काली मुसहर का बयान

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भारत को नेहरू के बिना नहीं समझ सकते

  बिपिन तिवारी बीसवीं सदी के हिंदुस्तान को समझने के लिए ही नहीं बल्कि वर्तमान को समझने के लिए भी नेहरू की राइटिंग से गुजरना बेहद जरूरी है। इसे आप चाहें तो फौरी तौर पर एक चापलूसी कहकर खारिज कर सकते हैं। वैसा ऐसा कहने वाले आप पहले नहीं होंगे। समाज का बड़ा तबका ऐसा कहेगा। लेकिन यदि आप अपने आपसे एक सवाल पूछें कि क्या आपने नेहरू द्वारा लिखा गया या बोला गया कुछ भी पढ़ा या सुना है, तो आपका उत्तर नहीं होगा। लेकिन आपके मन में नेहरू को लेकर जो घृणास्पद विचार बैठे हैं, वो निकल आएंगे - 'मैंने नेहरू को नहीं पढ़ा है और न ही पढूंगा'। यदि मैं इसका कारण जानना चाहूँ तो आपके पास इसका कोई ठोस उत्तर नहीं है। हाँ, कुछ कुतर्क जरूर हैं। फिर अगला सवाल मैं आपकी राय को लेकर पूछूँ कि आपने बिना नेहरू की राइटिंग पढ़े और उनके भाषणों को सुने बगैर राय बनाई कैसे तो आप इस सवाल का बहुत आसानी से जवाब दे सकते हैं। कई इलेक्ट्रानिक चैनलों के नाम गिना सकते हैं। नेहरू के बारे में अखबार में प्रकाशित लेखों के नाम भी बता सकते हैं। वैसे नेहरू के बारे में हाल के वर्षों में कई चैनलों पर सनसनीखेज खुलासे किए गए हैं। एक युवती के प्...

निधि अग्रवाल की टिप्पणी के साथ अमरकांत की कहानी 'बहादुर'



अमरकांत (1 जुलाई 1925-17 फ़रवरी, 2014) का यह जन्म शताब्दी वर्ष है। उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया ज़िले के नगारा गाँव में और निधन इलाहाबाद में हुआ। वे हिंदी कथा साहित्य में प्रेमचंद के बाद यथार्थवादी धारा के प्रमुख कहानीकार हैं। यशपाल उन्हें 'गोर्की' कहा करते थे। कहानीकार के रूप में उनकी ख्याति सन् 1955 में 'डिप्टी कलेक्टरी' कहानी से हुई। उनकी रचनाएँ हैं: कहानी-संग्रह: 1. ‘जिंदगी और जोंक’ (1958) 2. ‘देश के लोग’ (1964) 3. ‘मौत का नगर’ 4. ‘मित्र-मिलन तथा अन्य कहानियाँ’ 5. ‘कुहासा’ 6. ‘तूफान’ 7. ‘कला प्रेमी’ 8. ‘प्रतिनिधि कहानियाँ’ 9. ‘दस प्रतिनिधि कहानियाँ’ 10. ‘एक धनी व्यक्ति का बयान’ (1997) 11. ‘सुख और दुःख के साथ’ (2002) 12. ‘जांच और बच्चे’ 13. ‘अमरकांत की सम्पूर्ण कहानियाँ’ (दो खंडों में) 14. ‘औरत का क्रोध’ । उपन्यास : 1. ‘सूखा पत्ता’ (1959) 2. ‘काले-उजले दिन’(1969)3. ‘कंटीली रह के फूल’4. ‘ग्रामसेविका’ (1962) 5. ‘पराई डाल का पंछी’बाद में ‘सुखजीवी’(1982) नाम से प्रकाशित 6. ‘बीच की दीवार’ (1981) 7. ‘सुन्नर पांडे की पतोह’ 8. ‘आकाश पक्षी’ (1967)9. ‘इन्हीं हथियारों से’ 10. ‘विदा की रात’ 11. लहरें। ‘ख़बर का सूरज आकाश में’ (पत्रकार जीवन पर आधारित अधूरा उपन्यास)। संस्मरण: 1. ‘कुछ यादें, कुछ बातें’ (2008) 2. ‘दोस्ती’ । बाल साहित्य : 1. ‘नेऊर भाई’ 2. ‘वानर सेना’ 3. ‘खूँटा में दाल है’ 4. ‘सुग्गी चाची का गाँव’ 5. ‘झगरू लाल का फैसला’6. ‘एक स्त्री का सफर’ 7.‘मँगरी’ 8. ‘बाबू का फ़ैसला’ 9. दो हिम्मती बच्चे । उनको मिले पुरस्कारों में वर्ष 2009 के लिए 45वां ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’, ‘सोवियत लैण्ड नेहरू पुरस्कार’, महात्मा गाँधी सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार, उ. प्र. हिन्दी संस्थान का साहित्य पुरस्कार, यशपाल पुरस्कार, जन संस्कृति सम्मान, मध्य प्रदेश का कीर्ति सम्मान और बलिया के 1942 के स्वतन्त्रता (भारत छोड़ो) आन्दोलन को आधार बना कर लिखे गये इनके उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ को वर्ष 2007 का प्रतिष्ठित ‘साहित्य अकादमी सम्मान’ मिला। 

बहादुर : कहानी एक रात की

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- निधि अग्रवाल

निर्मला बहुत पतली-पतली रोटियाँ सेंकती थी, इसलिए वह रोटी बनाने का काम कभी बहादुर से नहीं लेती थी, लेकिन मुहल्ले की किसी औरत ने उसे यह सिखा दिया कि महीन खाने से उनकी आदत बिगड़ जाती है।
रात में उसने ऐसा ही प्रयोग किया। वह अपनी रोटियाँ बनाकर चौके में से उठ गई। बहादुर का मुँह उतर गया। 
'क्या हो गया, रे?' निर्मला ने पूछा।
वह कुछ नहीं बोला।
'चल, चुपचाप बना अपनी रोटियाँ। तू सोचता है कि मैं तुझे पतली-पतली, नरम-नरम रोटियाँ सेंककर खिलाऊँगी? 
'मैं नहीं बनाऊँगा... मेरी माँ भी सारे घर की रोटियाँ बनाकर मुझसे रोटी सेंकवाती थी।' वह रोने लगा था।
'तो क्या मैं तेरी माँ हूँ कि तू मुझसे जिद कर रहा है? 
पर उसने अपने लिए रोटी नहीं बनाई। रात भर वह भूखा ही रहा। पर सबेरे उठकर वह पहले की तरह ही हँसने लगा। उसने अँगीठी जला कर अपने लिए रोटियाँ सेंकी। अपनी बनाई मोटी और भद्दी रोटियों को देखकर वह खिलखिलाने लगा। फिर रात की बची हुई सब्जी से उसने खाना खा लिया।
          ये पंक्तियाँ हैं अमरकांत द्वारा रचित 'बहादुर' कहानी की। वह बहादुर, जो सवेरे ही उठकर  बाहर नीम के पेड़ से दातून तोड़ लाता था। घर की सफाई करता, कमरों में पोंछा लगाता, अँगीठी जलाता, चाय बनाता और पिलाता। समय होने पर हाथ धोकर भालू की तरह दौड़ता हुआ कमरे में जाता और दवाई का डिब्बा निर्मला के सामने-लाकर रख देता। 'बहादुर, एक गिलास पानी।' 'बहादुर पेन्सिल नीचे गिरी है, उठाना।' जैसी पुकारों पर फिरकी की तरह नाचता रहता। जो किशोर से मार खाकर  एक कोने में खड़ा हो जाता - चुपचाप। वह बहादुर अपनी दो रोटियाँ स्वयं न बनाने के लिए ज़िद पर अड़ जाता है। वह रात भर भूखा रहता है लेकिन सुबह उठकर अपने लिए रोटी बनाता है और उन्हें देख पूर्ववत हँसता है।
         अमरकांत ने इस रात के विषय में कुछ लिखा नहीं लेकिन पाठक के मन में यह रात किसी फाँस सी फँसी रहती है। एक बच्चा जो अपनी माँ से मार खा कर घर छोड़ आया है। वह पूरे दिन मेहनत से काम करता है क्योंकि जब मालकिन स्वयं उसे अपने हाथों से बनाकर खाना खिलाती है, तो उसका अबोध मन माँ का स्नेह पा जाता है। जब निर्मला उसके लिए रोटी बनाने से मना कर देती है, वह संताप से भर उठता है। यह रात यथार्थ स्वीकार्यता की विकल रात है। जिस स्नेह पर, ममत्व पर वह अपना अधिकार समझ बैठा है, दरसल वह उसका है ही नहीं। कुछ पा कर खोने का दुख है या उससे भी बड़ा दुख कि पाया नहीं था, पाने का भ्रम हुआ था। और इस छद्म अनुभूति के बदले उसने अपना निर्मल हृदय सौंप दिया था। इस असीम वेदना को पार कर जब वह इस कटु सत्य को स्वीकार लेता है। उसे कोई अपेक्षा नहीं रहती। वह अपना भोजन स्वयं बनाता है और हँसता है। स्वीकार करने की यह प्रक्रिया जटिलता और अवर्णनीय त्रास से भरी है। शायद वह लेटा रहा होगा इस आस में कि अभी निर्मला आएगी उसके लिए थाली लिए। शायद उसे आस रही होगी कि साहब ज़रूर निर्मला को कहेंगे उसे खाना खिलाने के लिए। शायद उसे लगा होगा दीदी और भैया तो अवश्य ही पिघलेंगे। एक पुकार की आस में वह मासूम नींद को परे धकेलता रहा होगा। पुकार न पाने पर अपनी माँ और भाग्य को कोसता होगा। और फिर पूरी रात बीत जाने पर पुकार का न महत्व बचा होगा न आस। वह समझ लेता है कि जो अपना है ही नहीं, उसके लिए क्या शोक? वह उठता है अपनी रोटियाँ स्वयं बनाता है और अपनी अप्रवीणता पर स्वयं ही विषादरहित हँसी हँसता हुआ रात की बची सब्जी से उन्हें खा लेता है।
         यह केवल विषाद का अंत नहीं है बल्कि इस विषाद के अंत के साथ भीतर बैठा इंसान भी अंत को प्राप्त होता है। एक संवेदनशील भावुक हृदय पाषाण बनता जाता है। ऐसा पाषाण, जिसे फिर किसी की भी आस्था भगवान नहीं बना पाती। 
         अमरकांत की कहानी में बहादुर चोरी के इल्जाम से आहत हो घर से चला जाता है। निश्चित ही वह फिर एक रात जागा होगा। 
          और ऐसी कई रातें मिलकर उसे एक नया बहादुर बना देंगी।
         यह नया बहादुर निर्मला को दवाई नहीं देगा बल्कि किसी दिन उसका गला काट सच ही चोरी कर भाग जाएगा। इस बहादुर को देख आप अपने बच्चों को असुरक्षित महसूस करेंगे। यह बहादुर ठीक उसी दिन छुट्टी लेगा जब आपको उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत होगी। पढ़ते हुए यह आपको अतिश्योक्ति लग सकता है किंतु आस टूटने पर विषाद का भी मर जाना धीमे-धीमे पूरे समाज से इंसानियत को मार देता है। बहादुर यह बात समझता है। वह अपनी रोटियों के भद्देपन पर नहीं हँसता। वह समाज की मानसिकता के भद्देपन पर हँसता है।
         और इसे बस बहादुर के संदर्भ में न समझिए। रिश्ते कोई भी हो सकते हैं। नींद किसी भी पक्ष से रूठ सकती है। महत्व उस रात का है जो एक पुकार की आस में उपासी बिताई गई। महत्व उस सुबह का है जिसमें हम जागते है तो वह नहीं रहे होते जो पिछली रात सोए थे।
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बहादुर


- अमरकांत


सहसा मैं काफी गंभीर था, जैसा कि उस व्यक्ति को हो जाना चाहिए, जिस पर एक भारी दायित्व आ गया हो। वह सामने खड़ा था और आँखों को बुरी तरह मटका रहा था। बारह-तेरह वर्ष की उम्र। ठिगना शरीर, गोरा रंग और चपटा मुँह। वह सफेद नेकर, आधी बाँह की ही सफेद कमीज और भूरे रंग का पुराना जूता पहने था। उसके गले में स्काउटों की तरह एक रूमाल बँधा था। उसको घेरकर परिवार के अन्य लोग खड़े थे। निर्मला चमकती दृष्टि से कभी लड़के को देखती और कभी मुझको और अपने भाई को। निश्चय ही वह पंच बराबर हो गई थी।
         उसको लेकर मेरे साले साहब आए थे। नौकर रखना कई कारणों से बहुत जरूरी हो गया था। मेरे सभी भाई और रिश्तेदार अच्छे ओहदों पर थे और उन सभी के यहाँ नौकर थे। मैं जब बहन की शादी में घर गया तो वहाँ नौकरों का सुख देखा। मेरी दोनों भाभियाँ रानी की तरह बैठकर चारपाइयाँ तोड़ती थीं, जबकि निर्मला को सबेरे से लेकर रात तक खटना पड़ता था। मैं ईर्ष्या से जल गया। इसके बाद नौकरी पर वापस आया तो निर्मला दोनों जून 'नौकर-चाकर' की माला जपने लगी। उसकी तरह अभागिन और दुखिया स्त्री और भी कोई इस दुनिया में होगी? वे लोग दूसरे होते हैं, जिनके भाग्य में नौकर का सुख होता है...
         पहले साले साहब से असाधारण विस्तार से उसका किस्सा सुनना पड़ा। वह एक नेपाली था, जिसका गाँव नेपाल और बिहार की सीमा पर था। उसका बाप युद्ध में मारा गया था और उसकी माँ सारे परिवार का भरण-पोषण करती थी। माँ उसकी बड़ी गुस्सैल थी और उसको बहुत मारती थी। माँ चाहती थी कि लड़का घर के काम-धाम में हाथ बटाए, जबकि वह पहाड़ या जंगलों में निकल जाता और पेड़ों पर चढ़कर चिड़ियों के घोंसलों में हाथ डालकर उनके बच्चे पकड़ता या फल तोड़-तोड़कर खाता। कभी-कभी वह पशुओं को चराने के लिए ले जाता था। उसने एक बार उस भैंस को बहुत मारा, जिसको उसकी माँ बहुत प्यार करती थी, और इसीलिए उससे वह बहुत चिढ़ता था। मार खाकर भैंस भागी-भागी उसकी माँ के पास चली गई, जो कुछ दूरी पर एक खेत में काम कर रही थी। माँ का माथा ठनका। बेचारा बेजबान जानवर चरना छोड़कर यहाँ क्यों आएगा? जरूर लौंडे ने उसको काफी मारा है। वह गुस्से-से पागल हो गई। जब लड़का आया तो माँ ने भैंस की मार का काल्पनिक अनुमान करके एक डंडे से उसकी दुगुनी पिटाई की और उसको वहीं कराहता हुआ छोड़कर घर लौट आई। लड़के का मन माँ से फट गया और वह रात भर जंगल में छिपा रहा। जब सबेरा होने को आया तो वह घर पहुँचा और किसी तरह अंदर चोरी-चुपके घुस गया। फिर उसने घी की हंडिया में हाथ डाल कर माँ के रखे रुपयों में से दो रुपये निकाल लिए। अंत में नौ-दो ग्यारह हो गया। वहाँ से छह मील की दूरी पर बस स्टेशन था, जहाँ गोरखपुर जाने वाली बस मिलती थी।
         'तुम्हारा नाम क्या है, जी?' मैंने पूछा।
         'दिल बहादुर, साहब।'
       उसके स्वर में एक मीठी झनझनाहट थी। मुझे ठीक-ठीक याद नहीं कि मैंने उसको क्या हिदायतें दी थीं। शायद यह कि शरारतें छोड़कर ढंग से काम करे और इस घर को अपना घर समझे। इस घर में नौकर-चाकर को बहुत प्यार और इज्जत से रखा जाता है। अगर वह यहाँ रह गया तो ढंग-शऊर सीख जाएगा, घर के और लड़कों की तरह पढ़-लिख जाएगा और उसकी जिंदगी सुधर जाएगी। निर्मला ने उसी समय कुछ व्यावहारिक उपदेश दे डाले थे। इस मुहल्ले में बहुत तुच्छ लोग रहते हैं, वह न किसी के यहाँ जाए और न किसी का काम करे। कोई बाजार से कुछ लाने को कहे तो वह 'अभी आता हूँ', कहकर अंदर खिसक जाए। उसको घर के सभी लोगों से सम्मान और तमीज से बोलना चाहिए। और भी बहुत-सी बातें। अंत में निर्मला ने बहुत ही उदारतापूर्वक लड़के के नाम में से 'दिल' शब्द उड़ा दिया।
         परंतु बहादुर बहुत ही हँसमुख और मेहनती निकला। उसकी वजह से कुछ दिनों तक हमारे घर में वैसा ही उत्साहपूर्ण वातावरण छाया रहा, जैसा कि प्रथम बार तोता-मैना या पिल्ला पालने पर होता है। सबेरे-सबेरे ही मुहल्ले के छोटे-छोटे लड़के घर के अंदर आकर खड़े हो जाते और उसको देखकर हँसते या तरह-तरह के प्रश्न करते। 'ऐ, तुम लोग छिपकली को क्या कहते हो?' 'ऐ, तुमने शेर देखा है?' ऐसी ही बातें। उससे पहाड़ी गाने की फरमाइशें की जातीं। घर के लोग भी उससे इसी प्रकार की छेड़खानियाँ करते थे। वह जितना उत्तर देता था, उससे अधिक हँसता था। सबको उसके खाने और नाश्ते की बड़ी फिक्र रहती।
         निर्मला आँगन में खड़ी होकर पड़ोसियों को सुनाते हुए कहती थी - 'बहादुर आकर नाश्ता क्यों नहीं कर लेते? मैं दूसरी औरतों की तरह नहीं हूँ, जो नौकर-चाकर को तलती-भूनती हैं। मैं तो नौकर-चाकर को अपने बच्चे की तरह रखती हूँ। उन्होंने तो साफ-साफ कह दिया है कि सौ-डेढ़ सौ महीनाबारी उस पर भले ही खर्च हो जाय, पर तकलीफ उसको जरा भी नहीं होनी चाहिए। एक नेकर-कमीज तो उसी रोज लाए थे... और भी कपड़े बन रहे हैं...'
         धीरे-धीरे वह घर के सारे काम करने लगा। सबेरे ही उठकर वह बाहर नीम के पेड़ से दातून तोड़ लाता था। वह हाथ का सहारा लिए बिना कुछ दूर तक तने पर दौड़ते हुए चढ़ जाता। मिनट भर में वह पेड़ की पुलई पर नजर आता। निर्मला छाती पीटकर कहती थी - 'अरे रीछ-बंदर की जात, कहीं गिर गया तो बड़ा बुरा होगा'। वह घर की सफाई करता, कमरों में पोंछा लगाता, अँगीठी जलाता, चाय बनाता और पिलाता। दोपहर में कपड़े धोता और बर्तन मलता। वह रसोई बनाने की भी ज़िद करता, पर निर्मला स्वयं सब्जी और रोटी बनाती। निर्मला की उसको बहुत फिक्र रहती थी। उसकी उन दिनों तबीयत ठीक नहीं रहती थी, इसलिए वह कुछ दवा ले रही थी। बहादुर उसको कोई काम करते देखकर कहता था - 'माता जी, मेहनत न करो, तकलीफ बड़ जाएगा।' वह कोई भी काम करता होता, समय होने पर हाथ धोकर भालू की तरह दौड़ता हुआ कमरे में जाता और दवाई का डिब्बा निर्मला के सामने-लाकर रख देता।
         जब मैं शाम को दफ्तर से आता तो घर के सभी लोग मेरे पास आकर दिन भर के अपने अनुभव सुनाते थे। बाद में वह भी आता था। वह एक बार मेरी ओर देखकर सिर झुका लेता और धीरे-धीरे मुस्कराने लगता। वह कोई बहुत ही मामूली घटना की रिपोर्ट देता - 'बाबू जी, बहिन जी का एक सहेली आया था।' या 'बाबू जी, भैया सिनेमा गया था।' इसके बाद वह इस तरह हँसने लगता था, गोया बहुत ही मजेदार बात कह दी हो। उसकी हँसी बड़ी कोमल और मीठी थी, जैसे फूल की पंखुड़ियाँ बिखर गई हों। मैं उससे बातचीत करना चाहता था, पर ऐसी इच्छा रहते हुए भी मैं जान-बूझकर बहुत गंभीर हो जाता था और दूसरी ओर देखने लगता था।
         निर्मला कभी-कभी उससे पूछती थी - 'बहादुर, तुमको अपनी माँ की याद आती है?'
         'नहीं।'
         'क्यों?'
         'वह मारता क्यों था?' इतना कहकर वह खूब हँसता था, जैसे मार खाना खुशी की बात हो।
         'तब तुम अपना पैसा माँ के पास कैसे भेजने को कहते हो?'
         'माँ-बाप का कर्जा तो जन्म भर भरा जाता है' वह और भी हँसता था।
       निर्मला ने उसको एक फटी-पुरानी दरी दे दी थी। घर से वह एक चादर भी ले आया था। रात को काम-धाम करने के बाद वह भीतर के बरामदे में एक टूटी हुई बँसखट पर अपना बिस्तर बिछाता था। वह बिस्तरे पर बैठ जाता और अपनी जेब में से कपड़े की एक गोल-सी नेपाली टोपी निकालकर पहन लेता, जो बाईं ओर काफी झुकी रहती थी। फिर वह एक छोटा-सा आईना निकालकर बंदर की तरह उसमें अपना मुँह देखता था। वह बहुत ही प्रसन्न नजर आता था। इसके बाद कुछ और भी चीजें उसकी जेब से निकलकर उसके बिस्तरे पर सज जाती थीं - कुछ गोलियाँ, पुराने ताश की एक गड्डी, कुछ खूबसूरत पत्थर के टुकड़े, ब्लेड, कागज की नावें। वह कुछ देर तक उनसे खेलता था। उसके बाद वह धीमे-धीमे स्वर में गुनगुनाने लगता था। उन पहाड़ी गानों का अर्थ हम समझ नहीं पाते थे, पर उनकी मीठी उदासी सारे घर में फैल जाती, जैसे कोई पहाड़ की निर्जनता में अपने किसी बिछुड़े हुए साथी को बुला रहा हो।
         दिन मजे में बीतने लगे। बरसात आ गई थी। पानी रुकता था और बरसता था। मैं अपने को बहुत ऊँचा महसूस करने लगा था। अपने परिवार और संबंधियों के बड़प्पन तथा शान-बान पर मुझे सदा गर्व रहा है। अब मैं मुहल्ले के लोगों को पहले से भी तुच्छ समझने लगा। मैं किसी से सीधे मुँह बात नहीं करता। किसी की ओर ठीक से देखता भी नहीं था। दूसरे के बच्चों को मामूली-सी शरारत पर डाँट-डपट देता। कई बार पड़ोसियों को सुना चुका था - 'जिसके पास कलेजा है, वही आजकल नौकर रख सकता है। घर के सवांग की तरह रहता है।' निर्मला भी सारे मुहल्ले में शुभ सूचना दे आई थी - 'आधी तनखाह तो नौकर पर ही खर्च हो रही है, पर रुपया-पैसा कमाया किसलिए जाता है? ये तो कई बार कह ही चुके थे कि तुम्हारे लिए दुनिया के किसी कोने से नौकर जरूर लाऊँगा... वही हुआ।'
         निस्संदेह बहादुर की वजह से सबको खूब आराम मिल रहा था। घर खूब साफ और चिकना रहता। कपड़े चमाचम सफेद। निर्मला की तबीयत भी काफी सुधर गई। अब कोई एक खर भी न टकसाता था। किसी को मामूली-से-मामूली काम करना होता तो वह बहादुर को आवाज देता। 'बहादुर, एक गिलास पानी।' 'बहादुर पेन्सिल नीचे गिरी है, उठाना।' इसी तरह की फरमाइशें! बहादुर घर में फिरकी की तरह नाचता रहता। सभी रात में पहले ही सो जाते थे और सबेरे आठ बजे के पहले न उठते थे।
         मेरा बड़ा लड़का किशोर काफी शान-शौकत और रोब-दाब से रहने का कायल था और उसने बहादुर को अपने कड़े अनुशासन में रखने की आवश्यकता महसूस कर ली थी। फलतः उसने अपने सभी काम बहादुर को सौंप दिए। सबेरे उसके जूते में पालिश लगनी चाहिए। कालेज जाने के ठीक पहले साइकिल की सफाई जरूरी थी। रोज ही उसके कपड़ों की धुलाई और इस्तरी होनी चाहिए। और रात में सोते समय वह नित्य बहादुर से अपने शरीर की मालिश कराता और मुक्की भी लगवाता। पर इतनी सारी फरमाइशों की पूर्ति में कभी-कभी कोई गड़बड़ी भी हो जाती। जब ऐसा होता, किशोर गर्जन-तर्जन करने लगता, उसको बुरी-बुरी गालियाँ देता और उस पर हाथ छोड़ देता। मार खाकर बहादुर एक कोने में खड़ा हो जाता - चुपचाप।
         'देख बे', किशोर चेतावनी देता - 'मेरा काम सबसे पहले होना चाहिए। अगर एक काम भी छूटा तो मारते-मारते हुलिया टाइट कर दूँगा। साला, कामचोर, करता क्या है तू? बैठा-बैठा खाता है।'
         रोज ही कोई-कोई ऐसी बात होने लगी, जिसकी रिपोर्ट पत्नी मुझे देती थी। मैंने किशोर को मना किया, पर वह नहीं माना तो मैंने यह सोचकर छोड़ दिया कि थोड़ा-बहुत तो यह चलता ही रहता है। फिर एक हाथ से ताली कहाँ बजती है? बहादुर भी बदमाशी करता होगा। पर एक दिन जब मैं दफ्तर से आया तो मैंने किशोर को एक डंडे से बहादुर की पिटाई करते हुए देखा। निर्मला कुछ दूरी पर खड़ी होकर 'हाँ-हाँ' कहती हुई मना कर रही थी।
         मैंने किशोर को डाँट कर अलग किया। कारण यह था कि शाम को साइकिल की सफाई करना बहादुर भूल गया था। किशोर ने उसको मारा तथा गालियाँ दीं तो उसने उसका काम करने से ही इनकार कर दिया।
         'तुम साइकिल साफ क्यों नहीं करते?' मैंने उससे कड़ाई से पूछा।
          'बाबूजी, भैया ने मेरे बाप को क्यों लाकर खड़ा किया?' वह रोते हुए बोला।
         मैं जानता था कि किशोर उसको और भी भद्दी गालियाँ देता था, लेकिन आज उसने 'सूअर का बच्चा' कहा था, जो उसे बरदाश्त न हुआ। निस्संदेह वह गाली उसके बाप पर पड़ती थी। मुझे कुछ हँसी आ गई। खैर, किशोर के व्यवहार को अच्छा नहीं कहा जा सकता, पर गृहस्वामी होने के कारण मुझ पर कुछ और गंभीर दायित्व भी थे।
         मैंने उसे समझाया - 'बहादुर, ये आदतें ठीक नहीं। तुम ठीक से काम करोगे तो तुमको कोई कुछ भी नहीं कहेगा। मेहनत बहुत अच्छी चीज है, जो उससे बचने की कोशिश करता है, वह कुछ भी नहीं कर सकता। रूठना-फूलना मुझे सख्त नापसंद है। तुम तो घर के लड़के की तरह हो। घर के लड़के मार नहीं खाते? हम तुमको जिस सुख-आराम से रखते हैं, वह कोई क्या रखेगा? जाकर दूसरे घरों में देखो तो पता लगे। नौकर-चाकर भर पेट भोजन के लिए तरसते रहते हैं। चलो, सब खत्म हुआ, अब काम-धाम करो...'
         वह चुपचाप सुनता रहा। फिर हाथ-मुँह धोकर काम करने लगा। जल्दी वह प्रसन्न भी हो गया। रात में सोते समय वह अपनी टोपी पहन कर देर तक गाता रहा।
         लेकिन कुछ दिनों बाद एक और भी गड़बड़ी शुरू हुई। निर्मला बहुत पतली-पतली रोटियाँ सेंकती थी, इसलिए वह रोटी बनाने का काम कभी बहादुर से नहीं लेती थी, लेकिन मुहल्ले की किसी औरत ने उसे यह सिखा दिया कि परिवार के लिए रोटियाँ बनाने के बाद वह बहादुर से कहे कि वह अपनी रोटी खुद बना लिया करे, नहीं तो नौकर-चाकर की आदत खराब हो जाती है, महीन खाने से उनकी आदत बिगड़ जाती है।
         यह बात निर्मला को जँच गई थी और रात में उसने ऐसा ही प्रयोग किया। वह अपनी रोटियाँ बनाकर चौके में से उठ गई। बहादुर का मुँह उतर गया। वह चूल्हे के पास सिर झुकाकर चुपचाप खड़ा रहा।
         'क्या हो गया, रे?' निर्मला ने पूछा।
          वह कुछ नहीं बोला।
       'चल, चुपचाप बना अपनी रोटियाँ। तू सोचता है कि मैं तुझे पतली-पतली, नरम-नरम रोटियाँ सेंककर खिलाऊँगी? तू कोई घर का लड़का है? नौकर-चाकर तो अपना बनाकर खाते ही रहते हैं। तीता तो इनको इसलिए लग रहा है कि सारे घर के लिए मैंने रोटियाँ बनाईं, इनको अलग करके इनके साथ भेद क्यों किया? वाह रे, इसके पेट में तो लंबी दाढ़ी है! समझ जा, रोटियाँ नहीं सेंकेगा तो भूखा रहेगा।'
         पर बहादुर उसी तरह खड़ा रहा तो निर्मला का गुस्से से बुरा हाल हो गया। उसने लपककर उसके गाल पर दो-तीन थप्पड़ जड़ दिए - 'सूअर कहीं के! इसीलिए तुझे किशोर मारता है। इसी वजह से तेरी माँ भी मारती होगी। चल, बना रोटी...'
         'मैं नहीं बनाऊँगा... मेरी माँ भी सारे घर की रोटियाँ बनाकर मुझसे रोटी सेंकवाती थी।' वह रोने लगा था।
         'तो क्या मैं तेरी माँ हूँ कि तू मुझसे जिद कर रहा है? घर के लड़कों के बराबर बन रहा है? मारते-मारते मुँह रँग दूँगी।'
         पर उसने अपने लिए रोटी नहीं बनाई। मुझे भी बड़ा गुस्सा आया। मैंने उसको डाँटा और समझाया। पर वह नहीं माना। रात भर वह भूखा ही रहा।
         पर सबेरे उठकर वह पहले की तरह ही हँसने लगा। उसने अँगीठी जला कर अपने लिए रोटियाँ सेंकी। अपनी बनाई मोटी और भद्दी रोटियों को देखकर वह खिलखिलाने लगा। फिर रात की बची हुई सब्जी से उसने खाना खा लिया।
         लेकिन निर्मला का भी हाथ खुल गया था। वह उससे कुछ चिढ़ भी गई थी। अब बहादुर से कोई भी गलती होती तो वह उस पर हाथ चला देती। उसको मारने वाले अब घर में दो व्यक्ति हो गए थे और कभी-कभी एक गलती के लिए उसको दोनों मारते।
         बरसात बीत गई थी। आकाश दर्पण की तरह स्वच्छ दिखाई देता। मैंने बहादुर की माँ के पास चिट्ठी लिखी थी कि उसका लड़का मेरे पास मजे में है और मैं उसकी तनख्वाह के पैसे उसके पास भेज दिया करूँगा, लेकिन कई महीने के बाद भी उधर से कोई जवाब नहीं आया था। मैंने बहादुर से कह दिया था कि उसका पैसा यहाँ जमा रहेगा, जब वह घर जाएगा तो लेता जाएगा।
         पर अब बहादुर से भूल-गलतियाँ अधिक होने लगी थीं। शायद इसका कारण मारपीट और गाली-गलौज हो। मैं कभी-कभी इसको रोकना चाहता, फिर यह सोचकर चुप लगा जाता कि नौकर-चाकर तो मार-पीट खाते ही रहते हैं।
         एक दिन रविवार को मेरी पत्नी के एक रिश्तेदार आए। वह बीवी-बच्चों के साथ थे। वह अपने किसी खास संबंधी के यहाँ आए थे तो यहाँ भी भेंट-मुलाकात करने के लिए चले आए थे। घर में बड़ी चहल-पहल मच गई। मैं बाजार से रोहू मछली और देहरादूनी चावल ले आया। नाश्ता-पानी के बाद बातों की जलेबी छनने लगी। पर इसी समय एक घटना हो गई।
         अचानक उस रिश्तेदार की पत्नी नीचे फर्श पर झुककर देखने लगी। फिर उन्होंने चारपाई के अंदर झाँककर देखा। अंत में कमरे के अंदर गईं और फर्श पर पड़े हुए कागजों को उठाकर जाँच-पड़ताल करने लगीं।
         'क्या बात है?' मैंने पूछा।
        रिश्तेदार की पत्नी जबरदस्ती मुस्कराकर मजबूरी में सिर हिलाते हुए बोली - 'क्या बताएँ... ग्यारह रुपये साड़ी के खूँट से निकालकर यहीं चारपाई पर रखे... पर वे मिल नहीं रहे हैं...'
         'आपको ठीक याद है न...'
         'हाँ-हाँ खूब अच्छी तरह याद है। ये रुपये मैंने खूँट में बाँधकर रखे थे... रिक्शेवाले को देने के लिए खूँट खोला ही था, फिर वे रुपये चारपाई पर रख दिए थे कि चार रुपये की मिठाई मँगा लूँगी और कुछ बच्चों के हाथ पर रख दूँगी। रास्ते में कोई ढंग की दुकान नहीं मिली थी, नहीं तो उधर से ही लाती। किसी के यहाँ खाली-हाथ जाने में अच्छा भी नहीं लगता। बताइए, अब तो मैं कहीं की न रही - फिर मेरी ओर झुककर धीमे स्वर में कहा था - जरा उससे पूछिए न! वह इधर आया था। कुछ देर तक वह यहाँ खड़ा रहा, फिर तेजी से बाहर चला गया था।
         'अरे नहीं, वो ऐसा नहीं है', मैंने कहा।
         'यू डू नाट नो दीज पीपुल आर एक्सपर्ट इन दिस आर्ट' रिश्तेदार ने कहा। मैंने बहादुर की ओर तिरछी दृष्टि से देखा। वह सिर झुका कर आटा गूँथ रहा था। उसके चेहरे पर संतुष्टि एवं प्रफुल्लता थी। उसने ऐसा काम तो कभी नहीं किया, बल्कि जब कभी उसने दो-चार आने इधर-उधर पड़े देखे तो उठाकर निर्मला के हाथ में दे दिए थे। पर किसी के दिल की बात कोई कैसे जान सकता है? न मालूम अचानक मुझे क्या हो गया और मैं गुस्से में आ गया।
         'बहादुर!' - मैंने कड़े स्वर में कहा।
         'जी, बाबू जी।'
          'इधर आओ।'
          वह आकर खड़ा हो गया।
          'तुमने यहाँ से रुपये उठाए थे?'
         'जी नहीं, बाबूजी', उसने निर्भय उत्तर दिया।
         'ठीक बताओ... मैं बुरा नहीं मानूँगा।'
          'नहीं बाबूजी। मैं लेता तो बता देता।'
         'तुम यहाँ खड़े नहीं थे?' - रिश्तेदार की पत्नी ने कहा 'फिर तेजी से बाहर चले गए थे। देखो भैया, सच-सच बता दो। मिठाई खरीदने और बच्चों को देने के लिए ये रुपये रखे थे। मैं तो बुरी फँसी। अब वापस जाने के लिए रिक्शे के भी पैसे नहीं।'
         'मैं तो बाहर नमक लेने गया था।'
         'सच-सच बता बहादुर! अगर नहीं बताएगा तो बहुत पीटूँगा और पुलिस के सुपुर्द कर दूँगा।' मैं चिल्ला पड़ा।
         'मैंने नहीं लिया, बाबूजी।' - बहादुर का मुँह काला पड़ गया था।
         पता नहीं मुझे क्या हो गया। मैंने सहसा उछलकर उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया। मैं आशा कर रहा था कि ऐसा करने से वह बता देगा। तमाचा खाकर वह गिरते-गिरते बचा। उसकी आँखों से आँसू गिरने लगा।
         'मैंने नहीं लिया...'
       इसी समय रिश्तेदार साहब ने एक अजीब हरकत की - 'अच्छा छोड़िए, इसको पुलिस के पास ले जाता हूँ।' इतना कहकर उन्होंने बहादुर का हाथ पकड़ लिया और उसको दरवाजे की ओर घसीटकर ले गए। पर दरवाजे के पास उससे धीरे-से बोले - 'देखो, तुम मुझे बता दो... मैं कुछ नहीं करूँगा, बल्कि तुमको इनाम में दो रुपये दे दूँगा।'
पर बहादुर ने इनकार कर दिया। इसके बाद रिश्तेदार साहब दो-तीन बार उसको दरवाजे की ओर खींचकर ले गए, जैसे पुलिस को देने ही जा रहे हैं। लेकिन आगे बढ़कर वह रुक जाते और उससे धीमे-धीमे शब्दों में पूछ-ताछ करने लगते।
         अंत में हारकर उन्होंने उसको छोड़ दिया और वापस आकर चारपाई पर बैठते हुए हँसकर बोले - 'जाने दीजिए... ये सब बड़े घाघ होते हैं। किसी झाड़ी-वाड़ी में छिपा आया होगा या जमीन में गाड़ आया होगा। मैं तो इन सबों को खूब जानता हूँ। भालू-बंदर से कम थोड़े होते हैं ये। चलिए, इतना नुकसान लिखा था।'
         इसके बाद निर्मला ने भी उसको डराया-धमकाया और दो-चार तमाचे जड़ दिए, पर वह 'नहीं-नहीं' करता रहा।
         इस घटना के बाद बहादुर काफी डाँट-मार खाने लगा। घर के सभी लोग उसको कुत्ते की तरह दुरदुराया करते। किशोर तो जैसे उसकी जान के पीछे पड़ गया था। वह उदास रहने लगा और काम में लापरवाही करने लगा।
एक दिन मैं दफ्तर से विलंब से आया। निर्मला आँगन में चुपचाप सिर पर हाथ रखकर बैठी थी। अन्य लड़कों का पता नहीं था, लेकिन लड़की अपनी माँ के पास खड़ी थी। अँगीठी अभी नहीं जली थी। आँगन गंदा पड़ा था। बर्तन बिना मले हुए रखे थे। सारा घर जैसे काट रहा था।
         'क्या बात है?' मैंने पूछा।
         'बहादुर भाग गया।'
         'भाग गया। क्यों?'
        'पता नहीं। आज तो कुछ हुआ भी नहीं था। सबेरे से ही बड़ा प्रसन्न था। हमेशा माताजी माताजी, किए रहा। दोपहर में खाना खाया। उसके बाद आँगन से सिल-बट्टा लेकर बरामदे में रखने जा रहा था कि सिल हाथ से छूटकर गिर गई और दो टुकड़े हो गई। शायद इसी डर से वह भाग गया कि लोग मारेंगे। पर मैं इसके लिए उसको थोड़े कुछ कहती? क्या बताऊँ, मेरी किस्मत में आराम ही नहीं…'
         'कुछ ले गया?'
        'यही तो अफसोस है। कोई भी सामान नहीं ले गया है। उसके कपड़े, उसका बिस्तर, उसके जूते - सभी छोड़ गया है। पता नहीं उसने हमें क्या समझा? अगर वह कहता तो मैं उसे रोकती थोड़े? बल्कि उसको खूब अच्छी तरह पहना-ओढ़ाकर भेजती, हाथ में उसकी तनख्वाह के रुपये रख देती। दो-चार रुपये और अधिक दे देती। पर वह तो कुछ ले ही नहीं गया...'
        'और वे ग्यारह रुपये?'
       'अरे वह सब झूठ है। मैं तो पहले ही जानती थी कि वे लोग बच्चों को कुछ देना नहीं चाहते, इसलिए अपनी गलती और लाज छिपाने के लिए यह प्रपंच रच रहे हैं। उन लोगों को क्या मैं जानती नहीं? कभी उनके रुपये रास्ते में गुम हो जाते हैं... कभी वे गलती से घर ही छोड़ आते हैं। मेरे कलेजे में तो जैसे कुछ हौड़ रहा है। किशोर को भी बड़ा अफसोस है। उसने सारा शहर छान मारा, पर बहादुर नहीं मिला। किशोर आकर कहने लगा - 'अम्माँ, एक बार भी अगर बहादुर आ जाता तो मैं उसको पकड़ लेता और कभी जाने न देता। उससे माफी माँग लेता और कभी नहीं मारता। सच, अब ऐसा नौकर कभी नहीं मिलेगा। कितना आराम दे गया है वह। अगर वह कुछ चुराकर ले गया होता तो संतोष हो जाता...'
         निर्मला आँखों पर आँचल रखकर रोने लगी। मुझे बड़ा क्रोध आया। मैं चिल्लाना चाहता था पर भीतर-ही-भीतर मेरा कलेजा जैसे बैठ रहा हो। मैं वहीं चारपाई पर सिर झुका कर बैठ गया। मुझे एक अजीब-सी लघुता का अनुभव हो रहा था। यदि मैं न मारता तो शायद वह न जाता।
         मैंने आँगन में नजर दौड़ाई। एक ओर स्टूल पर उसका बिस्तर रखा था। अलगनी पर उसके कुछ कपड़े टँगे थे। स्टूल के नीचे वह भूरा जूता था, जो मेरे साले साहब के लड़के का था। मैं उठकर अलगनी के पास गया और उसके नेकर की जेब में हाथ डालकर उसके सामान निकालने लगा - वही गोलियाँ, पुराने ताश की गड्डी, खूबसूरत पत्थर, ब्लेड, कागज की नावें...
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पठनीय कविता संग्रह : हर जगह से भगाया गया हूँ

पठनीय कविता संग्रह :  हर जगह से भगाया गया हूँ
कविता के भीतर मैं की स्थिति जितनी विशिष्ट और अर्थगर्भी है, वह साहित्य की अन्य विधाओं में कम ही देखने को मिलती है। साहित्य मात्र में ‘मैं’ रचनाकार के अहं या स्व का तो वाचक है ही, साथ ही एक सर्वनाम के रूप में रचनाकार से पाठक तक स्थानान्तरित हो जाने की उसकी क्षमता उसे जनसुलभ बनाती है। कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में ‘मैं’ का एक और रंग दीखता है। दुखों की सान्द्रता सिर्फ काव्योक्ति नहीं बनती। वह दूसरों से जुड़ने का साधन (और कभी-कभी साध्य भी) बनती है। इसीलिए ‘कबहूँ दरस दिये नहीं मुझे सुदिन’ भारत के बहुत सारे सामाजिकों की हकीकत बन जाती है। इसकी रोशनी में सम्भ्रान्तों का भी दुख दिखाई देता है-‘दुख तो महलों में रहने वालों को भी है’। परन्तु इनका दुख किसी तरह जीवन का अस्तित्व बचाये रखने वालों के दुख और संघर्ष से पृथक् है। यहाँ कवि ने व्यंग्य को जिस काव्यात्मक टूल के रूप में रखा है, उसी ने इन कविताओं को जनपक्षी बनाया है। जहाँ ‘मैं’ उपस्थित नहीं है, वहाँ भी उसकी एक अन्तर्वर्ती धारा छाया के रूप में विद्यमान है। कविता का विधान और यह ‘मैं’ कुछ इस तरह समंजित होते हैं, इस तरह एक-दूसरे में आवाजाही करते हैं कि बहुधा शास्त्रीय पद्धतियों से उन्हें अलगा पाना सम्भव भी नहीं रह पाता। वे कहते हैं- ‘मेरी कविता में लगे हुए हैं इतने पैबन्द / न कोई शास्त्र न छन्द / मेरी कविता वही दाल भात में मूसलचन्द/ मैं भी तो कवि सा नहीं दीखता / वैसा ही दीखता हूँ जैसा हूँ लिखता’ । हरे प्रकाश उपाध्याय की इन कविताओं में छन्द तो नहीं है, परन्तु लयात्मक सन्दर्भ विद्यमान है। यह लय दो तरीके से इन कविताओं में प्रोद्भासित होती है। पहला स्थितियों की आपसी टकराहट से, दूसरा तुकान्तता द्वारा। इस तुकान्तता से जिस रिद्म का निर्माण होता है, वह पाठकों तक कविता को सहज सम्प्रेष्य बनाती है। हरे प्रकाश उपाध्याय उस समानान्तर दुनिया के कवि हैं या उस समानान्तर दुनिया का प्रतिनिधित्व करते हैं जहाँ अभाव है, दुख है, दमन है। परन्तु उस दुख, अभाव, दमन के प्रति न उनका एप्रोच और न उनकी भाषा-आक्रामक है, न ही किसी प्रकार के दैन्य का शिकार हैं। वे व्यंग्य, वाक्पटुता, वक्रोक्ति के सहारे अपने सन्दर्भ रचते हैं और उन सन्दर्भों में कविता बनती चली जाती है। – अभिताभ राय