दो
मैंने एक गहरी साँस ली। यह निर्णय कर पाना कठिन था कि एक अर्थहीन शून्य मुझमें उतर आया था कि मैं उसमें! लेकिन वह इतना सघन था कि उसे चाकू से काटा जा सकता था। अपनी व्यर्थता का बोध मुझे सालने लगा था। मुझे सब्जी के व्यर्थ छिलकों की तरह फेंक दिया गया था और मैं कुछ नहीं कर सकता था। आँखों में एक बेचैन सी काली छाया उतर आई थी, जिसके उस पार का अँधेरा साफ़ दिखाई देने लगा था। इस अँधेरे से मैं पहली बार मिल रहा था। मैंने उसे नहीं बुलाया था। वह खुद आया था। मैंने उसके लिए हमेशा दरवाजा खुला रखा करता था, जो मुझे छोड़ कर चली गई थी। वह लौट कर नहीं आई। अब आएगी भी नहीं। उसकी जगह यह अँधेरा आया था। काला डरावना अँधेरा। उसका विभत्स चेहरा मुझे अपनी याद दिला रहा था।
खिड़की के बाहर सब कुछ पहले की तरह ही था, जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो, जबकि मैं तहस-नहस हो चुका था। मैं अपने खालीपन की पोटली के साथ अनाथ बैठा हुआ था। जब वह आती थी, सारा कमरा उसकी उपस्थिति से भर जाया करता था। अब उसकी अनुपस्थिति सदेह उपस्थित थी। वह एक मरे हुए परिन्दे की उपस्थिति थी।
***
तीन
कमरे से परे, खिड़की के उस पार, मेरा शहर है, समुद्र के किनारे, विन्ध्यांचल पर्वत की तलहटी में... जहाँ प्रतिदिन शाम उतर कर पानी में अपने नंगे पाँव धोया करती है। बारिशों के दिनों में बादलों की टुकड़ियाँ क्षितिज पर दूर-दूर तक फैल जाती हैं और जाता हुआ सूरज उन्हें सुनहरी नारंगी रंग में रंग दिया करता है। मछुआरे अपनी नावों में घर लौटने लगते हैं, जहाँ कुछ आँखें उनकी प्रतीक्षा कर रही होती हैं। समुद्री पक्षी देर तक उनका पीछा करते रहते हैं, जब तक कि वे उन्हें कुछ मछलियाँ खिला नहीं देते।
मैं ठीक ऐसी ही जगह जाना चाह रहा हूँ, जहाँ बेपनाह खामोशी हो। जहाँ मेरे ऊपर आकाश टिका हो, नीचे धरती और पास में लहलहाता समुद्र हो। मेरा दु:ख मेरे पास लेटा हो, नि:शब्द, निर्विकार और निर्लिप्त, मानो मेरे पास होकर भी पास न हो...।
वह जगह समुद्र नहीं होकर किसी पुराने किले का खण्डहर भी हो सकती है, मेरी ही तरह टूटे हुए, बिखरे हुए खण्डहर, जिनका इतिहास ठीक-ठीक कोई नहीं जानता। लोग वहाँ टूरिस्ट्स की तरह आते हैं, देखते हैं और लौट जाते हैं। किसी को भी उन पत्थरों की भुगती हुई पीड़ाओं से कोई लगाव नहीं होता। पत्थर अलग होते हैं, पीड़ाएँ अलग और टूरिस्ट्स तो बिल्कुल ही अलग। वे इन्हें जोड़ कर देखते भी नहीं, क्योंकि वे जानते हैं कि यदि वे ऐसा करेंगे, तो खण्डहरों का दु:ख एक स्थाई भाव की तरह उनसे चिपक जाएगा।
या फिर वह जगह कोई घना जंगल भी हो सकती है। अथाह वीरानी के बीचोंबीच, जहाँ पेड़ों के बीच से हवा किसी विरहन के रुदन की तरह सरसराती हो, दोपहर की धूप के कुछ टुकड़े घर से बिछुड़े बच्चों की तरह जमीन पर फड़फड़ा रहे हों, शिकार किए जानवरों की कातर कराहें, जब-तब कान पर हथौड़े सी बजती हों...।
मुझे ही निर्णय लेना है कि जाना कहाँ है!
***
चार
कमरे से निकलते ही पता नहीं क्यों मैं भागने लगा था। भागते-भागते जब मैं अपने में लौटा, तब स्वयं को समुद्र किनारे खड़े पाया। यह मैं ही था। समुद्र के पास, पर खुद से दूर, अपनी आँखों से खुद को देखता हुआ। मेरी निगाहें समुद्र पर टिकी थीं और मैं प्रतीक्षा कर रहा था। पर किसकी, यह मैं नहीं जानता था...। शायद उन संवादों की, जो मैंने कभी उससे नहीं किए थे, पर करने थे। क्या संवादों की पहल समुद्र करेगा? या मुझे ही करनी होगी? हालांकि मुझे बिल्कुल भी पता नहीं था कि बात क्या करनी है! मुझे उससे कुछ कहना अवश्य था, पर क्या, यह याद करने पर भी याद नहीं आ रहा था। याद विस्मृति के कैदखाने में कैद हो गई थी।
‘‘आपका मोबाइल बज रहा है।’’ किसी ने पास से गुजरते हुए कहा।
‘‘क्या?’’
‘‘क्या सुना नहीं आपने! आपका मोबाइल बज रहा है।’’ वह जोर से चिल्लाया।
मैंने मोबाइल कान पर लगाया। दूसरी ओर कोई नहीं था। घूँ घूँ की आवाज भी नहीं। सिर्फ सन्नाटा बज रहा था... या कहीं उस ओर मैं ही तो नहीं था!
क्या मैं दुनिया से कट चुका था?
***
पाँच
मैं कपड़े उतार कर समुद्र की दिशा में चलने लगा। तैरना मुझे आता था, पर मैं भूल जाना चाहता था। जब तैरना आता हो, तब डूबना सबसे कठिन काम होता है। मरना और भी कठिन। समुद्र यह सब नहीं जानता। वह अपनी परिचित ठाठें मारता रहा, बार-बार मुझे किनारे की ओर फेंकता रहा। मुझे लगा, जैसे मेरे और उसके बीच द्वंद्व चल रहा हो। मैं समुद्र में समाना चाह रहा था और वह किनारे फेंकना। पर मेरे मन में चल रहा अंतर्द्वंद्व इस द्वंद्व की तुलना में कहीं अधिक विकराल था।
जब होश आया, मैं किनारे पर पड़ा हुआ था, अजनबी लोगों से घिरा हुआ, जो मेरे पेट में भरा पानी निकाल रहे थे। मैंने स्वयं को पहचानने की कोशिश की। हाँ, वह मैं ही था। मैं कल शाम घटी घटना में बेतरह भीगा हुआ। समुद्र सिर्फ मेरी देह ही भिगो पाया था। मुझे बचाने वाले भी सिर्फ देह पहचानते थे। वे मुझे बचाना चाहते थे। पर वे नहीं जानते थे कि वे केवल मेरी देह को बचा सकते थे, मुझे नहीं।
मैं बचने की सीमा से बाहर था।
***
छह
जीवन मिलता है पर नहीं मिलता। मृत्यु मिलती है पर नहीं मिलती। आप किनारे पर खड़े लहर की प्रतीक्षा करते रहते हो, किसी याचक की तरह उतना नहीं, जितना उस खाली इन्सान की तरह, जिसने अपना सब कुछ खो दिया हो। खाली होकर कितना खाली हुआ जा सकता है, यह आप भरे हुए समुद्र के किनारे खड़े होकर ही जान सकते हो। प्रतीक्षा पाप है, भले ही वह लहरों की हो। यह खुद के प्रति किया गया अक्षम्य अपराध है। प्रतीक्षा करते हुए आप न जाने कितने खूबसूरत पलों को गंवा देते हो और इस अपराध की सज़ा आप स्वयं को तब तक देते रहते हो, जब तक सज़ा, सज़ा होने का अहसास खो नहीं देती।
***
सात
समुद्र तट पर अब मैं अकेला रह गया हूँ। कुछ देर बाद मैं उठूँगा और चल दूँगा। किसी दिशा विशेष की ओर नहीं, कहीं भी, जहाँ कदम अपने आप चल पड़ेंगे। चलने पर मेरा नियंत्रण नहीं होगा और शायद दृश्य भी दृष्टि से बाहर चले जाएँगे। उनकी जगह केवल सफेद धब्बा रह जाएगा। यह संवेदनाओं के खोने की पहली दस्तक होगी। पर शायद ऐसा नहीं हो! इस बारे में मैं निश्चित नहीं हूँ। धब्बे के उस पार शायद कोई मुझे बुला रहा होगा, अपने रंगीन दस्ताने वाले हाथ हिलाकर। मैं उस ओर चलने लगूँगा। इसलिए नहीं कि मेरा वहाँ जाना जरूरी होगा, बल्कि इसलिए कि अपने को विश्वास दिला सकूँगा कि मेरी संवेदनाएँ अभी मरी नहीं हैं।
उसके आस-पास बहुत से लोग होंगे पर मैं उसे उसके दस्तानों के रंग से पहचान लूँगा। उससे मैं गर्मजोशी से हाथ मिलाऊँगा, जैसे उसे एक लम्बे अरसे से जानता हूँ। फिर हम संवाद की प्रतीक्षा करते हुए एक दूसरे को चुपचाप ताकते रहेंगे। आखिरकार ऊब कर मैं उससे मौसम का हाल पूछूँगा, हालांकि इससे कोई अन्तर नहीं पड़ेगा कि दिन गर्म रहने वाला है कि ठंडा। संवाद शुरू करने के लिए कोई तो विषय चाहिए होता है। मौसम सबसे अधिक सुविधाजनक और सुलभ विषय होता है।
मौसम की बातों से ऊब कर मैं सड़क के बारे में बात करूँगा। मैं कहूँगा कि इस पर चल कर कहीं पहुँचा जा सकता है, जबकि शायद वह गड्ढ़ों की बात करना पसंद करे! इससे कम से कम जीवन के प्रति हमारे अलग-अलग दृष्टिकोणों का तो पता चल सकेगा।
जल्दी ही हम संवादों से ही नहीं, एक दूसरे से भी ऊब जाएँगे। न वह मेरी यातना कम कर सकेगा और न मैं उसकी। फिर वह अपने रास्ते चला जाएगा और मैं भी कहीं चल दूँगा।
पर कहाँ?
***
आठ
मैं वह सब पीड़ा बहा देना चाहता था, जो कल शाम मेरे हिस्से अनायास ही आ गयी थी। समुद्र ने उन्हें स्वीकार करने से मना कर दिया था। मुझे पहली बार लगा कि वह तो खुद ही किसी अपरिचित पीड़ा का मारा हुआ है! शायद निरन्तरता की। बिना एक पल भी ठहरे लगातार पछाड़ें खाने की निरन्तरता से उत्पन्न पीड़ा से आहत। न मौसम उसे विश्राम दे सकते हैं, न हवाएँ और न ही बारिशें... तारे, चाँदनी और आकाश तो बिल्कुल भी नहीं।
जब इतना महाकाय समुद्र अपनी पीड़ा स्वयं भोगता है, तो फिर उसके सामने मैं तो चीज ही क्या हूँ!
***
नौ
जिस शाम मैं उससे पहली बार मिला था, वह मुझे अच्छी तरह याद है। हमेशा की तरह मैं कमरे में था और कुछ भी नहीं सोच रहा था। खिड़की से बाहर दुनिया थी, जिसे मैं कभी समझ नहीं सका था। हर रोज खिड़की खोलते ही वह भी एक पहेली की तरह खुल जाती थी, जिसे सुलझाने में मेरा पूरा दिन निकल जाता था। यह एक ऊब भरा काम था पर अन्य लोगों की तरह मुझे करना पड़ता था।
मैंने सोचा कि मैं बाहर जाऊँ और एक सिगरेट पीऊँ। हालांकि ऐसी कोई खास तलब नहीं थी, पर मैं उठा, पूरी तरह तैयार हुआ, मानो कोई अतिमहत्वपूर्ण काम करने बाहर जा रहा हूँ। यह सब अनायास ही हुआ। मैं नहीं, पर मेरा तैयार होना जानता था कि मैं उससे मिलने वाला था। शायद मेरी पेंट, कमीज और जूते भी जानते होंगे!
सिगरेट की दुकान एक मोबाइल की दुकान से सट कर थी। वह वहाँ अपने मोबाइल में कोई एप डाउनलोड करवाने आई थी। उसे डाउनलोड करना नहीं आता था। वह कोई म्यूजिक एप था, पियानो बजाने का, जैसा कि उसने मुझे बाद में बताया था। जितनी देर एप डाउनलोड होता रहा, वह कनखियों से मुझे देखती रही थी। मैं भी उसे देखने से स्वयं को रोक नहीं पा रहा था। न इसमें मेरा कोई दोष था, न उसका। वह उम्र होती ही कुछ ऐसी है।
अपने कमरे में लौट कर मैं बराबर उस लड़की के बारे में सोचता रहा, जो मोबाइल पर पियानो का एप डाउनलोड कराने आई थी। उसने पीले रंग की पोशाक पहन रखी थी, जिस पर छोटे-छोटे फूल बने हुए थे। वह मुझे मोहक लगी थी। इतनी, जितनी पहले कभी कोई लड़की नहीं लगी थी। कमरा घोर आश्चर्य से मुझे उसे याद करते हुए देख रहा था। वह मुझे ऐसा करते देखने का आदी नहीं था। उसके आश्चर्य को देखकर जाना कि आश्चर्यचकित मैं भी था, कि यह मुझे क्या हो गया था!
और उस दिन पहली बार मैंने चाहा था कि काश! वह लड़की मेरे अकेले कमरे को अपनी उपस्थिति से भर सके। मेरा मन कर रहा था कि मैं उसे वह सब दे दूँ, जो मैंने आज तक किसी को नहीं दिया था। मैं उसे सारे संसार का सौन्दर्य देना चाहता था, झिलमिलाते तारों की महक देना चाहता था, चुपचाप झरती चाँदनी रातों की मदहोशियाँ देना चाहता था, दहकते फूलों का खिलना देना चाहता था, बावरी तितलियों की उड़ानें देना चाहता था, रूई के फायों सी गिरती बर्फ का नर्म अहसास देना चाहता था, शीतल रातों का सम्मोहन देना चाहता था, खुशनुमा शामों का संगीत देना चाहता था...।
मैं स्वयं को उसे देना चाहता था।
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दस
दूसरे दिन वह लड़की उसी दुकान पर ठीक उसी समय फिर मिली। उसके बाद तीसरे दिन भी मिली और फिर चौथे दिन भी। आखिर वह दिन भी आया, जब उसने मेरे कमरे को अपनी उपस्थिति से भरा।
मैं उसे देख चुका था, पर कमरे ने उसे पहली बार देखा था।
मेरे कहने पर उसने मोबाइल पर पियानो बजाया, एक नौसिखिए की तरह। पर मैं प्रभावित हो गया था, क्योंकि मैं तो उतना भी नहीं जानता था। वह एक उदास सी धुन बजाया करती थी, जिसके पीछे छिपा गीत एक फूल के बारे में था, जो खिलते ही मुरझा गया था। मैं न तो धुन जानता था और न ही गीत। पर उसे सुन कर उदास हो जाया करता था। मेरी उदासी दूर करने के लिए वह मेरा हाथ पकड़ लिया करती थी और तब तक पकड़े रहती थी, जब तक हथेलियों का पसीना एक नहीं हो जाता था।
हथेली की लकीरों की धड़कन कैसी होती है, यह तभी जाना था।
***
ग्यारह
‘‘तुमने यह धुन कहाँ से सीखी?’’
‘‘कहीं से नहीं... यह खुद चल कर मुझ तक आई थी।’’
‘‘और तुमने इसे पहचाना कैसे?’’
‘‘अपनी पहचान यह अपने साथ लाई थी...।’’
‘‘क्या तुम इसे मुझे सौंप सकती हो?’’
‘‘नहीं, अभी तुम अभी इस धुन के काबिल नहीं हुए हो।’’
‘‘मैं काबिल कब होऊँगा?’’
‘‘जब तुम इसके पीछे छिपे उदास गीत का अर्थ समझोगे।’’
‘‘मुझे कविता समझ में नहीं आती।’’
‘‘उसे समझना नहीं, जीना पड़ता है।’’
‘‘मैं जीना चाहता हूँ।’’
‘‘उसके लिए तुम्हें धुन सीखनी होगी।’’
‘‘धुन कैसे सीखूँगा?’’
‘‘जब गीत सीखोगे, तब धुन अपने आप सीख जाओगे।’’
‘‘इस तरह तो मैं न धुन सीख पाऊँगा, न गीत!’’
‘‘यह एक दुश्चक्र है, जिसे इसमें घुस कर ही बेधा जा सकता है।’’
‘‘क्या तुम्हारी तरह यह धुन चल कर मेरे पास नहीं आ सकती?’’
‘‘नहीं।’’
‘‘क्यों नहीं?’’
‘‘मुझ तक आई, क्योंकि मैं गीत समझती थी। तुम तक नहीं आ सकती, क्योंकि तुम गीत नहीं समझते।’’
‘‘क्या और कोई दूसरा रास्ता नहीं है?’’
‘‘नहीं, कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’
***
बारह
यही वह लड़की थी, जो कल शाम अंतिम बार मेरे कमरे में आई थी, यह कहने के लिए कि अब वह कभी नहीं आएगी।
***
तेरह
क्या मैं किसी स्वप्न में था? एक सुखद स्वप्न, जो आप जीवन में केवल एक बार देखते हैं या फिर कहीं वह सब भ्रम तो नहीं था? ऐसा भ्रम, जो भ्रम में नहीं होने का भ्रम देता हो! मैंने कमरे से पूछा, खिड़की से पूछा, छन कर आती हुई धूप से पूछा, पियानों की छूटी हुई धुन से पूछा, उस न समझ में आने वाले गीत से पूछा, लड़की की आती-जाती पदचापों से पूछा, अर्धविरामों से भरी अपनी दु:खद कहानी से पूछा... और थक कर स्वयं से भी पूछा। कोई भी उत्तर देने की मन:स्थिति में नहीं था। अनुत्तरित प्रश्न अन्य दुरूहतर प्रश्नों के जन्म के कारण बन गए थे।
जो घटा, अवश्य स्वप्न और भ्रम के बीच का कुछ अनकहा और अनसुलझा रहा होगा, जिसने इन दोनों के बीच का अन्तर पाट दिया था। वैसे नहीं, जैसे किसी नाले को पाटा जाता है, बल्कि जैसे ग़ज़ल के दो मिसरों को खयाल से पाटा जाता है। दु:ख तो यह था कि मैं किनारे खड़ा रह गया था। नदी बहती जा रही थी और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ उसे ताकने के अतिरिक्त कुछ नहीं कर सका था।
वह चली गई थी और मैंने उसे जाने दिया था।
***
चौदह
अकेलापन मुझे उपहार में मिला था। शुरू से ही मुझे अपना एकांत बहुत प्रिय रहा है, लेकिन कल शाम की यन्त्रणादायक घटना के बाद कमरे में ठहर पाना भी कठिन काम हो गया था। सुकून का एक भी कतरा कहीं मौजूद नहीं था, न कमरे में और न ही कमरे से बाहर। तब पहली बार जाना कि सम्पूर्ण वीराने का अहसास कैसा होता है। यह वीराना नीरवता का पर्याय नहीं होता, वरन् एक गहन शून्य का द्योतक होता है, जहाँ अनुभूतियाँ, अभिव्यक्तियाँ, अहसासात और अनुभव कोई अर्थ नहीं रखते।
***
पंद्रह
अक्सर मुझे लगा करता था कि मैं एक दरवाजा बंद करूँगा, तो दूसरा अपने आप खुल जाएगा... और यही वह दरवाजा होगा, जहाँ बिना दस्तक दिए अन्दर जाया जा सकेगा। पर कल शाम बिना मेरे बंद किए ही एक दरवाजा बंद हो गया था और किसी दूसरे ने खुलने से इन्कार कर दिया था। देखा जाए तो मैं उसे ढूँढ़ना चाहता भी नहीं था, क्योंकि मैं जानता था कि एक दिन आएगा, जब दूसरा दरवाजा भी बिना चेतावनी दिए बंद हो जाएगा। यह एक त्रासदी थी, जो मेरे जीवन में अनेक बार घटित होती रही थी।
पर मैं उम्मीदबर था कि कभी-न-कभी किसी अपरिचित घर का दरवाजा सहसा खुलेगा और कोई हाथ मुझे भीतर खींच लेगा।
***
सोलह
मेरी आँखें बन्द थीं और मैं लगातार चलता जा रहा था। जहाँ मैं पहुँचा, वह एक पुरानी गली थी, जिसके दोनों ओर पुराने मकानों की लम्बी कतार दूर तक चली गई थी। पुराने घरों में पुराने लोग पुरानी स्मृतियों की पुरानी पोटलियाँ सँभाले हुए रह रहे थे। मैं उस जगह को अपनी आँखें बन्द होने के बावजूद भी पहचान गया था। पहचान के लिए उस जगह की गंध, हवा और आवाजें काफी थीं। वहाँ एक घर था, जिसका दरवाजा मेरे लिए कभी बंद नहीं होता था। उसे मैं अपना ‘दूसरा घर’ कहता था, पर एक दिन मैंने पाया कि वहाँ रहने वाला शख्स अचानक बिना बताए विदेश चला गया था। दरवाजे पर काँटे उग आए थे, जिसे छूने मात्र से लहू बहने का खतरा सहज ही महसूस किया जा सकता था।
पर मैं तो बिना स्पर्श किए ही लहूलुहान हो गया था।
***
सत्रह
मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरे साथ यह सब घटित होगा, पर हुआ। मैंने कभी नहीं सोचा था कि हम अलग होंगे, पर हुए। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं बीस तक गिनूँगा और सुख नहीं लौटे आएँगे, पर वे नहीं लौटे।
कभी नहीं अब सचमुच के ‘कभी नहीं’ में बदल चुका था। अब मैं प्रतीक्षा की वैसी ‘प्रतीक्षा’ कभी नहीं कर सकूँगा, जैसी किया करता था। प्रतीक्षा जीवित थी, पर वह प्रतीक्षा मर चुकी थी, जो मैं किया करता था। प्रतीक्षा का भाव अब मुझसे बाहर खड़ा कातर निगाहों से मुझे ताक रहा है।
वह समय अभी दूर नहीं जा पाया था, जब प्रतीक्षा को प्रतीक्षा की प्रतीक्षा हुआ करती थी।
***
अठारह
सड़क पर सूखे पत्ते बिखरे हुए थे, आवारा डोलते हुए। वे हवा की पीठ पर सवार होकर आए थे... क्या मुझे उन्हें गिनना चाहिए? और मैं सचमुच उन्हें गिनने लगा। इसलिए नहीं कि इससे मुझे कुछ हासिल होने वाला था, बल्कि इसलिए कि इससे वह पीड़ादायक समय कटने वाला था, जो अकारण ही मेरे हिस्से में आ गया था।
प्रत्येक चीज के प्रति मेरी विरक्ति इतनी सघन थी कि विरक्ति के प्रति भी मैं विरक्त हो चला था। यह विरक्ति मुझे डराती नहीं थी, बल्कि कुछ भी नहीं करने के लिए उकसाती अवश्य थी। यह पहली बार जाना कि विरक्त होकर अतिरिक्त रिक्त हुआ जा सकता है, बशर्ते कि भीतर उलीचने के लिए कुछ शेष नहीं रह गया हो। मुझमें कुछ भी शेष नहीं रहा था, राख भी नहीं। सिर्फ भरा जा सकता था, एक रिक्तता को दूसरी रिक्तता से।
मैं सड़क किनारे देर तक खड़ा रहा और अ-प्रतीक्षा करता रहा। मुझे कोई जल्दी नहीं थी और न ही मुझे किसी जगह विशेष जाना था। समय का बीतना उतना मायने नहीं रखता था, जितना खुद का बीतना। शायद मैं खो गया था और स्वयं को ढूँढ़ रहा था। जितना बाहर, उतना ही भीतर। पर कहीं भी मेरा पता नहीं लग पा रहा था। पहचान के सारे परिचित चिन्ह अपरिचित हो चुके थे। दस्ताने पहने हुए वह हाथ भी अदृश्य हो गया था, अपने उन तमाम संकेतों के साथ, जो उसने मुझे बुलाने के लिए किए थे। उसे मैं भला क्या दोष देता! जिसे मैं अपने सबसे अधिक पास मानता था, जब वह ही मुझे वीरान छोड़ कर चली गई थी, तो दस्ताने वाले हाथ की चर्चा करना ही अश्लीलता है।
सूखे पत्ते मुझे घूर रहे थे, मानो उन्हें पेड़ से तोड़ने का अपराध मैंने ही किया हो। हो सकता है, किया भी हो!
कल शाम से मैं अपने में हूँ भी कहाँ!
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उन्नीस
प्रेम में होना बड़ा सुख होता है। इतना बड़ा कि वह आपके दु:खों सहित दूसरे तमाम महत्वपूर्ण क्रियाकलापों को भी भुला देता है। आप उसमें इतने डूब जाते हैं कि भुला देने की आदत तक भूल जाते हैं... और उन अवसरों को भी, जो आपकोे कहाँ से कहाँ पहुँचा सकते थे! लेकिन आप अवसरों को भुनाने की परवाह नहीं करते, क्योंकि आप सिर्फ प्रेम करते हैं। अजीब बात तो यह है कि जब प्रेम आता है, सबसे पहले आपका अकेलापन और स्वतन्त्रता को हर लेता है और आपको पता भी नहीं चलता।
***
बीस
जब भी वह मेरे कमरे में आती, उसके हाथ में कोई न कोई किताब अवश्य होती। वह उसमें से पढ़ कर मुझे कविताएँ सुनाती, जिनका एक भी अक्षर मुझे समझ में नहीं आता। मैं उनकी प्रशंसा करता। वह समझ जाती कि मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया था। पर वह एक छोटी बच्ची की तरह खुश हो जाती या खुश हो जाने का बहाना करती।
उसके जाने के बाद मैं उन कविताओं को याद करने का प्रयास करता। मैं उनके अर्थ तक पहुँचना चाहता था और जानना चाहता था कि आखिर उन कविताओं में ऐसा क्या था कि वह जब आती थी, उन्हें मुझे सुनाया करती थी। पर कभी कुछ भी समझ में नहीं आता था। बस, यह समझ में आता था कि अभी कुछ देर पहले वह यहाँ कमरे में थी और मैं उसका होना महसूस कर सकता था।
***
इक्कीस
क्या कोई ऐसा दिन हो सकता है, जिसे मनचाहे तरीके से भरा जा सके! जब वह बिना किसी से पूछे रात में ढल रहा हो और रात बिना किसी निमन्त्रण के मन के दरवाजे पर दस्तक दे रही हो। उसकी तारों भरी झिलमिलाती चुनरी के बीच चाँद किसी सुहागन की बड़ी-सी बिन्दी सा चमक रहा हो। बीच में सहमे खरगोश-सा दुबका हुआ छोटा-सा शाम का समय अपनी तमाम संवेदनाओं के साथ सिर उठा भी नहीं पा रहा हो कि फिर कहीं गुम हो जाए!
शहर की छत से मैं उसे निर्विकार भाव से देखता रहा, जो मेरे पाँवों के नीचे अपने सम्पूर्ण स्पन्दन के साथ पसरा हुआ था। इतनी ऊँचाई से मैं उसमें बसी अपनी उस आत्मीय दोस्त को ढूँढ़ने की कोशिश करता रहा, जो अभी भी वहीं कहीं होगी। वह थी पर मेरे लिए नहीं थी। एक लम्बे अरसे तक जिन धागों ने मुझे उससे जोड़ रखा था, उनका एक भी चिन्ह दिखाई नहीं दे रहा था। कल शाम से अब तक का समय एक न भरी जा सकने वाली खाई की मानिन्द गहराई तक खुदा हुआ था।
यह वही शहर था, जहाँ मेरे जीवन के सबसे खूबसूरत दिन मेहमान बन कर मिले थे। वे दिन सिर्फ इसलिए खूबसूरत थे, क्योंकि वह उन दिनों में शामिल थी, जिसका नाम प्रतीक्षा था... और जैसे एक दिन मेहमान चले जाते हैं, कल शाम वह भी चली गई थी। मैं उसे रोकना चाहता था, लेकिन उसने चले जाने का निर्णय ले लिया था। सारा शहर उदासीन भाव से उसे जाते हुए देख रहा था। वह चाहता तो उसे जाने से रोक सकता था, पर उसने ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। पहली बार मुझे अपना परिचित शहर अपरिचित लिबास में खड़ा नजर आया था।
यह सब मैंने तब सोचा, जब मैं शहर की सबसे ऊँची छत पर खड़ा अपने से बात कर रहा था...। इतने समय तक मेरे साथ रहने के बाद भी क्या वह मुझे अजनबी की तरह महसूस किया करती थी? या कहीं ऐसा तो नहीं था कि मैं ही दुकान पर खड़े सिगरेट फूँकने वाले अजनबी व्यक्ति से आत्मीय होने की यात्रा तय नहीं कर सका था?
उतरना आसान होता है, बशर्ते कि आप ऊँचाई पर हों। मैं प्रेम के उच्चतम शिखर पर था और मेरा खयाल है कि वह भी थी। उसने उतरना चुना... और मुझे वहीं छोड़ कर उतरना चुना। निर्णय उसका था। उसने मुझे निर्णय लेने की साझा प्रक्रिया से बाहर कर देने का निर्णय भी स्वयं ही ले लिया था।
क्या उस अतीत को जीवित किया जा सकता है, जो अभी पूरी तरह अतीत बना भी नहीं हो?
***
बाईस
शाम होते ही पसलियों में कुछ होने लगता था। उन कोमल घड़ियों में उसकी उपस्थिति आवश्यक हो जाया करती थी, लेकिन उसकी उपस्थिति हर शाम संभव नहीं हुआ करती थी, पर जब होती थी, तो शाम के रंग से अलग एक दूसरा ही रंग कमरे में बिखर जाया करता था। वह इन्द्रधनुष के सात रंगों से अलग ही कोई रंग हुआ करता था...। उस रंग में उसकी खुश्बू होती थी, उसके पियानो की धुन होती थी और वह उदास गीत भी हुआ करता था, जिसका अर्थ मैं कभी समझ नहीं सका था।
उसके साथ छोटी शाम सिमट कर और भी छोटी हो जाया करती थी। सारे दिन की ऊब और प्रतीक्षा पिघल कर बहने लगती थी। परछाइयों को जहाँ जगह मिलती, वहीं छिप जाया करती थीं। उन्हें उतरती शाम से डर लगता था। वे जानती थीं कि शाम आहिस्ता-आहिस्ता रात में बदल जाएगी और गहराते अँधेरे के साथ ही उनका अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा।
हम प्राय: छत पर चले जाते और शाम को बुझता हुआ देखा करते थे। उन्हीं दिनों जाना कि बात करने के लिए बात करना ज़रूरी नहीं होता। चुप रह कर बेहतर संवाद किए जा सकते हैं...। उसके साथ मैं खो सा जाता था, उसमें या मुझमें नहीं, बल्कि किसी तीसरी इकाई में, जिसका अस्तित्व पता नहीं, था भी कि नहीं!
कभी-कभी वह दिन में घटी कोई विचित्र-सी घटना सुनाने लगती। मैं उसे सुनकर भी कुछ सुन नहीं पाता था। शाम की अभेद्य नीरवता में उसकी आवाज सुनना भला लगता था। यही काफी होता था कि वह मेरे पास बैठी हुई है और मैं उसके। यह क्या कम बड़ी बात थी कि मैं उसे सुन सकता था! पर ढलती शामें मेरी तरह लापरवाह नहीं होतीं। उन्होंने उसकी घटनाओं को अवश्य ध्यान से सुना होगा और उन्हें अपने निजी गुल्लक में छिपा भी लिया होगा। किसी दिन उसके कहे को सुनने के लिए उस गुल्लक को ढूँढ़ कर फोड़ना होेगा।
मैंने उस समय को याद करने का प्रयास किया और यह जानकर हैरान रह गया कि वे दिन अभी बहुत दिन दूर नहीं गए हैं। वे उस सीमा रेखा तक भी नहीं पहुँचे हैं, जहाँ से अपरिचय का देश शुरू होता है।
***
तेईस
शायद कोई दिन आए, जब मैं इस शहर को छोड़ कर कहीं चला जाऊँ - कहीं भी, जहाँ पीछा करने वाला कोई नहीं हो, न कमरा, न छत, न शामें, न स्मृतियाँ...। यहाँ तक कि प्रतीक्षा की प्रतीक्षा भी नहीं...। तब मैं उस उदास गीत के बारे में कुछ नहीं सोचूँगा, न ही पियानो की धुन के बारे में और न ही अपनी मर्मान्तक पीड़ा के बारे में।
फिर मैं स्वयं को किसी पेड़ पर टाँग दूँगा, ताकि हवा में सुखा कर खुद को फिर से पहन सकूँ, हालांकि वहाँ उम्मीद को भी कोई उम्मीद नहीं होगी।
***
चौबीस
आप अपने कमरे में अकेले रह सकते हैं, बशर्ते कि यह कला आपने समय के क्लास रूम में बैठ कर ध्यान से सीखी हो। वहाँ कोई नहीं होता। कई बार आप खुद भी नहीं। अपने एकांत क्षणों में स्मृतियों को टटोलना कुछ ऐसा होता था, मानो आप पुराने जीवित एलबम के पन्ने पलट रहे हों। पृष्ठ पलटते ही वह उन पृष्ठों से बाहर निकल आएगी, जैसे उसके घर के बंद दरवाजे खोल दिए गए हों। उसने पुरानी तस्वीर वाले कपड़े पहने हुए होंगे। वह मुस्कराएगी और कहेगी कि समय सिर्फ आगे ही नहीं भागता, पीछे की ओर भी सरकता है।
पर मैं जानता था कि यह एक दिवास्वप्न है। लौटता कोई नहीं। जिन्हें लौटना होता है, वे कभी जाते नहीं। कम से कम उस तरह तो नहीं जाते, जिस तरह वह गई थी। और वह जिस तरह गई थी, उस तरह कोई जाता नहीं। क्या उसका साथ एक नाटक जैसा था, जिसमें मैं एक निरीह पात्र की तरह अभिनय करने के लिए अभिशप्त था और नाटक समाप्त होने के बाद मुझे फेंक दिया जाने वाला था?
‘‘आप रास्ते के बीचोंबीच खड़े हैं।’’
‘‘अजीब आदमी हैं आप? सड़क कैसे क्रॉस की जाती है, इतना भी नहीं जानते!’’
‘‘या तो आप इस ओर आइये या उस ओर जाइये, भटक क्यों रहे हैं?’’
‘‘क्रॉसिंग पर लाल लाइट पहले नारंगी रंग में बदलती है, फिर हरी होती है, इतना तो पता ही होगा!’’
‘‘क्या दिन में ही चढ़ा रखी है?’’
‘‘मरना है तो कहीं और जाकर मर। हमें जीते जी क्यों मार रहा है?’’
मैं सड़क के बीच में खड़ा हुआ था, ट्रैफिक और शोर-शराबे के बीच। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि घर से इतनी दूर आकर भी इतना अकेलापन महसूस किया जा सकता है! दुनिया पहचान से बाहर चली गई थी और मैं हैरानी से उसे ताक रहा था। हालांकि अकेला रह जाने पर मुझे अच्छा ही महसूस हो रहा था। यह उस अकेलेपन से अलग था, जो मुझे अपने कमरे में महसूस हुआ करता था। इस अनायास मिले नए प्रकार के अकेलेपन ने मुझे उस परिचित अकेलेपन से दूर कर दिया था। यह खुशी से लकदक घटना थी कि त्रासदी, यह समझ में आना कठिन था। मैंने स्वयं को हवाओं के हवाले कर दिया था। कहीं भी ले जाएँ, उनकी मर्ज़ी।
***
पच्चीस
वह आती थी और प्रतीक्षा की प्रतीक्षा समाप्त हो जाया करती थी। उसके साथ मिला सुख एक अप्रतिम किस्म का सुख होता था, जिसका अन्यत्र कहीं मिल पाना सम्भव नहीं था। वह सुख उसके मेरे पास होने का सुख था, उसकी देह से इतर एक अद्भुत कोमल अहसास से जुड़ा हुआ सुख था। जब वह आती थी, उस सुख के दरवाजे अपने आप खुल जाया करते थे। मैं अपने हृदय के सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ उसका स्वागत करता था और उसे अपने मन के सबसे सुन्दर कमरे में बिठाया करता था। समय दरवाजे के बाहर उसके लौटने की प्रतीक्षा किया करता था। वह लौटती, तो उसके साथ आया हुआ सुख वहीं छूट जाता था।
उसके जाने के बाद मैं उन लम्हों को बार-बार जीया करता था, मानो यह कोई महत्वपूर्ण काम हो, जिसे पूरा करना उतना ही आवश्यक हो, जितना कि साँस लेना। कमरे की चाहरदीवारी में वे मुझसे बतियाते रहते थे। कमरा और चाहरदीवारी चुपचाप मुझे बतियाते देखा करते थे। और तब मुझे एक अपरिमित खुशी घेर लिया करती थी। प्रेम में होने की खुशी। अपने से ज्यादा किसी दूसरे को चाहने की खुशी...। और यदि आपने कभी प्रेम किया है, तो जान जाएँगे कि यह एक अद्भुत अहसास होता है कि कोई आपसे प्रेम करता है। प्रेम में महत्वपूर्ण यह नहीं होता, कि आप किसी को चाहते हो, बल्कि यह होता है कि कोई आपको चाहता है। तब आप विशेष व्यक्ति होने का दर्जा पा जाते हैं।
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छब्बीस
सबसे बुरे पल तो वे होते थे, जब उसे आना होता था और वह नहीं आती थी। मन में अनिश्चय बिना कुण्डी खटखटाए घुस आता था। अनिश्चय यह नहीं कि वह आएगी कि नहीं, बल्कि यह कि वह मुझसे प्रेम करती भी है कि नहीं! कहीं उसे कोई दूसरा प्रेमी तो नहीं मिल गया? और तब जल्दी ही अनिश्चय डर में बदल जाता था। एक भयावह किस्म का डर, जो उसे खो देने से जुड़ा होता था। मैं खुद को तसल्ली दिया करता था कि इतनी बेताबी ठीक नहीं। वह आ जाएगी। आज नहीं आ पाई, तो कल आ जाएगी। फिर वह इतनी भी खूबसूरत नहीं कि उसके पीछे लड़कों की लाइन लगी हो... पर मुझे यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि उसमें कुछ ऐसी अद्भुत कशिश थी, जो मैंने उससे पहले किसी दूसरी लड़की में महसूस नहीं की थी। उसने मेरी अँधेरी रातों को अपने उजाले से छुआ भर था कि वे मुरझा कर बुझने लगी थीं। उसके आते ही कमरे की ठहरी हुई हवा कोई दिव्य स्वरलहरी-सी मंद-मंद बहने लगती थी, सारा फर्नीचर खुशी से गमकने लगता था और मैं किसी नई-नकोर किताब की तरह महकने लगता था।
और जब मैं उसकी प्रशंसा करता, वह किसी नवयौवना की तरह शर्मा जाती थी या शरमाने का बहाना किया करती थी, ताकि मैं उसे और अधिक तवज्जो दे सकूँ। पर यह तो निश्चित था कि उसे अपनी प्रशंसा सुनना भला लगता था। शब्द एक सीमा तक हर किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। मैं भी उसे प्रभावित करना चाहता था, लेकिन यह नहीं चाहता था कि वह बदले। क्योंकि किसी को बदलने के लिए खुद को छील कर दूसरे के सामने परोसना पड़ता है। मेरे शब्द उसे पिघला देते थे, जैसे ज़रा सी गर्मी पाते ही घी पिघलने लगता है।
मुझे याद नहीं कि मैंने कभी उसका फायदा उठाने का कोई प्रयास किया हो। वह मुझे छुई-मुई की नाजुक डाली-सी महसूस हुआ करती थी, जिसके पत्ते हाथ के बेहद कोमल स्पर्श से भी मुरझा जाते हैं। मुझे डर था कि वह कहीं मुझे गलत न समझ ले और रिश्ता जुड़ने से पहले ही बिखर न जाए।
कहीं ऐसा तो नहीं, कि उसने मुझे कापुरुष समझ लिया हो, अधूरा और अपरिपक्व, और मुझे छोड़ देना ही उसे बेहतर लगा हो! शायद इस विचार से उसके मन में खिले फूल मुरझा गए हों! संभव है कि वह मुझ तक पूर्ण पुरुष की तलाश में आई हो, लेकिन मुझे वैसा नहीं पाकर घनघोर निराशा का शिकार हो गई हो! और तब उसे मुझे छोड़ने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प दिखाई नहीं दिया हो!
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सताईस
लगातार प्रेम दिए चले जाने से आप धीरे-धीरे खाली होने लगते हो और जब देने को कुछ नहीं बचता, तो वह देने की कोशिश करने लगते हो, जो पास होता ही नहीं है...। और यदि होता है, तो आधा-अधूरा। अपने अधूरेपन के कारण यह देना एक अर्थहीन प्रयास बन कर रह जाता है। देते-देते बर्तन कब खाली हो जाता है, कुछ पता नहीं चलता... और जब लेने वाले को कुछ अतिरिक्त नहीं मिलता, तो वह विरक्त हो जाता है और अकस्मात उगी एकरसता से ऊब कर उसे आपको छोड़ने का एक ठोस बहाना मिल जाता है।
मैं उसे वह सब सौंपना चाहता था, जो मेरे जीवन में सर्वोत्तम था, मेरे सुख, मेरे सपने, मेरी आकांक्षाएँ, मेरी चाहनाएँ... मैंने कोशिश की भी थी। यह सबने देखा था, कमरे ने, खिड़की ने, हवाओं ने, खिड़की से दिखते दृश्यों ने, उसके पियानो की धुन ने और उदास गीत ने... यहाँ तक कि जली, बिना जली सिगरेटों ने भी।
जो मैंने उसे दिया, उसे उसने ठुकराया था कि नहीं, यह मैं नहीं जानता था, लेकिन इतना अवश्य जानता था कि उसने कम से कम मुझे तो ठुकरा ही दिया था। मेरी देह को, आत्मा को और प्रेम को भी ठुकरा दिया था, वह बिना माँगे ही मुझे अकथ यन्त्रणा दे गई थी। ऐसी यन्त्रणा, जिसका कोई ओर-छोर नहीं था। मुझे लगा था कि मेरी पीड़ा हरने के लिए यह सारी धरती भी कम पड़ेगी। कोई ऐसी जगह दिखाई नहीं दे रही थी, जहाँ पहुँचते ही मन में जमी पीड़ा पिघल कर बहने लगे।
मन कचोटने लगा था। इसलिए नहीं कि मैं अस्वीकार कर दिया गया था, बल्कि इसलिए कि मैं अपना अस्वीकृत होना स्वीकार नहीं कर पा रहा था। मैंने उसके लिए क्या कुछ नहीं किया था! यहाँ तक कि अपना होना भी उसमें समाहित कर दिया था। केवल देह बची थी, क्षत-विक्षत... और यातना सहने के लिए मन। काश! कोई ऐसा तरीका होता, जिससे देह और मन कोे अलग-अलग महसूस किया जा सकता, दो अलग-अलग इकाइयों की तरह। तब देह के दु:ख अलग होते और मन के अलग। कम से कम मैं इसी प्रकार महसूस करना चाहता था। देह की पीड़ा से मुक्ति पाई जा सकती है, पर मन की पीड़ा! इससे निजात पाना सहज सम्भव नहीं होता। आदमी पीड़ा के चक्रव्यूह में उलझ जाता है, जिससे बाहर निकल पाने के प्रयास में वह तमाम उम्र मैरी गो राउण्ड की तरह वृत्ताकार चक्कर काटता रहता है। इतना कि अपनी पीड़ा भी असह्य बोझ लगने लगती है।
पीड़ा ही नहीं, मुझे अपना यूँ लगातार सोचते चले जाना भी बोझ लगने लगा था। निजात कहीं नहीं थी।
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अट्ठाईस
जिन रास्तों पर मैं कभी चला था, वे मुझे अपरिचित लगने लगे थे। सहसा विश्वास कर पाना कठिन हो रहा था कि जो रास्ते कल तक इतने खुशनुमा थे, कल शाम के बाद अचानक इतने यन्त्रणादायक कैसे हो गए थे! किसी एक के हमेशा चले जाने से सारी खुशियाँ कैसे बिखर जाती हैं, यह अहसास मुझे पहली बार हुआ था। जब वह आती थी, तब मैं उसके जाने के बारे में कभी नहीं सोचता था, पर उसे जाना होता था। जाने से पहले मैं उसे उससे चुरा कर कुछ न कुछ अवश्य बचा लिया करता था। शायद वह भी मेरा कुछ अंश चुरा कर ले जाती हो! चुराया हुआ वह ‘कुछ’ उसके जाने के बाद अपने एकान्त क्षणों में मुझसे बातें किया करता था। मुझे लगता था कि मेरे पास कुछ है, नितांत मेरा अपना, जिसका किसी से कोई साझा नहीं किया जा सकता।
यह तो मैंने बाद में जाना कि उसने चुराना तो दूर मुझसे चुपचाप दूरियाँ बनाना शुरू कर दिया था और इस बात की मुझे कभी भनक तक नहीं लगी थी, क्योंकि मैंने कभी भी बिछुड़ने के विषय में सोचा ही नहीं था। वह मेरा अंतिम सत्य थी, अंतिम विश्वास भी और अंतिम उपलब्धि भी। उसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं बचा था। और जब एक बार तुम किसी को अपने मन में वह जगह दे देते हो, जिसे उसके अतिरिक्त और कोई नहीं भर सकता, तो फिर खाली हो जाने के बाद वह हमेशा के लिए खाली हो जाती है। कोई चमत्कार ही उस जगह को भर सकता है और मुझे चमत्कारों पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं था।
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उन्तीस
मुझे किसी मित्र से मिलना चाहिए। कोई आत्मीय मित्र, जिससे अपना दु:ख साझा किया जा सके। जिससे कहा जा सके कि मैंने अभी-अभी अपनी देह को, आत्मा को और अपने होने को हमेशा के लिए खोया है और एक वीराने में बदल गया हूँ। ऐसा वीराना, जहाँ वीराना भी स्वयं को वीराना-सा महसूस करता है।
पर किससे? याद करने पर भी मुझे अपना एक भी ऐसा मित्र याद नहीं आया, जिसके कन्धे पर सिर रख कर मैं रो सकूँ। यूँ तो शहर में बहुत से परिचित थे, लेकिन एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जो मेरे मन को स्पर्श कर सके, मेरे जीवन में आई भयानक उथल-पुथल पर मरहम लगा सके, मुझे ‘जादू की झप्पी’ दे सके। मित्रविहीन होना भी त्रासदायक हो सकता है, यह पहली बार जाना था।
देखा जाए तो पहले मैं मित्रविहीन हुआ, फिर प्रेमविहीन। शायद अब जीवनविहीन होने की बारी थी।
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तीस
मुझे कहीं जाना चाहिए। किस जगह जाना है, यह आवश्यक नहीं था। आवश्यक था, कहीं जाना। सम्भव है, किसी सुदूर स्थान की यात्रा मुझे अपने से भी दूर ले जाने में सहायक हो!
मेरे सामने 302 नम्बर की बस खड़ी हुई थी और उसमें बैठ कर वहाँ तक जाया जा सकता था, जहाँ तक वह जा रही थी। कोई दूसरे नम्बर की बस होती, तब भी कोई अन्तर पड़ने वाला नहीं था, क्योंकि मुझे किसी खास जगह जाना था भी नहीं। सिर्फ भटकना था, बाहर भी और भीतर भी।
‘‘आपको कहाँ जाना है?’’
‘‘यह बस कहाँ जा रही है?’’
उसने जगह का नाम बताया। मेरे लिए नाम का कोई महत्व नहीं था। नाम का ही नहीं, किसी भी जगह का कोई महत्व नहीं था। मैं बस कहीं जाना चाहता था, कहीं भी, और कहीं जाए बिना कहीं जाया नहीं जा सकता था, ‘‘ठीक है, वहीं तक का टिकिट दे दो।’’
टिकिट लेकर मुझे तसल्ली हुई कि अब कम से कम कहीं तो पहुँचा जा ही सकेगा। कई बार जाना आवश्यक होता है तो कई बार पहुँचना। मेरे लिए दोनों ही आवश्यक नहीं थे। आवश्यक या अनावश्यक था भटकना। और वही मैं कर रहा था। यह एक विकल्पहीनता की स्थिति थी, जिससे छुटकारा पाने की कोई चाहना मेरे मन में नहीं थी।
बस में बैठते ही एक बार फिर सारी थकान पैरों में उतर आई थी। शहर पीछे छूटता जा रहा था पर मैं आगे भाग नहीं पा रहा था। यह एक प्रकार का द्वैत था। जाते हुए नहीं जाना, सोचते हुए नहीं सोचना, जीते हुए नहीं जीना...। सबसे विचित्र बात तो यह थी कि यह मेरा स्मृतियों वाला शहर था, पर कोई स्मृति अपना सिर नहीं उठा रही थी। स्मृति शून्य हो जाना एक प्रकार का अवसान होता है, जिसका कोई अतीत नहीं, स्मृतियाँ नहीं, वह न तो इन्सान हो सकता है और न ही जीवित! स्मृतियाँ जीवित होने का ठोस प्रमाण होती हैं। वह व्यक्ति ही क्या हुआ, जिसके पास कोई स्मृति न हो!
मेरे पास भी थीं। वे उन रास्तों पर जगह-जगह बिखरी हुई थीं, जहाँ से बस गुजर रही थी। वे जगहें मुझे उसकी याद और भी ज्यादा शिद्दत से दिला रही थीं। मेरी सारी पीड़ा का एक कारण यदि उसका मुझे छोड़ कर जाना था, तो दूसरा उससे जुड़ी हुई स्मृतियाँ का होना भी था। वह मुझे छोड़ कर जा सकती थी, लेकिन मेरी स्मृतियों को अपने साथ नहीं ले जा सकती थी। वे मेरी अमानत थीं, मेरे वजूद का अहम् हिस्सा। उन्हें ताउम्र मेरे साथ ही घिसटना था।
यह वह कैफे कॉफी डे की शॉप थी, जहाँ हम दोनों ने अनेक बार साथ-साथ कॉफी पी थी। उसे एक अजीब सी कॉफी पसंद थी, जिसका नाम मैं हमेशा भूल जाया करता था। हम एक कोने में बैठा करते थे, जहाँ से शहर का भागता-दौड़ता ट्रैफिक दिखाई नहीं दिया करता था। वह उसे ‘हमारा कोना’ कहती थी। मैं खुश हो जाता था। कुछ तो इसलिए कि वह मेरे साथ होती थी और कुछ इसलिए कि वह ‘हमारा’ शब्द कह कर मुझे अपने में शामिल कर लिया करती थी। वह कॉफी पीती और मुस्कराती। यह उसके कॉफी पसंद आने का संकेत हुआ करता था।
‘‘तुम्हें एक बार कैपेचीनो भी ट्राई करनी चाहिए।’’ मैंने अपनी कैपेचीनो का सिप लेते हुए कहा था।
‘‘उसकी जरूरत नहीं है। जब तुम पीते हो, लगता है मैं ही पी रही हूँ।’’
‘‘फिर तो यह मेरी ओर से बेईमानी हुई... क्योंकि तुम्हारी कॉफी का स्वाद मुझ तक नहीं पहुँच पा रहा है।’’
‘‘पहुँच जाएगा... इसके लिए उपासना करनी पड़ती है।’’
‘‘उपासना? कैसी उपासना?’’
‘‘उसे सीखना पड़ता है... तुम भी एक दिन सीख जाओगे।’’
पर वह दिन कभी नहीं आया। अब आएगा भी नहीं। मैं कभी जान नहीं पाऊँगा कि उसकी कॉफी का स्वाद कैसा होता था, जिसे वह पीया करती थी। क्या आने वाले दिनों में वह उस कॉफी के स्वाद को याद करेगी, जिसे मैं पीया करता था? स्वाद के पर्दे के पीछे क्या कभी मैं उसे दिखाई दूँगा?
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इकत्तीस
बस अनेक स्टॉप्स पर रुकती चलती है। कुछ सीटें खाली हो जाती हैं और कुछ भर जाती हैं। बैठने वाले कभी नहीं जान पाते कि उनसे पहले वहाँ कौन बैठा हुआ था। लोग आते हैं, चले जाते हैं, कौन याद रखता है कि कौन आया, कौन गया... पर मैं याद रखे हुए हूँ, उसके आने को भी और चले जाने को भी। मेरा सारा संसार उसकी इन दो क्रियाओं के बीच की जीवन्त क्रिया है। उसके जाते ही ये क्रियाएँ अब संज्ञाओं में बदल चुकी हैं, जिनके अर्थ शब्दकोश में ढूँढ़े जा सकते हैं।
संज्ञा हो जाने का अर्थ ही मृत हो जाना है, जबकि क्रिया जीवन का पर्याय होती है। मैं नहीं जानता कि मैं संज्ञा हूँ कि क्रिया। मैं अपनी पहचान खो बैठा हूँ और अपनी देह उठाए बस में भटक रहा हूँ। बस मुझे उन रास्तों से कहीं ले जा रही है, जिन रास्तों पर कभी मैं उसके साथ चला था। चलना बड़ी बात नहीं होती, बड़ी बात होती है, साथ चलना। वह साथ अब मैं खो चुका हूँ और अपनी बेचैन मन:स्थिति के साथ उस ओर बदहवास भागा जा रहा हूँ, जिस ओर यह बस मुझे ले जा रही है। फिलहाल मैंने अपने सारे निर्णय इस बस के हवाले कर दिए हैं। बस ने मुझे बचा लिया है। निर्णय लेने से और अनिर्णय में उलझे रहने से भी। इस छोटी-सी यात्रा के दौरान मैं स्वयं को उन उलझनों से स्वयं को मुक्त रखना चाहता हूँ, जो कल शाम से मुझे घेरे हुई हैं पर सम्भव नहीं हो पा रहा है। कोई न कोई घटना ऐसी घट ही जाती है, जो मुझे चाहते हुए भी मुक्त नहीं रहने देती।
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बत्तीस
हो सकता है, वह मुझे यूँ ही कहीं टकरा जाए। मैं देखते ही उसे पहचान लूँगा। पर क्या वह भी मुझे पहचान लेगी? या शायद नहीं पहचानने का बहाना करे!
‘‘यह तुम हो?’’ मैं पूछूँगा।
‘‘हाँ, क्या इतनी जल्दी भूल गए?’’ शायद वह कहे।
अरे! उसे तो मैं याद हूँ! यह सुख होगा।
‘‘तुमसे कुछ कहना था।’’
‘‘क्या?’’
‘‘या तो जाओ मत और अगर जाओ तो अपना सब कुछ लेकर जाओ।’’
शायद वह कुछ देर चुप रहे, फिर बोले, ‘‘ठीक है, जो कुछ तुम्हारे पास छोड़ आई हूँ, जब उसे लेने आऊँगी, तब मैं भी वह सब वापस छोड़ जाऊँगी, जो अपने साथ ले गई हूँ।’’
या फिर संवाद कुछ इस तरह भी हो सकते हैं -
‘‘अच्छा हुआ, तुम मिल गई। मैं तुम्हारे बारे में ही सोच रहा था।’’
‘‘क्यों?’’
‘‘क्या मैं तुम्हें सोच भी नहीं सकता?’’
‘‘सोच सकते हो, पर पहले की तरह नहीं।’’
‘‘मैं किसी भी तरह नहीं सोच रहा... बस, सोच भर रहा हूँ।’’
‘‘क्या सोच रहे थे?’’
‘‘यही कि यदि तुम इसी तरह अचानक राह चलते मिल जाओगी, तो कहूँगा, चलो, तुम्हें कॉफी पिला लाऊँ।’’
‘‘पर मैं जाऊँगी नहीं।’’
‘‘मैं जानता हूँ... लेकिन इससे अ-संवाद का घना कोहरा छँटेगा तो सही!’’
वह चुपचाप सुनती रहेगी।
‘‘एक बात और।’’, मैं कहूँगा, ‘‘तुम ऐसे ही सड़क पर यूँ अनायास मिल जाना। मुझे अच्छा लगेगा... भले ही यह मिलना कुछ पलों के लिए ही क्यों न हो!’’
या शायद ऐसा कुछ भी न हो... हम एक दूसरे को देखें और कतराते हुए अपनी अपनी राह चल दें, परिचित होते हुए भी अपरिचितों की तरह। तुम कॉफी शॉप में चली जाओ और मैं किताबों की दुकान में। वैसे भी कॉफी और किताबों में कोई समानता नहीं होती और अगर होती है, तो केवल पहले अक्षर ‘क’ की। और यह समानता इतनी सघन नहीं होती कि हमें फिर साथ ला सके।
...पर मैं यह सब ऊलजलूल दिवास्वप्न क्यों देख रहा हूँ! वह जा चुकी है, हमेशा के लिए जा चुकी है, मुझे इस सच को स्वीकार करना ही होगा, मृत्यु की तरह यही अंतिम सत्य है।
***
तैंतीस
बस से उतरते ही सबसे पहले अनिश्चय मेरे पास आया था, जैसे वह मेरे पहुँचने की प्रतीक्षा में ही था। मैंने उससे हाथ मिलाया और स्वयं को उसके हवाले कर दिया। आने वाले पलों में अब क्या करना होगा, यह निर्णय उसे ही लेना था। उसके निर्णयों को मुझे एक अनुचर की तरह निभाना था।
मेरे चारों ओर दस दिशाएँ थीं, पर मुझे किस दिशा में जाना था, यह मैं नहीं जानता था। मैं किसी संकेत की प्रतीक्षा कर रहा था। कोई भी संकेत, जो मुझे अपना हाथ पकड़ कर कहीं ले जा सके। हालांकि कहीं भी जाने से कोई अन्तर नहीं पड़ने वाला था। होता है, कई बार होता है, जब आप स्वयं को हवाओं के बहाव में छोड़ देते हो। फिर आप उस दिशा की ओर सूखे पत्ते की तरह स्वत: ही बहने लगते हो, जिस दिशा में हवा ले जाना चाहती है, जैसे आप मंझधार में फँसी कोई फटे हुए पाल की मानव रहित नाव हों।
सहसा मुझे एक अस्पष्ट सी आवाज सुनाई दी। मैं उसी की प्रतीक्षा में था, पर मुझ तक पहुँचने से पहले ही वह घायल होकर एक छटपटाहट में बदल गई थी, काफी हद तक बिखरी हुई और टूटी हुई भी। शायद उसके टूटेपन ने ही मेरे भीतर एक खिड़की को खोल दिया था, जिसके उस पार मैं उस आवाज को देख सकता था। मैं समझ गया था कि संकेत आवाज का रूप धारण करके आया था। यह संकेत उस संकेत से अलग था, जो उस दस्ताने पहने हुए हाथ ने मुझे किया था।
उस आवाज में फड़फड़ाता हुआ एक घायल-सा आग्रह था, जो कहीं दूर से लुढ़कता हुआ मुझ तक आ गया था। वह आवाज सलेटी उजाले को चीरती हुई मुझ तक आई थी, जिसे मैंने भ्रम के धुँधलके और समुद्र के अनवरत शोर के बावजूद भी सुन लिया था। वह एक कातर पुकार की तरह थी। इतनी कातर कि कोई भी सुनकर उसे अनसुना नहीं कर सकता था। अपनी तमाम बेहोशी के बाद भी मुझे इतना होश अवश्य था कि यह पहचान सकूँ कि यह समुद्र का वह किनारा नहीं था, जहाँ आज सुबह मैंने अपने को पाया था।
मैं उसके पीछे सम्मोहित सा चल दिया। मेरे भ्रम भी साथ चल रहे थे। भ्रमों का मुझसे पुराना नाता रहा है। वह मुझसे प्रेम करती है, यह सबसे बड़ा भ्रम था। एक दिन आया और अन्य भ्रमों की तरह यह भ्रम भी टूट गया। उसने स्वयं को ऐसे छिटक लिया था, जैसे कभी मुझसे जुड़ी ही न हो। कुछ लोगों में आत्मीय होने के बावजूद भी छिटक देने का अद्भुत सामथ्र्य होता है। उसमें भी था। तभी तो वह ऐसा कर सकी।
पर वह यह नहीं जानती थी कि रिजेक्ट किए जाने का अहसास कैसा होता है! काश! वह जानती, तो शायद ऐसा नहीं कर पाती। एक दिन आएगा, जब उसे पता चलेगा कि रिजेक्ट किए जाने की पीड़ा कैसी होती है, लेकिन उस दिन उसकी पीड़ा को जानने के लिए मैं उसके पास नहीं होऊँगा! उसे रिजेक्ट होने का दु:ख अकेले ही भुगतना पड़ेगा, जैसे कि मैं भुगत रहा हूँ।
उस संकेत ने, जो आवाज का रूप धर कर आया था, मुझे एक झोपड़ बस्ती के पास छोड़ा। वह बस्ती समुद्र किनारे ग्रेनाइट की काली चट्टानों की एक लम्बी शृंखला पर बसी हुई थी। आस-पास नारियल के पेड़ मुँह उठाए खड़े हुए थे। लहरें चट्टानों से टकरा कर उछालें मार रही थीं, मानो अपना विषाद बाहर फेंकना चाह रही हों। कुछ लहरें लौट जातीं और कुछ वहीं किनारे पर पड़े पत्थरों के बीच फँस कर रह जातीं। किसी के पास इतनी फुरसत नहीं थी कि वह उस खेल को देखे। मेरे पास फुरसत के अतिरिक्त कुछ नहीं था। मैं देख सकता था। मैं अपने खेल से बाहर निकल कर लहरों के इस दूसरे खेल को देखने लगा।
मैं वहीं बैठ गया और लहरों को अपने पाँवों से खेलने दिया। मेरे पाँव समुद्र के विषाद को छू रहे थे और उसे मैं अपने में समोता महसूस करने लगा था। समुद्र के इस विषाद को मैंने आज सुबह ही जाना था। एक विषाद को दूसरा विषाद डँस रहा था। मैंने ऐसा होने दिया। मैं उम्मीदबर था कि जैसे जहर को जहर मारता है, मेरा विषाद भी शायद समुद्र का यह विषाद हर ले!
लहरें शोर मचाती हुईं आती थीं और उन चट्टानों से टकरा कर बिखर जाती थीं। कुछ देर के लिए सन्नाटा छा जाता, जब तक कि दूसरी लहर नहीं आ जाती। सन्नाटा एक बार फिर टूट जाता...। सहसा मुझे आभास हुआ कि मुझे जो आवाज बस स्टेण्ड पर सुनाई दी थी, तड़फड़ाती, आधी-अधूरी, कटी-कटी सी, वह समुद्र की थी। एक बार फिर वह मुझे अपनी ओर बुला रहा था। मेरा सुबह का प्रयास असफल हुआ था और मुझे बचा लिया गया था। क्या समुद्र मुझे फिर से निमन्त्रण दे रहा था?
मैं निर्विकार भाव से उसे ताकता रहा, जिसे लोग समुद्र नाम से पुकारते हैं। मैं तटस्थ था, पर वह नहीं। किसी जीवित व्यक्ति में भी इतनी उद्विग्नता नहीं होती, जितनी उसमें थी।
तो क्या मैं मृत था और वह जीवित?
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चौंतीस
वहाँ समुद्र था, उसकी लहरें थीं, हवाएँ थीं, झोपड़ियाँ थीं, चट्टानें थीं, नारियल के पेड़ों का झुरमुट था... और मैं था। और मैं भी अकेला कहाँ था! मेरे साथ मेरा अतीत था, कल शाम का घटनाक्रम था, अस्वीकार कर दिए जाने का भाव था, यातनाओं का लहलहाता समुद्र था। इन सबसे छुटकारा पाने के लिए ही तो मैं शहर के एक छोर से दूसरे छोर के बीच भटक रहा था, पर छुटकारा कहीं नहीं था, क्योंकि भटकन बाहर उतनी नहीं थी, जितनी अन्दर।
आवाज ने मुझे बता दिया था कि मैं उसे पकड़ कर कहीं भी पहुँचने वाला नहीं था... और यदि किसी अपरिचित किनारे पहुँच भी जाऊँ, तो इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि मैं अपनी पीड़ा से छुटकारा पा ही जाऊँगा।
‘‘क्या आप यह लेंगे?’’
एक बच्चा कब मेरे पास आकर खड़ा हो गया था, मुझे पता ही नहीं चल पाया था, ‘‘यह क्या है?’’
‘‘यह शंख है।’’ उसने अपनी नन्हीं हथेलियों में एक छोटा-सा शंख पकड़ रखा था। सफेद, दूध-सा धुला।
‘‘मैं इसका क्या करूँगा?’’
‘‘किसी चीज से क्या किया जाता है?’’
‘‘किताबें पढ़ी जाती हैं, गीत सुने जाते हैं... इससे क्या होगा?’’
‘‘इसे बजाया जाता है।’’
‘‘यह बहुत छोटा है, बजेगा नहीं।’’
‘‘जब बड़ा हो जाएगा, तब यह भी बजेगा।’’
‘‘इसका जीव इसमें नहीं है और न ही यह समुद्र में है। यह बढ़ नहीं सकता।’’
‘‘कुछ चीजें यूँ ही बढ़ जाती हैं... जैसे दु:ख।’’
‘‘तुम दु:ख के बारे में जानते ही कितना हो!’’
‘‘उतना ही, जितना आप इस शंख के बारे में।’’
उसने मुझे निरुत्तर कर दिया था। मुझे शंख खरीदना ही पड़ा। बच्चे के जाने के बाद मैंने उसे ध्यान से देखा। मेरी हथेली पर वह असहाय सा पड़ा हुआ था। सहसा मुझे महसूस हुआ, मानो उसके गोल छेद की तरफ से किसी जीव का मुँह बाहर झाँक रहा हो। वह जीवित था और जीवित रहने की लड़ाई अकेला लड़ रहा था। मैं उठ खड़ा हुआ और अपनी सारी ताकत हाथों में सँजो कर उसे समुद्र की ओर उछाल दिया। समुद्र का जीव समुद्र में समा गया था।
क्या कहीं कोई है, जो मुझे भी इसी तरह जीवित रखेगा? जिस तरह शंख वापिस समुद्र में लौट गया था, क्या मैं भी जीवन की मुख्य धारा में लौट सकता हूँ? क्या एक बार फिर ठीक वहीं लौटा जा सकता है, जहाँ से एक दिन मैंने यात्रा शुरू की थी? और यदि लौट भी गया, तो क्या वह जगह ठीक वैसी ही रह गई होगी, जैसी कभी थी?
विचारों का अतिरेक किसी एक विचार पर ठहरने की मोहलत नहीं दे रहा था। मैं जीवन के हाशिये पर खड़ा हुआ था। वहाँ बहती हुई हवा भी ठिठकी हुई महसूस हो रही थी और पीड़ा अपनी तमाम सलवटों के साथ चेहरे पर झुर्रियाँ बन कर उभर आई थी।
***
पैंतीस
कई बार, जब मैं उससे बातें करता, लगता था कि चुप हूँ, जबकि जब चुप रहता, तो लगता था कि बात कर रहा हूँ। अजीब विरोधाभासी अहसास था - होकर भी नहीं होना या फिर नहीं होकर होना! अथवा मेरा उसमें और उसका मुझमें खो जाना! शब्दकोश देखना होगा। शायद इसे ही सुख कहते हैं।
मैं एक साथ दो दुनियाओं में रह रहा था। एक खिड़की के अन्दर, दूसरी बाहर। खिड़की दोनों को जोड़ने वाली कड़ी थी। वह खिड़की ही थी, जो कभी मेरा हाथ पकड़ कर बाहर ले जाती, तो कभी अन्दर ले आती। मैं कब कहाँ उपस्थित होऊँगा, इसका निर्णय वह उस लड़की की उपस्थिति को देखकर लिया करती थी।
जब वह आती थी, मैं सबसे पहले उसे कमरे की खिड़की से ही देखा करता था और तब मुझे एक असंभव-सी खुशी घेर लेती कि मेरे कमरे में चल कर आने वाली यह लड़की सिर्फ मुझसे मिलने वहाँ आ रही थी - एक अनिर्वचनीय सुख, जिसके सामने सभी अन्य सुख ओछे जान पड़ते थे। उसका आना एक स्थाई भाव की तरह मुझमें खुद जाता था, किसी शिलालेख की तरह, जिसके सामने खड़ा मैं उसे गहरे विस्मय के साथ निहारा करता था, हालांकि इसमें विस्मय जैसा कुछ नहीं होता था।
उसके आने से पहले उसकी आहट आ जाया करती थी। वह एक खास तरह से मकान का मुख्य द्वार खोला करती थी, जिसकी आवाज से मेरे कान खड़े हो जाते थे। मैं भाग कर खिड़की पर पहुँच जाता और उसे अन्दर आते हुए देखा करता था। उसकी निगाहें भी खिड़की पर लगी होतीं और वह मुझे देख कर मुस्करा देती थी।
उसके आते ही कमरे में पसरा सन्नाटा किसी अँधेरे कोने में जा छिपता। उसकी देह गंध से कमरे की मृत वस्तुओं में भी प्राण आ जाते। वह जिस भी चीज को छूती, महकने लगती। चारों ओर बसंत छा जाता। बारिशें होने लगतीं और मैं देर तक उनमें भीगता रहता।
वह फुसफुसाती। उसके शब्द मुझ तक पहुँचने से पहले हवा में काँपते रहते, मानो बुखार में तप रहे हों। पर इससे पहले कि वे मर जाएँ, मैं उन्हें सहेज लेता। यह एक खेल होता, जिसे मैं बिना उसे बताए उसके साथ खेला करता। उसके कहे शब्दों के अर्थ तक पहुँचना ही मेरी विजय होती।
जब वह अपने मोबाइल पर पियानो बजाती, कमरा गुनगुनाने लगता था, बिना शब्दों के, बिना धुन के, बाहर से छन कर आती हवा के सहारे। एक लावारिस सी सरगम उतनी ही लावारिस धुन के साथ गूँजने लगती थी। हम चुपचाप उसे सुनते रहते, जैसे उस पर सवार होकर हमें कोई नदी पार करनी हो। वह हमारे संवादों का बैक ग्राउण्ड म्यूजिक होती।
कोने में छिपा अँधेरा तब तक छिपा रहता, जब तक वह चली नहीं जाती। उसके जाने के बाद भी वह तुरंत बाहर नहीं आता था। उसे प्रतीक्षा करनी पड़ती थी, उस अंतिम क्षण की, जब उसकी अनुपस्थ उपस्थिति भी चली नहीं जाती थी।
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छत्तीस
उसकी अपनी छोटी-छोटी जेबें थीं, जहाँ वह स्वयं को छिपा कर रखती थी। मैं उसका केवल वही हिस्सा देख पाता था, जितना वह दिखाना चाहती थी। अपने समग्र रूप में स्वयं को उसने कभी उद्घाटित नहीं किया था। तब भी नहीं, जब वह मेरे एकांत कमरे में अकेली मेरे हाथों में अपना हाथ दिए बैठी रहा करती थी। अब यह सोच कर अजीब सा लगता है कि वह मेरे पास होकर भी मेरे पास नहीं हुआ करती थी, जबकि मैं समझता था कि वह मेरे अतिरिक्त कहीं और नहीं है! यह एक भयानक अहसास था, खुद के छले जाने का छीलता हुआ अहसास।
‘‘तुम कभी सिगरेट पीने के अतिरिक्त इस कमरे से बाहर नहीं जाते?’’ एक बार उसने पूछा था।
‘‘क्यों नहीं जाता... पर बहुत कम। मुझे अपने कमरे का एकांत बहुत प्रिय है।’’
‘‘इस कमरे ने तुम्हें एकाकी बना दिया है।’’
‘‘मुझे एकाकी होना पसंद है।’’
‘‘पर मुझे नहीं...’’
‘‘अच्छा, तो बताओ, कहाँ जाना चाहोगी?’’
‘‘कहीं भी, जहाँ भी तुम ले चलो।’’
और इस तरह उस दिन पहली बार हम कमरे से बाहर निकले थे। कमरे से बाहर आना आसान था, खुद से नहीं। सच तो यह था कि बाहर आकर हम सहसा अपरिचित से हो गए थे। पहचान पीछे कमरे में छूट गई थी। उसमें एक परायापन सा आ गया था और मुझमें भी। लग रहा था, मानो मैं किसी ऐसी लड़की के साथ घूम रहा हूँ, जो पहली बार मिली हो। तमाम आत्मीयता अपनी कातर निगाहों से हमें देख रही थी।
‘‘देखा, कमरे से बाहर आते ही हम पराये हो गए हैं।’’
‘‘मैं तुम्हें फिर से पाना चाहती हूँ।’’
‘‘यह यहाँ कैसे सम्भव होगा?’’
‘‘होगा, यदि हम उस कमरे को भी अपने साथ ले आएँ।’’
उस दिन के बाद हम जब भी बाहर जाते, कमरा हमारे साथ जाता। कमरे के साथ आत्मीयता भी साथ चली आती। परायापन पीछे छूट जाता। वह मेरा हाथ पकड़ लेती और हम कमरे से बाहर होकर भी कमरे में होने का सुख महसूस करने लगते। कमरा छूट कर भी छूटता नहीं था।
उसे म्यूजिक शॉप्स पर घूमना अच्छा लगता था। वह वहाँ मुझे लगभग भूल ही जाया करती थी। अपना बड़ा-सा पर्स वह काउन्टर पर रख देती और गानों की सीडियाँ देखने लगती। वह अपने गॉगल्स सिर पर चढ़ा लेती और उसकी पतली अँगुलियाँ और आँखें सीडियों को परखने लगतीं। जब कभी उसे अपनी पसंद की कोई सीडी मिल जाती, तो वह छोटे बच्चों की तरह खुश हो जाती। मेरी खुशी उससे जुड़ी थी। मैं उसे खुश देख कर ही खुश हो जाता था।
‘‘ये वाली खरीद लेते हैं... तुमने सुना है कभी इन्हें?’’
मैं सीडी देखने लगता। स्पष्ट है कि नहीं सुना होता था, ‘‘नहीं सुना।’’
‘‘तुम कैसे आदमी हो! इन्हें ही नहीं सुना?’’
‘‘नहीं सुना, तो नहीं सुना!’’ कई बार मैं खीज जाता।
‘‘कोई बात नहीं... अब हम साथ सुनेंगे।’’
हम साथ सुनते। कमरा हमें साथ सुनने की मोहलत देता। वह सुन कर खो सी जाती, जबकि मुझे कुछ भी महसूस नहीं होता था। शास्त्रीय संगीत की मुरकियों के बारे में मेरी समझ शून्य ही थी, पर मैं कहता कुछ नहीं था। वह समझ जाती थी कि मैं ऊब रहा हूँ। वह प्लेयर बंद कर देती और मेरे पास आकर बैठ जाती, ‘‘तुम्हें नहीं पसंद, तो सुनना जरूरी नहीं है।’’
‘‘मैं सीख रहा हूँ...।’’
‘‘संगीत सीखना मुश्किल है, पसंद करना आसान।’’
उसके तर्क मुझे पराजित कर देते। मैं बहस करने के बजाय पराजित होना बेहतर समझता। बहस में न तो आप किसी को जीत सकते हो और न ही अपनी बात मनवा सकते हो। हारना कोई गवारा करता नहीं। अनेक बार बहस में पड़ना सम्बन्धों के कटु हो जाने का सबब बन जाता है।
घर लौटते समय वह सीडियों को अपने साथ ले जाती। मैं जानता था कि वह उन्हें घर पर भी सुनेगी। संगीत के साथ मेरी स्मृति भी उभर आएगी। मैं वहाँ नहीं होऊँगा, पर होऊँगा।
और यह क्या कोई छोटी बात होगी?
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सैंतीस
पिछले कुछ दिनों से वह कमरे में ऊबने लगी थी। मुझे आश्चर्य होता। जिस कमरे में मैं चौबीसों घन्टे बिना थके रहा करता था, वह आते ही कैसे ऊब जाया करती थी! अपने एकान्त क्षणों में मैंने कमरे की दीवारों से, दरवाजे से, खिड़की से, फर्नीचर से, यहाँ तक कि छत से भी पूछा कि वह ऊब कैसे सकती है! इतना कुछ तो है यहाँ पर! पर उनके पास इन प्रश्नों के उत्तर नहीं थे।
वह ऊब हमें कमरे से बाहर खींच ले जाती। वे मार्च के आखिरी दिन थे, जब सर्दियाँ पूरी तरह गई नहीं थीं और गर्मियाँ दूर खड़ी हुई थीं। उसे सिटी मॉल बहुत पसंद था, जहाँ भीड़ होने के बावजूद भी हम अकेले हो सकते थे। वह मॉल उसके घर से बहुत दूर था, जिस कारण उसके किसी परिचित के मिलने की संभावना भी बहुत कम थी...। मैं उसका हाथ पकड़ लेता। पहले तो उसे झिझक होती, फिर वह खुद ही मेरा हाथ कस कर थाम लेती थी - मानो मैं उसे कहीं छोड़ कर जाने वाला हूँ। लेकिन न तो मुझे कहीं जाना होता था, न उसे। बल्कि पहुँचना होता था, एक दूसरे के पास, एक दूसरे का हाथ पकड़ कर। वे आत्मीयता से लबरेज क्षण होते। हमारी देहें और हमारी साँसें इस बात की गवाह होतीं। सारा मॉल एक हरे-भरे बगीचे में बदल जाता, जहाँ मंद-मंद बहती हवा हमें छूती हुई निकल जाती, पत्ते सरसराने लगते और घास कुलबुलाने।
दिन के उजाले में सुख भी पराई चीज लगता। इतना पराया कि ईष्र्या का भाव स्वत: ही जाग उठता था। हालांकि ठीक-ठीक यह कह पाना बहुत कठिन है कि सुख क्या होता है! दु:ख के बाद जो आता है वह, कि जो उसे एक ओर सरका कर आता है, वह! लेकिन उन दिनों दु:ख कहीं नहीं था, उसका अहसास भी नहीं था, यदि कुछ था तो उसके साथ होने का स्वप्निल भाव, हवा में तैरते रहने का अनुभव। लगता था, मानो किसी हिल स्टेशन पर हूँ, जहाँ शीतल बयारें देह को छू रही हों। सफेद रूई-सी हल्की बर्फ गिर रही हो, और मैं भीग रहा हूँ।
‘‘तुमने कुछ कहा?’’ वह पूछती।
‘‘नहीं... तुमने?’’
‘‘मैंने भी नहीं...’’
‘‘तुम कुछ खरीदना चाहोगी?’’
‘‘नहीं, मेरे पास सब कुछ है।’’
‘‘पर मैं तुम्हें कुछ दिलाना चाहता हूँ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘तुम यहीं ठहरना।’’
मैं उससे छिपता हुआ एक स्टेशनरी की दुकान में घुसा। उसके लिए एक सुन्दर-सी डायरी और पैन सेट खरीदा। जब लौटा, तो देखा वह बेचैनी से मेरी प्रतीक्षा कर रही थी। यह एक अलग प्रकार की खुशी थी कि एक लड़की है, जो बेचैन होकर मेरी प्रतीक्षा कर रही है। यदि कोई आपको चाहता है, तो शेष सारी बातें गौण हो जाती हैं। आप उस अनिर्वचनीय सुख के इर्द-गिर्द घूमते रहते हो, बार-बार, ताकि उसे हमेशा के लिए सँजो कर रखा जा सके।
‘‘यह क्या है?’’ उसने पूछा।
‘‘खोल कर देखो।’’
उसने गिफ्ट रैपर हटाया। डायरी उसकी आँखों के सामने थी। इतनी सुन्दर डायरी देख कर उसकी आँखें सहसा फैल गई थीं, ‘‘यह मेरे लिए है?’’
‘‘हाँ, और यह पैन सेट भी।’’ मैंने उसे जेब से निकाल कर उसे दिखाया।
‘‘मैं इनका क्या करूँगी?’’
‘‘तुम उन क्षणों को लिखना, जो हमने साथ बिताए हैं।’’
‘‘वे तो मेरे मन में पहले से लिखे हुए हैं।’’
‘‘मैं जानता हूँ पर शब्दों की दुनिया अलग होती है... अनुभव शब्दों में ढल कर विशेष आभा पा जाते हैं। मुझे उन्हें पढ़ना अच्छा लगेगा। खाली डायरी दे रहा हूँ, भरी हुई वापिस करना। वह मेरा उपहार होगा।’’
वह मुस्कराई। उसकी मुस्कान ने एक बार फिर सारे संसार की खुशियाँ मुझे दे दी थीं। यह मैंने बाद में जाना कि जो घटना मेरे लिए इतना महत्व रखती थी, उसके बारे में कोई दूसरा नहीं जान सका था, हालांकि मॉल में बहुत से लोग आए हुए थे। यह एक अजीब-सा अहसास होता है कि आपके जीवन में इतना कुछ घटता रहता है और किसी को कुछ भी पता नहीं चल पाता, चाहे वह घटना सुख की हो या दु:ख की!
लेकिन इससे पहले कि वह अपनी कुछ अनुभूतियाँ लिख कर मुझे देती, वह हमेशा के लिए मेरे जीवन से चली गई थी।
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अड़तीस
कई बार वह मॉल से ही सीधी घर चली जाती। मैं उसे बस स्टेण्ड तक छोड़ने आता। मैं चली जाऊँगी, वह कहती, पर मैं तब तक उसके साथ खड़ा रहता, जब तक उसकी बस नहीं आ जाती। अंतिम क्षण तक एक धुँधली-सी सम्भावना बनी रहती थी कि शायद वह नहीं जाए। बिछुड़ने के क्षण हमेशा बड़े भयानक होते हैं। आप सोचते हैं कि फिर मिलेंगे, पर यह सोच खुद अनिश्चय के अँधेरे में डूबी होती है। जितना उसका जाना निश्चित होता, उससे कहीं अधिक अनिश्चित लौट कर आना। आप जाने को देख सकते हो, आने को नहीं। आना समुद्र के दूसरे छोर की तरह होता है, जिसे हमेशा क्षितिज निगल लिया करता है।
मैं बस स्टेण्ड के पीछे गार्डन में चला जाता...। तुम चली गई हो, पर पिछली बार की तरह इस बार भी मैंने तुम्हें तुम से चुरा कर अपने लिए बचा रखा है। मैं अब भी तुम्हारा अपने पास होना महसूस कर रहा हूँ। तुम्हारी आवाज, आँखें, गंध और स्पर्श मेरे पास छूट गए हैं। इन मोतियों को थाम कर मैं कभी भी तुम तक पहुँच सकता हूँ। मैं तुम्हारे पास होऊँगा और तुम्हें पता भी नहीं चलेगा। यदि चाहो, तो मेरी अदृश्य उपस्थिति को तुम छू सकती हो, जैसे कि मैं छूता रहता हूँ।
मैं गार्डन में बैठा हूँ, जैसे यह किसी हिल स्टेशन का गार्डन हो, जहाँ मैं घूमने आया हुआ हूँ। मेरे आस-पास पेड़ों का झुरमुट है, फूलों की क्यारियाँ हैं, हरी घास है, पैदल चलने के लिए पेवमेंट है और बैंचें हैं। उन्हीं में से एक बैंच पर मैं बैठा हुआ हूँ। दोपहर की धूप से बचते हुए पेड़ों की छाँव तले कुछ लोग वहाँ ऊँघ रहे हैं। एक युगल भी एकांत की तलाश में मानो सबसे छिप कर वहाँ दुबका हुआ है। लड़की की खनखनाती हँसी बार-बार मुझ तक लुढ़क आती है। यह हँसी उस लड़की की हँसी से अलग है, जो मेरे लिए हँसती है।
कोई नहीं जानेगा कि एक दिन मैं यहाँ आया था और देर तक बैठा रहा था। वह चली गई थी और उसके जाने के बाद मैं अकेला रह गया था। यह वैसा अकेलापन नहीं था, जो किसी के नहीं होने के बाद आता है, यह अकेलापन उस खाली जगह के कारण था, जो उसके साथ नहीं होने के कारण उपजा था।
पर कल शाम वह फिर कभी नहीं लौटने के लिए गई थी।
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उन्चालीस
एक डोर थी, उसके और मेरे बीच दो छोरों पर कसी हुई, जिसके एक छोर पर मैं था और दूसरे पर वह। इस डोर पर चल कर हम एक-दूसरे तक आ-जा सकते थे। कभी-कभी वह डोर तन जाती, जैसे हम दोनों उसे अपनी ओर खींच रहे हों...। फिर डर आता, डोर के टूट जाने का डर और तब हम घबरा कर उसे ढीला छोड़ देते। वह झूलने लगती, मानो कपड़े सुखाने की रस्सी हो, जिन्हें औरतें घर की छत पर लगा कर रखा करती हैं। कल शाम उसने वह डोर काट दी थी। उसके टूटते ही मुझसे उस तक की वह यात्रा अब असम्भव हो गई थी। डोर के टूटे हुए टुकड़े मेरे और उसके आँगन के पेड़ों पर असहाय से लटके हुए थे।
मेरी पीड़ा किसी पेड़ पर टँगा झण्डा नहीं थी, जिसे लोग मन्नत पूरी होने के लिए टाँग देते हैं। वह मेरे साथ चल रही थी। जैसे प्रार्थना-पत्र के साथ डॉक्यूमेन्ट्स नत्थी होते हैं। एक साँस आती, फिर दूसरी और फिर तीसरी...। किसी को कुछ पता नहीं चलता कि हम कितनी यातना ढोये हुए घूम रहे हैं। हमारी यातना हमारे जीने के वजूद-सी चिपकी रहती है। आप चाहते हैं कि एक बार फिर वहीं लौट जाएँ, जहाँ से यात्रा शुरू की थी, ताकि बीते दिनों को पोंछा जा सके, ताकि फिर से कोई नया सिरा पकड़ कर एक नई यात्रा पर जाया जा सके...। पर लौटा नहीं जा सकता। तुम्हारे पीठ पीछे जो दरवाजा बंद हो चुका है, उसे न तो फिर खोला जा सकता है और न ही दुबारा बंद किया जा सकता है। इसके लिए नियति को दोष देना भी गलत है, अपने किए अथवा अनकिए के आप स्वयं जवाबदेह होते हैं।
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चालीस
कमरे में वे क्षण ठहरे हुए होंगे, जब कल शाम वह अंतिम बार आई थी। चाहरदीवारी ने उन्हें रोक रखा होगा। कमरा मेरी प्रतीक्षा में होगा ताकि वहाँ पहुँच कर मैं उनसे बतिया सकूँ। मैं कमरे को बताना चाहता हूँ कि उन अभागे क्षणों से बतियाने के लिए मुझे वहाँ लौटना आवश्यक नहीं है। वे क्षण जितने कमरे में हैं, उतने ही मेरे साथ भी बने हुए हैं। यह अजीब बात है, किसी चीज का एक साथ दो जगह होना। शायद यही कारण है कि दो जगह उपस्थित चीज आपको कभी अकेला नहीं होने देती, न बाहर और न ही भीतर...। उस चीज का नाम है पीड़ा।
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इकतालीस
क्या कमरा जानता होगा कि जो लड़की कल शाम यहाँ आई थी, अब कभी नहीं आएगी? क्या वह भी मेरी ही तरह वीराना-सा महसूस कर रहा होगा? लड़की की आवाज की किरचें वहीं कहीं दीवारों पर चिपकी होंगी, जैसे मरी हुई तितली जाले में चिपकी मिलती है। ये आवाजें कभी जीवित हुआ करती थीं। उनमें किसी मदहोश कर देने वाले पेय से भी अधिक गहरा नशा हुआ करता था। मन करता था कि उन्हें सुनता ही रहूँ। मैं उन्हें अपनी डायरी के पन्नों में चिपका लिया करता था।
कमरे से बाहर आते ही उसकी आवाज में एक परायापन आ जाता था। उसकी चौकन्नी निगाहें मुझ पर उतनी नहीं टिकती थीं, जितनी दूसरी चीजों पर। यह डर होता। अपने पहचाने जाने का डर। पकड़े जाने का डर कि कोई सहसा उसे देख लेगा और पूछेगा कि लड़का कौन है! वह आने वाले खतरे को सूँघने की कोशिश किया करती थी।
जिस खतरे को वह बाहर तलाशा करती थी, वह बाहर नहीं, उसके भीतर था। खतरा अन्दर ही अन्दर बढ़ता गया और हमें कुछ भी पता नहीं चल पाया था, कम से कम मुझे तो बिल्कुल भी नहीं। सम्भवत: इसी कारण मैं कभी भी अनुमान नहीं लगा सका था कि उसके मन में क्या चल रहा था। फिर एक विस्फोट की तरह वह फटा और उसे मुझसे अलग हो जाना ही एकमात्र विकल्प नजर आया। अनुमान नहीं लगा पाने के कारण मैं खतरे की सीमा रेखा से बाहर खड़ा था, पर विस्फोट ने मुझे भी लहूलुहान कर दिया था।
यह कैसी दूरी थी, जो उसने चुपचाप मुझसे बना ली थी। इस दूरी के बारे में सोच पाना भी मेरी सोच के दायरे से परे की बात थी। कई बार दूरी बन जाती है और कई बार बना ली जाती है। दोनों ही स्थितियाँ मेरे लिए अपरिचित ही नहीं, मेरी कल्पना से बाहर भी थीं। जिसे आप टूट कर चाहो, जिसके साथ समूचा जीवन व्यतीत करना चाहो, वह ही यदि आपको परे धकेल दे, तो आपको कैसा लगेगा? वह भी अकारण? बिना किसी सार्थक संवाद के?
लेकिन मेरे साथ यही घटित हुआ। उसने मुझे कल शाम अचानक ही झिटक दिया, मानो मैंने कोई भारी गुनाह किया हो। मैं जानना चाहता था कि वह ऐसा क्यों कर रही है, सज़ा देने से पहले मुझे मेरा कसूर तो बताती जाओ, पर उसने एक शब्द भी नहीं कहा, सिवा इसके कि वह मुझे सदा के लिए छोड़ कर जा रही है। ऐसा भला कोई करता है! ‘‘उसके जाने के बाद जाना, कि जाना व्याकरण की कितनी खतरनाक क्रिया है।’’ केदारनाथ सिंह जी की यह पंक्ति जब पढ़ी थी, तब मुझे नहीं मालूम था कि एक दिन यह मुझ पर ही घटित होने वाली है।
कुछ घटनाओं पर आदमी का बस नहीं चलता। वह बस उसे घटते हुए देखते रहने के लिए अभिशप्त होता है। मैं भी ऐसा ही एक शापित व्यक्ति था। मैंने अकारण ही उसे खो दिया था, जिसे मैंने स्वयं से भी अधिक चाहा था। कई बार सोचता हूँ कि यदि वह कुछ संवाद करने के बाद जाती, तो इतना टूटा हुआ महसूस नहीं करता। जितना दु:ख उसके चले जाने से उपजा था, उतना ही असंवाद की स्थिति से भी। यदि संवाद स्थापित रहें, तो सुलह की गुंजाइश बनी रहती है, लेकिन संवादहीनता प्रत्येक संभावना का अंत कर देती है। मैं दोनों स्थितियों का शिकार था, उसके चले जाने का और संवादहीनता का भी!
क्या शेष जीवन ऐसे ही व्यतीत करना होगा?
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बयालीस
जैसे-जैसे शाम खिसक पर पास आ रही थी, मन डूबने लगा था। समुद्र से मैंने विदा लेना ही ठीक समझा। दूर पश्चिम में जब सूरज इन्द्रधनुष से उधार लेकर रंग बिखेरने लगता है, तब मन में पता नहीं क्यों गहरा अवसाद घिर आता है! घर लौटते परिन्दे, थक कर ठहरे हुए बादलों के टुकड़े, थमी हुई हवा और बुर्जियों पर टिकी शाम एक अकथ उदासी जेबों में ठूँस जाती है। मैं इन सबसे निगाह बचा कर अपने आप को शहर के शोर में झोंक देना चाहता था, जहाँ मेरा अपना अस्तित्व स्वयं मेरी पकड़ से बाहर जा सके।
वह बीच का ठहरा हुआ समय था, जब दोपहर गई नहीं थी और शाम ने भी अभी दस्तक दी नहीं थी। यह वह समय होता है, जब कुछ नहीं किया जा सकता। यदि अपने कमरे में होता, तो भी इस समय न तो ऊँँघा जा सकता था और न ही कुछ पढ़ा जा सकता था। किताब के बीच में फँसा पेन अपना सिर बाहर निकाल कर निरीह आँखों से मुझे ताकता रहता। ऐसे में एक बड़ा कप चाय पीने और गुजरते समय को गुजरते हुए देखने के अतिरिक्त और कुछ नहीं किया जा सकता।
मुझे भी चाय पीनी चाहिए। सहसा मुझे खयाल आया कि मैंने सुबह से कुछ खाया भी नहीं था। भूख मर गई थी और भूख की चाहना भी। लेकिन चाय की बात अलग होती है, उसे कभी भी पीया जा सकता है।
मैं सड़क किनारे एक थड़ी पर जा बैठा। कुछ लोग वहाँ पहले से ही बैठे हुए थे। गनीमत थी कि कोई जान-पहचान का व्यक्ति नहीं था। कुछ परिचितों के चेहरे अनायास ही स्मृति में कौंध गए थे। लगा, जैसे वे चेहरे मैंने कभी फिल्मों में देखे हों या फिर सपनों में। ऐसे में अकेला आदमी और भी अधिक अकेला हो जाता है, पर अकेलापन मुझे कभी सालता, तो कभी एक दोस्त की तरह सान्त्वाना दिया करता था।
चाय की पहली घूँट भरते ही मैं जान गया था कि मुझे इसकी कितनी जरूरत थी। जरूरत वेश बदल कर आई थी। जरूरत केवल चाय की नहीं थी। एक जरूरत ने दूसरी जरूरत को जन्म दे दिया था। दूसरी जरूरत क्या थी, इस पर ठीक-ठीक अपनी अँगुली रख पाना सम्भव नहीं था। लेकिन एक छाया-सी मुझमें उतर आई थी, अपने तीव्र आवेश से आवेशित करती हुई, कुछ ऐसा करने के लिए उद्धत करती हुई, जो इस पीड़ा को एक ओर सरका सके।
आकाश वैसा ही गहरा नीला था, जैसा सुबह देखा था, मानो कोई सिर पर रखी शान्त झील हो, जहाँ सफेद बादलों के टुकड़े हंसों की तरह स्थिर, एकाग्रचित्त हों। मैं भी उन्हीं की तरह एकाग्रचित्त था, उस अपार पीड़ा के महासमुद्र में डूबा हुआ, जो कल शाम वह दे गई थी। चारों ओर अर्थहीनता पसरी हुई थी, मानो तमाम अर्थ उसके होने से ही बने हुए थे। उस एक का चले जाना, सब कुछ चले जाने जैसा अनुभव सिद्ध हो रहा था।
‘‘साहब, आपकी चाय ठंडी हो रही है।’’
‘‘ओह! मैं भूल ही गया था... ऐसा करो, एक गर्म चाय और दे दो।’’
जब कोई खास घटना याद रखने के लिए हो, तो आप शेष घटनाएँ स्वत: ही भूल जाते हैं। मैं चाय ही नहीं, बाकी सब कुछ भुलाए बैठा था। अपना होना तक। केवल कल शाम बची रह गई थी। वह यथावत थी, बस मैं ही बिखर गया था... और कोई सिरा दिखाई नहीं दे रहा था, जहाँ अपने को समेटा जा सके।
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तैंतालीस
कल शाम की घटना का जितना घातक असर मुझ पर हुआ था, क्या उस पर भी हुआ होगा? क्या वह भी मेरी ही तरह यहाँ-वहाँ भटक रही होगी? क्या उसे एक बार भी मेरा खयाल नहीं आया होगा? क्या वह मुझे अकारण ही छिटक कर सहज मन:स्थिति में रह पायी होगी?
मेरे पास इन प्रश्नों का एक भी सटीक उत्तर नहीं था। अनुमान भर थे, लेकिन वे गलत भी हो सकते थे। पहले की तरह कोई सामान्य दिन होता, तो मैं उससे मोबाइल पर बात कर सकता था, जान सकता था कि उसकी मन:स्थिति कैसी है, पर कल शाम के पूर्ण विराम के बाद उससे बात करने की सम्भावना स्वत: ही समाप्त हो गई थी। उसने साथ गुजारे दिन मेरे मुँह पर दे मारे थे, मैं जिनकी मृत देह उठाए भटक रहा था। अपनी पीड़ा का मैं अकेला साक्षी था... या फिर मेरा कमरा।
मैंने प्रयास किया कि मैं स्वयं से ही कुछ संवाद कर सकूँ...। उन संवादों में खुद को सम्मिलित कर सकूँ, जिन्हें मैं स्वयं से करना चाहता था। लेकिन जिस उदासीनता ने मुझे अपने दायरे में जकड़ रखा था, उससे बाहर निकल पाना कठिन था। कहते हैं, चाय की टेबिल पर बड़े-बड़े मसले हल हो जाते हैं। मेरा मसला भी कोई छोटा मसला नहीं था। वह मेरे जीने-मरने से सीधा जुड़ा हुआ था।
‘‘तो आप चाहते हैं कि वह आपके पास लौट आए?’’
‘‘नहीं, दुविधा उसके चले जाने की है, लौटने की नहीं।’’
‘‘लौटता नहीं कोई, क्या यह?’’
‘‘नहीं... बल्कि यह कि कोई जाता क्यों है? इतने लम्बे अरसे तक साथ रहने के बाद कोई अकारण चला क्यों जाता है?’’
‘‘अकारण? यह आप कैसे कह सकते हैं?’’
‘‘उसका जाना अकारण ही तो है! कल शाम वह मेरे कमरे पर आई और कहा कि अब उसे मुझसे कोई सम्बन्ध नहीं रखना है।’’
‘‘क्या ऐसा हुआ?’’
‘‘बिल्कुल हुआ और अचानक हुआ। कल शाम से पहले उसने कभी कोई संकेत नहीं दिया था कि वह मन ही मन मेरे प्रति इतनी गहरी वितृष्णा पाले हुए थी, कि उसे हमेशा के लिए अलग होने का निर्णय लेना पड़ा था।’’
‘‘साथ रहना या अलग होना किसी व्यक्ति का व्यक्तिगत निर्णय होता है। आपको उसके इस निर्णय का सम्मान करना चाहिए।’’
‘‘लेकिन वह अकेले यह निर्णय कैसे ले सकती है...? उसने यह क्यों नहीं सोचा कि इससे मैं गहरे तक प्रभावित होने वाला हूँ!’’
‘‘सम्भव है, वह तुम्हारी किसी बात से आहत हो!’’
‘‘तो उसने मुझसे बात क्यों नहीं की?’’
‘‘हो सकता है, उसने सोचा हो कि तुम उसे इतनी अच्छी तरह समझते हो, उसके मन को पढ़ लोगे, पर नहीं, तुम नहीं पढ़ पाए।’’
‘‘हो सकता है, मैं नहीं पढ़ पाया होऊँ। अपनी गलती मैं स्वीकार करता हूँ। पर वह भी तो केवल मेरी अन्तरंग मित्र ही नहीं, सब कुछ थी। मैं नहीं समझ पाया तो क्या उसे नहीं बताना चाहिए था? इस प्रकार बिना संवाद के मुझे हमेशा के लिए छोड़ कर चले जाना क्या हिंसा नहीं है?’’
‘‘तुम्हें उससे बात करनी चाहिए।’’
‘‘कल रात मैंने कोशिश की थी, लेकिन उसने मोबाइल नहीं उठाया। मैसेज भी किया था, उसका भी कोई उत्तर नहीं दिया...।’’
‘‘दुबारा कोशिश करनी चाहिए थी।’’
‘‘कैसे करता! उसने मेरा नम्बर ही ब्लॉक कर दिया था।’’
संवाद रबर की तरह खिंचने लगे थे, मानो कभी समाप्त नहीं होंगे। वे आहिस्ता-आहिस्ता अपनी निरर्थकता के साथ मुझे ताकने लगे थे। खिंचे हुए सम्बन्ध भी ऐसे ही होते हैं, निरर्थक और निष्प्राण। मैंने हमेशा यही प्रयास किया था, जिससे सम्बन्ध दृढ़ नहीं, तो कम से कम यथावत तो बने रहें! उसी ने अपने सिरे से सम्बन्धों को समेटना शुरू कर दिया था और मुझे कभी इसकी भनक तक नहीं लगने दी थी।
मैं मन के बीयाबान में भटक गया था। जिस व्यक्ति से मैं संवाद कर रहा था, वह मैं ही था, पर मुझे अपना ही चेहरा पहचाना नहीं जा रहा था। क्या वह मैं ही था, या मेरे ही वेश में कोई दूसरा चला आया था?
चाय का स्वाद कैसा था, मुझे यह भी पता नहीं चल सका था।
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चौवालीस
कई बार आँखों के आगे छाया कोहरा छँटने का नाम नहीं लेता। हर चीज धुँधला जाती है। लगता है, जैसे स्वप्न में चल रहे हों। चल कर भी चल नहीं पा रहा हों। सामने कुछ है, जिसे पाना है, पर वहाँ तक पहुँचने के लिए कुछ कदम भी भारी पड़ रहे हैं।
लेकिन मेरे सामने कुछ नहीं था और न ही मुझे कहीं पहुँचना था। स्वप्न और यथार्थ में यही अन्तर होता है। वह एक अदृश्य लकीर के इधर और उधर बँटा होता है। अब वह लकीर के दूसरी तरफ थी और मैं इस तरफ... और ऐसा कोई उपाय नहीं था, जो उस लकीर को मिटा कर दो दुनियाओं को एक कर सके।
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पैंतालीस
मैं उसके घर से कुछ दूर खड़ा था, छिपकर, चोर की तरह, कि कहीं वह मुझे देख न ले। उसने अपने घर आने से मना किया था। वैसे भी वह ही मेरे कमरे पर आया करती थी। सिर्फ एक बार मैं उसे उसके घर तक छोड़ने आया था और उसने मुझे बाहर से ही विदा कर दिया था। वह अपने घर को मंदिर की तरह पवित्र मानती थी। मैं उसके लिए शायद अपवित्र जैसी कोई चीज रहा होऊँगा। जैसे जूते उतार कर लोग मंदिर में जाते हैं, वह भी मुझे बाहर उतार कर अन्दर गई थी।
उस दिन मुझे अजीब कुछ भी नहीं लगा था। मानो यह लड़कियों के लिए सामान्य-सी बात हो। कुछ लड़कियाँ घर में कुछ और बाहर कुछ और होती हैं। जब वे बाहर निकलती हैं, अपना घरेलू चेहरा अपने कबर्ड में रख कर आती हैं। मैं उसे उस चेहरे से पहचानता था, जिसे वह घर से निकलते ही लगा लिया करती थी। इसलिए अच्छा ही हुआ कि वह मुझे अन्दर नहीं ले गई, अन्यथा पहचान का संकट खड़ा हो जाता।
संभव है, वह भी मेरे विषय में यही सब सोचा करती हो! क्या मेरा भी कोई पक्ष उसके लिए असंभव था? क्या उसने भी कभी मुझे मेरे कमरे से बाहर छिप कर खड़े होकर देखा होगा? शायद सोचा हो कि कमरे के भीतर रहने वाला यह शख़्स कौन है, जिससे मिलने मैं सबकी निगाह बचा कर आती हूँ, जो कमरे में अलग होता है और बाहर अलग!
पहली बार लगा, जैसे मैं खण्डित स्मृति में जी रहा हूँ। पहली बार जाना कि उसे लेकर कोई मुकम्मल तस्वीर नहीं थी मेरे पास। आने वाले दिनों में मैं जब स्मृतियों को दोहराऊँगा, तब बहुत-सी स्मृतियाँ ऐसी भी होंगी, जो थीं, पर मेरे लिए नहीं थीं। मैं उनके दायरे से बाहर था और जूते की तरह बाहर ही उतार दिया गया था।
अधिक देर ठहर पाना मुश्किल होता जा रहा था। पीड़ा को फाँकों में नहीं काटा जा सकता। वह अपने आप में सम्पूर्ण होती है, जैसे समुद्र।
***
छियालीस
अंतिम कुछ नहीं होता। जिस बिन्दु पर आप ठहर जाते हैं, आपको लगता है कि वह अंतिम है, पर होता नहीं है। वह अंतिम किसी दूसरे अंतिम की ओर का प्रस्थान बिन्दु होता है। यात्राएँ अनवरत जारी रहती हैं... चाहे वे पीड़ाओं की ही क्यों न हों!
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सैंतालीस
उसने कहा था कि अब वह मुझसे बात नहीं करना चाहती और तुरंत चली गई थी। इसका सीधा-सा अर्थ यह था कि वह आगे मुझसे मिलना भी नहीं चाहती थी। उसने बिना कारण बताए ही मुझे रिजेक्ट कर दिया था। मैं चुपचाप उसे सुन रहा था और विश्वास नहीं कर पा रहा था कि ये शब्द उसी के थे। इतने दिनों की आत्मीयता भला इस तरह कैसे तोड़ी जा सकती थी और वह भी बिना संवाद किए!
पर उसने ऐसा ही किया था!
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अड़तालीस
अब सिर्फ प्रश्न बचे थे, खरोंचते हुए, अपने उत्तर माँगते हुए, मुझमें गहरी उदासी भरते हुए। उत्तर तो स्वयं ही उत्तरों की तलाश में भटक रहे थे। एक जगह पर ठहर जाना बुरा नहीं होता। बुरा होता है भटकना, वह चाहे किसी भी चीज का हो! ठहरा हुआ व्यक्ति ठहरे हुए समय में खुद को परख सकता है, किसी निर्णय तक पहुँच सकता है... पर भटके हुए इन्सान की मन:स्थिति उस सूखे पत्ते सी हो जाती है, जिसे हल्की सी हवा भी अपने साथ उड़ा ले जाने का क्षमता रखती है। वह कहाँ जाएगा, क्या करेगा, इन सब बातों का उसे कुछ पता नहीं होता। भटकना निर्णय लेने का सारा विवेक खत्म कर देता है।
***
उन्चास
वह एक पुकारती हुई आवाज थी।
संभव है, वह कोई आवाज नहीं, आवाज होने का भ्रम रहा हो, जैसे वह कोई हवा में उड़ती पतंग हो, जो कटने से रह गई हो। मैंने उसे पहचानने की कोशिश की। इसे मैंने बहुत पहले रेल्वे स्टेशन पर सुना था, जब मैं किसी अपने को विदा करने गया था। वह विदा होने की आवाज थी और उन मार्मिक सिसकियों से काफी कुछ मिलती थी, जो कल शाम उसके चले जाने के बाद खिड़की से कूद कर अन्दर चली आई थी... कहीं यह मेरी अपनी सिसकियों की आवाज तो नहीं थी?
मैं अन्धकार के पीछे के अन्धकार को देख सकता था। देहविहीन देह को देख सकता था। पहली बार इस सच को जाना कि यातना भुगतने के लिए सिर्फ मन में टीसती अनुभूतियों का होना काफी नहीं होता, उसे ढोने के लिए देह भी चाहिए होती है।
रिश्तों में दूरियाँ अचानक नहीं पनपतीं। धीरे-धीरे मन में बहुत कुछ इकट्ठा होता रहता है। जो लोग इस सच को भाँप कर जल्दी ही संवाद स्थापित कर सुलझा लेते हैं, वे सुखी रहते हैं। अलग होना पड़े, तब भी सुखी रहते हैं, क्योंकि तब वे जानते हैं कि वे क्यों अलग हो रहे हैं। लेकिन असंवाद की स्थिति में बिछुड़ना एक विस्फोट की तरह आता है... आप जानना चाहते हैं कि ऐसा क्यों हुआ? आपको क्यों छिटक दिया गया? पर उत्तर देने वाला जा चुका होता है और आप स्तब्ध खड़े सोचते रह जाते हैं कि उसने आपके साथ ऐसा क्यों किया?
उसके मन में भी अवश्य दूरियाँ उग आई होंगी, जिन्हें वह तो महसूस कर रही थी, पर मैं नहीं। हम अलग-अलग स्तर पर जी रहे थे, यह बात वह जानती थी, पर मेरा कभी इस ओर ध्यान नहीं गया था। मैं तो सोच भी नहीं सकता था कि जो लड़की मुझे इतना अधिक अपने पास महसूस कराती है, वह अपने मन में मेरे प्रति इतना विराग पाले हुए थी। मैं तो इस सच को कल शाम ही जान सका था। मेरे लिए यह घटना एक विस्फोट की तरह थी। सम्बन्धों में आया विस्फोट, जिसने कम से कम मुझे तो वैसा नहीं रहने दिया था, जैसा कि मैं दरअसल था।
आवाज मर गई थी पर उसकी पुकार की गूँज बची रह गई थी।
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पचास
दु:ख किसी झण्डे-सा हवा में फड़फड़ा रहा था, अलग होकर नहीं, उसी खम्बे से चिपक कर, जहाँ कल की सुलगती शाम उसे टाँग दिया गया था। सान्त्वना का एक अणु भी कहीं नहीं था। बारिशें रूठी हुई थीं, आसमान मुरझाया हुआ और समाने के लिए एक इन्च जगह भी नहीं बची थी। पीछे मुड़ कर देखो, तो सन्नाटा अपनी नीरव आँखों से मुझे देख रहा था और आगे किसी वीरान जंगल की वीरानी पसरी हुई थी।
सहसा मुझे मुझे लगा, जैसे किसी की आँखें मुझ पर लगी हों। मैंने पीछे मुड़ कर देखा। मेरा कमरा अपने कमरे से बाहर निकल कर वहाँ खड़ा हुआ था।
‘‘तुम यहाँ क्या कर रहे हो?’’
‘‘मैं आपके साथ होने की कोशिश कर रहा हूँ।’’
‘‘तुम्हें अपनी जगह होना चाहिए था।’’
‘‘उससे कोई अन्तर नहीं पड़ता। जहाँ आप हैं, मैं भी वहीं हूँ।’’
‘‘नहीं, तुम्हें वहीं होना चाहिए... शायद वह लौट आए!’’
‘‘वह नहीं लौटेगी, यह बात आप अच्छी तरह जानते हैं।’’
‘‘पर मैं तो लौट सकता हूँ! मैं लौटूँगा और तुम वहाँ नहीं होगे।’’
‘‘मैं आपसे पहले अपनी जगह पहुँच जाऊँगा और आपकी प्रतीक्षा करूँगा।’’
‘‘प्रतीक्षा?’’
‘‘मैं संज्ञा की नहीं, क्रिया की बात कर रहा हूँ।’’
‘‘केवल तुम ही बचे हो, जहाँ मैं स्वयं को छिपा सकता हूँ, अपनी देह को भी और मन को भी।’’
‘‘आप मुझे हमेशा अपना स्वागत करते हुए पाएँगे।’’
‘‘जानते हो, तुम्हारे पास आकर मुझे बहुत सुकून मिला करता है, जैसे कभी माँ की गोद में मिला करता था, जब वे जीवित थीं।’’
‘‘मैं जानता हूँ। मैं यह भी जानता हूँ कि बाहर की दुनिया से कटने के लिए आप मेरी खिड़की बंद कर दिया करते हैं, ताकि एकांत महसूस किया जा सके।’’
‘‘मेरे बारे में और क्या जानते हो?’’
‘‘बहुत कुछ।’’
‘‘जैसे?’’
‘‘खिड़की बंद करते ही आपके मन में नीला निखिलिस्तान उग आता है, जहाँ सफेद परिन्दे चुपचाप बैठे होते हैं... यह भी कि जब आपका मन किसी वीरान जगह पर जाने का करने लगता है, आप खिड़कियाँ बंद कर लेते हैं... और यह भी आप जानते हैं कि मेरी दीवारों पर, छत पर, फर्नीचर पर वह समय अब भी चिपका हुआ है, जब प्रतीक्षा आया करती थी... कि मैं अब भी प्रतीक्षा की प्रतीक्षा किया करता हूँ कि वह आए और मुझे कुछ और भर दे...’’
‘‘तो तुम जो कह रहे हो, क्या यह सच है?’’
‘‘सच है और घातक सच है।’’
‘‘घातक?’’
‘‘आप नहीं जानते, प्रतीक्षा वहाँ उस युवक से मिलने नहीं आती थी, जिसे उसने सिगरेट की दुकान पर पहली बार देखा था और न ही उसे आपको पियानो सुनाना होता था...। वह उस युवक से मिलने आती थी, जो अपने एकान्त को एक तरफ सरका कर उसे स्पेस दे सके। आपने उसे बहुत प्रेम दिया, पर स्पेस नहीं। वह कमरा नहीं, घर चाहती थी, जो वहाँ कहीं नहीं था...। आखिर कब तक वह आप में आप और कमरे में घर ढूँढ़ती रहती? उसे तो जाना ही था।’’
‘‘यह तुम क्या कह रहे हो?’’
‘‘मैं वही कह रहा हूँ, जो वह अपने मन की स्याही से मेरी दीवारों पर लिख जाया करती थी।’’
‘‘यह सच नहीं है!’’
‘‘इस सच को यदि आप पहचान जाते, तो भटकने के लिए मुझसे विलग होकर बाहर नहीं जाना पड़ता... या फिर शायद भटकने के कारण पैदा होने से पहले ही मर जाते।’’
‘‘तुमने यह सब मुझे पहले क्यों नहीं बताया?’’
‘‘मैंने संकेत दिए थे... जब वह अंतिम बार जा रही थी और आप उसे खिड़की से जाते हुए देख रहे थे, तब उसके पाँवों के नीचे कुछ सूखे पत्ते चरमराए थे... वह मैं ही था, सूखे पत्ते बन कर बिछा हुआ, कि आप मेरी कराह पहचान सकें और उसे वह दे दें, जो वह आपसे चाहती थी... पर वह अपने विदा के भारी पाँव दूर ले जाती रही और आपने उसे रोका तक नहीं!’’
‘‘मैं कैसे रोकता! उसने तो कह दिया था कि अब वह मुझसे कभी कोई बात नहीं करना चाहती।’’
‘‘तो क्या कोशिश भी नहीं करनी चाहिए थी?’’
‘‘तुम जानते हो, मैंने कोशिश की थी, लेकिन वे व्यर्थ गईं।’’
‘‘और फिर कापुरुष की तरह उसके निर्णय को स्वीकार कर लिया?’’
‘‘मैं उसके निर्णय की इज्जत करना चाहता था।’’
‘‘पर उसके मन को पढ़ना नहीं... मुझमें अकेले रहते-रहते आप मेरी तरह बेजान हो गए हैं।’’
‘‘क्या मैं मर चुका हूँ?’’
इस बार वह चुप रहा, मानो कुछ टटोल रहा हो। फिर उसका बुझा हुआ स्वर मुझ तक लुढ़क कर आया, ‘‘अब मैं चलता हूँ... मेरा भी आपसे यह अंतिम संवाद है।’’
और मैं वहीं रह गया था, अवाक्।
***
इक्कावन
इसका अर्थ यह हुआ कि वह अपना एक हिस्सा हमेशा ताले में बंद रखती थी, जिसकी चाबी घर छोड़ कर आया करती थी। वह ऐसा क्यों करती थी, इस प्रश्न का उत्तर मुझे कभी नहीं मिला। जबकि मेरे पास ऐसा कुछ नहीं था, जिसे छिपा सकूँ या बचा सकूँ। मैंने अपने आप को समग्र रूप में उसके सामने रख दिया था... ऐसे में, जब छिपाने के लिए कुछ न हो, तो ताला अपने अर्थ खोकर निर्जीव वस्तु बन जाता है।
‘‘क्या तुम अपना कुछ घर पर भूल आई हो?’’
‘‘नहीं तो!’’
‘‘फिर तुम इतनी खाली-खाली क्यों लग रही हो?’’
‘‘खाली होकर आई हूँ, ताकि तुम्हारे पास से कुछ ले जा सकूँ।’’
‘‘मेरे पास कुछ खुशनुमा लम्हे हैं, कुछ अछूती खुशबुएँ और कुछ आत्मीय सपने भी हैं...।’’
‘‘और....?’’
‘‘और मदमाता स्पर्श भी है... तुम्हें क्या चाहिए?’’
‘‘पर मैं तो भीगना चाहती हूँ... इन सबसे।’’
‘‘तो फिर अपनी छतरी फेंक कर खुले आकाश तले चली आओ।’’
जब वह पास होती थी, मैं उसे थामे रखना चाहता था और उस समय को भी, जो उसके आते ही जाने की जल्दी मचाया करता था। पर न तो वह थमती थी और न ही समय। हम दोनों के बीच एक द्वंद्व-सा चलने लगता था, जिसमें जीत हमेशा उसी की होती थी। समय को जीतते हुए देखना कोई सुखकर प्रतीति नहीं होती। बहुधा यह अहसास तोड़ दिया करता है। मैं भी अनेक बार टूटा था और तब तक टूटता रहा था, जब तक कि अंतिम बार टूट नहीं गया था।
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बावन
क्या मैं किसी अ-नाटक का नाटकीय पात्र भर था? क्या हालातों ने मुझे उस रास्ते पर धकेल दिया था, जहाँ मुझे जाना नहीं था? यदि दिशाओं का अलग होना तय था, तो फिर हम मिले ही क्यों थे?
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तिरेपन
मैंने अचानक ही उसे देखा और उस ओर मुड़ गया। मुड़ना आवश्यक नहीं था, पर दिशा बदलना जरूरी था। वह एक सफेद मूर्ति थी, शायद माँ मरियम की, पत्थरों के मौजेक के बीचों-बीच स्थापित, जो चर्च के बाहरी आहते में लगी हुई थी। वे अपनी करुणामय आँखों से मुझे देख रही थीं। उनके होंठ चुप थे पर आँखें बोल रही थीं। वे मुझे क्षमा करना चाहती थीं, उन सब अपराधों के लिए, जो मैंने किए थे और उन अपराधों के लिए भी, जो मैं आने वाले समय में करने वाला था।
यह पहली बार था, जब मैं कल शाम के हादसे से बाहर निकल कर कुछ अतिरिक्त महसूस कर पा रहा था। पहली बार मैं एक दायरे से दूसरे दायरे में आ पाया था। पहली बार पीड़ा ने एक ओर सरक कर हल्की-सी राहत दी थी।
मैं उनके सामने जाकर खड़ा हो गया, निर्विकार भाव से। यहाँ तक कि प्रार्थना करने जैसा कोई भाव भी मेरे मन में नहीं था। मैं बस उन्हें पास से देखना चाहता था। उस अपार करुणा को निकट से महसूस करना चाहता था, जो उनकी आँखों से चलकर मुझ तक पहुँच रही थी। दायीं ओर ढलती हुई शाम की अंतिम धूप के कुछ टुकडे़ पास वाले पेड़ों से छन कर उनके पैरों में बिछे हुए थे। वहाँ काफी हरी घास थी और थी ढेर सारी फुलवारी। बांयी ओर घनी बोगनबेलिया की बेल अपने गहरे गुलाबी फूलों के साथ छायी हुई थी। लगा, जैसे प्रकृति ने उनका शृंगार किया हुआ हो। प्रकृति के अतिरिक्त किसी में इतना सामथ्र्य था भी नहीं कि उनका शृंगार कर पाता।
वह शाम इतिहास के इस ओर खड़ी हुई थी।
‘‘आप किसी को ढूँढ रहे हैं?’’ एक बूढ़ा-सा व्यक्ति मेरे पास आ गया था। उसकी लम्बी सफेद दाढ़ी इतनी उज्ज्वल थी, मानो उसने उसे धूप से उजास लेकर रंग रखा हो। चेहरे की सलवटें उसकी पकी उम्र का पता दे रही थीं।
‘‘नहीं... मैं तो दरवाजा खुला देखकर यूँ ही चला आया था।’’
‘‘ओह! लगता है, मैं बंद करना भूल गया था... इस उम्र में ऐसी गलतियाँ हो जाती हैं।’’
‘‘तो क्या मैं चला जाऊँ ?’’
‘‘नहीं, आप रुक सकते हैं... चर्च के दरवाजे कभी बंद नहीं होते। मेन गेट बंद हो जाए, तो भी बराबर वाला छोटा दरवाजा हमेशा खुला रहता है।’’ पल भर के लिए वह रुका, ‘‘अक्सर यहाँ आने वाले पहले ही अपने आने की सूचना दे देते हैं... क्या आप भी इसी काम से आए हैं?’’
‘‘किस काम से?’’
वह चुप रहा। इस बार उसकी आँखों में विस्मय उतर आया था। वे फैल कर चौड़ी हो गईं थीं, मानो उन्होंने कोई विचित्र घटना देख ली हो। मैं उससे कहना चाहता था कि अब मेरे लिए ऐसा कुछ भी नहीं बचा है, जिस पर विस्मय किया जा सके। विस्मय को विस्मय ने विस्मय की दहलीज पर रोक रखा था। वैसे भी एक सीमा के बाद आदमी के सामने विस्मय नहीं घटता, वह स्वयं घटने लगता है, जलती हुई मोमबत्ती की तरह, जिसका घटना कोई भी रोक नहीं सकता। मेरा घटना भी कल शाम की घटना के बाद ही शुरू हो गया था।
उसने एक दीर्घ उसाँस ली। मुझे लगा, जैसे वह उसाँस उसके अपने लिए नहीं होकर मेरे लिए हो। तो क्या वह मेरा दु:ख जानता था! जबकि सच तो यह है कि उस दु:ख को ठीक-ठीक अब तक मैं भी नहीं जानता था। मैं बस उससे उपजी पीड़ा को जानता था, जो कल शाम से मेरे साथ त्वचा-सी चिपक गई थी। दु:ख अलग था और उससे उपजी पीड़ा अलग। मैं उन्हें अलग-अलग महसूस कर सकता था।
सहसा वह मूर्ति की ओर घूमा। संभव है, वह भी अनायास उपस्थित हुई उस दारुण स्थिति से निजात पाना चाहता हो! उसने अपने सीने पर क्रॉस अंकित किया और गले में पहनी माला को चूमा...। शायद उसने भी घास पर धूप के चहबच्चों को देखा होगा, जो माँ मरियम की करुणामय दृष्टितले हवा के साथ इधर-उधर डोल रहे थे।
‘‘आप यहाँ काम करते हैं?’’ मैंने पूछा। इसलिए नहीं कि मेरे लिए यह जानना आवश्यक था, बल्कि इसलिए, ताकि वहाँ सहसा उग आयी खामोशी को तोड़ा जा सके। इसलिए भी, कि या तो वह मुझसे संवाद करे या एक बार फिर मुझे अपने साथ अकेला छोड़ कर चला जाए.
‘‘मैं यहाँ का गार्ड हूँ।’’ वह मेरी ओर घूमा, ‘‘आप शायद यहाँ कुछ देर ठहरना पसंद करें... मैं वहाँ उस आउट हाउस में रहता हूँ। यदि मेरी आवश्यकता पड़े, तो बेझिझक बुला लें।’’
‘‘मैं अधिक देर तक नहीं ठहरूँगा... आपको तकलीफ देने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।’’
उसने संदिग्ध निगाहों से मुझे देखा, जैसे मुझसे अधिक वह जानता हो कि मैं वहाँ कितनी देर ठहरने वाला था, पर फिर वह तुरंत ही चला गया, उस ओर, जहाँ अभी उसकी अँगुली हवा में उठी हुई थी। क्या सचमुच उसने मुझे पढ़ लिया था? क्या वह जानता था कि मेरे मन में कितनी उथल-पुथल मची हुई थी? क्या वह कोई समाधान था, जो मेरे पास खुद चल कर आया था?
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चौवन
एक बार फिर मैं अकेला रह गया था। मैं अकेला रहना चाहता भी था। अकेले रहना कोई गुनाह नहीं होता। ध्यान देने वाली बात तो यह है कि आप अकेले होकर भी अकेले नहीं रह सकते। आपका आप आपको अकेले रहने नहीं देता। अकेलापन ही प्राय: उन संवादों को जन्म दिया करता है, जो आप किसी दूसरे से कभी नहीं कर सकते। ये संवाद किसी पागल का नीम बेहोशी में किया गया प्रलाप नहीं होता, बल्कि स्वयं से किया गया सार्थक वार्तालाप होता है।
मैंने धूप के चहबच्चों को अंतिम बार देखा और चर्च के मुख्य द्वार पर चला आया। वह शायद मेरे लिए ही खुला छोड़ दिया गया था। मैंने अपनी देह को अपने कन्धों पर उठाया और अन्दर चला गया। वहाँ कोई नहीं था। सारा चर्च खाली पड़ा हुआ था। चर्च का खालीपन मेरे खालीपन का ही प्रतिरूप था। क्या मैं अपने भीतर आ गया था?
लकड़ी की बैंचें अपने सूनेपन के साथ मुझे ताक रही थीं। सामने आल्टर पर अब भी कुछ कैण्डल जली हुई थीं... और वे अपनी करुण आँखों से मुझे देख रहे थे। उनकी देह सलीब पर बिंधी हुई थी और हाथ-पाँवों से लहू रिस रहा था। सबसे अधिक यातनामय था काँटों का ताज। आदमी देह पर लगी चोटें बर्दाश्त कर सकता है, पर मन पर लगी चोटें नहीं।
मेरी अपनी पीड़ा सहसा छोटी पड़ गई थी। छोटी भी और ओछी भी। मैं उनकी पीड़ा बाँटना चाहता था. पर यह संभव नहीं था। सभी को अपनी पीड़ा खुद भुगतनी पड़ती है, चाहे वह हम हों या ईश्वर। अन्तर यह था कि मेरी पीड़ा सिर्फ मेरे अपने लिए थी, जबकि उनकी पीड़ा सिर्फ दूसरों के लिए।
स्वत: ही मैं घुटनों के बल झुक गया। हाथ भी स्वत: ही जुड़ गए थे। किसी त्राण के लिए नहीं, मुक्ति के लिए भी नहीं और न ही प्रार्थना के लिए। वे झुके थे क्योंकि झुकना चाहते थे। मैं अपनी चाहना के आगे चाहना के कारण झुका हुआ था। यह झुकना त्राण से अलग था, मुक्ति से भी और प्रार्थना से भी।
सलीब के ठीक पीछे एक रंगीन काँच की बड़ी-सी खिड़की थी, जो धूप बाहर माँ मरियम के पाँव तले बिछी हुई थी, वही धूप उनके पीछे सिर पर गिर रही थी। एक ऑरा सा बन गया था, जिसने उन्हें एक दिव्य पुरुष में बदल दिया था... खाली चर्च, सूनी बैंचें, बुझती हुई कैण्डल्स, सलीब पर लटकी काया...। मैं अपने आप को भूल गया था, अपनी पीड़ा भूल गया था, अपना होना भूल गया था। मैं सब कुछ कबूल करना चाहता था। वे गुनाह, जो मैंने किए थे, वे भी, जिन्हें मैं कर सकता था और वे भी, जिन्हें मैं करूँगा।
मैंने देखा कि कन्फेशन बॉक्स खाली पड़ा था। लकड़ी की नक्काशीदार जाली के उस तरफ, जहाँ फादर को होना चाहिए था, वहाँ भी मैं ही था। मेरा कन्फेशन अपने से था।
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पचपन
‘‘मैं कन्फेस करता हूँ कि मैं इस योनि के लिए मिसफिट हूँ। मुझे शाम की सुनहरी आभा के रूप में जन्म लेना चाहिए था या फिर चाँदनी रात की खामोशी के रूप में...। मैं गीत के रूप में भी जन्म ले सकता था, तब स्वयं को समझ पाना आसान हो जाता अथवा धुन के रूप में, क्योंकि तब मैं अपनी राग खुद बन सकता था। मैं खिड़की भी हो सकता था, जिसकी सरहद पर खड़े होकर एक साथ कमरे के बाहर और भीतर हुआ जा सकता है। सबसे अच्छा तो तब होता, जब मैं एक अहसास भर होता, अपने लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी।
पर ऐसा हो न सका और मैं गुनाह पर गुनाह करता चला गया। अगर इन्सान सचमुच एक इन्सान है, तो उसका यह हक बनता है कि वह गुनाह करे। मैंने भी किए। मैं गुनाह नहीं करके ईश्वर नहीं बनना चाहता था। ईश्वर को पाया नहीं जा सकता, पर मैं चाहता था कि कोई मुझे पाए और मैं किसी को। यह चाहना ही असीम पीड़ा का कारण बनी क्योंकि मैं उसे एक धुन की तरह नहीं चाह सका। उस गीत का अर्थ भी नहीं समझ सका, जिसे समझना उसके साथ जीने की पहली शर्त थी। मैं बस सिगरेट का धुँआ बन कर रह गया, जिसकी नियति ही उड़ कर मिट जाना होती है। मैं भी मिटने की प्रक्रिया से गुजर रहा हूँ। मिटना अवश्यंभावी है। एक दिन उसने कहा भी था, कोई दूसरा रास्ता नहीं है।’’
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छप्पन
चर्च के पीछे पहुँच कर मैं हैरान रह गया। वहाँ एक सिमिट्री थी, दूर तक फैली हुई। कब्रें ही कब्रें। अपने सीने पर क्रॉस उठाए हुए। घने पेड़ों और घास के बीच अपना अस्तित्व कायम रखे हुए। सलीके से बनी हुईं, मानो ज्योमेट्री बॉक्स की मदद से बनाया गया हो।
मैं एक छोर पर खड़ा उन्हें अपलक देखता रहा। मृतकों की अपनी दुनिया होती है, जहाँ उनकी जिन्दगी में न तो आप दखल दे सकते हैं और न ही वे आपकी जिन्दगी में। मेरा अपना वहाँ कोई नहीं था, पर मानो मेरे ही हिस्से प्रत्येक कब्र में बिखरे हुए थे। वहाँ धूप के बचे हुए टुकड़े भी थे। जब हवा चलती, पेड़ों की डालियों के साथ वे भी हिलने लगते। कब्रों पर हलचल सी मच जाती, जीवन की हलचल की ही तरह जीवन्त।
‘‘आप यहाँ हैं? मैं आपको सब जगह ढूँढ़ आया हूँ।’’ बूढ़ा गार्ड अचानक से प्रकट हो गया था। वह उस जगह का कोना-कोना पहचानता था। किसी को ढूँढ़ना उसके लिए मुश्किल काम नहीं था।
‘‘मैं जानता था, आप इसी काम के लिए आए होंगे। क्या, किसी की डेथ हो गई है?’’ उसकी सफेद दाढ़ी धूप में चमकने लगी थी.
‘‘हाँ... मेरी।’’
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