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सूखे हुए फूल (उपन्यास) --गोपाल माथुर

 समय लिख रहा था वह दिन

उर्फ़ सूखे हुए फूल
(उपन्यास)

 --गोपाल माथुर

:: एक ::

कुछ घटा था
जो नहीं है कहीं दर्ज
न इतिहास में, न स्मृति में
और न ही समय के खरोंचे हुए पन्नों में

पर घटा अवश्य था
वरना यूँ ही
शाम ढलते ही नहीं आ जाते आँसू
पुरानी किताबों में लिखा आधा-अधूरा सा वाक्य
लगता नहीं कचोटने  
यात्रा के दौरान सूने पड़े रेलवे स्टेशन को देख
नहीं याद आ जाता निचाट होना अपना

हाँ, कुछ दु:ख ऐसे होते हैं
जिन्हें शब्दकोश के शब्दों से
बयाँ नहीं किया जा सकता!

जेब में रख गई कुछ धूप सुबह

सारी रात पानी बरसता रहा था और अब धूप का एक टुकड़ा बादलों से निकलकर कभी घास पर किसी शैतान बच्चे-सा उकड़ू बैठ जाता, तो कभी छिप जाता था।
          मैं बिल्डिंग के मेन गेट पर खड़ा बारिश में भीगी उस सड़क को देख रहा था, जो मेन बिल्डिंग की ओर जा रही थी। सड़क के दोनों ओर लगे घने पेड़ों के पत्ते मन्द-मन्द बहती हवा में किसी तार में अटकी पतंगों से झूम रहे थे। आस-पास फूलों की क्यारियाँ सड़क के साथ-साथ सामने वाली बिल्डिंग तक चली गयी थीं। उस बिल्डिंग में ही उस कम्पनी का ऑफिस था, जहाँ मैं इन्टरव्यू देने आया था। सुबह का सूरज अलसाया हुआ-सा बादलों के पीछे अधकच्ची नींद में दुबका हुआ था। जब कभी वह बादलों के बीच जगह बनाकर नीचे झाँकता, तब एक उज्ज्वल आलोक चारों ओर बिखर जाता था।
          ‘‘एक्सक्यूज़ मी!’’ किसी ने मुझे पीछे से पुकारा।
          मैं अपने पीछे की ओर घूमा। एक नीली आँखों वाली लड़की ठीक मेरे पीछे खड़ी थी, डेनिम की नीली जीन्स और उससे मैचिंग प्रिन्टेड टॉप पहने हुए। उसने अपने बड़े से गॉगल्स सिर पर चढ़ा रखे थे।
‘‘जी... कहिए?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘यह ऑफिस कितने बजे खुलेगा?’’
‘‘जी, यह तो मैं भी नहीं जानता। वैसे अब तक तो खुल जाना चाहिए था। मैं तो स्वयं भी यहाँ ऑफिस खुलने की प्रतीक्षा में खड़ा हूँ।’’
‘‘आप यहाँ काम नहीं करते?’’ उसने अपने बड़े से पर्स को एक कन्धे से दूसरे कन्धे पर लटकाते हुए पूछा।
‘‘जी नहीं, मैं तो यहाँ इन्टरव्यू देने आया हूँ।’’
‘‘ओह! दरअसल मैं भी यहाँ इन्टरव्यू देने ही आयी हूँ।’’ वह मेरे कुछ पास सरक आयी थी। शायद सूरज ने उसका चेहरा देखना चाहा होगा, क्योंकि अब वह बादलों से बाहर निकलकर नीचे ताकने लगा था। पेड़ के पत्तों से छनकर आया धूप का एक टुकड़ा लड़की के चेहरे पर ठिठका हुआ था। उसने अपने बाल खुले छोड़ रखे थे। वे ज्यादा लम्बे नहीं थे, बस, कन्धों से होते हुए उसकी पीठ पर सलीके से पसरे हुए थे।
‘‘सॉफ़्टवेयर एसोसिएट का?’’ मैंने पूछा।
‘‘जी हाँ...और आप?’’ उसने मेरी ओर देखकर कहा।
‘‘मैं भी।’’
         वह मेरे पास आयी और एक सुरक्षित दूरी पर खड़ी हो गयी थी। हम दोनों के वहाँ आने का उद्देश्य समान होने के कारण ही सम्भवत: किसी अदृश्य धागे ने हमें जोड़ दिया था। पर हमारा साथ खड़े होना वैसा नहीं था, जैसे कोई पुरानी जान-पहचान रही हो, बल्कि कुछ इस तरह की, जैसे हम सिनेमा हॉल की टिकट विन्डो पर टिकट खरीदने के लिए साथ-साथ खड़े होते हैं। वह साथ बस कुछ पलों का होता है। थियेटर के अन्दर जाते ही हमें याद भी नहीं रहता कि अभी कुछ क्षण पहले हम किसके साथ खड़े हुए थे!

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         हवा बेफिक्र-सी चल रही थी। वह जब ज़रा-सी तेज़ होती, तो हमारे बाल हवा में फड़फड़ाने लगते थे। दो-एक बार तो उसने अपने बाल ठीक करने का प्रयास किया, लेकिन फिर जल्दी ही उन्हें सँवारना छोड़ दिया। इस कोशिश में उसकी पतली, गोरी बाँहें बिजली की कौंध-सी चमकीं, जो उसके छोटे बाँह वाले टॉप में अजीब तरह से खाली लग रही थीं, खाली और लावारिस, जैसे उनका रखवाला उन्हें अकेला छोड़कर कहीं चला गया हो।
         हमारे पास करने को कुछ नहीं था। हम चुपचाप सामने देख रहे थे, जहाँ घास पर कुछ परिन्दे उतर आये थे। वे ढूँढ़-ढूँढ़ कर दाने चुग रहे थे। उन्हें पता नहीं था कि दो जोड़ी आँखें उन पर लगी हुई थीं।
         तभी ठण्डी हवा का एक तेज़ आवारा-सा झोंका हमें छूता हुआ निकल गया। मुझे लगा, जैसे हवा की ठण्डी झुरझुरी के कारण उस लड़की ने अपनी देह अपने भीतर समेट ली हो, हालाँकि यह मेरा भ्रम भी हो सकता था!
         ‘‘आप चाहें तो मेन गेट से सटे उस कमरे में जा सकती हैं, यहाँ आपको ठण्ड लग जाएगी। वह कमरा इस कम्पनी का रिसेप्शन रूम है।’’ मैंने लड़की से कहा। मैं देख सकता था कि उसके रोयें खड़े हो गये थे।
         ‘‘मैं पहले वहीं गयी थी। लेकिन वहाँ कोई नहीं था। मुझे अकेले डर-सा लगा। यहाँ बाहर आपको देखा, तो लगा कि शायद आप यहाँ काम करते हों और पूछने बाहर चली आयी।’’ उसकी निगाहें अब परिन्दों से उठकर मुझ पर आ टिकी थीं।
         ‘‘पर लगता है कि अब शायद वहाँ कोई आ गया है।’’ मैंने रिसेप्शन की ओर देखते हुए कहा। मुझे वहाँ कुछ हलचल नज़र आ रही थी। चारों ओर घने पेड़ों के कारण वहाँ इतना अँधेरा था कि उन्हें सुबह के उजाले के बावजूद भी लाइटें जलानी पड़ गयी थीं।
         लड़की ने घूमकर उस ओर देखा, जहाँ मैं इशारा कर रहा था। भीनी सेन्ट की हल्की-सी महक मेरे नथुनों में जा समायी। पहली बार मेरे मन में एक मीठा-सा  अहसास जागा कि मैं एक लड़की के साथ हूँ!
         लड़की ने मुस्कुराकर मुझे देखा और बिना कुछ कहे हम दोनों रिसेप्शन पर जा पहुँचे। वहाँ उतना अँधेरा नहीं था, जितना बाहर से महसूस हो रहा था। रोशनी ने अँधेरे को खदेड़कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली थी।
         कुछ और लोग भी आ गये थे और लगभग मृत पड़े उस कमरे में जीवन नज़र आने लगा था। एलईडी लाइट्स, एसी, कम्प्यूटर, फर्नीचर भले ही ऑफिस को ऑफिस बनाने में मदद करते हों, लेकिन उसके प्राण उसमें काम करने वाले लोगों में ही बसते हैं।
         ‘‘यस प्लीज़!’’ रिसेप्शनिस्ट ने अपना सिर झुकाए हुए ही हमसे पूछा। वह अपना सिस्टम ऑन करने में लगा हुआ था।
         ‘‘आज हमारा इन्टरव्यू है।’’ मैंने अपने मोबाइल पर आया कॉल लेटर उसके सामने कर दिया। तब तक वह लड़की भी अपना मोबाइल खोलकर आगे कर चुकी थी। वह मेरे बिल्कुल पास खड़ी हुई थी, जैसे हम दोनों साथ-साथ आये हों, हालाँकि मैं उसको उतना ही जानता था, जितना कि वह मुझे। यह जानना दरअसल जानना था भी नहीं। हम दोनों बस पहचान होने न होने की सीमा रेखा पर ठिठके हुए थे, अपरिचित, किन्तु बेगाने नहीं। हम दोनों ही वहाँ इन्टरव्यू देने आये थे, इस विचार ने अनायास ही हमें पास ला दिया था, हालाँकि यह उस समय नहीं सोचा था।
         कम्प्यूटर ऑन होते ही रिसेप्शनिस्ट को हमारे कॉल लेटर चेक करने में एक मिनट भी नहीं लगा, ‘‘यस, इट इज हीयर। यू प्लीज़ वेट फॉर अ व्हाइल।’’
         हम एक बड़े-से सोफे पर बैठ गये, जो वहीं एक ओर रखा हुआ था। लड़की मुझसे कुछ दूर अलग बैठी हुई थी। उसने अपना पर्स कन्धे से उतारकर सामने सेन्ट्रल टेबल पर रख दिया था। वह इतनी पतली-दुबली थी कि मुझे लगा, जैसे पर्स के भार से हल्की होकर अब वह पतझड़ के सूखे पत्ते-सी हवा में उड़ने लगेगी, किसी परिन्दे की तरह नहीं, पतंग की तरह भी नहीं, बल्कि हजार पंखों वाले बीज की तरह।
         पर हल्के होने के लिए भारविहीन होना ज़रूरी नहीं होता, यह मैंने बाद में जाना। बहुत बाद में भी नहीं, कुछ ही घण्टों बाद, जब सूरज डूबकर किसी दूसरी दुनिया में जाने वाला था।
         लड़की अपनी जगह पर चुप बैठी हुई थी। शायद कुछ ज्यादा ही चुप। उसकी खामोशी ने उसे सहसा बदल-सा दिया था। वह, वह नहीं रह गयी थी, जो कुछ देर पहले बाहर घास पर परिन्दों को देखते हुए मुझे दिखाई दी थी। सहसा विश्वास नहीं हो रहा था कि यह वही लड़की है, जो अभी कुछ देर पहले मुझसे बतिया रही थी। एक बार तो मेरा मन हुआ कि मैं स्वयं ही उससे बात कर लूँ, पर मुझे ऐसी कोई बात समझ में नहीं आयी, जो मैं उससे कर सकता था। अपरिचय का धुँधला पर्दा हमारे बीच गाढ़ा होकर तन गया था।
         सोफे के पीछे खिड़की पर लगे पर्दे पर धूप के कुछ चकत्ते पेड़ की शाखाओं और पत्तियों के बीच से जगह बनाते हुए आ ठिठके थे। पर्दे पर वे दिन के तारों की तरह पसर गये थे। पर वहाँ कोई उन्हें देखने वाला नहीं था। सब अपने में व्यस्त थे।
         तभी मुझे रिसेप्शन के दूसरे छोर पर कॉफी मशीन दिखायी दी। वहाँ दो आदमी कॉफी के मग लेकर खड़े हुए थे।
‘‘क्या आप कॉफी पीना पसंद करेंगी?’’ मैंने लड़की से पूछा।
‘‘क्या?’’ उसने विस्मय से मेरी ओर देखा।
‘‘कॉफी? वहाँ देखिये...लाऊँ?’’
‘‘आप क्यों लाएंगे? मैं ही चलती हूँ।’’ वह उस ओर देखते हुए बोली।
‘‘नहीं, आप यहीं रुकिए। रिसेप्शनिस्ट कॉल कर सकता है!’’ वह उठते-उठते रह गयी। उसने असमंजस से मुझे देखा। मैं जानता था, ऐसा ही होगा। मैंने उसके असमंजस को उसके पास ही रहने दिया और उठकर जल्दी-जल्दी कॉफी मशीन के पास जा पहुँचा।
‘‘मुझे दो कॉफी चाहिए। मुझे पैसे कहाँ देने होंगे?’’ मैंने वहाँ खड़े आदमियों से पूछा।
‘‘आप यहाँ इन्टरव्यू देने आये हैं?’’ उनमें से एक ने मुझसे जानना चाहा। वह आदमी वहीं काम करता होगा। कम्पनी का टैग उसके गले में लटक रहा था।
‘‘जी हाँ।’’
‘‘यह कम्पनी की तरफ से ही है। आप कॉफी ले सकते हैं।’’
मशीन के पास ही डिस्पोजेबल मग रखे हुए थे। मैंने दो कॉफी बनायी और उन्हें लेकर सो़फे की ओर बढ़ गया। लड़की मुझे ही देख रही थी। उसका असमंजस अभी पूरी तरह गया नहीं था।
‘‘लीजिए।’’ मैंने मग उसकी तऱफ बढ़ाते हुए कहा।
‘‘थैंक्स! बारिश के दिनों में मुझे कॉफी पीना अच्छा लगता है।’’ उसने मेरे हाथ से कॉफी का मग लिया और वह मुस्कुराई। अपरिचय के अकस्मात उग आये काँटे कुछ नर्म पड़ने लगे थे, हालाँकि ‘पहचान’ जैसी कोई चीज़ भी हमारे बीच अब तक नहीं थी।
         ‘‘मैं यहाँ बैठ सकता हूँ?’’ मैंने लड़की के लम्बे सो़फे की खाली जगह की ओर संकेत करते हुए पूछा, जैसे उस सो़फे पर उसका स्वामित्व रहा हो।
         ‘‘जी हाँ, बैठिये न! इसमें पूछने वाली कौन-सी बात है!’’ पर इसके साथ ही वह थोड़ा सिमटकर एक ओर खिसक गयी थी। उसने गॉगल्स उतारकर अपने खुले बाल बाँध लिए थे, जिस कारण वह और भी दुबली दिखायी दे रही थी। उसका पर्स सेन्ट्रल टेबल पर वैसे ही रखा हुआ था।
         मैंने बैठते ही कॉफी की एक घूँट भरी। कॉफी ज्यादा अच्छी नहीं थी, पर उस समय मुझे कॉफी या चाय की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही थी। उन क्षणों में गर्म कॉफी की वह घूँट किसी बड़ी राहत से कम महसूस नहीं हो रही थी।
         ‘‘पता नहीं कब बुलाएँगे?’’ उसने पूछा। उसका सारा ध्यान रिसेप्शनिस्ट की ओर लगा हुआ था, जो हमें कभी भी बुला सकता था। वह भी अपने मग को अपनी दोनों हथेलियों के बीच थामे हुए थी, जैसे गर्मी मुँह से नहीं, हथेलियों से पहुँचाना चाह रही हो!
         ‘‘अब बस बुलाने वाले ही होंगे। ये लोग बड़े प्रो़फेशनल होते हैं। एक मिनट भी बर्बाद नहीं करते।’’ यह केवल एक मौखिक आश्वस्ति थी, जो मैं उसे दे सकता था, हालांकि मैं स्वयं भी बुलाये जाने को लेकर खास निश्चित नहीं था।
         कुछ पल खामोशी छाई रही, जो ना तो कोई घटना के घटने से पहले की थी और ना ही बाद की, बस, जैसे कोई कैसेट बजते-बजते दो गानों के बीच पल भर के लिए थम गया हो।
‘‘आप किस स्ट्रीम में हैं?’’ लड़की ने पूछा।
‘‘ओरेकल में...और आप?’’
‘‘मैं जावा में।’’
मैं हँस पड़ा, ‘‘तब तो कोई डर नहीं।’’
‘‘डर? कैसा डर?’’ लड़की की बड़ी-बड़ी नीली आँखें उस पर उठ आयी थीं। उन आँखों में हैरानी थी। जैसे अनायास ही उसने किसी अनहोनी को देख लिया हो।
‘‘यही कि हम एक-दूसरे के कॉम्पीटिटर नहीं हैं। पहले मैं सोच रहा था कि या तो जॉब आपको मिलेगी या फिर मुझे!’’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा।
वह भी हँस पड़ी, ‘‘जॉब हम दोनों को ही मिलेगी। आपका ऑनलाइन इन्टरव्यू तो हुआ होगा ना!’’
‘‘हाँ, हुआ था!’’
‘‘उसके बाद ये लोग फेस-टू-फेस इन्टरव्यू के लिए उन लोगों को ही यहाँ बुलाते हैं, जिन्हें लेना होता है...वरना ये आने-जाने का किराया वगैरह क्यों देंगे?’’
‘‘हाँ, मेरे ऑफिस वाले भी यही कह रहे थे।’’
‘‘अभी आप कहाँ काम कर रहे हैं?’’
‘‘बेंगलुरु में।’’
‘‘मेरा मतलब किस कम्पनी में?’’
मैंने अपनी कम्पनी का नाम बताया, ‘‘डॅल में। और आप?’’
‘‘मैं एक्सेन्चुअर में हूँ, दिल्ली में।’’
         तभी रिसेप्शनिस्ट वहाँ आया। उसने हमें एक एक टैग दिया, जिसे हमें अपने गले में लटकाना था। ये हमारे एन्ट्री पासेज़ थे। उन टैग्स के रंग वहाँ के कर्मचारियों से अलग थे। इस अलग रंग ने ही हमें उन कर्मचारियों से अलग कर दिया था और अनायास ही हमें पास भी ला दिया था।
         ‘‘चलिये।’’ रिसेप्शनिस्ट ने कहा।
         हम उठ खड़े हुए। हमारी कॉफी तो ख़त्म हो गयी थी, लेकिन बातचीत की कड़ियाँ बीच में ही बिखर गयी थीं, जैसे फिल्म की कोई रील चलते-चलते टूट गयी हो। प्रोजेक्टर ऑपरेटर तो फिल्म जोड़कर तुरंत चला देता है, पर हमारे छूटे हुए सूत्र फिर जुड़ पाएंगे, इसमें मुझे गहरा संदेह था...
         मैं पीछे-पीछे चल रहा था और मुझे उसके बाल दिखाई दे रहे थे, जिन्हें उसने कुछ देर पहले ही बाँधा था। मुझे आश्चर्य हुआ कि किसी लड़की के बाल इतने घने और काले भी हो सकते हैं! जब मैं कॉफी मशीन पर था, तब शायद उसने अपने बाल सँवारे होंगे। उसने अपना गॉगल भी उन्हीं बालों पर चढ़ा रखा था, जिससे वह अपनी उम्र से और भी छोटी दिखाई देने लगी थी। उसका पर्स पहले की तरह उसके कन्धे पर लटका हुआ था।
         पर उन घड़ियों में यह सोच एक उड़ते हुए खयाल से ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं थी। तब तक मेरा पूरा ध्यान अपने होने वाले इन्टरव्यू की ओर लग चुका था।
          रिसेप्शनिस्ट बाहर सड़क पर आकर रुक गया, जहाँ एक बैट्री ऑपरेटेड गाड़ी खड़ी हुई थी।
         ‘‘आप दोनों इसमें बैठ जाएं, यह व्हीकल आपको मेन ऑफिस तक छोड़ देगा।’’ रिसेप्शनिस्ट ने कहा और इसके पहले कि हम उसे ठीक से धन्यवाद दे पाते, वह जहाँ से आया था, वहीं ओझल हो गया।
         उस कारनुमा व्हीकल में हम दोनों पास-पास बैठे हुए थे। उतने पास भी नहीं, हम दोनों के बीच उसने अपना बड़ा-सा पर्स रख दिया था। वह गाड़ी उसी सड़क पर दौड़ी जा रही थी, जिसके किनारे कुछ देर पहले मैं खड़ा-खड़ा सुबह की पहली धूप में परिन्दों को दाना चुगते हुए देख रहा था। वहीं इस लड़की को भी मैंने पहली बार देखा था। यह वही रास्ता था, जिसके दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पेड़ लगे हुए थे।
          मेन ऑफिस काफी दूर निकला। कुछ घुमावदार मोड़ों को पार करने के बाद हम मुख्य बिल्डिंग पर पहुँचे। सारे रास्ते हमने कोई बात नहीं की। हमारा पूरा ध्यान उस कम्पनी की खूबसूरत बिल्डिंग्स और एक्सटीरियर देखने में लगा हुआ था। हम सैलानियों की तरह इधर-उधर टुकुर-टुकुर झाँक रहे थे।
         वह गाड़ी एक बड़े-से पोर्च में जाकर रुकी।
         ‘‘अब?’’ गाड़ी से उतरकर उसने मुझसे पूछा।
         ‘‘अन्दर चलते हैं। वहाँ कोई तो होगा गाइड करने वाला।’’
         हमने अपने-अपने एन्ट्री पास स्वाइप किये। काँच का दरवाज़ा अपने आप खुल गया और हम अन्दर चले गये। अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त वह उस कम्पनी के ह्यूमन रिसोर्स का दफ़्तर था। वहीं हमारे इन्टरव्यू होने थे। बिना किसी परेशानी के एक के बाद एक निर्देश हमें मिलते चले गये, जिन्हें हम फॉलो करते रहे। हम दोनों को अलग-अलग क्यूबिकल्स में इन्टरव्यू के लिए जाना था।
          ‘‘सो मैडम, विश यू बेस्ट ऑफ़ लक!’’ सारी औपचारिकताओं से मुक्ति पाकर मैंने उससे कहा।
         वह अपना मोबाइल अपने पर्स में रख रही थी। एक बार उसने सिर उठाकर मेरी ओर देखा। मुझे लगा, जैसे वहाँ की औपचारिकताएँ पूरी करते-करते वह सहसा मुझे भूल ही गयी थी।
         ‘‘सेम टू यू।’’ उसके चेहर पर एक स्मित-सी मुस्कान थी। वह उस क्यूबिकल की ओर जाने लगी, जहाँ उसका इन्टरव्यू था। मैंने देखा कि गॉगल्स अब उसके सिर पर नहीं थे। शायद उसने उन्हें उतारकर अपने पर्स में रख लिया था। मुझे वह कुछ असहज-सी भी लग रही थी। शायद अपने होने वाले इन्टरव्यू की सोच ने उसे असहज बना दिया था।
         मैं भी अपने क्यूबिकल को ढूँढ़ने के लिए इधर-उधर देखने लगा था, जो एक लम्बे गलियारे के दोनों ओर बने हुए थे। सहसा मुझे कुछ ध्यान आया और मैं लगभग दौड़ते हुए उस लड़की के पीछे गया, ‘‘सुनिए, आप बुरा न मानें तो आपसे एक बात कहनी थी।’’
          ‘‘क्या?’’ उसने मुझे देखा। उसकी आँखों का विस्मय फैलकर जैसे अथाह समुद्र का विस्तार पा गया था।
         ‘‘मुझे यह जानने की उत्सुकता रहेगी कि आपका क्या रिजल्ट रहा?’’ मैंने जल्दी-जल्दी कहा, ‘‘बस, ऐसे ही!’’
          उसने कुछ नहीं कहा, बस, चुपचाप मुझे देखती रही।
         ‘‘तो क्या हम इन्टरव्यू के बाद रिसेप्शन पर मिल सकते हैं...शायद अन्तिम बार!’’ मैंने जल्दी से कहा।
        ‘‘ठीक है।’’ उसने हड़बड़ी में कहा और जाने लगी। वह कुछ उलझन में थी। ऐसी उलझन नहीं, जिससे पार नहीं पाया जा सके, बल्कि कुछ ऐसी, जैसे सुबह मुँह अँधेरे आँख खुल गयी हो और यह तय कर पाना कठिन हो गया हो कि उठा जाये अथवा नहीं!
         मैं भी मुड़ गया। पर मुझे जिस क्यूबिकल में जाना था, वह ठीक मेरे सामने ही निकला।

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रिसेप्शन ऑफिस में काफी भीड़ थी। मैंने इधर-उधर देखने की कोशिश की, लेकिन मुझे वह कहीं दिखायी नहीं दी। एकाएक मुझे संदेह हुआ कि क्या मैं अब उसे पहचान सकूँगा? जो लोग पहली बार यूँ अकेले में मिलते हैं, उनके चेहरे प्राय: जल्दी ही भीड़ में बदल जाया करते हैं।
         मुझे खाली-खाली सा लगा, जैसे रेलवे स्टेशन पर ट्रेन चली जाने के बाद सूनी पटरियों को देखकर महसूस हुआ करता है। सामने दीवार पर लगी घड़ी ग्यारह बजा रही थी। हो सकता है, उसका इन्टरव्यू अभी चल रहा हो या फिर ख़त्म हो गया हो और वह चली गयी हो! वह क्यों मेरी प्रतीक्षा करेगी? हमारे बीच कोई बंधन तो था नहीं!
         एक अजीब-सी निराशा ने मुझे घेर लिया। ऐसा लगा जैसे उस लड़की का मिलना बहुत ज़रूरी था, जैसे कुछ महत्वपूर्ण घटना था, जो घटने से रह गया। अब वह सब कभी नहीं घट पाएगा, जो उसके मिलने पर घट सकता था!
         पर क्या? आखिर क्या घटित होना था!!
        तभी मुझे वह दिखाई दी। वह कॉफी मशीन के सामने खड़ी हुई थी, जहाँ कम रोशनी के कारण मैं उसे देख नहीं पाया था। उसकी पीठ मेरी तऱफ थी। मैं उसे उसके घने काले बालों से पहचान गया था, जिस पर अब उसने अपना चश्मा एक बार फिर टिका लिया था। उसके कन्धे पर उसका पर्स पहले की तरह लटका हुआ था।
         मुझे खुशी हुई कि वह गयी नहीं थी। अजीब-सी खुशी, जो बेलौस-सी होकर मेरे पास भटकती हुई आ गयी थी। मैं उसके पास चला गया।
          उसने मुझे देखा। वह मुस्कुराई। यह पहचानने का पहला संकेत था। मैं भी मुस्कुराया और उसे मग में कॉफी लेते हुए देखता रहा।
         ‘‘आप कॉफी लेंगे?’’ उसने मुझसे पूछा।
          ‘‘आप लीजिये। मैं ले लूँगा।’’
         उसके हटते ही मैं उस छूटी हुई जगह पर खड़ा हो गया। मैंने अपना मग मशीन में रखा और बटन दबाया, ‘‘कैसा रहा आपका इन्टरव्यू?’’
         ‘‘अच्छा रहा...मैंने कहा था न आपको। वे यहाँ उन्हीं लोगों को बुलाते हैं, जिन्हें लेना होता है...आपका हो गया?’’ वह मेरे पास ही खड़ी हुई थी और मुझे कॉफी लेते हुए देख रही थी।
         ‘‘हाँ। मेरा भी हो गया है। मुझे चेन्नई पोस्टिंग दी है। और आपको?’’
         ‘‘मुझे दिल्ली। मैंने तो पहले ही कह दिया था कि अगर आप मुझे दिल्ली पोस्टिंग देते हैं, तभी मैं आपकी कम्पनी ज्वॉइन करूँगी।’’ उसने कहा। अब हम साथ-साथ चल रहे थे, उस ओर, जहाँ सो़फे रखे हुए थे। हमारे मग हमारे हाथों में थे।
         ‘‘तो आप दिल्ली में रहती हैं?’’
         ‘‘हाँ, मेरा तो जन्म ही वहाँ हुआ है।’’
         ‘‘इतने सालों से लगातार एक ही शहर में रहते-रहते आप ऊब नहीं गयीं?’’
         ‘‘ऊबना कैसा! पूरी दिल्ली मेरा घर है।’’
          ‘‘वा़कई?’’
         ‘‘हाँ, मैं सच कह रही हूँ। मैं ऐसे दिन की कल्पना भी नहीं कर सकती कि जब मैं सोकर उठूँ, तो सोसाइटी के बच्चों की स्कूल जाने की आवाज़ें नहीं सुन सकूँ, अपनी बॉलकनी से चिड़ियों की जानी-पहचानी चहचहाहट कानों में न आये और सारा दिन काम से थककर रात को सोने लगूँ, तब दिल्ली की सड़कों का ट्रै़फिक सुनायी न दे! मैं इन आवाज़ों को गहरी नींद में भी पहचान सकती हूँ। मेरे लिए ये आवाज़ें, आवाज़ें नहीं, एक तरह का संगीत हैं...’’ उसे अपने कॉफी मग, बड़े से पर्स और गॉगल को संतुलित रखते हुए चलना पड़ रहा था।
         ‘‘पर यह सब तो आपको किसी भी शहर में मिल सकता है!’’
         ‘‘नहीं, हर शहर की अपनी आवाज़ें होती हैं, दूसरे शहरों से अलग...यदि आप थोड़ा-सा भी ध्यान दें, तो आप उन्हें पहचान सकते हैं। बस, आपके पास उन्हें समझने की दृष्टि होनी चाहिए।’’
         हम उसी सोफे पर बैठ गये, जहाँ इन्टरव्यू से पहले बैठे हुए थे। इस बार मुझे उसके पास बैठने के लिए पूछना नहीं पड़ा था। न ही इलेक्ट्रिक व्हीकल की तरह उसने अपना पर्स हमारे बीच रखा था। पर्स पहले की ही तरह सेन्ट्रल टेबल पर रखा हुआ था। कॉफी के मग हमारे हाथों में थे और हम धीरे-धीरे कॉफी पी रहे थे। बादल घिर आने के साथ ठण्ड कुछ बढ़ने लगी थी।
         ‘‘पर मैं शायद ऊब जाऊँ। मैं एक शहर में ज्यादा समय के लिए ठहर नहीं पाता... शायद इसी कारण अब तक चार नौकरियाँ बदल चुका हूँ।’’ मैंने कहा।
         ‘‘चार! ओह माई गॉड! मेरी तो दूसरी है यह।’’
         ‘‘आप दिल्ली में कब से काम कर रही हैं?’’
         ‘‘यही, कोई साढ़े तीन साल से।’’
         ‘‘मैं भी जॉब तो चार साल से ही कर रहा हूँ, पर हर साल कम्पनी बदल लेता हूँ। अभी बेंगलुरु में हूँ और इससे पहले मुम्बई में था और अब चेन्नई जाना होगा।’’
         ‘‘मुझसे इतना जल्दी-जल्दी कुछ नहीं होता। शायद सभी लड़कियों के साथ ऐसा होता हो!’’ उसने कहा और चुप हो गयी, जैसे यह उसका कोई भेद हो, जिसे वह उजागर नहीं करना चाहती थी।
          मैं भी चुप हो गया था। मैंने कभी लड़कियों के नज़रिये से स्थितियों का आकलन करने की कोशिश नहीं की थी। उनकी सोच की एक अलग दुनिया होती है, यह संकेत मैं पा चुका था।
         हमने अपने मग टेबल पर रख दिये थे, वे खाली थे पर पास-पास रखे हुए थे। उन पर हमारे स्पर्श छूट गये थे, जैसे कि कह देने के बाद शब्द छूट जाते हैं, जाग जाने के बाद सपने छूट जाते हैं, गुनगुनाने के बाद धुन छूट जाती है...
          उसने अपना पर्स सँभाला। यह चलने का इशारा था।
         मैं उठ खड़ा हुआ और बोला, ‘‘इस कम्पनी में भले ही हमारी पोस्टिंग हजारों मील दूर अलग-अलग शहरों में हुई हो, पर यह सोचकर अच्छा लगेगा कि आप भी उसी कम्पनी में हैं, जिसमें मैं।’’
         वह मुस्कुराई और खड़ी हो गयी, ‘‘हाँ, जैसे हमारे हाथ उसी देह का हिस्सा होते हैं, जिसके पैर!’’
         ‘‘अब आप कहाँ जाएंगी?’’ मैंने पूछा।
         ‘‘पता नहीं...शायद एयरपोर्ट। सुबह फ्लाइट से उतरकर मैंने अपना सामान वहीं एयरपोर्ट पर रख दिया था। अब रात साढ़े नौ बजे मेरी रिटर्न फ्लाइट है।’’
           इस बार मैं जोर से हँस पड़ा।
         ‘‘आप हँस रहे हैं!’’ उसने आश्चर्य से मेरी ओर देखते हुए कहा। उसका आश्चर्य कौतूहल बनकर उसकी आँखों से बाहर झाँक रहा था।
         ‘‘मैडम, हँसूं नहीं तो क्या करूँ! अब हम दोनों एक कम्पनी के वर्कर ही नहीं हो गये हैं, हमारे हालात भी मिलते-जुलते होने लगे हैं। मेरी स्थिति भी ठीक वही है, जो आपकी है। मेरा सामान भी एयरपोर्ट पर पड़ा है और मेरी फ्लाइट भी रात के ग्यारह बजे है!’’
          उसके चेहरे पर क्षण भर के लिए हैरानी के भाव आये और फिर वह भी भीनी-सी हँसी हँस दी। यह हँसी हमारे बीच सहसा उग आये संक्षिप्त परिचय का परिणाम थी। कोई दोस्ती नहीं, लगाव नहीं, अपनापन भी नहीं, सि़र्फ और सि़र्फ परिचय!
         ‘‘तो?’’ मैंने उसे देखते हुए पूछा।
         ‘‘तो!’’ वह मुझे ही देख रही थी।
         कुछ देर हम यूँ ही खड़े रहे। हमें कोई जल्दी नहीं थी। उसने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा, जो दिन के सवा ग्यारह बजा रही थी। हम दोनों की रिटर्न फ्लाइट रात को थीं। हमारे सामने पूरा दिन पसरा हुआ था, समुन्दर की तरह नहीं, रास्ते में गिरे किसी वट वृक्ष की तरह, जिसके पार जाने के लिए न चाहते हुए भी उसे काटना पड़ता है।
         किसी ने रिसेप्शन की खिड़की का पर्दा एक ओर सरकाया और इसके साथ ही धुँधले से आलोक का एक टुकड़ा भीतर सरक आया था। खिड़की के बाहर घने पेड़ तरतीब से लगे हुए थे, जिनके ऊपर था आकाश, बादलों से आच्छादित, उन्होंने ही सूरज की किरणों को नीचे आने से रोका हुआ था।
          ‘‘तो क्या हम एक डील कर सकते हैं?’’ मैंने सहसा पूछा।
         ‘‘डील? कैसी डील?’’ उसकी आँखें मेरी ओर उठ आयी थीं। उत्सुकता से भरी नीली आँखें, जो अब उतनी अपरिचित नहीं रह गयी थीं।
         ‘‘यह तो लगभग निश्चित है कि आज के बाद हम कभी नहीं मिलेंगे। तो क्यों न संयोग से मिले इस अचानक दिन को हम यादगार बना दें!’’ मैंने कहा।
         ‘‘कैसे?’’ वह मुझे ही देख रही थी।
         ‘‘हम करेंगे कुछ नहीं, सि़र्फ और सि़र्फ इस अपरिचित शहर में साथ-साथ घूमेंगे, खूब सारी बातें करेंगे, अपने बीते हुए दिन शेयर करेंगे, अपने सपने बाँटेंगे...’’
          ‘‘और?’’
          ‘‘और वह सब भी शेयर करेंगे, जो अपने शहरों में हम किसी से कभी कर नहीं पाये।’’
          ‘‘और?’’
         ‘‘और एक-दूसरे से कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे, न आज, न आज के बाद।’’
         ‘‘और?’’
         ‘‘और जो तुम चाहो...आई मीन, जो आप चाहें।’’
         ‘‘नहीं, तुम ही ठीक है...और एक बात और।’’
         ‘‘वह क्या?’’
         ‘‘हम झूठ नहीं बोलेंगे।’’ यह उसकी स्वीकारोक्ति थी।
         ‘‘अरे वाह! यह तो तुमने मेरे मन की बात पढ़ ली...तो चलें?’’
         ‘‘चलो।’’ अब उसने अपना पर्स कन्धे पर लटका लिया था। सो़फे और सेन्ट्रल टेबल के बीच जगह बनाते हुए हम बाहर की ओर चल दिये। पर वह सहसा बीच में ही रुक गयी, रिसेप्शन हॉल के बीचों-बीच, जैसे अचानक उसे कुछ याद आ गया हो।
          ‘‘क्या हुआ?’’ मैंने पीछे घूमकर उससे पूछा।
          ‘‘पर मैं तुम्हें बुलाऊँगी किस नाम से?’’ उसने झिझकते हुए मुझसे पूछा।
          ‘‘पलाश...पलाश भूषण नाम है मेरा।’’ मैंने कहा।
          ‘‘और मैं नमिता...नमिता कुलश्रेष्ठ।’’
         जब हम बाहर आये, तब दोपहर कुछ दूर अपने आने की प्रतीक्षा में सुबह के मुहाने पर खड़ी हुई थी। बादलों की लुका-छिपी में दिन का उजाला किसी गरीब के बच्चे-सा भूखा-नंगा खड़ा हुआ था।

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***
 
सूरज किसी छोटे शैतान बालक-सा कभी बादलों के पीछे छिप जाता, तो कभी अपना मुँह दिखाकर हँसने लगता था। हवा भी जैसे कोई भूला-बिसरा गीत गा रही थी। बादल, जो सारी रात बरसते रहे थे, अब थककर जैसे निढाल हो गये थे। पर पूरी तरह नहीं। ज़रा-सी प्राणवायु पाते ही वे बरसने लगते थे।
          हम कम्पनी के ऑफिस से बाहर निकलकर मेन रोड की पेवमेन्ट पर खड़े थे। हमारे सामने पसरा हुआ खाली समय टुकुर-टुकुर हमें ताक रहा था। यह वह समय था, जो हमने कम्पनी में अपने इन्टरव्यू के लिए बचाकर रख रखा था, लेकिन कम्पनी ने उसे हमारी ही झोली में वापस डाल दिया था। यह वह समय था, जब हमारे पास करने को कुछ नहीं था और नहीं करने को बहुत कुछ था।
          ‘‘तुम्हारा इस शहर में कोई परिचित है?’’ मैंने नमिता से पूछा।
          ‘‘नहीं...और तुम्हारा?’’ वह बोली। उसने अपने गॉगल सिर से उतारकर आँखों पर लगा लिए थे।
        ‘‘मैं भी यहाँ किसी को नहीं जानता...तुम्हें अजीब-सा नहीं लग रहा...अपरिचित शहर, अपरिचित लोग, अपरिचित तुम और मैं...’’
         ‘‘और बचा हुआ यह खाली समय, जो खुद भी एक अपरिचित की तरह हमसे मिलने चला आया है...तुम्हें ऐसा नहीं लगता जैसे हम किसी दूसरे व्यक्ति का फोटो अलबम देख रहे हों और वहाँ अपनी फोटो देख आश्चर्य में पड़ गये हों!’’
          ‘‘हाँ, या जैसे किसी दूसरे की डायरी पढ़ते-पढ़ते उसमें अचानक अपनी कहानी पढ़कर हैरान रह गये हों!’’
          ‘‘वही तो!’’
         पर मैं कुछ और सोच रहा था। मेरा ध्यान उसके कहे शब्द ‘हम’ पर अटका हुआ था। उसने पहली बार हम दोनों के लिए ‘हम’ शब्द का प्रयोग किया था। पहली बार उसने स्वयं से मुझे जोड़कर कुछ कहा था। पहली बार दो अलग-अलग व्यक्ति एक शब्द की छाँव तले एक हुए थे...मैंने मन ही मन ‘हम’ नाम की इस अद्भुुत संज्ञा को प्रणाम किया।
          हम चुप थे और अपने सामने सड़क पर बहते हुए ट्रैफिक को देख रहे थे। गाड़ियों का अनवरत भागता-दौड़ता हुजूम थमने का नाम नहीं ले रहा था। थोड़ी-सी शान्ति तब होती, जब पिछले चौराहे पर लाल सिग्नल हो जाता। हरी लाइट होते ही गाड़ियाँ फिर से सड़क पर दौड़ने लगतीं और हम जान जाते कि ये वे गाड़ियाँ नहीं हैं, जो अभी कुछ देर पहले निकली थीं।
         कम्पनी का वह ऑफिस शहर से दूर आउट स्कर्ट में किसी इन्डस्ट्रियल एस्टेट में था, जहाँ सड़क के दोनों ओर अलग-अलग कम्पनियों के ऑफिसेज बने हुए थे। दूर-दूर तक कोई दुकान या शोरूम दिखाई नहीं दे रहा था। इक्के-दुक्के लोगों को छोड़कर पेवमेन्ट भी लगभग सूना पड़ा हुआ था। हम दोनों भी उन्हीं थोड़े-से लोगों में से थे,  जो बस यूँ ही वहाँ चले आये थे।
          ‘‘तो अब?’’ उसने मेरी ओर देखा।
         ‘‘अब! चलो ऐसा करते हैं, एक बार तुम बताओ कि क्या करना है, दूसरी बार मैं बताऊँगा...चलो, पहले तुम बताओ।’’ मैंने कहा।
          ‘‘पहले मैं क्यों? तुम क्यों नहीं?’’
           ‘‘लेडीज़ फर्स्ट, यू नो।’’
           वह मुस्कुरा दी, ‘‘अच्छा चलो, मैं बताती हूँ। सोचने दो।’’
         वह कुछ ऐसे सोचने लगी, जैसे किसी गंभीर समस्या का समाधान ढूँढ़ रही हो। पर न तो वहाँ कोई समस्या थी और न ही गंभीरता। हम बस खाली समय भरने की कश्मकश में उलझे हुए थे।
         ‘‘चलो ऐसा करते हैं, वो सामने जो चौराहा दिख रहा है, वहाँ तक पैदल चलते हैं। फिर सोचेंगे।’’ उसने दूर सामने की ओर इशारा किया, जहाँ ट्रै़फिक सिग्नल की बदलती लाइट्स नज़र आ रही थी।
          ‘‘चलो...’’ मैंने कहा।
         हम साथ-साथ चलने लगे। यह चलना कम्पनी के रिसेप्शन और मेन बिल्डिंग में उस चलने से अलग था। तब साथ होने के बाद भी ‘साथ’ होने का भाव सिरे से अनुपस्थित था। और तब एक बार फिर मुझे मीठा-सा एहसास हुआ था कि मैं एक लड़की के साथ चल रहा था।
         हवा फिर रुक गयी थी और सड़क के दोनों ओर लगे पेड़ बिना हिले खड़े हुए थे। पेवमेन्ट पर जगह-जगह पानी भरा हुआ था। बार-बार हमें पानी के चहबच्चों से बचना पड़ता था। सूरज निकलकर भी निकला नहीं था। बादलों ने उसे अपने पीछे छिपा लिया था और लुकती-छिपती धूप में इतनी ताकत नहीं थी कि रात को हुई बरसात के पानी को सुखाकर उड़ा सके। गनीमत थी कि सड़क पर पानी नहीं था। तेज़ भागती-दौड़ती गाड़ियों ने उसे सुखा दिया था।
         ‘‘जानती हो, सड़क पर इस तरह पैदल मैं कई दिनों बाद चल रहा हूँ।’’ मैंने   उससे कहा।
         ‘‘क्यों? सुबह घूमने नहीं जाते?’’
         ‘‘घूमने! क्या बात करती हो! आईटी प्रो़फेशनल्स के पास इतना समय नहीं होता कि वे मॉर्निंग वॉक अफोर्ड कर सकें। क्या तुम जानती नहीं?’’
         ‘‘हाँ, कह तो तुम ठीक रहे हो। मैं खुद भी कहाँ जा पाती हूँ! और वैसे भी मेरी देर से सोने और देर से ही उठने की आदत है।’’
            ‘‘मेरी भी...और उठते ही ऑफिस के लिए भागना पड़ता है।’’
          ‘‘वही तो!’’
        ‘‘पर मैं वीकएंड में जिम ज़रूर जाता हूँ। बॉडी बिल्डिंग के लिए नहीं, बस हल्की-फुल्की एक्सरसाइज के लिए।’’
          ‘‘मैं तो घर पर ही थोड़ा-बहुत योगा वगैरह कर लेती हूँ। वह भी छुट्टी के दिन। बस, इतना ही टाइम मिल पाता है।’’
         हम फिर चुप हो गये। अभी हम एक-दूसरे से इतना खुल नहीं पाये थे कि बातों का सिलसिला अपने सहज रूप में चल सके। जब भी हमारी बात किसी विषय पर शुरू होती, वह अपने अन्त पर पहुँचकर रुक जाया करती थी। तब हम चुप हो जाया करते और उस रुके हुए समय में मन ही मन कोई नया विषय ढूँढ़ने लगते, ताकि बातचीत का सिलसिला अनवरत बना रह सके। लेकिन यह शुरू-शुरू की बात है। बाद में हम कब आपस में इतने घुल गये थे, इस बात का पता तो हमें स्वयं भी नहीं लग पाया था।
         कुछ देर तक एक अजीब-सी खामोशी हमारे बीच बजती रही पर हम लगातार उस चौराहे की ओर बढ़ते रहे।
         ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ उसने पूछा।
         ‘‘कुछ नहीं।’’
         पल भर वह चुप रही, फिर उसका धीमा-सा स्वर मुझ तक आया, ‘‘यहाँ की बारिश देखकर मुझे एक पुरानी बात याद आ गयी है। जिन दिनों मैं स्कूल में पढ़ रही थी, तब पापा की दो साल के लिए अल्मोड़ा में पोस्टिंग हुई थी। वहाँ हमारा बंगला एक ऊँची पहाड़ी पर था और हमें हर छोटे-बड़े काम के लिए नीचे मार्केट में आना पड़ता था।’’
          मैं उसे सुन रहा था।
        ‘‘हमारा स्कूल भी घर से काफी दूर था और आने-जाने के लिए हमारे पास कोई गाड़ी वगैरह भी नहीं थी। पैदल ही आना-जाना पड़ता था...मुझे आज भी याद है कि स्कूल जाते हुए मैं कई जगह ठहर जाया करती थी। थकान के कारण नहीं, उस घाटी में फैली खामोशी के कारण और प्रकृति की उस बेइन्तहा सुन्दरता के कारण...हालाँकि मैं बहुत छोटी थी, पर पेड़, पहाड़, झरने वगैरह मुझे हमेशा अपनी ओर आकर्षित किया करते थे। मैं देर तक अकेले ही प्रकृति को निहारा करती थी और जंगल की उस खामोशी को अपने भीतर गुनगुनाते हुए महसूस किया करती थी...जब बारिशों के दिन होते थे, तब ममा मुझे बरसाती में लपेटकर स्कूल भेजा करती थी।’’
         ‘‘अल्मोड़ा वाकई सुन्दर जगह होगी।’’
         ‘‘हाँ, वही तो...यह बात मैंने आज तक किसी को नहीं बताई कि कई बार मैं स्कूल बंक कर दिया करती थी और स्कूल बन्द होने तक का खाली समय बारिश में भीगते हुए और इधर-उधर भटकते हुए निकाल दिया करती थी।’’
         ‘‘अकेले! क्या बात कर रही हो!!’’
        ‘‘हाँ, सच कह रही हूँ...कभी-कभी जब बारिश जोर से हो रही होती थी, तब भटकना संभव नहीं हो पाता था...तब मैं किसी घने पेड़ के नीचे खड़ी हो जाया करती थी। पानी की बूँदें पेड़ की पत्तियों से होती हुईं मुझ पर टप-टप गिरा करती थीं। मुझे लगता था, जैसे कि मैं एक पौधा बन गयी हूँ, हरी घास बन गयी हूँ, और मुझ पर भी वैसे ही बारिश हो रही है जैसे कि शेष घाटी में...ना मेरे आगे कोई है, ना पीछे। मुझे बस बरसते पानी में घुलकर घाटी में बह जाना है...’’
         ‘‘यह एक अद्भुत अनुभव रहा होगा...नहीं क्या?’’ मैंने कहा। उसकी बात मुझे गहरे तक स्पर्श कर गयी थी।
         ‘‘हाँ, अद्भुत और अविस्मरणीय। वैसा अनुभव ज़िंदगी में फिर कभी नहीं हुआ, हालाँकि पहाड़ों पर तो मैं अक्सर जाती ही रहती हूँ।’’
         ‘‘तुम ठीक कह रही हो। कई बार ऐसा होता है कि हम किन्हीं अनजान पलों में कुछ विलक्षण-सा अनुभव करते हैं, और फिर वह अनुभव सारी उम्र दुबारा नहीं दोहरा पाते...’’
          ‘‘हाँ, हू-ब-हू ठीक वैसा तो कभी भी नहीं, पर उससे मिलती-जुलती दूसरी अनुभूतियाँ अवश्य कभी-कभार होती रहती हैं। पर हम जान जाते हैं कि यह अनुभव वैसा नहीं है, जैसा उस दिन हुआ था।’’ उसकी बारिश में धुली आवाज़ मुझ तक साफ-साफ पहुँच रही थी।
          चौराहा पास आने लगा था। सड़क के किनारे कुछ दुकानें भी दिखायी देने लगी थीं। जो सूरज अभी कुछ देर पहले शैतान बच्चे-सा चुहल कर रहा था, उसे अब बादलों ने पूरी तरह अपने पीछे छिपा लिया था। एक मटमैले-से उजास ने सब कुछ  धुँधला-सा कर दिया था।
         फिर हमें ठहरना पड़ा। वहाँ चार रास्ते थे, चार अलग-अलग दिशाओं की ओर जाते हुए और हमें पता नहीं था कि हमें जाना कहाँ था! वे असमंजस के रंग में भीगे हुए क्षण थे। हम एक ओर खड़े-खड़े चुपचाप ट्रै़फिक लाइट्स के बदलते हुए रंगों को देखते रहे। लाल लाइट होते ही वाहनों की लाइन लग जाती और हरी होते ही प्रवाह फिर चलने लगता। महसूस होता, जैसे कोई बच्चा रिमोट से खेल खेल रहा हो।
         हल्की बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी थी, पर इतनी तेज़ नहीं कि हमें भिगो सके। पानी की बूँदें ब़र्फ के फाहों की तरह हल्की थीं और हम आहिस्ता-आहिस्ता उन्हें अपने पर झरते हुए महसूस कर रहे थे। जैसे कि कोई सपनों-सी कविता हो, जिसके शब्द आहिस्ता-आहिस्ता हम पर झर रहे हों। हवा पूरी तरह रुकी हुई थी और झरती हुई बारिश को चुपचाप झरते हुए देख रही थी।
         ‘‘उस रेस्तरां में चलें?’’ नमिता ने सहसा मुझे जैसे किसी स्वप्न से बाहर खींच लिया था। वह वहीं चौराहे पर बने एक रेस्तरां की ओर संकेत कर रही थी।
         ‘‘चलो।’’ मैंने कहा और हम उस ओर चल पड़े, जहाँ अभी भी उसका संकेत हवा में ठिठका हुआ था।
         रेस्तरां में अँधेरा-अँधेरा सा था। बरसती बारिश ने उसे और भी घना कर दिया था। हमें एक विन्डो सीट मिल गयी, जहाँ बैठकर बाहर गिरती हुई बारिश और भागते-दौड़ते ट्रै़फिक को देखा जा सकता था। नमिता मेरे सामने वाली सीट पर बैठ गयी थी।
         नमिता को ठीक सामने, अपने इतने पास, मैं पहली बार देख रहा था। वह अपने पर्स से रूमाल निकालकर पानी की बूँदों से भीगा अपना चेहरा पोंछ रही थी। उसके होंठ जितने सुतवाँ थे, उतनी ही नाजुक उसकी अँगुलियाँ थीं। जब वह अपने चेहरे पर अपना रूमाल घुमाती, तब लगता, जैसे अभी वे टूटकर गिर पड़ेंगी...मैं अपनी ही सोच पर मुस्कुराये बिना नहीं रह सका।
         ‘‘तुम्हें ठण्ड तो नहीं लग रही?’’ उसके टॉप की छोटी बाँहों पर ध्यान जाते ही मैंने कहा, ‘‘तुम चाहो, तो अपने लिए फुल स्लीव्ज़ का कोई विन्टर वीयर ख़रीद  सकती हो।’’
         ‘‘नहीं, उसकी ज़रुरत नहीं है। ममा ने घर से चलते समय यह विंड शीटर मेरे पर्स में डाल दिया था। मैं इसे पहन लेती हूँ।’’ नमिता ने अपने पर्स में से विंड शीटर निकाला और उसे पहनने लगी। स्काई ब्लू कलर के विंड शीटर ने उन बाँहों को पूरी तरह ढँक लिया था।
         ‘‘जब विंड शीटर तुम्हारे पास था, तो अब तक पहना क्यों नहीं!’’ मुझे आश्चर्य हुआ कि वह क्यों व्यर्थ ही इतनी देर से ठण्डी हवाएँ झेल रही थी।
         ‘‘विंड शीटर पहनकर भी भला कोई इन्टरव्यू देता है!’’
         ‘‘तब नहीं, लेकिन बाद में तो पहन ही सकती थी।’’
         ‘‘हाँ, पर जान-बूझ कर नहीं पहना...जानते हो, इन दिनों दिल्ली में काफी गर्मी होती है। सोचा नहीं था कि इस शहर में ऐसा मौसम मिलेगा। बहुत दिनों बाद ठण्डी हवाओं ने मुझे छुआ है...मैं उन्हें महसूस करना चाह रही थी।’’ उसने अपने गॉगल एक बार फिर सिर पर चढ़ाते हुए कहा। अब उसकी नीली आँखें ठीक मेरे सामने थीं, जिन्हें आज सुबह ही मैंने कम्पनी ऑफिस के रिसेप्शन के बाहर पहली बार देखा था।
        सहसा महसूस हुआ कि हम एक-दूसरे को कितना कम जानते थे! पल भर मैं उसे चुपचाप देखता रहा। वह अपने खुले बाल ठीक कर रही थी, जो अब उसके विंड शीटर पर बिखर गये थे।
        ‘‘यह विंड शीटर तुम पर सूट कर रहा है।’’ मैंने उसे देखते हुए कहा। पर तत्काल ही मुझे संदेह हुआ कि कहीं वह यह न समझ ले कि मैं उसे फ्लर्ट कर रहा हूँ! शायद मुझे ऐसा नहीं कहना चाहिए था।
         ‘‘फ्लर्ट कर रहे हो?’’ नमिता ने कहा। वह मुस्कुरा रही थी। उसने मेरा संदेह पढ़ लिया था।
        मैं भी मुस्कुरा दिया, ‘‘ऐसा कर सकता था, पर हम दोनों यह तय कर चुके हैं कि हम एक-दूसरे से कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे...इसके बाद फ्लर्ट करने का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता!’’
         ‘‘अच्छा तो अब बातें ही करते रहोगे कि कुछ खिलाओगे-पिलाओगे भी?’’ उसने अपना पर्स बन्द किया और एक ओर रख दिया।
         ‘‘तुम क्या लोगी?’’ मैंने मीनू देखते हुए पूछा।
         ‘‘यहाँ क्या-क्या है?’’
         ‘‘वही सब...साउथ इंडियन, चाइनीज़, पैटीज वगैरह...’’
         ‘‘तुम क्या पसंद करते हो?’’
         ‘‘मैं ऐसा कोई खास फूडी नहीं हूँ। कुछ भी, जो भी तुम चाहो।’’
         ‘‘जब से फ्लाइट से उतरी हूँ, मैंने कुछ भी नहीं खाया है। भूख भी लगने लगी है। ऐसा करते हैं, मसाला डोसा मँगवा लेते हैं...और चाय। पेट भी भर जाएगा।’’
         ‘‘चाय कि कॉफी?’’
         ‘‘कॉफी नहीं, चाय...और तुम?’’
         ‘‘मैं तो दोनों ही ले लेता हूँ। कॉफी हम पहले भी पी चुके हैं, अब तुम कहती हो तो चाय पी लेते हैं।’’
         वेटर को ऑर्डर देकर मैं उसकी ओर मुड़ा, ‘‘तुम वेजीटेरियन हो कि नॉन वेजीटेरियन?’’
         ‘‘पक्की नॉन वेज! घर में सभी को नॉन वेज का बहुत शौ़क है। पापा रात को जब घर लौटते हैं, तब कई बार पंजाबी बाग से नॉन वेज की कोई न कोई डिश पैक करा लाते हैं। वहाँ एक ढाबे पर बहुत अच्छा नॉन वेज मिलता है।’’ उसकी आँखों में घर उतर आया था, जैसे वह अपने पापा की लाडली और माँ की दुलारी बिटिया रही हो। मुझे सहसा अपनी बहन का स्मरण हो आया। कई बार वह भी ठीक ऐसे ही बातें किया करती थी।
         ‘‘यह तो अच्छी बात है।’’ अचानक मुझे एक पुरानी घटना याद हो आयी थी, ‘‘जानती हो, तीन साल पहले हम कुछ दोस्त नेपाल घूमने गये थे। हमारे साथ एक वेज बन्दा भी था। उसके कारण सारे ट्रिप में हम नॉन वेज खाना खाने के लिए तरसते रह गये थे। पर जब लौट रहे थे, तब एक होटल में वेज खाना नहीं मिला। रात के एक बज रहे थे और आस-पास कोई दूसरा होटल भी नहीं था...तब वह बोलता है कि चलो, मेरे लिए भी नॉन वेज ही मँगवा लो...बाई गॉड, हम सारे दोस्त उस पर जैसे टूट ही पड़े। उसके लिहाज़ के कारण सात दिन तक हम सब घास-फूस चरते रहे थे, अब वही बोल रहा था कि मैं भी नॉन वेज खा लूँगा!’’
          वह हँस पड़ी। निश्छल हँसी, जो किसी भी प्रकार के लाग-लपेट से परे थी। उसका उस घटना से कोई सम्बन्ध नहीं था, लेकिन अपनी हँसी से उसने स्वयं को उसमें जोड़ लिया था। मेरे साथ-साथ वह भी मेरी स्मृति में बसे उस दिन की यात्रा कर आयी थी।
         वेटर हमारी प्लेट्स रख गया था। डोसों को देखकर हम मुस्कुराये बिना नहीं रह सके थे। उनका साइज़ बहुत बड़ा था और वे प्लटों से बाहर तक अपने विशाल पंख फैलाये हुए थे। डोसों के साथ आयी गर्म साँभर की महक भी हमारे नथुनों में भर गयी थी।
         हम चुपचाप खाने लगे थे। वह सचमुच भूखी थी और जल्दी-जल्दी खा रही थी। इस कारण हमारी बातचीत कुछ थम-सी गयी थी, हमेशा के लिए नहीं, सि़र्फ कुछ देर के लिए, जैसे चौराहों पर लाल बत्ती देखकर थोड़ी देर के लिए ट्रैफिक रुक जाया  करता है।  
         ‘‘क्या तुम कभी दिल्ली आये हो?’’ अचानक नमिता ने मुझसे पूछा।
         ‘‘नहीं। कभी नहीं...क्यों?’’
         ‘‘तुम्हें आना चाहिए। आख़िर हमारी कैपिटल है भाई!’’
          मैं मुस्कुरा दिया, ‘‘यह तो कोई कारण नहीं हुआ।’’
         ‘‘ज़रूरी नहीं कि कहीं जाने के लिए कोई ख़ास कारण हो!’’
         ‘‘हाँ, यह बात तो है। पर अब कम से कम एक कारण तो है।’’
          ‘‘क्या?’’
         ‘‘तुम...तुम हो न वहाँ, इसलिए अब दिल्ली जाया जा सकता है।’’ मैंने कह तो दिया, पर अगले ही क्षण मुझे लगा कि यह उन मर्यादाओं का उल्लंघन था, जो हमने तय की थीं।
          वह छुरी-काँटे से डोसा काटते-काटते सहसा ठिठक गयी। उसकी आँखों में एक अनजाना-सा भय उतर आया था, ‘‘पर शायद मम्मी-पापा को यह जानकर अच्छा नहीं लगे कि मैंने यहाँ एक पूरा दिन किसी अज़नबी लड़के के साथ गुज़ारा था।’’
        ‘‘घबराओ मत। मैं वहाँ कभी आया भी, तो तुम्हारे पास नहीं आऊँगा। मैं कभी नहीं चाहूँगा कि तुम मेरे कारण असहज हो जाओ। पर मेरे मन में तसल्ली होगी कि इस शहर में कोई है, जो मुझे जानता है, मेरी ही तरह साँस लेता है, जिसके साथ कभी मैंने एक अनजान शहर में कुछ समय गुज़ारा था और जिसकी स्मृतियों में शायद मैं अब भी होऊँ।’’ मैंने कहा। यह एक प्रकार की आश्वस्ति थी, जो उन क्षणों में मैं उसे दे सकता था।
         पल भर वह चुप रही, जैसे कुछ कहने से पहले असमंजस के कुहासे को दूर कर रही हो, ‘‘हाँ, तुम ठीक कह रहे हो। हमारा अब कभी नहीं मिलना ही ठीक रहेगा। वैसे भी, अगर दुबारा मिले तो हम वह नहीं होंगे, जो हम अब हैं...हमें नये सिरे से एक-दूसरे को पहचानना होगा।’’
         ‘‘जैसे सड़क पर छतरी लगाये जा रहा वह आदमी। वह अभी यहाँ से चला जाएगा और इसके पीछे दूसरा आदमी आ जाएगा। वह भी छतरी लगाये हुए होगा, पर वह, वह नहीं होगा, जो अभी-अभी यहाँ से गया है।’’ मैंने बाहर की ओर इशारा करते हुए कहा।
         ‘‘वही तो!’’ वह भी खिड़की के बाहर उस आदमी को देखने लगी थी, जिस ओर मैं संकेत कर रहा था। उस आदमी का चेहरा छतरी के पीछे पूरी तरह छिप गया था। वह उसे तब तक देखती रही, जब तक वह उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गया। वह अपनी छुरी और काँटा अब भी अपने हाथों में थामे हुए थी।
          बारिश अनायास कुछ तेज़ हो गयी थी और भीगने से बचने के लिए कुछ लोग रेस्तरां के पोर्च में चले आये थे, जिससे भीतर आती रोशनी कुछ कट-सी गयी थी। अन्दर का अँधेरा और घना हो गया था। हमारे पास भी बारिश से बचने का कोई साधन नहीं था। रेस्तरां में बैठे रहने के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प हमारे पास था भी नहीं। हम चुपचाप बारिश के बरसने की आवाज़ सुनते रहे थे।
          ‘‘तुम्हारा डोसा ठण्डा हो रहा है।’’ मैंने कहा।
          उसने मुस्कुराकर मेरी ओर देखा और चुपचाप डोसा खाने लगी। वह छुरी-काँटे से खाना खाने की अभ्यस्त थी और बिना किसी असुविधा के उनका प्रयोग कर रही थी।
          ‘‘तुम बोलती बहुत कम हो।’’
         ‘‘नहीं तो!’’ वह चौंक गयी, ‘‘दरअसल मैं सोच रही थी कि क्या अब शाम तक हमें यहीं बैठे रहना होगा! यह बारिश तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही।’’
        ‘‘नहीं, बादल इतने भी घने नहीं हैं कि शाम तक बरसते रहें। वे जानते हैं कि दो अलग-अलग शहरों से दो अजनबी पहली बार इस अनजान शहर में आये हैं। वे हमें घूमने का अवसर अवश्य देंगे।’’ मेरा डोसा समाप्त हो चुका था।
          ‘‘देखते हैं तुम्हारी बात कितनी सच निकलती है!’’
          अचानक मेरे मन में एक विचार आया, ‘‘अगर तुम चाहो, तो हम एक काम कर सकते हैं।’’
          ‘‘क्या?’’
         ‘‘क्यों न हम एक कैब कर लें, जो सारा दिन हमें यहाँ-वहाँ घुमाती रहे, सारा शहर दिखाती रहे और शाम आठ बजे तक एयरपोर्ट भी छोड़ दे। इससे हम शहर भी देख लेंगे, बारिश में भीगने से भी बच जाएंगे और अचानक मिला यह समय भी कट जाएगा।’’
         उसने मेरी ओर देखा पर कहा कुछ भी नहीं। चुपचाप सिर झुकाये अपना डोसा खाती रही। शायद वह असमंजस था, जो बिना बुलाये इस बारिश की तरह चला आया था। संभवत: मैंने गलत प्रस्ताव रख दिया था। एक लड़की किसी अपरिचित लड़के के साथ अपरिचित शहर में शायद ही अकेले घूमना पसंद करे! शायद उसे सड़कों पर अकेले भटकना कैब के बन्द दरवाज़ों में भटकने से ज्यादा सुरक्षित महसूस हो!
          नमिता की चुप्पी मुझे अखरने लगी थी...वह चाहती तो मना कर सकती थी। पर वह मना भी नहीं कर रही थी!
         ‘‘नमिता..’’
         ‘‘हाँ पलाश, बोलो...।’’
          मैं चुप रहा।
         ‘‘तुम कुछ कह रहे थे?’’
         ‘‘कुछ नहीं...सि़र्फ इतना कहना चाह रहा हूँ कि मेरे पास तुम्हें विश्वास दिलाने का एक भी अक्षर नहीं है, कोई दिलासा भी नहीं है और न ही कोई आश्वासन है। यदि नहीं चलना चाहो, तो मना भी कर सकती हो। सच में, मैं ज़रा भी बुरा नहीं मानूँगा।’’ मैंने सीधे उसे देखते हुए कहा।  
         ‘‘नहीं, मैं मना नहीं कर रही...बल्कि मुझे तुम्हारा आइडिया ठीक ही लग रहा है। कैब में हम इस शहर को अच्छी तरह देख भी लेंगे और बारिश से बच भी जाएंगे।’’ उसने कहा। पर मैं स्पष्ट देख पा रहा था कि उसे अपने असमंजस को एक और सरकाने में काफी मेहनत करनी पड़ रही थी। दुविधा ऐसी ही होती है। जब होती है, तब अपनी सम्पूर्ण ऊर्जा से डस लेती है, पर जब नहीं होती तब मन ताज़ी हवा-सा झूमने लगता है।
         मैं उसकी नीली आँखों को देख रहा था।
         ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’
         ‘‘हम एक डील और करते हैं...हम जब चाहें, जहाँ चाहें, अलग हो सकते हैं...बिना कारण बताये।’’ मैं उसे पूरी तरह आश्वस्त करना चाहता था, हालाँकि वह आश्वस्ति थी भी कि नहीं, यह मैं नहीं जानता था।
         उसने काँटे चम्मच खाली प्लेट में रखे, ‘‘तुम इतना क्यों सोचते हो? बाद की बाद में देखी जाएगी। अभी तो तुम कैब बुक कराओ।’’
          जब तक मैंने कैब बुक करायी, तब तक चाय आ गयी थी।
         ‘‘पेट भरा कि नहीं तुम्हारा? तुम चाहो, तो हम कुछ और भी ऑर्डर कर सकते हैं।’’ मैंने उससे पूछा। मुझे याद आया कि उसे बहुत भूख लगी हुई थी।
         ‘‘पेट पूरी तरह भर गया है। डोसे का साइज़ देखा था ना तुमने! इतना बड़ा डोसा खाकर कोई भूखा कैसे रह सकता है!’’ वह पेपर नैपकिन से अपने हाथ साफ कर  रही थी।
           मैंने चाय का कप उसकी ओर सरकाया, ‘‘लो, चाय पियो।’’
         चाय बहुत गर्म थी। उसकी खुशबू हमारे नासाछिद्रों में भरने लगी थी और इसी से ही हम जान गये थे कि चाय अच्छी होगी।
         ‘‘वैसे अपने शहर में मैं ज्यादा चाय पीती नहीं, पर दूसरे शहर में मैं चाय या कॉफी के बिना रह नहीं सकती।’’ उसने एक घूँट भरते हुए कहा।
         ‘‘हाँ, मुझे इस बात का कुछ-कुछ अन्दाज़ा हो गया था। इससे पहले कम्पनी के रिसेप्शन ऑफिस में हम दो बार कॉफी पी चुके हैं।’’ मैंने मुस्कुराकर कहा, ‘‘जहाँ तक मेरा ताल्लुक है, मुझे तो तुम कभी भी चाय या कॉफी पिला सकती हो।’’
         वह भी मुस्कुरा दी। मन्द-सी मुस्कान, जो अकारण ही चली आयी थी, मुझे सांत्वना देती हुई। उसकी इस मुस्कान ने उस दुविधा को थोड़ा-सा परे खिसका दिया था, जो अभी कुछ देर पहले उसके पास उसकी बहन-सी बैठी हुई थी।
         हम खिड़की के बाहर देखने लगे। खिड़की के काँच पर कोहरा जमा हो गया था और कुछ भी साफ दिखायी नहीं दे रहा था। सड़क पर दौड़ती गाड़ियों की लाइट्स दिन के समय भी जल रही थी और उनका काफिला रेंगते हुए आगे बढ़ रहा था। ऐसा लगा, जैसे किसी को कोई जल्दी नहीं थी, ना सड़क पर दौड़ती गाड़ियों को और ना ही हमें! यहाँ तक कि सूरज को भी नहीं। वह बादलों के पीछे छिपकर उनके चले जाने की प्रतीक्षा असीम धैर्य के साथ कर रहा था।
         पेवमेन्ट लोगों से खाली पड़ा था, पर पानी से भर गया था। बारिश से बचने के लिए कुछ लोग सड़क के किनारे लगे पेड़ों के नीचे आ खड़े हुए थे। लेकिन पेड़ों की शाखाओं और पत्तियों से होती हुई बरसात की बूँदों से वे बच नहीं पा रहे थे।
         ‘‘कितनी अजीब बात है...बारिश से बचने के लिए पेड़ के नीचे खड़े रहो और भीगते भी रहो।’’ मैंने चाय की एक घूँट भरते हुए कहा।
         ‘‘वही तो! लेकिन बारिश ही क्यों, उम्र भर हम यही करते रहते हैं। मुश्किलों से बचने के लिए रास्ते तलाशते रहते हैं, पर वे तब भी बनी रहती हैं...नहीं?’’
         ‘‘पर हमेशा नहीं। कई बार मुश्किलें आसान हो जाती हैं और कई बार उनका अन्त भी हो जाता है।’’
         ‘‘नहीं, तुम समझे नहीं। मैं कहना चाह रही हूँ कि मुश्किलें कभी पूरी तरह ख़त्म नहीं होती। हम एक से बाहर निकल भी नहीं पाते कि दूसरी आ घेरती हैं।’’
         ‘‘हाँ, यह तो है...पर शायद इसी का नाम ज़िंदगी है।’’
         अभी दिन के बारह भी नहीं बजे थे, लेकिन लग ऐसा रहा था, जैसे शाम का समय हो। घने काले बादलों ने सूरज की रोशनी को आकाश में ही कैद कर लिया था। पर शहर ठहरा नहीं था, उसकी साँसें यथावत चल रही थीं। लोगों का आना-जाना, सड़क पर भागता-दौड़ता ट्रै़फिक, दुकानें, ऑफिसेज़, रेस्तरां की गहमा-गहमी...कुछ भी रुका नहीं था। क्षण भर के लिए मुझे आश्चर्य हुआ कि इन दिनों लोग कैसे प्रकृति से कटते जा रहे हैं!
         ‘‘चाय पियो ना! ठण्डी हो जाएगी।’’ नमिता की आवाज़ से मैं चौंक गया। कुछ देर के लिए मैं अपनी अन्दर की दुनिया में खो-सा गया था, बाहर की दुनिया से कट कर...पर बाहर की दुनिया का अस्तित्व था, जो हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। वह रेस्तरां महज़ एक पड़ाव था, एक ऐसा क्षणिक ठहराव, जो कुछ देर के लिए हमें शरण दिये हुए था।
         मैंने चाय की एक बड़ी-सी घूँट ली ही थी कि मेरा मोबाइल बजने लगा। मैंने उसे कान से लगाया। जो कैब मैंने बुक करायी थी, उसके ड्राइवर का फोन था। वह बता रहा था कि उसने जीपीएस में लोकेशन देख ली है और वह पहुँचने ही वाला था।
         ‘‘कैब आने ही वाली है।’’ मैंने कहा।
         ‘‘ओह!’’ उसने कहा और जल्दी-जल्दी चाय पीने लगी।
         ‘‘इतनी भी जल्दी नहीं आएगा, आराम से पियो।’’ मैंने कहा।
          वह फिर मुस्कुराई और उसने अपना कप प्लेट में रख दिया।
         हम चुपचाप रेस्तरां की खिड़की पर बैठे बारिश का बरसना देख रहे थे। बाहर सब कुछ ठीक वैसा ही था, जैसे मैं प्राय: अपने शहर बेंगलुरु में देखा करता था। अतिव्यस्तता का लिबास पहने ऐसे शहर आजकल आम पाये जाने लगे हैं। मेरे लिए अन्तर यह था कि मैं अपनी व्यस्तता बेंगलुरु छोड़कर आया था, और अब इस शहर की अ-व्यस्तता मेरे साथ चिपक गयी थी।
         अचानक बादल घने होकर जोर से बरसने लगे थे। दिन का उजाला काले बादलों के उस पार किसी अदृश्य दहलीज़ पर खड़ा सोच रहा होगा कि कब ये बादल छँटेंगे और कब वह नीचे उतर पाएगा, मैंने सोचा।
         ‘‘कितनी अजीब-सी बात है! प्रकृति के रंग बदलते ही कुछ भी वैसा नहीं रह जाता, जैसा कि वह दरअसल होता है।’’ मेरी निग़ाहें बाहर लगी हुई थीं।
         ‘‘हाँ, तुम ठीक कह रहे हो...विश्वास नहीं हो रहा कि यह वही पेवमेन्ट है, जिस पर चलकर हम यहाँ आये हैं। देखते ही देखते वह कितना बदल गया है!’’ नमिता की निग़ाहें भी उसी ओर लगी थीं।
         ‘‘कई बार मुझे भी ठीक यही अनुभव होता है... प्रकृति के कारण नहीं, बल्कि अपने स्वयं के कारण...सुबह शीशे के सामने शेव बनाते समय कई बार विश्वास करना कठिन हो जाता है कि यह मैं हूँ! जैसे जो शख्स हवा में साँस लेता है, उठता-बैठता है, जिसे लोग जानते हैं, वह मैं नहीं हूँ, कोई और है...कोई और, जो मेरी काया चुराकर उसमें रह रहा है! भले ही उसका चेहरा मुझसे मिलता-जुलता है, पर वह मैं नहीं हूँ... और कई बार यह अहसास इतना गहरा हो जाता है कि मैं रेज़र से अपने ही गाल कटा बैठता हूँ।’’
          ‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’
          ‘‘मैं ठीक कह रहा हूँ नमिता। क्या तुम्हारे साथ कभी ऐसा नहीं हुआ, जब तुम्हें लगा हो कि तुम अपनी काया से बाहर आ गयी हो और स्वयं को देख रही हो! तुम खुद अपने होने की साक्षी बन गयी हो!’’
         ‘‘मैं समझ रही हूँ तुम क्या कहना चाह रहे हो...लेकिन मुझे कई बार इससे ठीक विपरीत महसूस हुआ है...मुझे लगता है, जैसे जो व्यक्ति मेरे सामने खड़ा है, वह, वह नहीं है, जिससे मुझे बात करनी है। वह व्यक्ति शायद इस व्यक्ति के चले जाने के बाद आएगा... यहाँ तक कि यह अहसास मुझे अपनी ममा-पापा से बात करते समय भी हुआ है। मुझे शर्म महसूस होती है, पर मैं कर कुछ नहीं सकती।’’
         ‘‘तुम जो महसूस करती हो, वह उसी धागे का दूसरा सिरा है, जिसका पहला सिरा मैंने पकड़ रखा है।’’ मैंने कहा।
          पर इसके पहले कि नमिता कुछ कहती, कैब वाले का फोन आ गया। वह रेस्तरां के पोर्च में हमारी प्रतीक्षा कर रहा था। हम उठकर रेस्तरां के काउन्टर पर आ गये। वह पैसे देने की ज़िद कर रही थी। बहस के बाद मुझे उसका यह प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा कि रात को बिछुड़ने से पहले सारा ख़र्च हम आधा-आधा बाँट लेंगे।
         कैब रेस्तरां के पोर्च में खड़ी थी। मुझे खुशी हुई कि उसमें बैठने के लिए हमें भीगना नहीं पड़ेगा। मैंने कैब ड्राइवर को समझा दिया कि हमें सारा शहर घुमाकर शाम आठ बजे तक एयरपोर्ट छोड़ दे।
        नमिता पिछली सीट पर बैठ चुकी थी, जबकि मैं बाहर खड़ा-खड़ा ड्राइवर से बात कर रहा था। वे बेहद दुविधापूर्ण पल थे। मेरे लिए यह निर्णय कर पाना कठिन हो रहा था कि मुझे नमिता के साथ पीछे बैठना चाहिए या आगे! धीमी पड़ रही बारिश ने ही मेरे असमंजस को ताड़ लिया था। भीगे हुए पेड़, पानी के चहबच्चों से भरी सड़क और भागती-दौड़ती गाड़ियाँ भी मेरा संकोच चुपचाप महसूस कर रहे थे।
         ‘‘बैठो ना! क्या सोच रहे हो?’’ उसने पिछला दरवाज़ा खोलते हुए मेरी सारी दुविधाओं को एक ओर बुहार दिया था।
         मैं उसके पास जा बैठा, हालाँकि झिझक पूरी तरह गयी नहीं थी। मैं उसके पास बैठ तो गया था, पर एक सुविधाजनक दूरी पर। यह पहली बार का पास बैठना नहीं था। मुझे याद आया इन्टरव्यू देने जाते समय भी मैं इलेक्ट्रिक व्हीकल में उसके पास बैठकर ही गया था, रिसेप्शन के सो़फे पर भी उसके पास बैठा था और रेस्तरां में ठीक उसके सामने। पर फिर भी असहजता के नुकीले पंजों ने मुझे कसकर जकड़ लिया था। हम दोनों के बीच मर्यादा की एक अदृश्य लकीर अपने आप खिंच गयी थी, हालाँकि कोई पर्स हमारे बीच में नहीं रखा हुआ था।
         ‘‘हम कहाँ जा रहे हैं?’’ सहसा उसने पूछा।
         ‘‘पता नहीं...जहाँ भी ड्राइवर साहब ले जायें!’’ मैंने ड्राइवर से पूछा, ‘‘कहाँ ले जा रहे हो भाई?’’
        ‘‘थोड़ी दूर एक व्यू पॉइंट है सर। अच्छी जगह है, आपको पसंद आएगी।’’ वह बोला। विंड ग्लास के वाइपर इधर-उधर घूम रहे थे। बारिश धीमी पड़ती जा रही थी। शहर आहिस्ता-आहिस्ता पीछे छूट रहा था। शहर छूटते ही ट्रैफिक भी अब उतना नहीं रह गया था। कैब ने गति पकड़ ली थी और तेज़ी से आगे बढ़ रही थी।
           नमिता के गॉगल्स अभी भी उसके सिर पर टिके हुए थे।
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***
हम उस शहर को पीछे छूटता हुआ देख रहे थे, जो हमारा नहीं था। एक दृश्य पूरी तरह आँखों में समाता भी नहीं था कि उसकी जगह दूसरा आ जाता था। हमारी कैब कब एक घाटी की चढ़ाई चढ़ने लगी थी, हमें पता ही नहीं चल पाया था। बारिश रुक गयी थी लेकिन बादल चारों ओर से हमें घेरे हुए थे। कैब घने बादलों के बीच से ऐसे गुज़र रही थी, जैसे कोई हवाई जहाज ऊँचाई पर बादलों के बीच उड़ रहा हो।
         क्या वे बादल हमारा स्वागत करने के लिए आये थे?
         ‘‘यह एक सुन्दर शहर है।’’ नमिता ने कहा। कुछ ऐसे, जैसे वह मुझसे नहीं, अपने आप से बात कर रही हो।
          ‘‘हाँ, मैं भी यही सोच रहा था। यहाँ नये सिरे से जीवन शुरू किया जा सकता है।’’
        ‘‘नये सिरे से ही क्यों, जो जीवन चल रहा है, उसे यहाँ शिफ़्ट करके भी तो आगे बढ़ा जा सकता है! नहीं क्या?’’
             मैंने मुस्कुराकर उसकी ओर देखा। यह मेरी स्वीकारोक्ति थी।
            कुछ घुमावदार मोड़ों के बाद हम एक पहाड़ की चोटी पर थे। बारिश का नहीं बरसना हमारा साथ दे रहा था। कौन जाने हमारे लिए ही उसने कुछ देर रुक जाना ठीक समझा हो। हालाँकि बादल चारों ओर थे, कैब को स़फेद दायरे में लपेटे हुए। मन्द हवा के साथ-साथ एक उज्ज्वल आलोक वहाँ पसरा हुआ था। शहर की तुलना में वहाँ ज्यादा ठण्ड थी।
         तभी मैंने देखा कि उसने पर्स में से कुछ निकाला। वह एक नीले रंग का स्कार्फ था, जिस पर सुन्दर फूल बने हुए थे। उसे बाँधने के लिए वह एक ओर घूमी। मैं भी दूसरी ओर देखने लगा, जैसे स्कार्फ पहनते देखना कोई शर्म की बात हो। अब मेरी पीठ उसकी ओर थी और मैं उसे देख नहीं सकता था। थोड़ी देर बाद वह मेरे  सामने आयी।
         स्कार्फ में उसका चेहरा किसी पत्रिका के ताज़ा छपे मुख्य पृष्ठ सा लग रहा था। उसके चेहरे की फ्रेशनेस को नज़रअन्दाज़ कर पाना नामुमकिन था, जैसे किसी अल्हड़ युवती का पोस्टर हवा में चस्पा कर दिया हो। उसका चेहरा किसी मासूम बच्चे की तरह लग रहा था, जिसकी माँ ने सर्दी से बचाने के लिए उसका मुँह सावधानी से लपेट दिया था। वह बदल-सी गयी थी।
         मैं उसके साथ व्यू पॉइन्ट पर खड़ा था, जहाँ एक रेलिंग लगी हुई थी। सामने गहरी खाई थी, जिसके उस पार पानी के कई झरने बह रहे थे। बहते हुए झरनों की आवाज़ें संगीत की मुरकियों की तरह चारों ओर फैली हुई थीं। हमारे आस-पास और लोग भी थे, जो हमारी ही तरह सब कुछ भूलकर प्रकृति के उस अद्भुत स्वरूप को निहार रहे थे।
         ‘‘इस शहर में इतनी सुन्दर जगह होगी, यह पहले नहीं सोचा था।’’ उसने आहिस्ता से कहा। उसकी आवाज़ मन्द हवा पर तैरते बादलों पर सवार होकर आयी थी। मैंने उसे सँभाल लिया था।
          ‘‘हाँ, मैंने भी नहीं सोचा था...तुम ठीक कह रही थीं। ज़िंदगी जीने के लिए यह शहर इतना बुरा भी नहीं!’’ मेरा सारा ध्यान घाटी और झरने और बादल और घने पेड़ों पर लगा हुआ था। प्रकृति जैसे अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ हमारे सामने उपस्थित थी। हम चारों ओर पहाड़ों से घिरे हुए थे, गहरी हरियल चुनरी और घूमते बादलों और बहते झरनों ने उनका शृंगार किया हुआ था। बादल हर जगह थे और वे हमारे संवाद सुनने बार-बार हमारे और पास चले आते थे। प्रकृति के उस अप्रतिम सौन्दर्य ने हम दोनों को पूरी तरह अपने में समो लिया था। हम अपना होना तक भूल बैठे थे...
          मैं बाहर ही नहीं, मन के भीतर भी कहीं गीला होने लगा था। और शायद नमिता भी!
        बादल और पहाड़ और हवा और हरियाली ने सहसा एक बार फिर चाय की याद दिला दी थी। मैंने इधर-उधर देखा। व्यू पॉइन्ट के पास ही एक समतल स्थान था, जहाँ सैलानियों के बैठने के लिए बेन्चें लगायी हुई थीं। हम उन्हीं में से एक बेन्च पर जाकर बैठ गये। वहाँ पास ही कई चाय-नाश्ते की थड़ियाँ भी लगी हुई थीं। मैंने बैठे-बैठे ही एक थड़ी वाले को चाय का ऑर्डर दिया और चुपचाप चाय का इंतज़ार करने लगा।
        ‘‘तुम बेंगलुरु में अपने ऑफिस कैसे जाते हो?’’ सहसा उसने उस खामोशी को तोड़ा, जो प्रकृति के अभूतपूर्व सम्मोहन के कारण उपजी थी।
         ‘‘कम्पनी की गाड़ी आती है। उसमें जाने वाले हम तीन लोग हैं, पर मैं अक्सर गाड़ी से नहीं जाता। मुझे अपनी बाइक से जाना ज्यादा पसंद आता है। बाइक पास हो, तो मैं अपनी मर्ज़ी से कभी भी आ-जा सकता हूँ।’’
         ‘‘पर मुझे तो ऑफिस की बस से ही जाना पड़ता है। एक तो ऑफिस दूर है और दूसरा दिल्ली में ट्रै़फिक इतना रहता है कि कार हैंडिल करना आसान नहीं होता!’’
         ‘‘कार चलाती हो?’’
         वह मुस्कुरायी, ‘‘हाँ, चलाती हूँ! इसमें आश्चर्य की क्या बात है। होने को तो स्कूटी भी है, पर स्कूटी से तो ममा इतनी दूर ऑफिस कभी न जाने दें! और फिर स्कूटी पर तो एक ही दिन में मेरी स्किन खराब हो जाये!’’
         मुझे हँसी आ गयी।
         ‘‘क्यों? क्या हुआ?’’ उसने चौंककर मेरी ओर देखा।
         ‘‘इस स्किन वाली प्रॉब्लम के बारे में तो मैंने कभी सोचा ही नहीं था!’’ मैं अब भी मुस्कुरा रहा था।
         ‘‘यह लड़कियों की प्रॉब्लम है जनाब! यही नहीं, इसी तरह की और भी कई प्रॉब्लम लड़कियों को फेस करनी पड़ती हैं।’’
         ‘‘जैसे?’’
         ‘‘अब तुम यह सब मत पूछो...लगता है, तुम्हारी कोई गर्लफ्रेन्ड नहीं है!’’ वह मुझे देख रही थी। उसकी आँखों की उत्सुकता जैसे उफनकर बाहर आना चाह रही थी।
         मैं चुप रहा और पता नहीं क्यों, मैं दूर देखने लगा था, हालाँकि मैं देखकर भी कुछ देख नहीं पा रहा था। सफेद बादलों में लिपटी घाटी में सब कुछ सहसा अस्पष्ट सा हो गया था।
        ‘‘नहीं बताना चाहते तो कोई बात नहीं।’’ वह भी दूसरी ओर देखने लगी थी। शायद यह उसकी नाराज़गी प्रकट करने का तरीका था।
         कुछ देर मैं कुछ नहीं बोला। मैं कुछ कहने और नहीं कहने के बीच उलझा हुआ था। पर यह बीच की मन:स्थिति अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकी, ‘‘नहीं, तुम्हें बताने में कोई परेशानी नहीं है। तुम अपरिचित हो। पर...’’ मैंने कहा। मुझे अपनी ही आवाज़ डूबी-डूबी सी लगी, किन्हीं भावनाओं में डूबी हुई नहीं और ना ही आँसुओं में... जैसे किसी ने टीसती हुई रग पर अपनी अँगुली रख दी हो और पुराने सूखे हुए फूल फिर उड़ने लगे हों।
‘‘पर? पर क्या?’’
          ‘‘संकोच तो सच बोलने में है।’’
         इस बार उसने मुझे सीधे देखते हुए कहा, ‘‘पर यह तो हमारी दोस्ती की पहली शर्त है।’’
        ‘‘हाँ, है। और मैं इसे पूरी तरह ईमानदारी से निभाऊँगा भी, ताकि आने वाले दिनों में मैं कभी जब आज के दिन के बारे में सोचूँ, तो मेरे मन में कोई अपराधबोध न हो।’’ मैंने एक-एक शब्द पर जोर देते हुए कहा।
         वह उत्सुक निगाहों से मुझे देख रही थी, जैसे मैं कोई रहस्य खोलने वाला होऊँ, जबकि मेरे पास रहस्य जैसा कुछ भी नहीं था। बस, एक पुरानी स्मृति थी, जो उस दिन भी उतना ही सुकुमार-सी थी, जितनी कि तब, जब वह बन रही थी।
         चायवाला चाय दे गया था। मैंने एक घूँट भरी और फिर कहना शुरू किया। मुझे केवल नमिता ही नहीं, वे बादल भी सुन रहे थे, जो हमें घेरे हुए थे...पेड़, हवाएँ, बारिश की बूँदें...सब के कान मुझ पर लगे हुए थे।
         सबसे अद्भुत बात तो यह थी कि मैं खुद अपने आप को सुन पा रहा था...जैसे मैं अपनी देह से अलग हो गया हूँ और स्वयं को कहानी सुनाते हुए देख रहा हूँ।
         मैंने कहना शुरू किया।
       ‘‘यह उन दिनों की बात है जब मेरी मसें भीगनी शुरू हुई ही थीं। मैंने इंजीनियरिंग कॉलेज में प्रवेश लिया ही था और मन न जाने किन सपनों में खोया रहता था। उन्हीं दिनों हमारे यहाँ एक बड़ा-सा फैमिली फंक्शन हुआ, जिसे एक होटल में ऑर्गनाइज किया गया था। वहीं पहली बार मैंने उसे देखा था...’’
         ‘‘किसे देखा था?’’
         मैं हल्का-सा झिझका, फिर बोला, ‘‘एक लड़की को और सच कहूँ, मैं उसे देखता ही रह गया था...लगभग बुद्धू-सा, एकटक! मैं उससे अपनी आँखें हटा ही नहीं पा रहा था। ऐसा नहीं कि वह बहुत सुन्दर थी, बल्कि देखा जाये तो उसका रंग साँवला ही था, पर उसमें एक ऐसी कशिश थी, जो मुझे उसकी ओर खींचे लिए जा रही थी।’’
         ‘‘फिर?’’ नमिता की उत्सुक निग़ाहें मानो सब कुछ जानकर पी जाना चाह रही थीं, जैसे कि उस समय वह चाय पी रही थी।
         ‘‘तुम चाहो तो इसे मेरा इनफैचुएशन कह सकती हो, पर तब मैं यह सब नहीं जानता था...उसकी एक झलक ने ही मेरा मन मोह लिया था। मैं उसके सम्मोहन में बँधा हुआ लगभग बेहोश-सा उसके आगे-पीछे घूमता रहा था। वह भी बार-बार मुझे कनखियों से देख लिया करती थी। उसकी स्निग्ध मुस्कान जैसे मुझे आमन्त्रण दे रही थी। अगर वह एक भी बार मेरी ओर झिड़कती हुई निग़ाह से देख लेती, तो संभवत: मैं उसके पीछे यूँ बावरा-सा नहीं भटकता फिरता!’’
         ‘‘फिर? फिर क्या हुआ?’’
         ‘‘उस दिन मेरा भाग्य मेरे साथ था, या यूँ कहें, कि वह दिन मेरा दिन था। मेरी एक कजिन ने मुझे उससे मिलवाया, जो उसे थोड़ा-बहुत जानती थी। मुझे याद नहीं कि कजिन ने मुझे उसका नाम बताया था कि नहीं, क्योंकि मेरा सारा ध्यान कजिन की बातों पर नहीं, उस लड़की पर लगा हुआ था। मुझे लगा, जैसे वह लड़की मेरे मिलवाए जाने की प्रतीक्षा ही कर रही थी। देखते ही देखते हम ऐसे घुल-मिल गये, जैसे वह मेरे पड़ोस में रहने वाली कोई लड़की हो, जिससे मैं हर रोज़ मिला करता था।’’
         ‘‘हाँ, ऐसा कई बार होता है कि हम किसी अनजान व्यक्ति से पहली बार मिलते हैं, पर लगता नहीं कि किसी अपरिचित से मिल रहे हों। यूँ लगता है, जैसे कोई अदृश्य डोर ने हमें पहले ही एक-दूसरे से बाँध दिया हो।’’
         मैं कहना चाहता था कि हम दोनों, मैं और नमिता, भी कुछ ऐसे ही मिले हैं, पर कुछ कहा नहीं। एक संकोच ने मुझे रोके रखा था। लेकिन शायद उसने मेरा मन एक बार फिर पढ़ लिया था। पल भर रुककर उसने कहा, ‘‘जैसे कि शायद हम भी पुराने परिचितों की ही तरह मिल रहे हैं!’’
‘‘हाँ, अभी मैं भी यही सोच रहा था...तुम्हें आश्चर्य नहीं होता!’’
         ‘‘आश्चर्य? कैसा आश्चर्य?’’
         ‘‘यही, कि तुम किसी से पहली बार मिलो और लगे कि तुम उसे अच्छी तरह से जानते हो!’’
         ‘‘हाँ, होता है, लेकिन बस कुछ देर तक ही...फिर हम एक-दूसरे में इतना खो जाते हैं कि यह सब याद ही नहीं रहता!’’ वह थोड़ा रुकी, फिर बोली, ‘‘फिर क्या हुआ?’’
         मैं चौंक गया। पल भर के लिए मैं भूल ही गया था कि हमारी ये बातें उस कहानी के बीच का पड़ाव थीं, जिसे मैं उसे सुना रहा था, ‘‘उस रात...’’ मैं उस रात की स्मृतियों में डूब चुका था, ‘‘फिर हम देखते ही देखते अच्छे दोस्त बन गये थे। बहुत जल्दी एक अपनेपन ने हमें पास ला दिया था और हम एक-दूसरे से लगातार बातें करने लगे थे। कभी मैं कुछ कहता, तो कभी वह...अवश्य वे सामान्य-सी दैनन्दिनी से जुड़ी बातें रही होंगी, लेकिन आश्चर्य तो यह है कि अब जब मैं उन बातों को याद करने की कोशिश करता हूँ तो कुछ भी याद नहीं आता।’’
         नमिता जैसे कहीं खो गयी थी, ‘‘हाँ, पर यादें रह जाती हैं, कुछ ध्वनियाँ, जो कभी मरती नहीं, कुछ शामें, जो कभी ढलती नहीं, कुछ हँसी, जो कभी खिरती नहीं, कुछ उदासियाँ, जो कभी कम नहीं होतीं...’’
         मैं चुप रहा।
         ‘‘तुम कुछ कह रहे थे?’’
         ‘‘हाँ, मैं एक पुरानी स्मृति सुना रहा था...उस समय स्टेज पर कोई कार्यक्रम चल रहा था, पर हमारा ध्यान वहाँ नहीं था। हम अपनी ही बातों में ही खोये हुए थे। जो कुर्सियाँ स्टेज के सामने हॉल में लगी हुई थीं, हम उन्हीं पर बिल्कुल पीछे की तरफ बैठे हुए थे...अपनी दुनिया में गुम, अपने सपनों में डूबे हुए...और तब पता नहीं किस बात पर हम जोर से हँस पड़े थे और हँसते-हँसते सहज भाव से मैंने उसका हाथ पकड़ लिया था।’’
          ‘‘ओह माई गॉड! फिर?’’
         ‘‘मैंने उसका हाथ पकड़ तो लिया, पर हम दोनों ही चौंक गये थे। हमारे स्पर्श की कौंध ने हमें डरा दिया था। हमारी हँसी यकायक रुक गयी थी। हालाँकि मैंने ‘सॉरी’ कहकर अपना हाथ पीछे खींच लिया था, पर मेरा रोम-रोम उस स्पर्श से जैसे चुँधिया-सा गया था। हम दोनों ही अचानक ऐसे चुप हो गये थे, जैसे तेज़ दौड़ती रेलगाड़ी को सहसा ब्रेक लगा दिया गया हो।’’
          ‘‘मैं समझ सकती हूँ...’’
         ‘‘फिर थोड़ी देर हम चुपचाप कार्यक्रम देखते रहे, हालाँकि देखकर भी हम कुछ देख नहीं पा रहे थे। उस स्पर्श की चमक ने हमें अपने चकाचौंध के घेरे में कैद कर लिया था...कितनी अजीब बात है कि इतनी देर के हमारे परिचय के बीच हमारा लड़का या लड़की होना इतना स्पष्ट होकर एक बार भी सामने नहीं आया था, पर उस एक स्पर्श ने हमारी देहों के अन्तर को हमारे सामने ला खड़ा किया था।’’ मैं कुछ पलों के लिए रुका और नमिता की ओर देखने लगा। मैं जानना चाह रहा था कि उस पर मेरी बातों का क्या असर हो रहा था!
         ‘‘फिर?’’ उसकी निगाहें मुझ पर ही लगी हुई थीं। वह ध्यान से मुझे सुन रही थी। जो कल मेरे लिए बीत चुका था, वही कल नमिता के लिए वर्तमान बनकर एक बार फिर साँस लेने लगा था। स्मृतियाँ ऐसी ही होती हैं। जब हम उनके बारे में बतियाते हैं, तब कई बार बहता हुआ समय भी अपना बहना स्थगित कर हमें निहारने लगता है।
        मैंने कहना जारी रखा, ‘‘जिस सहजता को हमारे स्पर्श ने चुरा लिया था, उसे पुन: पाने में कुछ समय लगा...पहल शायद उसने ही की थी। मैंने साहस बटोरकर उसकी ओर एक बार भरपूर निगाहों से देखा। वह मुस्कुराई। यह सहज होने का पहला संकेत था। उसके चेहरे पर ऐसा कोई भाव नहीं था, जो मुझे विचलित करता या मुझे संकेत देता कि उसे मेरा स्पर्श करना अच्छा नहीं लगा था...पर मैं उससे कुछ कहता, उससे पहले ही अचानक स्टेज पर जोर-जोर से ढोल बजने लगे थे। शायद वह भी मुझसे कुछ कहना चाहती थी और शायद उसने कुछ कहा भी था, पर वह बात ढोल-नगाड़ों के शोर में दबकर रह गयी थी। मैंने उसे संकेतों से समझाया कि कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा था।’’
          ‘‘फिर?’’
         ‘‘फिर हम उठकर वहाँ से बाहर खुले में आ गये। शोर हमें वहाँ बैठने नहीं दे रहा था। बाहर लॉन में खाना चल रहा था और जो लोग कार्यकम नहीं देख रहे थे, वे वहाँ खाना खाने में लगे हुए थे। रात गहराने लगी थी। आकाश में हँसिया चाँद मुस्कुरा रहा था, जिसके चारों ओर टिमटिमाते तारों की चादर बिछी हुई थी। हमारी बातों का प्रवाह एक बार फिर अपनी सहज गति से चल पड़ा था। असहजता घुलकर बहने लगी थी। साथ-साथ बातें करते हुए हम लॉन में काफी दूर निकल गये थे।’’ मैं एक बार फिर रुक गया।
         ‘‘फिर?’’
         ‘‘साथ-साथ चलते समय बार-बार हम एक-दूसरे से टकरा जाते थे। बल्कि सच तो यह है कि इस बार हम सि़र्फ अपनी जुबान से ही नहीं अपनी देहों से भी बातें करने लगे थे। और तब वहीं एक घनी झाड़ी के नीम अँधेरे में मैंने साहस कर उसका हाथ पकड़ लिया, इस बार अनजाने में नहीं, बल्कि जान-बूझ कर। पहली बार उसने अपना हाथ छुड़ाने का प्रयास किया, पर एक झिझक के बाद वह मानो पिघल-सी गयी थी। उसके दोनों हाथ मेरे हाथों में थे और मैं उसकी नर्म हथेलियों की गर्माहट अपनी रगों में बहती हुई महसूस कर रहा था। कुछ देर तक हम यूँ ही खड़े रहे, एक-दूसरे को देखते हुए, उन पलों की असाधारण चकाचौंध में डूबे हुए। हालाँकि हम कोई बात नहीं कर रहे थे, लेकिन एक अनवरत संवाद चल रहा था, जैसे कोई मूक फिल्म चल रही हो, जिसके पात्र भी हम ही थे और दर्शक भी!’’
          ‘‘फिर?’’ नमिता की उत्सुकता से भरी आवाज़ मुझ तक आयी।
         ‘‘फिर वही हुआ, जिसे सुनने की तुम कल्पना कर रही हो। मैंने उसे अपनी बाँहों में भर लिया और उसके होंठों पर अपने होंठ रख दिये। उसने भी मुझे अपनी बाँहों में भर लिया था और मेरा साथ देने लगी थी।’’
         पल भर के लिए मैं ठिठका, थाह पाने के लिए कि कहीं मैं सीमा का अतिक्रमण तो नहीं कर रहा था, ‘‘एक अकेली वह ही साथ नहीं दे रही थी, वहाँ छाया हुआ अँधेरा, लॉन में लगी झाड़ियाँ, चारों ओर छाया हुआ एकान्त, सब साथ दे रहे थे, यहाँ तक  कि स्टेज पर चलता कार्यक्रम भी, जिसने ज्यादातर लोगों को अपनी गिऱफ्त में ले रखा था।’’
          लेकिन शायद नमिता ने मेरी दुविधा ताड़ ली थी। उसी ने पूछा, ‘‘क्या वह तुम्हारा पहला किस था?’’
        ‘‘हाँ, बिल्कुल! उस दिन से पहले मैंने किसी लड़की को इस तरह नहीं छुआ था। उस दिन पहली बार मैंने किसी स्त्री देह को स्पर्श किया था। वह पूरी की पूरी मेरी बाँहों में थी। मैं उसके होंठ ही नहीं, उसकी देह का एक-एक खम अपनी देह में धँसा हुआ महसूस कर रहा था। पर सबसे अलग थी उसकी देह गंध, एक स्त्री की देह गंध, जिसने क्लोरोफॉर्म की तरह मेरे तमाम वजूद को मानो बेसुध ही कर दिया था...वे अलौकिक क्षण थे और वह एक विलक्षण अनुभव। मेरा सारा अस्तित्व पिघलकर जैसे किसी महाशून्य में विलीन हो गया था। मैं अपना होना पूरी तरह भूल चुका था और उसका होना अपनी देह के प्रत्येक पोर में महसूस कर रहा था। मैं लगभग चेतनाविहीन हो गया था, बल्कि मेरा अस्तित्व पिघलकर उस लड़की में तिरोहित गया था।’’ बोलते-बोलते मैं साँस लेने के लिए रुका। नमिता की निगाहें मुझ पर टिकी थीं। गहरी उत्सुकता के साथ वह मुझे सुन रही थी, जैसे मेरे भेद जानना उसके लिए अपरिहार्य हो।
         तभी चायवाला हमारे गिलास लेने आया और हम चौंक गये। हमने बेसुधी में कब चाय पी ली थी, इस बात का हमें पता ही नहीं लग पाया था। कुछ तो उन स्मृतियों का और कुछ पहाड़ों और बादलों और पेड़ों और हवाओं का भी हाथ रहा होगा। मुझे लगा कि हमें एक-एक कप चाय और पीनी चाहिए। मैंने बिना नमिता से पूछे चायवाले से दो और चाय लाने के लिए कह दिया।
         हवा मन्द-मन्द चलने लगी थी और किसी सोलह बसंती नवयौवना की तरह अल्हड़ बादल इधर-उधर अठखेलियाँ कर रहे थे। वे अब भी अपना बरसना स्थगित किये हुए थे। कुछ लोग नये आ गये थे और कुछ चले गये थे। एक नवविवाहित जोड़ा उन्मुक्त-सा इधर-उधर घूम रहा था, जबकि उनके साथ आया वृद्ध जोड़ा अपने आप को ठण्ड से बचाने की कोशिश में लगा हुआ था।
         नमिता कुछ पूछती, इससे पहले ही मैंने छूटा हुआ सिरा फिर पकड़ लिया था, ‘‘जब हम दोनों अलग हुए, तब हम दोनों ही लम्बी-लम्बी साँसें ले रहे थे। उन विलक्षण क्षणों की कौंध ने हमसे शब्द चुरा लिये थे। हम अवाक् थे और अँधेरे में स्वयं को अपने में लौटते हुए महसूस कर रहे थे। सच तो यह था कि हम दोनों ही उस जगह से डरे हुए थे, जिसे हम अभी-अभी छोड़कर आये थे... खुली हवा के बावजूद भी जैसे हवा कम पड़ रही थी। हमें बार-बार अपने मुँह उठाकर हवा से अतिरिक्त साँस लेनी पड़ रही थी।’’
         ‘‘मैं अनुमान लगा सकती हूँ।’’
         ‘‘नहीं नमिता, शायद पूरा-पूरा नहीं। बिना उन क्षणों से गुज़रे, बिना उस एहसास को भोगे उसके भेद कोई नहीं जान सकता।’’ मैं रुक गया, जैसे कोई प्रकरण समाप्त हो गया हो।
          ‘‘फिर क्या हुआ?’’ पल भर बाद उसने पूछा।
         ‘‘हम लौट तो आये, पर उस ज़मीन पर नहीं, जिसे हमने उन क्षणों में जाने से पहले छोड़ा था...अन्दर स्टेज़ पर चल रहा कार्यक्रम अब समाप्त होने को ही था। वहाँ की तेज़ रोशनी की चिलकें और आवाज़ों का शोर बाहर हम तक आ रहा था, पर इस बार वह हमें झकझोरने लगा था...हमारे अनवरत संवाद अचानक कहाँ खो गये थे! पर हम दोनों ही उनके बारे में नहीं सोच रहे थे, हालाँकि यह कह पाना भी कठिन है कि हम कुछ सोच भी रहे थे कि नहीं! उन अद्भुत क्षणों के विलक्षण अनुभव ने हमें विचार शून्य-सा बना दिया था...’’    
         ‘‘होता है। कई बार अनायास आये पल हमें विस्मित कर जाते हैं। ऐसे क्षणों में सबसे पहले संवाद ही हमारा साथ छोड़ते हैं।’’ नमिता ने मेरी बात से सहमत होते हुए कहा।
         ‘‘जो सहजता चुक गयी थी, वह लौटने में समय ले रही थी। पहले की तरह सतत् प्रवाह में बातें कर पाना चाहकर भी संभव नहीं हो पा रहा था। उस एक घटना ने हमें पूरी तरह हिला दिया था।’’
          ‘‘ठीक कह रहे हो। ज़रूर ऐसा ही हुआ होगा।’’
         ‘‘थोड़ी देर बाद हम एक बार फिर अन्दर चले आये, जहाँ स्टेज़ पर कार्यक्रम चल रहा था। वह तुरंत ही अपने परिवार के पास चली गयी। वे संभवत: उसे ही ढूँढ़ रहे थे। रात काफी हो गयी थी और अब कार्यक्रम समाप्त होने लगा था। आहिस्ता-आहिस्ता लोग अपने-अपने घरों को लौटने लगे थे। देखते ही देखते वह भी अपने परिवार के साथ चली गयी। मैं दूर खड़ा-खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। जाते समय उसने कई बार मुड़कर मेरी ओर देखा...मेरी निग़ाहें भी उसी की ओर लगी हुई थीं। मैं चाहता था कि एक बार और मैं उससे बात कर सकूँ। कोई विशेष बात नहीं, सि़र्फ बात, जो हमारे बीच की संवादहीनता को समाप्त कर सके...मैं उसकी अन्तिम आवाज़ एक उपहार की तरह अपने पास रखना चाहता था, ताकि आने वाले दिनों में उसका होना अपने पास महसूस कर सकूँ, लेकिन मैं वह आवाज़ फिर कभी नहीं सुन पाया, पर उसकी बार-बार मेरी ओर लौटती निगाहें स्मृति में ठहर गयी थीं।’’
         ‘‘फिर?’’ नमिता ने पूछा। इस बार उसका स्वर धीमा था, जैसे उस लड़की का यूँ बिना विदा लिए हुए चले जाने का दु:ख उसे भी छू गया हो। हम दोनों की दूसरी चाय भी समाप्त होने को थी, लेकिन इस बार चाय का गर्म-गर्म स्वाद मुँह में ठहरा हुआ था।
         ‘‘उनकी कार चले जाने के बाद मुझे ऐसा लगा, जैसे सब चले गये हों, सारा होटल खाली हो गया हो और केवल मैं अकेला रह गया हूँ! मेरी निग़ाहें दूर तक जाकर मेरे पास खाली लौट रही थीं और मैं कुछ नहीं कर सकता था। अजीब बेबसी थी, जिसने मुझे पूरी तरह झकझोर रखा था...सच कहूँ, अकेलापन क्या होता है, यह उस रात मैंने पहली बार जाना था। मेरा दु:ख यह सोचकर और भी बढ़ गया था कि मैं ना तो उसका नाम जान सका था और ना ही उसका मोबाइल नम्बर ले पाया था।’’
         ‘‘ओह! फिर?’’
        ‘‘दूसरे दिन मैं सुबह-सुबह ही वहाँ पहुँच गया, पर वह लड़की मुझे कहीं भी दिखाई नहीं दी। मेरी बेचैन निग़ाहें उसे हर तऱफ ढूँढ रही थीं। उसकी एक झलक पाना जैसे जीवन-मरण का प्रश्न बन गया था। पर वह कहीं भी नहीं थी। मैं बार-बार अपने आप को तसल्ली दे रहा था कि वह अभी आने ही वाली होगी। रात को देर से सोने के कारण उसकी नींद नहीं खुल पायी होगी...तुम जानती ही हो ऐसे समय कैसे-कैसे विचार मन में आते रहते हैं! एक विचार पूरी तरह गुज़र भी नहीं पाता कि दूसरा आ धमकता है...समय गुज़रता रहा, पर वह नहीं आयी। आहिस्ता-आहिस्ता सूरज ठीक सिर के ऊपर अपनी सम्पूर्ण ऊष्मा के साथ दमकने लगा, लेकिन उसके आने का कोई चिन्ह दिखायी नहीं दे रहा था...’’
          ‘‘ऐसे में समय और भी लम्बा लगने लगा होगा।’’ नमिता ने कहा।
         ‘‘सिर्फ लम्बा ही नहीं, असह्य और दुर्निवार भी, जो किसी गरीब के दुर्दिनों की तरह काटे नहीं कट रहा था...’’
         ‘‘फिर क्या हुआ?’’
        ‘‘तभी मुझे अपनी वह कजिन दिखाई दी, जिसने मुझे उस लड़की से मिलवाया था। मुझे आशा की हल्की-सी किरण दिखाई दी। मैंने झिझकते हुए उससे उसके बारे में पूछा। पहली बार तो उसे वह लड़की याद ही नहीं आयी। मैं हैरान था कि जिस लड़की ने मेरी सोच को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में ले रखा था, वह लड़की मेरी कजिन की स्मृति में ही नहीं थी!’’
         ‘‘कमाल है! ऐसा कैसे हो गया?’’
         ‘‘पर जल्दी ही उसे वह लड़की याद आ गयी। दरअसल कजिन भी उससे उस दिन पहली बार ही मिली थी।’’
         ‘‘फिर?’’
        ‘‘फिर उस कजिन ने ही कहीं से पता लगाया कि वे लोग सुबह-सुबह ही वापस अपने शहर चले गये थे...मुझे यह जानकर गहरा धक्का लगा। मैं हतप्रभ रह गया था। ऐसा कैसे हो सकता था! वह मुझसे बिना मिले कैसे जा सकती थी! पर उसका जाना एक भयावह सच की तरह मेरे सामने पसरा हुआ था। वह क्या गयी, लग रहा था, जैसे सहसा सब कुछ समाप्त हो गया हो, जैसे मेरा होना देह से बाहर उलीच दिया गया हो और मैं किसी खाली बर्तन-सा बचा रह गया होऊँ!’’
         ‘‘ओह!’’
        ‘‘लग रहा था, जैसे मेरे पास करने को कुछ नहीं बचा था, जैसे कुछ होना था, जो होने से रह गया, कुछ शब्द थे, जो कहे जाने थे, पर कहे नहीं गये...डायरी के जिस पहले पन्ने पर हमने अपने नाम साथ-साथ लिखे थे, वह डायरी ही खो चुकी थी।’’
         मैं एक बार फिर रुका। कुछ तो साँस लेने के लिए और कुछ स्मृतियों की टोह लेने के लिए। मैं नमिता को सब कुछ बता देना चाहता था, सब कुछ, ताकि बरसों से जमा गर्द और धूल और मिट्टी और जाले सा़फ हो सकें और वह सारी थकान उतारी जा सके, जो इतने वर्षों से परत-दर-परत मन में जमा होती रही थी। किसी अपरिचित व्यक्ति को मन के भेद सौंप देना कितना सरल होता है!
         घने बादलों ने हमें चारों ओर से घेर लिया था। पहाड़ पर छाई हरियाली भी बादलों के आवरण के पीछे धुँधली पड़ गयी थी। बारिश कभी भी शुरू हो सकती थी...शायद वह भी मुझे सुनने के लिए दहलीज़ पर ठिठकी हुई थी और जानना चाहती थी कि यह व्यक्ति कौन है, जो एक-दूसरे व्यक्ति को अपना बीता हुआ दु:ख सुना रहा है!
         नमिता की उत्सुकता अब संवेदना में बदल चुकी थी। यूँ तो उसने कुछ नहीं पूछा था, पर मुझे लगा कि अपनी बात बीच में अधूरी छोड़ देना वैसा ही गुनाह होगा, जैसा उस दिन उस लड़की के चुपचाप चले जाने से हुआ था।
         धीमे स्वर में मैंने फिर कहना शुरू किया।
         ‘‘ऐसा भयानक अकेलापन मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था...इतना घनीभूत कि उसे छुरी से छीला जा सकता था। मन था कि कहीं गहरे में डूबता चला जा रहा था। सहसा विश्वास करना कठिन हो रहा था कि मैं अब कभी उससे नहीं मिल सकूँगा। रात को हुई उस पहली मुला़कात में ही मैं उसके बेहद करीब आ गया था और उससे दूर होने की कल्पना तक यन्त्रणादायक लग रही थी। सारी दुनिया मेरे लिए खाली हो चुकी थी और मैं जैसे किसी वीराने में भटकने के लिए छोड़ दिया गया था...’’
         ‘‘यह प्यार होता ही ऐसा है!’’ नमिता का कुछ सोचता-सा स्वर मुझ तक आया।
         ‘‘पर वह प्यार ही था, यह कह पाना बेहद मुश्किल है। मुझे बस उस लड़की की भीषण कमी महसूस हो रही थी। और महसूस हो रहा था अपना अधूरापन! हो सकता है, वह कम उम्र का शारीरिक आकर्षण रहा हो, पर आज भी उस लड़की की स्मृति मेरे मन में किसी स्थायी भाव-सी बसी हुई है। मेरे मन का जो कोना उसके चले जाने से खाली हो गया था, फिर कभी भर नहीं सका। अब भी गाहे-बगाहे कोई अनजानी आवाज़, कोई पीछे मुड़कर निहारती निग़ाह, कोई अधूरा संकेत, कोई कोमल स्पर्श, कोई गुनगुनी ऊष्मा मुझे उसका स्मरण करा देती है।’’
         ‘‘अच्छा! तो बताओ, मुझे देखकर उसकी क्या बात याद आती है?’’ सहसा नमिता ने बात बदलते हुए पूछा। वह सहसा ही मुझे अपने बीते हुए कल से आज में खींच लायी थी।
         मैं हैरानी से उसे देखता रहा, ‘‘ऐसा मैंने कुछ सोचा नहीं। ज़रूरी नहीं कि हर लड़की में कोई न कोई बात उस जैसी हो!’’
         ‘‘जो भी हो, पर वह लड़की थी खुशनसीब!’’
       ‘‘कैसे?’’ मैंने हैरानी से उसे देखा।
       ‘‘एक लड़की के लिए इससे सुन्दर बात क्या हो सकती है कि वह किसी लड़के की स्थायी स्मृतियों का हिस्सा बन जाये!’’
         ‘‘तुम क्या सोचती हो? क्या मैं उसकी स्मृतियों में होऊँगा?’’
         ‘‘क्यों नहीं होगे? जैसे वह तुम्हारी स्मृतियों में है, ज़रूर तुम भी उसकी स्मृति में होगे।’’
         ‘‘फिर तो मैं भी खुशनसीब हुआ। नहीं?’’ मैंने हँसते हुए कहा।
         ‘‘बिल्कुल! इसमें क्या शक है!’’
         ‘‘खुशनसीब!’’ मैं मुस्कुराया, ‘‘और वह भी उस लड़की के कारण, जिसका मैं नाम तक नहीं जानता!’’
         ‘‘इससे क्या अन्तर पड़ता है!’’
        मैंने कुछ नहीं कहा और उठ खड़ा हुआ। मैंने चायवाले को पैसे दिये और फिर हम कैब की ओर चले पड़े, जो कुछ उतार पर गाड़ियों के लिए बनी एक समतल जगह पर खड़ी हुई थी।
         बारिश बरसना अभी शुरू नहीं हुई थी।

***
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        ‘‘और जानते हो, मैं क्या सोच रही थी?’’
         ‘‘क्या?’’
        ‘‘मैं सोच रही थी कि मुझे तुम्हारी तरह का ऐसा कोई अनुभव कभी नहीं हुआ, जब मैंने किसी लड़के के सम्मोहन में स्वयं को बँधा हुआ अनुभव किया हो...यूँ तो कई बार कॉलेज में लड़कों ने मुझसे दोस्ती करने की कोशिश की थी...और लड़कों ने ही क्यों, मेरे ऑफिस कलीग्स ने भी, लेकिन मुझे यह कहने में संकोच हो रहा है कि मुझे कभी कोई लड़का ऐसा नहीं मिला, जिसने मेरे हृदय के तारों को उस तरह छेड़ा हो, जैसा उस लड़की ने तुम्हारे मन को छुआ था। हालाँकि मैं कई बार सोचा करती थी कि काश! कोई ऐसा लड़का हो, जिसे देखकर मेरा मन किसी मदमाती खुशबू से भर जाये, जो मुझमें बह रहे संवेदना के सोते को स्पर्श कर सके...लेकिन शायद मुझमें ही कोई कमी रही होगी!’’ उसने कहा, लेकिन उसे इस बात का कोई दु:ख रहा हो, मुझे ऐसा महसूस नहीं हुआ था। मुझे लगा कि उसे यह बात बस बतानी भर थी। प्रेम का होना और उसे नहीं पाना दु:ख का कारण हो सकता है, लेकिन प्रेम का नहीं होना दु:ख का कारण नहीं हो सकता, मैंने सोचा, हालाँकि यह सच ही हो, यह भी कहा नहीं जा सकता था।
          ‘‘नहीं नमिता, तुममें कोई कमी नहीं है। दरअसल इस प्रकार की घटनाएँ कब, कहाँ और कैसे घट जाएंगी, यह कोई नहीं जानता...क्या उस रात मैं जानता था कि मेरे साथ क्या होने वाला था? नहीं ना! पर तुम जान ही चुकी हो कि वह सब मेरे साथ हुआ। शायद अपने मन के विषय में हम सबसे कम जानते हैं, जबकि अनुभव करने वाला वह मन हमारा ही होता है!’’
          ‘‘शायद...’’
         ‘‘देखना, एक दिन आएगा, जब तुम्हारे मन का पाखी भी ठीक उसी प्रकार चहचहाएगा, जैसा उस रात मेरे मन में चहचहाया था...और...’’
          ‘‘और क्या?’’
          ‘‘यही कि अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है और ज़िंदगी बहुत लम्बी होती है! इस तरह के अनुभवों के लिए तुम्हें काफी समय मिलने वाला है।’’ मैं मुस्कुराया।
          उसने कुछ नहीं कहा। मेरी मुस्कुराहट ने उसे स्पर्श तक नहीं किया था। वह चुप थी। मुझे लगा जैसे वह एक अलग दुनिया में चली गयी हो, सोच की एक ऐसी दुनिया, जहाँ मेरा प्रवेश वर्जित था। मुझे यह भी महसूस हुआ कि कुछ था, जो वह मेरे साथ शेयर नहीं करना चाह रही थी। मैंने उसे उसकी दुनिया में रहने दिया।
          हम दोनों साथ-साथ कैब तक पैदल जा रहे थे। सड़क घूमती हुई नीचे उतर रही थी और साथ ही हम दोनों भी। बादलों ने हमें कम्बल-सा लपेटा हुआ था। बारिश भरी हवाओं के बाद भी ठण्ड उतनी ही थी, जो अपने होने का अहसास करा सके। स्कार्फ में लिपटा उसका चेहरा, जिस पर उसने गॉगल लगा रखे थे, कई बार मुझे गुड़िया-सा लगने लगता था।
          अचानक नमिता मेरी ओर देखकर बोली, ‘‘जानते हो, मेरे सबसे खूबसूरत संवाद यात्राएं करते समय हुए हैं। किसी व्यक्ति विशेष से नहीं, सूने उजाड़ पड़े रेलवे स्टेशनों से, साथ-साथ चलते चाँद से, पटरियों पर पसरे अन्तहीन बिखराव से...’’ पल भर के लिए वह रुकी, फिर उसका ठिठका-सा स्वर मुझ तक आया, ‘‘तुम्हें शायद अजीब लगे, पर मेरे जीवन में व्यक्तियों का जितना महत्व है, उतना ही महत्व जगहों का भी है...शायद व्यक्तियों से भी ज्यादा, इसलिए कि जगहें मुझसे कोई अपेक्षा नहीं करतीं।’’
          ‘‘और व्यक्ति?’’
         ‘‘वे जल्दी ही मुझसे कुछ न कुछ अपेक्षा करने लगते हैं, चाहे वे पुरुष हों या स्त्रियाँ।’’
         ‘‘तुम्हें क्या लगता है? क्या मैं तुमसे कुछ अपेक्षा कर रहा हूँ?’’
         ‘‘कह नहीं सकती...शायद हाँ!’’
         ‘‘पर यह भी तो हो सकता है कि अपेक्षा मैं नहीं तुम कर रही हो!’’
         ‘‘कैसी अपेक्षा?’’
         ‘‘वही तो!’’ मैंने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा, ‘‘कैसी अपेक्षा?’’
         हम दोनों चुप हो गये। एक लड़का और लड़की के बीच अपेक्षा शब्द के अर्थ सीमित ही होते हैं। पहली बार संवाद होते हुए भी हम चुप हो गये थे। वह खामोशी संभवत: उस अहसास से उपजी थी, जो भीतर तक हमें छू गया था। पता नहीं क्यों, मैं चलते-चलते उसके पास से कुछ दूर खिसक गया था।
          उसने मुझे देखा। मुझे लगा वह मुस्कुरा रही थी।
       ‘‘डरो मत! मैं तुम्हें खा नहीं जाऊँगी।’’ वह सीधे मेरी आँखों में देखते हुए बोली। सचमुच उसके चेहरे पर मुस्कान चस्पा थी। उसने मुझे दूरी बनाते हुए नोटिस ले लिया था।
          ‘‘खाने वाला तो मैं भी नहीं तुम्हें!’’ मैंने हँसकर कहा। पर मैं वैसे ही दूर-दूर चलता रहा।
           अचानक वह बोली, ‘‘मुझे भुट्टे खाने हैं।’’
         उसने एक ओर संकेत किया। सड़क के किनारे एक ठेले वाला कोयले पर भुट्टे सेंक रहा था। भुट्टे सिंकने की मीठी गंध हवा में तिर रही थी। उसके इर्द-गिर्द कुछ लोगों की भीड़ जमा थी।
          ‘‘मैं लाता हूँ।’’ मैंने कहा।
         ‘‘मैं भी आती हूँ। उससे कहना खूब सारा नींबू और मसाला लगा दे।’’ वह भी मेरे साथ-साथ भुट्टे वाले की ओर बढ़ गयी, ‘‘तुम खाते हो भुट्टे?’’
         ‘‘हाँ, खाता हूँ, बशर्ते कि कोई सुन्दर-सी लड़की साथ हो!’’
         ‘‘बेशर्म कहीं के! पता नहीं चल रहा कि तुम्हें भुट्टा लड़की के साथ पसंद है या लड़की भुट्टे के साथ!’’ वह हँस दी थी। नमिता की बात वहीं छूट गयी। मैंने उसे छूट जाने दिया। वह शायद बनी ही छूटने के लिए थी। हम भुट्टे वाले के पास पहुँच चुके थे।
         वहाँ कुछ देर लगी। भुट्टे सिंकने की सोंधी गन्ध हमारे नथुनों में भरने लगी थी। नमिता के लिए प्रतीक्षा करना कठिन होता जा रहा था।
         ‘‘हमारा नम्बर कब आएगा?’’ उसने अधीरता से पूछा।
         ‘‘आएगा बाबा! थोड़ी तो तसल्ली रखो! देख नहीं रही, उसके पास कितनी भीड़ लगी है!’’ ठेले पर सचमुच भीड़ लगी हुई थी और उसे समय लग रहा था। भुट्टे बेचने वाला अपनी पत्नी के साथ जल्दी-जल्दी भुट्टे भूनने में लगा हुआ था।
         आखिरकार हमारा नम्बर आया। भुट्टे हाथ में आते ही गर्म सिंके हुए भुट्टों की खुशबू हमारे नासाछिद्रों में भरने लगी थी। नमिता एक छोटी बच्ची की तरह जल्दी-जल्दी भुट्टे खाने लगी थी। मैं उसे ही देख रहा था। मुझे कोई जल्दी नहीं थी। मेरे पास बहुत-सा समय था, पर खाली नहीं, नमिता नाम की उस लड़की की उपस्थिति से लबालब भरा हुआ। सच तो यह है कि एक बार फिर समय दोस्त बनकर आया था, जो बारिश की फुहारों-सा धीमे-धीमे बरस रहा था।
          ‘‘तुम नहीं खाओगे?’’ उसने पूछा।
         ‘‘हाँ, खा रहा हूँ।’’ मैंने कहा और खाने लगा।
         हम एक बार फिर उसी रास्ते से नीचे उतरने लगे थे। हमारा सारा ध्यान भुट्टे खाने में लगा हुआ था। हम बात करना तक भूल गये थे। भुट्टे सचमुच मीठे और स्वादिष्ट थे। कच्चे भुने हुए मीठे अन्न का स्वाद हमारे मुँह में भरता जा रहा था।
         ‘‘अच्छे हैं न?’’ उसने पूछा। उसकी आँखें खुशी से फैली हुई थीं। इस छोटी-सी चीज़ से वह इतनी खुश हो जाएगी, यह मैं नहीं जानता था। और तब अचानक मुझे अहसास हुआ कि किसी को जानने के लिए ज़रूरी नहीं कि आप उसके बारे में धीर-गंभीर बातें ही जानें, छोटी-छोटी बातें भी वे सब भेद उजागर कर देती हैं, जिन पर हम प्राय: ध्यान तक नहीं देते।
         भुट्टे समाप्त होते ही हमने उनके निचुड़े हुए डण्ठल नीचे खाई की ओर उछाल दिये। बादलों ने उन्हें नीचे गिरने से पहले ही अपनी स़फेद धुंध में समो लिया था।
         उसने अपने पर्स से रूमाल निकालकर अपने हाथ पोंछे और चेहरा साफ किया। ऐसा वह पहले भी कर चुकी थी। वह अपने गॉगल उतारकर आँखों पर भी रूमाल फेर रही थी, जिससे उसकी आँखें छिप-सी गयी थीं। बड़ी देर बाद मैं उसकी आँखें देख पाया था। वे वैसी ही थीं, जैसी पिछली बार मैंने उन्हें पाया था। अपने ढीले पड़े नीले स्कार्फ को उसने एक बार फिर कस लिया था।
         ‘‘यह भुट्टे खाने की आदत मुझे बचपन से ही है। मैंने तुम्हें बताया था ना कि पापा की पोस्टिंग के कारण बचपन के दो साल मैंने अल्मोड़ा में गुज़ारे थे। बारिश के दिनों में बारिश रुकने का नाम ही नहीं लिया करती थी और जगह-जगह भुट्टे बेचने वाले अपने ठेले लगा लिया करते थे। वहीं हमें भुट्टे खाने का शौक चढ़ा। उन दिनों स्कूलों की छुट्टियाँ हो जाया करती थीं। मैं और मेरा छोटा भाई खिड़की के शीशे पर जमे घने कोहरे पर अपनी अँगुलियों से तरह-तरह के चित्र बनाया करते थे...जानते हो एक दिन भाई ने क्या बनाया?’’
         ‘‘क्या?’’
       ‘‘एक भयानक-सा राक्षस जैसा दिखने वाला आदमी। मैंने उससे पूछा, यह कौन है? एकाएक उसने कोई जवाब नहीं दिया। फिर बोला यह मृत्यु का देवता है।’’ सहसा उसकी आवाज़ डूबने-सी लगी थी, जैसे कोई पुराना दु:ख उसमें साँस लेने लगा हो।
          ‘‘मृत्यु का देवता!’’ मैंने उसी के शब्द दोहरा दिये थे।
         ‘‘हाँ, यही कहा था उसने।’’
         ‘‘फिर? फिर क्या हुआ?’’
        ‘‘मैंने भाई से पूछा, उसने कहाँ देखा उसे?’’
         मैं उसकी बात ध्यान से सुन रहा था।
       ‘‘उसने कहा कि वह देवता उसके सपने में आता था...मुझे आश्चर्य हुआ कि मृत्यु का देवता और भाई के सपने में! मैं बुरी तरह डर गयी थी और मुझसे एक शब्द भी नहीं बोला जा रहा था। मैंने डर के मारे अपनी नन्हीं हथेली के एक ही वार से भाई का बनाया हुआ वह डरावना चित्र मिटा दिया था। अब वहाँ सि़र्फ काँच था, जो खिड़की पर लगा हुआ था। खिड़की के उस पार का जंगल हमेशा की तरह बारिश में भीग रहा था। पर पता नहीं क्यों मुझे लगा, जैसे वह राक्षस गया नहीं था, पिघलकर वहीं गिर गया था और हमारी नज़रों से बचकर घर में ही कहीं छुप गया था।’’
         ‘‘फिर?’’
         ‘‘रात को मैं अपने पापा के पास सोया करती थी...उनका स्पर्श पाते ही मुझे नींद आ जाया करती थी...पर उस रात मैं सो नहीं पा रही थी। भाई का राक्षस मुझे बार-बार डरा रहा था...मैं चाहती थी कि भाई का भेद मैं पापा को बता दूँ...पर कहना चाहकर भी कुछ कह नहीं पायी...ना उस रात और न ही कभी बाद में।’’
         मैं उसे ध्यान से सुन रहा था...बादलों का रंग सांद्र स़फेद होता हुआ मटमैला हो गया था और अब वे कभी भी बरस सकते थे। व्यू पॉइन्ट पर गये सैलानी तेज़ी से नीचे उतरने लगे थे, जहाँ गाड़ियों का स्टैन्ड बना हुआ था।
         ‘‘फिर पता नहीं भाई के साथ-साथ कब वह राक्षस मुझमें भी रहने लगा था। हालाँकि वह कभी मेरे सपने में नहीं आया, लेकिन सोते-जागते मैं हमेशा उसे अपने पास महसूस किया करती थी। अकेले स्कूल जाने में डर लगने लगा था और कोशिश किया करती थी कि किसी सहेली का साथ मिल जाये...’’ वह सहसा चुप हो गयी थी।
         ‘‘तब तो तुम्हारी उम्र भी बहुत छोटी रही होगी?’’
         ‘‘बिल्कुल...चौथी या पाँचवीं क्लास में पढ़ा करती होऊँगी...फिर एक दिन...’’ फिर वह पल भर के लिए रुकी और उस भयावह समय को पकड़ते हुए बोली, ‘‘उस दिन सुबह से ही बारिश थमी हुई थी। भाई हमारी कॉलोनी में ही एक पड़ोसी के घर में खेलने गया हुआ था। उनके यहाँ बहुत बड़ा बगीचा था, जहाँ फलों के कई पेड़ लगे हुए थे। कई बार मैं भी भाई के साथ वहाँ खेलने चली जाया करती थी। पर उस दिन नहीं जा पायी थी। माँ को मेरे बाल धोने थे और उन्होंने मुझे जाने से मना कर दिया था...अगर चली जाती, तो शायद बहुत सारी बातों पर से पर्दा उठ जाता...’’
          ‘‘पर्दा? कैसा पर्दा?’’
         ‘‘भाई वहाँ से नहीं लौट पाया था...उसकी मृत देह घर आयी थी।’’
         ‘‘यह तुम क्या कह रही हो?’’
         ‘‘मैं ठीक कह रही हूँ...उसका ऐंठा हुआ शरीर मैं कभी भूल नहीं सकती, लहूलुहान। उसका मुँह खुला हुआ था और आँखें भी, जैसे उसने कोई भयावह चीज़ देख ली हो...’’
          मैं हैरान-सा नमिता को सुन रहा था, ‘‘ऐसा कैसे हो गया?’’
         ‘‘ठीक-ठीक किसी को कुछ पता नहीं। बस, पड़ोस का एक लड़का कह रहा था कि भाई ने एक पेड़ के ऊपर कुछ देख लिया था। वह उसे पकड़ने के लिए पेड़ पर चढ़ा। बारिश में पेड़ की डालें गीली होकर फिसलन भरी हो गयी थीं और वह वहीं से फिसलकर नीचे गिर गया। उसका माथा सीधा एक पत्थर से जा टकराया और...’’ नमिता ने वाक्य को बीच में ही अधूरा छोड़ दिया था। उसे पूरा करने की आवश्यकता थी भी नहीं। सारी घटना किसी चलचित्र की तरह मेरी आँखों के आगे घूम रही थी। वह सड़क, नीचे उतरते लोग, बादल, घाटी, पेड़, हवाएँ, सब अपना अस्तित्व खोकर उस घटना में विलीन हो गये थे। मैं स्वयं एक ऐसे अतीत में भटकने लगा था, जो मेरा नहीं था।
          ‘‘क्या उसने मृत्यु के देवता को देखा था?’’ थोड़े अन्तराल के बाद उसने पूछा।
          ‘‘पता नहीं। मैं भला कैसे बता सकता हूँ! कई बार हम सपनों में ऐसी चीज़ें देख लेते हैं, जिन्हें जागती आँखों से भी देखने का भ्रम होने लगता है...यह एक प्रकार का मेन्टल डिसऑर्डर होता है।’’
          ‘‘पर मैं तो उस मृत्यु के देवता को अक्सर जागती आँखों से देखा करती हूँ, जिसे पहली बार भाई ने काँच पर उकेरा था...मुझे यह सोचकर ही भय लगने लगता है कि क्या मेरे साथ भी भाई की ही तरह कुछ होने वाला है?’’
         ‘‘नहीं। ऐसा कुछ नहीं होने वाला। यह केवल तुम्हारा वहम है। तुम्हारे भाई का इस तरह दुर्घटनावश चले जाना तुम्हें आतंकित किए हुए है। तुम्हारी कम उम्र में घटी इस घटना ने तुम्हारे मन में स्थायी जगह बना ली है...भाई की मृत्यु का उस राक्षस से कोई सम्बन्ध नहीं है।’’
          नमिता इस बार चुपचाप मुझे देखते हुए चलती रही।
         ‘‘ऐसे क्या देख रही हो?’’ मैंने पूछा।
          ‘‘कुछ नहीं।’’ उसने अपनी निग़ाहें मुझसे हटा ली थीं।
          औचक मुझे एक बात सूझी, ‘‘अच्छा चलो, मेरी एक बात मानोगी... हम भी एक खेल खेलते हैं।’’
         ‘‘खेल? कैसा खेल?’’
         ‘‘तुम सामने वह बड़ा-सा पत्थर देख हो रही हो न!’’ मैंने सड़क किनारे पड़े एक बड़े से पत्थर की ओर इशारा करते हुए कहा।
          ‘‘हाँ।’’
          ‘‘समझो, यही वह मृत्यु का देवता है, जो तुम्हें परेशान करता है। समझो नहीं, यही वह राक्षस, जो तुम्हारे भाई के सपनों में आया करता था...अब कुछ पत्थर उठाओ और उस राक्षस को मार डालो।’’
          ‘‘क्या?’’ वह हैरान-सी मुझे देख रही थी। हम दोनों उस पत्थर के ठीक सामने खड़े थे। पत्थर कुछ अजीब तरह से बेडौल था, जैसे सचमुच राक्षस का होना अपने में समाए हुए हो।
          ‘‘उठाओ-उठाओ। इससे पहले कि वह राक्षस कुछ कर बैठे, तुम उसे मार डालो।’’ मैंने एक पत्थर उठाया और उस ओर फेंका। मेरा निशाना चूक गया था।
         वह अभी आश्वस्त नहीं हो पायी थी। उसका संदेह जा नहीं पा रहा था। वह विश्वास-अविश्वास की कमजोर डोर पर झूल रही थी। मेरे बार-बार कहने पर  झिझकते-झिझकते उसने एक पत्थर उठाया और निशाना लगाकर फेंका। निशाना ठीक जगह पर लगा था।
           ‘‘फेंको, और पत्थर फेंको। राक्षस को मार डालो।’’ मैंने उसका उत्साह बढ़ाते हुए कहा।
          उसने दुबारा एक पत्थर उस ओर उछाला। वह भी ठीक निशाने पर लगा। सहसा वह उत्साह से भर उठी। उसने एक साथ बहुत सारे पत्थर उठाये और उस बड़े पत्थर को मारने लगी, जिसे शायद अब वह भी मृत्यु का देवता मानने लगी थी। जब उसके हाथ के पत्थर समाप्त हो जाते, वह नीचे झुककर और पत्थर उठा लेती और मारने लगती। वह एक छोटी बच्ची में बदल चुकी थी। नमिता के पत्थरों की मार से उस ‘राक्षस’ के आस-पास छोटे पत्थरों का ढेर लग गया था।
          कुछ लोग हमारी ओर देखने लगे थे। जैसे ही उसका ध्यान इस ओर गया, वह सहसा रुक गयी। उसका चेहरा लाल हो आया था। कुछ थकान से और कुछ ऐसी लालिमा से, जिसमें गहरा संकोच छिपा होता है, और थोड़ी-बहुत शर्म भी!
          ‘‘अब कैसा लग रहा है?’’ मैंने उसे देखते हुए पूछा।
         ‘‘सच कहूँ?’’ वह मुझे ही देख रही थी। उसकी नीली आँखें पूरी खुली हुई थीं। अब उनमें भय नहीं था।
          मैं हँस दिया, ‘‘मैं जानता हूँ, तुम सच ही कहोगी।’’
          ‘‘अच्छा लग रहा है...बल्कि कुछ ज्यादा ही अच्छा लग रहा है। लग रहा है, मानो मैंने सचमुच उसे मार दिया हो!’’
         ‘‘हाँ नमिता, तुमने सचमुच उसे मार दिया है। अब वह तुम्हें कभी परेशान नहीं करेगा। वह मर चुका है।’’
         उसने कोई प्रतिप्रश्न नहीं किया। यह भी नहीं कि यदि वह मृत्यु का देवता था, तो मर कैसे सकता है! देवता तो कभी मरते नहीं! मुझे लगा, जो लड़की उस राक्षस को पत्थरों से मार रही थी, वह कोई और थी, शायद नमिता के भीतर रह रही बच्ची, जो उस राक्षस के आतंक से मुक्ति चाहती थी। वह किसी भी प्रश्न-प्रतिप्रश्न के दायरे के बाहर थी। वह बच्ची अपनी दुनिया में केवल विश्वास की महीन डोर पकड़े हुए जी रही थी।
          कुछ देर हम चुपचाप उस मरे हुए राक्षस के सामने खड़े रहे।
          ‘‘अब चलें?’’ मैंने पूछा।
          उसने कुछ नहीं कहा। एक बार फिर उस पत्थर की ओर देखा, जैसे उसका मरना कन्फर्म कर रही हो। वह बच्ची अभी गयी नहीं थी, जिसने उस राक्षस को मारा था। उसे जाने में कुछ अतिरिक्त समय लग रहा था। नमिता के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव आने लगे थे, जैसे वह सयास किसी दु:स्वप्न से बाहर आने के प्रयास में लगी हो।
          फिर हम दोनों नीचे उतरने लगे, जहाँ हमारी कैब हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। वह जगह ज्यादा दूर नहीं थी। हम चुप थे, लेकिन संवादहीन नहीं।
         अब बादल कभी भी बरस सकते थे। जो घाटी अभी स़फेद बदली में खोयी हुई थी, अब पूरी तरह उन बादलों के पीछे छिप चुकी थी। नमिता ने हवा से बचने के लिए अपने विंड शीटर की बेल्ट अपने शरीर पर कस ली थी और अपने गॉगल एक बार फिर आँखों पर चढ़ा लिए थे।
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***
एक बार हम फिर कैब में थे और पहले की ही तरह पिछली सीट पर बैठे हुए थे। अब पास बैठने में वह झिझक शेष नहीं रही थी, जो पहली बार के बैठने में थी। कुछ बादल, कुछ बारिश, कुछ स्मृतियाँ और कुछ बहते समय ने भी संकोच को पिघलाने में मदद की थी। पर सबसे अधिक मदद की थी उन संवादों ने, जिन्होंने इतनी देर से हमें जोड़ रखा था। कार की खिड़कियाँ बन्द थीं और ड्राइवर ने एसी का फैन चला रखा था। घने बादलों ने विज़न कमजोर बना दिया था और हमारी कार रेंगती हुई सी नीचे उतर रही थी।
         कार में बैठते ही उसने अपना स्कार्फ उतारा और गॉगल भी। एक बार फिर पहले वाली नमिता का चेहरा लौट आया था। ऐसा लग रहा था, जैसे किसी ऐक्सिमो ने अपना लबादा उतार दिया हो और उसका सुकुमार चेहरा बाहर निकल आया हो। अपने पर्स में से एक छोटा-सा शीशा और कंघा निकाला और अपने बाल ठीक करने लगी। मैं मुस्कुराये बिना नहीं रह सका। लड़कियों के पर्स में ऐसी चीज़ों का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं होती। मुझे अपनी बहन याद हो आयी। उसका पर्स भी ऐसी ही चीज़ों से अटा रहता था।
         ‘‘मैं बिल्कुल जंगली लग रही हूँ ना!’’ नमिता ने उस छोटे-से शीशे में अपना चेहरा देखते हुए कहा। मृत्यु के देवता वाली स्मृति वह इतनी जल्दी बिसार देगी, इसकी मुझे आशा नहीं थी।
          ‘‘नहीं तो! बिल्कुल नहीं!!’’
          ‘‘अब बहलाओ तो मत पलाश! जरा देखो तो सही, खुली हवा में मेरे बाल कैसे बिखर गये हैं!’’
          ‘‘इतने भी नहीं...मुझे तो ठीक ही लग रहे हैं।’’
          ‘‘लड़कियों के बालों के बारे में तुम क्या जानो!’’
           ‘‘लो! लड़कियों के बालों के बारे में लड़के नहीं जानेंगे तो और कौन जानेगा?’’
         ‘‘इस गलतफहमी में मत रहना! उन्हें तो लड़कियों के उलझे हुए बाल भी अच्छे ही लगते हैं। लेकिन लड़कियाँ ही जानती हैं कि वे ठीक से सँवरे हुए हैं कि नहीं!’’ उसने अपनी क्लिपें अपने दाँतों में फँसा ली थीं और एक छोटे कंघे से बाल सँवार  रही थी।
          ‘‘ओके बाबा! अब इस बात पर झगड़ा करना है क्या?’’ मैं हँसते हुए बोला।
         वह मुस्कुराई और उसने दाँतों में फँसी क्लिपें निकालकर फिर से बालों में लगा ली थीं। उसने हल्का-सा मेकअप भी किया। मुझे लगा, जैसे यह सब करके वह तरोताज़ा हो गयी हो। मुझे पता ही नहीं चल पाया था कि बादलों और हवाओं ने उसकी स्निग्धता चुरा ली थी, जिसने एक बार फिर उसका चेहरा दमका दिया था।
          मेरी निग़ाहें सहसा उस पर टिक गयीं।
         ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ उसने पूछा। उसकी निग़ाहें मुझ पर उठ आयी थीं, पर सीधी-सीधी नहीं, उचटती-सी, जैसे वह देखना भी चाहती हो और नहीं भी!
          मैं झेंप गया। मैं नहीं जानता था कि मैं उसे लगातार देखे जा रहा था। उसने अपना कंघा और शीशा पर्स में रखा। वह अब भी मुस्कुरा रही थी, हालाँकि मुस्कुराने का कोई कारण नहीं था।
          ‘‘क्या मैं सुन्दर हूँ?’’ सहसा उसने मुझसे पूछा।
          ‘‘क्या!’’ मैंने हैरान होते हुए उससे पूछा।
          ‘‘क्या मैं सुन्दर हूँ?’’ उसने फिर जोर देकर पूछा।
          ‘‘हाँ, तुम सुन्दर हो...’’ मैं पल भर के लिए रुका, ‘‘सच तो यह है कि तुम बहुत ज्यादा सुन्दर हो...ज़रूर तुमसे पहले भी कई लोगों ने यह कहा होगा।’’
          वह मुस्कुराई, ‘‘हाँ, कहा है...जानते हो, हर लड़की चाहती है कि लड़के उसे ‘आई लव यू’ कहें न कहें, पर यह अवश्य कहें कि वह सुन्दर है।’’
          ‘‘क्या बात कर रही हो!’’
          ‘‘हाँ, सच कह रही हूँ। अगर कोई लड़का किसी लड़की को ‘आई लव यू’ कह देता है, तो वह लड़की उससे चिढ़ भी सकती है, लेकिन वही लड़का अगर उससे यह कह दे कि वह सुन्दर है, तो वह ज़रूर खुश हो जाएगी।’’
          ‘‘यह क्या बात हुई?’’
         ‘‘ऐसा ही मिस्टर। अभी तुम लड़कियों के बारे में जानते ही क्या हो!’’ उसकी मुस्कान अभी भी गयी नहीं थी।
          मैं भी मुस्कुराते हुए उसे देख रहा था।
          ‘‘तुमने यह नहीं बताया कि लड़के लड़कियों की किस बात से खुश होते हैं?’’ सहसा उसने पूछा।
          ‘‘तुमने पूछा ही कहाँ!’’
          ‘‘चलो, अब पूछ लेती हूँ।’’ वह हँस दी थी।
          मैं सोचता रहा, पर किसी एक बिन्दु पर अपनी अँगुली नहीं रख सका, जो उसके प्रश्न का उत्तर बन सके। यह एक ऐसा प्रश्न था, जिस पर मैंने पहले कभी नहीं सोचा था।
          ‘‘पता नहीं...ठीक से कह नहीं सकता।’’
          ‘‘अच्छा, चलो यह बता दो कि तुम किस बात पर खुश होते हो?’’
          ‘‘मैं? अब क्या बताऊँ ! सच तो यह है कि इस बारे में मैं कुछ नहीं जानता। आज तक किसी लड़की ने कभी ऐसा कुछ कहा ही नहीं, जो मेरे मन को छू जाये।’’
          ‘‘कोई तो लड़की होगी, जो तुम्हें अच्छी लगती होगी?’’
          ‘‘उससे क्या होता है! मेरे अच्छी लगने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसे मैं भी तो अच्छा लगूँ!’’
          ‘‘मतलब तुम्हें अब तक कोई लड़की पसंद नहीं आयी?’’
         ‘‘नहीं, पसंद है ना! मुझे पिछले साल वाली मिस इंडिया बहुत पसंद है और मिस यूनिवर्स का तो कोई जवाब ही नहीं...दो-चार फिल्म एक्ट्रेसेज भी बहुत पसंद हैं।’’ मैंने हँसते हुए कहा।
          वह भी हँस पड़ी, ‘‘नहीं बताना चाहते, तो कोई बात नहीं। मैं तुम्हें मज़बूर नहीं करूँगी।’’
          ‘‘नहीं नमिता...दरअसल कुछ है ही नहीं बताने को! और जो कुछ था, वह मैं तुम्हें पहले ही बता चुका हूँ।’’
          वह चुप रही। इस बार उसकी हँसी कहीं चली गयी थी।
         ‘‘तुम्हें बुरा लगा?’’ मैंने उससे जानना चाहा।
         ‘‘बुरा? बुरा क्यों लगेगा? बल्कि यूँ कहो कि आश्चर्य हुआ कि अब तक कोई लड़की तुम्हारी ज़िंदगी में आयी क्यों नहीं! अच्छे-ख़ासे स्मार्ट हो!’’ उसकी आँखों का आश्चर्य उसके चेहरे पर पैर पसार कर पसरा हुआ था। वह सीधे मुझे देख रही थी।
          ‘‘यह तो कोई कारण नहीं हुआ! और फिर ज़रूरी तो नहीं कि हर लड़के की ज़िंदगी में कोई लड़की हो ही!’’ मैंने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘पर अचानक मुझे तुम्हारी बात का उत्तर मिल गया है।’’
          ‘‘किस बात का उत्तर?’’
          ‘‘यही, कि लड़के लड़कियों की किस बात से खुश होते हैं?’’
          वह अपनी हैरान आँखों से मुझे देख रही थी, ‘‘किससे?’’
         ‘‘लड़कियाँ अगर लड़कों को स्मार्ट कह दें, तो वे खुश हो जाते हैं।’’ मैंने हँसते हुए कहा।
         वह भी हँस पड़ी, ‘‘तो तुम्हें मेरा स्मार्ट कहना अच्छा लगा?’’
         ‘‘यही तो कह रहा हूँ।’’
         ‘‘चलो, अच्छा ही हुआ। मुझसे कुछ तो ज्ञान मिला!’’
         कैब आहिस्ता-आहिस्ता नीचे उतर रही थी। कुछ बादलों के कारण और कुछ बारिश में तर सड़कों के कारण कैब की गति थी। हम लगभग नीचे पहुँच चुके थे, जहाँ दो पहाड़ों के बीच एक पहाड़ी सोता बह रहा था। उस सोते को पार करने के लिए एक पुराना पुल था, जिसके दोनों ओर बहुत-सी कारें खड़ी हुई थीं।
          ‘‘यह कौन-सी जगह है?’’ मैंने कैब ड्राइवर से पूछा।
          ‘‘यह अंकलेश्वर महादेव के झरने का पानी है साहब।’’
          ‘‘जब हम ऊपर जा रहे थे, तब तो यह जगह रास्ते में नहीं पड़ी थी?’’
         ‘‘वह रास्ता हम पीछे छोड़ आये हैं साहब। यह दूसरा रास्ता है। आप रुककर देखना चाहेंगे?’’ ड्राइवर ने कार की गति कम करते हुए पूछा।
          इससे पहले कि मैं कुछ कहता, नमिता बोल उठी, ‘‘हाँ, थोड़ी देर यहाँ रुक जाते हैं। बड़ी सुन्दर जगह लग रही है।’’
          कार से उतरते ही ठण्डी हवा के झोंके ने हमें कँपकँपा दिया। उस जगह व्यू पॉइन्ट से ज्यादा ठण्ड थी। हम अपने चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से घिरे हुए थे। हवा मन्द-मन्द बह रह थी और उस पर सवार बादल अपने सफेद कपड़ों में रुई के फाहों से इधर-उधर घूम रहे थे। नमिता अपने विंड शीटर के बावजूद भी सर्दी से काँप रही थी।
         ‘‘ठण्ड लग रही है?’’ मैंने पूछा। वह मेरे बिल्कुल पास खड़ी हुई थी, अपने दोनों हाथ बाँधे हुए।
         ‘‘नहीं, ज्यादा नहीं है।’’ ठण्ड के बावजूद भी मुझे वह निश्चिंत दिखाई दे रही थी। एक ऐसी निश्चिंतता, जो अपनी तमाम आशंकाओं, डर और दु:स्वप्नों को एक ओर सरकाने के बाद आती है। ऐसे पल कभी-कभार ही आते हैं, जब हम अपने विगत को बुहार कर केवल उन व्यतीत हो रहे पलों को जीने लगते हैं।
         पहाड़ों की तलहटी में एक साफ पानी का सोता बह रहा था। चारों और बादलों में लिपटी ऐसी हरियाली थी, मानो किसी बच्चे ने लापरवाही से बहुत सारा हरा रंग कैनवास पर बिखेर दिया हो, लेकिन उसकी लापरवाही ने उस कैनवास को एक बेहद खूबसूरत पेन्टिंग में बदल दिया हो।
         बहुत-से लोग वहाँ जमा थे। कुछ तो वहाँ बा़कायदा पिकनिक मनाने आये थे, और कुछ हमारी तरह राह चलते-चलते यूँ ही रुक गये थे। वह एक ऐसी जगह थी, जहाँ नहीं ठहर पाना संभव नहीं था।
          नमिता ने मेरी ओर देखा। मैं पहले ही उसे देख रहा था।
         ‘‘चलें?’’ उसने पूछा। उसकी नीली आँखें उस जगह के सौन्दर्य से विस्मय से भर आयी थीं।
         ‘‘तुम अपना स्कार्फ तो पहन लो, ठण्ड लग जाएगी।’’ मैंने नमिता से कहा।
         ‘‘तुम चलो भी...तब की तब देखी जाएगी।’’
         सड़क छोड़कर हम नीचे बहते पानी के पास उतर गये। हमारे पाँवों के नीचे के पत्थर गोल और फिसलन भरे थे। हमें सँभल-सँभल कर चलना पड़ रहा था। नमिता ने अपनी हील वाली चप्पलें एक हाथ में पकड़ ली थीं और दूसरे हाथ से वह अपने बड़े-से पर्स को थामे हुए थी। नंगे पाँव होने के कारण उसे संतुलन बनाना कठिन हो रहा था। कुछ छोटे पत्थर उसके तलवों में अवश्य चुभ रहे होंगे, लेकिन वह पूरे मनोयोग से बहते हुए पानी की दिशा में बढ़ रही थी। उत्साह में वह मुझसे आगे निकल गयी थी। मैं उसके पीछे उसे एक बच्ची की तरह कूदते-फाँदते हुए देख रहा था।
         जैसे ही उसके पाँवों ने बहते हुए पानी को छुआ, उसका चेहरा खुशी से तर हो गया था। मानो उसे अनायास ऐसा खजाना मिल गया हो, जिसे पाने की उसने कल्पना नहीं की थी। उसके मुँह से मानो किलकारियाँ फूट रही थीं।
         ‘‘यहाँ आओ ना!’’ वह मुझे अपने पास बुला रही थी। मैं उससे कुछ दूर खड़ा उसे ही देख रहा था, क्योंकि उसके पास जाने के लिए मुझे भी अपने जूते उतारने पड़ते। झिझकता हुआ मैं यूँ ही खड़ा रहा।
         ‘‘क्या हुआ? आओ ना!’’ उसने मुझे दुबारा बुलाया।
         अब उसके आग्रह को टाल पाना असंभव था। मुझे जूते-मोजे उतारने ही पड़े। मैंने उन्हें उसकी चप्पलों के पास रख दिया, जिन्हें वह वहीं एक पत्थर पर छोड़ गयी थी और उसके पास जा पहुँचा। तब तक वह अपने पाँव पानी में लटकाकर एक बड़े-से पत्थर पर बैठ चुकी थी। मैं भी वहीं उसके पास बैठ गया और मैंने भी अपने पाँव पानी में लटका लिए। यूँ तो वहाँ काफी ठण्ड थी, पर पानी उतना ठण्डा नहीं था। बहते पानी की शीतल तरंगें शरीर में जैसे सुकून-सा प्रवाहित कर रही थीं।
        वह बहते पानी में अपने हाथ डाले पानी से खेल रही थी। उसने अपना पर्स कन्धे से उतारकर पास ही एक सूखी जगह पर रख दिया था और मुक्त हाथों से पानी हवा में उछाल रही थी। कल-कल करते पानी के स्पर्श से उसकी स़फेद हथेलियाँ और पाँव और भी ज्यादा सफेद हो गये थे।
         मेरे पास करने को कुछ नहीं था, सिवाय प्रकृति को अपने भीतर तक महसूस करने के और मैं वही कर रहा था। बादलों के बोझ से दबकर मेरी आँखें मुँदी जा रही थीं। चारों ओर छायी हरियाली, साफ-श़फ़्फाक बहता हुआ पानी, रुके हुए रुई के फाहे जैसे ठण्डे बादल और एक अपरिचित लड़की... मुझे लगा, जैसे मैं किसी अर्धस्वप्न में हूँ।
         ‘‘क्या तुम कभी उल्टे पाँव चले हो?’’ सहसा उसने पूछा।
         ‘‘क्या बात कर रही हो! कोई उल्टे पाँव कैसे चल सकता है!’’  
         ‘‘पर मैं चल सकती हूँ...देख नहीं रहे, मैं उल्टे पाँव चलकर अपने बचपन में पहुँच गयी हूँ।’’ उसने मुस्कुराते हुए कहा। उसकी खुशी उसके चेहरे पर पोस्टर की तरह चस्पा थी। उस खुशी को छिपाने का उसने कोई प्रयास भी नहीं किया था। नीली आँखों के रास्ते वह खुशी का झरना बनकर बाहर फूट रही थी।
          ‘‘तुम अब भी बच्ची ही हो।’’
         ‘‘कैसे?’’ इस बार फिर उसकी आँखें फैलकर विस्तार पा गयी थीं।
         ‘‘भुट्टे खाने वाली बच्ची, पानी में खेलने वाली बच्ची...’’ मैंने हँसते हुए कहा।
         वह भी हँस पड़ी, ‘‘इतना बच्चा तो हर व्यक्ति में छिपा होता है।’’
      ‘‘हाँ, यह तो है, पर जैसे-जैसे वह बच्चा बड़ा होता जाता है, हम उसे कपड़े पहनाते जाते हैं, भाषा के कपड़े, संस्कारों के कपड़े, जाति-धर्म के कपड़े...वह बेचारा इतनी तरह के कपड़ों के भार से दबकर अपना अस्तित्व ही गँवा बैठता है।’’
         ‘‘पर पूरी तरह नहीं...वह कभी मरता नहीं, हमेशा साँस लेता रहता है और किसी अनजान क्षण अपना सिर बाहर निकालकर टुकुर-टुकुर देखने लगता है...जैसे कभी-कभी कंगारू का बच्चा माँ की थैली से मुँह निकालकर बाहर झाँकने लगता है।’’
         ‘‘हाँ, और उसका विस्मय हमारा विस्मय बन जाता है।’’
         ‘‘वही तो! यह पल एक ऐसे ही सुख का पल है...नहीं?’’ उसकी सपनीली आँखें मुझ पर लगी हुई थीं।
        ‘‘हाँ।’’ मैंने कहा, पर मेरा ध्यान सहसा ‘सुख’ पर अटक गया था। क्या सुख ऐसा होता है? या शायद सुख ऐसा ही होता है, बिना किसी आवरण का, जैसा कि उस समय नमिता का चेहरा था, बिना गॉगल और स्कार्फ के। 
         मन्द-मन्द बहती हुई हवा अचानक कुछ तेज़ हो चली थी और घाटी में ठहरे हुए बादल हवा के साथ-साथ शीघ्रता से यहाँ-वहाँ तैरने लगे थे। उन्होंने हमें पूरी तरह ढँक लिया था, साथ ही पहाड़ों को भी, पेड़ों को भी और उस पुल को भी, जहाँ हमारी कैब खड़ी हुई थी। हमारी आँखें डबडबाने लगी थीं और पलकें बादलों के बोझ से मानो बन्द-सी हुई जा रही थीं।
         ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं लग रहा, जैसे हम कोई सपना देख रहे हों!’’ अचानक नमिता ने पूछा।
         ‘‘सपना? कैसा सपना?’’ मुझे आश्चर्य हुआ। अभी कुछ देर पहले मैं भी ठीक यही सोच रहा था!
         ‘‘जैसे हमने जीना स्थगित कर दिया हो और हम किसी शून्य दिन में पहुँच गये हों...दिन भी नहीं, समयहीन समय में, जिसके ना तो कुछ आगे है और ना ही पीछे... यह अहसास जीवित सपने-सा है, एक साँस लेते सपने-सा, जो आँख खुलते ही टूट जाएगा!’’
        पल भर मैं रुका रहा, फिर बोला, ‘‘हाँ, यह समय दो सुइयों वाली घड़ी का समय नहीं है। शायद यह समय, समय भी नहीं है। कुछ और ही है, जो अनायास ही हमारे हिस्से में आ गया है।’’
         ‘‘शायद...’’ वह बहते पानी की ओर देखते हुए कुछ सोचने लगी थी।
         ‘‘पर कितनी अजीब बात है न! क्या तुम्हें ऐसा नहीं लगता जैसे हम एक ही सपने को जी रहे हों!’’ मैंने उसे देखते हुए कहा।
         वह कुछ कहती, उससे पहले ही सहसा हमारा ध्यान एक चिड़िया ने अपनी ओर खींच लिया, जो अपने गहरे लाल और चटक पीले रंग के साथ हमसे कुछ दूर एक पत्थर पर बैठी हवा में अपने पंख फरफरा रही थी। उसके गले के फर नीले रंग के थे, जो उसे अलग प्रकार की सुन्दरता प्रदान कर रहे थे। वह अपने भीगे पंखों को सुखाने का प्रयास कर रही थी। जब वह अपने पंख हवा में लहलहाती, एक सतरंगी-सी आभा बिखर जाती और उनमें छिपी पानी की नन्हीं-नन्हीं बूँदें मोतियों की तरह इधर-उधर छिटकने लगतीं। वह एक अद्भुत दृश्य था और हम दोनों ही उसमें पूरी तरह डूब गये थे।
           ‘‘इतनी रंग-बिरंगी चिड़िया मैंने पहली बार देखी है।’’ थोड़ी देर बाद उसने कहा।
          ‘‘मैंने भी! बहुत ही सुन्दर है...’’ मैंने उसकी बात का समर्थन किया, ‘‘ऐसी चिड़िया प्रकृति के बीच ही मिल सकती है। नहीं?’’
          ‘‘हाँ, मैं एक खूबसूरत घटना की तरह इसे हमेशा याद रखूँगी।’’
          हम चुपचाप तब तक उसे देखते रहे, जब तक वह उड़ नहीं गयी। उसके उड़ते ही लगा, जैसे कोई दिलचस्प नाटक चल रहा था, जिसका मुख्य पात्र बीच में ही नाटक अधूरा छोड़कर चला गया हो।
         ‘‘अब चलें?’’ नमिता ने कहा। मैंने अपने जूते-मोजे पहने, जबकि उसने अपनी चप्पलें सड़क पर पहुँचकर पहनी।
         ड्राइवर हमारी प्रतीक्षा में था। एकाएक बैठना संभव नहीं हो पा रहा था। बहते पानी का वह सोता अब भी हमें रोके हुए था। कुछ देर हम यूँ ही चुपचाप खड़े रहे, अपने चारों ओर देखते हुए, ताकि यहाँ से जाने के बाद यह सारा दृश्य अपने साथ ले जा सकें। प्रकृति को इस तरह भी अपनी स्मृति में सँजोना होता है, यह उस दिन पहली बार जाना था।
         ठण्ड बढ़ आयी थी और नमिता को बार-बार अपना विंड शीटर कसना पड़ रहा था। हम लौटने लगे थे। उसने एक बार फिर अपनी आँखों पर गॉगल चढ़ा लिये थे।
         ‘‘चाय पियोगी?’’ कैब के पास पहुँचकर मैंने उससे पूछा।
         ‘‘यह भी कोई पूछने की बात है!’’ वह तुरंत बोली।
         मैंने इधर-उधर देखा पर मुझे वहाँ कोई चायवाला दिखाई नहीं दिया। मैं स्वयं चाय पीना चाह रहा था।
         ‘‘क्या यहाँ कहीं चाय मिल सकती है?’’ मैंने ड्राइवर से पूछा।
         ‘‘हाँ साहब। पुल के उस पार एक चायवाला सड़क पर बैठा हुआ है। क्या आप वहाँ पीना पसंद करेंगे?’’
         इसके पहले कि मैं कुछ कहता, नमिता ने उससे कहा, ‘‘हम पहले भी व्यू पॉइन्ट पर इसी तरह चाय पी चुके हैं...आप बस वहाँ ले चलो।’’
         हम कैब में बैठ गये। अन्दर उतनी ठंड नहीं थी। ड्राइवर हमें पुल के दूसरी ओर ले गया। पुल से गुजरते हुए हमने नीचे उस जगह को देखा, जहाँ अभी कुछ देर पहले हम पानी में बैठे हुए थे। वह जगह अब खाली पड़ी हुई थी। हमारे वहाँ होने का एक भी चिन्ह शेष नहीं था।
         ड्राइवर हमें कैब में ही चाय लाकर देने को तैयार था, पर नमिता ने मना कर दिया। कार रुकते ही वह एक बार फिर उतरकर पेड़ों के नीचे खड़ी हो गयी थी।
         वहाँ चाय-नाश्ते की कुछ थड़ियाँ लगी हुई थीं, जहाँ अच्छी-खासी भीड़ थी। कुछ लोग खा-पी रहे थे, तो कुछ लोग वहाँ भी भुट्टों का मज़ा ले रहे थे।
         ‘‘तुम्हें ठण्ड लग रही है?’’ मैंने पूछा।
         ‘‘ज्यादा नहीं...’’ वह बोली। वह चुप थी और चाय की थड़ी की ओर देख रही थी, जहाँ हमारा ड्राइवर चाय लेने गया हुआ था।
         ‘‘क्या सोच रही हो?’’ उसे चुप देखकर मैंने पूछा।
         ‘‘मैं सोच रही थी कि इस समय यदि एक सिगरेट मिल जाती, तो सारी सर्दी दूर भाग जाती।’’ उसने धीरे-से कहा।
         मैंने आश्चर्य से उसे देखा, ‘‘अरे! मुझे तो पता ही नहीं कि तुम सिगरेट पीती हो।’’
       ‘‘गलत मत समझो। वन्स इन अ ब्ल्यू मून! कभी-कभार में क्या हर्ज़ है! इतनी ठण्ड में सिगरेट अच्छी ही लगेगी। नहीं?’’
         ‘‘मैं लेकर आता हूँ।’’
       चाय की थड़ी पर ड्राइवर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहा था। मैंने दूसरी जगह से सिगरेट का पैकेट और माचिस खरीदी और नमिता के पास लौट आया।
          मैंने दो सिगरेटें जलाकर एक उसकी ओर बढ़ा दी। उसने जल्दी से एक बड़ा-सा कश लगाया, पर धुएँ को अन्दर नहीं लिया, मुँह में भरकर ही उसे बाहर निकाल दिया। उसके मुँह से बाहर निकले धुएँ की गन्ध मेरे नसवारों में भर गयी थी।
          ‘‘तुम्हें बुरा लगा?’’ उसने मुझसे पूछा।
         ‘‘क्या बुरा लगा?’’
         ‘‘यही, मेरा सिगरेट पीना...’’
         ‘‘कतई नहीं, पर हाँ, हल्का-सा आश्चर्य अवश्य हुआ।’’
         ‘‘वैसे तो मैं पीती नहीं, पर छठे-चौमासे, पार्टी-शार्टी में हो भी जाती है...पर आज मैं चाहती थी। जब हम व्यू पॉइन्ट पर थे, तब भी तुमसे कहने की सोच रही थी।’’
         ‘‘तो कहा क्यों नहीं?’’
         ‘‘पता नहीं! कोई झिझक थी, जो मुझे रोके हुए थी...पर...’’
         ‘‘पर? पर क्या नमिता?’’
        ‘‘पर यहाँ आते-आते सारी झिझक पीछे छूट गयी है...पहाड़ों की इस तलहटी में आकर लग रहा है, जैसे मैं वैसा कर सकने के लिए स्वतन्त्र हूँ, जैसा करना चाहती हूँ। यह एक विचित्र अनुभव है, जो आज से पहले मैंने कभी महसूस नहीं किया।’’ इस बार उसने एक लम्बा कश लगाया और धुएँ का छल्ला बनाकर हवा में छोड़ दिया। कुछ देर वह छल्ला हमारे पास ही मँडराता रहा, फिर सफेद बादलों ने उसे लील लिया।
         ‘‘उस सतरंगी चिड़िया को देखा था ना! सबसे बे़खबर, अपने में डूबी हुई, प्रकृति में रमी हुई...जब एक परिन्दा स्वच्छन्द हो सकता है, तो मैं क्यों नहीं?’’ इस बार उसने धुआँ अन्दर तक उतार कर आहिस्ता-आहिस्ता बाहर निकाला।
          मैंने भी एक कश लगाया और उसे देखता रहा।
        ‘‘तुम्हें शर्म आ रही है तो तुम कैब में जाकर बैठ जाओ। अब मुझे किसी की परवाह नहीं है।’’ वह हँस दी। उसकी आवाज़ में एक उन्मुक्तता थी, जो मैंने पहले महसूस नहीं की थी। मौका पाकर वह इस प्रकार तितली की मानिन्द उड़ने लगेगी, यह मैं नहीं जानता था।
         पर मैं अपनी जगह से हिला भी नहीं। उसे देखता रहा। मेरी सिगरेट होंठों के बीच दबी हुई थी।
         ‘‘क्या तुम रेगुलर स्मोकर हो?’’ उसने पूछा।
         ‘‘नहीं, उतना ही, जितनी कि तुम।’’ 
         वह ठीक कह रही थी। गर्म मखमली धुएँ ने सचमुच हमें राहत पहुँचाने का काम किया था।
        तभी ड्राइवर हमारे लिए चाय ले आया था। हम वहीं सड़क किनारे खड़े-खड़े चुपचाप चाय और सिगरेट पीते रहे। चाय गर्म और अच्छी थी, बड़े-बड़े गिलासों में ऊपर तक भरी हुई। अपने हाथों में गर्मा-गर्म चाय किसी नियामत से कम नहीं लग रही थी। हम आहिस्ता-आहिस्ता चाय पी रहे थे।
         ‘‘ड्रिंक्स लेती हो?’’ सहसा मैंने पूछा।
         ‘‘बिल्कुल नहीं...एक बार ली थी। ज़रा भी सूट नहीं की। उल्टियाँ पर उल्टियाँ... उसके बाद कभी नहीं ली। उसी दिन ड्रिंक्स से पूरी तरह मोहभंग हो गया था... और तुम?’’
         ‘‘कभी-कभी। पर मुझे इतनी बुरी नहीं लगती।’’
         सहसा उसने मेरी सिगरेट की ओर संकेत करते हुए कहा, ‘‘ध्यान से, तुम्हारी अँगुलियाँ जल जाएंगी...’’
        सिगरेट ख़त्म होने को थी। मैंने अन्तिम कश लगाया और ठुड्ड को एक ओर उछाल दिया। नमिता भी अपनी सिगरेट समाप्त कर चुकी थी।
         बादलों का पानी महीन-महीन बर्फ के फाहों-सा गिरने लगा था, सफेद, ठण्डा और निर्मल। वे फाहे उड़ते हुए से आते थे और हमारे चेहरों पर चस्पा हो जाते थे। यह बारिश शुरू होने की पूर्व सूचना थी। पर हम अपनी जगह से हिले तक नहीं। वहीं खड़े रहे। पेड़ बनकर, पहाड़ बनकर, नन्हीं-नन्हीं बूँदों तले। नमिता अपनी दोनों हथेलियों को जोड़कर उन पर बरसती हुई बूँदें महसूस करने लगी थी। बूँदें उसके चेहरे पर भी गिर रही थीं, बालों पर भी और कपड़ों पर भी। वे गिरतीं और स्फटिक की तरह बिखर जाती थीं।
         ‘‘मुझे एक सिगरेट और पीनी है।’’ नमिता ने कहा।
         मैंने उसके लिए दूसरी सिगरेट जलाई। एक बार फिर उसने लम्बा कश लगाया और धुआँ हवा में छोड़ दिया। इस बार सफेद बादलों ने तुरंत उस धुएँ को निगल लिया था।
         मैं उसके पास ही खड़ा हुआ था, उसे देखता हुआ। वह बादलों से घिरी हुई थी। बारिश की चिन्दी-चिन्दी सी बूँदें उसके चेहरे पर जमा थीं और घने काले बालों पर ओस-सी चमक रही थीं, जबकि विंड शीटर पर पड़ते ही वे फिसलने लगती थीं। इतनी घनी हरियाली के बीच मुझे महसूस हुआ जैसे वह सहसा पेड़ में बदल गयी हो, कोई परिन्दा हो गयी हो, एन्जिल हो गयी हो, प्रकृति का हिस्सा हो गयी हो...
           ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ सहसा उसने पूछा।
           ‘‘देख रहा हूँ कि बहुत दूर से एक यक्षणि मुझसे मिलने आयी है।’’
           ‘‘यक्षणि?’’
           ‘‘प्रकृति की देवी।’’
           वह सिगरेट होंठों पर लगाते-लगाते रुकी। उसका हाथ हवा में उठा रह गया था, ‘‘पर यह यक्षणि रुकने वाली नहीं है...तुम्हारी उस पुरानी स्मृति वाली लड़की की तरह।’’
            ‘‘कुछ लोगों के जीवन में लोग मिलते ही बिछुड़ने के लिए हैं!’’
           ‘‘पलाश...’’ उसने मुझे बीच में ही टोक दिया था।
            मैं उसे ही देख रहा था।
           ‘‘एक बार मेरा नाम लो...’’
             ‘‘क्या!’’
            ‘‘प्लीज़! सि़र्फ एक बार...’’ इस बार उसने सिगरेट होंठों से लगायी और कश खींचा।
         ‘‘मैं पहले कई बार तुम्हारा नाम ले चुका हूँ।’’ एक असमंजस ने मुझे पकड़ लिया था। साथ ही आश्चर्य भी हो रहा था कि जिस नाम को अनेक बार ले चुका था, उसी नाम को लेने में उलझन क्यों महसूस हो रही थी? होता है, कई बार होता है। जिस काम को हम अपनी सुविधानुसार करते रहते हैं, उसी काम को यदि आग्रहपूर्वक करने के लिए कहा जाए, तो दुविधा आ खड़ी होती है।
          ‘‘पर मैं फिर सुनना चाहती हूँ... जानते हो क्यों?’’
          ‘‘क्यों?’’
        ‘‘मैं अपने आप को महसूस करना चाहती हूँ...कि मैं हूँ, बाकायदा जीवित हूँ... कोई मुझे पुकारेगा और वह मेरा नाम होगा’’, उसने अपना ही नाम फुसफुसाया, जैसे मुझे नहीं, हवा को बता रही हो, ‘‘नमिता... तीन अक्षरों का एक नाम, जो इन पेड़ों का, बारिश का, इस घाटी का, किसी का भी नहीं है, सि़र्फ मेरा है...यह मेरे वजूद में होने का सबूत है।’’
        ‘‘नमिता...’’ मैंने कुछ कहना चाहा, कुछ भी, जो उसकी बात का समर्थन कर सके। पर एक शब्द भी नहीं बोला गया। उसके अहसासातों ने मुझे पूरी तरह भिगो दिया था।
         ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ उसने पूछा।
         ‘‘कुछ नहीं।’’
         ‘‘यही न, कि कितनी पागल लड़की है! बहकी-बहकी बातें किया करती है!’’ उसने हँसते हुए पूछा।
        मैं भी हँस पड़ा, ‘‘ऐसा कुछ नहीं...पर जब तुम चली जाओगी, तब तुम्हारी यही बहकी-बहकी बातें मेरे पास रह जाएंगी...तब बहुत याद आओगी।’’
        उसकी हँसी अचानक वहीं थम गयी, ‘‘तुम्हारी उस स्मृतियों वाली लड़की की तरह?’’
         ‘‘शायद...’’
         कुछ देर हम चुप खड़े रहे।
      ‘‘पलाश...’’ वह धीरे-से बोली। उसने सिगरेट का अन्तिम कश लिया और फिल्टर को हवा में उड़ा दिया। फिल्टर गोल-गोल घूमता हुआ ज़मीन पर गिर गया। हमने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया।
         ‘‘हाँ।’’
         वह मुझे ही देख रही थी। पल भर वह ठिठकी। यह कुछ कहने से पहले की झिझक थी। फिर उसकी कहीं डूबी हुई-सी आवाज़ आयी, ‘‘इस अज़नबी शहर में मेरे पास तुम्हें देने के लिए सि़र्फ ये कुछ स्मृतियाँ ही हैं और कुछ भी नहीं... फिर हमने वादा किया है कि एक-दूसरे से हम कोई अपेक्षा नहीं रखेंगे।’’
          अपेक्षा...मुझे यह शब्द किसी दूसरे ग्रह का जान पड़ा। शब्दकोश से बाहर आकर वह निरीह-सा मुझे ताकने लगा था। मैं चुपचाप उसे देखता रहा और नमिता को भी!
           ‘‘जानते हो न, अपेक्षा करना हमेशा दु:ख का कारण होता है...’’ वह अपनी बात भूली नहीं थी।
          ‘‘हाँ, मैं जानता हूँ...’’ मैंने कहा, ‘‘विश्वास करो, मैं तुमसे कोई अपेक्षा नहीं कर रहा, नमिता, मैं भी आज इस अचानक मिले दिन को एक खूबसूरत स्मृति की तरह सँजोकर रखना चाहता हूँ, जैसे कि हम कविता में संवेदनाएँ सँजोकर रखते हैं, संगीत में मुरकियाँ सँजोकर रखते हैं, पेन्टिंग में भाव सँजोकर रखते हैं, ताकि बाद में जब कभी आज का दिन याद करूँ, तो सि़र्फ सँजोयी हुई खूबसूरती ही दिखायी दे, कोई खरोंच नज़र न आये!’’
          ‘‘मैं भी यही चाहती हूँ, हालाँकि यह पहले नहीं सोचा था।’’
          ‘‘शुरू में कुछ पता नहीं चलता...कुछ भी नहीं, सोचो कुछ और हो कुछ और जाता है...शायद ज़िंदगी ऐसी ही होती है!’’ मैंने कहा।
          पर इस बार नमिता ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने एक बार चुपचाप मेरी ओर देखा। उसकी आँखों में मछली की आँखों-सी उदासी उतर आयी थी। किसी दु:ख के कारण नहीं, किसी अनचीन्हे सुख के कारण भी नहीं, बस यूँ ही, जैसे खिड़की से फर्श पर धूप के टुकड़े उतर आते हैं, सुबह-सुबह फूलों पर ओस उतर आती है, बरसे हुए बादलों में कोई आकृति उभर आती है...
         ‘‘चलें सर?’’ ड्राइवर ने पास आकर पूछा।
         हम दोनों चौंक गये। हम दोनों ही भूल गये थे कि वह रुकने वाली जगह नहीं थी। वह सि़र्फ एक पड़ाव था, हमारी छोटी-सी यात्रा के बीच आया हुआ पड़ाव!  
***
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:: दो ::

डूब रहा है दिन
जैसे डूबता है मन
और उतर रही है रात
किसी परिन्दे से विलग हुए पंख-सी चुपचाप
मैं अपने शहर को घर की छत से देखता हूँ
और उतर आता है मेरी आत्मा में एक गहरा अवसाद
मेरी आँखें आँसुओं से भीगी हैं
और मैं एक अनाम-सी उदासी महसूस कर रहा हूँ
अब मैं इसे कैसे समझाऊँ
कि यूँ तो हम दुनिया को शब्दों से जानते हैं
पर कुछ संवेदनाएँ शब्दों से परे होती हैं।


उदासी पहन कर उतरी शाम

हम फिर शहर लौट आये थे। उसी भागते-दौड़ते ट्रै़फिक के बीच, जो कभी रुकता नहीं था। हम कार की खिड़कियों से शहर को देख रहे थे, जो हमारे लिए उतना ही अज़नबी था, जितने कि हम उसके लिए। पर परिचय का दरवाज़ा खोलने के लिए उसकी कुण्डी खटखटानी पड़ती है। अनजाने में हम दोनों ही कुण्डियाँ खटखटा चुके थे, एक-दूसरे की भी और शहर की भी और प्रतीक्षा में थे कि कोई हमें घर के भीतर खींच ले।
         ड्राइवर ने जिस जगह कार रोकी, वह जगह काफी खुली-खुली सी थी, हालाँकि वहाँ लोगों का हुजूम जमा था। वहाँ एक ओर बड़ा-सा ऊँचा दरवाज़ा था, जिसके पीछे एक पुरानी इमारत अपने गोल गुम्बद के साथ खड़ी हुई थी।
          ‘‘यह कौन-सी जगह है?’’ मैंने नीचे उतरकर ड्राइवर से पूछा। नमिता भी मेरे  साथ-साथ नीचे उतर आयी थी। बारिश को हम पीछे छोड़ आये थे, पर बादल अभी भी हमारे साथ थे। वे पूरे शहर पर चादर से तने हुए थे।
         ‘‘साहब, यह जोगियों का चौक है। अन्दर एक दरगाह है, जिसकी बड़ी मानता है...आप देखेंगे?’’ उसने हमसे पूछा।
         मैंने नमिता की ओर देखा। उसकी निग़ाहें मुझ पर लगी हुई थीं।
         ‘‘चलते हैं।’’ मैंने कहा।
          वह मुस्कुराई। यह उसकी स्वीकृति का संकेत था।
         नमिता ने अपना विंड शीटर उतारकर कार में रख दिया था। बहुत देर बाद मैं उसकी दुबली-पतली सी बाँहों को देख पा रहा था, जो हाफ स्लीव्ज़ के टॉप के बाहर मुझे नंगी-सी लगीं, काफी हद तक सेंसुअस। उसकी गर्दन भी पतली और लम्बी थी, जिसे अब तक विंड शीटर के बड़े-से कॉलर ने अपने पीछे छिपा रखा था। उसके खुले बाल एक बार फिर उसकी पीठ पर पसरे हुए थे, जिन्हें अभी कुछ देर पहले ही उसने कैब में सँवारा था। मेरे भीतर कुछ दुर्दम्य-सा जन्म लेने लगा था। जल्दी से मैं अपनी निग़ाहें हटाकर सामने देखने लगा, जहाँ दरगाह हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।
          कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर हम दरगाह में पहुँच गये। सीढ़ियाँ जहाँ ख़त्म होती थीं, वहाँ एक बड़ी-सी खुली जगह थी। बरसाती बादलों के बावजूद भी वहाँ धवल आलोक एकत्रित था। बायीं ओर एक खुला चौक था, जहाँ कुछ कबूतर बैठे हुए थे, जिनमें कुछ सफेद रंग के भी थे। हम दोनों अपने आप ही वहाँ रुक गये। वहीं पास कुछ लोग कबूतरों को खिलाने वाला दाना बेच रहे थे।
          मैंने नमिता की ओर देखा। उसे देखते ही मैं समझ गया कि वह क्या चाह रही थी।
        मैंने दाने खरीदकर नमिता को दे दिये। उसने दाने की थैली में से कुछ मुट्ठियाँ खुले चौक में उछाल दीं। कबूतरों को शायद पहले ही अन्दाज़ लग गया था। जो कबूतर आस-पास बैठे हुए थे, वे सब एक साथ दानों पर टूट पड़े थे।  
         मैं नमिता को दाने खिलाते हुए देखता रहा। उसने अपना पर्स मुझे पकड़ा दिया था और उकड़ू होकर ज़मीन पर बैठ गयी थी। दाने ख़त्म होते ही वह थैली में से और दाने उछाल देती थी। कबूतर उन्हें खाने लगते और देखते ही देखते चट कर जाते। यह खेल तब तक चलता रहा, जब तक सारे दाने समाप्त नहीं हो गये। दाने ख़त्म होते ही कबूतर एक बार फिर सामने की सीढ़ियों पर जा बैठे थे। पीछे रह गयी थीं उनकी बीटें और हवा में सरसराती फड़फड़ाहटें। नमिता ने मुझे देखा और खड़ी हो गयी। कुछ देर तक खड़े-खड़े हम उस खाली चौक को देखते रहे।
         ‘‘तुम और दाने खिलाना चाहोगी?’’
         ‘‘नहीं।’’ उसने मुझसे अपना पर्स लिया और कन्धे पर लटका लिया,  ‘‘अब चलो।’’
         कुछ देर बाद हम मुख्य दरगाह की ओर बढ़ गये। दरगाह के दरवाज़े पर काफी भीड़ थी। लोग हाथों में फूलों की टोकरियाँ लिए अपनी बारी की प्रतीक्षा में थे। मैंने भी उन्हें देखकर फूलों की एक टोकरी खरीद ली थी और उसे नमिता को दे दिया था।
         ‘‘मैं भी सिर ढँक लूँ?’’ नमिता ने पूछा।
         ‘‘वह तो ढँकना ही पड़ेगा...’’ मैंने अपना सिर रूमाल से ढँक लिया था।
        उसने भी अपना स्कार्फ निकाला, पर बाँधा नहीं, मेरी तरह ही अपने सिर पर रख लिया। स्कार्फ काफी बड़ा था और उसके कन्धों के नीचे तक चला आया था।
         ‘‘कौन मानेगा कि तुम इन्जीनियर हो और एक बड़ी कम्पनी में काम करती हो!’’ उसे यूँ देखकर मैं मुस्कुरा रहा था।
         ‘‘क्यों? इसमें न मानने वाली क्या बात है!’’ वह भी मुस्कुराते हुए मुझे ही देख रही थी।
         ‘‘क्योंकि तुम अभी भी स्कूल जाने वाली छोटी बच्ची लगती हो।’’
         वह हँस पड़ी, ‘‘मेरी माँ भी यही कहती हैं। वे हमेशा मुझे टोकती रहती हैं कि मैं बड़ी कब होऊँगी...पर तुम ही बताओ, इसमें मैं क्या कर सकती हूँ?’’
         ‘‘तुम समय को रोककर उससे बात कर सकती हो, उससे कह सकती हो कि वह तुम्हें उतनी कर दे, जितनी कि तुम होना चाहती हो।’’
         मुझे लगा था कि वह कहेगी कि तुम इन्जीनियर होकर कवियों जैसी बात क्यों करते हो, पर उसने ऐसा कुछ नहीं कहा, बल्कि वह फिर से हँस पड़ी, ‘‘यह वह रोका हुआ समय ही तो है!’’
         मेरे कुछ कहने से पहले ही हम मुख्य दरगाह के दरवाज़े तक पहुँच चुके थे। वहाँ हमसे आगे कुछ लोग लाइन में लगे हुए थे। हम भी उन्हीं के पीछे पंक्ति में लग गये। दरवाज़े के अन्दर से आ रही लोबान की तेज़ महक हमारे नथुनों में भरने लगी थी। वहाँ कुछ लोग ज़ियारत करवाने वाले भी थे। पर हमारे साथ कोई नहीं था।
        दरगाह में काफी अँधेरा था। आने-जाने के दो दरवाज़ों को छोड़कर कहीं कोई खिड़की नहीं थी। हालाँकि गुम्बद के इर्द-गिर्द जालियाँ लगी हुई थीं, लेकिन लोगों की गर्म साँसों के बीच मुझे अपनी साँस घुटती-सी महसूस हुई। मुझे लगा, जैसे मैं किसी पुरानी किताब के अँधेरे पृष्ठ में चला आया हूँ। मुख्य स्थान हरी चादर से ढँका हुआ था, जिस पर बारी़क कशीदे का काम किया हुआ था। लोगों की भीड़ सरक-सरक कर आगे बढ़ रही थी। दरगाह के मुहाने पर बैठा हुआ एक सफ़ेद दाढ़ी वाला फकीर प्रत्येक आने-जाने वाले को ज़ियारत करवा रहा था। नमिता उसके सामने अपने घुटनों के बल बैठ गयी। उसकी आँखें बंद थीं और दोनों हथेलियाँ इबादत में खुली हुई थीं।
         बाहर आकर हम दोनों ही खुली हवा में गहरी-गहरी साँस लेने लगे, जैसे साँस लेना क्या होता है, यह पहली बार जाना हो। साँस लेना, महज़ साँस ले पाना इतनी बड़ी नियामत हो सकती है, यह अहसास हमें आश्चर्य से भर गया था। नमिता उतने ही आश्चर्य से मुझे देख रही थी, जितना कि मैं उसे। यह आश्चर्य किसी चमत्कार से कम नहीं जान पड़ रहा था।
        ‘‘खुली हवा में साँस ले पाना भी एक प्रकार का सुख होता है, जिसे हम अक्सर भूले रहते हैं।’’ उसने कहा। वह अपने स्कार्फ से अपने चेहरे पर आयी पसीने की बूँदें साफ कर रही थी, जो बाहर की ठण्डी हवा के बावजूद भी उसके चेहरे पर उभर  आयी थीं।
         ‘‘यही नहीं, हम और भी कई चीज़ें भूले रहते हैं...धूप भूल जाते हैं, चाँदनी भूल जाते हैं, परिन्दे भूल जाते हैं और शेष प्रकृति भी...ये सब हमेशा हमारे आस-पास ही रहते हैं, हम फिर भी इन्हें भूले रहते हैं...’’ मैंने कहा।
         ‘‘हाँ, वही तो! पर वे हमें नहीं भूलते। हम चाहें या न चाहें, वे अपना होना प्रकट करते रहते हैं।’’ वह अब अपना स्कार्फ उतार कर अपने बिखरे हुए बाल सँवारने लगी थी। उसने अपने बालों की क्लिपें अपने दाँतों के बीच दबा ली थीं। मुझे याद आया, ऐसा वह पहले भी कर चुकी थी।
          अचानक उसने अपनी क्लिपें दाँतों से बाहर निकालीं और कहा, ‘‘अब तुम उधर देखो।’’
         ‘‘क्यों? क्या हुआ?’’
         ‘‘तुम उस तरफ देखो भी!’’ उसने पकड़कर मुझे दूसरी ओर घुमा दिया। अब वह मेरे पीछे थी और मैं उसे नहीं देख सकता था। पता नहीं वह क्या कर रही थी! मैं अनुमान लगाना चाह रहा था, लेकिन समझ में नहीं आया कि एक लड़की किसी लड़के से यूँ मुँह छिपाकर आखिर कर क्या सकती है! उसके सामने दरगाह की ऊँची दीवार थी, जहाँ कुछ फ्लड लाइट्स लगी हुई थीं।
          कुछ देर मैं यूँ ही खड़ा रहा, अपने सामने देखता हुआ। जब आपसे कोई कहे कि दूसरी ओर देखो और खड़े भी वहीं रहो, तब आप एक अजीब-सी मन:स्थिति में उलझ जाते हो। आपका सारा ध्यान वहाँ लगा रहता है, जहाँ आपको देखने के लिए मना किया गया है, लेकिन देखते आप अपने सामने हैं, जैसे वहाँ कोई फिल्म चल रही हो...मुझे अपने सामने वे सीढ़ियाँ दिखाईं दे रही थीं, जहाँ कबूतर बैठे हुए थे, जिन्हें हमने दरगाह में प्रवेश करते समय देखा था। वे प्रतीक्षा में थे कि कोई आये और उन्हें दाने खिलाये।
         ‘‘अब तुम घूम सकते हो।’’ उसने कुछ देर बाद कहा।
         मैं मुड़ा और एकटक उसे देखता रह गया। उसने हल्का-सा मेकअप कर लिया था और अब वह तरोताज़ा लग रही थी। उसके खुले बाल पहले की तरह उसके कन्धे पर बिखरे हुए थे और माथे के बीचों-बीच छोटी-सी काली बिन्दी उसमें एक अनोखी आभा भर रही थी। सबसे अलग लग रही थीं उसकी नीली आँखें, बड़ी और उल्लास से भरपूर। दरगाह के भीतर जो थकान पसीने की बूँदों के साथ उसके चेहरे पर उतर आयी थी, अब उसका नामो-निशान भी नहीं था।
         ‘‘ऐसे क्या देख रहे हो?’’ उसकी आँखों में हल्की-सी झिड़की थी। झिड़की, जो बुरी नहीं लगती, बस, हौले से अपनी नाराज़गी प्रकट कर देती है।
         ‘‘कुछ नहीं...यह तुम हो?’’
         ‘‘हाँ भई! मैं ही हूँ...ऐसे क्यों पूछ रहे हो?’’
         ‘‘ऐसे ही...अच्छी लग रही हो।’’
         इस बार वह मुस्कुराई, ‘‘चलें?’’
         पर मैं वहीं खड़ा रहा। मेरी हथेली में कुछ गुलाब के फूलों की पत्तियाँ और मीठे स़फेद दाने थे, जो उस फकीर ने दिये थे, जिसने हमें ज़ियारत कराई थी। मैंने अपनी हथेली उसकी ओर बढ़ा दी। उसने कुछ पत्तियाँ और मीठे दाने उठाये, उन्हें माथे से छुआया और खा लिया। बची हुई सामग्री मैंने मुँह में रख ली। मेरा मुँह खुशबू से भर गया था।
         ‘‘अब चलें?’’ उसने पूछा।
         ‘‘चलो।’’
         उस कबूतर वाले चौक से होते हुए हम बाहर आ गये। कबूतर अब भी वहाँ थे और हमें बाहर जाते हुए देख रहे थे। पर इस बार हमारे हाथ खाली थे, उन्हें खिलाने के लिए हमारे पास एक भी दाना नहीं था।
          ‘‘अच्छा, बताओ तो! तुमने क्या माँगा?’’ सहसा नमिता ने पूछा।
          ‘‘कुछ नहीं...कुछ भी नहीं!’’
         ‘‘हमने वादा किया है कि हम झूठ नहीं बोलेंगे!’’ उसने उलाहना देते हुए कहा। तब हम दरगाह की सीढ़ियाँ उतर रहे थे।
         ‘‘मैं झूठ नहीं बोल रहा निकिता। दरअसल वहाँ इतना कम समय मिला कि मैं कुछ सोच पाता, उससे पहले ही हमें बाहर जाने का संकेत दे दिया गया था।’’
          ‘‘पर मैंने माँगा...’’
          ‘‘क्या?’’
         हम कैब के पास पहुँच चुके थे। वह तुरंत कैब में बैठी नहीं, बाहर ही रुकी रही, जैसे कोई संवाद बाकी रह गया हो, जैसे उसे कोई महत्वपूर्ण बात कहनी हो। मैं भी रुक गया और उसे देखने लगा।
        ‘‘क्या माँगा नमिता?’’ मैंने दुबारा पूछा। मेरी आवाज़ इतनी हल्की थी कि मैं ही उसे नहीं पहचान पाया था। वह किसी भिखारी की तरह हमारे चारों ओर रिरियाती सी घूम रही थी।
         वह चुपचाप मुझे देखती रही।
        ‘‘नहीं बताना चाहो तो कोई बात नहीं। कहते हैं, जो माँगो, उसे बता देने से बात झूठी पड़ जाती है।’’ मैंने कहा।
        ‘‘नहीं, मैं तुम्हें बताना चाहती हूँ...’’ पल भर के लिए वह रुकी, ‘‘मैंने माँगा कि हम एक-दूसरे से फिर कभी नहीं मिलें, पर एक-दूसरे को कभी भूलें भी नहीं...’’
         मैं उसके कुछ और पास सरक आया था, ‘‘तुम ऐसा क्यों सोचती हो कि हम एक-दूसरे से फिर कभी नहीं मिलें?’’
         ‘‘पता नहीं...पर क्या तुम्हें नहीं लगता कि एक-दूसरे से बिना कुछ अपेक्षा किये सि़र्फ दोस्त बनकर कुछ पल साथ बिताना कोई छोटी बात नहीं होती! मैं बस यही चाहती हूँ।’’
         कुछ देर हम वहीं ठिठके से खड़े रहे। थोड़ी देर मैं उसे अपलक देखता रहा। वह भी मुझे ही देख रही थी। फिर मैंने लगभग फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘विश्वास रखो नमिता, यह दरगाह हमारी दोस्ती की साक्षी रहेगी और यहाँ के कबूतर भी...मैं तुम्हारा विश्वास नहीं तोड़ूँगा...यह दिन हमारे लिए एक यादगार दिन बनकर हमेशा हमारे साथ रहेगा।’’
कैब ड्राइवर हमारे बैठने की प्रतीक्षा कर रहा था।
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दोपहर एक अल्हड़ लड़की-सी पसरी हुई थी। उसे न तो बीती हुई सुबह की परवाह थी और न ही आने वाली शाम की, जबकि हम सुबह को दूर जाते हुए महसूस कर रहे थे और शाम को पास आते हुए। हालाँकि शाम इतनी पास भी नहीं थी कि उसकी पदचापें सुनायी देने लगी हों! शाम तक का समय हम दोनों के सामने एक खाली कैनवास की तरह पसरा हुआ था, जिसे मनचाहे रंगों से भरा जा सकता था। यह वह समय था, जिसे हमें अलग-अलग काटना था, लेकिन हमने ही इस समय को साथ-साथ व्यतीत करने का निर्णय लिया था। नमिता के साथ होने से समय ने भी अपना रंग बदल लिया था।
          मैंने घड़ी देखी। दिन के दो बज रहे थे। मुझे आश्चर्य हुआ कि समय इतनी तेज़ी से कैसे निकल गया! क्या शेष समय भी यूँ ही निकल जाएगा? थोड़ी देर बाद रात हो जाएगी और फिर हम हमेशा के लिए अलग हो जाएंगे! पहली बार मन में एक अजीब-से डर ने कुन्डी खटखटाई थी। वह बिछुड़ने के दु:ख का डर था। पहली बार मुझे कुछ बेचैनी-सी महसूस हुई। बेचैनी भी नहीं, एक विचित्र किस्म की छटपटाहट, जैसे नमिता के जाते ही कुछ है, जो हमेशा के लिए मुझसे बिछुड़ जाएगा।
          पर दोपहर के उन बीहड़ क्षणों में मैं बिछुड़ने के बारे में नहीं सोचना चाहता था, किसी दु:ख के बारे में भी नहीं और न ही किसी डर के बारे में।
         ‘‘चलो, कहीं लंच करते हैं।’’ मैंने जल्दी से कहा। मैं अपने विचारों को एक ओर ठेलने का प्रयास कर रहा था।
         ‘‘मैं भी यही सोच रही थी।’’
          मैं ड्राइवर की ओर घूमा, ‘‘भई, कहीं लंच करना है। आस-पास कोई जगह है?’’
         ‘‘हाँ, है न सर। पास ही एक मॉल है। वहाँ एक अच्छा-सा फूड कोर्ट है। आप कहें तो वहीं ले चलूँ।’’ वह बोला।
          ‘‘हाँ, ठीक है, वहीं चलो।’’
         कैब में बैठते ही काफी देर बाद बारिश की कुछ बूँदें गिरीं। वे बूँदें तेज़ बारिश बरसने का संकेत नहीं थीं। वे तो बस वैसे ही आ गिरी थीं, जैसे अभी-अभी मेरे मन में बिछुड़ने का खयाल आ गया था। मैंने नमिता की ओर देखा। क्या उसने भी बिछुड़ने के बारे में सोचा होगा? एक बार तो मेरा मन हुआ कि मैं उससे पूछ ही लूँ, लेकिन एक अनजानी झिझक ने मेरा हाथ पकड़कर रोक लिया।
          वह मेरे पास बैठी हुई थी और कैब की खिड़की से बाहर शहर को देख रही थी। उसका पर्स गोद में पड़ा हुआ था और खुले बालों की कुछ लटें लापरवाही से उड़कर उसके चेहरे पर आ गयी थीं। मैं उसका प्रोफाइल ही देख पा रहा था। मुझे एक विचित्र-सा अहसास हुआ, लगा, जैसे मैं उसे पहली बार देख रहा हूँ।
       सहसा वह मेरी ओर घूमी, ‘‘दिल्ली में रहते हुए कभी भी दिल्ली को इस तरह देखने का अवसर नहीं मिला...मेरा मतलब इतने खाली और निश्चिंत होकर...अपने शहर में रहते हुए बहुत-सी चीज़ें सामने होते हुए भी ओझल हो जाती हैं। हमारी उदासीनता के कारण शहर भी हमारी ओर से तटस्थ हो जाता है और कभी खुद को पूरा-पूरा नहीं खोलता।’’
         मैं चुपचाप उसे सुन रहा था।
       ‘‘हमारी अस्त-व्यस्त ज़िंदगी भी हमें समय नहीं देती है। सि़र्फ व्यस्तताएँ ही क्यों, और भी बहुत कुछ...मैं उन पर ठीक-ठीक अँगुली नहीं रख सकती, पर न जाने कितनी चीज़ें होती हैं, जो हमें अपने ही शहर को कभी पूरा-पूरा महसूस नहीं होने देतीं।’’
         मेरी निग़ाहें उसी पर टिकी हुई थीं।
       ‘‘जैसे दिल्ली में भी कहीं न कहीं अवश्य कबूतर होंगे, ठीक इस दरगाह की तरह, पर मैं उन्हें कभी नहीं देख पायी। बारिश भी हर साल आती है, पर जैसी इस शहर में महसूस की है, पहले कभी महसूस नहीं की।’’ वह अब भी बाहर देख रही थी।
         ‘‘हाँ, हम अपने शहर के आदी हो जाते हैं। शायद इसीलिए जब कभी हमारा मन उचाट हो जाता है, तब हम अपना शहर को देखने की बजाय उसे छोड़कर किसी दूसरे शहर घूमने चले जाते हैं...’’ मैंने कहा।
         ‘‘वही तो! हम अपने शहर में उम्र भर जीने की भूमिका तैयार करते रहते हैं। सचमुच का जीना क्या होता है, कभी जान ही नहीं पाते हैं।’’ वह जैसे स्वयं से बात कर रही थी।
         ‘‘हाँ, आज का दिन हमारी ज़िंदगी में भले ही भूले से आ गया हो, पर यह एक ऐसा दिन है, जिसने बहुत से ऐसे भेदों को खोल दिया है, जिन्हें हम अपने शहर में शायद कभी नहीं खोल पाते...’’
         ‘‘हाँ, एक तरह से...’’ वह पल भर के लिए रुकी, ‘‘यह दिन हमेशा मेरे साथ रहेगा, किसी साये की तरह नहीं, बल्कि उतारे हुए कपड़ों की तरह, जिन्हें हम सँभालकर अपने कवर्ड में रख लेते हैं, किसी और दिन के लिए...’’
         ‘‘ताकि उस दिन को मनचाहे तरीके से जिया जा सके।’’
         ‘‘वे लोग बड़े सौभाग्यशाली होते हैं, जो अपने मनचाहे तरीके से जी पाते हैं।’’
        ‘‘हम भी सौभाग्यशाली हैं नमिता...एक तरह से...हमने खोया कुछ नहीं है, जबकि पाने को बहुत कुछ है।’’ मैंने आहिस्ता से कहा।
       ‘‘मैं पाने के बारे में नहीं सोच रही...मैं खाने के बारे में सोच रही हूँ।’’ सहसा नमिता ने बात बदल दी और ड्राइवर से पूछा, ‘‘भैया, आपका वह पास वाला मॉल तो बड़ी दूर निकला!’’
          ड्राइवर ने उसकी बात सुन ली थी, ‘‘बस, हम पहुँचने ही वाले हैं।’’

***
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मॉल से जब हम खाना खाकर बाहर आये, उस समय घड़ी में पौने तीन बज रहे थे। उनींदी दोपहर अलसाई-सी पसरी हुई थी। आकाश में छाये बादलों के बावजूद भी मॉल के बाहर एक धवल आलोक ने अपना घर बना रखा था।
कैब के पास कुछ देर तक हम यूँ ही चुप खड़े रहे।
         ‘‘अब?’’ मैंने ड्राइवर से पूछा।
         ‘‘आप चाहें तो हम म्यूजियम चल सकते हैं।’’ कैब ड्राइवर ने कहा।
         ‘‘और?’’
         ‘‘या फिर गाँधी उद्यान।’’
         ‘‘और?’’
         ‘‘पास ही एक वाइल्ड लाइफ सेंक्चुुरी है, हम वहाँ भी जा सकते हैं।’’ उसने सोचते हुए कहा।
         ‘‘हाँ, हम सेंक्चुरी चलते हैं।’’ नमिता ने बीच में बात काटते हुए कहा।
        ‘‘हमारे पास शाम तक का खाली समय है, उसे किसी भी जगह से भरा जा सकता है। चाहे वह म्यूजियम हो या सेंक्चुरी। चलो, सेंक्चुरी ही सही!’’ मैंने कहा।
         बारिश फिर होने लगी थी, पर तेज़ नहीं। जैसे कोई झिझक उसे जमकर बरसने से रोके हुए थी। सड़क पर भीड़ थी और कैब ट्रै़फिक के बीच अपना रास्ता बनाते हुए चली जा रही थी।
         ‘‘हमें अपने रास्ते इसी तरह ढूँढ़ने पड़ते हैं, चाहे वे सड़कों के हों, या ज़िंदगी के!’’ नमिता ने सहसा कहा। मुझे उसकी बात कुछ अजीब-सी जान पड़ी, जो उसके चरित्र से मेल नहीं खा रही थी।
         ‘‘मैंने कहीं पढ़ा था, कोई बना-बनाया रास्ता नहीं होता।’’
        ‘‘जिसने भी यह कहा है, वह सड़कों की बात तो कर नहीं रहा होगा!’’
        क्षण भर रुककर मैंने कहा, ‘‘ठीक कह रही हो। सड़कें जीपीएस की मदद से तलाशी जा सकती हैं, पर वे रास्ते नहीं, जिन पर हमें चलना होता है।’’
         ‘‘वही तो! काश! ज़िंदगी के रास्तों के लिए भी कोई जीपीएस सिस्टम होता!’’
         ‘‘फिर तो हम कभी मिलते ही नहीं!’’
         ‘‘कैसे?’’
        ‘‘जीपीएस तुम्हें अपना सही रास्ता बता देता और मुझे मेरा! फिर इस तरह अचानक हमारा मिलना लगभग असंभव ही होता!’’
        ‘‘हाँ, वह तो है!’’ इस बार वह हँस पड़ी, ‘‘फिर तो अच्छा ही हुआ...अचानक मिला यह दिन मैं कभी नहीं भूलूँगी।’’
         ‘‘और मैं भी!’’
         हम स्मृतियाँ जमा कर रहे थे। वैसे नहीं जैसे बच्चे टिकट जमा करते हैं या तरह-तरह के पत्थर जमा करते हैं। हम बिना किसी प्रयास के अवचेतन में स्मृतियों को जगह दे रहे थे। आने वाले किसी दिन हम आज के इस दिन को याद करेंगे और सोचेंगे कि क्या यह हम थे!
        ‘‘क्या सोचने लगे?’’ उसका धीमा स्वर मुझ तक आया, जैसे वह स्वयं किसी सोच के दायरे से बाहर आयी हो।
         ‘‘कुछ ख़ास नहीं...सोच रहा था, क्या तुम मुझे भी याद रखोगी?’’
         ‘‘आज का दिन तुमसे जुड़ा हुआ ही तो है! आज के दिन को याद करने का अर्थ ही तुम्हें याद करना है...’’
         ‘‘ओह! रियली! यह तो मेरे लिए बड़ी खुशी की बात होगी, बल्कि सम्मान की बात!’’
        ‘‘कैसे?’’
        ‘‘क्योंकि बड़ी बात यह नहीं है कि मैं किसी को याद रखूँ, बड़ी बात यह है कि कोई और मुझे याद रखे...यह एक अद्भुत अहसास है, किसी और के मन में अपनी जगह बनाना, वैसे नहीं जैसे हम सो़फे पर थोड़ा खिसककर दूसरे के लिए जगह बनाते हैं, बल्कि जैसे अपने घर में खिड़की खोलकर धूप को अन्दर आने देते हैं...’’
        ‘‘पर धूप का वह टुकड़ा तो चला जाता है।’’
        ‘‘किन्तु पूरा नहीं...अपनी ऊष्मा छोड़ जाता है, जो देर तक हमारे साथ रहती है... शाम ढलते ही तुम भी चली जाओगी, पर पूरी नहीं। तुम्हारे कुछ हिस्से मेरे पास अवश्य रह जाएंगे, जिन्हें तुमसे छुपाकर मैंने अपने पास रख रखा है...तुम समझ रही हो न!’’
        ‘‘हाँ, मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी।’’
        वह कुछ देर अपलक मुझे देखती रही। इस तरह शायद पहली बार। अलग होना पहली बार एक आतंक की तरह हमारे बीच आ खड़ा हुआ था। हम जानते थे कि यही हमारी नियति है, हमें अलग होना ही होगा, यह हम दोनों का साझा निर्णय था। लेकिन अलग होने के नाखूनों की खरोंचें इतनी गहरी होंगी, यह हम नहीं जानते थे। उन घावों से बहते लहू ने कुछ पलों के लिए हमसे हमारी भाषा छीन ली थी।
          जल्दी ही हम शहर से बाहर आ गये थे। शहर की ऊँची-ऊँची इमारतें पीछे छूट गयी थीं, गाड़ियों का शोर पीछे छूट गया था, लोगों की भीड़ पीछे छूट गयी थी...और भी बहुत कुछ पीछे छूट गया था, जिसका लेखा-जोखा कभी संभव नहीं हो पाएगा।
          ‘‘पलाश...’’ उसकी भीगी-भीगी सी आवाज़ मुझ तक आयी।
         ‘‘हाँ, नमिता...’’
         सहसा उसने अपना हाथ मेरे हाथ पर रख दिया, जो उसके सफेद, उज्ज्वल, कोमल हाथ के पास लावारिस-सा पड़ा हुआ था, ‘‘पर हम अलग होने के दुख को इन क्षणों के सुख पर क्यों हावी होने दें! यदि दुख आना है, तो हम उसे रोक नहीं सकते ना! फिर क्यों इन अद्भुत पलों को गवाएँ!’’
          कुछ देर तक कोई नहीं बोला। केवल खामोशी बतियाती रही। हमने उसे बतियाने दिया।
        ‘‘नमिता...’’
        ‘‘हाँ, पलाश बोलो, मैं यहीं हूँ।’’ वह मुझे ही देख रही थी।
       ‘‘नहीं, कुछ नहीं।’’ मैंने अपना हाथ हटाते हुए उस पर से अपनी निगाहें भी हटा ली थीं...पर मैं नमिता से बहुत कुछ कहना चाहता था, बहुत कुछ, अपनी स्मृतियों के विषय में, अपने अकेलेपन के विषय में, अपने सपनों के विषय में...पर मैं एक शब्द भी नहीं बोल पाया था। हमेशा की तरह एक संकोच ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे कुछ कहने की दहलीज़ पर रोक दिया था।
         शायद वह भी कुछ कहना चाहती थी, पर उससे पहले ही कैब रुक गयी थी। हम सेंक्चुुरी के दरवाज़े पर खड़े हुए थे, जहाँ से टिकट लेकर हमें अन्दर जाना था। बारिश की फुहारें अब भी धीमे-धीमे बरस रही थीं। पर वे इतनी कमज़ोर थीं कि हम बस उनकी उपस्थिति महसूस भर कर सकते थे।
          ‘‘तुम चाहो तो अपना विंड शीटर फिर से पहन सकती हो।’’ मैंने नमिता से कहा।
         ‘‘नहीं, मैं इन फुहारों को गिरते हुए महसूस करना चाहती हूँ।’’ उसने मना कर दिया था, हालाँकि शॉर्ट स्लीव्ज़ में उसकी उघड़ी हुई बाँहों के रोयें खुली हवा का स्पर्श पाते ही खड़े हो गये थे।
          मैंने टिकट खरीदे और फिर हम मुख्य द्वार से होते हुए सेंक्चुरी के अन्दर चले गये। वहाँ कई इलेक्ट्रिक व्हीकल्स खड़े हुए थे। हमें उनमें बैठकर ही सेंक्चुरी के अन्दर तक जाना था। कुछ लोग वहाँ पहले से ही आये हुए थे। पास ही खाने-पीने के स्टॉल्स लगे हुए थे, जहाँ पर लोगों की भीड़ जमा थी। मुख्य सेंक्चुुरी में पानी की बोतल के अतिरिक्त कुछ भी ले जाना मना था।
          एक इलेक्ट्रिक व्हीकल ने हमें जंगल घुमाने के बाद एक तालाब के किनारे छोड़ दिया था। ज्यादा किस्म के जानवर नहीं थे और जो थे, वे हिंसक प्रवृत्ति के नहीं थे। जंगल घना था और बारिश के कारण अपने पूरे यौवन पर था। जगह-जगह पानी के झरने बह रहे थे, जिन्हें देखते ही मन किसी बच्चे की मानिन्द उनमें भीगने का मन करने लगता था। सारे यात्री इधर-उधर बिखर गये थे। हम भी एक पतली-सी पगडंडी पर  आहिस्ता-आहिस्ता आगे बढ़ रहे थे।
          ‘‘वह देखो!’’ सहसा नमिता ने एक ओर इशारा किया।
         मैं उस ओर देखने लगा। वहाँ हिरणों का एक बड़ा-सा झुण्ड था, जो हमसे बेख़बर पानी के तालाब के पास घास चरने में लगा हुआ था। हिरणों के कुछ बच्चे उछल-कूद मचा रहे थे। उनकी माँएं बीच-बीच में उन्हें देखतीं और फिर चरने लग जाती थीं।
         यूँ तो नमिता का सारा ध्यान हिरणों पर लगा हुआ था, लेकिन मुझे लगा, जैसे वह किसी समानान्तर दुनिया भी अपने साथ लिए चल रही हो। वह उसकी सोच का ऐसा हिस्सा थी, जिसके विषय में कुछ भी अनुमान लगा पाना असंभव था।
         ‘‘क्या तुम्हें थकान महसूस हो रही है?’’ मैंने पूछा।
         ‘‘नहीं, ज्यादा नहीं...मैं ठीक हूँ। क्या हम वहाँ बैठकर इन हिरणों को नहीं देख सकते?’’ उसने एक चट्टान की ओर संकेत करते हुए पूछा।
         हम उस चट्टान पर बैठ गये, हालाँकि वह भीगी हुई थी, पर इतनी भी नहीं कि उस पर बैठा न जा सके। मैंने अपना रूमाल और उसने अपना स्कार्फ नीचे बिछा लिया था। उसने अपना पर्स कन्धे से उतारकर बगल में रख दिया था।
         हम चुपचाप पास-पास बैठे हुए थे। जब कभी हवा का झोंका आता, एक बीहड़-सी गंध ने मेरे नथुनों में भरने लगती। उस गंध को अब मैं कुछ-कुछ पहचानने लगा था...वह गंध नमिता की अपनी गंध थी, उसकी देह गंध।
         ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ नमिता ने मुझसे पूछा।
         ‘‘कुछ नहीं...मुझे लगा, तुम कुछ सोच रही थी।’’
         उसने कुछ नहीं कहा। हम चुपचाप हिरणों को चरते हुए देखते रहे। जब कोई बच्चा कुलाँचे मारता, और भी बच्चे उसके पीछे-पीछे कुलाँचे भरने लगते। तब सारा जंगल मानो प्राणवंत हो उठता। ना उन्हें कोई छेड़ने वाला था और ना ही हमें।
       तभी कुछ हिरण हमारे सामने से गुज़रे। हमें बैठा देखकर वे सहसा रुककर हमें देखने लगे। उनकी बड़ी-बड़ी आँखों में कौतूहल भरा हुआ था। पर वे रुके नहीं। जल्दी ही वे अपने साथियों के पास चले गये।
         सहसा नमिता की आवाज़ मुझ तक आयी, ‘‘तुम्हें आश्चर्य नहीं होता?’’
         ‘‘आश्चर्य? कैसा आश्चर्य?’’
        ‘‘मुझे अपने पर आश्चर्य हो रहा है कि मैं कैसे इस जंगल में तुम्हारे साथ अकेली बैठी हुई हूँ, जबकि सच तो यह है कि मैं तुम्हें ठीक से जानती तक नहीं... हम आज सुबह ही तो पहली बार मिले हैं!’’ उसने कहा। यह पहला संकेत था कि इतनी देर से अपने में खोयी हुई सी वह क्या सोच रही थी।
        ‘‘हाँ, आश्चर्य मेरे लिए भी उतना ही है, जितना तुम्हारे लिए।’’
        ‘‘तुम्हारी बात अलग है। तुम लड़के हो और तुम्हें लड़कियों की तरह सावधानी बरतने की जरूरत नहीं पड़ती।’’ उसने धीरे से कहा।
         नमिता की बात सुनकर मैं चौंक गया। क्या उसे मुझसे सावधान रहना पड़ रहा था? इतनी देर के साथ के बाद मुझे सहसा उसकी बात पर विश्वास करना कठिन हो रहा था।
         पर इससे पहले कि मैं कुछ कहता, नमिता ने छूटा हुआ सिरा फिर पकड़ लिया, ‘‘दरअसल मैं कहना यह चाह रही हूँ कि हर लड़की के जीवन में कुछ न कुछ ऐसा अवश्य होता है, जो वह कभी किसी को नहीं बताती। और वह तभी होता है, जब वह अकेली होती है। मैं भी ऐसे ही एक हादसे से गुज़र चुकी हूँ। कुछ ऐसा, जिसके बारे में कोई कुछ नहीं जानता, यहाँ तक कि मेरी ममा भी नहीं...सुनोगे मेरी बात?’’
         मुझे खुशी हुई कि नमिता का संकेत मेरी ओर नहीं था, ‘‘हाँ नमिता, मुझे सुनना है... तुम मुझ पर भरोसा कर सकती हो।’’
          मैं भूल गया था कि मैं जंगल में हिरणों को देखने वहाँ बैठा हुआ था। मेरा सारा ध्यान नमिता की ओर लगा हुआ था। वह भी अब मुझे देखने लगी थी। जंगल का होना महज़ इत्त़ेफाक बन गया था।
          नमिता ने कहना शुरू किया।
          ‘‘यह उन दिनों की बात है, जब ऑफिस में हमारी टीम एक महत्वपूर्ण असाइनमेन्ट पर काम कर रही थी। टीम में से किसी न किसी को रात देर तक रुकना पड़ता था, पर हम लड़कियों को नहीं। हम प्राय: टाइम पर ही घर चली जाया करती थीं, लेकिन उस रात काम कुछ ऐसा था, जिसमें मेरी एक्सपर्टाइज़ थी और उसे सि़र्फ मैं ही सॉल्व कर सकती थी, इसलिए मुझे भी रुकना पड़ा था। मैंने घर पर इन्फॉर्म कर दिया था कि मैं देर से घर लौटूँगी। ऑफिस की कैब मुझे घर तक छोड़ने वाली थी।’’
        कुछ देर के लिए वह रुकी, जैसे किसी बात की टोह ले रही हो, फिर कहने लगी, ‘‘देर रात तक हम काम करते रहे थे...हम, मतलब मैं और निशीथ। वह हमारी ही टीम का पुराना सदस्य था। दिन में पूरी टीम साथ-साथ काम किया करती थी। हम लंच और ब्रेक़फास्ट पर भी साथ ही जाया करते थे। निशीथ भी साथ ही हुआ करता था। उससे मैं उतनी ही खुली हुई थी, जितनी कि दूसरे कलीग्स से। ऐसा नहीं कि उस रात मैं पहली बार निशीथ के साथ काम कर रही थी। पर उसके मन में क्या चल रहा था, इस बात की भनक उसने मुझे कभी लगने नहीं दी थी...’’
         वह एक बार फिर चुप हो गयी, जैसे तय कर रही हो कि आगे बढ़े अथवा वहीं रुक जाये...या संभवत: उसे बीते हुए समय में जाने में वक़्त लग रहा था। लेकिन वह गुज़रे हुए कल के दरवाज़े पर दस्तक दे चुकी थी और समय ने उसे अन्दर बुला लिया था।
          ‘‘फिर?’’ मैंने पूछा।
        ‘‘ऑफिस में कोई नहीं था और हम देर रात तक काम करते रहे थे। काम खत्म होने के बाद जब हम घर के लिए निकलने ही वाले थे कि वह बोला कि नमिता, मुझे तुमसे कुछ कहना है। मैंने पूछा, क्या, तो कुछ भी कहने से पहले उसने मुझे अपनी बाँहों में भर लिया और मेरे होंठों पर अपने होंठ रख दिये.. मैं बुरी तरह डर गयी और किसी तरह उससे अपने को छुड़ाकर बाहर की ओर भागी... वह ‘सॉरी सॉरी’ कहता हुआ मुझे आवाज़ देता रहा, पर मैंने लिफ़्ट में पहुँचकर ही दम लिया। मैं पत्ते की तरह काँप रही थी... यूँ देखा जाए तो हुआ कुछ खास नहीं था, पर हादसा होने में कोई कसर बाकी भी नहीं बची थी।’’
         ‘‘और फिर हादसा क्या होता है!’’
         ‘‘वही तो! ऑफिस के पोर्च में मेरे लिए कैब खड़ी हुई थी, लेकिन मेरी उसमें बैठने की हिम्मत नहीं हो रही थी। कैब का ड्राइवर भी तो एक आदमी ही था, और उन भयानक पलों में मैं ऐसी मन:स्थिति में नहीं थी कि किसी भी पुरुष पर विश्वास कर पाती। मैं घबराहट में तय नहीं कर पा रही थी कि मुझे क्या करना चाहिए! तभी मुझे लगा, जैसे निशीथ भी लिफ़्ट से नीचे उतर आया था और तब मैं बिना कुछ और सोचे गाड़ी में बैठ गयी और ड्राइवर से जल्दी घर चलने के लिए कहा।’’
         वह साँस लेने के लिए रुकी।
         ‘‘सारे रास्ते मैं डरती रही कि कहीं कुछ हो न जाये। सुनसान रात में एक अकेली लड़की का महानगर में कहीं भी आना-जाना सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। डर मेरे चेहरे पर किसी मुखौटे-सा चिपक गया था। एक डर वह था, जिसे मैं पीछे छोड़ आयी थी, और दूसरा वह, जो मेरे साथ कैब में ड्राइवर के रूप में चल रहा था। इतना भयावह आतंक मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था। डर जैसे कोई दोधारी तलवार बनकर मेरे सामने लहलहा रहा था...’’
          ‘‘मैं समझ सकता हूँ। निश्चित ही बड़े भयानक क्षण रहे होंगे।’’
         ‘‘जैसे ही कैब घर पहुँची, मैं भागकर घर में जा घुसी थी। एक लड़की के लिए उसके माता-पिता के घर में उसका अपना कमरा सबसे सुरक्षित जगह होती है...मैं देर तक नहाती रही थी, जैसे नहाने भर से उन स्पर्शों को मिटा दूँगी, जो अनचाहे ही मेरे ज़िस्म पर चिपक गये थे। पर वे आसानी से छूट नहीं पाये थे...उसके होंठ, उसकी पकड़, उसकी गंध...बहुत मुश्किल था इन सबसे पीछा छुटा पाना।’’
         ‘‘इतना कुछ हुआ और तुमने अपनी ममा को नहीं बताया? अधिकतर लड़कियाँ माँ को इस तरह की बातें बता दिया करती हैं।’’
         ‘‘एक बार खयाल आया था कि बता दूँ, पर बताते-बताते रुक गयी। अगर बता देती, तो जरूर पापा को भी उस घटना का पता चल जाता और तब मेरा नौकरी करना मुश्किल हो जाता। पापा ज़रूर मेरा ऑफिस ही छुड़वा देते। पर मैं जॉब करना चाहती थी। मैं अपनी इकनॉमिक इन्डीपेन्डेंस की आदी हो गयी थी।’’
         ‘‘अपनी किसी फ्रेंड को भी नहीं बताया?’’
         ‘‘हाँ, एक फ्रेंड को बताया था। पर उसने कहा कि मैं यह सब भूल जाऊँ। लड़कियों के साथ यह सब होता ही रहता है।’’
         ‘‘क्या बात कर रही हो!’’
         ‘‘हाँ, सच कह रही हूँ... यह मैंने बाद में जाना।’’
        फिर हम दोनों चुप हो गये। उस हादसे की यन्त्रणा उसके चेहरे पर आकर बैठी हुई थी, जैसे कल की ही बात रही हो। यूँ तो मैं उस घटना के बाहर था और मुझसे कोई सीधा सरोकार नहीं था, पर मुझे लग ऐसा रहा था, मानो नमिता सारे पुरुषों पर लांछन लगा रही हो। उसके साथ जंगल में अकेले होने की बात एक बार फिर मन में कौंधी, जिसके विषय में हम अभी कुछ देर पहले बात कर चुके थे।
         मैंने ही खामोशी तोड़ी, ‘‘नमिता, एक बात पूछूँ?’’
          वह मुझे देखने लगी थी।
        ‘‘तुमने मुझ पर कैसे विश्वास कर लिया? हो सकता है मेरे मन में भी कोई राक्षस छुपा बैठा हो!’’
        उसने मुझे उड़ती-सी निगाहों से देखा और फिर अपनी निगाहें हटा लीं। वह सामने देखने लगी थी, जहाँ अब भी हिरणों का झुण्ड चर रहा था। कहीं ज़रा-सी भी आवाज़ होती, तो उनके कान खड़े हो जाते और वे चरना भूलकर अपना सारा ध्यान उस आवाज़ की ओर केन्द्रित कर देते थे। लेकिन सन्नाटा फैलते ही वे फिर चरने लगते थे।
‘‘तुम्हारी इस बात का मेरे पास कोई माकूल जवाब नहीं है... सच तो यह है कि मैं स्वयं मन ही मन अपने से यह प्रश्न कई बार पूछ चुकी हूँ, लेकिन मुझे कोई भी स्पष्ट उत्तर नज़र नहीं आ रहा, जिस पर मैं अपनी अँगुली रख सकूँ...बस, मैं जैसे किसी अदृश्य धागे से बँधी तुम्हारे साथ चली जा रही हूँ।’’ उसकी आवाज़ जैसे कहीं दूर से आ रही थी, ऐसे नहीं जैसे वह मुझसे दूर चली गयी हो, बल्कि जैसे वह वहीं हो लेकिन अपने मन में कहीं गहरे उतर गयी हो, ‘‘विश्वास के ये अक्षर कब और कौन लिख गया है, यह बता पाना मुश्किल है।’’
        ‘‘इसका उत्तर मेरे पास भी नहीं है। पर तुम्हारे साथ होने का कम से कम एक मुकम्मल कारण मेरे पास अवश्य है।’’
         ‘‘क्या?’’ उसकी नीली आँखें मुझ पर उठ आयी थीं।
       ‘‘यही, कि एक लड़के के लिए किसी सुन्दर लड़की का साथ पाना हमेशा खुशी की बात होती है....’’ मैं मुस्कुराया। मैं हमारे बीच उग आये तनाव को कम करना चाहता था।
         ‘‘क्या मैं सुन्दर हूँ?’’ अचानक नमिता ने मेरी बात बीच में काटकर पूछा। वह सहसा चहक उठी थी। जो नीली आँखें मुझ पर लगी हुई थीं, अब वे फैल कर खूबसूरत विस्तार पा गयी थीं। मैंने नहीं सोचा था कि अपने सुन्दर होने की बात सुनकर वह उस अरुचिकर प्रकरण को यूँ बिसार देगी।
         मैं हँस पड़ा। हमारे बीच उग आया तनाव अचानक बह गया था और जिस असहजता ने हमें आ घेरा था, वह सहसा छितराने लगी थी, ‘‘यह बात तुम अभी कुछ देर पहले ही मुझसे पूछ चुकी हो।’’ मैंने कहा।
          इसके पहले कि वह कुछ कहती, अचानक बारिश बरसने लगी थी। हम भागकर एक घने पेड़ के नीचे जा खड़े हुए, हालाँकि भीगने से बच पाना असंभव था। हिरणों पर कोई खास असर नहीं पड़ा था। वे वैसे ही घास चरने में लगे हुए थे।
         कुछ बूँदें पड़ते ही नमिता के टॉप से कहीं-कहीं उसकी देह बाहर झाँकने लगी थी, जैसे चाँदनी रात में सफेद बदली के बीच तारे दिखने लगते हैं। उसे अवश्य ही इस बात का अहसास हो गया होगा, क्योंकि वह सहसा असहज हो आयी थी। उसने जल्दी से पर्स में से अपना विंड शीटर निकालकर पहना और बालों को समेटकर स्कार्फ़ भी बाँध लिया था।
        ‘‘इस बारिश को भी अभी आना था!’’ उसने कहा।
        ‘‘अभी कहाँ, यह तो सुबह से ही बरस रही है।’’
        ‘‘मेरा मतलब है, इस जंगल से निकलने तक तो रुक ही सकती थी!’’
        ‘‘घबराओ मत। बारिश में ज्यादा जोर नहीं है। जल्दी ही रुक जाएगी।’’ मैंने कहा, हालाँकि मुझे अपनी बात पर ज्यादा विश्वास नहीं था।
        ठण्ड अचानक बढ़ गयी थी। वह ठण्ड से बचने के लिए अपने हाथ बाँधे खड़ी हुई थी। पेड़ की पत्तियों के बीच से जगह बनाती हुई कुछ बूँदें हम तक बार-बार पहुँच जाती थीं। शुरू-शुरू में वह उन्हें अपने रूमाल से साफ करती रही, लेकिन फिर उसने यह प्रयास बन्द कर दिया। अपने पर्स से विंड शीटर निकाल कर उसने पहना और चेहरे पर भी स्कार्फ बाँध लिया था।
       ‘‘ठण्ड लग रही है?’’
        ‘‘ठण्ड तो है ही!’’ वह अपने में सिमटी हुई थी। अनजाने ही उसने मुझसे कुछ दूरी बना ली थी।
       ‘‘घबराओ मत नमिता, मैं निशीथ नहीं हूँ।’’ कठिनाई से मैं इतना ही बोल पाया था।
        वह अपनी जगह पर स्थिर खड़ी हुई थी। बिल्कुल चुप। वह मुझे देख नहीं रही थी और न ही अपने सामने पसरे जंगल को। मुझे लगा कि वह देखकर भी कुछ देख नहीं पा रही थी, उसकी निगाहें जैसे किसी शून्य पर टिकी हुई थीं।
         मैं भी अपनी जगह यूँ ही खड़ा रहा, निश्चल, जैसे किसी ऐसे जंगल का हिस्सा बन गया होऊँ, जो अब तक मेरे भीतर था... नमिता के पास होने के बाद भी मैं एक भयानक किस्म का अकेलापन महसूस कर रहा था। पता नहीं क्यों मुझे हल्का-सा आभास हुआ कि वह भी ठीक वैसा ही अनुभव कर रही थी। भाषा हमारा साथ छोड़ चुकी थी और हम अपरिचित-से खड़े हुए थे। अपरिचित भी उतने नहीं, जितने कि खुद से ही सहमे हुए....
         स्त्री-पुरुष देहों की कशिश से उपजा भय एक आतंक बनकर सामने खड़ा हुआ था। उसने हमसे हमारे संवाद छीन लिए थे, हमारी सहजता छीन ली थी और छीन ली थी वह आत्मीयता, जो हमारे साथ होने का प्रमुख कारण बनी हुई थी।
        गनीमत थी कि बूँदा-बाँदी बहुत जल्दी समाप्त हो गयी थी। बूँदों ने हमें भिगोया नहीं था, बस, गीला करके छोड़ दिया था। वह गीलापन देह की पर्तों को भेदता हुआ मन को भी गीला कर गया था। गीलेपन से सराबोर हम काफी देर तक एक-दूसरे से आँखें नहीं मिला पाये थे।
         ‘‘अब चलें?’’ बारिश थमते ही उसने आहिस्ता से पूछा।
        और हम वापस जाने वाले रास्ते की ओर मुड़ गये, जहाँ बैटरी से चलने वाली गाड़ियाँ पर्यटकों की प्रतीक्षा में खड़ी हुई थीं।
         हिरणों ने हमें लौटते हुए देखा होगा। वे जानते होंगे कि हम अब कभी लौट कर नहीं आएंगे।

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स्मृतियों के जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है कि कोई महत्वपूर्ण घटना घटे, वे केवल संवेदनाओं के सहारे भी हममें साँस ले सकती हैं, और किसी दिन महज़ बारिश की बूँदों या किसी की आवाज़ या उतरती शाम का हाथ पकड़कर हम उन तक पहुँच सकते हैं। वे हमारी प्रतीक्षा में होती हैं और हमें देखते ही हमारा हाथ पकड़कर अपने पास बिठा लेती हैं। तब आप उनसे बतियाने लगते हैं।
          ‘‘अब चाय पिलाओगे कि नहीं!’’ सहसा वह बोली। मुझे लगा जैसे उसे अपनी सहजता लौटा लाने के लिए कठिन प्रयास करने पड़े हों, जैसे वह भी किसी लम्बी थका देने वाली यात्रा से लौटकर आयी हो। रास्ते में हमने कोई खास बात नहीं की थी। कुछ देर के लिए हम अपनी अपनी दुनिया में डूब गये थे, जहाँ बिना दस्तक दिए किसी अन्य का प्रवेश वर्जित होता है।
          मैं मुस्कुराया, ‘‘हम वहीं जा रहे हैं।’’
        गाड़ी ने हमें वहीं लाकर छोड़ दिया था, जहाँ से हम अन्दर गये थे। यूँ तो हम थोड़ी देर ही अन्दर रुके थे। पर कुछ हिरण, कुछ पानी की बूँदें, कुछ बारिशें, कुछ हरीतिमा, कुछ जंगल की आवाज़ें और देह का वह आतंक अपने साथ बाहर ले आये थे। 
         वहाँ अनेक ढाबेनुमा टी स्टॉल थे, हम उन्हीं में से एक में बैठ गये। दीवार पर लगी घड़ी की सुइयाँ पाँच बजा रही थीं। हमारे ऊपर छत थी और यह पहली बार जाना कि छत का होना तसल्ली भी देता है। बारिश में भीगे लोगों की भीड़ से पूरा स्टॉल भरा हुआ था। गर्म पकौड़ों की खुशबू हर तरफ फैली हुई थी। यूँ तो हमें खास भूख नहीं थी, पर बरसती बारिश और तलते हुए पकौड़ों की खुशबू ने उसे जगा दिया था।
          पर यह मुझे बाद में समझ में आया कि वह भूख बारिश और पकौड़ों के कारण नहीं उपजी थी, वह उपजी थी देहों के आतंक से मुक्ति पाने के लिए। इतने सारे लोगों के बीच आकर हम अनायास ही उससे छुटकारा पा गये थे। नमिता को वहीं बिठाकर मैं काउन्टर पर ऑर्डर देने चला गया।
         जब मैं लौटा, तब तक उसने अपना स्कार्फ उतारकर बाल सँवार लिये थे और हल्का-सा मेकअप भी कर लिया था, जैसी कि उसकी आदत थी। हालाँकि एक बार फिर वह अपने पुराने स्वरूप में लौट आयी थी, लेकिन झिझक ने ना तो अभी उसे छोड़ा था और ना ही मुझे। हम चुपचाप बैठे हुए चाय-पकौड़े की प्रतीक्षा कर रहे थे।
         थोड़ी देर बाद स्टॉल पर काम करने वाला लड़का चाय और पकौड़े रख गया।
         ‘‘अच्छे हैं पकौड़े। तुम भी खाओ न!’’ उसने कहा।
         ‘‘हाँ, मैं ले रहा हूँ।’’
         हम चुपचाप पकौड़े खाते रहे। वह ठीक कह रही थी। पकौड़े सचमुच स्वादिष्ट थे। मुझे चाय की आवश्यकता ज्यादा थी। काँच के गिलास में खूब उबली हुई चाय मुझे अच्छी भी लग रही थी। वह भी चुपचाप चाय पी रही थी। तभी ठण्डी हवा के एक झोंके ने हमें कँपकँपा दिया। रुकी हुई हवा एकाएक चलने लगी थी। वह अकेली नहीं आयी थी, पिंजारे की धुनी स़फेद रुई से बादल भी उसके साथ आये थे।
          अचानक मुझे ध्यान आया कि मेरी जेब में सिगरेट का पैकेट पड़ा हुआ था। मैंने दो सिगरेट जलाईं और एक उसे पकड़ा दी। उसने बिना कोई आपत्ति के मुझसे सिगरेट ले ली।
         ‘‘जानती हो, मैंने पहली सिगरेट अपने पिता की जेब से चोरी करके पी थी।’’ मैंने कश लेते हुए कहा।
         उसने भी सिगरेट होंठों से लगा ली थी, ‘‘मैंने भी पहली बार ऑफिस की एक पार्टी में पी थी, घरवालों को बताये बिना! दरअसल जो काम मना होते हैं, वे प्राय: चोरी-छिपे ही किये जाते हैं...’’
         ‘‘पर हमेशा नहीं। अनेक बार हम...’’ मैं सहसा रुक गया था।
         ‘‘तुम कुछ कह रहे थे?’’ उसने मेरी ओर देखते हुए कहा।
       ‘‘जानती हो, मैंने एक बार चोरी की थी, सचमुच की चोरी...’’ मैंने झिझकते हुए कहा। एक ऐसी झिझक, जो संकोच के कपड़े पहने हुए थी।
         ‘‘क्या कह रहे हो!’’ उसकी आँखें आश्चर्य से फैल गयी थीं।
        मैं कुछ देर तक उसे देखता रहा। सहसा स्वयं पर विश्वास नहीं हो रहा था कि जिस लड़की को मैं ठीक से जानता तक नहीं था, उसे अपना एक और भेद बताने जा रहा था। उस बॉन्डिंग को समझ पाना उतना आसान नहीं था, पर कुछ था, जो मुझे सब कुछ बताने से रोक नहीं पा रहा था।
         ‘‘हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ... यह उन दिनों की बात है, जब मैं इंजीनियरिंग कॉलेज के अन्तिम वर्ष में आया ही था। उन दिनों मेरा एक दोस्त हुआ करता था, जो हॉस्टल में रहता था, जबकि मेरा घर उसी शहर में था। हमें उस साल की आखिरी फीस जमा करानी थी। उन दिनों फीस कैश ही जमा करवानी होती थी। मैंने पिता से पैसे लिए और मेरे उस दोस्त ने बैंक से निकलवाये, जो उसके पिता ने बमुश्किल तमाम उसे भेजे थे। तभी उसने प्रस्ताव रखा कि चूँकि यह अन्तिम वर्ष है, इसलिए क्यों न इसे बीयर पीकर मनाया जाये! मैं उसके आर्थिक हालात जानता था, इसलिए मैंने कहा कि बीयर मैं ही पिलाऊँगा। पहले तो वह नहीं माना, पर मेरे जोर देने पर मान गया। हमने कई बोतलें बीयर की पी डालीं और हम दोनों मस्ती में मेरी बाइक पर शहर भर में घूमते फिरे। हमारे पाँव ज़मीन पर नहीं पड़ रहे थे और आने वाले सुनहरे कल के सपनों में हम पूरी तरह डूबे हुए थे। तभी वह चौंक गया। अचानक उसके चेहरे का रंग उड़ गया था। वह जल्दी-जल्दी अपनी जेबें टटोल रहा था। फीस के जो पैसे उसने बैंक से निकलवाये थे, जेब में नहीं थे। उसकी जेब या तो कट चुकी थी, या सारे पैसे जेब से खिसक चुके थे।’’
          ‘‘ओह माई गॉड!’’ वह भी चौंक गयी थी, ‘‘फिर क्या हुआ?’’
          ‘‘हम दोनों का नशा हिरन हो चुका था। घबराहट के मारे हम दोनों की हवाइयाँ उड़ रही थीं। गनीमत थी कि मेरे पैसे मेरी जेब में ही थे। वह तो रोने ही लगा था और थर-थर काँप रहा था। साठ हजार रुपये कोई छोटी रकम नहीं होती! कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें, क्या न करें!’’
          ‘‘मैं समझ सकती हूँ उसकी क्या हालत हुई होगी।’’ उसने अपना चाय का गिलास अपनी दोनों हथेलियों के बीच फँसा रखा था। चाय के साथ-साथ बीच-बीच में वह सिगरेट भी पीती जा रही थी।
          ‘‘वही तो! हम दोनों ही गहरे सदमे में थे। कुछ भी नहीं सूझ रहा था कि क्या करें! पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखा दी थी, लेकिन हमें उन लोगों से कोई उम्मीद नहीं थी। हम बार-बार उन क्षणों को कोस रहे थे, जब हमने बीयर पीने का निर्णय लिया था... पर अब कुछ नहीं किया जा सकता था।’’
          पल भर मैं चुप रहा और अपना चाय का गिलास खाली कर सिगरेट का आखिरी कश लगाया। वह मुझे ही देख रही थी। उसकी उत्सुकता से भरी आँखें मुझ पर टिकी हुई थीं। कुछ देर पहले जो आतंक की छाया चस्पा थी, वह अब धूमिल पड़ने लगी थी। मन ही मन मैंने राहत की साँस ली।
          ‘‘पर फीस तो जमा करानी ही थी!’’ मैंने फिर कहना शुरू किया।
          ‘‘तो इसलिए तुमने चोरी की?’’ उसने मेरी बात बीच में काटते हुए पूछा।
          ‘‘हाँ, पर एकदम से नहीं... पहले हमने कोशिश की कि किसी तरह फीस माफ  हो सके। प्रिंसिपल को बैंक से पैसे निकालने के प्रमाण और पुलिस में दर्ज एफआईआर दिखाई, लेकिन फीस माफ करना प्रिंसिपल के अधिकार क्षेत्र से बाहर की बात निकली। हमने कॉलेज यूनियन अध्यक्ष से रिक्वेस्ट की, दोस्तों से मदद माँगी, एक-एक से कहना पड़ा कि इसके पिता इस स्थिति में नहीं हैं कि उसे और पैसे भेज सकें, जो भी प्रयास हम कर सकते थे, हमने किये, पर केवल बाइस हजार रुपये ही जुटा पाये। अब भी एक भारी रकम जुटानी बाकी थी... आँखों के आगे गहरा अँधेरा छा गया था। यद्यपि मैंने उसके पैसे नहीं खोये थे, पर मैं स्वयं को भी उतना ही कसूरवार मानने से खुद को रोक नहीं पा रहा था। एक बार सोचा कि अपने पिता से माँग लूँ, पर मैं अपने पिता का स्वभाव जानता था। वे मदद करने वालों में से नहीं थे। रकम भी कोई छोटी नहीं थी!’’
           ‘‘तो क्या तुमने अपनी फीस के पैसे उसे दे दिये?’’
         ‘‘मैंने उससे कहा कि मैं उसकी फीस भर देता हूँ और अपने पिता से कहूँगा कि मेरी जेब कट गयी है। पर इसके लिए वह माना ही नहीं।’’
          ‘‘तो फिर पैसे कहाँ से आये?’’
        ‘‘उन्हीं दिनों पिता ने ज़मीन का एक बड़ा सौदा किया था और कई लाख रुपयों की भारी रकम अपनी आलमारी में रख दी, जहाँ पहले ही काफी नोट रखे हुए थे। उस आलमारी को मैं अपने बचपन से देखता आया था, पर उस दिन पहली बार मैंने उस आलमारी को ध्यान से देखा। वहाँ कितने पैसे रखे हुए थे, शायद पिता को भी मालूम नहीं था। यदि उन नोटों की गड्डियों में से कुछ कम हो जायें, तो उन्हें कुछ भी पता नहीं चलने वाला था। वे अजीब-से क्षण थे, जो मुझे ही मुझसे बेगाना बना रहे थे... उस समय घर में कोई नहीं था। पिता अपने ऑफिस गये हुए थे और माँ कहीं बाहर। सारे घर में सन्नाटा छाया हुआ था...और तब मैंने चोरी की। पिता की मेज़ की ड्रॉअर से आलमारी की चाबी निकाली और ठीक उतने ही पैसे निकाले, जितने कम पड़ रहे थे। मेरे हाथ काँप रहे थे, पर मैंने सावधानी बरतते हुए एक भी ऐसा चिन्ह नहीं छोड़ा, जो पिता के संदेह का कारण बने। मैंने उन नोटों को हाथ भी नहीं लगाया, जो पिता हाल ही में लाये थे, बल्कि पीछे की ओर रखे उन नोटों में से पैसे लिये, जिन्हें पिताजी प्राय: हाथ भी नहीं लगाते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि उन्हें आज तक यह पता नहीं है कि एक दिन उनके बेटे ने अपने ही घर में चोरी की थी।’’
           ‘‘ओह!’’
          ‘‘मैंने उसकी फीस भरी, उसने एग्जाम भी दिया और पास भी हुआ। पर मैं आज तक उस अपराधबोध से मुक्त नहीं हो पाया हूँ। जितना पैसा उस दिन चुराया था, उससे कहीं ज्यादा उस आलमारी में डाल चुका हूँ, पर वह जगह है कि भरती ही नहीं! आज भी वह मेरा मुँह चिढ़ाती है और मैं कुछ नहीं कर सकता। कई बार सोचता हूँ कि पिता से कह दूँ, उनके पाँव पकड़कर माफी माँग लूँ, उनके कन्धे पर अपना सिर रखकर रो दूँ, पर आज तक हिम्मत नहीं जुटा पाया हूँ।’’ मेरा गला भर आया था, पर मैं एक अजीब-सी सांत्वना महसूस कर रहा था, जैसे किसी पादरी के सामने कन्फ़ेशन कर लिया हो।
         ‘‘और वह लड़का?’’
        ‘‘मेरे साथ-साथ उसकी भी जॉब लग गयी थी। उसने कई बार पैसे लौटाने चाहे, पर जो पैसे मेरे थे ही नहीं, मैं उन्हें कैसे ले सकता था!’’
         ‘‘हाँ, वह तो है!’’
         ‘‘उसने मुझे धमकी भी दी कि यदि मैंने पैसे नहीं लिये, तो वह मेरे पिता को लौटा देगा। बड़ी मुश्किल से मैंने उसे ऐसा करने से रोका। अन्त में तय हुआ कि वह सारे पैसे मदर टेरेसा के आश्रम में दान कर देगा... और उसने ऐसा किया भी!’’
         ‘‘तुमने बड़ी आइडियल-सी बात बताई है! आज के ज़माने में ऐसा भला कोई सोचता है!’’ उसने चकित होते हुए कहा। उसकी सिगरेट समाप्त हो चुकी थी और मेरी भी।
         ‘‘हाँ, आज तो मुझे भी आइडियल ही लगती है, पर वह उम्र ऐसी ही होती है, सपनों से लकदक, आदर्शों से भरी हुई, ऊँची उड़ानों पर सवार होने को तत्पर...तब यह सब संभव था, पर शायद आज न हो।’’
          ‘‘और आज?’’
          ‘‘आज की बात मैं नहीं जानता...शायद खुद को दोहराना संभव नहीं हो पाये!’’ मैंने सोचते हुए कहा।
          चाय के खाली गिलास हमारे सामने पड़े थे और पकौड़े की प्लेट भी। मैंने दो चाय और मंगवायी। बारिश नहीं हो रही थी, पर स्टॉल की छत से पानी अब भी टपक रहा था। सैलानियों की आवाजाही से स्टॉल में एक उमस भरी ऊष्मा महसूस हो रही थी, एक प्रकार की राहत से भरपूर। पर मैं राहत के विषय में नहीं सोच रहा था। मेरे भीतर कुछ था, शायद अपराधबोध, जो सहसा उभर आया था। जीवन में घटी कुछ घटनाएँ अपना विचित्र प्रभाव छोड़ती हैं। विचित्र भी नहीं, अनमना-सा प्रभाव, जो अकेला कर जाता है। वह घटना ऐसी ही एक घटना थी।
          हम सोचते हैं कि साझा करने से हमारा बीता हुआ दु:ख हल्का हो जाएगा। पर हमेशा ऐसा नहीं होता। बल्कि एक-दूसरे किस्म की उदासी जन्म लेने लगती है, जो उस अवसाद को परे सरकाकर अपनी जगह बनाकर बैठ जाती है। मेरे साथ भी यही हुआ था। मन अनायास ही भारी हो आया था।
           चायवाला लड़का चाय रख गया था। हम दोनों चुपचाप चाय पीते रहे। वहाँ बैठे लोगों का अनवरत शोर हमें स्पर्श भी नहीं कर पा रहा था। मैं सहसा अपने अतीत में चला गया था, पर अकेले नहीं, इस बार नमिता मेरे साथ थी। अपने अतीत का दरवाज़ा मैंने उसके लिए खोल दिया था। और तब मुझे आश्चर्य हुआ कि कैसे अनजाने लोग भी हमारे अतीत का हिस्सा बन सकते हैं!
         मैं चुपचाप यही सब सोच रहा था कि मुझे अपने हाथों पर कुछ ऊष्मा-सा अनुभव हुआ। मैंने चौंककर देखा, उसने मेरी हथेली को अपनी हथेली से ढँक लिया था। वह एक दोस्त की हथेली थी, सांत्वना से लबरेज़, आत्मीयता से सराबोर। मुझे उस समय ऐसे स्पर्श की आवश्यकता थी भी।
          वह मुस्कुरा रही थी।
        ‘‘इतना भी मत सोचो पलाश! तुमने कुछ बुरा तो किया नहीं था। समय के साथ यह घाव भी भर ही जाएगा।’’ वह बोली।
          मैंने कुछ नहीं कहा।
         ‘‘अब चलें?’’ चाय ख़त्म होते ही उसने पूछा।
        हम उठ खड़े हुए और बाहर आ गये। हवा और ठण्डी हो गयी थी और उसका स्पर्श हमें कँपकँपा रहा था। नमिता अपना स्कार्फ और विंड शीटर बार-बार कस लेती थी। पर्स से निकालकर अब उसने गॉगल्स भी लगा लिए थे। मुझे याद आया, उसको इस ड्रेस में मैं अभी थोड़ी देर पहले भी देख चुका था।
          मैंने कैब ड्राइवर को फोन लगाया। सेंक्चुरी के मुख्य दरवाज़े पर वह हमारी प्रतीक्षा में ही था।
         कैब में बैठते ही बाहर की हवा सहसा कट गयी। अन्दर गर्मी थी, ज्यादा नहीं, उतनी ही, जो बारिश के भीगे-भीगे से दिनों में दिलासा देने के लिए काफी होती है। दिलासा मन को ही नहीं, देह को भी चाहिए होती है और कई बार उससे बड़ा सुकून भी मिलता है।
         ‘‘अब?’’ मैंने कैब ड्राइवर से पूछा।
          ‘‘अब हमारे पास ज्यादा टाइम नहीं बचा है। रास्ते में घाटेश्वर महादेव का एक मंदिर है। आप कहें तो हम वहाँ होते हुए एयरपोर्ट चल सकते हैं।’’ उसने कहा।
          ‘‘मंदिर!’’ मैंने नमिता की ओर देखा, ‘‘चलना है क्या?’’
         पल भर वह कुछ सोचती रही। फिर हँसकर बोली, ‘‘चलो चलते हैं। कहीं ऐसा ना हो कि भगवान बुरा मान जायें!’’
        कैब ड्राइवर ने बीच में बात काट दी, ‘‘मैम, मज़ाक मत उड़ाइये। बड़ी मान्यता है इस मंदिर की। लोग दूर-दूर से आते हैं यहाँ।’’
          वह एकदम-से चुप हो गयी। शायद उसे कैब ड्राइवर की बात बुरी लगी थी। पहली बार वह हमारे बीच कुछ बोला था। पर उसका बोलना हमारे बीच सन्नाटा रख गया था।
          कैब किसी घाटी के घुमावदार रास्तों से होती हुई एक बार फिर तलहटी में उतर रही थी। सेंक्चुरी में जो बादल थे, अब ज्यादा पास उतर आये थे। अँधेरा वहाँ पहले से ही उजाले से दोस्ती किये बैठा हुआ था। ना पूरा दिन था, ना पूरी शाम। बीच का असमंजस से भरा हुआ समय हमें घाटी में नीचे उतरते हुए देख रहा था।
          मंदिर ज्यादा दूर नहीं था और घाटी की तलहटी में एक बहते हुए पहाड़ी झरने के किनारे बना हुआ था। पुराना मंदिर, जिसके शिखर पर अनगिनत रंग-बिरंगी पताकाएँ हवा में लहलहा रही थीं। पास के एक पुराने पीपल के पेड़ के तने के चारों ओर मन्नत के लाल-पीले धागे बँधे हुए थे। गिने-चुने लोग ही थे वहाँ पर। रास्ते के दोनों ओर कुछेक थड़ियाँ लगी हुई थीं, जहाँ पूजा का सामान बिक रहा था। नमिता ने भी वह सामग्री खरीद ली थी।
          मंदिर में प्रवेश द्वार पर एक घण्टा लटका हुआ था। नमिता मुझसे आगे थी और उसी ने पहले वह घण्टा बजाया। अभी घण्टे की गूँज़ समाप्त भी नहीं हुई थी कि मैंने भी अपना हाथ ऊँचा किया और उसे फिर बजा दिया। गूँज़, अनुगूँज़ से मिलकर हवा में तैरती रही। इससे पहले कि वह गूँज़ समाप्त हो जाती, किसी और ने फिर घण्टा बजा दिया था।
         पर उसके बाद भी वह तुरंत अन्दर नहीं गयी। वहीं खड़ी रही, हाथ जोड़े हुए। सहसा वह मेरी ओर घूमी।
          ‘‘क्या सचमुच मैंने गलती की थी?’’ उसने पूछा।
          ‘‘कौन-सी गलती नमिता?’’ मैं आश्चर्य से उसे देख रहा था।
          ‘‘वही...भगवान का मज़ाक उड़ाने की?’’
         इस बार मैंने उसके दोनों हाथों को अपने हाथों में भर लिया, जिनमें वह पूजा सामग्री पकड़े हुए थी, ‘‘नहीं नमिता, तुम मज़ाक नहीं उड़ा रही थी, वह केवल हास्य था, निर्मल हास्य, एक हल्का-फुल्का परिहास, जो हमारे जीवन का एक अहम् हिस्सा होता है। इसमें भगवान भला कैसे बुरा मान सकते हैं!’’
         ‘‘सच कह रहे हो?’’ उसकी आँखें मुझ पर टिकी हुई थीं, निरीह आँखें, जो अपनी झोली में ढेर सारी उदासी सहेजे हुए थीं।
          ‘‘हाँ, मैं सच कह रहा हूँ। उस कैब वाले में इतनी समझ कहाँ कि मज़ाक और हास्य के बीच के महीन अन्तर को समझ सके। तुम अपने मन में ऐसी कोई बात मत रखो...और अगर हो भी, तो अन्दर उनसे क्षमा माँग लेना।’’
          फिर हम अन्दर चले आये। अन्दर अँधेरा था। बाहर वाला नहीं, मंदिर का अपना अँधेरा, जो कुछ जलते हुए दीयों की टिमटिमाती रोशनी के बावजूद भी उस जगह पर टिका हुआ था। शिवलिंग के स्थान पर उसी आकार का एक बेडौल-सा पत्थर स्थापित था, जिसके चारों ओर झरने का पानी अनवरत बह रहा था। वह पानी कहीं बाहर से नहीं, बल्कि उसी लिंग के पास बने एक छोटे-से गौमुख से फव्वारे की तरह फूट रहा था। शायद इसी चमत्कार के कारण वह स्थान प्रसिद्धि पा गया होगा।
          नमिता का सिर स्कार्फ़ से ढँका हुआ था। यह वही स्कार्फ़ था, जो उसने सेंक्चुरी में फुहारों से बचने के लिए पहना था। पूरे मनोयोग से उसने पूजा की, मानो अभी कुछ देर पहले अपने कहे का पश्चाताप कर रही हो। आस-पास जलते हुए दीयों की रोशनी में उसका चेहरा भी सुलगा हुआ लग रहा था। क्षण भर के लिए मुझे लगा, जैसे वह मुझे भूल चुकी हो। मैं एक कोने में खड़ा चुपचाप उसे पूजा करते हुए देखता रहा। अन्त में उसने प्रसाद चढ़ाया, शिवलिंग की परिक्रमा की, बहते जल को स्पर्श किया और उसे अपनी आँखों और गले पर लगाया। फिर उसने मुझे देखा।
           मुझे लगा, मैं किसी दूसरी ही नमिता को देख रहा था।
         जब हम मंदिर से बाहर आये, तब तक आसमान में रुका हुआ अँधेरा नीचे झुक आया था। झरने की आवाज़ कुछ ज्यादा ही स्पष्ट होकर पास सरक आयी थी। मंदिर के पीछे एक चट्टान पर हम कुछ देर चुपचाप खड़े रहे। हमारे सामने बहता पानी और पहाड़ और पेड़ और अँधियारा भी चुपचाप खड़े हुए थे। वहाँ कुछ बन्दर भी थे, जो हमें ताक रहे थे। नमिता ने कुछ प्रसाद मुझे दिया, कुछ स्वयं लिया और शेष एक पत्थर पर रख दिया, जिसे बन्दरों ने देखते ही देखते चट कर डाला।
           ‘‘सुनो....’’ उसने मुझे देखते हुए कहा।
          ‘‘हाँ नमिता, मैं यहीं हूँ, तुम्हारे साथ ही...’’
        ‘‘हाँ, मैं जानती हूँ। पर मैं हमारे साथ होने के बारे में नहीं, अलग होने के बारे में सोच रही थी...अब हमारे अलग होने का वक़्त पास आता जा रहा है।’’ उसने आहिस्ता से कहा, मानो मुझसे नहीं, अपने से कह रही हो। उसकी आवाज़ में छिपी उदासी ने मुझे भीतर तक छू लिया था। गहराती शाम के धुँधलके में उससे अलग होने का खयाल मुझे अपने भीतर तक मथ गया था। ऐसा नहीं कि यह विचार मेरे मन में नहीं आया था, लेकिन मैं उसे हर बार एक ओर सरका देता था, जैसे वह मेरा नहीं, किसी दूसरे का विचार हो, जैसे बिछुड़ना हमें नहीं, किसी और को था।
          पर वह सच हमारे रोम-रोम में जंगल में लगी आग की तरह फैल गया था और अब हमसे बाहर निकलकर चारों ओर भी पसरने लगा था, शाम की तरह नहीं, उतरते हुए अँधेरे की तरह भी नहीं, बल्कि वहाँ ठहरी हुई हवा की तरह, जो जीवित रहने की आवश्यक शर्त होती है।
          ‘‘कुछ कहोगे नहीं?’’ उसने मेरी ओर देखा।
          ‘‘क्या कहूँ नमिता...’’ मैंने धीरे से कहा, ‘‘जब भी किसी से अलग होना पड़ता है, मन हमेशा उदास हो जाता है...फिर आज के बिछुड़ने की तो बात ही कुछ अलग है।’’
          ‘‘कैसे?’’ उसकी प्रश्नवाचक आँखें मुझ पर टिकी हुई थीं।
         ‘‘क्या सुबह तुमने सोचा था कि हम इस तरह मिलेंगे! नहीं ना.... पर देखो, हम मिले, बिना किसी अपेक्षा के मिले, सारा दिन साथ रहे, अपने सुख-दुख की बातें कीं, बीता हुआ कल बाँटा... इस तरह का यह मिलना हमारी इस यात्रा को विशेष बना  गया है।’’
         ‘‘हाँ, तुम ठीक कह रहे हो...सुबह हमने यह सब नहीं सोचा था। तब लग रहा था कि इस शहर को देखना महज़ इत्ते़फाक से मिले खाली समय को भरने का तरीका भर है! पर नहीं, खाली कुछ भी नहीं था। शायद खाली कुछ होता भी नहीं, न समय, न हम...यहाँ तक कि शून्य भी नहीं!’’
          हम चुपचाप खड़े-खड़े बहते पानी को देखते रहे। पर गहराते अँधेरे ने उसे अपने आगोश में छिपा लिया था, सि़र्फ उसकी कल-कल करती आवाज़ हम तक पहुँच पा रही थी। सारी घाटी, पेड़, जंगल और मंदिर के ईश्वर भी हमें चुपचाप खड़े हुए देख रहे थे। एक मौन-सा छा गया था, अभेद्य मौन, जो अथाह खामोशी के बाद भी सुनायी दे रहा था, झरने की आवाज़ से अलग, मंदिर के घण्टों से अलग...

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लौटते समय हमें तलहटी के कोटर से ऊपर आना था। कैब धीरे-धीरे चढ़ाई चढ़ रही थी। जैसे-जैसे हम ऊपर की ओर बढ़ते, वैसे-वैसे अँधेरा कम होने लगता था। ऊपर समतल सड़क पर इतना उजास बिखरा होगा, इसकी हमने नीचे कल्पना भी नहीं की थी।
          यह ऊपर आना स्वयं से ऊपर आना भी था। मंदिर में विलग होने के विचार से उपजा अवसाद आहिस्ता-आहिस्ता बढ़ने लगा था। बिछुड़ने की यातना ने हमें  अलग-अलग दुनियाओं में विभाजित कर दिया था, सोच की दो दुनिया, जहाँ हमारे एकान्त ही एकमात्र हमारे साथी थे। पर जल्दी ही शहर पर छाये आलोक ने सहज ही हमारा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया था और हमें अपने मन की दुनिया से बाहर खींचकर अवसाद से मुक्ति दिलाने में हमारी मदद की थी।
        ‘‘ऐसा लग रहा है, जैसे हम कोई उदास फिल्म देखकर लौटे हों।’’ सहसा उसने कहा। बहुत देर बाद खामोशी को भेदती हुई उसकी आवाज़ मुझ तक आयी थी। वह आवाज़ वैसी ही थी, जिसे सुनने के मेरे कान आदी हो चले थे। उसकी मुस्कान भी उसके चेहरे पर लौट आयी थी और उसकी आँखें फिर से बोलने लगी थीं।
          ‘‘हाँ, या फिर जैसे किसी अपरिचित व्यक्ति के अनजान सपने में भटककर लौटे हों...’’ मैंने कहा।
           वह क्षण भर चुप रही, फिर आहिस्ता से बोली, ‘‘क्या तुम्हें नहीं लगता?’’
           ‘‘क्या नहीं लगता, नमिता?’’
          ‘‘यही, कि हम कभी ठीक-ठीक जान नहीं पाते कि अगले पल क्या होने वाला है। वह होता रहता है और हम उसे होने देते हैं, जब तक कि वह हमारी स्मृति का स्थायी हिस्सा न बन जाये! क्या हमारे साथ ठीक यही नहीं हुआ है? मंदिर में जाने के एक क्षण पहले तक हम जानते नहीं थे कि क्या होने वाला है!’’
           वह असमंजस का क्षण था। वह जिस ‘घटना’ की बात कर रही थी, मुझे उसका ज़रा-सा भी अनुमान नहीं था। मुझे आश्चर्य हुआ कि मंदिर में बिताये क्षण उसके लिए अलग थे, और मेरे लिए अलग। वहाँ समय दो टुकड़ों में बँटकर बहने लगा था।
           ‘‘एक बात कहूँ?’’ नमिता ने मुझे देखते हुए कहा।
           ‘‘हाँ, बोलो न!’’ मेरी निग़ाहें उस पर ही टिकी हुई थीं।
         ‘‘सोचती हूँ, अच्छा ही हुआ कि तुम मिल गये। इसलिए नहीं कि हमने सारा दिन साथ-साथ बिताया, इसलिए भी नहीं कि हम हमेशा एक-दूसरे की स्मृतियों में रहेंगे, बल्कि इसलिए कि तुम्हारे साथ मैं अपने आप को नये सिरे से पहचान पायी हूँ, पहली बार मैंने अपने आप को देखा और महसूस किया... यह देखना उस तरह का नहीं है, जैसे हम अपने को शीशे में देखते हैं या स्वयं को अपने शहर में देखते हैं, बल्कि यह देखना किसी अजनबी के आश्चर्य की तरह है, जो अपनी उस तस्वीर को देखकर चकित रह जाता है, जो किसी और ने उससे छिपकर खींची थी।’’
            ‘‘हाँ, मैं समझ सकता हूँ। जैसे जब हम किसी नाटक में कोई भूमिका निभाकर स्टेज से बाहर आते हैं, तब सोचने लगते हैं कि मैं असल में यह हूँ कि वह, जो अभी स्टेज़ पर था!’’
              ‘‘जबकि सच दोनों ही रूप होते हैं...एक तरह से।’’
               ‘‘वही तो!’’
               ‘‘एक बात और।’’
                 ‘‘क्या?’’
                  ‘‘मुझे लगता है, अपने शहर पहुँचकर अब मैं वैसी नहीं रह पाऊँगी, जैसी अब तक थी।’’
                 मैं उसे देखता रहा। उसके चेहरे पर अजीब ठहरे हुए से भाव थे, किसी हद तक निस्संग और निर्पेक्ष, जैसे उसने अपना चेहरा उतारकर पर्स में रख लिया हो, जिसे वह सुबह से कन्धे पर लादे घूम रही थी।
              उसने मेरे हाथ पर अपना हाथ रख दिया। उसकी हथेली असाधारण रूप से ठण्डी थी, जैसे अपनी ऊष्मा की केंचुली उतार फेंकी हो। मुझे झुरझुरी-सी महसूस हुई, हथेली की ठण्डक के कारण नहीं, बल्कि उसमें पसरी निर्जीवता के कारण। लग रहा था, जैसे किसी मृत देह ने अपना हाथ रख दिया हो।
              ‘‘कुछ कहोगे नहीं?’’ उसका फुसफुसाता-सा स्वर मुझ तक बह आया था।
             ‘‘क्या कहूँ नमिता... सच तो यह है कि मैं भी तुम्हारी तरह ही महसूस कर रहा हूँ। जिस ‘मैं’ को मैं जानता था, वह मैं नहीं हूँ। बहुत कुछ यहीं छोड़े जा रहा हूँ और बहुत कुछ नया साथ ले जा रहा हूँ। अपने शहर में एक बार फिर स्वयं से मुला़कात करनी होगी, खुद को नये सिरे से पहचानना होगा।’’
            ‘‘वही तो! कितना अजीब है अपने को अपने से विलग कर स्वयं को देखना... पर यह होता है, कभी यात्राएँ यह सब करा देती हैं, तो कभी अपरिचित लोग।’’ उसकी भटकती-सी आवाज़ मुझ तक आयी।
           उसका संकेत संभवत: मेरी ओर था। मैं समझकर भी नहीं समझने का नाटक नहीं कर सकता था, ‘‘हाँ नमिता, यह यात्रा ही वह यात्रा है और हम ही हैं वे अपरिचित लोग!’’
          नमिता ने कोई उत्तर नहीं दिया, बल्कि चुपचाप अपना हाथ खींच लिया था। मेरा हाथ वहीं पड़ा था, लावारिस-सा नहीं, बल्कि अब एक शीतल स्पर्श का अनुभव उसके साथ जुड़ गया था। उस स्पर्श में ना तो किसी प्रकार का लगाव था और ना ही कोई दुराव, मानो वह भूले से चला आया था, जैसे हम किसी अनजाने शहर में भूले से ऐसी गली में चले जाते हैं, जहाँ हमें जाना नहीं था, लेकिन वहाँ सहसा अपने किसी आत्मीय को देखकर हतप्रभ रह जाते हैं।
             ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ उसने पूछा, बल्कि शायद पूछ नहीं रही थी, कुछ बताना चाह रही थी, अपनी उस सोच के बारे में, जो अभी शब्द बनने की राह में खड़ी थी।
             ‘‘कुछ नहीं... बल्कि मुझे लगा, जैसे तुम ही किसी सोच में डूबी हुई हो।’’  मैंने कहा।
            कुछ देर वह खामोश बैठी रही। उसकी सोच उसके चेहरे पर एक बोझिल खयाल की तरह उभर आयी थी। फिर उसका थका हुआ स्वर रेंगता हुआ-सा मेरी ओर आया, ‘‘एक बात बताओगे?’’
             मैं उसे ही देख रहा था।
            ‘‘क्या तुम्हें दु:ख है?’’
           ‘‘दु:ख? किस बात का दु:ख नमिता?’’ मैंने गहरे आश्चर्य से पूछा। अपनी भीगी आवाज़ से मैं स्वयं ही चौंक गया था...दु:ख! उस अनजान शहर में एक अनजान लड़की के साथ अनजान जगहों पर घूमते हुए दु:ख मुझे किसी दूसरे ग्रह की चीज़ जान पड़ी थी...लेकिन उसके पूछने के बाद मुझे पहली बार एहसास हुआ कि कहीं कोई दु:ख अवश्य था, जो बिना किसी आहट के मेरे साथ साथ घिसट रहा था, नि:शब्द।
            ‘‘यही, कि अब हम कभी नहीं मिलेंगे?’’
              मैं चुपचाप उसे देखता रहा।
           ‘‘तुमने कुछ कहा नहीं?’’
          ‘‘हाँ, मैं इस बारे में काफी देर से सोच रहा हूँ... एक और भी खयाल मेरे मन में समाया हुआ है....’’
          ‘‘क्या?’’
         ‘‘मैं सोच रहा हूँ आज के बारे में, जो आने वाले समय में हमारी साझी स्मृति बनेगा, साथ बिताए इन क्षणों के बारे में, जो अभी पूरी तरह बीते नहीं हैं, अब भी हमारे साथ बने हुए हैं, हमारे साथ-साथ चल रहे हैं...’’ मैं पल भर के लिए रुका, ‘‘ये क्षण बीतकर भी बीतेंगे नहीं।’’
         ‘‘हाँ, तुम ठीक कह रहे हो। मन के किसी अँधेरे कोने में छिपकर बैठ जाएंगे और अपने शहर में किसी अनजान घड़ी में अपना सिर उठाकर कहेंगे, देखो, यह मैं हूँ, एक दिन तुमने मुझे जिया था, अपने बीते हुए कल और आने वाले पलों से विलग होकर जिया था।’’ उसने कहा। मुझे लगा यह बात हम पहले भी कर चुके थे।
           ‘‘हाँ, वही तो! वैसे ही हैं ये क्षण....जैसे हम कोई किताब पढ़ते हैं और उसमें पूरी तरह डूब जाते हैं, पहले पढ़ी हुई कोई दूसरी किताब हमें याद नहीं आती और न ही हम उन किताबों के बारे में सोचते हैं, जो हम आने वाले कल पढ़ेंगे।’’
            ‘‘एक तरह से...या फिर जैसे रात को हमारी आँख खुल जाती है और अपने कमरे की फर्श पर पसरी चाँदनी को देखकर हम उसके सौन्दर्य से अभिभूत हो जाते हैं... हम जानते हैं कि यह वह चाँदनी नहीं है, जो कल रात थी और न ही ऐसी चाँदनी आने वाली किसी दूसरी रात होगी... बस, उस पल को जीना, उस क्षण की चाँदनी के घनीभूत सौन्दर्य में खो जाना ही एकमात्र लक्ष्य बन जाता है।’’
            हम एक बार फिर से चुप हो गये थे, शब्दों के चुक जाने से नहीं, बल्कि भावों के अतिरेक ने हमें चुप कर दिया था। हम अपनी-अपनी दुनिया में खो गये थे, जो अलग-अलग होकर भी अलग नहीं थी। एक महीन कच्चे-से धागे ने उन्हें जोड़ रखा था, जिसे अन्ततोगत्वा टूटना ही था।
           शहर पीछे छूट रहा था, एक ऐसा शहर, जो ना तो मेरा था और ना ही नमिता का, पर अब हमेशा हमारी स्मृतियों में बना रहने वाला था। शाम अब उसे अपनी बाँहों में समेटने लगी थी और फिर रात, जो शाम के पीछे-पीछे दौड़ी चली आ रही थी। सारा शहर रंग-बिरंगी लाइटों में झिलमिलाने लगा था। ट्रै़फिक लाइटों के लाल से हरी होते ही वाहनों का लम्बा कारवाँ सड़क पर बहने लगता था और शाम का तमाम सौन्दर्य उनके शोर में कहीं विलीन हो जाता था।
          एयरपोर्ट पहुँचने में थोड़ा समय लगा। हम चुपचाप कैब में बैठे हुए पीछे छूटते शहर को देखते रहे थे। संभव है आने वाले दिनों में कभी इस शहर में फिर से आना हो, पर तब आना वैसा आना नहीं होगा, जैसा अब था। इस बार की स्मृतियाँ लगातार कचोटती रहेंगी।
           शायद हम दोनों के मन को उदासियों ने अपने नुकीले नाखूनों ने खरोंचना शुरू कर दिया था।
*** 

 

एयरपोर्ट के लॉन्ज में काफी भीड़ थी। हमने अपना-अपना लगेज़ ले लिया था और बोर्डिंग पासेस भी बनवा लिये थे।
          ‘‘सुनो...’’ उसने धीरे से कहा।
          ‘‘हाँ नमिता।’’
          ‘‘मुझे तुम्हें कुछ देना है।’’
         मेरी प्रश्नवाचक निगाहें उस पर उठ आयी थीं।
         इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता, उसने कुछ नोट मेरी शर्ट की जेब में खिसका दिये थे, जो उसने पता नहीं कब पर्स से निकालकर अपनी हथेली में दबा रखे थे।
           ‘‘तुम यह क्या कर रही हो? इसकी कोई ज़रूरत नहीं है।’’ मैंने उसे रोकते हुए कहा। मुझे बड़ी उलझन महसूस हो रही थी।
             ‘‘नहीं, जरूरत है। हमने सुबह वादा किया था कि शाम को हम बाँट लेंगे...’’ उसने अपनी बात पर जोर देते हुए वे रुपये मेरी जेब में ठूँस दिये थे।
           ‘‘वह सुबह की बात है...अब सब कुछ बदल गया है।’’ मैंने झिझकते हुए कहा। पैसे बाँटने की बात मैं भूल गया था और अब मुझे संकोच हो रहा था।
           ‘‘हाँ... पर क्या तुम चाहोगे कि मैं तमाम उम्र इस अपराधबोध से पीड़ित रहूँ कि मैं तुम पर बोझ बनी रही?’’
           ‘‘पर नमिता...’’ मैं जेब में हाथ डालकर पैसे निकालने लगा था कि उसने मेरा हाथ वहीं रोक लिया।
            ‘‘प्लीज़!’’ उसकी कातर निगाहें मुझ पर लगी हुई थीं।
          मेरी जेब पर टिके उसके हाथ को मैंने अपने हाथों में भर लिया। यह एक प्रकार की दिलासा थी, नि:शब्द दिलासा, जो विदा की उन उदास घड़ियों में मैं उसे दे सकता था।
           इस बार वह रुकी नहीं, उसने अपनी बात पूरी की, ‘‘और हाँ, अब हम इस बारे में कोई दूसरी बात नहीं करेंगे।’’
          फिर हम हॉल के कोने में लगी हुई कुर्सियों पर बैठ गये। लॉन्ज में लगी कन्सील्ड लाइटों और दुकानों के जगमगाते शो केसेज़ की रोशनी में सब कुछ नहाया हुआ सा लग रहा था। पर हर चीज़ पर एक किस्म की उदासी तारी थी। वह उदासी कहीं बाहर से नहीं, हमारे भीतर से आयी थी। एयरपोर्ट पर अन्तिम बचे कुछ पल अपने गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी देर बाद दो हवाई जहाज आएंगे और हमें अलग-अलग दिशाओं में ले जाएंगे, हमें हमेशा के लिए अलग कर देंगे। जीवन फिर भी चलता रहेगा, हवाएँ आएंगी, मौसम बदलेंगे, नदियों में पानी बहता रहेगा, सुख-दु:ख अपने-अपने तरीकों से हमें प्रभावित करते रहेंगे, सपने भी आएंगे जो शायद पूरे भी होंगे... पर एक कमी हमेशा बनी रहेगी, एक प्रकार का अभाव, जो किसी विरहन के शोक गीत सा मन में टीसता रहेगा।
           ‘‘क्या सोच रहे हो?’’ उसने पूछा। यह एक ऐसा प्रश्न था, जो बार-बार हमारे बीच चला आता था, किसी बाग में खेलते हुए छोटे बच्चे की तरह, जो बार-बार यह देखने अपने माता-पिता के पास लौट आता था कि कहीं वे चले तो नहीं गये!
          ‘‘कुछ ख़ास नहीं..., बस यूँ ही।’’
        ‘‘वही तो! कई बार सोचती हूँ तो गहरा आश्चर्य होता है कि हम जीवन का ज्यादातर हिस्सा बस यूँ ही गुज़ार देते हैं, बिना कुछ ख़ास किये, बिना किसी उद्देश्य के, रूटीन...’’ उसने मुझे देखते हुए कहा।
         ‘‘हाँ, पर वे पल व्यर्थ नहीं जाते, अनजाने ही हमारे जीवन में कुछ न कुछ जोड़ देते हैं, जिसका पता हमें बाद में चलता है। शायद इसी में उनकी सार्थकता निहित होती है।’’ मैं भी उसे ही देख रहा था।
         ‘‘यह दिन भी व्यर्थ नहीं जाएगा...उम्र भर हमारे सिरहाने खड़ा रहेगा, कोई टीस देने के लिए नहीं और न ही कोई खुशी देने के लिए, बस, जताने के लिए कि हमारे निजी सुख-दु:ख से परे भी कोई चाहना हो सकती है।’’ नमिता का स्वर असाधारण रूप से कोमल था, जैसे उसने अपनी सारी अपेक्षाएँ और आकांक्षाएँ उतार फेंकी हों।
           मैं चुप रहा। कहने को कुछ बचा भी नहीं था।
           ‘‘सुनो...’’ उसकी खामोश-सी आवाज़ फिर सुनायी दी।
             मैं उसे ही देख रहा था।
        ‘‘दिल्ली के व्यस्त रूटीन में कभी इतना समय ही नहीं मिलता था कि अपने शहर को देख सकूँ और जब कभी अचानक वहाँ की पुरानी इमारतें देखने को मिलती थीं, तो मन आश्चर्य से भर जाता था कि क्या यह मेरा शहर है! यहाँ आकर जाना कि किसी शहर से मिलना खुद से मिलना होता है। जब स्वयं को ढूँढना हो, शहर की सड़कों पर अकेले भटकने निकल पड़ो।’’
          ‘‘हाँ, एक शहर धीरे-धीरे खुलता ही नहीं, आपको खोलता भी है।’’
         ‘‘अपने शहर में जब किसी शाम मेरी याद आये, तब घर की छत पर खड़े होकर डूबते हुए सूरज को देख लिया करना...वह तुम्हारी स्मृति अवश्य मुझ तक पहुँचा देगा...’’ नमिता सीधे मुझे देख रही थी। मुझे उसकी आँखें असाधारण रूप से उदास लगीं। विदा के खरोंचते क्षणों ने हमें बहुत ज्यादा भावुक बना दिया था।
         ‘‘और तुम? तुम शाम के पहले तारे को देखते हुए देर तक हाथ हिलाती रहना... वह मेरा पुराना दोस्त है।’’ मैंने कहा। मेरा मन आँसुओं से गीला था और शब्द भावुकता के अतिरेक से लबरेज़।
          सब कुछ जैसे चुक गया था, बचा रह गया था केवल विदा गीत। एक ऐसा विदा गीत, जिसमें शब्द नहीं थे, कोई संगीत नहीं था, जिसे हमारे अतिरिक्त कोई और सुन भी नहीं सकता था। बस, वही गीत गूँज़ रहा था हमारी धमनियों में बहते हुए रक्त के साथ।
         नमिता की फ्लाइट की घोषणा होते ही वह उठ खड़ी हुई। मैं भी उसके साथ खड़ा हो गया। पर वह गयी नहीं, वैसे ही खड़ी रही, जैसे कुछ कहना अभी शेष हो। हम एक दूसरे को देख रहे थे।
          ‘‘मैं चलती हूँ। अपना ध्यान रखना।’’ उसने कहा, हालाँकि वह अपनी जगह से हिली भी नहीं।
           मैंने एक शब्द भी नहीं कहा। चुपचाप उसे देखता रहा।
          अचानक वह मेरे पास आयी और हौले-से मुझे अपनी बाँहों में भर लिया, ‘‘मैं हमेशा तुम्हें याद रखूँगी।’’
         मैंने आहिस्ता से उसके कन्धे थपथपाए, जैसे इससे उसे तसल्ली मिल जाएगी। पर तसल्ली कहीं नहीं थी। उन असहाय क्षणों में वह भी उतनी ही अकेली थी, जितना कि मैं। बिछुड़ने के समुन्दर की उत्ताल लहरों ने हमें तटों पर फेंक दिया था।
          नमिता चली गयी। मैं उसे जाते हुए देखता रहा। उसे जाना ही था। अपने साथ वह मेरा एक बड़ा हिस्सा भी ले गयी थी। बहुत कुछ था, जो मैंने भी अपने लिए सहेज लिया था। यह चुराये हुए हिस्से ही अब तमाम उम्र हमारे साथ रहने वाले थे।
        ज्यों ही उसके प्लेन ने टेक ऑफ़ किया, सहसा मेरे ज़ेहन में अहमद फराज़ की एक पंक्ति उभर आयी-
        अब के हम बिछुड़े तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें,
         जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें।
        मेरी फ्लाइट में अभी देर थी। मैंने बैठना चाहा, पर बैठ नहीं सका। अभी कुछ पल पहले ही तो नमिता यहाँ बैठी हुई थी! मैं अपने लगेज़ के साथ कॉफी वेडिंग मशीन पर चला आया और टोकन खरीदने के लिए जेब में हाथ डाला। जेब में सिगरेट का पैकेट अभी भी पड़ा हुआ था, जिसे झरने वाली जगह पर खरीदा था।
        मैंने टोकन मशीन में डाला और कॉफी आने की प्रतीक्षा करने लगा। सहसा मुझे याद आया कि आज सुबह ही तो नमिता को रिसेप्शन में कॉफी मशीन के पास खड़े हुए देखा था।
***


गोपाल माथुर
राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर द्वारा ‘विशिष्ट साहित्यकार सम्मान’ तथा ‘साहित्य अमृत सम्मान 2024’ से सम्मानित।
प्रकाशन :  
कविता संग्रह - तुम
उपन्यास - लौटता नहीं कोई,  धुँधले अतीत की आहटें, ढलती शाम के लम्बे साये, उदास मौसम का गीत
नाटक - लंबे दिन की यात्रा रात में (अनुवाद), आस है कि टूटती नहीं 
कहानी संग्रह - बीच में कहीं, जहाँ ईश्वर नहीं था
ई मेल- gopalmathur109@gmail.com    
मोबाइल- 9829182320    

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