूरी दी , तो उसे अंजुम की ‘जन्नत’ में ही शरण मिली। दरअसल रुबीना के दफनाने के बाद ही उस ‘जन्नत फ्यूनरल सर्विस’ की नीव पडी थी जिसका एक स्वीकृत वसूल था कि वहाँ वे ही दफनाये जाएंगें जिन्हें ‘दुनिया’ की कब्रगाहों और ईमामों ने लौटा दिया हो। उपन्यास की तिलो भी अंतत ‘जन्नत गेस्ट हाऊस’ में ही शरणागत होती है।
 |
| advt. |
तिलोत्तमा (तिलो) ‘दि मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैपीनेस’ उपन्यास की वह केन्द्रीय पात्र है जो औपन्यासिक कथ्य को व्यापक फलक प्रदान करने में सहायक है। वह उपन्यास की दो दुनियाओं को जोड़ने के साथ-साथ कश्मीर से लेकर बस्तर तक विस्तृत ‘युद्ध क्षेत्र’ की दृष्टा ही नहीं बल्कि उसके उत्पीड़ितों की सहयात्री भी है। तिलो और उसके युवाकाल के मित्र मूसा, नागा और गारसन होबर्ट (विप्लव दासगुप्ता) के तार कश्मीर के युद्ध क्षेत्र से जुड़े हैं। कश्मीरी युवक मूसा उग्रवादी है तो नागा क्रांतिधर्मी पत्रकार होकर भी सत्ता प्रतिष्ठान का हमप्याला है और गारसन होबर्ट तो ख़ुफ़िया तंत्र का अधिकारी ही है। ये तीनों छात्र जीवन से ही उसके प्रति आकृष्ट रहे हैं। मूसा और नागा की तो वह व्याहता भी रही है। चार यारों की इस मंडली के इर्द-गिर्द अरुंधति राय ने कश्मीर समस्या का जो ताना-बाना रचा-बुना है, वह इस उपन्यास का उत्कृष्टतम अंश है। कश्मीर की पीड़ा, प्रताड़ना और प्रतिरोध का विमर्श रचते हुए अच्छा यह है कि अरुंधति कश्मीर को लेकर अपनी सुपरिचित सम्मति को निष्कर्षात्मक नहीं बनाती हैं। यह जरूर है कि कश्मीर के बारे में वे उग्रवादी मूसा के भविष्य कथन से सहमत लगती हैं। मूसा ने विगत का मंथन करते हुए गारसन होबर्ट से कहा था कि –“ एक दिन कश्मीर भारत को आत्मनाशी बनाएगा। भले ही तुमने हम सब को, हममें से हर किसी को तब तक अपनी पेलेट गन से अँधा कर दिया हो। लेकिन तब भी तुम्हारे पास यह देखने के लिए आँखें होंगी कि तुमने हमारे साथ क्या किया है। तुम हमें बर्बाद नहीं कर रहे हो। तुम हमें बना रहे हो। तुम खुद को बर्बाद कर रहे हो।” अरुंधति राय मूसा के इस कथन को कश्मीर में तैनात सैन्य अधिकारी अमरीक सिंह की उस अपराध-ग्रंथि से कथात्मकता प्रदान करती हैं जिसके चलते उसने समूचे परिवार सहित खुद को भी मार डाला था। अमरीक सिंह वह दुर्दांत सैन्य अधिकारी था, जिसे कश्मीर में 'लाशों की खेती' में महारत हासिल थी। ख़ुफ़िया अधिकारी गारसन होबर्ट को भी नौकरी से मुक्त होने के बाद यह भय सताने लगा था कि कहीं वह भी तो नहीं अमरीक सिंह की नियति को प्राप्त होगा। यहाँ हिरोशिमा पर बम गिराने वाले पायलट ‘क्लाड ईथरली’ का स्मरण स्वाभाविक ही है। अरुंधति राय कश्मीरी न होते हुए भी कश्मीर समस्या को जिस ‘इनसाइडर’ निगाहों से देखती हैं, वह परकाया प्रवेश से कम नहीं है। इसीलिए गारसन होबर्ट की ज़ुबानी अरुंधति ‘आजादी’ के नारे को कुछ यूं डिकोड करती हैं, “ यह राजनीतिक मांग से कुछ अधिक था। यह एक गीत, एक मन्त्र, एक प्रार्थना सरीखा था। विडम्बना यह थी – है - कि यदि आप चार कश्मीरियों को एक कमरे में बंद करके उनसे पूछें कि ‘आजादी’ से उनका तात्पर्य क्या है, इसके वैचारिक और भौगोलिक निहितार्थ क्या हैं तो संभवतः वे एक दूसरे का गला काटकर मार डालेंगें... इस कमजोरी का इस समस्या के सभी प्रवक्ताओं ने, विशेषकर हमने (सैन्य तंत्र) निर्ममता से लाभ उठाया है। यह एक पूर्ण युद्ध है – एक युद्ध जिसे कभी जीता या हारा नहीं जा सकता, एक अंतहीन युद्ध”।
‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ में कश्मीर वृतांत की केन्द्रीयता के मूल में भारतीय सत्तातंत्र के उस गैर जनतांत्रिक और सैन्य केन्द्रित स्वरुप का उद्घाटन है जो प्रायः गोपन और अचर्चित रहता है। कश्मीर की घेराबंदी और सेना को राष्ट्रभक्ति का पर्याय बनाए जाने के इस राजनीतिक समय में इस उपन्यास का लिखा जाना किसी कुफ्र से कम नहीं है। अरुंधति राय औपन्यासिक कथ्य में ही इस उपन्यास लिखे जाने का सूत्र कुछ यूं पिरो देती हैं “ मैं ऐसी परिष्कृत कथा लिखना चाहती थी जिसमें यद्यपि अधिक कुछ नहीं घटित होता फिर भी उस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है। लेकिन कश्मीर को लेकर ऐसा नहीं किया जा सकता। यहाँ जो कुछ होता है कतई परिष्कृत नहीं है। यहाँ अच्छे साहित्य के लिए कुछ ज्यादा ही खून है।” सही है रक्तरंजित कथा ‘गुड लिटरेचर’ हो भी नहीं सकती। दरअसल कश्मीर ही नहीं आज के भारत की कथा लिखने के लिए यह चुनौती अरुंधति की ही नहीं, हर लेखक की है कि वह ‘अच्छा साहित्य’ लिखे या रक्तरंजित भारतीय जनतंत्र का क्रिटीक। इसके बावजूद यह उपन्यास वह सब कहे जाने की एक कलात्मक प्राविधि मात्र नहीं है जिसे किसी लेख या रिपोर्ताज में कहा जा सकता था। अरुंधति का मानना है कि “कश्मीर में जो पागलपन चल रहा है, वहाँ की हवा में जो आतंक है, उसे कितने कहाँ मारे गए को महज एक मानवाधिकार दस्तावेज में नहीं समाहित किया जा सकता। फिक्शन के अतिरिक्त और कैसे उस मनोदशा को दर्शाया जा सकता है!” इसके भी आगे जाकर अरुंधति का कहना है कि “ यह देखने का एक नजरिया है, एक प्रार्थना है , एक गान है।”
दरअसल इस नजरिये का ही परिणाम है कि अरुंधति की इस ‘मिनिस्ट्री ..’ में आदिवासी रेवती की भी यातना कथा शामिल है। कामरेड आज़ाद भारतीय को संबोधित पत्र के माध्यम से उपन्यास के दस पृष्ठों में विस्तृत रेवती का वृतांत आंध्र से लेकर बस्तर तक विस्तृत माओवादी संघर्ष और आदिवासियों की भूमिका की एक बानगी प्रस्तुत करता है। बस्तर के जंगल में पुलिस द्वारा बलात्कृत रेवती के गर्भ से पैदा उदया (जबीन) का ‘जन्नत’ के रहवासियों द्वारा अपनाया जाना उत्पीड़ितों की वृहत्तर एकता की चाहत का ही द्योतक है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि यह उपन्यास दुस्वप्न और दिवास्वप्न का वृतांत एक साथ रचता है। बंधी मुट्ठियों के साथ इंटरनेश्नल गाते हुए ‘जन्नत’ की कब्रगाह में लाल झंडे में लिपटे पत्र को रेवती के शव का प्रतीक मानकर दफनाया जाना क्रांतिकारी उम्मीद का ऐसा ही यूटोपिया है। पुलिस की प्रताड़ना के दौरान डा. आज़ाद भारतीय द्वारा बार बार दुहराया गया यह शेर -‘ मर गयी बुलबुल कफस में/ कह गयी सय्याद से/ अपनी सुनहरी गांड़ में/ तू ठूंस ले फस्ल-ए-बहार’ किंचित अशालीनता के बावजूद आक्रोश और उम्मीद की मिश्रित अभिव्यक्ति ही है। इस तरह की
अभिव्यक्तियाँ उपन्यास में कई जगहों पर है, लेकिन सत्ता और प्रतिरोध के जिस मुहावरे में अरुंधति इसे प्रस्तुत करती हैं वह इसकी औचित्य सिद्धि है।
अपने समूचे कथाविन्यास में ‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ आज के भारत में सत्ता द्वारा दमन और हाशिये के समाज के प्रतिरोध को दर्ज करता राजनीतिक मुहावरे में लिखा गया एक राजनीतिक उपन्यास है। इसका मूल्यांकन पारम्परिक निकष पर नहीं किया जा सकता, पिछले दिनों अमिताव घोष ने पर्यावरण असंतुलन और प्राकृतिक विपदा को औपन्यासिक बनाने की चुनौती न स्वीकारने की लेखकों की प्रवृत्ति को प्रश्नांकित किया था। उनका कहना था कि जो मुद्दा समूची दुनिया के लिए एक बड़े संकट के रूप में उपस्थित है ‘उसे यदि साहित्य की कोई विधा विषय के रूप में अपनाने में असमर्थ हैं तो इसे व्यापक कल्पनाशीलता का अभाव और सांस्कृतिक असफलता ही माना जाएगा।’ अकारण नहीं है कि वर्ष 2015 में जब रूसी लेखिका स्वेतलाना अलेक्सिविच की चेर्नाबल परमाणु विकिरण पर लिखित पुस्तक को साहित्य का नोबल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई तो उन्होंने उसे ‘नावेल्स इन वायसेज’ (उपन्यासों की आवाजें) कहलाना पसंद किया था, जबकि वह घोषित रूप से उपन्यास नहीं था। उनका कहना था कि ‘यदि मैं उन्नीसवीं शताब्दी में लिख रही होती तो टालस्टाय या चेखव की तरह उपन्यास ही लिखती, लेकिन आज के समय को लिखने के लिए कथा विधा अपर्याप्त है। लोगों की बहुत सी बातें समझाने में कला असफल रही है।’ अमेरिकी उपन्यासकार फिलिप राथ ने तो 1960 के दशक में ही लिख दिया था कि, “ यथार्थ हमारे कथात्मक सामर्थ्य को लगातार मात दे रहा है और हर दिन संस्कृति के नए रूप किसी भी उपन्यासकार की ईर्ष्या का विषय हैं।”
 |
| advt. |
अपने नए उपन्यास को लिखते हुए अरुंधति भी आज के यथार्थ की चुनौती और उपन्यास विधा की अपर्याप्तता से रूबरू थीं। इसीलिए उन्होंने सतह पर दिखने वाली सच्चाई का विखंडन करते हुए उपन्यास विधा में भी ‘तोड़-फोड़’ की है। यद्यपि यह तोड़-फोड़ उपन्यास के लिए कोई नयी परिघटना नहीं है, हिन्दी में ही इसके उदहारण मौजूद हैं लेकिन ‘दि मिनिस्ट्री ..’ का सन्दर्भ नया है। इसे पढ़ते हुए बेलोरुसी लेखक एलेस एड्मोविच की पुस्तक ‘सीज आफ लेनिनग्राद’ की याद हो आती है जिसे लेखक ने स्वयं ‘कलेक्टिव नावेल’, ‘नावेल ओरेटोरियो’, ‘नावेल इविडेंस’, ‘एपिक कोरस’ आदि कहा है। स्वेतलाना अलेक्सिविच ने इसी नए कथ्य रूप को अपनी विधागत प्रेरणा स्वीकार किया है। चेर्नाबल परमाणु त्रासदी को उन्होंने ‘व्यक्ति की आवाजों के कोरस’ और ‘रोजमर्रा के जीवन के कोलाज़’ के रूप में प्रस्तुत किया है। अरुंधति राय की भी कला-प्रविधि यही है। यद्यपि उन्होंने अपने किसी साक्षात्कार में न तो एलेसएड्मोविच का उल्लेख किया है और न ही स्वेतलाना अलेसिविच का, फिर भी इन तीनों की गद्य-तकनीक के सादृश्य को अनदेखा नहीं किया जा सकता। दरअसल इस उपन्यास में कथेतर गद्य की खूबियों को जिस तरह कथा वृतान्त में पिरोया गया है, वह इसकी सीमा नहीं सामर्थ्य बनकर प्रस्तुत हुआ है।स्वीकार करना होगा कि ‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट हैपीनेस’ धैर्यवान पाठको के लिए है, आस्वादपरक पाठकों के लिए नहीं। तुर्की उपन्यासकार ओरहान पामुक उपन्यास के जिस ‘सिक्रेट सेंटर’(नाभिकेंद्र) की बात करते हैं उस तक पहुँचने के लिए यदि इस उपन्यास के तीन पाठ भी करने पड़ें तो किये जाने चाहिए। पामुक का कहना है कि, “सुगठित उपन्यासों में हर वस्तु का सम्बन्ध हर दूसरी वस्तु से होता है, और संबंधों का यह समूचा संजाल पुस्तक के वातावरण की निर्मिति और नाभिकेंद्र के संकेतन के दोनों कार्य करता है।” अरुंधति राय भी अपने इस उपन्यास को समझने के लिए इसके ‘हर कुछ’ ( एव्रीथिंग) होने का पता देती हैं। वाशिंगटन पोस्ट ने ठीक ही लिखा है कि “‘दि मिनिस्ट्री आफ अटमोस्ट’ का सार संक्षेपीकरण करना गंगा को चाय के प्याले में प्रस्तुत किये जाने सरीखा है”।
पाठक को अरुंधति राय की इस बात का भी याद रखना चाहिए कि “सिर्फ पाठक ही उपन्यास नहीं पढता बल्कि उपन्यास के पात्र भी यहाँ तक कि उसके पशु,पक्षी और पेड़ भी पाठक को पढ़ते हैं।” दरअसल अरुंधति राय ने वही लिखा जो वे लिखना चाहती थीं लेकिन यदि पाठक अपनी रूचि का पढना चाहते हैं तो यह उनकी समस्या है, उपन्यासकार की नहीं। अंत में यह भी कि ‘दि गाड आफ स्माल थिग्स’ की लेखिका का यह कोई नया अवतार न होकर उसका विस्तार है। सच है कि भारतीय साहित्य के लिए अरुंधति राय एक ऐसी परिघटना हैं जो पाठक को लुभाने के साथ -साथ उसकी नींद में सूराख भी करती हैं।
('उपन्यास और देस' पुस्तक में शामिल)
वीरेन्द्र यादव
जन्म : 5 मार्च, 1950; जौनपुर (उ.प्र.)।
लखनऊ विश्वविद्यालय से राजनीतिशास्त्र में एम.ए.। छात्र जीवन से ही वामपंथी बौद्धिक व सांस्कृतिक गतिविधियों में सक्रिय हिस्सेदारी। उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के लम्बे समय तक सचिव एवं ‘प्रयोजन’ पत्रिका का सम्पादन। जान हर्सी की पुस्तक ‘हिरोशिमा’ का अंग्रेज़ी से हिन्दी में अनुवाद। साहित्यिक-सांस्कृतिक विषयों पर पत्र-पत्रिकाओं में विपुल लेखन। प्रेमचन्द सम्बन्धी बहसों और ‘1857’ के विमर्श पर हस्तक्षेपकारी लेखन के लिए विशेष रूप से चर्चित। कई लेखों का अंग्रेज़ी और उर्दू में भी अनुवाद प्रकाशित। ‘राग दरबारी’ उपन्यास पर केन्द्रित विनिबन्ध इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, दिल्ली के एम.ए. पाठ्यक्रम में शामिल। ‘नवें दशक के औपन्यासिक परिदृश्य’ पर विनिबन्ध ‘पहल पुस्तिका’ में प्रकाशित। ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता‘, ‘विवाद नहीं, हस्तक्षेप‘, ‘उपन्यास और देस‘, ‘विमर्श और व्यक्तित्व‘ आदि महत्वपूर्ण कृतियाँ।
सम्मान : आलोचनात्मक अवदान के लिए वर्ष 2001 के ‘देवीशंकर अवस्थी सम्मान’ से समादृत।
सम्पर्क: सी -855, इंदिरा नगर, लखनऊ-226016; ईमेल –virendralitt@gmail.com
मोबाइल - 9415371872
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें